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डेली न्यूज़

  • 30 May, 2024
  • 103 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

डिजिटल बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (CCI), डिजिटल प्लेटफॉर्म, प्रतिस्पर्द्धा कानून, ऑनलाइन विज्ञापन, लक्षित विज्ञापन, नियामक ढाँचा, व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2023 

मेन्स के लिये:

डिजिटल बाज़ारों के प्रमुख पहलू, डिजिटल बाज़ारों में प्रतिस्पर्द्धा से जुड़ी चुनौतियाँ

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (Commission of India- CCI) के अध्यक्ष ने 15वें वार्षिक दिवस समारोह के दौरान डिजिटल बाज़ार की प्रवृत्ति पर बल दिया, जिससे बाज़ार संकेंद्रण और एकाधिकारवादी प्रवृत्तियाँ बढ़ रही हैं।

इस कार्यक्रम प्रमुख बिंदु क्या हैं?

  • CCI अध्यक्ष के अनुसार, बड़े डेटासेट पर डिजिटल प्लेटफॉर्म का नियंत्रण नए अभिकर्त्ताओं के प्रवेश में बाधाएँ उत्पन्न कर सकता है, प्लेटफॉर्म तटस्थता से समझौता कर सकता है और एल्गोरिदम संबंधी साँठ-गाँठ को जन्म दे सकता है।
  • भारत के महान्यायवादी ने यह भी रेखांकित किया कि उपयोगकर्त्ता डेटा पर ई-कॉमर्स प्लेटफार्मों का एकाधिकार “जाँच का विषय हो सकता है” और मुक्त बाज़ार तथा सामाजिक लाभ के बीच संतुलन बनाने के लिये नए विचारों की आवश्यकता है, जिसके लिये कानूनी नवाचार ज़रूरी है।
  • भविष्य हेतु डिजिटल अर्थव्यवस्था नवाचार, विकास और उपभोक्ता लाभ के लिये कई अवसर प्रदान करती है, लेकिन इसने विश्व भर में पारंपरिक प्रतिस्पर्द्धा कानून ढाँचे को चुनौती दी है।
  • डिजिटल बाज़ारों के संदर्भ में मानवीय प्राथमिकताओं को समझने के लिये व्यवहारिक अर्थशास्त्र जैसे उपकरणों के महत्त्व पर भी प्रकाश डाला गया।

डिजिटल बाज़ार क्या है?

  • परिचय:
    • डिज़िटल बाज़ार, जिसे ऑनलाइन बाज़ार भी कहा जाता है, अनिवार्य रूप से वह वाणिज्यिक स्थान है जहाँ व्यवसाय और उपभोक्ता डिजिटल तकनीकों के माध्यम से जुड़ते हैं।
  • उदाहारण:
    • ई-कॉमर्स मार्केटप्लेस: ये ऑनलाइन प्लेटफॉर्म हैं जहाँ व्यवसाय सीधे उपभोक्ताओं (B2C) को उत्पाद बेचते हैं, जैसे अमेज़न और ईबे।
    • डिजिटल विज्ञापन: इसमें वेबसाइट, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म या सर्च इंजन पर दिखाए जाने वाले ऑनलाइन विज्ञापन शामिल हैं। गूगल विज्ञापन और फेसबुक विज्ञापन जैसी कंपनियाँ इस क्षेत्र में काम करती हैं।
    • सोशल मीडिया मार्केटिंग: व्यवसाय संभावित ग्राहकों से जुड़ने, ब्रांड जागरूकता उत्पन्न करने और उत्पादों या सेवाओं को बढ़ावा देने के लिये फेसबुक, इंस्टाग्राम या ट्विटर ( परिवर्तित नाम एक्स) जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म का उपयोग करते हैं।
    • सर्च इंजन आप्टीमाइज़ेशन(SEO): इसमें वेबसाइट की सामग्री और संरचना को सर्च इंजन रिजल्ट पेज (Search Engine Results Pages- SERP) में उच्च रैंक के लिये आप्टीमाइज़ेशन करना शामिल है जिससे जैव यातायात (Organic Traffic) में वृद्धि होती है।
  • एकाधिकारवादी प्रवृत्तियों को जन्म देने वाली विशेषताएँ:
    • कई डिज़िटल बाज़ार कुछ विशेषताएँ प्रदर्शित करते हैं, जैसे अपरिवर्तनीय लागत, उच्च स्थिर लागत और मज़बूत नेटवर्क प्रभाव, जिसके परिणामस्वरूप कुछ ही फर्मों का बाज़ार में बहुत हिस्सा होता है। 

डिजिटल बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा से जुड़ी चुनौतियाँ क्या हैं?

  • बाज़ार प्रभुत्व और प्रतिस्पर्द्धा-विरोधी प्रथाएँ:
    • कुछ प्रतियोगी बाज़ार के बड़े हिस्से को नियंत्रित कर सकते हैं, नवाचार को रोक सकते हैं और उपभोक्ता की पसंद को सीमित कर सकते हैं। यह प्रभुत्व प्रतिस्पर्द्धा-विरोधी प्रथाओं को जन्म दे सकता है जैसे:
      • स्व-प्राथमिकता: एक प्लेटफॉर्म खोज परिणामों या प्रचारों में प्रतिस्पर्द्धियों की तुलना में अपने उत्पादों अथवा सेवाओं को प्राथमिकता देता है।
        • उदाहरण: गूगल कथित तौर पर अन्य प्लेटफॉर्म की तुलना में अपने शॉपिंग परिणामों को वरीयता दे रहा है।
      • उपयोगकर्त्ता को विवश करना: उपयोगकर्त्ताओं को वांछित उत्पादों या सेवाओं के साथ अवांछित उत्पाद अथवा सेवाएँ खरीदने के लिये मजबूर करना।
        • उदाहारण: आईफोन को जब दूसरे एप्पल उत्पादों जैसे कि आईपॉड और एप्पल म्यूज़िक के साथ जोड़ा जाता है तो यह एक सहज उपयोगकर्त्ता अनुभव प्रदान करता है। यह सघन एकीकरण उपयोगकर्त्ताओं को एप्पल पारिस्थितिकी तंत्र से जुड़े रहने के लिये मजबूर करता है, जिससे संभवतः अन्य ब्रांडों के साथ उनके विकल्प सीमित हो जाते हैं।
      • विशेष सौदे:आपूर्तिकर्त्ताओं या वितरकों को विशिष्ट समझौतों में बाँधना, जिससे प्रतिस्पर्द्धा में बाधा उत्पन्न होती है। 
        • उदहारण: हॉटस्टार, जियो सिनेमा आदि जैसे स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म शो के विशेष अधिकार सुरक्षित कर रहे हैं, जिससे दर्शकों के विकल्प सीमित हो रहे हैं।
  • नेटवर्क प्रभाव और विनर-टेक-ऑल डायनेमिक्स:
    • किसी प्लेटफॉर्म का मूल्य तब बढ़ता है जब अधिक उपयोगकर्त्ता उससे जुड़ते हैं, जिससे एक स्नोबॉल प्रभाव (Snowball Effect) उत्पन्न होता है जो नए प्रवेशकों के लिये प्रतिस्पर्द्धा करना कठिन बना देता है।
    • उदाहरण के लिये: व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम आदि जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म उपयोगकर्त्ताओं के साथ अधिक मूल्यवान हो जाते हैं। इससे निम्न परिणाम हो सकते हैं:
      • उच्च स्विचिंग लागत: संचित डेटा, नेटवर्क कनेक्शन या डूबे हुए लागत के कारण उपयोगकर्त्ता इसके आदी हो जाते हैं, जिससे उनके लिये प्रतिस्पर्द्धी प्लेटफॉर्म पर स्विच करना कठिन हो जाता है।
      • नवप्रवर्तन में कमी: प्रमुख प्रतियोगियों के पास नवप्रवर्तन के लिये न्यूनतम प्रोत्साहन हो सकता है क्योंकि उनकी बाज़ार में मज़बूत स्थिति होती है।
  • डेटा लाभ और गोपनीयता संबंधी चिंताएँ:
    • डिजिटल कंपनियाँ बड़ी मात्रा में उपयोगकर्त्ता डेटा एकत्र करती हैं, जिससे उन्हें वैयक्तिकरण, लक्षित विज्ञापन और उत्पाद विकास में लाभ मिलता है। इससे निम्न के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं:
      • उपभोक्ता गोपनीयता: जिस पद्धति से उपयोगकर्त्ता डेटा एकत्रित, संग्रहीत और उपयोग किया जाता है, वह अस्पष्ट हो सकती है तथा इससे गोपनीयता का उल्लंघन हो सकता है।
      • अवसरों में असमानता: नए प्रवेशकों को उन स्थापित प्रतियोगियों के साथ प्रतिस्पर्द्धा करने में कठिनाई हो सकती है जिनके पास लाभ प्राप्त करने के लिये समृद्ध डेटा सेट है।
  • विनियामक चुनौतियाँ:
    • डिजिटल बाज़ारों की तीव्र प्रकृति मौज़ूदा नियमों को अप्रभावी बना सकती है। विनियामक निम्नलिखित को परिभाषित करने और संबोधित करने में कठिनाई अनुभव करते हैं:
      • अविश्वास संबंधी मुद्दे:जटिल डिजिटल पारिस्थितिकी तंत्र में प्रतिस्पर्द्धा-विरोधी व्यवहार को परिभाषित और सिद्ध करना कठिन हो सकता है।
      • एक प्रमुख फर्म का निर्धारण करना भी एक बड़ी चुनौती है।

डिजिटल बाज़ार प्रतिस्पर्द्धा की निगरानी हेतु संभावित समाधान क्या हैं?

  • सक्रिय उपाय:
    • प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण डिजिटल मध्यस्थों (SIDIs) का पदनाम: महत्त्वपूर्ण बाज़ार शक्ति (उपयोगकर्त्ता आधार एवं राजस्व के आधार पर) वाले प्रमुख प्रतियोगियों की पहचान करना और उन्हें सख्त नियम के अधीन करना।
    • प्रतिस्पर्द्धा-विरोधी प्रथाओं का निषेध: स्व-वरीयता और अनन्य व्यवहार जैसी प्रथाओं पर स्पष्ट रूप से प्रतिबंध लगाना जो प्रतिस्पर्द्धा को रोकते हैं।
      • उदाहरण: कोई प्लेटफाॅर्म खोज परिणामों में प्रतिस्पर्द्धियों की तुलना में अपने उत्पादों को प्राथमिकता नहीं दे सकता।
    • डेटा साझाकरण और अंतरसंचालनीयता: उपयोगकर्त्ताओं को प्लेटफाॅर्म के बीच डेटा या सेवाओं को अधिक सरलता से स्थानांतरित करने की अनुमति देने के लिये डेटा साझाकरण या प्लेटफाॅर्म अंतरसंचालनीयता को कुछ विशेष सीमा तक अनिवार्य करना।
      • उदाहरण: उपयोगकर्त्ताओं को अपने ऑनलाइन शॉपिंग कार्ट (Online Shopping Cart) को एक प्लेटफाॅर्म से दूसरे प्लेटफाॅर्म पर स्थानांतरित करने की अनुमति देना।
  • भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (Competition Commission of India- CCI) को सुदृढ़ बनाना:
    • उन्नत संसाधन और विशेषज्ञता: CCI को डिजिटल बाज़ारों की प्रभावी निगरानी करने और संभावित प्रतिस्पर्द्धा -विरोधी प्रथाओं की जाँच करने के लिये अतिरिक्त शक्तियाँ, संसाधन एवं कार्मिक प्रदान करना।
      • उदाहरण: 53वीं संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट ने डिजिटल बाज़ारों में प्रतिस्पर्द्धा संबंधी चिंताओं को दूर करने के लिये CCI को मज़बूत करने की अनुशंसा की।
  • डेटा संरक्षण के साथ नवाचार को बढ़ावा देना:
    • विनियामकीय सैंडबॉक्स: डिजिटल बाज़ारों में स्टार्टअप्स के लिये एक विनियामक ढाँचा स्थापित किया जाना चाहिये ताकि विनियामक भार कम होने के साथ नियंत्रित वातावरण में नवीन उत्पादों और सेवाओं का परीक्षण किया जा सके।
    • पारदर्शिता और उपयोगकर्त्ता विकल्प: डेटा संग्रह प्रथाओं के बारे में पारदर्शी होने और उपयोगकर्त्ताओं को उनके डेटा पर सार्थक नियंत्रण प्रदान करने के लिये प्लेटफार्मों की आवश्यकता वाले विस्तृत नियम तैयार किये जाने चाहिये।

