घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2022-23
प्रिलिम्स के लिये:घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, सकल घरेलू उत्पाद, उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति, नीति आयोग, मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय, सी. रंगराजन समिति मेन्स के लिये:हाल में किये गए घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण की मुख्य विशेषताएँ |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय ने अगस्त 2022 से जुलाई 2023 के दौरान किये गए अखिल भारतीय घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण के परिणामों का प्रकटीकरण किया।
सर्वेक्षण से संबंधित प्रमुख बिंदु क्या हैं?
- परिचय: घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण प्रत्येक 5 वर्ष में राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा आयोजित किया जाता है।
- इसे परिवारों द्वारा वस्तुओं और सेवाओं के उपभोग से संबंधित जानकारी एकत्र करने के लिये अभिकल्पित किया गया है।
- HCES में एकत्र किये गए डेटा का उपयोग सकल घरेलू उत्पाद, निर्धनता दर और उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति जैसे विभिन्न अन्य व्यापक आर्थिक संकेतक प्राप्त करने के लिये भी किया जाता है।
- नीति आयोग के अनुसार हाल ही में किये गए उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण से संकेत मिलता है कि देश में निर्धनता घटकर 5% पर आ गई है।
- सरकार द्वारा वर्ष 2017-18 में आयोजित अंतिम HCES के निष्कर्ष के संबंध में "डेटा गुणवत्ता" संबंधी मुद्दों का हवाला देते हुए सरकार ने परिणाम जारी नहीं किये थे।
- उत्पन्न जानकारी: यह सर्वेक्षण वस्तुओं (खाद्य और गैर-खाद्य वस्तुओं सहित) और सेवाओं दोनों के संबंध में सामान्य व्यय की जानकारी प्रदान करता है।
- इसके अतिरिक्त यह घरेलू मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय के अनुमानों का आकलन करने और विभिन्न MPCE श्रेणियों में घरों तथा व्यक्तियों के वितरण का विश्लेषण करने में सहायता प्रदान करता है।
- सर्वेक्षण की मुख्य विशेषताएँ: इस सर्वेक्षण में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना जैसे विभिन्न सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के माध्यम द्वारा प्रदत्त निःशुल्क वस्तुओं के मूल्य आँकड़ों को शामिल किये बिना परिवारों की औसत मासिक प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय का अनुमान तैयार किया गया।
- MPCE में वृद्धि: सर्वेक्षण के अनुसार वर्ष 2011-12 के बाद से शहरी परिवारों में MPCE में 33.5% की वृद्धि हुई जो वर्तमान में ₹3,510 हो गई है जबकि ग्रामीण भारत के MPCE में 40.42% की वृद्धि के साथ यह ₹2,008 हो गया है।
- सत्र 2022-23 में ग्रामीण घरेलू व्यय का 46% और शहरी घरेलू व्यय का 39% खाद्य पदार्थों पर हुआ था।
- जनसंख्या प्रतिशत के आधार पर MPCE का वितरण: MPCE द्वारा रैंक किये गए भारत की ग्रामीण आबादी के निचले 5% का औसत MPCE 1,373 रुपए है, जबकि शहरी क्षेत्रों में समान श्रेणी की आबादी के लिये यह 2,001 रुपए है।
- MPCE द्वारा रैंक किये गए भारत की ग्रामीण और शहरी आबादी के शीर्ष 5% का औसत MPCE क्रमशः 10,501 रुपए तथा 20,824 रुपए है।
- राज्य के आधार पर MPCE भिन्नताएँ: सिक्किम में ग्रामीण (₹7,731) और शहरी क्षेत्रों (₹12,105) दोनों में उच्चतम MPCE है, जबकि छत्तीसगढ़ में ग्रामीण परिवारों के लिये ₹2,466 तथा शहरी परिवारों के लिये ₹4,483 के साथ MPCE सबसे न्यून है।
- राज्यों में औसत MPCE में ग्रामीण-शहरी अंतर मेघालय (83%) में सबसे अधिक है, इसके बाद छत्तीसगढ़ (82%) है।
- केंद्रशासित प्रदेश के आधार पर MPCE भिन्नताएँ: केंद्रशासित प्रदेश में MPCE चंडीगढ़ में सबसे अधिक है (ग्रामीण 7,467 रुपए और शहरी 12,575 रुपए), जबकि, ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों के लिये यह क्रमशः लद्दाख (4,035 रुपए) तथा लक्षद्वीप (5,475 रुपए) में सबसे कम है।
- खाद्य व्यय रुझान: वर्ष 1999-2000 के सर्वेक्षण के बाद से, भोजन पर व्यय का हिस्सा धीरे-धीरे कम हो गया है और शहरी व ग्रामीण दोनों परिवारों के लिये गैर-खाद्य वस्तुओं का हिस्सा बढ़ गया है।
- खाद्य व्यय में गिरावट को आय में वृद्धि के रूप में समझा जाता है, जिसका अर्थ है चिकित्सा, वस्त्र, शिक्षा, वाहन, धारणीय वस्तुएँ, ईंधन, मनोरंजन जैसे अन्य व्यय के लिये अधिक धन होना।
- हालिया सर्वेक्षण परिणाम से पता चला है कि ग्रामीण एवं शहरी दोनों घरों में कुल खाद्य उपभोग व्यय में अनाज और दालों की हिस्सेदारी कम हो रही है।
- गैर-खाद्य वस्तुओं में, परिवहन पर व्यय का हिस्सा सबसे अधिक था।
- वर्ष 2022-23 तक गैर-खाद्य वस्तुओं में ईंधन और प्रकाश पर सबसे अधिक खपत खर्च होता था।
राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय क्या है?
- परिचय: वर्ष 2019 में केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (CSO) एवं राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (NSSO) को विलय करके गठित किया गया।
- सी. रंगराजन समिति ने सबसे पहले सभी प्रमुख सांख्यिकीय गतिविधियों के लिये नोडल निकाय के रूप में NSO की स्थापना का सुझाव दिया था।
- यह वर्तमान में सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) के अंतर्गत कार्य करता है।
- कार्य: विश्वसनीय, वस्तुनिष्ठ एवं प्रासंगिक सांख्यिकीय डेटा एकत्र, संकलित और प्रसारित करता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. एन.एस.एस.ओ. के 70वें चक्र द्वारा संचालित ‘‘कृषक-कुटुम्बों की स्थिति आकलन सर्वेक्षण’’ के अनुसार निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:
उपर्युक्त कथनाें में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 2 और 3 उत्तर: (c) प्रश्न. किसी दिये गए वर्ष में भारत में कुछ राज्यों में आधिकारिक गरीबी रेखाएँ अन्य राज्यों की तुलना में उच्चतर हैं, क्योंकि- (2019) (a) गरीबी की दर अलग-अलग राज्य में अलग-अलग होती है। उत्तर : (b) |
राज्यसभा चुनाव
प्रिलिम्स के लिये:क्रॉस वोटिंग, संविधान का अनुच्छेद 80, विधानसभा, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 मेन्स के लिये:राज्यसभा चुनाव, सरकारी नीतियाँ और विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये हस्तक्षेप एवं उनके डिजाइन तथा कार्यान्वयन से उत्पन्न होने वाले मुद्दे |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश तथा कर्नाटक जैसे राज्यों में राज्यसभा चुनावों में विभिन्न दलों के विधायकों (विधानसभा सदस्य) द्वारा क्रॉस-वोटिंग की गई। इससे एक बार पुनः चुनाव प्रक्रिया की पवित्रता को लेकर चिंताएँ बढ़ गई हैं।
राज्यसभा चुनाव कैसे होते हैं?
