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टू द पॉइंट

जैव विविधता और पर्यावरण

भारत में उभरती पर्यावरण प्रौद्योगिकियाँ

  • 21 Apr 2025
  • 24 min read

प्रारंभिक परीक्षा:

राष्ट्रीय सौर मिशन, विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) नीतियाँ, रासायनिक एवं अपशिष्ट प्रबंधन हेतु राष्ट्रीय कार्य योजना, कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS) प्रौद्योगिकियाँ, राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन, पेरिस समझौता, हानि और क्षति कोष (LDF), हरित जलवायु कोष (GCF)     

मुख्य परीक्षा:

सतत् विकास में सरकारी नीतियों की भूमिका और उभरती पर्यावरण प्रौद्योगिकियों को बढ़ाने में चुनौतियाँ एवं अवसर 

चर्चा में क्यों?

भारत को गंभीर पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसमें गंभीर वायु एवं जल प्रदूषण (विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट 2024 में भारत को 5वाँ सबसे प्रदूषित देश बताया गया है), जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव और सतत् विकास की ओर संक्रमण की चुनौती प्रमुख है।

भारत में उभरती प्रमुख पर्यावरणीय प्रौद्योगिकियाँ क्या हैं?

नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकी

  • सौर ऊर्जा: भारत ने एक महत्त्वाकांक्षी नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्य निर्धारित किया है, जिसका लक्ष्य वर्ष 2030 तक 500 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता हासिल करना है (भारत की COP26 प्रतिज्ञा के अनुसार), जिसमें सौर ऊर्जा पर विशेष ज़ोर दिया गया है। 
    • चूँकि भारत का लक्ष्य सौर ऊर्जा की लागत को कम करना और दक्षता को बढ़ाना है, इसलिये राष्ट्रीय सौर मिशन, सौर फोटोवोल्टिक सेल जैसी प्रौद्योगिकियों और विभिन्न राज्य स्तरीय प्रोत्साहनों जैसी पहलों ने सौर प्रौद्योगिकियों को अपनाने को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 
  • पवन ऊर्जा: भारत में पवन ऊर्जा का तेजी से विस्तार हो रहा है, जिसमें तटीय और अपतटीय दोनों प्रकार की पवन ऊर्जा शामिल हैं। वर्ष 2023 तक भारत वैश्विक स्तर पर पवन ऊर्जा क्षमता में चौथे स्थान पर था, जिसमें तमिलनाडु, गुजरात और महाराष्ट्र जैसे राज्य अग्रणी थे। 
    • उच्च दक्षता वाले विंड टर्बाइन, ग्रिड एकीकरण प्रणालियों और ऊर्जा भंडारण समाधानों में नई तकनीकी प्रगति, रुकावट संबंधी समस्याओं को दूर करने और ग्रिड स्थिरता में सुधार करने में मदद कर रही है। 
  • जलविद्युत और जैव ऊर्जा: भारत के स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण में जलविद्युत की भूमिका महत्त्वपूर्ण बनी हुई है, विशेष रूप से छोटे पैमाने के जलविद्युत संयंत्र। ये ग्रामीण क्षेत्रों को विश्वसनीय, नवीकरणीय विद्युत प्रदान करते हैं। 
    • कृषि अवशेषों, अपशिष्ट एवं कार्बनिक पदार्थों से जैव ऊर्जा एक अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमें जैव ईंधन, बायोगैस और बायोमास आधारित ऊर्जा ग्रामीण ऊर्जा आवश्यकताओं में महत्त्वपूर्ण योगदान देती है।

