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जैव विविधता और पर्यावरण

क्लाइमेट फाइनेंस के लिये BASIC का दबाव

  • 21 Nov 2018
  • 10 min read

चर्चा में क्यों?

दिसंबर 2018 में संयुक्त राष्ट्र का कॉन्फ्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ (Conference of Parties- COP) की 24वीं बैठक से पहले दिल्ली में ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन (Brazil, South Africa, China and India- BASIC) के पर्यावरण मंत्रियों और शीर्ष जलवायु परिवर्तन वार्ताकारों के बीच बैठक का आयोजन किया गया। उल्लेखनीय है कि BASIC चार देशों ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन का समूह है जिसका गठन वर्ष 2009 में हुआ था।

प्रमुख बिंदु

  • BASIC समूह के देशों ने विकसित देशों से विकासशील देशों को वर्ष 2020 तक क्लाइमेट फाइनेंस के रूप में हर साल 100 बिलियन डॉलर प्रदान करने की प्रतिबद्धता को पूरा करने की मांग की। BASIC समूह में शामिल देशों का मानना है कि अभी तक विकसित देशों द्वारा वास्तव में इस राशि का केवल एक अंश ही प्रदान किया गया है।
  • इसके अलावा BASIC समूह के देशों ने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि यदि विकसित देश अपनी प्रतिबद्धता को 2020 तक पूरा नहीं कर पाते हैं तो इसे आगे भी जारी रखा जाए।
  • इस बैठक के बाद BASIC समूह के देशों के बीच COP-24 तथा G-77 सहित अन्य कई मंचों पर पर्यावरण संरक्षण संबंधी प्रतिबद्धताओं का पालन करते विकासशील देशों के हितों के संरक्षण की आवाज़ एकजुट होकर उठाने पर सहमति बनी है।
  • BASIC समूह के देशों ने विकसित देशों को वित्तीय समर्थन को बढ़ाने के लिये प्रोत्साहित किया और NDCs (Nationally Determined Contributions) के माध्यम से भविष्य की कार्रवाई के लिये पार्टियों को सूचित करने हेतु नए सामूहिक वित्तीय लक्ष्य को अंतिम रूप देने की मांग की। NDCs का तात्पर्य जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन हेतु उत्सर्जन को कम करने के लिये देशों द्वारा की गईं प्रतिबद्धताओं से है

भारत का राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (india’s Nationally Determined Contribution)

  • पेरिस समझौते के अंतर्गत राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contribution) की संकल्पना को प्रस्तावित किया गया है, इसमें प्रत्येक राष्ट्र से यह अपेक्षा की गई है कि वह ऐच्छिक तौर पर अपने लिये उत्सर्जन के लक्ष्यों का निर्धारण करे। 
  • एन.डी.सी. राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों (Nationally Determined Contributions -NDCs) का बिना शर्त क्रियान्वयन और तुलनात्मक कार्यवाही के परिणामस्वरूप पूर्व औद्योगिक स्तरों के सापेक्ष वर्ष 2100 तक तापमान में लगभग 2⁰C की वृद्धि होगी, जबकि यदि राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदानों का सशर्त कार्यान्वयन किया जाएगा तो इसमें कम-से-कम 0.2% की कमी आएगी। 
  • जीवाश्म ईंधन और सीमेंट उत्पादन का ग्रीनहाउस गैसों में 70% योगदान होता है। रिपोर्ट में 2030 के लक्षित उत्सर्जन स्तर और 2⁰C और 5⁰C के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये अपनाए जाने वाले मार्गों के बीच विस्तृत अंतराल है।
  • वर्ष 2030 के लिये सशर्त और शर्त रहित एनडीसी के पूर्ण क्रियान्वयन हेतु तापमान में 2⁰C की बढ़ोतरी 11 से 5 गीगाटन कार्बन-डाइऑक्साइड के समान है।

ग्लोबल एन्वायरनमेंट फेसिलिटी (GEF)

  • इसका गठन वर्ष 1991 में किया गया था।
  • यह विकासशील व संक्रमणशील अर्थव्यवस्थाओं को जैव विविधता, जलवायु परिवर्तन, अंतर्राष्ट्रीय जल, भूमि अवमूल्यन, ओजोन क्षरण, पर्सिसटेन्ट आर्गेनिक प्रदूषकों के संदर्भ में परियोजनाएँ चलाने के लिये वित्तपोषित करता है।
  • इससे प्राप्त धन अनुदान व रियायती फंडिंग के रूप में आता है।
  • यह फेसिलिटी यू.एन. अभिसमय के तहत् दो अन्य कोषों- लीस्ट डेवलप्ड कंट्रीज़ फंड (LDCF) और स्पेशल क्लाइमेट चेंज फंड (SCCF) को प्रशासित करता है।