- पृष्ठभूमि:
- संविधान के अनुच्छेद 80 के अनुसार, राज्यसभा के लिये प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधियों को उनकी विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाता है।
- राज्यसभा हेतु मतदान की आवश्यकता तभी होगी, जब उम्मीदवारों की संख्या रिक्तियों की संख्या से अधिक हो।
- वर्ष 1998 तक राज्यसभा चुनावों के परिणाम आमतौर पर पहले से तय होते थे, राज्य विधानसभा में बहुमत वाली पार्टियों के पास प्रतिस्पर्द्धा की कमी के चलते प्रायः उनके उम्मीदवार निर्विरोध विजयी होते थे।
- जून, 1998 में महाराष्ट्र में राज्यसभा चुनाव में क्रॉस-वोटिंग हुई, जिसके परिणामस्वरूप कॉन्ग्रेस पार्टी के उम्मीदवार को हार का सामना करना पड़ा।
- जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन:
- विधायकों पर इस तरह की क्रॉस वोटिंग पर लगाम लगाने के लिये वर्ष 2003 में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन किया गया।
- अधिनियम की धारा 59 में यह प्रावधान करने के लिये संशोधन किया गया कि राज्यसभा के चुनाव में मतदान खुले मतपत्र के माध्यम से होगा।
- मतपत्र को अधिकृत अभिकर्त्ता को न दिखाने या किसी अन्य को न दिखाने से वोट अयोग्य हो जाएगा।
- अधिकृत अभिकर्त्ता को या किसी अन्य को मतपत्र न दिखाने पर वोट को अयोग्य माना जाएगा।
- निर्दलीय विधायकों को अपने मतपत्र किसी को दिखाने से रोका गया है।
- विधायकों पर इस तरह की क्रॉस वोटिंग पर लगाम लगाने के लिये वर्ष 2003 में जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन किया गया।
- राज्यसभा में चुनाव की प्रक्रिया:
- सीट आवंटन: राज्यसभा में दिल्ली और पुदुचेरी समेत राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्यों की संख्या 250 है।
- कुल सदस्यों में से 12 को कला, साहित्य, खेल, विज्ञान आदि क्षेत्रों से प्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रपति द्वारा नामांकित किया जाता है।
- राज्यसभा सीटों का वितरण राज्यों में उनकी जनसंख्या के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिये, उत्तर प्रदेश में 31 राज्यसभा सीटों का कोटा है जबकि गोवा में सिर्फ एक है।
- अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली: राज्य विधानसभाओं के सदस्य एकल हस्तांतरणीय मत (STV) के माध्यम से आनुपातिक प्रतिनिधित्व की अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली के माध्यम से राज्यसभा सदस्यों का चयन करते हैं।
- इस प्रणाली में, प्रत्येक विधायक के मतदान का अधिकार उसके संबंधित निर्वाचन क्षेत्रों की जनसंख्या द्वारा निर्धारित किया जाता है।
- कोटा: निर्वाचित होने के लिये एक उम्मीदवार को एक विशिष्ट संख्या में वोट प्राप्त करने होंगे जिन्हें कोटा कहा जाता है। कोटा का निर्धारण कुल वैध वोटों को उपलब्ध सीटों की संख्या प्लस एक से विभाजित करके किया जाता है।
- कई सीटों वाले राज्यों में प्रारंभिक कोटा की गणना विधायकों की संख्या को 100 से गुणा करके की जाती है, क्योंकि प्रत्येक विधायक के वोट का मूल्य 100 होता है।
- प्राथमिकताएँ एवं अधिशेष:विधायक मतपत्र पर अपना नाम लिखते समय प्रत्येक उम्मीदवार के खिलाफ अपनी प्राथमिकताएँ तय करते हैं। एक संख्या 1 शीर्ष वरीयता (पहला अधिमान्य वोट) को दर्शाती है, एक संख्या 2 अगले को दर्शाती है, इत्यादि।
- यदि किसी उम्मीदवार को कोटा पूरा करने या उससे अधिक के लिये पर्याप्त प्रथम अधिमान्य वोट प्राप्त होते हैं, तो वे निर्वाचित होते हैं।
- यदि किसी विजयी उम्मीदवार के पास अधिशेष वोट हैं, तो वे वोट उनकी दूसरी पसंद (नंबर 2 के रूप में चिह्नित) को स्थानांतरित कर दिये जाते हैं। यदि कई उम्मीदवारों के पास अधिशेष है, तो सबसे बड़ा अधिशेष पहले स्थानांतरित किया जाता है।
- कम वोटों का हटाया जाना: बर्बाद वोटों को रोकने के लिये, यदि अधिशेष हस्तांतरण के बाद आवश्यक संख्या में उम्मीदवार निर्वाचित नहीं होते हैं, तो सबसे कम वोट वाले उम्मीदवार को हटा दिया जाता है और साथ ही उनके अप्रयुक्त मतपत्र शेष उम्मीदवारों के बीच पुनर्वितरित कर दिये जाते हैं।
- एक "समाप्त कागज़" एक ऐसे मतपत्र को संदर्भित करता है जिसमें आगे बने रहने वाले उम्मीदवारों के लिये कोई अन्य प्राथमिकता दर्ज नहीं की जाती है।
- अधिशेष वोट स्थानांतरण एवं उन्मूलन की यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि सभी उपलब्ध सीटों को भरने के लिये पर्याप्त उम्मीदवार कोटा तक नहीं पहुँच जाते।
- सीट आवंटन: राज्यसभा में दिल्ली और पुदुचेरी समेत राज्यों तथा केंद्रशासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्यों की संख्या 250 है।
नोट:
शैलेश मनुभाई परमार बनाम भारत निर्वाचन आयोग मामला, 2018:
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा राज्यसभा चुनाव में मतदाताओं को उपरोक्त में से कोई नहीं विकल्प देने को अस्वीकृत कर दिया।
- सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि राज्यसभा चुनाव में नोटा को लागू करना संविधान के अनुच्छेद 80(4) के विपरीत है।
- अनुच्छेद 80(4) में कहा गया है कि राज्यों की परिषद में प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधियों का चुनाव राज्य की विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार एकल संक्रमणीय वोट के माध्यम से किया जाएगा।
- सर्वोच्च न्यायालय को संविधान के अनुच्छेद 105(2) के प्रावधानों की व्याख्या करनी थी, जो सांसदों को संसद या उसकी किसी समिति में अपने भाषण के साथ-साथ वोट के लिये छूट भी प्रदान करता है।
- वर्ष 1998 के जेएमएम रिश्वत मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि रिश्वत लेने वाले राजनेताओं पर तब तक भ्रष्टाचार के लिये मुकदमा नहीं चलाया जाएगा जब तक वे नियमानुसार सदन में वोट देना या बोलना जारी रखते हैं।
- मार्च 2024 में सात न्यायाधीशों की पीठ ने 25 वर्ष पुराने जेएमएम रिश्वत मामले में पाँच न्यायाधीशों की पीठ के फैसले को पलट दिया, जिसमें कहा गया कि संसदीय विशेषाधिकार या छूट उन विधायकों की रक्षा नहीं करेगी जो आपराधिक अभियोजन से संसद या राज्य विधानसभाओं में वोट देने अथवा बोलने के लिये भुगतान स्वीकार करते हैं।
- विशेषाधिकार एवं उन्मुक्तियाँ देश के सामान्य कानून से छूट का दावा करने के प्रवेश द्वार नहीं हैं।
क्या दल-बदल विरोधी कानून राज्यसभा चुनावों पर लागू होता है?
- दसवीं अनुसूची और "दल-बदल विरोधी" कानून:
- 52वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1985 द्वारा संविधान में दसवीं अनुसूची शामिल की गई जिसमें "दल-बदल विरोधी" कानून से संबंधित प्रावधान शामिल हैं।
- इसके अनुसार संसद अथवा राज्य विधानमंडल का कोई सदस्य जो स्वेच्छा से अपने राजनीतिक दल की सदस्यता का त्याग कर देता है अथवा अपनी पार्टी के निर्देशों के विरुद्ध मतदान करता है, वह सदन का सदस्य होने के अयोग्य करार दिया जाएगा।
- मतदान के संबंध में यह निर्देश आमतौर पर पार्टी व्हिप द्वारा जारी किया जाता है।
- दसवीं अनुसूची की प्रयोज्यता:
- निर्वाचन आयोग ने जुलाई 2017 में स्पष्ट किया कि दल-बदल विरोधी कानून सहित दसवीं अनुसूची के प्रावधान राज्यसभा चुनावों पर लागू नहीं होते हैं।
- अतः राजनीतिक दल राज्यसभा चुनाव के लिये अपने सदस्यों को कोई व्हिप जारी नहीं कर सकते हैं और सदस्य संबद्ध चुनावों में पार्टी के निर्देशों का अनुपालन करने हेतु बाध्य नहीं हैं।
क्रॉस वोटिंग क्या है?
- पृष्ठभूमि:
- राजेंद्र प्रसाद जैन ने कॉन्ग्रेस विधायकों द्वारा क्रॉस-वोटिंग (रिश्वत के बदले) के माध्यम से बिहार में एक सीट पर जीत दर्ज की किंतु बाद में वर्ष 1967 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जैन के निर्वाचन को रद्द घोषित कर दिया गया।
- परिचय:
- क्रॉस वोटिंग का आशय एक राजनीतिक दल से संबंधित किसी विधायी निकाय के सदस्य, जैसे कि संसद सदस्य अथवा विधानसभा का सदस्य द्वारा निर्वाचन के दौरान अथवा कोई अन्य मतदान प्रक्रिया में अपने दल के उम्मीदवार के अतिरिक्त किसी अन्य उम्मीदवार अथवा पार्टी को मत देने से है।
- भारत में राज्यसभा चुनावों के संदर्भ में, क्रॉस वोटिंग तब हो सकती है जब किसी राजनीतिक दल के सदस्य अपनी पार्टी द्वारा नामित उम्मीदवारों के स्थान पर अन्य दलों के उम्मीदवारों के लिये वोट करते हैं।
- पार्टी के उम्मीदवार चयन पर असहमति, अन्य दलों से प्रलोभन अथवा दबाव तथा अन्य दलों के उम्मीदवारों के साथ व्यक्तिगत संबंध अथवा वैचारिक मतभेद जैसे कारणों से क्रॉस वोटिंग की संभावना उत्पन्न होती है।
क्रॉस वोटिंग से संबंधित क्या प्रभाव हैं?