अपशिष्ट प्रबंधन और पुनर्चक्रण

  • अपशिष्ट से ऊर्जा (WtE) प्रौद्योगिकी: WtE प्रौद्योगिकियों में शामिल हैं:
    • बायोमेथेनेशन जैविक अपशिष्ट का उपयोग बायोगैस बनाने के लिये करता है, जिसका उपयोग विद्युत निर्माण के लिये किया जा सकता है। गैसीय अपशिष्ट को सिंथेसिस गैस (सिनगैस) में परिवर्तित करता है, जिसका उपयोग विद्युत निर्माण के लिये किया जा सकता है।
  • प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन: शहरी क्षेत्रों में प्लास्टिक अपशिष्ट में वृद्धि के साथ, भारत प्लास्टिक रीसाइक्लिंग नवाचारों और बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। प्लास्टिक प्रदूषण को कम करने के प्रयासों में विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) नीतियों का उपयोग शामिल है, जो उत्पादकों को उनके उत्पादों के पूरे जीवनचक्र, विशेषकर उपभोगोत्तर अपशिष्ट, की ज़िम्मेदारी लेने के लिये बाध्य करती हैं।
  • ई-अपशिष्ट प्रबंधन: ई-अपशिष्ट प्रबंधन भारत में एक बढ़ती चिंता का विषय है, क्योंकि यह देश वैश्विक स्तर पर इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है। ई-अपशिष्ट के एक प्रमुख उत्पादक के रूप में, भारत ई-अपशिष्ट (प्रबंधन) नियम, 2022 के तहत रिवर्स लॉजिस्टिक्स जैसी सुरक्षित रीसाइक्लिंग तकनीकों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। 
    • रिवर्स लॉजिस्टिक्स में पर्यावरणीय क्षति को कम करने के लिये जीवन-अंत (EOL) विद्युत एवं इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों का संग्रहण, वियोजन, पुनःनिर्माण, पुनर्चक्रण और ज़िम्मेदारीपूर्वक निपटान शामिल है।

जल शोधन और अपशिष्ट जल उपचार में नवाचार

  • विलवणीकरण तकनीकें: तटीय क्षेत्रों में जल की कमी के कारण, सौर विलवणीकरण तकनीकों का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। ये प्रणाली समुद्री जल को मीठे जल में परिवर्तित करने के लिये सौर ऊर्जा का उपयोग करती हैं, जो ताज़ा जल प्राप्त करने का एक पर्यावरण-अनुकूल और किफायती माध्यम है। शहरी एवं औद्योगिक जल आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये तटीय क्षेत्रों में वृहद स्तर पर रिवर्स ऑस्मोसिस (RO) सिस्टम भी स्थापित किये जा रहे हैं।
  • वर्षा जल संचयन और पुनः उपयोग तकनीकें: वर्षा जल संचयन स्थायी जल प्रबंधन का एक प्रमुख घटक है, मूलतः सूखाग्रस्त क्षेत्रों में। उदाहरण के लिये- कुंडी (जिसे कुंड के नाम से भी जाना जाता है) राजस्थान में इस्तेमाल की जाने वाली एक पारंपरिक वर्षा जल संचयन प्रणाली है
    • IoT- आधारित स्मार्ट जल प्रबंधन प्रणालियाँ जल के उपयोग को अनुकूलित करने, लीक का पता लगाने और कुशल संरक्षण सुनिश्चित करने के लिये सेंसर और डेटा एनालिटिक्स का उपयोग करती हैं। 
    • भारत की जल संरक्षण नीतियाँ घरेलू और सामुदायिक स्तर पर वर्षा जल संचयन (राष्ट्रीय जल नीति और शहरी दिशानिर्देश) को बढ़ावा देती हैं।

जलवायु परिवर्तन शमन और अनुकूलन प्रौद्योगिकियाँ

  • कार्बन कैप्चर एवं स्टोरेज (CCS): भारत के अपडेटेड नेशनली डिटरमाइंड कंट्रीब्यूशन (NDC) के अनुरूप, जिसका लक्ष्य वर्ष 2030 तक उत्सर्जन में 45% की कमी लाना है, देश स्वच्छ ऊर्जा में बदलाव पर अधिक ज़ोर दे रहा है। इस संदर्भ में CCS तकनीकें औद्योगिक उत्सर्जन को कम करने और वैश्विक जलवायु प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण समाधान के रूप में उभरी हैं । CCS दृष्टिकोण में शामिल हैं:
    • पॉइंट-सोर्स CCS का तात्पर्य उस स्थान पर सीधे CO₂ को ग्रहण करने से है जहाँ इसका उत्पादन होता है, जैसे औद्योगिक धुएँ की चिमनियों से।
    • डायरेक्ट एयर कैप्चर (DAC), वायुमंडल में पहले से उत्सर्जित CO2 को हटाने पर केंद्रित है।
  • ग्रीन हाइड्रोजन: भारी उद्योगों, परिवहन और विद्युत उत्पादन में इसके संभावित उपयोग के लिये ग्रीन हाइड्रोजन की खोज की जा रही है। इसे उन क्षेत्रों के लिये एक व्यवहार्य समाधान माना जाता है, जिनका विद्युतीकृत करना मुश्किल है, जैसे कि इस्पात निर्माण और लंबी दूरी का परिवहन आदि।
    • राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन (NGHM) (वर्ष 2023 में लॉन्च) का लक्ष्य वर्ष 2030 तक वार्षिक रूप से 5 मिलियन मीट्रिक टन (MMT) हरित हाइड्रोजन का उत्पादन करना है, जो देश के स्वच्छ ऊर्जा परिवर्तन में महत्त्वपूर्ण योगदान देगा