निष्कर्ष:

डिजिटल बाज़ार व्यवसायों और उपभोक्ताओं को जुड़ने के लिये एक गतिशील स्थान प्रदान करते हैं, लेकिन वे अद्वितीय चुनौती भी प्रस्तुत करते हैं। एकाधिकार की संभावना, डेटा गोपनीयता संबंधी चिंताएँ और नवाचार की कमी के कारण सक्रिय समाधान की आवश्यकता होती है। वैश्विक दुनिया के बढ़ते डिजिटलीकरण के साथ, भारत के लिये स्टार्टअप के लिये उपयुक्त परिस्थितियों को बढ़ावा देने के लिये आवश्यक कदम उठाना अनिवार्य है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न: 

प्रश्न. डिजिटल बाज़ारों की प्रमुख विशेषताओं पर चर्चा कीजिये। भारत में डिज़िटल बाज़ारों में प्रतिस्पर्द्धा से जुड़ी चुनौतियाँ और संभावित समाधान क्या हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न1. भारत के संविधान के किस अनुच्छेद के अंतर्गत 'निजता का अधिकार' संरक्षित है? (2021)

(a) अनुच्छेद 15
(b) अनुच्छेद 19
(c) अनुच्छेद 21
(d) अनुच्छेद 29

उत्तर: (c)


प्रश्न2. निजता के अधिकार को जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्भूत भाग के रूप में संरक्षित किया जाता है। भारत के संविधान में निम्नलिखित में से किससे उपर्युक्त कथन सही एवं समुचित ढंग से अर्थित होता है ? (2018)

(a) अनुच्छेद 14 एवं संविधान के 42वें संशोधन के अधीन उपबंध
(b) अनुच्छेद 17 एवं भाग IV में दिये राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व
(c) अनुच्छेद 21 एवं भाग III में गारंटी की गई स्वतंत्रताएँ
(d) अनुच्छेद 24 एवं संविधान के 44वें संशोधन के अधीन उपबंध

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न. निजता के अधिकार पर उच्चतम न्यायालय के नवीनतम निर्णय के आलोक में, मौलिक अधिकारों के विस्तार का परीक्षण कीजिये। (2017)


जैव विविधता और पर्यावरण

मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र पर IUCN की रिपोर्ट

प्रिलिम्स के लिये:

मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण के लिये अंतर्राष्ट्रीय दिवस, संयुक्त राष्ट्र शैक्षिकवैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन, भारतीय राज्य वन रिपोर्ट 2021, सुंदरबन, रॉयल बंगाल टाइगर, इरावदीडॉल्फिन, मिष्टी (मैंग्रोव इनिशिएटिव फॉर शोरलाइन हैबिटेट्स एंड टैंगेबल इनकम्स), सतत् झींगा पालन हेतु समुदाय-आधारित पहल (SAIME) 

मेन्स के लिये:

मैंग्रोव का महत्त्व, भारत में मैंग्रोव से संबंधित चुनौतियाँ

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (International Union for Conservation of Nature- IUCN) ने एक नई रिपोर्ट जारी की है, जिसमें चेतावनी दी गई है कि विश्व के आधे से अधिक मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के समक्ष पतन का खतरा बना हुआ है। यह IUCN द्वारा मैंग्रोव का पहला व्यापक वैश्विक मूल्यांकन है।

अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?

  • परिचय: इस अध्ययन में विश्व के मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र को 36 विभिन्न क्षेत्रों में वर्गीकृत किया गया तथा प्रत्येक क्षेत्र में खतरों और पतन के जोखिम का आकलन किया गया।
  • जाँच व परिणाम:
    • विश्व के 50% से अधिक मैंग्रोव खतरे में:
      • विश्व के 50% से अधिक मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के समक्ष पतन का खतरा बना हुआ है (इसे या तो कमज़ोर, संकटग्रस्त या गंभीर रूप से संकटग्रस्त के रूप में वर्गीकृत किया गया है) तथा लगभग 5 में से 1 गंभीर खतरे की स्थिति में बनी हुई हैं।
      • विश्व के मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र वाले एक-तिहाई प्रांत समुद्र के जलस्तर में वृद्धि के कारण गंभीर रूप से प्रभावित होंगे जिससे अगले 50 वर्षों में वैश्विक मैंग्रोव क्षेत्र का लगभग 25% भाग जलमग्न हो सकता है।
    • दक्षिण भारतीय मैंग्रोव को अधिक खतरा:
      • दक्षिण भारत में मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र, जो श्रीलंका और मालदीव के साथ साझा है, को "गंभीर रूप से संकटग्रस्त (Critically Endangered)" श्रेणी में रखा गया है।
      • इसके विपरीत, बंगाल की खाड़ी क्षेत्र (बांग्लादेश के साथ साझा) और पश्चिमी तट (पाकिस्तान के साथ साझा) में मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र को "कम चिंतनीय (Least Concerned)" के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
    • जलवायु परिवर्तन एक बड़ा खतरा:
      • एक अध्ययन में पाया गया कि वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के लिये सबसे बड़ा खतरा है, जो लगभग 33% मैंग्रोव को प्रभावित कर रहा है।
        • इसके बाद वनों की कटाई, विकास, प्रदूषण और बाँध निर्माण आता है।
      • चक्रवातों, टाइफून, तूफान और उष्णकटिबंधीय तूफानों की बढ़ती आवृत्ति एवं तीव्रता कुछ समुद्र तटों पर मैंग्रोव को प्रभावित कर रही है।
    • वैश्विक प्रभाव:
      • उत्तर-पश्चिमी अटलांटिक, उत्तरी हिंद महासागर, लाल सागर, दक्षिणी चीन सागर और अदन की खाड़ी के तटों पर इसका महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ने की आशंका है।
      • संरक्षण प्रयासों के अभाव में लगभग 7,065 वर्ग किमी (5%) से अधिक मैंग्रोव नष्ट हो जाएंगे तथा वर्ष 2050 तक 23,672 वर्ग किमी मैंग्रोव (लगभग 16%) जलमग्न हो जाएंगे।

भारत में मैंग्रोव आवरण की क्या स्थिति है?

  • परिचय: 
    • मैंग्रोव उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाया जाने वाला एक अद्वितीय प्रकार का तटीय पारिस्थितिकी तंत्र है। वे लवणयुक्त सहनशील  salt-tolerant) वृक्षों और झाड़ियों के घने जंगल हैं जो अंतर्ज्वारीय क्षेत्रों में पनपते हैं, जहाँ भूमि समुद्र से मिलती है।
    • इन पारिस्थितिकी प्रणालियों की विशेषता यह है कि ये खारे पानी, ज्वार-भाटे और कीचड़युक्त, ऑक्सीजन-रहित मिट्टी जैसी कठोर परिस्थितियों को झेलने की क्षमता रखते हैं।

  • मैंग्रोव आवरण:
    • विश्व का लगभग 40% मैंग्रोव क्षेत्र दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण एशिया में पाया जाता है।
      • दक्षिण एशिया के कुल मैंग्रोव आवरण का लगभग 3% भारत में है।
    • पिछले आकलन की तुलना में भारत का मैंग्रोव आवरण 54 वर्ग किमी (1.10%) बढ़ गया है।
    • भारत में वर्तमान मैंग्रोव आवरण 4,975 वर्ग किमी. है, जो देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का 0.15% है।
    • भारत के मैंग्रोव आवरण में सबसे बड़ा हिस्सा पश्चिम बंगाल (42.45%) का है, जिसके बाद गुजरात (23.66%) और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह (12.39%) का स्थान है।
      • अकेले पश्चिम बंगाल के दक्षिण 24 परगना ज़िले में देश के 41.85% मैंग्रोव आवरण हैं। इस क्षेत्र में सुंदरबन राष्ट्रीय उद्यान भी शामिल है, जो विश्व के सबसे बड़े मैंग्रोव वनों में से एक है।
    • गुजरात में मैंग्रोव आवरण में सबसे अधिक 37 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है।

Mangrove_Cover

 मैंग्रोव संरक्षण से संबंधित भारत की पहल क्या हैं?

  • तटीय विनियमन क्षेत्र (Coastal Regulation Zone- CRZ) अधिसूचना (2019): पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के तहत यह अधिसूचना आर्द्रभूमि सहित तटीय क्षेत्रों को चार श्रेणियों में वर्गीकृत करती है। यह उन गतिविधियों को प्रतिबंधित करती है जो मैंग्रोव को नुकसान पहुँचा सकती हैं, जैसे;
    • अपशिष्ट का डंपिंग (औद्योगिक या अन्यथा)।
    • CRZ के भीतर औद्योगिक गतिविधियाँ।
    • इन क्षेत्रों में भूमि सुधार और भवन निर्माण।
  • मौज़ूदा वन कानून:
    • भारतीय वन अधिनियम, 1927: महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने सरकारी भूमि पर स्थित मैंग्रोव को आरक्षित वन के रूप में नामित किया है तथा इस अधिनियम के तहत उन्हें कानूनी संरक्षण प्रदान किया गया है।
    • वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972: कुछ मैंग्रोव क्षेत्र वन्यजीवों के लिये महत्त्वपूर्ण पर्यावास हैं और उन्हें इस अधिनियम के तहत संरक्षण प्राप्त है।
  • अन्य प्रासंगिक अधिनियम: 
    • जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1974 तथा महाराष्ट्र वृक्ष (वनोन्मूलन) अधिनियम, 1972 (Maharashtra Tree (Felling) Act, 1972) जैसे अतिरिक्त कानून उन गतिविधियों को विनियमित करके सुरक्षा प्रदान करते हैं जो इन पारिस्थितिक तंत्रों को जो इन पारिस्थितिकी तंत्रों को प्रदूषित या क्षति पहुँचा सकते हैं।
  • 'मैंग्रोव और प्रवाल भित्तियों के संरक्षण एवं प्रबंधन' पर केंद्रीय क्षेत्र की योजना: 
    • यह मैंग्रोव संरक्षण के लिये विशिष्ट कार्य योजनाओं को लागू करने हेतु तटीय राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को वित्तीय सहायता प्रदान करता है। इन योजनाओं में सर्वेक्षण, स्थानीय समुदायों के लिये वैकल्पिक आजीविका, जागरूकता अभियान आदि शामिल हो सकते हैं।
  • तटीय आवास और मूर्त आय हेतु मैंग्रोव की नई पहल (MISHTI) (Mangrove Initiative for Shoreline Habitats & Tangible Incomes- MISHTI), मैंग्रोव को बढ़ावा देने और संरक्षण हेतु एक समर्पित पहल है। इसका उद्देश्य है:
    • निम्नीकृत भूमि पर समुद्र तटरेखा के साथ-साथ मैंग्रोव कवर बढ़ावा देना।
    • सतत् विकास का समर्थन करना और कोमल तटीय क्षेत्रों की संरक्षण करना।

मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र कितना महत्त्वपूर्ण है?