- नकारात्मक प्रभाव:
- प्रतिनिधित्व को कमज़ोर करना: क्रॉस-वोटिंग मतदाताओं के प्रतिनिधित्व को कमज़ोर कर सकती है।
- विधायकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे पार्टी के हितों अथवा अपने निर्वाचन क्षेत्र की इच्छाओं के अनुरूप मतदान करें किंतु ऐसा नहीं करने की दशा में ऐसे उम्मीदवारों के चयन की संभावना है जिनके पास बहुमत का समर्थन नहीं है।
- भ्रष्टाचार: अमूमन रिश्वतखोरी अथवा अन्य भ्रष्ट आचरण के कारण क्रॉस वोटिंग होती है, जैसा कि राजेंद्र प्रसाद जैन के निर्वाचन के उदाहरण में प्रदर्शित होता है। यह निर्वाचन प्रक्रिया की अखंडता को कमज़ोर करता है और लोकतंत्र में जनता के विश्वास को कम करता है।
- जैन ने कॉन्ग्रेस विधायकों द्वारा क्रॉस-वोटिंग (रिश्वत के बदले) के माध्यम से बिहार में एक सीट पर जीत दर्ज की जिसे बाद में वर्ष 1967 में सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द घोषित कर दिया।
- पार्टी अनुशासन: क्रॉस वोटिंग पार्टी अनुशासन की कमी को दर्शाती है, जो राजनीतिक दलों के भीतर आंतरिक विभाजन का संकेत देती है। यह पार्टी की एकजुटता और स्थिरता को प्रभावित करता है जिससे पार्टियों के लिये सुसंगत नीति एजेंडा को आगे बढ़ाना मुश्किल हो जाता है।
- लोकतांत्रिक मूल्य: क्रॉस-वोटिंग दायित्व के लोकतांत्रिक सिद्धांत के विरुद्ध है, जहाँ प्रतिनिधियों से अपने मतदाताओं के हितों और व्यापक जनता की भलाई को बनाए रखने की अपेक्षा की जाती है। यह लोकतांत्रिक सिद्धांतों पर व्यक्तिगत लाभ या दलगत राजनीति को प्राथमिकता देता है।
- प्रतिनिधित्व को कमज़ोर करना: क्रॉस-वोटिंग मतदाताओं के प्रतिनिधित्व को कमज़ोर कर सकती है।
- संभावित सकारात्मक प्रभाव:
- स्वतंत्रता: क्रॉस-वोटिंग निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच स्वतंत्रता के स्तर का संकेत दे सकती है, जिससे उन्हें सख्त पार्टी लाइनों के बदले अपने विवेक या अपने घटकों के हितों के अनुसार मतदान करने की अनुमति मिलती है। जब निर्वाचित प्रतिनिधि पार्टी लाइनों के खिलाफ मतदान करते हैं और इसके बदले अपने विवेक या मतदाताओं के हितों का पालन करते हैं, तो इसे उनकी बढ़ती स्वतंत्रता के स्तर का संकेत कहा जा सकता है।
- इससे अधिक सूक्ष्म निर्णय लेने और प्रतिनिधित्व को बढ़ावा मिल सकता है।
- नियंत्रण और संतुलन: क्रॉस-वोटिंग, यदि राय या विचारधारा में वास्तविक मतभेदों से प्रेरित हो तो यह विधायी निकाय के भीतर किसी एक पार्टी या गुट के प्रभुत्व पर नियंत्रण के रूप में कार्य कर सकती है।
- यह शक्ति के संकेंद्रण को रोक सकता है और दृष्टिकोण के अधिक संतुलन एवं विविधता को बढ़ावा दे सकता है।
- दायित्व: कुछ मामलों में, क्रॉस-वोटिंग पार्टी नेतृत्व या नीतियों के प्रति असंतोष को दर्शा सकती है, जिससे पार्टियों को आत्मनिरीक्षण करने और आंतरिक शिकायतों का समाधान करने के लिये बाध्य होना पड़ता है। इससे अंततः मतदाताओं के प्रति अधिक जवाबदेही और उत्तरदायित्व उत्पन्न हो सकता है।
- स्वतंत्रता: क्रॉस-वोटिंग निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच स्वतंत्रता के स्तर का संकेत दे सकती है, जिससे उन्हें सख्त पार्टी लाइनों के बदले अपने विवेक या अपने घटकों के हितों के अनुसार मतदान करने की अनुमति मिलती है। जब निर्वाचित प्रतिनिधि पार्टी लाइनों के खिलाफ मतदान करते हैं और इसके बदले अपने विवेक या मतदाताओं के हितों का पालन करते हैं, तो इसे उनकी बढ़ती स्वतंत्रता के स्तर का संकेत कहा जा सकता है।
दसवीं अनुसूची और राज्यसभा चुनाव से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय क्या हैं?
- कुलदीप नैयर बनाम भारत संघ, 2006:
- सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यसभा चुनाव के लिये प्रत्यक्ष मतदान की व्यवस्था को बरकरार रखा।
- इसने तर्क दिया कि यदि गोपनीयता भ्रष्टाचार का स्रोत बन जाती है, तो पारदर्शिता उसे दूर करने की क्षमता रखती है।
- हालाँकि उसी मामले में न्यायालय ने माना कि किसी राजनीतिक दल के निर्वाचित विधायक को अपनी पार्टी के उम्मीदवार के विरुद्ध मतदान करने पर दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता का सामना नहीं करना पड़ेगा।
- वह अधिक-से-अधिक अपने राजनीतिक दल की ओर से अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग कर सकता है।
- रवि एस. नाइक और संजय बांदेकर बनाम भारत संघ, 1994:
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि दसवीं अनुसूची के तहत स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ना उस पार्टी से औपचारिक रूप से इस्तीफा देने का पर्याय नहीं है, जिसका वह सदस्य है।
- सदन के अंदर और बाहर किसी सदस्य के आचरण को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि क्या वह स्वेच्छा से सदस्यता छोड़ने के योग्य है।
आगे की राह
- रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार सहित चुनावी कदाचार से निपटने के लिये सख्त कानून तथा नियम लागू करने की आवश्यकता है।
- इसमें अपराधियों के लिये दंड बढ़ाना, अभियान के वित्तपोषण में पारदर्शिता बढ़ाना और अनुपालन लागू करने के लिये स्वतंत्र चुनावी निकायों को सशक्त बनाना शामिल हो सकता है।
- राजनीतिक दलों को अपने सदस्यों के बीच अनुशासन और जवाबदेही को बढ़ावा देने के लिये आंतरिक तंत्र अपनाने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिये।
- इसमें पार्टी नेतृत्व को मज़बूत करना, अंतर-पार्टी लोकतंत्र को बढ़ावा देना और नैतिक आचरण की संस्कृति को बढ़ावा देना शामिल हो सकता है।
- चुनावी अखंडता के महत्त्व और क्रॉस-वोटिंग के परिणामों के बारे में मतदाताओं तथा हितधारकों के बीच जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है। इसमें सार्वजनिक शिक्षा अभियान, चुनावी मुद्दों की मीडिया कवरेज और नागरिकों को अपने प्रतिनिधियों को जवाबदेह ठहराने के लिये सशक्त बनाने की दिशा में नागरिक भागीदारी पहल शामिल हो सकती है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. राज्यसभा की लोकसभा के समान शक्तियाँ किस क्षेत्र में हैं: (2020) नई अखिल भारतीय सेवाएँ गठित करने के विषय में उत्तर: (B) Q. निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (2016)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: A. केवल 1 उत्तर: (B) Q. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2015)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? A. केवल 1 उत्तर: (B) |
दुर्लभ रोग दिवस 2024
प्रिलिम्स के लिये:दुर्लभ रोग दिवस, दुर्लभ रोग, विश्व स्वास्थ्य संगठन, दुर्लभ रोगों के लिये राष्ट्रीय नीति 2021 मेन्स के लिये:भारत में सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज, स्वास्थ्य, दुर्लभ बीमारियों से संबंधित पहल |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में फरवरी के आखिरी दिन दुर्लभ रोग दिवस मनाया गया। यह अंतर्राष्ट्रीय जागरूकता दिवस दुर्लभ रोगों और रोगियों व उनके परिजनों पर उनके महत्त्वपूर्ण प्रभाव के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिये समर्पित है।
दुर्लभ रोग दिवस क्या है?
- दुर्लभ रोग दिवस एक विश्व स्तर पर समन्वित आंदोलन है जो दुर्लभ बीमारियों वाले व्यक्तियों के लिये सामाजिक अवसर, स्वास्थ्य देखभाल, निदान एवं उपचार तक पहुँच में समता सुनिश्चित करने की दिशा में समर्पित है।
- दुर्लभ रोग दिवस- 2024 का विषय "Share Your Colours" है, जो सहयोग और समर्थन पर बल देता है।
- इसकी स्थापना वर्ष 2008 में हुई थी और यह प्रतिवर्ष 28 फरवरी (या लीप वर्ष में 29 फरवरी) को मनाया जाता था। दुर्लभ रोग दिवस का समन्वय यूरोपीय दुर्लभ रोग संगठन (European Organisation for Rare Diseases- EURORDIS) और 65 से अधिक राष्ट्रीय गठबंधन रोगी संगठन भागीदारों द्वारा किया जाता है।
- यह स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दुर्लभ रोग के प्रबंधन कार्य के लिये एक केंद्र बिंदु के रूप में कार्य करता है, जिसमें व्यक्तियों, परिवारों, देखभाल करने वालों, स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों, शोधकर्त्ताओं, नीति निर्माताओं, उद्योग प्रतिनिधियों तथा आम जनता को शामिल किया जाता है।
दुर्लभ रोग क्या है?
