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भारतीय अर्थव्यवस्था

ग्रीन बॉण्ड

  • 27 Jan 2021
  • 8 min read

चर्चा में क्यों?

हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (Reserve Bank of India- RBI) द्वारा  किये गए एक अध्ययन के अनुसार, भारत में सूचना विषमता (Asymmetric Information) के कारण ग्रीन बॉण्ड जारी करने की लागत प्रायः अन्य बॉण्डों की तुलना में अधिक रही है।

प्रमुख बिंदु: 

ग्रीन बॉण्ड (विवरण):

  • ग्रीन बॉण्ड के बारे में:
    • ग्रीन बॉण्ड  ऋण प्राप्ति का एक साधन है जिसके माध्यम से ग्रीन ’परियोजनाओं के लिये धन जुटाया जाता है, यह मुख्यतः नवीकरणीय ऊर्जा, स्वच्छ परिवहन, स्थायी जल प्रबंधन आदि से संबंधित होता है।
      • बॉण्ड जो कि आय का एक निश्चित साधन होता है, एक निवेशक द्वारा उधारकर्त्ता (आमतौर पर कॉर्पोरेट या सरकारी) को दिये गए ऋण का प्रतिनिधित्व करता है।
      •  पारंपरिक  बॉण्ड (ग्रीन बॉण्ड के अलावा अन्य बॉण्ड) द्वारा निवेशकों को एक निश्चित ब्याज दर (कूपन) का भुगतान किया जाता है।
  • वृद्धि:
    • वर्ष 2007 में यूरोपीय निवेश बैंक और विश्व बैंक जैसे कुछ बैंकों द्वारा ग्रीन   बॉण्ड लॉन्च किया गया। इसके बाद वर्ष 2013 में कॉरपोरेट्स द्वारा भी इन्हें जारी किया गया जिस कारण इसका समग्र विकास हुआ।
  • विनियमन:
  • लाभ:
    • प्रतिष्ठा में बढ़ोतरी:
      • ग्रीन  बॉण्ड  जारीकर्त्ता की प्रतिष्ठा को बढ़ाते हैं, क्योंकि यह सतत् विकास के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करने में सहायक है।
    • प्रतिबद्धताओं की पूर्ति:
      • इनमें जलवायु समझौतों और  इन पर हस्ताक्षरकर्त्ताओं द्वारा अन्य हरित प्रतिबद्धताओं को पूरा करने की क्षमता है ।
      • भारत का राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Intended Nationally Determined Contribution- INDC) दस्तावेज़ जलवायु सुधार की दिशा में भारत के योगदान और प्रगति के लिये एक कम कार्बन पथ का अनुसरण करने के लक्ष्य का उल्लेख करता है।
    • कम लागत को बढ़ावा: 
      • आमतौर पर वाणिज्यिक बैंकों द्वारा दिये जाने वाले ऋण की तुलना में ग्रीन बॉण्ड पर कम ब्याज लिया जाता है।
      • हरित निवेश विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने के साथ-साथ पूंजी जुटाने की लागत को कम करने में मदद कर सकता है।
    • सनराइज़ सेक्टर
      • ग्रीन बॉण्ड  अक्षय ऊर्जा जैसे सनराइज़ सेक्टर के वित्तपोषण को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण रहे हैं, इस प्रकार यह भारत के सतत् विकास में योगदान देते हैं।

RBI द्वारा किये गए हालिया अध्ययन का विवरण:

  • वर्तमान शेयर: 
    • वर्ष 2018 के बाद से भारत में जारी सभी प्रकार के बॉण्ड में ग्रीन बॉण्ड का हिस्सा मात्र 0.7% रहा है।
    • हालाँकि  मार्च 2020 तक गैर-पारंपरिक ऊर्जा के लिये बैंकों द्वारा दिया जाने वाला ऋण, विद्युत क्षेत्र के बकाया कुल बैंक ऋण का लगभग 7.9 प्रतिशत है।
      • भारत में ज़्यादातर ग्रीन बॉण्ड सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों या कॉर्पोरेट्स द्वारा बेहतर वित्तीय स्थिति को ध्यान में रखकर जारी किये जाते हैं।
  • चुनौतियाँ : 
    • उच्च कूपन दर:
      • 5 से 10 वर्षों के मध्य की परिपक्व अवधि के साथ वर्ष 2015 के बाद से जारी किये गए ग्रीन बॉण्ड के लिये औसत कूपन दर सामान्यत: इसी अवधि की कॉर्पोरेट सरकार (Corporate Government) के  बॉण्ड की तुलना में अधिक होती है।
    •  उधार लेने की उच्च लागत:
      • सूचना विषमता के कारण यह सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती रही है। उच्च कूपन दर अधिक उधार लेने की लागत के कारणों में से एक है।
      • सूचना विषमता, जिसे "सूचना विफलता" के रूप में भी जाना जाता है, की स्थिति तब उत्पन्न होती है जब आर्थिक लेन-देन के लिये एक पक्ष के पास दूसरे पक्ष की तुलना में अधिक भौतिक ज्ञान होता है।
  • सुझाव:
    • भारत में एक बेहतर सूचना प्रबंधन प्रणाली विकसित करने से परिपक्वता असमानता को कम करने, उधार लेने की उच्च लागत और विभिन्न चरणों में उधार लेने की लागत और  संसाधनों के कुशल आवंटन में मदद मिल सकती है।

अन्य चुनौतियाँ:

धन का दुरुपयोग:

  • यह गंभीर चर्चा का विषय है कि क्या ग्रीन बॉण्ड जारी करने वालों द्वारा लक्षित परियोजनाएंँ पर्याप्त रूप से हरित परियोजनाएँ ही हैं क्योंकि  ग्रीन बॉण्ड से प्राप्त आय का उपयोग पर्यावरण को नुकसान पहुंँचाने वाली परियोजनाओं के वित्तपोषण हेतु किया जा रहा है।

क्रेडिट रेटिंग का अभाव:

  • हरित परियोजनाओं और  बॉण्डों के लिये क्रेडिट रेटिंग या रेटिंग दिशा-निर्देशों का अभाव है।

अल्पावधि: 

  • भारत में  ग्रीन बॉण्ड की अवधि लगभग 10 वर्ष होती है, जबकि एक सामान्य ऋण की न्यूनतम अवधि 13 वर्ष होती है। इसके अलावा ग्रीन प्रोजेक्ट्स का लाभ मिलने में भी अधिक समय लगता है।

आगे की राह: 

  • सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं में से एक ग्रीन बॉण्ड बाज़ार को विकसित करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू दिशा-निर्देशों एवं मानकों के साथ सामंजस्य स्थापित करना है। हरित निवेश के संदर्भ में भी समरूपता की आवश्यकता होती है, क्योंकि विभिन्न कर-सीमाएँ एक निर्धारित सीमा से परे ग्रीन बॉण्ड बाज़ार के लिये विरोधाभासी होंगी।
  • उभरते बाज़ारों में जारीकर्त्ताओं  के लिये उचित क्षमता निर्माण का प्रयास, जो ग्रीन बॉण्ड से संबंधित लाभों और प्रक्रियाओं की जानकारी प्रदान करते हों, इस बाज़ार में प्रवेश करने हेतु संस्थागत बाधाओं को दूर करने में सहायक होगा।
  • रणनीतिक रूप से ग्रीन बॉण्ड के संदर्भ में सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश निजी निवेश को आकर्षित करने और साथ ही ग्रीन बॉण्ड बाज़ार में निवेशकों का विश्वास स्थापित करने में मदद करता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

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