पर्यावरण निगरानी में ड्रोन एवं GIS का उपयोग

  • ड्रोन (मानव रहित हवाई वाहन - UAV) और भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS): ड्रोन वनस्पति, जल गुणवत्ता और भूमि उपयोग परिवर्तनों की निगरानी के लिये LiDAR (लाइट डिटेक्शन एंड रेंजिंग) जैसे सेंसर का उपयोग करके हाई-रिज़ॉल्यूशन इमेज़री कैप्चर करते हैं ।
    • ये भूमि क्षरण, वनोन्मूलन पर नज़र रखने और आवास परिवर्तनों का आकलन करने में सहायक  हैं, साथ ही संरक्षण के लिये डेटा एनालिसिस में GIS सहायता भी करते हैं।
    • ड्रोन जलवायु परिवर्तन के प्रभावों जैसे ग्लेशियर, तटीय अपरदन और वनाग्नि पर भी नज़र रखते हैं, जबकि GIS दीर्घकालिक जलवायु मॉडलिंग का समर्थन करता है। 
    • उदाहरण के लिये, ISRO हिमालय में ग्लेशियर पिघलने और तटीय अपरदन की मॉनिटरिंग करने के लिये उपग्रह-आधारित ड्रोन का उपयोग करता है। इसके अतिरिक्त, भारत द्वारा सीमा निगरानी के लिये ड्रोन तैनात किया जा रहा है, जो संवेदनशील क्षेत्रों में पर्यावरणीय परिवर्तनों की निगरानी में भी सहायता करते हैं।

जलवायु परिवर्तन हस्तक्षेप के लिये भू-इंजीनियरिंग

भू-इंजीनियरिंग प्रौद्योगिकियों को सामान्य तौर पर दो मुख्य श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है: 

  • सौर विकिरण प्रबंधन (SRM): SRM में सौर किरणों को पृथ्वी से दूर परावर्तित करने के लिये अंतरिक्ष में कुछ पदार्थ इंजेक्ट करना शामिल है। यह विधि, हालाँकि अभी भी वैचारिक है, जिसमें ज्वालामुखी विस्फोट जैसी प्राकृतिक घटनाओं से प्रेरणा ली जाती है।
    • उदाहरण के लिये, वर्ष 1991 में फिलीपींस में माउंट पिनातुबो के विस्फोट से उस वर्ष पृथ्वी का तापमान 0.5°C कम हो गया था।
  • कार्बन डाइऑक्साइड निष्कासन (CDR): तकनीकों में CCS, डायरेक्ट एयर कैप्चर (DAC), और कार्बन कैप्चर, उपयोग एवं भंडारण (CCUS) शामिल हैं, जिनका ध्यान वायुमंडलीय CO₂ के स्तर में दीर्घकालिक कमी पर है।
    • DAC: इसमें भंडारण या उपयोग के लिये बड़े उपकरणों (जिन्हें प्रायः ‘कृत्रिम पेड़’ कहा जाता है) का उपयोग करके वायुमंडलीय वायु से सीधे CO₂ को कम करना शामिल है।
      • DAC के संभावित लाभ अधिक हैं क्योंकि यह ऐतिहासिक CO₂ उत्सर्जन को नियंत्रित कर सकता है, हालाँकि इसे अधिक महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है।
    • CCUS: कुछ संग्रहित CO₂ को औद्योगिक प्रक्रियाओं में पुनः उपयोग में लाया जाता है, जबकि शेष को संग्रहीत कर लिया जाता है

पर्यावरणीय स्थिरता के लिये वैश्विक पहल क्या हैं?

भारत में उभरती पर्यावरण प्रौद्योगिकियों से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?