- परिचय:
- दुर्लभ रोगों को सामान्य तौर पर मनुष्य में कभी-कभार होने वाली बीमारियों के रूप में परिभाषित किया गया है, जिनका प्रसार भिन्न-भिन्न देशों के बीच अलग-अलग होता है।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन दुर्लभ रोगों को प्रायः प्रति 1000 जनसंख्या पर 1 या उससे कम की व्यापकता के साथ जीवन पर्यंत दुर्बल करने वाली स्थितियों के रूप में परिभाषित करता है।
- विभिन्न देशों की अपनी-अपनी परिभाषाएँ हैं; उदाहरण के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका 200,000 से कम रोगियों को प्रभावित करने वाली बीमारियों को दुर्लभ मानता है, जबकि यूरोपीय संघ 10,000 लोगों में 5 से अधिक नहीं होने की सीमा निर्धारित करता है।
- भारत में वर्तमान में कोई मानक परिभाषा नहीं है, लेकिन दुर्लभ रोगों के संगठन भारत (Organisation of Rare Diseases India- ORDI) ने सुझाव दिया है कि उस बीमारी को दुर्लभ रोग के रूप में परिभाषित किया जाना चाहिये यदि यह 5,000 लोगों में से 1 या उससे कम को प्रभावित करता है।
- वैश्विक दुर्लभ रोगों का बोझ:
- विश्वभर में 30 करोड़ लोग दुर्लभ बीमारियों से प्रभावित हैं।
- दुर्लभ बीमारियाँ लगभग 3.5% से 5.9% आबादी को प्रभावित करती हैं।
- 72% दुर्लभ बीमारियाँ आनुवंशिक होती हैं, जिनमें से 7000 से अधिक में विभिन्न विकार और लक्षण देखने को मिलते हैं।
- 75% दुर्लभ बीमारियाँ बच्चों को प्रभावित करती हैं। जिसमें 70% दुर्लभ बीमारियों की शुरुआत उन्हें बचपन में होती है।
- दुर्लभ रोगों के लक्षण और प्रभाव:
- दुर्लभ बीमारियाँ विकारों और लक्षणों की व्यापक विविधता के साथ मौजूद होती हैं, जो न केवल बीमारियों के बीच, बल्कि एक ही बीमारी वाले रोगियों में भी भिन्न होती हैं।
- दुर्लभ रोगों की दीर्घकालिक, प्रगतिशील, अपक्षयी और जीवन-घातक प्रकृति रोगियों के जीवन की गुणवत्ता को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित करती है।
- प्रभावी उपचार की कमी रोगियों और उनके परिवारों द्वारा सहे जाने वाले दर्द तथा पीड़ा को बढ़ा देती है।
- दुर्लभ रोगों से ग्रस्त व्यक्तियों द्वारा सामना की जाने वाली चुनौतियाँ:
- वैज्ञानिक ज्ञान और गुणवत्तापूर्ण जानकारी की कमी के कारण निदान में विलंब।
- उपचार और देखभाल तक पहुँच में असमानताओं के कारण सामाजिक तथा वित्तीय बोझ पड़ता है।
- सामान्य लक्षण अंतर्निहित दुर्लभ बीमारियों को छिपा सकते हैं, जिससे प्रारंभिक गलत निदान (misdiagnosis) हो सकता है।
- EURORDIS के अनुसार, दुर्लभ बीमारी के रोगियों को निदान पाने में औसतन 5 वर्ष का समय लगता है।
- दुर्लभ बीमारियों से पीड़ित 70% लोग चिकित्सा होने के पश्चात् पुष्टिकारक निदान पाने के लिये 1 वर्ष से अधिक समय तक प्रतीक्षा करते हैं।
- दुर्लभ बीमारी के संकेतों और लक्षणों की व्याख्या करने में चिकित्सकों की जागरूकता तथा प्रशिक्षण की कमी नैदानिक चुनौतियों में योगदान करती है।
भारत में दुर्लभ रोगों का परिदृश्य:
- प्रभाव:
- भारत वैश्विक दुर्लभ रोग के मामलों में से एक तिहाई का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें 450 से अधिक पहचानी गई बीमारियाँ शामिल हैं।
- इस महत्त्वपूर्ण प्रसार के बावजूद, जागरूकता, निदान और औषधि विकास सीमित होने के कारण भारत में दुर्लभ बीमारियों को वृहद स्तर पर अनदेखा किया जाता है।
- अनुमानतः 8 से 10 करोड़ से अधिक भारतीय दुर्लभ बीमारियों से पीड़ित हैं, जिनमें 75% से अधिक बच्चे हैं।
- नीति और कार्यान्वयन में चुनौतियाँ:
- स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने वर्ष 2017 में दुर्लभ बीमारियों के लिये एक राष्ट्रीय नीति निर्माण किया, हालाँकि कार्यान्वयन चुनौतियों के परिणामस्वरूप वर्ष 2018 में इसे वापस ले लिया।
- दुर्लभ रोगों के लिये संशोधित प्रथम राष्ट्रीय दुर्लभ रोग नीति की घोषणा वर्ष 2021 में की गई थी, लेकिन समस्याएँ अभी भी बनी हुई हैं, जिनमें दुर्लभ बीमारियों की अस्पष्ट परिभाषा भी शामिल है।
- उपचार की पहुँच और वित्तपोषण:
- भारत में पहचानी गई कुल दुर्लभ बीमारियों में से 50% से भी कम का उपचार संभव है तथा मात्र 20 बीमारियों के लिये अनुमोदित उपचार उपलब्ध हैं।
- अनुमोदित उपचारों तक पहुँच नामित उत्कृष्टता केंद्रों तक ही सीमित है, जिनकी संख्या मात्र 12 है जो असमान रूप से वितरित हैं और इनमें अमूमन समन्वय की कमी होती है।
- NPRD दिशा-निर्देश प्रति रोगी सीमित वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं जो संपूर्ण जीवन में बीमारियों के प्रबंधन और दीर्घावधि दुर्लभ बीमारियों के उपचार के लिये अपर्याप्त है।
- वित्तीय सहायता के उपयोग से संबंधित चुनौतियाँ:
- हालाँकि दुर्लभ बीमारियों के उपचार हेतु बजट आवंटन में वृद्धि हुई है, वर्ष 2023-2024 के लिये संबद्ध विषय हेतु 93 करोड़ रुपए का आवंटन किया गया है किंतु यह अभी भी अपर्याप्त है।
- उत्कृष्टता केंद्रों के बीच निधि के उपयोग के संबंध में स्पष्टता का आभाव और असमानताएँ मौजूद हैं जो संसाधन आवंटन में अक्षमताओं को उजागर करती हैं।
- हालाँकि रोगियों को तत्काल उपचार की आवश्यकता होती है किंतु उत्कृष्टता केंद्रों को आवंटित धनराशि का 51.3% हिस्सा अप्रयुक्त रहता है।
- कुछ CoE आवंटित धन का अल्प उपयोग करते हैं जबकि अन्य केंद्र अपने आवंटित धन का शीघ्रता से उपभोग कर लेते हैं जिससे उपचार तक असमान पहुँच की स्थिति उत्पन्न होती है।
- उदाहरणार्थ मुंबई ने 107 रोगियों में से केवल 20 का उपचार करते हुए अपने आवंटित धन का पूरा उपभोग कर लिया जबकि दिल्ली ने अपने कुल आवंटित धन का 20% से भी कम हिस्सा उपयोग किया।
- उपचार के वित्तपोषण का बोझ अमूमन मरीज़ों और उनके परिवारों पर पड़ता है तथा सरकारी सहायता अपर्याप्त रह जाती है।
- मरीज़ और समर्थनकर्त्ता दुर्लभ बीमारी के उपचार में सहायता के लिये केंद्र तथा राज्य दोनों सरकारों से सतत् वित्त पोषण की मांग करते हैं।
- मरीज़ों के लिये सतत् वित्त पोषण महत्त्वपूर्ण है, विशेषकर उन लोगों के लिये जिन्होंने आवंटित धन का उपभोग कर लिया है और उपचार जारी रखने के लिये संघर्ष कर रहे हैं।
दुर्लभ बीमारियों के लिये राष्ट्रीय नीति (NPRD), 2021
- NPRD, 2021 का लक्ष्य दुर्लभ बीमारियों की व्यापकता और घटनाओं को कम करना है।
- इनके उपचार आवश्यकताओं के आधार पर दुर्लभ बीमारियों को तीन समूहों में वर्गीकृत किया गया है: समूह 1, समूह 2 और समूह 3
- समूह 1: एक बार उपचार योग्य विकार।
- समूह 2: अपेक्षाकृत अल्प उपचार लागत के साथ दीर्घकालिक/आजीवन उपचार की आवश्यकता वाले रोग।
- समूह 3: इसके अंतर्गत वे बीमारियाँ शामिल हैं जिनका निश्चित उपचार उपलब्ध है किंतु रोगी चयन और उच्च उपचार लागत के संबंध में चुनौतियाँ मौजूद हैं।
- NPRD, 2021 राष्ट्रीय आरोग्य निधि के तहत अंब्रेला योजना के अतिरिक्त NPRD-2021 में उल्लिखित किसी भी दुर्लभ रोग के किसी भी समूह से पीड़ित रोगियों और किसी भी उत्कृष्टता केंद्र (COE) में उपचार के लिये 50 लाख रुपए तक की आर्थिक सहायता का प्रावधान करता है।
- RAN निर्दिष्ट दुर्लभ बीमारियों से पीड़ित रोगियों के लिये अधिकतम 20 लाख रुपए की वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
आगे की राह
- नीति कार्यान्वयन में स्पष्टता एवं स्थिरता प्रदान करने के लिये दुर्लभ बीमारियों की एक मानक परिभाषा तैयार करना।
- दवा विकास, चिकित्सा एवं अनुसंधान का समर्थन करने हेतु दुर्लभ बीमारियों के लिये समर्पित बजटीय परिव्यय बढ़ाना।
- दुर्लभ बीमारियों के लिये CoE की संख्या का विस्तार करने साथ-साथ उनके बीच बेहतर समन्वय सुनिश्चित करना।
- वंचित क्षेत्रों में पहुँच और आउटरीच में सुधार के लिये CoE के तहत उपग्रह केंद्र विकसित करना।
- प्रभाव को अधिकतम करने एवं निधि उपयोग में असमानताओं को दूर करने के लिये निधियों का ज़िम्मेदारपूर्ण उपयोग बढ़ाना।
- दुर्लभ बीमारियों की सूची निर्मित करने के साथ-साथ एक राष्ट्रीय रजिस्ट्री एवं दुर्लभ बीमारियों का पता लगाने के लिये एक केंद्रीकृत प्रयोगशाला की भी आवश्यकता है।
- किफायती दवाओं के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिये उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन योजना के तहत घरेलू दवा निर्माताओं को प्रोत्साहित करना।
- व्यापक दुर्लभ रोग देखभाल (CRDC) मॉडल को लागू करना, इसका उद्देश्य आनुवंशिक एटियोलॉजी (जीन असामान्यता) से संदिग्ध या प्रभावित रोगियों एवं परिवारों के बीच अंतर को कम करना है।
- CRDC मॉडल अस्पतालों के लिये एक तकनीकी एवं प्रशासनिक रोडमैप स्थापित करता है।
- दुर्लभ रोग दवाओं तक किफायती पहुँच सुनिश्चित करना, व्यावसायिक रूप से उपलब्ध दवाओं पर कर कम करना, रोगियों के लिये पहुँच बनाना।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. भारत में 'सभी के लिये स्वास्थ्य' लक्ष्य प्राप्त करने हेतु उचित स्थानीय समुदाय-स्तरीय स्वास्थ्य देखभाल हस्तक्षेप एक पूर्व शर्त है। व्याख्या कीजिये। (2018) |
भारत का सहकारिता क्षेत्र
प्रिलिम्स के लिये:सहकारिता क्षेत्र, प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ, बहु-राज्य सहकारी समितियाँ अधिनियम, 2002, 97वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2011, बहु-राज्य सहकारी समितियाँ (संशोधन) अधिनियम, 2022, इफको। मेन्स के लिये:भारत में सहकारिता क्षेत्र की स्थिति, भारत में सहकारिता समितियों के सामने आने वाली प्रमुख चुनौतियाँ। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री ने विश्व की सबसे बड़ी अनाज भंडारण योजना के पायलट प्रोजेक्ट का उद्घाटन किया जिसका शुभारंभ वर्तमान में 11 राज्यों की 11 प्राथमिक कृषि ऋण समितियों में किया गया है।
- यह सहकारिता क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण विकास को दर्शाता है।
अनाज भंडारण योजना से संबंधित विशेषताएँ क्या हैं?
