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अंतर्राष्ट्रीय संबंध

श्रीलंका गृहयुद्ध और मानवाधिकार संरक्षण

  • 28 Feb 2020
  • 6 min read

प्रीलिम्स के लिये:

संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव से अलग होने का श्रीलंका का निर्णय

मेन्स के लिये:

निर्णय का प्रभाव और श्रीलंका का गृहयुद्ध

चर्चा में क्यों?

श्रीलंका ने युद्धोत्तर जवाबदेही एवं सुलह पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से स्वयं को अलग करने की आधिकारिक घोषणा की है। श्रीलंका के विदेश मंत्री के अनुसार, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद को इस संदर्भ में आधिकारिक सूचना दे दी गई है।

क्या है संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव?

  • दरअसल श्रीलंका के गृहयुद्ध (वर्ष 2009) के अंतिम दौर में श्रीलंकाई सेना पर लगभग 45000 से अधिक निर्दोष लोगों की हत्या और मानवाधिकारों का उल्लंघन करने का आरोप लगा था।
    • ज्ञात हो कि श्रीलंका के मौजूदा राष्ट्रपति, गोतबाया राजपक्षे गृह युद्ध के दौरान श्रीलंका के रक्षा सचिव थे और उनके भाई महिंदा राजपक्षे उस समय श्रीलंका के राष्ट्रपति थे।
  • इसी विषय को लेकर वर्ष 2015 में गृहयुद्ध के 6 वर्षों बाद तत्कालीन श्रीलंकाई सरकार ने 11 अन्य देशों के साथ मिलकर संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद में एक प्रस्ताव को सह-प्रायोजित किया था, जिसमें श्रीलंका के गृहयुद्ध के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों की जाँच की बात कही गई।
    • इस प्रस्ताव में व्यापक सुधारों और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के माध्यम से श्रीलंका में घरेलू जवाबदेही तंत्र विकसित करने का प्रावधान है।
    • प्रस्ताव के अनुसार, श्रीलंका राष्ट्रमंडल और अन्य विदेशी न्यायाधीशों, बचाव पक्ष के वकीलों और जाँचकर्त्ताओं की भागीदारी के साथ एक विश्वसनीय न्यायिक प्रक्रिया स्थापित करेगा।

निर्णय का प्रभाव

  • श्रीलंका के इस कदम के परिणामस्वरूप गृहयुद्ध के दौरान मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों की निष्पक्षता से जाँच संभव नहीं हो पाएगी जिसके कारण पीड़ितों के लिये न्याय प्राप्त करना अपेक्षाकृत काफी कठिन हो जाएगा।
  • यदि स्थिति ऐसी ही रहती है तो संभव है कि गृहयुद्ध के दौरान हुई घटनाएँ श्रीलंका में एक बार पुनः देखने को मिलें।
    • संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बाचेलेट के अनुसार, कल्याणकारी राज्य का यह कर्त्तव्य है कि वह देश में सभी समुदायों को एक साथ लेकर चले, न कि किसी समुदाय विशिष्ट को।

श्रीलंका का गृहयुद्ध

  • वर्ष 1948 में ब्रिटिश शासन से स्वतंत्र होने के बाद से ही श्रीलंका या तत्कालीन ‘सीलोन’ जातीय संघर्ष का सामना कर रहा था।
  • वर्ष 2001 की सरकारी जनगणना के अनुसार, श्रीलंका की मुख्य जातीय आबादी में सिंहली (82%), तमिल (9.4%) और श्रीलंकाई मूर (7.9%) शामिल हैं।
  • सिंहलियों ने औपनिवेशिक काल के दौरान तमिलों के प्रति ब्रिटिश पक्षपात का विरोध किया और आज़ादी के बाद के वर्षों में उन्होंने तमिल प्रवासी बागान श्रमिकों को देश से विस्थापित कर दिया तथा सिंहल को आधिकारिक भाषा बना दिया।
  • वर्ष 1972 में सिंहलियों ने देश का नाम ‘सीलोन’ से बदलकर श्रीलंका कर दिया और बौद्ध धर्म को राष्ट्र का प्राथमिक धर्म घोषित कर दिया गया।
  • तमिलों और सिंहलियों के बीच जातीय तनाव और संघर्ष बढ़ने के बाद वर्ष 1976 में वेलुपिल्लई प्रभाकरन के नेतृत्व में लिट्टे (LTTE) का गठन किया गया और इसने उत्तरी एवं पूर्वी श्रीलंका, जहाँ अधिकांश तमिल निवास करते थे, में ‘एक तमिल मातृभूमि’ के लिये प्रचार करना प्रारंभ कर दिया।
  • वर्ष 1983 में लिट्टे ने श्रीलंकाई सेना की एक टुकड़ी पर हमला कर दिया, इसमें 13 सैनिकों की मौत हो गई। विदित है कि इस घटनाक्रम से श्रीलंका में दंगे भड़क गए जिसमें लगभग 2,500 तमिल लोग मारे गए।
  • इसके पश्चात् श्रीलंकाई तमिलों और बहुसंख्यक सिंहलियों के मध्य प्रत्यक्ष युद्ध शुरू हो गया। ध्यातव्य है कि भारत ने श्रीलंका के इस गृहयुद्ध में सक्रिय भूमिका निभाई और श्रीलंका के संघर्ष को एक राजनीतिक समाधान प्रदान करने के लिये वर्ष 1987 में भारत-श्रीलंका समझौते पर हस्ताक्षर किये।
  • भारत ने ऑपरेशन पवन के तहत लिट्टे को समाप्त करने के लिये श्रीलंका में इंडियन पीस कीपिंग फोर्स (IPKF) तैनात कर दी। हालाँकि हिंसा बढ़ने के 3 वर्षों बाद ही IPKF को वहाँ से हटा दिया गया।

निष्कर्ष

श्रीलंका सरकार का युद्धोत्तर जवाबदेही एवं सुलह पर संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से स्वयं को अलग करने का निर्णय स्पष्ट तौर पर मानवाधिकार संरक्षण को लेकर वैश्विक समुदाय के प्रयासों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा। आवश्यक है कि श्रीलंकाई सरकार अपने निर्णय पर पुनर्विचार करे ताकि मानवाधिकार संरक्षण के प्रयासों को कमज़ोर होने से बचाया जा सके।

स्रोत: द हिंदू

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