  • जैवविविधता संरक्षण: मैंग्रोव विभिन्न प्रकार के पौधों एवं पशुओं की प्रजातियों के लिये एक अद्वितीय आवास प्रदान करते हैं, जो कई समुद्री और स्थलीय जीवों के लिये प्रजनन, नर्सरी तथा चारागाह के रूप में कार्य करते हैं।
  • तटीय संरक्षण: मैंग्रोव तटीय क्षरण, तूफानी लहरें और सुनामी के विरुद्ध प्राकृतिक बफर के रूप में कार्य करते हैं।
    • उनकी सघन जड़ प्रणालियाँ और स्तम्भ मूल का जाल तटरेखाओं को स्थिर करता है और लहरों तथा धाराओं के प्रभाव को कम करता है।
    • तूफान और चक्रवातों के दौरान, मैंग्रोव ऊर्जा की एक महत्त्वपूर्ण मात्रा को अवशोषित तथा नष्ट कर अंतर्देशीय क्षेत्रों एवं मानव बस्तियों को विनाशकारी क्षति से बचा सकते हैं।
  • कार्बन पृथक्करण: मैंग्रोव अत्यधिक कुशल कार्बन पृथक्करण हैं, जो वायुमंडल से बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड को एकत्रित करते हैं तथा इसे अपने जैवभार व तलछट में संग्रहीत करते हैं।
  • मत्स्यन एवं आजीविका: मैंग्रोव मछली और शंख के लिये नर्सरी क्षेत्र उपलब्ध कराकर मत्स्य पालन को बढ़ावा देते हैं, जिससे मत्स्य उत्पादकता बढ़ती है और आजीविका तथा स्थानीय खाद्य सुरक्षा में योगदान मिलता है।
  • जल गुणवत्ता में सुधार: प्रदूषकों और अतिरिक्त पोषक तत्त्वों के समुद्र में प्रवेश करने से पहले, मैंग्रोव तटीय जलमार्गों में प्राकृतिक फिल्टर के रूप में कार्य करते हैं, उन्हें एकत्र करते हैं और हटा देते हैं।
    • जल को शुद्ध करने में उनकी भूमिका समुद्री पारिस्थितिक तंत्र के स्वास्थ्य में योगदान देती है और कोमल तटीय पारिस्थितिक तंत्र के संतुलन को बनाए रखने में सहायता करती है।
  • पर्यटन एवं मनोरंजन: मैंग्रोव इको-टूरिज़्म, बर्डवाचिंग (Birdwatching), कयाकिंग (Kayaking) तथा प्रकृति-आधारित गतिविधियों के माध्यम से मनोरंजक अवसर प्रदान करते हैं, जो स्थानीय समुदायों के लिये सतत् आर्थिक विकास को बढ़ावा दे सकते हैं।

मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के समक्ष क्या चुनौतियाँ हैं?

  • पर्यावास विनाश एवं विखंडन: मैंग्रोव को प्राय: विभिन्न उद्देश्यों के लिये साफ किया जाता है, जिनमें कृषि, शहरीकरण, जलीय कृषि और बुनियादी ढाँचे का विकास शामिल है।
    • इस तरह की गतिविधियों से मैंग्रोव पर्यावासों का विखंडन एवं विनाश होता है, जिससे उनके पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यप्रणाली तथा जैवविविधता बाधित होती है।
    • मैंग्रोव का झींगा फार्मों और अन्य वाणिज्यिक उपयोगों में रूपांतरण एक महत्त्वपूर्ण चिंता का विषय बना हुआ है।
  • जलवायु परिवर्तन और समुद्र के स्तर में वृद्धि: जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के जल स्तर में वृद्धि मैंग्रोव के लिये एक बड़ा खतरा बन गई है।
    • जलवायु परिवर्तन के कारण चक्रवात और तूफान जैसी चरम मौसमी घटनाएँ भी उत्पन्न होती हैं, जिनसे मैंग्रोव वनों को गंभीर क्षति हो सकती है।
  • प्रदूषण और संदूषण: कृषि अपवाह, औद्योगिक उत्सर्जन और अनुचित अपशिष्ट निपटान से होने वाला प्रदूषण मैंग्रोवों को दूषित करता है।
    • भारी धातुएँ, प्लास्टिक और अन्य प्रदूषक मैंग्रोव पारिस्थितिक तंत्र के वनस्पतियों एवं जीव-जंतुओं पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
  • एकीकृत प्रबंधन का अभाव: आमतौर पर मैंग्रोव वनों के प्रवाल भित्तियों और समुद्री घास जैसी समीपवर्ती पारिस्थितिकी प्रणालियों के साथ उनके अंतर्संबंध पर ध्यान नहीं दिया जाता है। प्रत्येक पारिस्थितिकी तंत्र की अपनी विशिष्ट प्रबंधन प्रक्रिया होती है, लेकिन इनका प्रभाव एक-दूसरे पर भी पड़ता है। इसलिये, इनके समग्र संरक्षण और प्रबंधन के लिये इनके बीच के अंतर्संबंधों को समझना और ध्यान में रखना आवश्यक है।
    • प्रभावी संरक्षण के लिये व्यापक तटीय पारिस्थितिकी तंत्र पर विचार करने वाले एकीकृत प्रबंधन दृष्टिकोण आवश्यक हैं।
  • अत्यधिक मत्स्यन और गैर-संवहनीय दोहन: अत्यधिक मत्स्यन और मैंग्रोव संसाधनों, जैसे केकड़े व लकड़ी का गैर-संवहनीय दोहन, उनके पारिस्थितिक एवं आर्थिक मूल्य को कम कर सकता है।
  • आक्रामक प्रजातियाँ: आक्रामक प्रजातियाँ, जैसे कि गैर-देशीय लाल मैंग्रोव, देशीय प्रजातियों को प्रभावित कर सकती हैं तथा मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र की संरचना और कार्य को बदल सकती हैं।
  • जागरूकता और संरक्षण का अभाव: मैंग्रोव की उपयोगिता को अक्सर कम करके आकलित किया जाता है तथा उनको पर्याप्त कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं होता है, जिसके कारण विनाश के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।

मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा के लिये क्या किया जा सकता है?

  • हानिकारक गतिविधियों पर प्रतिबंध: प्रदूषण, वनों की कटाई और तटीय क्षेत्रों में असंवहनीय विकास को नियंत्रित करने के लिये कड़े कानूनों लागू किया जाना चाहिये।
  • मैंग्रोव गोद लेने का कार्यक्रम: एक सार्वजनिक कार्यक्रम शुरू करना, जिसके तहत व्यक्तियों, निगमों और संस्थाओं को मैंग्रोव के कुछ हिस्सों को "गोद लेने" की अनुमति दी जाएगी।
    • प्रतिभागी अपने गोद लिये गए क्षेत्रों के रखरखाव, संरक्षण और पुनरुद्धार की ज़िम्मेदारी लेंगे, जिससे स्वामित्व एवं सामूहिक ज़िम्मेदारी की भावना को बढ़ावा मिलेगा।
  • मैंग्रोव अनुसंधान और विकास: मैंग्रोव के नवीन अनुप्रयोगों की खोज के लिये अनुसंधान में निवेश करने की आवश्यकता है, जैसे प्रदूषित जल को साफ करने के लिये फाइटोरिमेडिएशन के लिये उनका उपयोग करना या मैंग्रोव पौधे के अर्क से नई दवाइयाँ विकसित करना।
    • इससे सतत् विकास के लिये मैंग्रोव के अद्वितीय गुणों का लाभ उठाने के लिये नवीन तरीके खोजे जा सकेंगे।
  • स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाना: संरक्षण प्रयासों में स्थानीय समुदायों को शामिल किया जाना चाहिये, जिन्हें प्रायः मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र की व्यापक समझ होती है। 
    • मैंग्रोव की सुरक्षा से जुड़े स्थायी आजीविका के अवसरों का सृजन करना तथा उनके कल्याण के लिये साझा ज़िम्मेदारी को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
  • जैव-पुनर्स्थापन तकनीक: क्षीण हो चुके मैंग्रोव क्षेत्रों को पुनर्जीवित करने के लिये जैव-पुनर्स्थापन तकनीकों का उपयोग किया जाना चाहिये, जिससे मूल जैवविविधता को बनाए रखने में सहायता मिल सके।
    • प्राकृतिक पुनर्जनन की तुलना में पारिस्थितिक पुनर्स्थापन मैंग्रोव की पुनर्प्राप्ति को तीव्र कर सकता है।
  • पुनर्स्थापन प्रयासों में विविध प्रजातियाँ: यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि पुनर्स्थापन प्रयासों में एकल-कृषि के बजाय विविध मैंग्रोव प्रजातियाँ शामिल हों। 
    • इस दृष्टिकोण से ऐसे वनों का निर्माण हो सकेगा, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अधिक लचीले होंगे।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न.भारत की तटीय पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के लिये मैंग्रोव संरक्षण के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। प्रभावी मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र प्रबंधन के लिये बहुआयामी दृष्टिकोण का सुझाव दीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत के निम्नलिखित क्षेत्रों में से किस एक में, मैंग्रोव वन, सदापर्णी वन और पर्णपाती वनों का संयोजन है? (2015)

(a) उत्तर तटीय आंध्र प्रदेश
(b) दक्षिण-पश्चिम बंगाल
(c) दक्षिणी सौराष्ट्र
(d) अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न.मैंग्रोवों के रिक्तीकरण के कारणों पर चर्चा कीजिये और तटीय पारिस्थितिकी का अनुरक्षण करने में इनके महत्त्व को स्पष्ट कीजिये। (2019)


आपदा प्रबंधन

भारत में अग्नि सुरक्षा

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय भवन संहिता (NBC), भारतीय मानक ब्यूरो, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण

मेन्स के लिये:

भारत में अग्नि सुरक्षा के संबंध में वर्तमान प्रावधान, भारत में शहरी आग के लिये अग्रणी मुद्दे, भारत में अग्नि सुरक्षा में सुधार के उपाय।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

हाल ही में राजकोट गेम-सेंटर में अग्नि दुर्घटनाओं ने अग्नि सुरक्षा नियमों और उनके प्रवर्तन के संबंध में चिंताओं को उजागर किया है।

  • पुणे के एक बाज़ार में आग लगने और दिल्ली के एक अस्पताल में ऑक्सीजन विस्फोट जैसी घटनाएँ इस संबंध में मज़बूत सुरक्षा जाँच तथा स्पष्ट नियमों की संभावित आवश्यकता को दर्शाती हैं।

भारत में अग्नि सुरक्षा हेतु आदर्श संहिता क्या है?

  • अग्नि दुर्घटनाओं पर डेटा:
    • नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (National Crimes Records Bureau- NCRB) की आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्या (Accidental Deaths and Suicides in India- ADSI) रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2022 में 7,500 से अधिक अग्नि दुर्घटनाओं में 7,435 लोगों की मृत्यु हुई।
    • अग्नि दुर्घटनाओं के कारण भारी जनहानि हो रही है तथा वर्ष 1997 में हुए उपहार सिनेमा अग्निकांड और वर्ष 2004 में कुंभकोणम अग्निकांड जैसी पिछली त्रासदियों से कोई सबक नहीं लिया गया है।
  •  राष्ट्रीय भवन संहिता (NBC):
    • भारत में एक राष्ट्रीय भवन संहिता (National Building Code- NBC) है जो अग्नि सुरक्षा के लिये केंद्रीय मानक के रूप में कार्य करता है।
      • इसे भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards- BIS) द्वारा वर्ष 1970 में प्रकाशित किया गया था तथा अंतिम बार वर्ष 2016 में इसका अद्यतन किया गया था।
      • यह भवनों की सामान्य निर्माण आवश्यकताओं, रखरखाव एवं अग्नि सुरक्षा पर विस्तृत दिशानिर्देश प्रदान करता है।
      • अग्नि सुरक्षा निर्देशों का उल्लेख NBC के भाग 4 में किया गया है।
    • NBC को राज्य सरकारों द्वारा अपने स्थानीय भवन उपनियमों में शामिल करना एक अनिवार्य आवश्यकता है।
      • ऐसा इसलिये है क्योंकि अग्निशमन सेवाएँ राज्य का विषय हैं, जिन्हें संविधान की 12वीं अनुसूची में नगरपालिका के कार्यों के रूप में शामिल किया गया है।
      • अग्नि की रोकथाम तथा जीवन और संपत्ति की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये राज्य सरकारें ज़िम्मेदार होती हैं।
  • आवास एवं शहरी मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी 'मॉडल बिल्डिंग बाय लॉज 2016' राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अपने व्यक्तिगत भवन उपनियम तैयार करने के लिये मार्गदर्शन प्रदान करता है।
    • यह कानून अग्नि से बचाव और सुरक्षा आवश्यकताओं हेतु मानदंड भी निर्धारित करता है।
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA) ने भी घरों, स्कूलों और अस्पतालों में अग्नि सुरक्षा के संबंध में दिशानिर्देश जारी किये हैं।
    • NDMA के दिशानिर्देशों में न्यूनतम सुरक्षित स्थान, संरक्षित निकास तंत्र, सीढ़ियाँ एवं महत्त्वपूर्ण निकास अभ्यास (Drills) के निर्देश शामिल हैं।

भारत में NBC द्वारा निर्धारित प्रमुख अग्नि सुरक्षा नियम क्या हैं?