- परिचय: अनाज भंडारण योजना का लक्ष्य आगामी 5 वर्षों में ₹1.25 लाख करोड़ के निवेश के साथ 700 लाख टन भंडारण क्षमता स्थापित करना है।
- इस परियोजना में भारत सरकार की विभिन्न मौजूदा योजनाओं को एकीकृत कर विकेंद्रीकृत गोदामों, कस्टम हायरिंग सेंटरों, प्रसंस्करण इकाइयों, उचित मूल्य की दुकानों आदि सहित PACS के स्तर पर कृषि बुनियादी ढाँचे का निर्माण करना शामिल है।
- अपेक्षित परिणाम: इस परियोजना के माध्यम से किसान PACS गोदामों में अपनी उपज का भंडारण करने में, अगले फसल चक्र के लिये ब्रिज फाइनेंस की पेशकश करने अथवा संकटपूर्ण अवधि के दौरान MSP पर फसल का विक्रय करने में सक्षम होंगे।
- अनाज के भंडारण क्षमता में वृद्धि करने से फसल के बाद होने वाले नुकसान में कमी आती है, किसानों की आय में सुधार होता है और ज़मीनी स्तर पर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होती है, जिससे उपभोक्ताओं को लाभ होता है।
भारत में सहकारिता क्षेत्र की स्थिति क्या है?
- परिचय: सहकारी समितियाँ जन-केंद्रित उद्यम हैं जिनका स्वामित्व, नियंत्रण और संचालन उनके सदस्यों द्वारा उनकी सामान्य आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक आवश्यकताओं एवं आकांक्षाओं की प्राप्ति के लिये किया जाता है।
- कृषि, ऋण, डेयरी, आवास और मत्स्य पालन जैसे विभिन्न क्षेत्रों में 800,000 से अधिक सहकारी समीतियों के साथ भारत का सहकारिता नेटवर्क विश्व के सबसे बड़े नेटवर्कों में से एक है।
- भारत में सहकारिता क्षेत्र का विकास:
- प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56): व्यापक सामुदायिक विकास के लिये सहकारी समितियों को बढ़ावा दिया गया।
- बहु-राज्य सहकारी समिति अधिनियम, 2002: बहु-राज्य सहकारी समितियों के गठन एवं उसकी कार्यप्रणाली हेतु प्रावधान करता है।
- वर्ष 2011 का 97वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम: सहकारी समितियों के गठन के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किया गया (अनुच्छेद 19)।
- सहकारी समितियों पर राज्य की नीति का एक नया निदेशक सिद्धांत प्रस्तुत किया गया (अनुच्छेद 43-B)।
- संविधान में "सहकारी समितियाँ" शीर्षक से एक नया भाग IX-B जोड़ा गया (अनुच्छेद 243-ZH से 243-ZT)।
- बहु-राज्य सहकारी समितियों (MSCS) को नियंत्रित करने वाले कानून बनाने के लिये संसद को अधिकार दिया गया और साथ ही अन्य सहकारी समितियों के लिये राज्य विधानसभाओं को अधिकार सौंपा गया।
- केंद्रीय सहकारिता मंत्रालय की स्थापना (2021): सहकारी मामलों की ज़िम्मेदारी संभाली गई, जिसकी देख-रेख पहले कृषि मंत्रालय करता था।
- बहु-राज्य सहकारी समितियाँ (संशोधन) अधिनियम, 2022: इसका उद्देश्य बहु-राज्य सहकारी समितियों हेतु विनियमन बढ़ाना है।
- बहु-राज्य सहकारी समितियों में बोर्ड चुनावों की निगरानी हेतु सहकारी चुनाव प्राधिकरण की शुरुआत की गई।
- बहु-राज्य सहकारी समितियों को अपनी शेयरधारिता को भुनाने से पहले सरकारी अनुमति प्राप्त करने की आवश्यकता होती है।
- संघर्षरत लोगों को पुनर्जीवित करने के लिये लाभदायक बहु-राज्य सहकारी समितियों द्वारा वित्त पोषित एक सहकारी पुनर्वास, पुनर्निर्माण और विकास कोष की स्थापना का आह्वान किया गया।
- राज्य सहकारी समितियों को राज्य कानूनों के अधीन मौजूदा बहु-राज्य सहकारी समितियों में विलय करने की अनुमति देता है।
- भारत में सहकारी समितियों के उदाहरण:
- प्राथमिक कृषि साख समितियाँ: वे अल्पकालिक सहकारी ऋण संरचना की ज़मीनी स्तर की शाखाएँ हैं।
- यह एक ओर अंतिम उधारकर्त्ताओं (किसानों) और दूसरी ओर उच्च वित्तपोषण एजेंसियों अर्थात् अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों तथा RBI एवं नाबार्ड के बीच अंतिम कड़ी के रूप में कार्य करता है।
- अमूल (आनंद मिल्क यूनियन लिमिटेड): एक डेयरी दिग्गज और भारत की श्वेत क्रांति में अग्रणी, अमूल गुजरात में लाखों दूध उत्पादकों का एक संघ है। इसकी सफलता ने भारत को दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक देश बना दिया।
- भारतीय किसान उर्वरक सहकारी: विश्व की सबसे बड़ी उर्वरक सहकारी समितियों में से एक, IFFCO पूरे भारत में किसानों को गुणवत्तापूर्ण उर्वरक और कृषि सामग्री/निविष्टि प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- बागवानी उत्पादक सहकारी विपणन और प्रसंस्करण सोसायटी (HOPCOMS): किसानों के लिये उचित रिटर्न सुनिश्चित करने वाले कृषि उपज आउटलेट के अपने नेटवर्क के लिये प्रसिद्ध है।
- लिज्जत पापड़ (श्री महिला गृह उद्योग लिज्जत पापड़): पापड़ (भारतीय दाल से निर्मित) उत्पादन के माध्यम से महिलाओं को सशक्त बनाने वाली एक प्रेरक महिला सहकारी संस्था है।
- प्राथमिक कृषि साख समितियाँ: वे अल्पकालिक सहकारी ऋण संरचना की ज़मीनी स्तर की शाखाएँ हैं।
नोट: बंगाल सचिवालय सहकारी समिति बनाम आलोक कुमार मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बहु-राज्य सहकारी समितियों के संबंध में संसद और राज्य सहकारी समितियों के मामले में राज्य विधानमंडलों को उचित कानून बनाने का अधिकार देने का प्रस्ताव रखा। |
भारत में सहकारी समितियों के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?
- संचालन और प्रबंधन के मुद्दे:
- सीमित व्यावसायिकता: कई सहकारी समितियों में पेशेवर प्रबंधन संरचनाओं का अभाव है, जो अकुशल संचालन और निर्णायक क्षमता का कारण है।
- राजनीतिक हस्तक्षेप: सहकारी समितियों के कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप उनकी स्वायत्तता को कमज़ोर करता है और सदस्यों के हितों को प्रभावी ढंग से पूरा करने की उनकी क्षमता को प्रभावित करता है।
- पूंजी और संसाधन बाधाएँ:
- अपर्याप्त फंडिंग: सहकारी समितियाँ प्रायः विस्तार, आधुनिकीकरण और नए उद्यमों के विकास हेतु पर्याप्त पूंजी तक पहुँचने के लिये संघर्ष करती हैं।
- सीमित बुनियादी ढाँचा: उचित भंडारण सुविधाओं, प्रसंस्करण इकाईयों और बाज़ार संबंधों की कमी, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में छोटी सहकारी समितियों की वृद्धि तथा प्रतिस्पर्द्धात्मकता में बाधा बनती है।
- सामाजिक और सांस्कृतिक कारक:
- कम जागरूकता और भागीदारी: संभावित सदस्यों के बीच सहकारी मॉडल और इसके लाभों के बारे में जागरूकता की कमी उनकी भागीदारी को सीमित करती है।
- सामाजिक असमानताएँ: कुछ मामलों में, सामाजिक पदानुक्रम और जाति-आधारित विभाजन सहकारी समितियों के भीतर समान भागीदारी एवं प्रतिनिधित्व के लिये बाधाएँ पैदा करते हैं।
भारत में सहकारी क्षेत्र के प्रोत्साहन हेतु क्या उपाय किये जा सकते हैं?
