भारतीय राजव्यवस्था
डिफॉल्ट जमानत
- 15 May 2023
- 11 min read
प्रिलिम्स के लिये:डिफॉल्ट जमानत, सर्वोच्च न्यायालय, आपराधिक प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 167(2), अनुच्छेद 21, अनुच्छेद 22, मौलिक अधिकार मेन्स के लिये:डिफॉल्ट जमानत और संबंधित प्रावधान, जमानत के प्रकार |
चर्चा में क्यों?
सर्वोच्च न्यायालय ने निचली अदालतों को आपराधिक मामलों में डिफॉल्ट जमानत याचिका पर उस स्थिति में विचार करने का निर्देश दिया है, जब चार्जशीट 60 या 90 दिनों के अंदर दायर नहीं की जाती है, जिससे उन्हें रितु छाबड़िया बनाम भारत संघ (26 अप्रैल, 2023) मामले में अपने निर्णय पर विश्वास कर स्वतंत्र रूप से डिफॉल्ट जमानत देने की अनुमति मिलती है।
- रितु छाबड़िया के निर्णय को वापस लेने की मांग वाली प्रवर्तन निदेशालय (ED) की अपील पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ये टिप्पणियाँ कीं।
- रितु छाबड़िया के निर्णय में कहा गया है कि "दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 167 (2) के तहत डिफॉल्ट जमानत का अधिकार” केवल एक वैधानिक अधिकार नहीं है, बल्कि एक मौलिक अधिकार है जो संविधान के अनुच्छेद 21 में आरोपी व्यक्तियों की रक्षा के लिये "राज्य की अबाध और मनमानी शक्ति" में मिलता है"।
डिफॉल्ट जमानत:
- परिचय:
- यह जमानत का अधिकार है जो पुलिस द्वारा न्यायिक हिरासत में लिये गए किसी व्यक्ति के संबंध में एक निर्दिष्ट अवधि के अंदर जाँच पूरी करने में विफल होने पर प्राप्त होता है।
- इसे वैधानिक जमानत के रूप में भी जाना जाता है।
- यह दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) की धारा 167 (2) में निहित है।
- यह जमानत का अधिकार है जो पुलिस द्वारा न्यायिक हिरासत में लिये गए किसी व्यक्ति के संबंध में एक निर्दिष्ट अवधि के अंदर जाँच पूरी करने में विफल होने पर प्राप्त होता है।
- CrPC की धारा 167(2):
- यदि पुलिस एक निर्दिष्ट अवधि के अंदर जाँच पूरी करने में असमर्थ रहता है, तो न्यायिक हिरासत में व्यक्ति को जमानत मांगने का अधिकार है।
- जब पुलिस 24 घंटे के अंदर जाँच पूरी नहीं कर पाती है, तो वह संदिग्ध को एक मजिस्ट्रेट के सामने पेश करती है, जो यह तय करता है कि संदिग्ध को पुलिस हिरासत में रखा जाना चाहिये या न्यायिक हिरासत में।
- CrPC की धारा 167 (2) के अनुसार, मजिस्ट्रेट आरोपी व्यक्ति को 15 दिनों तक पुलिस हिरासत में रखने का आदेश दे सकता है। अधिक समय की आवश्यकता होने पर मजिस्ट्रेट आरोपी व्यक्ति को न्यायिक हिरासत में रखने का अधिकार दे सकता है, जिसका अर्थ है जेल। हालाँकि अभियुक्त को निम्न समय-सीमा से अधिक नहीं रखा जा सकता है:
- 90 दिन: अगर जाँच अधिकारी एक ऐसे अपराध की जाँच कर रहा है जो मृत्युदंड, आजीवन कारावास या कम-से-कम दस वर्ष के कारावास से दंडनीय है।
- 60 दिन: अगर जाँच अधिकारी किसी अन्य अपराध की जाँच कर रहा है।
- विशेष स्थितियाँ:
- कुछ विशेष कानून जैसे- नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सबस्टेंस एक्ट, जाँच की समय अवधि अलग हो सकती है, जैसे 180 दिन।
- गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम 1967 में डिफॉल्ट सीमा केवल 90 दिनों की है, जिसे और 90 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है।
- यह विस्तार केवल लोक अभियोजक की एक रिपोर्ट पर दिया जा सकता है जिसमें जाँच में हुई प्रगति का संकेत दिया गया हो एवं आरोपी को निरंतर हिरासत में रखने के कारण बताए गए हों।