  • NBC, अग्नि क्षेत्रों में भवनों के निर्माण पर सीमांकन और प्रतिबंधों को निर्दिष्ट करता है:
    • आवासीय क्षेत्र, शैक्षणिक और संस्थागत इमारतें अग्नि क्षेत्र 1 (Fire Zone 1) के अंतर्गत आती हैं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे औद्योगिक एवं खतरनाक संरचनाओं (जैसे कारखाने, गोदाम, डेटा केंद्र, विद्युत् और मरम्मत सुविधाएँ) के साथ सह-अस्तित्व में न हों।
  • NBC निर्माण के लिये गैर-ज्वलनशील सामग्री के उपयोग को अनिवार्य करता है, जिसमें सीढ़ियों की आंतरिक दीवारों के लिये न्यूनतम 120 मिनट की अग्नि प्रतिरोध रेटिंग शामिल है।
  • इसमें अग्नि के प्रसार को रोकने के लिये भवन की अधिकतम ऊँचाई, फर्श के क्षेत्र का अनुपात और दीवारों एवं फर्श की गुणवत्ता से संबंधित प्रावधानों की आवश्यकताओं को भी रेखांकित किया गया है।
  • विद्युत प्रतिष्ठानों में अग्निरोधी तार और केबलिंग होनी चाहिये, उच्च, मध्यम व निम्न वोल्टेज के तार अलग-अलग शाफ्ट/नलिकाओं (Shafts/Conduits) में लगे होने चाहिये तथा अग्निरोधी सामग्रियों से ढके होने चाहिये।
    • स्टील समेत सभी धातुओं को संरचनात्मक रूप से भूसंपर्कन प्रणाली से उचित रूप से जोड़ा जाना चाहिये।
  • संहिता में आपातकालीन विद्युत आपूर्ति वितरण प्रणाली की आवश्यकता है, जिसमें आपातकालीन स्थिति के लिये निकास संकेत, आपातकालीन प्रकाश व्यवस्था, अग्नि अलार्म प्रणाली और सार्वजनिक संबोधन प्रणाली आदि शामिल हैं।
    • इसमें सुरक्षित निकासी सुनिश्चित करने के लिये निकास पहुँच, निकास मार्ग, निकास प्रकाश व्यवस्था और निकास संकेत की आवश्यकताओं को भी निर्दिष्ट किया गया है।
  • संहिता में स्वचालित अग्नि पहचान और डाउन-कमर पाइपलाइन (Down-Comer Pipelines), ड्राई राइज़र पाइपलाइन, स्वचालित स्प्रिंकलर तथा वाटर स्प्रे जैसी प्रौद्योगिकियों को शामिल करने की सिफारिश की गई है।

अग्नि सुरक्षा पर NDMA के दिशानिर्देश:

  • क्या करना चाहिये:
    • तैयारी करेंः अग्नि से बचने की योजना बनाएँ और इसका नियमित रूप से अभ्यास करें। सुनिश्चित करें कि सभी निकास मार्ग स्पष्ट एवं क्रियाशील हों।
    • चेतावनी: आग लगने की स्थिति में शांत रहें और अलार्म बजाएँ। इमारत में सभी को सचेत करें और सामान से ज़्यादा स्वयं की निकासी को प्राथमिकता दें।
    • निकास: निर्धारित निकास के मार्गों और सीढ़ियों का प्रयोग करें। आग लगने के दौरान कभी भी लिफ्ट का प्रयोग न करें।
    • क्रॉल लोः धुएँ से बचने के लिये ज़मीन पर नीचे ही रहें।
  • क्या नहीं करना चाहिये:
    • घबराना: शांत रहें और स्पष्ट रूप से सोचें। घबराने से आपके उचित निर्णय लेने की क्षमता में बाधा आ सकती है।
    • इमारत में पुनः प्रवेश: कभी भी किसी भी कारण से जलती हुई इमारत में वापस नहीं जाना चाहिये। 
    • लिफ्ट का इस्तेमाल: अग्नि के दौरान लिफ्ट खराब हो सकती है, जिससे आप इमारत के अंदर फंँस सकते हैं।
    • बिना सावधानी के दरवाज़े/खिड़कियाँ खोलना: दरवाज़े/खिड़कियाँ खोलने से अग्नि और भड़क सकती है। ऐसा तभी करना चाहिये जब आप उन दरवाज़ों से सुरक्षित बच सकें।

भारत में अग्नि सुरक्षा नियमों के अनुपालन में क्या चुनौतियाँ हैं?

  • अग्नि सुरक्षा नियमों की अनदेखी:
    • यद्यपि राष्ट्रीय दिशानिर्देश (राष्ट्रीय भवन संहिता) मौज़ूद हैं, लेकिन वे अनिवार्य नहीं हैं, जिसके कारण विभिन्न स्थानों पर उनका क्रियान्वयन असंगत है। 
      • यहाँ तक ​​कि अनिवार्य प्रमाणन में भी खामियाँ हैं, क्योंकि संहिता अग्निशमन सेवाओं को व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण छूट देने की अनुमति देती है।
    • जैसे: राजकोट की दुखद दुर्घटना में इमारत का निर्माण धातु की चादरों का उपयोग करके किया गया था, जिसके परिणामस्वरूप एक बड़ी संरचना का निर्माण किया  गया। मालिकों के पास अग्निशमन विभाग से प्राप्त आवश्यक NOC और संपत्ति पर आवश्यक अग्निशमन आपूर्ति भी नहीं थी तथा परिसर में आवश्यक अग्निशमन उपकरणों का अभाव था। 
  • अग्नि सुरक्षा ऑडिट का निम्न उपयोग:
    • अग्नि सुरक्षा मानदंडों के लिये ज़िम्मेदार प्राधिकारियों के पास सामान्यतः कर्मचारियों का अभाव होता है तथा वे शायद ही कभी ऑडिट करते हैं, जिससे आग का खतरा बना रहता है।
  • अधिकारियों में तैयारी का अभाव और उदासीनता:
    • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (National Institute of Disaster Management- NIDM) की वर्ष 2020 की रिपोर्ट में अधिकारियों की निष्क्रियता और पिछली आग दुर्घटनाओं से सबक न लेने के लिये उनकी आलोचना की गई।
      • NIDM ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भवन निर्माण संहिताओं का पालन करने और प्रभावी शहरी नियोजन को लागू करने से इस त्रासदी को निष्प्रभावी किया जा सकता है तथा लोगों की जान बचाई जा सकती थी।
      • NIDM ने आपदा तैयारी को बढ़ाने के लिये मज़बूत समुदायों को बढ़ावा देने के महत्त्व पर भी ज़ोर दिया।

आगे की राह

  • विधायी सुधार और प्रवर्तन:
    • अनिवार्य अग्नि सुरक्षा संहिता: सभी राज्यों और स्थानीय प्राधिकारियों के लिये बाध्यकारी एक समान तथा अनिवार्य राष्ट्रीय अग्नि सुरक्षा संहिता लागू करने की आवश्यकता है।
    • सभी भवनों के लिये अनिवार्य अग्नि सुरक्षा ऑडिट की प्रणाली लागू करना (NBC और NDMA के अनुसार) तथा अनुपालन न करने पर कठोर दंड का प्रावधान करना आवश्यक है।
  • अग्निशमन क्षमताओं को बढ़ावा देना:
    • अग्निशमन सेवाओं का आधुनिकीकरण: राज्य सरकारों को अग्निशमन उपकरणों, अग्निशमन कर्मियों के प्रशिक्षण और समग्र अग्निशमन सेवा क्षमता को उन्नत करने की दिशा में निवेश को प्राथमिकता देनी चाहिये।
  • समुदायों को सशक्त बनाना:
    • जन जागरूकता अभियान: नागरिकों को अग्नि सुरक्षा उपायों, निकासी प्रक्रियाओं और भवन संहिता अनुपालन के महत्त्व के संबंध में शिक्षित करने के लिये व्यापक जन जागरूकता अभियान चलाना आवश्यक है।
    • अल्प आयु से ही अग्नि सुरक्षा जागरूकता की संस्कृति विकसित करने के लिये स्कूल के पाठ्यक्रम में अग्नि सुरक्षा शिक्षा को शामिल करना अनिवार्य है। इससे समुदाय आपदा जोखिम न्यूनीकरण में सक्रिय भागीदारी निभाने के लिये सशक्त होंगे।
  • अन्य उपाय:
    • मॉक ड्रिल: अग्निशमन सेवाओं को नियमित रूप से अग्नि सुरक्षा अभ्यास आयोजित करने चाहिये ताकि लोगों को ये ज्ञान हो कि ऐसी त्रासदी की स्थिति में क्या करना आवश्यक है।
    • स्व-उपकरण वाली सामग्री से बने फर्नीचर का उपयोग: आग प्रतिरोधी या स्व-उपकरण वाली सामग्री से बने फर्नीचर, कालीन और दीवार कवरिंग का उपयोग करना चाहिये, जो आग के प्रसार को धीमा कर सकती हैं।
    • उन्नत अग्नि शमन प्रणालियाँ: स्वचालित स्प्रिंकलर और धुँध प्रौद्योगिकियों जैसी उन्नत 
    • अग्निशमन प्रणालियों की स्थापना को प्रोत्साहित करना।
    • धुँध को रोकने के लिये उन्नत उपकरणों की स्थापना: इमारतों में कुछ विशेष उन्नत उपकरणों को स्थापित करने की आवश्यकता है, जैसे कि आग से उत्पन्न धुँध को रोकने वाले उपकरण, ताकि व्यक्तियों का दम घुटने से बचाया जा सके।


आपदा प्रबंधन

औद्योगिक दुर्घटनाएँ

प्रिलिम्स के लिये:

व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थिति संहिता, 2020, श्रम ब्यूरो, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन, ILO कन्वेंशन।

मेन्स के लिये:

भारत में व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य- विश्लेषण, चुनौतियाँ और उठाए जा सकने वाले कदम, भारत में श्रमिकों के संबंध में रूपरेखा, वर्तमान श्रम सुधारों से संबंधित अस्पष्ट क्षेत्र

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों?

हाल ही में महाराष्ट्र के ठाणे में एक रासायनिक इकाई में विस्फोट होने से 11 लोगों की मौत हो गई। भारत और विश्व के अन्य हिस्सों में ऐसी औद्योगिक दुर्घटनाएँ औद्योगिक प्रतिष्ठानों के लिये एक बड़ी समस्या बन गई हैं।

औद्योगिक एवं रासायनिक आपदा:

  • इसे एक विषैले रसायन के रिसाव (द्रव/गैस अवस्था में) के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप समाज के कामकाज़ में अचानक और गंभीर व्यवधान उत्पन्न होता है, जिससे व्यापक मानवीय, भौतिक या पर्यावरणीय क्षति होती है, जो प्रभावित समाज की अपने स्वयं के संसाधनों का उपयोग करके सामना करने की क्षमता से परे होती है।
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA) के अनुसार, पिछले दशक में देश में 130 से अधिक बड़ी रासायनिक दुर्घटनाएँ हुई हैं, जिनमें कुल 250 से अधिक लोगों की जान गई है।

भारत में औद्योगिक दुर्घटनाओं में योगदान देने वाले प्रमुख कारक क्या हैं?