- बुनियादी ढाँचे का विकास: मूल्य शृंखला को मज़बूत करने और सहकारी उत्पादों के लिये बाज़ार पहुँच बढ़ाने हेतु गोदामों, कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं एवं प्रसंस्करण इकाइयों जैसे बुनियादी ढाँचे के विकास में अधिक निवेश की आवश्यकता है।
- साथ ही, सहकारी संचालन और प्रबंधन की दक्षता में सुधार के लिये प्रौद्योगिकी तथा डिजिटलीकरण को अपनाने को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
- नवाचार हब के रूप में सहकारी समितियाँ: सहकारी समितियों की धारणा को पारंपरिक और ग्रामीण से पृथक कर प्रयोग तथा नवाचार के केंद्रों में हस्तांतरित करने की आवश्यकता है।
- साथ ही, अत्याधुनिक कृषि तकनीकों के साथ कार्य करने वाली सहकारी समितियों और नवीकरणीय ऊर्जा पर ध्यान केंद्रित करने को उजागर करने की भी आवश्यकता है।
- सहकारी "प्रभावक": इसमें युवा, तकनीक-प्रेमी सहकारी सदस्यों को वकील और विचारक नेतृत्वकर्त्ता के रूप में पहचानना और उनका पोषण करना, सोशल मीडिया तथा ऑनलाइन प्लेटफॉर्मों के माध्यम से सहकारी समितियों की छवि को परिवर्तित करना शामिल है।
- सहकारी त्वरण क्षेत्र: विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्रों को सहकारी त्वरण क्षेत्र के रूप में नामित करना, जहाँ नियमों में अस्थायी रूप से शिथिलता प्रदान की जाती है और नवीन व्यापार मॉडल के साथ विविध सहकारी प्रयोग को प्रोत्साहित करने हेतु प्रोत्साहन दिया जाता है।
- सहकारी नेतृत्व वाली पर्यटन पहल: ग्रामीण क्षेत्रों में सहकारी संचालित इको-पर्यटन और समुदाय-आधारित पर्यटन पहल का विकास करना, जिससे यात्रियों को स्थानीय संस्कृति, परंपराओं तथा आजीविका का अनुभव करने की अनुमति मिल सके।
- इसमें पर्यटन गतिविधियों को सामूहिक रूप से प्रबंधित करने, आय उत्पन्न करने, प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने और सतत् विकास को बढ़ावा देने के लिये स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाना शामिल है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. "गाँवों में सहकारी समिति को छोड़कर ऋण संगठन का कोई भी ढाँचा उपयुक्त नहीं होगा।" - अखिल भारतीय ग्रामीण ऋण सर्वेक्षण। भारत में कृषि वित्त की पृष्ठभूमि में इस कथन पर चर्चा कीजिये। कृषि वित्त प्रदान करने वाली वित्त संस्थाओं को किन बाधाओं और कसौटियों का सामना करना पड़ता है? ग्रामीण सेवार्थियों तक बेहतर पहुँच और सेवा के लिये प्रौद्योगिकी का किस प्रकार उपयोग किया जा सकता है?” (2014) |
भारत-श्रीलंका संबंध
प्रिलिम्स के लिये:भारत-श्रीलंका संबंध, एकीकृत भुगतान इंटरफ़ेस, बौद्ध धर्म, नवीकरणीय ऊर्जा, हिंद महासागर। मेन्स के लिये:भारत-श्रीलंका संबंध, द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक समूह तथा भारत से जुड़े समझौते और/या भारत के हितों को प्रभावित करने वाले समझौते। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में श्रीलंका सस्टेनेबल एनर्जी अथॉरिटी और भारतीय कंपनी U-सोलर क्लीन एनर्जी सॉल्यूशंस ने श्रीलंका में जाफना प्रायद्वीप के नैनातिवु, डेल्फ्ट या नेदुन्थीवु तथा एनालाइटिवू द्वीपों में "हाइब्रिड रिन्यूएबल एनर्जी सिस्टम" के निर्माण के लिये एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किये हैं।
- इस परियोजना को भारत सरकार से 11 मिलियन अमेरिकी डॉलर की अनुदान सहायता के माध्यम से समर्थित किया गया है।
- श्रीलंकाई कैबिनेट ने पहले श्रीलंका में इन तीन द्वीपों में नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं को निष्पादित करने हेतु चीन में सिनोसोअर-एटेकविन (Sinosoar-Etechwin) संयुक्त उद्यम, चीन की एक परियोजना को स्वीकृति प्रदान की, जिसका स्थान अब भारत ने ले लिया है।
श्रीलंका की हाइब्रिड नवीकरणीय ऊर्जा प्रणाली परियोजना:
- परिचय:
- इसमें सौर, पवन, बैटरी पॉवर और स्टैंडबाय डीज़ल पॉवर सिस्टम समेत ऊर्जा के विभिन्न रूपों को मिलाकर हाइब्रिड नवीकरणीय ऊर्जा प्रणालियों का निर्माण शामिल है।
- यह पहल श्रीलंका, मूलतः उत्तरी एवं पूर्वी क्षेत्रों में ऊर्जा परियोजनाओं के लिये भारत के व्यापक समर्थन का हिस्सा है।
- नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन और अदानी समूह श्रीलंका के विभिन्न हिस्सों में अन्य नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं में भी शामिल हैं।
- क्षमता:
- इस परियोजना का उद्देश्य तीन द्वीपों के निवासियों की ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करना है। इसमें 530 किलोवाट पवन ऊर्जा, 1,700 किलोवाट सौर ऊर्जा और 2,400 किलोवाट बैटरी पॉवर तथा 2,500 किलोवाट स्टैंडबाय डीज़ल पॉवर सिस्टम शामिल है।
- भूराजनीतिक संदर्भ:
- यह परियोजना भू-राजनीतिक गतिशीलता को प्रदर्शित करती है, भारत इस क्षेत्र में एक चीनी समर्थित परियोजना के जवाब में अनुदान सहायता (चीन की ऋण आधारित परियोजना के बजाय) की पेशकश कर रहा है।
- यह हिंद महासागर क्षेत्र में भारत और चीन के बीच प्रभाव के लिये व्यापक प्रतिस्पर्द्धा को प्रदर्शित करता है।
- यह परियोजना न केवल ऊर्जा आवश्यकताओं को संबोधित करती है बल्कि इसके भू-राजनीतिक निहितार्थ भी हैं, जो क्षेत्र में ऊर्जा बुनियादी ढाँचे के रणनीतिक महत्त्व को प्रदर्शित करती है।
भारत और श्रीलंका के बीच संबंध:
- ऐतिहासिक संबंध:
- भारत और श्रीलंका के बीच प्राचीन काल से ही सांस्कृतिक, धार्मिक तथा व्यापारिक संबंधों का एक लंबा इतिहास रहा है।
- दोनों देशों के बीच मज़बूत सांस्कृतिक संबंध हैं, बहुत से श्रीलंकाई लोग अपनी विरासत भारत से जोड़ते हैं। बौद्ध धर्म, जिसकी उत्पत्ति भारत में हुई, जो वर्तमान में भी श्रीलंका में भी एक महत्त्वपूर्ण धर्म है।
- भारत की ओर से वित्तीय सहायता:
- भारत ने अभूतपूर्व आर्थिक संकट के दौरान श्रीलंका को लगभग 4 बिलियन अमेरिकी डॉलर की सहायता प्रदान की, जो देश को संकट से बचाने के लिये महत्त्वपूर्ण थी।
- विदेशी मुद्रा भंडार की भारी कमी के कारण श्रीलंका वर्ष 2022 में एक विनाशकारी वित्तीय संकट की चपेट में आ गया, जो वर्ष 1948 में ब्रिटेन से आज़ादी के बाद सर्वाधिक संकटपूर्ण स्थिति थी।
- ऋण पुनर्गठन में भूमिका:
- भारत ने श्रीलंका को उसके ऋण के पुनर्गठन में मदद करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा ऋणदाताओं के साथ सहयोग करने में भूमिका निभाई है।
- भारत श्रीलंका के वित्तपोषण एवं ऋण पुनर्गठन के लिये अपना समर्थन पत्र सौंपने वाला पहला देश बन गया।
- कनेक्टिविटी के लिये संयुक्त दृष्टिकोण:
- दोनों देश एक संयुक्त दृष्टिकोण पर सहमत हुए हैं जो व्यापक कनेक्टिविटी पर ज़ोर देता है, जिसमें लोगों से लोगों की कनेक्टिविटी, नवीकरणीय ऊर्जा सहयोग, लॉजिस्टिक्स, बंदरगाह कनेक्टिविटी और विद्युत आदान-प्रदान हेतु ग्रिड कनेक्टिविटी शामिल है।
- आर्थिक और प्रौद्योगिकी सहयोग समझौता:
- दोनों देश अपनी अर्थव्यवस्थाओं को एकीकृत करने के साथ ही विकास को बढ़ावा देने के लिये ETCA की संभावना तलाश रहे हैं।
- मल्टी-प्रोजेक्ट पेट्रोलियम पाइपलाइन पर समझौता:
- भारत तथा श्रीलंका दोनों भारत के दक्षिणी भाग से श्रीलंका तक एक मल्टी-प्रोजेक्ट पेट्रोलियम पाइपलाइन स्थापित करने पर सहमत हुए हैं।
- इस पाइपलाइन का उद्देश्य श्रीलंका को ऊर्जा संसाधनों की सस्ती एवं विश्वसनीय आपूर्ति सुनिश्चित करना है। आर्थिक विकास तथा प्रगति में ऊर्जा की महत्त्वपूर्ण भूमिका की मान्यता के कारण पेट्रोलियम पाइपलाइन की स्थापना पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।
- भारत के UPI को अपनाना:
- श्रीलंका ने अब भारत की UPI सेवा को अपनाया है, जो दोनों देशों के बीच फिनटेक कनेक्टिविटी को बढ़ाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- व्यापार निपटान के लिये रुपए का उपयोग श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को अधिक सहायता प्रदान कर रहा है। श्रीलंका की आर्थिक सुधार एवं वृद्धि में सहायता के लिये ठोस कदम हैं।
- आर्थिक संबंध:
- अमेरिका और ब्रिटेन के बाद भारत श्रीलंका का तीसरा सबसे बड़ा निर्यात गंतव्य है। श्रीलंका के 60% से अधिक निर्यात भारत-श्रीलंका मुक्त व्यापार समझौते का लाभ उठाते हैं। भारत श्रीलंका में एक प्रमुख निवेशक भी है।
- वर्ष 2005 से वर्ष 2019 तक के वर्षों में भारत से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश लगभग 1.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर रहा।
- रक्षा सहयोग:
- भारत और श्रीलंका संयुक्त सैन्य (मित्र शक्ति) तथा नौसेना अभ्यास का संचालन करते हैं।
- समूहों में भागीदारी:
- श्रीलंका बिम्सटेक (बहु-क्षेत्रीय तकनीकी और आर्थिक सहयोग के लिये बंगाल की खाड़ी पहल) एवं सार्क जैसे समूहों का भी सदस्य है जिसमें भारत अग्रणी भूमिका निभाता है।
- पर्यटन:
- वर्ष 2022 में, भारत 100,000 से अधिक पर्यटकों के साथ श्रीलंका के लिये पर्यटकों का सबसे बड़ा स्रोत था।
भारत और श्रीलंका संबंधों का महत्त्व क्या है?