  • उच्च आरंभिक लागत: कई पर्यावरणीय रूप से संधारणीय प्रौद्योगिकियों, जैसे कार्बन CCS और सौर ऊर्जा प्रतिष्ठानों में महत्त्वपूर्ण प्रारंभिक निवेश शामिल होता है।
    • उदाहरण के लिये, इस्पात और सीमेंट जैसे उद्योगों में CCS स्थापित करने की लागत अभी भी अधिक है और कई व्यवसाय गारंटीकृत रिटर्न या सरकारी सब्सिडी के बिना निवेश करने में अनिच्छुक हो सकते हैं।
    • कुछ क्षेत्रों में उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन (PLI) जैसी योजनाएँ धीमी गति से आगे बढ़ी हैं, जिससे स्पष्ट वित्तीय लाभ या नीतिगत समर्थन के बिना निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित करने में चुनौतियाँ उजागर होती हैं।
  • तकनीकी और परिचालन जटिलता: उभरती प्रौद्योगिकियों को कार्यान्वयन के लिये प्रायः विशिष्ट ज्ञान और विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है। 
    • AI-संचालित जलवायु मॉडलिंग जैसी उभरती प्रौद्योगिकियों के लिये विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है, लेकिन भारत स्थानीयकृत AI सिस्टम (जैसे: चीन का डीपसीक, अमेरिका का OpenAI) विकसित करने में पिछड़ रहा है। R&D निवेश की कमी, AI/ML में कौशल अंतराल और स्थानीय बुनियादी अवसंरचना के साथ वैश्विक प्रणालियों का अकुशल एकीकरण (जैसे: स्मार्ट सिटी अपशिष्ट प्रबंधन में विलंब) प्रगति में बाधा डालते हैं, लागत बढ़ाते हैं और वैश्विक प्रतिस्पर्द्धियों की तुलना में सतत्त विकास लक्ष्यों में विलंब करते हैं।
  • विनियामक और नीतिगत बाधाएँ: भारत में इलेक्ट्रिक वाहन (EV) चार्जिंग बुनियादी अवसंरचना की शुरुआत, भारत में (हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक) वाहनों का तीव्र अंगीकरण और विनिर्माण (FAME) योजना चरण- II जैसी सरकारी पहलों के बावजूद अस्पष्ट नियमों, निजी निवेश के लिये अस्पष्ट प्रोत्साहन और नियामक अनुमोदन प्राप्त करने में लंबी देरी के कारण बाधित है।
    • EV चार्जिंग को सेवा या बिक्री के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिये या नहीं, इस पर चल रही बहस इस मुद्दे को और जटिल बना देती है, जिससे व्यवसायों के लिये चार्जिंग स्टेशन स्थापित करना मुश्किल हो जाता है और निजी क्षेत्र की भागीदारी हतोत्साहित होती है।
  • सार्वजनिक स्वीकृति और पर्यावरणीय प्रभाव :
    • उभरती हुई प्रौद्योगिकियों को प्रायः सार्वजनिक जागरूकता, स्वीकृति और उनके संभावित पर्यावरणीय या सामाजिक प्रभावों से संबंधित चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिये, सूखा सहिष्णु किस्मों जैसी आनुवंशिकतः रूपांतरित फसलों को खाद्य सुरक्षा और पर्यावरणीय संधारणीयता को सुनिश्चित करने की क्षमता के बावजूद सार्वजनिक विरोध का सामना करना पड़ सकता है।
    • इसी प्रकार, मकई जैसी खाद्य फसलों से जैव ईंधन का उत्पादन खाद्य सुरक्षा और ऊर्जा उत्पादन के बीच टकराव उत्पन्न कर सकता है, जिससे उनके व्यापक पर्यावरणीय एवं सामाजिक परिणामों के बारे में चिंताएँ बढ़ सकती हैं।