  • अपर्याप्त विनियमन और निगरानी: 15 अधिनियमों और 19 नियमों सहित अनावश्यक विनियमनों में रासायनिक उद्योग के लिये एकीकृत दृष्टिकोण का अभाव है। इस विखंडन के कारण अधिकार क्षेत्र में अतिव्यापन और खामियाँ उत्पन्न होती हैं, जिससे सुरक्षा उपायों की निगरानी एवं प्रवर्तन कमज़ोर होता है।
  • व्यापक रासायनिक जोखिम डेटाबेस का अभाव: औद्योगिक रसायनों और उनके जोखिमों पर एक केंद्रीय डेटाबेस की कमी ज्ञान का अभाव उत्पन्न करती है, जो खतरे के मूल्यांकन और सुरक्षा प्रोटोकॉल विकास में बाधा डालती है।
  • अपर्याप्त श्रमिक प्रशिक्षण और जागरूकता: बॉयलर का संचालन अक्सर अप्रशिक्षित, संविदा श्रमिकों के ज़िम्मे होता है, जिनके पास उचित सुरक्षा और आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रशिक्षण का अभाव होता है, जैसा कि IIT कानपुर द्वारा बताया गया है।
    • इससे दुर्घटनाओं के दौरान भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है और जोखिम का खतरा बढ़ जाता है, विशेषकर खतरनाक रसायनों के मामले में।
  • श्रमिक सुरक्षा में अपर्याप्त निवेश: कुछ उद्योगों द्वारा लागत में कटौती करते समय अक्सर सुरक्षा उपकरणों और बुनियादी ढाँचे, जैसे उचित वेंटिलेशन एवं अग्नि सुरक्षा उपायों की उपेक्षा की जाती है। 
    • IIT कानपुर द्वारा, वर्ष 2023 में किया गया अध्ययन औद्योगिक दुर्घटनाओं को कम करने के लिये श्रमिक सुरक्षा में अधिक निवेश की आवश्यकता पर बल देता है।
  • रखरखाव का अभाव: बेंज़िमिडाज़ोल से जुड़ा विशाखापत्तनम गैस रिसाव रखरखाव और संचालन के बारे में चिंताएँ उत्पन्न करता है। 
    • नेवेली की घटना में एक बॉयलर को संचालित करने के दौरान अप्रत्याशित रूप से विस्फोट हो गया, जबकि वह चालू नहीं था तथा उसमें मुख्य रूप से भट्ठी और भाप उत्पादन (Furnace and Steam Production) शामिल था।

Chemical_incidents_and_fatalities

भारत में अतीत में घटित प्रमुख औद्योगिक आपदाएँ:

भारत में औद्योगिक दुर्घटनाओं का एक लंबा इतिहास रहा है, हाल ही में 130 से अधिक गंभीर रासायनिक दुर्घटनाएँ घटित हुई हैं। 

  • भोपाल गैस त्रासदी (1984): यह अब तक की सबसे भीषण औद्योगिक आपदा है, जिसमें एक कीटनाशक संयंत्र से गैस रिसाव के कारण 3,700 से अधिक लोग मारे गए और अनेकों लोग घायल हो गए।
  • चासनाला खनन आपदा (वर्ष 1975): एक कोयला खदान में मीथेन गैस के कारण हुए विस्फोट और उसके बाद खदान ढहने से लगभग 700 लोगों की मृत्यु हो गई।
  • जयपुर तेल डिपो आग (वर्ष 2009): एक तेल भंडारण केंद्र में आग लगने से 12 लोगों की मृत्यु हो गई और पाँच लाख से ज़्यादा लोगों को बचाया गया। इस दौरान उचित आपदा प्रबंधन योजना का अभाव एक बड़ा मुद्दा था।
  • कोरबा चिमनी कांड (वर्ष 2009): कमज़ोर निर्माण प्रवृतियों के कारण निर्माणाधीन चिमनी ढह गई, जिसमें 45 श्रमिकों की मृत्यु हो गई।
  • मायापुरी रेडियोलॉजिकल घटना (वर्ष 2010): श्रमिकों ने अनजाने में स्क्रैपयार्ड में एक रेडियोधर्मी अनुसंधान विकिरणक को नष्ट कर दिया, जिससे वे और अन्य लोग विकिरण के संपर्क में आ गए।
  • बॉम्बे डॉक्स विस्फोट (वर्ष 1944): विस्फोटकों से लदे एक मालवाहक जहाज़ में विस्फोट हो गया, जब वह मुंबई बंदरगाह पर मौज़ूद था, जिसमें लगभग 800 लोग मारे गए और व्यापक आर्थिक क्षति हुई।

ऐसी औद्योगिक एवं रासायनिक दुर्घटनाओं के परिणाम क्या हैं?

  • जीवन की हानि एवं घायल होना: औद्योगिक दुर्घटनाओं के परिणामस्वरूप कई लोगों की मृत्यु होती है और कई को काफी गंभीर चोटें आती हैं। उदाहरण: ठाणे में एक रासायनिक कारखाने में विस्फोट में 11 लोगों की जान चली गई।
  • पर्यावरणीय क्षति: रासायनिक रिसाव, विस्फोट और अनुचित अपशिष्ट निपटान से गंभीर पर्यावरणीय क्षति (वायु, जल व मृदा प्रदूषण) हो सकती है।
    • उदाहरण: वर्ष 1984 की भोपाल गैस त्रासदी एक भयावह घटना है, जिसमें यूनियन कार्बाइड संयंत्र से मिथाइल आइसोसाइनेट (Isocyanate) गैस के रिसाव के परिणामस्वरूप हज़ारों लोगों की मृत्यु हो गई और अनगिनत लोगों को दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याएँ हुईं।
  • आर्थिक व्यवधान: सुविधाओं को हुई हानि की क्षतिपूर्ति, पीड़ितों के परिवारों को मुआवज़ा देने और घायल श्रमिकों के उपचार की लागत काफी अधिक हो सकती है।
    • अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (Environmental Protection Agency- EPA) के एक अध्ययन में पाया गया कि रासायनिक दुर्घटनाओं से आसपास के क्षेत्रों में संपत्ति के मूल्य में 5-7% की कमी आ सकती है, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था पर और अधिक प्रभाव पड़ सकता है।
  • मनोवैज्ञानिक आघात: औद्योगिक दुर्घटनाओं से संबंधित आघात का जीवित बचे लोगों, गवाहों और पीड़ितों के परिवारों पर दीर्घकालिक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ सकता है।
    • चिंता, अवसाद और अभिघातजन्य तनाव विकार (Post-traumatic Stress Disorder- PTSD) इसके सामान्य परिणाम हैं।
  • जनता के विश्वास को क्षति: बार-बार होने वाली औद्योगिक दुर्घटनाएँ नियामक निकायों एवं उद्योगों में जनता के विश्वास को समाप्त कर सकती हैं। इससे जनता में भय की स्थिति उत्पन्न हो सकती है और नई औद्योगिक परियोजनाओं का विरोध हो सकता है।

औद्योगिक आपदा रोकथाम पर ILO की अनुशंसाएँ: 

  • जोखिमपूर्ण पदार्थों की पहचान:
    • अंतर्निहित जोखिमों के आधार पर जोखिमपूर्ण रसायनों और ज्वलनशील गैसों की सूची बनाना तथा उनकी मात्र की एक विशिष्ट सीमा निर्धारित करना।
    • निर्धारित मात्रा से अधिक जोखिमपूर्ण सामग्री का संचालन करने वाली किसी भी सुविधा को "प्रमुख जोखिमपूर्ण कार्यस्थल" के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा।
  • प्रमुख जोखिमपूर्ण कार्यस्थलों की सूची:
    • प्रत्येक राज्य को अपने अधिकार क्षेत्र में प्रमुख जोखिमपूर्ण कार्यस्थलों की एक व्यापक सूची बनानी चाहिये, जिसमें सुविधा का प्रकार, प्रयुक्त रसायन और भंडारित मात्रा जैसे विवरण शामिल हों।
  • केंद्रीकृत डेटा प्रबंधन: 
    • जोखिमपूर्ण सामग्रियों की सूची और प्रमुख जोखिमपूर्ण कार्यस्थलों की सूची को एक केंद्रीकृत कंप्यूटरीकृत डाटाबेस में संगृहीत किया जाना चाहिये।
    • यह नियामक निकायों, आपातकालीन उत्तरदाताओं और जनता द्वारा महत्त्वपूर्ण जानकारी तक सुविधापूर्ण पहुँच की अनुमति देगा।

रासायनिक/औद्योगिक आपदाओं के विरुद्ध कानूनी सुरक्षा उपाय क्या हैं?

  • अंतर्राष्ट्रीय:
    • आपदा जोखिम न्यूनीकरण हेतु सेंदाई फ्रेमवर्क 2015-2030
    • औद्योगिक दुर्घटना के सीमापारीय प्रभावों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (1992):
      • यह औद्योगिक दुर्घटनाओं की रोकथाम और उनसे निपटने के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हेतु कानूनी ढाँचा प्रदान करता है।
      • पार्टियाँ जानकारी साझा करती हैं, आपात स्थितियों की योजना बनाती हैं और आपदाओं के दौरान एक-दूसरे की सहायता करती हैं। इससे व्यापक दुर्घटनाओं का जोखिम कम हो जाता है।
    • UNEP का दुर्घटना निवारण और तैयारी के लिये लचीला ढाँचा (CAPP) (2006): यह देशों, विशेष रूप से विकासशील देशों, को रासायनिक दुर्घटनाओं को रोकने और उनके प्रबंधन के लिये कार्यक्रम बनाने में सहायता करने के लिये एक लचीला दृष्टिकोण अपनाता है।
      • यह देश की विशिष्ट आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए इन कार्यक्रमों को बनाने के संबंध में मार्गदर्शन भी प्रदान करता है।
    • रासायनिक दुर्घटनाओं पर OECD कार्यक्रम (वर्ष 1990): यह रासायनिक सुरक्षा में सूचना साझाकरण और सर्वोत्तम प्रथाओं के माध्यम से दुर्घटनाओं को रोकने पर केंद्रित है।
  • भारत:
    • भोपाल गैस रिसाव (दावों का प्रसंस्करण) अधिनियम, 1985
    • पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986
    • सार्वजनिक देयता बीमा अधिनियम, 1991 (Public Liability Insurance Act- PLIA):
      • यह अधिनियम जोखिमपूर्ण पदार्थों का प्रयोग करने वाले उद्योगों के लिये बीमा अनिवार्य करता है। यह बीमा इन पदार्थों से संबंधित दुर्घटनाओं से प्रभावित लोगों को वित्तीय राहत प्रदान करता है।
    • राष्ट्रीय पर्यावरण अपील प्राधिकरण अधिनियम, 1997:
      • इस अधिनियम ने राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण (National Environment Appellate Authority- NEAA) की स्थापना की, जो पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 (Environment Protection Act- EPA) के तहत कुछ औद्योगिक गतिविधियों पर लगाए गए प्रतिबंधों के संबंध में अपीलों की सुनवाई करता है तथा एक निष्पक्ष एवं पारदर्शी प्रक्रिया सुनिश्चित करता है।
    • खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन, हैंडलिंग और ट्रांसबाउंड्री मूवमेंट) नियम, 1989:
      • इसमें उद्योगों से महत्त्वपूर्ण दुर्घटना जोखिमों की पहचान करने, निवारक उपायों को लागू करने और किसी भी संभावित खतरे की सूचना उपयुक्त प्राधिकारियों को देने की अपेक्षा की जाती है।
    • अतिरिक्त उपाय:
      • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (National Disaster Management Authority- NDMA) ने रासायनिक आपदा प्रबंधन पर विशेष दिशा-निर्देश जारी किये हैं। ये अधिदेश विभिन्न प्राधिकरणों को विस्तृत आपदा प्रबंधन योजनाएँ तैयार करने के लिये दिशा-निर्देश प्रदान करते हैं।
      • कई अन्य कानून और विनियम, जैसे कारखाना अधिनियम, 1948 तथा कीटनाशक अधिनियम, 1968 भी औद्योगिक सुरक्षा सुनिश्चित करने में भूमिका निभाते हैं।