- क्षेत्रीय विकास पर ध्यान केंद्रण:
- भारत की प्रगति उसके पड़ोसी देशों के साथ सूक्ष्म रूप से जुड़ी हुई है और श्रीलंका का लक्ष्य दक्षिण एशिया में दक्षिणी अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण करके अपनी वृद्धि को बढ़ाना है।
- भौगोलिक स्थिति:
- पाक जलडमरूमध्य के पार भारत के दक्षिणी तट के निकट स्थित श्रीलंका, दोनों देशों के बीच संबंधों में महत्त्पूर्ण भूमिका रखता है।
- हिंद महासागर व्यापार और सैन्य संचालन के लिये रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण जलमार्ग है तथा प्रमुख शिपिंग लेन के चौराहे पर श्रीलंका की भौगोलिक स्थिति इसे भारत के लिये नियंत्रण का एक महत्त्वपूर्ण बिंदु बनाती है।
- व्यवसाय-सुगमता एवं पर्यटन:
- दोनों देशों में डिजिटल भुगतान प्रणालियों के बढ़ने से आर्थिक एकीकरण को बढ़ावा मिलेगा और भारत-श्रीलंका के बीच व्यापारिक विनिमय सरल हो जाएगा।
- यह प्रगति न केवल व्यापार को सुव्यवस्थित करेगी बल्कि दोनों देशों के बीच पर्यटन आदान-प्रदान के लिये कनेक्टिविटी में भी सुधार करेगी।
भारत-श्रीलंका संबंधों में क्या चुनौतियाँ हैं?
- मत्स्य पालन विवाद:
- भारत और श्रीलंका के बीच लंबे समय से चले आ रहे मुद्दों में से एक पाक जलडमरूमध्य तथा मन्नार की खाड़ी में मत्स्यन के अधिकार से संबंधित है। प्रायः समुद्री सीमा पार करने और श्रीलंकाई जल-क्षेत्र में अवैध मत्स्यन के आरोप में भारतीय मछुआरों को श्रीलंकाई अधिकारियों द्वारा गिरफ्तार किया गया है।
- इससे तनाव उत्पन्न हो गया है और कभी-कभी दोनों देशों के मछुआरों के साथ घटनाएँ भी होती रहती हैं।
- कच्चातिवु द्वीप विवाद:
- कच्चातिवु मुद्दा भारत और श्रीलंका के बीच पाक जलडमरूमध्य में स्थित कच्चातिवु के निर्जन द्वीप के प्राधिकार एवं उपयोग के अधिकारों से संबद्ध है।
- वर्ष 1974 में, भारत और श्रीलंका के प्रधानमंत्रियों के बीच एक समझौते के तहत कच्चातिवु को श्रीलंका के अधिकार क्षेत्र के हिस्से के रूप में मान्यता दी गई, जिससे इसका प्राधिकार बदल गया।
- हालाँकि समझौते ने भारतीय मछुआरों को आसपास के जल-क्षेत्र में मत्स्यन जारी रखने, द्वीप पर अपने जाल सुखाने की अनुमति दी और भारतीय तीर्थयात्रियों को वहाँ एक कैथोलिक मंदिर की यात्रा करने की अनुमति दी।
- दोनों देशों के मछुआरों द्वारा सामंजस्य के बावजूद वर्ष 1976 में एक पूरक समझौते में समुद्री सीमाओं और विशेष आर्थिक क्षेत्रों को परिभाषित किया गया, जिसमें स्पष्ट अनुमति के बिना मत्स्यन की गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाया गया।
- कच्चातिवु मुद्दा भारत और श्रीलंका के बीच पाक जलडमरूमध्य में स्थित कच्चातिवु के निर्जन द्वीप के प्राधिकार एवं उपयोग के अधिकारों से संबद्ध है।
- सीमा सुरक्षा और तस्करी:
- भारत और श्रीलंका के बीच छिद्रपूर्ण समुद्री सीमा सीमा सुरक्षा तथा नशीले पदार्थों एवं अवैध आप्रवासियों सहित सामानों की तस्करी के मामले में चिंता का विषय रही है। भारत और श्रीलंका के बीच समुद्री सीमा की संवेदनशीलता ने अवैध आप्रवासन तथा उत्पादों, विशेष रूप से नशीले पदार्थों की तस्करी के बारे में चिंताएँ बढ़ा दी हैं।
- विशिष्ट तमिल संस्कृति मुद्दा:
- श्रीलंका में जातीय संघर्ष जिसमें विशेष रूप से तमिल अल्पसंख्यकों से संबंधित संघर्ष शामिल है, भारत-श्रीलंका संबंधों में एक संवेदनशील विषय रहा है। भारत ऐतिहासिक रूप से श्रीलंका में तमिल समुदाय के कल्याण और अधिकारों के संबंध में सक्रिय रहा है।
- चीन का प्रभाव:
- भारत ने श्रीलंका पर चीन के बढ़ते आर्थिक और रणनीतिक प्रभाव के संबंध में चिंता व्यक्त की है जिसमें बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं तथा हंबनटोटा बंदरगाह के विकास में चीनी निवेश शामिल है। इसे कभी-कभी क्षेत्र में भारत के अपने हितों के लिये एक चुनौती के रूप में देखा जाता है। श्रीलंका में चीन की कुछ परियोजनाएँ निम्नलिखित हैं:
- वर्ष 2023 में श्रीलंका ने अपने बकाया ऋण के लगभग 4.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर की पूर्ति करने के लिये चीन के निर्यात-आयात बैंक (EXIM) के साथ एक समझौता किया।
- चीन ने चाइना मर्चेंट्स पोर्ट होल्डिंग्स के नेतृत्व में कोलंबो बंदरगाह पर दक्षिण एशिया वाणिज्यिक और लॉजिस्टिक्स हब (SACL) के रूप में निवेश किया है।
- फैक्सियन चैरिटी प्रोजेक्ट के अंतर्गत श्रीलंका में कमज़ोर समुदायों को खाद्य राशन वितरित करना और सहायता प्रदान करना शामिल है।
- भारत ने श्रीलंका पर चीन के बढ़ते आर्थिक और रणनीतिक प्रभाव के संबंध में चिंता व्यक्त की है जिसमें बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं तथा हंबनटोटा बंदरगाह के विकास में चीनी निवेश शामिल है। इसे कभी-कभी क्षेत्र में भारत के अपने हितों के लिये एक चुनौती के रूप में देखा जाता है। श्रीलंका में चीन की कुछ परियोजनाएँ निम्नलिखित हैं:
आगे की राह
- परियोजना का योजना चरण से निष्पादन तक सुचारु संचालन सुनिश्चित करना। परियोजना की प्रगति की समीक्षा करने, किसी भी मुद्दे की पहचान करने और आवश्यक समायोजन करने के लिये नियमित निगरानी तथा मूल्यांकन किया जाना चाहिये।
- परियोजना की योजना और कार्यान्वयन प्रक्रिया में स्थानीय समुदायों को शामिल करना। इसमें सामुदायिक क्रय-विक्रय और समर्थन सुनिश्चित करने के लिये परामर्श, क्षमता-निर्माण कार्यक्रम तथा जागरूकता अभियान शामिल हैं।
- संपूर्ण पर्यावरणीय प्रभाव आकलन कर स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र और जैवविविधता से संबंधित किसी भी नकारात्मक प्रभाव को कम करने के उपाय लागू कर पर्यावरणीय संधारणीयता को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. कभी-कभी समाचारों में देखा जाने वाला एलीफेंट पास का उल्लेख निम्नलिखित में से किस मामले के संदर्भ में किया जाता है? (2009) (a) बांग्लादेश| उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. भारत-श्रीलंका के संबंधों के संदर्भ में विवेचना कीजिये कि किस प्रकार आतंरिक (देशीय) कारक विदेश नीति को प्रभावित करते हैं। (2013) प्रश्न. 'भारत श्रीलंका का बरसों पुराना मित्र है।' पूर्ववर्ती कथन के आलोक में श्रीलंका के वर्तमान संकट में भारत की भूमिका की विवेचना कीजिये। (2022) |
भारत में भूजल संदूषण
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय हरित अधिकरण, केंद्रीय भूजल प्राधिकरण, ब्लैक फुट रोग, ब्लू बेबी सिंड्रोम, इटाई इटाई रोग, अटल भूजल योजना, जल शक्ति अभियान, जलभृत मानचित्रण एवं प्रबंधन कार्यक्रम, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना मेन्स के लिये:भूजल को दूषित करने के लिये ज़िम्मेदार प्राथमिक कारक, भूजल प्रदूषण के स्रोत |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
राष्ट्रीय हरित अधिकरण ने हाल ही में पूरे भारत में भूजल में ज़हरीले आर्सेनिक एवं फ्लोराइड के व्यापक मुद्दे पर केंद्रीय भूजल प्राधिकरण (CGWA) की प्रतिक्रिया पर असंतोष व्यक्त किया है।
- भारत के 25 राज्यों के 230 ज़िलों में आर्सेनिक के कारण भूजल संदूषण है, जबकि फ्लोराइड के कारण होने वाला प्रदूषण 27 राज्यों के 469 ज़िलों में भूजल संदूषित है।
नोट:
- भारत, दुनिया में भूजल के सबसे बड़े उपयोगकर्त्ताओं में से एक है, जहाँ भूजल देश के सिंचाई संसाधनों में 60% से अधिक का योगदान देता है।
- भूजल का यह अति-निष्कर्षण गैर-नवीकरणीय है क्योंकि पुनर्भरण दरें, निष्कर्षण दरों से कम हैं और साथ इस संसाधन को फिर से भरने में हज़ारों वर्ष लग सकते हैं।
भूजल संदूषण के स्रोत क्या हैं?