अल्पविकसित देश कोष (LDCF)

  • इस कोष का गठन अल्पविकसित देशों को‘नेशनल एडैप्टेशन प्रोग्राम्स ऑफ एक्शन’ (NAPAs) के निर्माण व क्रियान्वयन में सहायता करने के लिये किया गया था।
  • एनएपीए के ज़रिये अल्पविकसित राष्ट्रों के एडैप्टेशन एक्शन की वरीयता की पहचान की जाती है।
  • इस कोष के तहत अल्पविकसित देशों को कृषि, प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, जलवायु सूचना सेवाएं, जल संसाधन प्रबंधन, तटीय क्षेत्र प्रबंधन, आपदा प्रबंधन आदि नज़रिये से मूल्यांकित किया जाता है।

विशेष जलवायु परिवर्तन कोष (SCCF)

  • इस कोष का गठन यूएनएफसीसीसी के तहत् वर्ष 2001 में किया गया था। इसे एडैप्टेशन, तकनीकी हस्तांतरण, क्षमता निर्माण, ऊर्जा, परिवहन, उद्योग, कृषि, वानिकी और अपशिष्ट प्रबंधन एवं आर्थिक विविधीकरण से संबंधित परियोजनाओं के वित्तीयन के लिये गठित किया गया था।
  • यह जीवाश्म ईंधन से प्राप्त आय पर अत्यधिक निर्भर देशों में आर्थिक विविधीकरण (Economic Diversification) व जलवायु परिवर्तन राहत हेतु अनुदान देता है।

एडैप्टेशन फंड

  • इस कोष का गठन भी वर्ष 2001 में किया गया था। इसका उद्देश्य 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल के साझेदार विकासशील देशों में ठोस एडैप्टेशन परियोजनाओं व कार्यक्रमों का वित्तपोषण करना था।
  • ऐसे राष्ट्रों पर विशेष ध्यान दिया जाता है जो जलवायु परिवर्तन के सर्वाधिक गंभीर खतरों का सामना कर रहे हैं।
  • इस कोष को राशि क्लीन डेवलपमेंट मेकेनिज्म (CDM) से प्राप्त होती है। एक सीडीएम प्रोजेक्ट गतिविधि के लिये जारी ‘सर्टीफाइड एमीशन रिडक्शन (CERs) का 2 प्रतिशत इस कोष में जाता है।

हरित जलवायु कोष (GCF)

  • यह यूएनएफसीसीसी के तहत् एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्था है।
  • वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में हरित जलवायु कोष के गठन का प्रस्ताव किया गया था जिसे 2011 में डरबन में हुए सम्मेलन में स्वीकार कर लिया गया।
  • यह कोष विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिये सहायता राशि उपलब्ध कराता है।
  • कोपेनहेगेन व कॉनकून समझौते में विकसित देश इस बात पर सहमत हुए थे कि वर्ष 2020 तक लोक व निजी वित्त के रूप में हरित जलवायु कोष के तहत् विकासशील देशों को 100 बिलियन डॉलर उपलब्ध कराया जाएगा।
  • वहीं 19वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (वारसा में) में 2016 तक 70 बिलियन डॉलर देने का लक्ष्य तय किया गया जिसे विकासशील राष्ट्रों ने अस्वीकार किया था।
  • उल्लेखनीय है कि नवंबर 2010 में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के 16वें सत्र (Cop-16) में स्टैडिंग कमिटी ऑन फाइनेंस के गठन का निर्णय किया गया था ताकि विकासशील देशों की जरूरतों का ध्यान रखा जा सके।

कॉन्फ्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ (Conference of Parties-COP)

  • यह संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (United Nations Framework Convention on Climate Change-UNFCC) के हस्ताक्षरकर्त्ता देशों (कम-से-कम 190 देशों) का एक समूह है, जो हर साल जलवायु परिवर्तन से संबंधित मुद्दों को हल करने के उपायों पर चर्चा करने के लिये बैठक आयोजित करता है।

स्रोत : द हिंदू

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