आगे की राह

  • एक मज़बूत विनियामक ढाँचा: ILO सुरक्षा विनियमों को लागू करने के लिये विभिन्न सरकारी एजेंसियों की स्पष्ट भूमिकाओं के साथ एक व्यापक राष्ट्रीय ढाँचे की सिफारिश करता है।
  • विश्व बैंक (2018) ने रासायनिक दुर्घटनाओं को कम करने के लिये कड़े रासायनिक सुरक्षा नियम लागू करना आवश्यक है।
  • निगरानी और प्रवर्तन को मज़बूत करना: IIM अहमदाबाद (2020) के अनुसार, भारत में औद्योगिक दुर्घटनाओं को कम करने के लिये कड़ी निगरानी और प्रवर्तन की आवश्यकता है, साथ ही कड़े दंड निर्धारित करने चाहिये तथा योग्य कर्मियों द्वारा इसकी निरंतर निगरानी भी की जानी चाहिये।
  • रासायनिक जोखिम डेटाबेस का निर्माण: 1984 की भोपाल गैस त्रासदी ने भारत में औद्योगिक रसायनों से जुड़े जोखिमों का दस्तावेज़ीकरण करने के लिये एक केंद्रीकृत डेटाबेस की आवश्यकता पर बल दिया है। 
    • आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (Organisation for Economic Co-operation and Development -OECD) रसायनों के वर्गीकरण तथा लेबलिंग की वैश्विक सामंजस्यपूर्ण प्रणाली (Global Harmonized System- GHS) को बढ़ावा देता है, जो इन रसायनों को वर्गीकृत करने के लिये एक मानकीकृत तरीका प्रदान करता है, जिससे जोखिम का बेहतर तरीके से आकलन करने में सहायता मिलती है।
  • श्रमिक प्रशिक्षण में निवेश: भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (National Safety Council of India- NSCI) द्वारा 2017 में किये गए एक अध्ययन में पाया गया कि सुरक्षा प्रोटोकॉल के बारे में श्रमिकों की अनभिज्ञता औद्योगिक दुर्घटनाओं से बचाव न कर पाने  का प्रमुख कारण है।
    • NSCI सभी स्टाफ स्तरों के लिये अभ्यास सहित व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रमों की सिफारिश करता है।
  • सर्वोत्तम प्रथाओं और प्रौद्योगिकियों को बढ़ावा देना: संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (United Nations Environment Assembly- UNEP) उद्योगों को पर्यावरण की दृष्टि से स्वस्थ प्रौद्योगिकियों (Environmentally Sound Technologies- EST) को अपनाने के लिये प्रोत्साहित करता है।
    • EST से हानिकारक सामग्रियों के उपयोग को न्यूनतम किया जा सकता है, अपशिष्ट प्रबंधन में सुधार किया जा सकता है तथा दुर्घटनाओं के संभावित जोखिम को कम किया जा सकता है।
  • सुरक्षा उपायों के उन्नयन हेतु प्रोत्साहन और सहायता: सुरक्षा सुधारों को प्रोत्साहित करने के लिये बुनियादी ढाँचे के उन्नयन और नई प्रौद्योगिकियों को अपनाने हेतु कर छूट या सब्सिडी जैसी वित्तीय सहायता की पेशकश की जा सकती है।

व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थिति संहिता, 2020:

  • नियोक्ता और कर्मचारी कर्त्तव्य: यह सुरक्षा के संबंध में नियोक्ता और कर्मचारी दोनों के लिये ज़िम्मेदारियों को परिभाषित करती है।
  • क्षेत्र-विशिष्ट सुरक्षा मानक: विभिन्न उद्योगों के लिये सुरक्षा मानक स्थापित करती है।
  • कर्मचारी कल्याण: यह कर्मचारियों के स्वास्थ्य, कार्य स्थितियों, कार्य घंटों, छुट्टियों आदि पर ध्यान केंद्रित करती है।
  • संविदा श्रमिक अधिकार: संविदा श्रमिकों के अधिकारों को मान्यता प्रदान करती है तथा उनकी रक्षा करती है।
  • लैंगिक समानता: यह संहिता सभी प्रकार के कार्यों के लिये सभी प्रतिष्ठानों में महिलाओं को नियोजित करने की अनुमति देकर लैंगिक समानता को बढ़ावा देती है।

निष्कर्ष:

भारत में औद्योगिक दुर्घटनाएँ देश के औद्योगिक परिदृश्य में विनियामक और ज्ञान संबंधी अंतराल को दूर करने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती हैं। भारत, सरकार तथा उद्योग हितधारकों दोनों को शामिल करते हुए एक समग्र एवं सक्रिय दृष्टिकोण अपनाकर, एक सुरक्षित व अधिक टिकाऊ औद्योगिक विकास की दिशा में कार्य कर सकता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न. बार-बार होने वाली औद्योगिक दुर्घटनाएँ गंभीर विनियामक कमियों और अपर्याप्त सुरक्षा उपायों को उजागर करती हैं। भारत ज्ञान की कमी को कैसे कम कर सकता है और भविष्य में होने वाली त्रासदियों को कैसे नियंत्रित कर सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत में क्यों कुछ परमाणु रिएक्टर "आई.ए.ई.ए सुरक्षा उपायों" के अधीन रखे जाते हैं जबकि अन्य इस सुरक्षा के अधीन नहीं रखे जाते? (2020)

(a) कुछ यूरेनियम का प्रयोग करते हैं और अन्य थोरियम का।
(b) कुछ आयातित यूरेनियम का प्रयोग करते हैं और अन्य घरेलू आपूर्ति का।
(c) कुछ विदेशी उद्यमों द्वारा संचालित होते हैं और अन्य घरेलू उद्यमों द्वारा।
(d) कुछ सरकारी स्वामित्व वाले होते हैं और अन्य निजी स्वामित्व वाले।

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. ऊर्जा की बढ़ती हुई जरूरतों के परिपेक्ष्य में क्या भारत को अपने नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम का विस्तार करना जारी रखना चाहिये? बढ़ती ऊर्जा से संबंधित तथ्यों एवं भयों की विवेचना कीजिये। (2018)


भारतीय अर्थव्यवस्था

भारत में कृषि ऋण माफी

प्रिलिम्स के लिये:

कृषि ऋण माफी, भारतीय स्टेट बैंक (SBI), नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, नाबार्ड, भारतीय रिज़र्व बैंक, मुद्रास्फीति, न्यूनतम समर्थन मूल्य, किसान क्रेडिट कार्ड योजना। 

मेन्स के लिये:

सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, विकास और प्रगति, कृषि ऋण माफी और संबंधित मुद्दे।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

कृषि ऋण माफी भारतीय चुनावों के दौरान, विशेषकर कृषि प्रधान राज्यों में, एक प्रमुख राजनैतिक मुद्दा बन गया है।

  • ये ऋण राहत योजनाएँ, यद्यपि अस्थायी राहत प्रदान करती हैं, परन्तु कृषि संकट के मूल कारणों का समाधान करने में विफल रहती हैं।

कृषि ऋण माफी क्या है?

  • परिचय: कृषि ऋण माफी सरकार द्वारा लागू की गई वित्तीय राहत योजना है, जिसके तहत कुछ हद तक कृषि ऋणों को माफ कर दिया जाता है, जिससे किसानों को पुनर्भुगतान के बोझ से राहत मिलती है तथा उनको आर्थिक संकट कम होता है।
    • इन छूटों की घोषणा अक्सर चुनाव प्रचार के दौरान कृषक समुदाय से समर्थन प्राप्त करने के वादे के रूप में की जाती है।
    • कृषि ऋण माफी में सरकार द्वारा बैंकों और वित्तीय संस्थानों को बजटीय आवंटन उपलब्ध कराकर किसानों के बकाया ऋण को वहन करना शामिल है।
    • किसानों को अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें विवादित भूमि जोत, कम होता भूजल, मृदा की खराब गुणवत्ता, बढ़ती लागत और निम्न फसल उत्पादकता शामिल हैं।
      • अपनी उपज के लिये सुनिश्चित पारिश्रमिक अभाव के कारण किसान अक्सर बैंकों या निजी ऋणदाताओं से उच्च ब्याज दरों पर धन उधार लेते हैं।
    • ऋण माफी से कर्ज़ में डूबे किसानों को अस्थायी राहत मिलती है, लेकिन यह कृषि संकट का दीर्घकालिक समाधान नहीं है।
  • छूट का कार्यान्वयन:
    • प्राकृतिक आपदाओं के समय, सरकार दंडात्मक ब्याज माफ कर सकती है, ऋणों का पुनर्निर्धारण कर सकती है या बकाया ऋणों को पूरी तरह से माफ कर सकती है।
    • सरकार का बजट वित्तीय दायित्वों का वहन करता है, बैंकों का नहीं।
    • ये माफी ऋण के प्रकार (अल्पकालिक, मध्यमकालिक, दीर्घकालिक), किसानों की श्रेणी या ऋण स्रोत जैसे कारकों के आधार पर चयनात्मक हो सकती है।  

कृषि ऋण: अनुसूचित बैंक व्यक्तिगत किसानों या कृषक समूहों को कृषि या संबद्ध गतिविधियों जैसे डेयरी, मत्स्य पालन, पशुपालन, मुर्गीपालन, मधुमक्खी पालन और रेशम उत्पादन के लिये कृषि ऋण प्रदान करते हैं।

  • अल्पावधि (18 महीने तक) ऋण दो मौसमों-  खरीफ और रबी, के दौरान फसल उगाने के लिये दिये जाते हैं, जबकि मध्यम अवधि (18 महीने से अधिक से 5 वर्ष तक) तथा दीर्घावधि (5 वर्ष से अधिक) ऋण कृषि मशीनरी खरीदने, सिंचाई एवं अन्य विकासात्मक गतिविधियों हेतु दिये जाते हैं।
  • इसके अंतर्गत फसल-पूर्व और फसल-पश्चात की गतिविधियों जैसे निराई, कटाई, छँटाई तथा कृषि उपज के परिवहन के लिये भी ऋण उपलब्ध हैं।
  • अधिकांश ऋणों को किश्तों में अदा करने अवधि पाँच वर्ष तक होती है तथा ब्याज दरें ऋण की प्रकृति और जारीकर्त्ता बैंक के आधार पर अलग-अलग होती हैं।

कृषि ऋण माफी के ऐतिहासिक उदाहरण:

  • पहली अखिल भारतीय कृषि ऋण माफी वर्ष 1990-91 में, कृषि और ग्रामीण ऋण राहत योजना (Agricultural and Rural Debt Relief Scheme- ARDRS) के माध्यम से शुरू की गई थी, जिसके तहत किसानों को चुनिंदा ऋणों पर 10,000 रुपए तक की राहत प्रदान की गई थी।
  • दूसरी बड़ी माफी वर्ष 2008 में घोषित कृषि ऋण माफी और ऋण राहत योजना (ADWDRS) द्वारा दी गई थी।
    • सरकार ने किसानों को राहत देने के लिये 60,000 करोड़ रुपए आवंटित किये। 2 हेक्टेयर से कम भूमि वाले छोटे किसानों की पूरी निर्धारित राशि माफ कर दी गई।
    • 2 हेक्टेयर से अधिक भूमि वाले अन्य किसानों को छूट के रूप में निर्धारित राशि का 25% एकमुश्त निपटान (One Time Settlement- OTS) देने की पेशकश की गई, बशर्ते वे शेष 75% का भुगतान कर दें।
  • भारतीय स्टेट बैंक (State Bank of India- SBI) के एक अध्ययन के अनुसार, 2014 से अब तक आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, पंजाब, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और तमिलनाडु सहित विभिन्न राज्य सरकारों ने 2.52 लाख करोड़ रुपए की ऋण माफी की घोषणा की है।

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कृषि ऋण माफी से किसानों और सरकारों पर क्या प्रभाव पड़ता है?