- प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले प्रदूषक: आर्सेनिक, फ्लोराइड एवं लौह संदूषण के मामले में पश्चिम बंगाल एवं असम क्रमशः सर्वाधिक प्रभावित राज्य हैं।
- कृषि: उर्वरकों, कीटनाशकों एवं शाकनाशियों के अत्यधिक उपयोग से हानिकारक रसायन जल स्तर में घुल जाते हैं।
- औद्योगिक अपशिष्ट: अनुपचारित औद्योगिक अपशिष्ट प्राय: भूजल स्रोतों में मिल जाते हैं, जिससे भारी धातुएँ और अन्य विषाक्त पदार्थ मिल जाते हैं।
- नगरीकरण: शहरी क्षेत्रों में लीकेज सीवेज प्रणालियाँ तथा अनुचित अपशिष्ट निपटान भूजल प्रदूषण में योगदान करते हैं।
- खारा जल: तटीय क्षेत्रों में, भूजल के अत्यधिक पंपिंग से समुद्र का खारा जल मीठे जल के जलभृतों में घुस सकता है, जिससे जल पीने या सिंचाई के लिये अनुपयोगी हो जाता है।
- राजस्थान में (लवणता) प्रदूषण से प्रभावित ग्रामीण बस्तियों की संख्या सर्वाधिक है।
केंद्रीय भूजल प्राधिकरण क्या है?
- परिचय: देश में भूजल संसाधनों के विकास तथा प्रबंधन को विनियमित एवं नियंत्रित करने के लिये पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3 (3) के तहत प्राधिकरण का गठन किया गया है।
- प्रमुख कार्य:
- देश में भूजल का विनियमन, नियंत्रण, प्रबंधन एवं विकास करना और इस उद्देश्य हेतु आवश्यक नियामक निर्देश जारी करना।
- अधिकारियों की नियुक्ति के लिये पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 4 के तहत शक्तियों का प्रयोग करना।
भूजल को दूषित करने के लिये उत्तरदायी प्राथमिक अभिकर्त्ता:
- आर्सेनिक: आर्सेनिक प्राकृतिक तरीके से होता है, यह कृषि, खनन और विनिर्माण में उपयोग किये जाने वाले मानव निर्मित रूपों में भी मौज़ूद होता है।
- औद्योगिक और खनन निर्वहन के साथ-साथ थर्मल पॉवर प्लांटों में फ्लाई ऐश तालाबों से रिसाव, भूजल में आर्सेनिक ला सकता है।
- आर्सेनिक के निरंतर संपर्क से ब्लैक फूट रोग होने के संभावना होती है।
- फ्लोराइड: भारत में, उच्च फ्लोराइड सामग्री वाले जल की खपत के कारण फ्लोरोसिस एक प्रचलित मुद्दा है।
- अत्यधिक फ्लोराइड के सेवन से न्यूरोमस्कुलर विकार, गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल समस्याएँ, दंत विकृति और कंकाल फ्लोरोसिस हो सकता है, जिसकी विशेषता अत्यधिक दर्द और जोड़ों का कठोर होना है।
- घुटनों के पैरों से बाहर की ओर झुकने का कारण नॉक-नी सिंड्रोम भी हो सकता है।
- नाइट्रेट: पीने योग्य जल में अत्यधिक नाइट्रेट का स्तर हीमोग्लोबिन के साथ प्रतिक्रिया करता है, जिससे गैर-कार्यात्मक मीथेमोग्लोबिन का निर्माण होता है और ऑक्सीजन परिवहन में बाधा उत्पन्न होती है, जिससे मीथेमोग्लोबिनेमिया या ब्लू बेबी सिंड्रोम की समस्या होती है।
- उच्च नाइट्रेट स्तर भी कार्सिनोजेन्स के निर्माण में योगदान दे सकता है और सुपोषणीकरण को तेज़ कर सकता है।
- यूरेनियम: भारत में, लंबे भौतिक अर्द्ध जीवन (long physical half-life) के साथ कमज़ोर रेडियोधर्मी यूरेनियम, स्थानीय क्षेत्रों में WHO के दिशा-निर्देशों से ऊपर की सांद्रता में पाया जाता है।
- राजस्थान और उत्तर-पश्चिमी राज्यों में, यूरेनियम मुख्य रूप से जलोढ़ जलाभृतों में मौजूद है, जबकि तेलंगाना जैसे दक्षिणी राज्यों में, यह ग्रेनाइट जैसी क्रिस्टलीय चट्टानों से उत्पन्न होता है।
- पीने योग्य जल में यूरेनियम का उच्च स्तर किडनी विषाक्तता का कारण बन सकता है।
- रेडॉन: हाल ही में बेंगलुरु के कुछ क्षेत्रों में, पीने के लिये उपयोग किये जाने वाले भूजल में रेडियोधर्मी रेडॉन का स्तर काफी अधिक पाया गया है।
- रेडॉन की उत्पत्ति रेडियोधर्मी ग्रेनाइट और यूरेनियम से होती है, जो क्षय होकर रेडियम तथा रेडॉन में परिवर्तित हो जाता है।
- वायु और जल में रेडॉन की उपस्थिति फेफड़ों के ऊतकों को नुकसान पहुँचा सकती है, जिससे फेफड़ों के कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।
- अन्य ट्रेस धातुएँ: जल सीसा, पारा, कैडमियम, ताँबा, क्रोमियम और निकल जैसी ट्रेस धातुओं से भी दूषित हो सकता है, जिनमें कैंसरकारी गुण उपस्थित होते हैं।
- कैडमियम से दूषित जल से इटाई इटाई रोग की संभावना होती है, जिसे आउच-आउच रोग भी कहा जाता है।
- पारा से दूषित जल मनुष्यों में मिनामाटा (न्यूरोलॉजिकल सिंड्रोम) का कारण बनता है।
भूजल प्रबंधन से संबंधित वर्तमान सरकारी पहल क्या हैं?
आगे की राह
- भूजल विनियमन को सुदृढ़ करना: औद्योगिक अपशिष्ट निपटान और कृषि पद्धतियों के संबंध में कड़े नियम लागू करना।
- जलभृत पुनर्भरण दरों के आधार पर कोटा के साथ भूजल निष्कर्षण के लिये एक परमिट प्रणाली लागू करना।
- सतत् कृषि को बढ़ावा देना: किसानों को परिशुद्ध कृषि तकनीकों, उर्वरकों के सावधानीपूर्वक उपयोग और ड्रिप सिंचाई जैसी कुशल सिंचाई प्रथाओं को अपनाने के लिये सहायिकी तथा प्रशिक्षण प्रदान करना।
- बुनियादी ढाँचे में निवेश: अनुपचारित अपवाहित मल द्वारा भूजल को प्रदूषित करने से रोकने के लिये अपशिष्ट जल उपचार संयंत्रों के निर्माण और रखरखाव में निवेश करना।
- विकेंद्रीकृत प्रबंधन: सहभागी जल प्रबंधन मॉडल को बढ़ावा देकर स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाना। इसमें स्थानीय क्षेत्रों में भूजल निष्कर्षण की योजना, निगरानी और विनियमन के लिये जल उपयोगकर्त्ता संघ (Water User Associations- WUA) बनाना शामिल हो सकता है।
- ब्लू क्रेडिट: वर्षा जल संचयन, ग्रेवाटर रीसाइक्लिंग और घरेलू तथा औद्योगिक क्षेत्रों में जल संचय से संबंधित प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिये ब्लू क्रेडिट जैसे वित्तीय प्रोत्साहन की पेशकश करने की आवश्यकता है।
- कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का उपयोग: AI के माध्यम से जल की गुणवत्ता, उपयोग प्रतिरूप और जलभृत विशेषताओं से संबंधित व्यापक डेटा का विश्लेषण करना। इससे संदूषण जोखिमों का पूर्वानुमान करने और लक्षित मध्यवर्तन कार्यान्वित करने में मदद मिल सकती है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एन.जी.टी) किस प्रकार केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सी.पी.सी.बी) से भिन्न है? (2018)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) Q. निम्नलिखित में से कौन-से भारत के कुछ भागों में पीने के जल में प्रदूषक के रूप में पाए जा सकते हैं? (2013) 1) आर्सेनिक नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: a) केवल 1 और 3 उत्तर: (C) Q. निम्नलिखित में से कौन-सा प्राचीन नगर अपने उन्नत जल संचयन और प्रबंधन प्रणाली के लिये सुप्रसिद्ध है, जहाँ बाँधों की शृंखला का निर्माण किया गया था तथा संबद्ध जलाशयों में नहर के माध्यम से जल को प्रवाहित किया जाता था? (2021) (a) धोलावीरा उत्तर: (a) Q. 'वाॅटरक्रेडिट' के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (c) मेन्स:Q.1 जल संरक्षण और जल सुरक्षा हेतु भारत सरकार द्वारा प्रवर्तित जल शक्ति अभियान की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? (2020) Q.2 रिक्तीकरण परिदृश्य में विवेकी जल उपयोग के लिये जल भंडारण और सिंचाई प्रणाली में सुधार के उपायों को सुझाइए। (2020) |