- इन प्रावधानों से पता चलता है कि समय का विस्तार स्वत: नहीं होता है बल्कि इसके लिये न्यायिक आदेश की आवश्यकता होती है।
- यह विस्तार केवल लोक अभियोजक की एक रिपोर्ट पर दिया जा सकता है जिसमें जाँच में हुई प्रगति का संकेत दिया गया हो एवं आरोपी को निरंतर हिरासत में रखने के कारण बताए गए हों।
डिफॉल्ट बेल से संबंधित पूर्व निर्णय:
- CBI बनाम अनुपम जे. कुलकर्णी (1992):
- सर्वोच्च न्यायालय फैसला सुनाया कि एक मजिस्ट्रेट किसी आरोपी की गिरफ्तारी के बाद 15 दिनों तक पुलिस हिरासत को अधिकृत कर सकता है। इस अवधि के बाद किसी भी अतिरिक्त हिरासत को न्यायिक हिरासत में होना चाहिये, जब तक कि वही अभियुक्त किसी विशिष्ट घटना या लेन-देन से उत्पन्न नए मामले में शामिल न हो। ऐसे मामलों में मजिस्ट्रेट एक बार फिर पुलिस हिरासत को अधिकृत करने पर विचार कर सकता है।
- उदय मोहनलाल आचार्य बनाम महाराष्ट्र राज्य (2001):
- सर्वोच्च न्यायालय ने संजय दत्त बनाम राज्य के आधार पर कहा कि अभियुक्त द्वारा डिफॉल्ट जमानत के अपने अधिकार का उपयोग तब माना जाएगा जब उसने इसके लिये आवेदन दायर किया हो, न कि तब जब वह डिफॉल्ट जमानत पर रिहा हुआ हो है।
- यदि अभियुक्त के पक्ष में डिफॉल्ट जमानत का आदेश पारित किया जाता है, लेकिन वह जमानत देने में विफल रहता है और इस बीच आरोप पत्र दायर कर दिया जाता है तो डिफॉल्ट जमानत का अधिकार समाप्त हो जाएगा।
भारत में जमानत के अन्य प्रकार:
- नियमित जमानत: यह न्यायालय (देश के भीतर किसी भी न्यायालय) द्वारा दिया गया एक निर्देश है जो पहले से ही गिरफ्तार और पुलिस हिरासत में रखे गए व्यक्ति को रिहा करने हेतु उपलब्ध है। ऐसी जमानत के लिये व्यक्ति CrPC की धारा 437 तथा 439 के तहत आवेदन कर सकता है।
- अंतरिम जमानत: न्यायालय द्वारा अस्थायी और अल्प अवधि हेतु जमानत दी जाती है, यह जमानत तब तक दी जा सकती है जब तक कि नियमित या अग्रिम जमानत हेतु आवेदन न्यायालय के समक्ष लंबित नहीं होता है।
- अग्रिम जमानत या पूर्व-गिरफ्तारी जमानत: यह एक कानूनी प्रावधान है जो आरोपी व्यक्ति को गिरफ्तार होने से पहले जमानत हेतु आवेदन करने की अनुमति देता है। भारत में पूर्व-गिरफ्तारी जमानत का प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 438 में किया गया है। इसे केवल सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा दिया जाता है।
- इस प्रकार की जमानत के लिये कोई व्यक्ति CrPC की धारा 438 के तहत एक आवेदन दायर कर सकता है। यह केवल सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा जारी किया जाता है।
गिरफ्तारी से संबंधित संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 22 गिरफ्तार अथवा हिरासत में लिये गए व्यक्तियों को संरक्षण प्रदान करता है। नज़रबंदी के प्रकार हैं- दंडात्मक और निवारक।
- दंडात्मक निरोध के तहत किसी व्यक्ति द्वारा किये गए अपराध हेतु उसे न्यायालय में जाँच के बाद दंडित किया जाता है।
- दूसरी ओर, निवारक निरोध का अर्थ किसी व्यक्ति को बिना किसी मुकदमे और अदालत द्वारा दोषसिद्धि के हिरासत में लेने से है।
- अनुच्छेद 22 के दो भाग हैं- पहला भाग साधारण कानून के मामलों से संबंधित है और दूसरा भाग निवारक निरोध कानून के मामलों से संबंधित है।
दंडात्मक निरोध के तहत दिये गए अधिकार |
निवारक निरोध के तहत दिये गए अधिकार |
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