  • किसानों पर प्रभाव:
    • विशेष रूप से प्राकृतिक आपदाओं के कारण फसल नष्ट होने के कारण कर्ज़ से जूझ रहे किसानों को  ऋण माफी अल्पकालिक राहत प्रदान करती है।
    • आलोचकों का तर्क है कि ऋण माफी से गैर-भुगतान की प्रवत्ति को बढ़ावा मिल सकता है, जिससे भविष्य में ऋण माफी की आशा की जा सकती है, जिससे कृषक समुदाय के बीच ऋण अनुशासन कमज़ोर हो सकता है।
      • ऋण माफी के बाद की अवधि में अक्सर ऋण प्राप्त करना कठिन हो जाता हैं, क्योंकि बैंक ऋण देने में संकोच करने लगते हैं, जिससे किसानों की अगले फसल चक्र में निवेश करने की क्षमता प्रभावित हो सकती है।
    • नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (Comptroller and Auditor General- CAG) की एक रिपोर्ट में पाया गया कि वर्ष 2008 की योजना से कई अपात्र किसानों को लाभ मिला, जबकि कई पात्र छोटे और सीमांत किसान इससे वंचित रह गए।
    • कार्यान्वयन चुनौतियाँ: वर्ष 2022 में SBI द्वारा किये गए एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि वर्ष 2014 से राज्य सरकारों द्वारा घोषित 9 कृषि ऋण माफी के लाभार्थियों में से केवल आधों की ही वास्तव में ऋण माफी हुई है।
      • महाराष्ट्र में कार्यान्वयन दर अपेक्षाकृत अधिक थी। इसके विपरीत, तेलंगाना में कार्यान्वयन सर्वाधिक प्रभावित हुआ।
  • सरकारों पर प्रभाव:
    • नकारात्मक प्रभाव:
      • सबसे तात्कालिक प्रभाव सरकारी वित्त पर पड़ने वाला दबाव है। ऋण माफ करने का तात्पर्य है राजस्व की एक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय कोष में शामिल न करना, जिसका उपयोग अन्य सामाजिक कार्यक्रमों या बुनियादी ढाँचे के विकास के लिये किया जा सकता था।
        • नाबार्ड की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 1990 की ARDR योजना के कारण केंद्र सरकार को 7825 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ। राज्यों को कर्ज़माफी की भरपाई के लिये RBI से अतिरिक्त ऋण लेने के लिये मजबूर होना पड़ा।
      • बड़े पैमाने पर ऋण माफी से सरकारी ऋण में बढ़ोतरी हो सकती है, जिससे ब्याज दरें और मुद्रास्फीति बढ़ सकती है तथा आर्थिक स्थिरता कमज़ोर हो सकती है।
      • इसके अतिरिक्त, ऋण माफी अक्सर न्यूनतम फसल कीमतों और अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे जैसे प्रमुख कृषि मुद्दों से निपटने में विफल रहती है तथा केवल अल्पकालिक राहत ही प्रदान करती है।
    • सकारात्मक प्रभाव:
      • कृषि ऋण माफी से ऋण अदायगी से प्राप्त धन को अन्य क्षेत्रों में पुनर्निर्देशित किया जा सकता है। इससे किसानों को उत्पादकता बढ़ाने के लिये बेहतर इनपुट क्रय करके कृषि में पुनः निवेश करने और अतिरिक्त आय उत्पन्न करने के लिये कुक्कुट पालन, डेयरी या बागवानी जैसी अन्य कृषि गतिविधियों में विविधता लाने का अवसर मिलता है।
      • ऋणमाफी लागू करने वाली सरकारें बड़ी कृषक जनसंख्या के बीच राजनीतिक लाभ प्राप्त कर सकती हैं। वर्ष 1987 से वर्ष 2020 तक नाबार्ड के एक अध्ययन में पाया गया कि 21 राज्य सरकारों ने राज्य चुनावों से पूर्व ऋणमाफी की घोषणा की, जिनमें केवल चार राज्यों में ही सरकारों हार हुई।

कृषि ऋण माफी के विकल्प:

  • कृषि के लिये सार्वजनिक निवेश में वृद्धि: कुल व्यय या सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में कृषि विकास हेतु बजटीय संसाधनों का अधिक हिस्सा आवंटित करना, जो प्रत्येक वर्ष कम हो रहा है। सिंचाई, विद्युत, भंडारण और परिवहन पर ध्यान केंद्रित करना।
    • बीज, उर्वरक और कीटनाशकों जैसे गुणवत्तापूर्ण, किफायती कृषि इनपुट तक सरल पहुँच सुनिश्चित करना। इन इनपुट के लिये आपूर्ति शृंखला और वितरण को मज़बूत करना।
    • सूखा प्रतिरोधी और उच्च उपज देने वाली फसल किस्मों को विकसित करने, कृषि तकनीकों में सुधार लाने तथा स्थायी कृषि को बढ़ावा देने के लिये कृषि अनुसंधान में निवेश बढ़ाना।
    • आधुनिक कृषि पद्धतियों, नई प्रौद्योगिकियों एवं अनुसंधान निष्कर्षों को किसानों तक पहुँचाने के लिये कृषि विस्तार सेवाओं को, विशेष रूप से दूरदराज़ के क्षेत्रों में, मज़बूत और विस्तारित करना।
  • फसल विविधीकरण को प्रोत्साहित करना: सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Prices- MSP) और खरीद आश्वासन के कारण किसान मुख्य रूप से गेहूँ तथा धान जैसी फसलों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
    • तिलहन, दलहन, फल ​​एवं सब्ज़ियों को शामिल करने के लिये मूल्य समर्थन और खरीद का विस्तार करने से फसल विविधीकरण को प्रोत्साहन मिलेगा।
    • सहायक नीतियों को लागू करने और स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल जल-दक्ष फसलों को बढ़ावा देने से स्थिरता बढ़ेगी।
    • उदाहरण के लिये: पंजाब में यूरिया के अत्यधिक उपयोग के कारण भूजल भंडार में अत्यधिक कमी आई है और मृदा का क्षरण हो रहा है। राज्य के किसान मुख्य रूप से गेहूँ व धान उगाते हैं, क्योंकि सरकारी खरीद के कारण ये ही एकमात्र व्यवहार्य फसलें हैं।
  • प्रत्यक्ष आय सहायता योजनाएँ: ऋण माफी के विकल्प के रूप में PM-KISAN और किसान क्रेडिट कार्ड योजना जैसी प्रत्यक्ष आय सहायता योजनाओं को लागू करना, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (Direct Benefit Transfers- DBT) एवं आधार-आधारित पहचान के माध्यम द्वारा कुशल निधि संवितरण सुनिश्चित करना।
  • बाज़ार सुधार और पहुँच: कृषि उपज विपणन समितियों (Agricultural Produce Marketing Committees- APMC) के कामकाज़ में सुधार से मध्यस्थों द्वारा किया जाने वाला शोषण कम हो सकता है और यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि किसानों को उपभोक्ता के धन का उचित भाग मिले।
    • इलेक्ट्रॉनिक राष्ट्रीय कृषि बाज़ार (e-NAM) प्लेटफॉर्म को व्यापक रूप से अपनाने को प्रोत्साहित करने से ऑनलाइन व्यापार को सुविधाजनक बनाया जा सकता है और किसानों को सीधे उपभोक्ताओं से जोड़ा जा सकता है, जिससे अनावश्यक मध्यस्थों के हस्तक्षेप समाप्त किया जा सकता है।
  • किसान उत्पादक संगठन (Farmer Producer Organizations- FPO): सहकारी समितियाँ गठित करने वाले किसान बीज, उर्वरक और उपकरण थोक में खरीदकर लागत में कमी कर सकते हैं तथा बेहतर मूल्य प्राप्त कर सकते हैं।
    • वे उचित मूल्य प्राप्त करने के लिये अपने उत्पादों के विपणन और बिक्री में भी सहयोग कर सकते हैं।
  • जोखिम न्यूनीकरण रणनीतियाँ: किफायती और सुलभ फसल बीमा योजनाओं की प्रस्तुति किसानों को प्राकृतिक आपदाओं या अप्रत्याशित घटनाओं के कारण होने वाली वित्तीय हानि से बचा सकती है।
    • मौसम मापदंडों पर आधारित फसल बीमा अप्रत्याशित मौसम प्रतिरूप से होने वाले जोखिम को कम करने में सहायता करता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. दीर्घकालिक कृषि संकट को दूर करने में कृषि ऋण माफी की प्रभावकारिता का आकलन कीजिये।

प्रश्न. सरकारों के वित्तीय स्वास्थ्य और समग्र अर्थव्यवस्था पर बार-बार दी जाने वाली कृषि ऋण माफी के प्रभाव का विश्लेषण कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. 'किसान क्रेडिट कार्ड' योजना के अन्तर्गत, निम्नलिखित में से किन-किन उद्देश्यों के लिए कृषकों को अल्पकालीन ऋण समर्थन उपलब्ध कराया जाता है ? (2020)

  1. फार्म परिसंपत्तियों के रख-रखाव हेतु कार्यशील पूँजी के लिये
  2. कम्बाइन कटाई मशीनों, ट्रैक्टरों एवं मिनी ट्रकों के क्रय के लिये
  3. पर्म परिकरों की उपमोग
  4. फ़सल कटाई के बाद के खर्चों के लिये
  5. परिवार के लिये घर निर्माण तथा गाँव में शीतागार सुविधा की स्थापना के लिये

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये :

(a) केवल 1,2 और 5
(b) केवल 1,3 और 4
(c) केवल 2,3, 4 और 5
(d) 1,2,3,4 और 5

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. भारतीय कृषि की प्रकृति की अनिश्चितताओं पर निर्भरता के मद्देनज़र, फसल बीमा की आवश्यकता की विवेचना कीजिये और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पी० एम० एफ० बी० वाइ०) की मुख्य विशेषताओं का उल्लेख कीजिये।(2016)


सामाजिक न्याय

भारतीय कारागारों में मासिक धर्म स्वच्छता

प्रिलिम्स के लिये:

विश्व मासिक धर्म स्वच्छता दिवस, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, विश्व बैंक, मासिक धर्म स्वच्छता योजना

मेन्स के लिये:

भारतीय जेलों में मासिक धर्म स्वच्छता, भारत में महिला कैदी, मासिक धर्म स्वास्थ्य नीतियाँ

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

विश्व मासिक धर्म स्वच्छता दिवस 2024 पर, भारत मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन में महत्त्वपूर्ण प्रगति की है, 5वें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Family Health Survey- 2019-2020) की रिपोर्ट के अनुसार 15-24 वर्ष की आयु की लगभग 80% युवा महिलाएँ वर्तमान में सुरक्षित मासिक धर्म स्वच्छता उत्पादों का उपयोग करती हैं।

  • हालाँकि, सर्वाधिक रूप से भारतीय जेलों में हाशिये पर रहने वाली महिलाओं की ज़रूरतों को अनदेखा किया जाता है। सामाजिक पूर्वाग्रह इन महिलाओं को बुनियादी अधिकारों और उचित मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन से वंचित करते हैं, जो आगे सुधार के लिये एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र को चिह्नित करता है।

जेलों में मासिक धर्म स्वच्छता की स्थिति क्या है?