आगे की राह 

  • हरित प्रौद्योगिकी निवेश पर अधिक ध्यान: नवीकरणीय ऊर्जा और ऊर्जा-कुशल समाधान जैसी स्वच्छ प्रौद्योगिकियों में निवेश में तीव्रता लाना, सतत् विकास के लिये महत्त्वपूर्ण है। 
    • NGHM जैसी पहल, पर्यावरण अनुकूल परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिये ग्रीन बॉण्ड और कार्बन क्रेडिट द्वारा समर्थित, नवाचार एवं धारणीयता को बढ़ावा दे सकती है।
  • चक्रीय अर्थव्यवस्था परिवर्तन: भारत को चक्रीय अर्थव्यवस्था मॉडल अपनाना चाहिये, जिसमें पारिस्थितिकी डिज़ाइन, संसाधन दक्षता और अपशिष्ट न्यूनीकरण पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये। 
    • इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम मार्च 2025 में आयोजित 12th रीजनल 3R एंड सर्कुलर इकोनॉमी फोरम था। यह फोरम ‘एशिया-प्रशांत में SDG और शून्य कार्बन लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में सर्कुलर सोसाइटीज़ को साकार करने’ पर केंद्रित था, जिसमें संधारणीय प्रथाओं एवं क्रॉस-सेक्टर सहयोग पर जोर दिया गया था।
  • संधारणीयता के लिये नीतिगत कार्यढाँचे को मज़बूत करना: सरकार एक राष्ट्रीय संधारणीयता रोडमैप बना सकती है, जिसमें हरित प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देने और कॉर्पोरेट जवाबदेही को प्रोत्साहित करने में दीर्घकालिक संधारणीयता सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न क्षेत्रों में नीतियों को संरेखित किया जा सकता है।
    • उदाहरण के लिये, टेस्ला ने प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा के बाद भारत में निवेश करने का निर्णय लिया, जिससे यह संकेत मिलता है कि किस प्रकार सरकारी सहभागिता बड़े निवेश को आकर्षित कर सकती है। 
  • सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करना: संधारणीय प्रौद्योगिकियों के सह-विकास और तैनाती के लिये सरकार, निजी क्षेत्र एवं अनुसंधान संस्थानों के बीच साझेदारी को बढ़ावा देना।
  • संधारणीय कृषि और खाद्य प्रणालियों पर ध्यान केंद्रित करना: परिशुद्ध कृषि सहित संधारणीय कृषि पद्धतियों को बढ़ावा दिया जाना चाहिये, जो फसल की पैदावार बढ़ाने के साथ-साथ जल, उर्वरक और कीटनाशकों के उपयोग को कम करती है।
    • सिक्किम, भारत का पहला पूर्णतः जैविक राज्य है, जो दर्शाता है कि किस प्रकार सरकारी सब्सिडी और नीतिगत समर्थन महत्त्वपूर्ण परिवर्तन ला सकते हैं। 
    • कृषि-तकनीक स्टार्टअप्स के साथ साझेदारी करके और जैविक कृषि को प्रोत्साहित करके , सरकार इन प्रथाओं को देश भर में लागू कर सकती है।

निष्कर्ष

अत्याधुनिक पर्यावरणीय तकनीकों के अंगीकरण से न केवल प्रदूषण और संसाधनों की कमी को दूर किया जा सकता है, बल्कि नवाचार और आर्थिक विकास को भी बढ़ावा मिल सकता है। इन प्रगतियों को अपनाकर, भारत में प्रतिक्रियात्मक उपायों से सक्रिय समाधानों की ओर बढ़ने की क्षमता है, जिससे एक अधिक संधारणीय और समुत्थानशील अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रारंभिक

प्रश्न 1. ‘वाटरक्रेडिट’ के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये- (2021)  

  1. यह जल एवं स्वच्छता क्षेत्र में कार्य के लिये सूक्ष्म वित्त साधनों (माइक्रोफाइनेंस टूल्स) को लागू करता है। 
  2. यह एक वैश्विक पहल है जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन और विश्व बैंक के तत्त्वावधान में प्रारंभ किया गया है।
  3. इसका उद्देश्य निर्धन व्यक्तियों को सहायिकी के बिना अपनी जल-संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये समर्थ बनाना है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सेे सही हैं?

(a) केवल 1 और 2
(b)  केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3  
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (c)


मेन्स

प्रश्न 1. रिक्तीकरण परिदृश्य में विवेकी जल उपयोग के लिये जल भंडारण और सिंचाई प्रणाली में सुधार के उपायों को सुझाइये। (2020)

प्रश्न 2. "वहनीय (ऐफोर्डेबल), विश्वसनीय, धारणीय तथा आधुनिक ऊर्जा तक पहुँच संधारणीय (सस्टेनबल) विकास लक्ष्यों (एस.डी.जी.) को प्राप्त करने के लिये अनिवार्य है।" भारत में इस संबंध में हुई प्रगति पर टिप्पणी कीजिये। (2018)

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