  • जनसंख्या: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, भारतीय जेलों में लगभग 23,772 महिलाएँ हैं, जिनमें से 77% प्रजनन आयु वर्ग (18-50 वर्ष) की हैं और उनमें से अधिकतर को संभवतः मासिक धर्म होता है।
  • असंगत पहुँच: जेलों में सैनिटरी नैपकिन की उपलब्धता असमान है और यहाँ दिये जाने वाले उत्पादों की गुणवत्ता बेहतर हो सकती है।
  • एक समान उत्पाद आकार: सभी जेलों में ‘एक ही आकार’ के सैनिटरी पैड जारी किये जाते हैं, जो सभी महिलाओं की अलग-अलग आवश्यकताओं को पूरा नहीं करते।
    • अधिकांश जेलों में अन्य प्रकार के मासिक धर्म संबंधी उत्पाद जैसे टैम्पोन (Tampons) या मेंस्ट्रुअल कप (Menstrual Cup) उपलब्ध नहीं होते।
  • सुविधाओं का अभाव: 2016 मॉडल प्रिज़न मैनुअल की सिफारिशों के बावजूद, कई राज्यों ने महिला कैदियों को स्वच्छ जल और शौचालय की सुविधा उपलब्ध नहीं कराई है।
  • अपशिष्ट निपटान संबंधी मुद्दे: मासिक धर्म स्वच्छता सामग्री के उचित निपटान हेतु किये गए कार्यों की अक्सर उपेक्षा की जाती है, जिससे महिलाओं का स्वास्थ्य और स्वच्छता दोनों प्रभावित होते हैं।
  • अतिरिक्त चुनौतियाँ: भीड़भाड़ और निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति के कारण जल, डिटर्जेंट एवं साबुन जैसी आवश्यक वस्तुओं तक पहुँच में बाधा उत्पन्न होती है।

जेलों में मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन की अनदेखी क्यों की जाती है?

  • कलंक का भय: मासिक धर्म अपने आप में एक वर्जित विषय हो सकता है और खासकर जेल के वातावरण में इस पर खुलकर चर्चा करने में झिझक हो सकती है। इससे महिलाओं के लिये अपनी ज़रूरत की चीज़ें मांगना मुश्किल हो सकता है।
  • कानूनी ढाँचे का अभाव: जेलों में मुफ्त, असीमित सैनिटरी उत्पादों के प्रावधान को अनिवार्य बनाने वाला कोई प्रभावी कानून नहीं है।
    • किसी भी जेल नियम में महिला कैदियों को मासिक धर्म के दौरान गर्म पानी उपलब्ध कराने का कोई प्रावधान नहीं है।
    • मासिक धर्म स्वास्थ्य योजनाएँ: मासिक धर्म स्वच्छता योजना, 2011, स्वच्छ भारत अभियान और प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना जैसी मौज़ूदा योजनाएँ विशेष रूप से महिला कैदियों की ज़रूरतों को पूरा नहीं करती हैं।
    • मॉडल प्रिज़न मैनुअल, 2016 में आवश्यकतानुसार स्टेरेलाइज़्ड सैनिटरी पैड उपलब्ध कराने का सुझाव दिया गया है, लेकिन राज्यों और जेलों में इसके क्रियान्वयन में व्यापक अंतर मौज़ूद है।
  • पर्याप्त आँकड़ों का अभाव: जेलों में जल की उपलब्धता के संबंध में पर्याप्त आँकड़ों का अभाव है, जिससे स्वच्छता संबंधी आवश्यकताओं को प्रभावी ढंग से पूरा करने के प्रयास और अधिक जटिल हो जाते हैं।
  • जागरूकता का अभाव: जेल के अधिकारियों को मासिक धर्म के दौरान महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं या उनके स्वास्थ्य के लिये मासिक धर्म स्वच्छता के महत्त्व के बारे में पूरी जानकारी नहीं होती है।
  • बजटीय बाधाएँ: मासिक धर्म संबंधी उत्पाद उपलब्ध कराने को एक अतिरिक्त व्यय के रूप में देखा जा सकता है, विशेष रूप से सीमित संसाधनों वाली जेलों में जहाँ भीड़भाड़ अधिक होती है।

मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन (Menstrual Hygiene Management- MHM): 

  • यह सार्वजनिक स्वास्थ्य और मानवाधिकारों का एक महत्त्वपूर्ण पहलू है। यह रक्त को सोखने या इकट्ठा करने के लिये स्वच्छ मासिक धर्म सामग्री का उपयोग करने की प्रथा को संदर्भित करता है।
  • MHM में आवश्यकतानुसार शरीर को धोने के लिये साबुन और पानी का उपयोग तथा प्रयुक्त मासिक धर्म सामग्री के निपटान की सुविधा तक पहुँच भी शामिल है।
  • यूनिसेफ मासिक धर्म संबंधी स्वास्थ्य देखभाल के महत्त्व पर ज़ोर देता है, क्योंकि यह मासिक धर्म वाली लाखों महिलाओं की गरिमा, स्वास्थ्य और शिक्षा को प्रभावित करता है, विशेष रूप से विकासशील देशों में जहाँ स्वच्छ जल तथा स्वच्छता सुविधाओं तक पहुँच सीमित हो सकती है।
  • विश्व बैंक जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य (WASH) सुविधाओं, मासिक धर्म से संबंधित किफायती स्वच्छता सामग्री, बेहतर तरीकों की जानकारी और शर्मिंदगी के बिना मासिक धर्म का प्रबंधन करने के लिये एक सहायक वातावरण तक पहुँच की आवश्यकता पर भी प्रकाश डालता है।
  • मासिक धर्म स्वास्थ्य को मानवाधिकार का मुद्दा माना जाता है। हर किसी को शारीरिक स्वायत्तता का अधिकार है, जिसमें मासिक धर्म के दौरान अपने शरीर की देखभाल करने की क्षमता शामिल है।

विश्व मासिक धर्म स्वच्छता दिवस 2024:

  • विश्व मासिक धर्म स्वच्छता दिवस 28 मई को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य मासिक धर्म से जुड़ी चुप्पी को तोड़ना और एक बेहतर मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन को बढ़ावा देना है।
  • थीम: "#पीरियडफ्रेंडलीवर्ल्ड"
  • इतिहास: वर्ष 2013 में जर्मनी स्थित गैर सरकारी संगठन WASH यूनाइटेड ने मासिक धर्म से जुड़ी भ्रांतियों से निपटने और उचित स्वच्छता सुविधाओं तथा किफायती मासिक धर्म उत्पादों तक पहुँच को बढ़ावा देने के लिये मासिक धर्म स्वच्छता दिवस की शुरुआत की।

मासिक धर्म स्वच्छता से संबंधित सरकारी पहल क्या हैं?

  • राष्ट्रीय मासिक धर्म स्वच्छता नीति: वर्ष 2023 में प्रस्तुत की जाने वाली यह नीति सभी के लिये सुरक्षित और सम्मानजनक मासिक धर्म स्वच्छता पर ज़ोर देती है।
    • उल्लेखनीय बात यह है कि नीति में कैदियों को लक्षित जनसंख्या के रूप में चिह्नित किया गया है, जिनकी मासिक धर्म स्वच्छता सुविधाओं तक पहुँच कमज़ोर है, जो एक सकारात्मक कदम है।
    • ठोस योजनाओं का अभाव: नीति में जेलों में मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन में सुधार के लिये कोई विशिष्ट कार्य योजना प्रदान नहीं की गई है।
  • मासिक धर्म स्वच्छता योजना (MHS): स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 10-19 वर्ष आयु वर्ग की ग्रामीण किशोरियों में मासिक धर्म स्वच्छता को बढ़ावा देने के लिये मासिक धर्म स्वच्छता योजना (Menstrual Hygiene Scheme- MHS) शुरू की है।
    • यह योजना विकेंद्रीकृत क्रय के माध्यम से किशोरियों को किफायती दरों पर सैनिटरी नैपकिन उपलब्ध कराती है तथा इनके वितरण और शिक्षा के लिये मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता (Accredited Social Health Activist-ASHA) ज़िम्मेदार होती हैं।
  • प्रधानमंत्री भारतीय जन औषधि परियोजना (PMBJP): सुरक्षा सुविधा नैपकिन (ऑक्सो-बायोडिग्रेडेबल सैनिटरी नैपकिन) जन औषधि केंद्रों पर 1 रुपए प्रति नैपकिन की दर से उपलब्ध हैं।
  • बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ (BBBP) (मिशन शक्ति):
    • मासिक धर्म स्वच्छता और सैनिटरी नैपकिन के उपयोग के बारे में जागरूकता बढ़ाना ।
  • समग्र शिक्षा: मासिक धर्म स्वास्थ्य और स्वच्छता के लिये राज्य-विशिष्ट परियोजनाएँ, जिनमें स्कूलों में सैनिटरी पैड वेंडिंग मशीनें तथा भस्मक (Incinerators) मशीनें लगाना शामिल है।
  • ज़ीरो-नैपकिन मिशन: ज़ीरो-नैपकिन मिशन का उद्देश्य सिंथेटिक (कृत्रिम) नैपकिन को मेंस्ट्रुअल कप से बदलना है, जिसे केरल में लागू किया गया है।
    • सिंथेटिक नैपकिन से उत्पन्न पर्यावरणीय चुनौतियों एवं स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण, केरल में स्थानीय निकाय मेंस्ट्रुअल कप वितरित कर रहे हैं और उनके उपयोग के बारे में जागरूकता बढ़ा रहे हैं।

आगे की राह 

  • पीरियड पैंट्री (Period Pantry): जेलों में कैदियों के लिये निर्दिष्ट और सुलभ स्थान निर्मित किये जाने चाहिये, जहाँ वे गुप्त रूप से मासिक धर्म संबंधी आपूर्ति का अनुरोध कर सकें तथा उसे प्राप्त कर सकें, जैसे उत्पादों से भरे वेंडिंग मशीन या वितरण के लिये नामित कर्मचारी।
  • स्वच्छता नायिकाएँ: जेल में बंद महिलाओं को मासिक धर्म स्वच्छता के सर्वोत्तम तरीकों पर सहकर्मी शिक्षक बनने के लिये प्रशिक्षित करना चाहिये।
    • इससे उन्हें साथी कैदियों के साथ ज्ञान साझा करने, सामुदायिक भावना को बढ़ावा देने और आत्म-देखभाल करने में  सहायता मिलती है।
    • मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन और गलत धारणाओं को दूर करने हेतु जेल कर्मचारियों के लिये कार्यशालाएँ आयोजित की जानी चाहिये।
    • स्त्री रोग संबंधी जाँच और मासिक धर्म संबंधी स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं पर शिक्षा के लिये नियमित पहुँच प्रदान करने हेतु महिला स्वास्थ्य पेशेवरों को शामिल करना चाहिये।
  • बुनियादी मानकों की गारंटी: सरकार को जेलों में मासिक धर्म स्वच्छता के लिये एक समान राष्ट्रीय विनियमन स्थापित करने चाहिये तथा उन्हें बनाए रखना चाहिये, जिसमें मुफ्त उच्च गुणवत्ता वाले सैनिटरी पैड उपलब्ध कराना, महिला वार्डों में उचित वेंटिलेशन के साथ स्वच्छ और कार्यशील शौचालय सुनिश्चित करना व सैनिटरी पैड के लिये सुरक्षित एवं स्वच्छ निपटान डिब्बे उपलब्ध कराना शामिल है।
    • शौचालयों की मरम्मत और उन्नयन के लिये बजट आवंटित करके जेलों के बुनियादी ढाँचे को उन्नत करना चाहिये।
  • स्थिरता और निगरानी: कार्यान्वयन का आकलन करने, उत्पाद की उपलब्धता पर नज़र रखने और समस्याओं का समाधान हेतु एक निगरानी प्रणाली स्थापित करनी चाहिये। मासिक धर्म स्वच्छता को एक बुनियादी अधिकार के रूप में बढ़ावा देना चाहिये और महिलाओं के कल्याण पर निरंतर ध्यान देने के लिये  इसे जेल सुधार पहलों में शामिल किया जाना चाहिये।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. मासिक धर्म स्वच्छता प्रबंधन सार्वजनिक स्वास्थ्य का एक अनिवार्य घटक है। भारत में जेल में बंद महिलाओं के लिये सम्मानजनक और पर्याप्त मासिक धर्म स्वच्छता सुविधाएँ सुनिश्चित करने के महत्त्व पर चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स:

प्रश्न. भारत में समय और स्थान के विरुद्ध महिलाओं के लिये निरंतर चुनौतियाँ क्या हैं? (2019)


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