डेली न्यूज़ (27 Sep, 2024)



औद्योगिक क्रांति


महिलाओं पर कार्य का असंगत बोझ

प्रिलिम्स के लिये:

महिला श्रमबल भागीदारी, मजदूरी असमता, लैंगिक असमता, महिला श्रमबल भागीदारी दरअंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) 

मेन्स के लिये:

कार्यबल, कॉर्पोरेट में महिलाओं की भागीदारी की स्थिति, श्रमबल भागीदारी में महिलाओं के समक्ष चुनौतियाँ और बाधाएँ

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अर्न्स्ट एंड यंग (EY) में कार्यरत 26 वर्षीय महिला चार्टर्ड अकाउंटेंट की दुखद मृत्यु हुई जिसके पश्चात्  भारत में युवा महिला पेशेवरों (गैर-श्रमिकीय) द्वारा सामना किये जाने वाला अत्यधिक कार्यभार और तनाव पुनः चर्चा का विषय बना गया है।

भारत में कामकाज़ी महिलाओं की स्थिति क्या है?

  • कार्य के घंटे और तनाव का स्तर: 
    • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की युवा पेशेवर महिलाएँ औसतन प्रति सप्ताह 55 घंटे कार्य करती हैं, जिसमें प्रतिदिन 9-11 घंटे का कार्य शामिल है तथा घरेलू ज़िम्मेदारियों के कारण उन्हें केवल 7-10 घंटे का ही विराम मिलता है।
      • वैश्विक स्तर के दृष्टिगत जर्मनी में IT और मीडिया क्षेत्र में महिलाएँ 32 घंटे कार्य करती हैं जबकि रूस की महिलाएँ 40 घंटे कार्य करती हैं।
  • युवा पेशेवर महिलाएँ अधिक कार्य करती हैं:
    • ICT/मीडिया के क्षेत्र में 15-24 वर्ष की महिलाएँ प्रति सप्ताह लगभग 57 घंटे कार्य करती हैं जबकि पेशेवर, वैज्ञानिक और तकनीकी गतिविधियों में कार्यरत महिलाएँ प्रति सप्ताह लगभग 55 घंटे कार्य करती हैं। 
      • इस डेटा के विश्लेषण के अनुसार आयु के अल्प होने के क्रम में, कार्य के घंटों की संख्या में वृद्धि हुई, जो उजागर करता है कि कार्यबल में शामिल युवा महिलाओं की स्थिति चिंताजनक है।
  • व्यावसायिक भूमिकाओं में लैंगिक असंतुलन:
    • केवल 8.5% महिलाओं के पास ही पेशेवर वैज्ञानिक और तकनीकी नौकरियाँ हैं और 20% महिलाएँ ICT क्षेत्रों में संलग्न हैं।
      • व्यावसायिक वैज्ञानिक और तकनीकी भूमिकाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत 145 देशों में 15वें सबसे निम्न स्थान पर है।

  • अवैतनिक घरेलू कार्यों में महिलाएँ अग्रणी:
    • राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-21) के आँकड़ो के अनुसार वर्ष 2019 में, श्रमबल में शामिल नहीं होने वाली महिलाओं ने प्रतिदिन 7.5 घंटे अवैतनिक घरेलू और देखभाल कार्य किये।
    • कार्यरत महिलाओं ने प्रतिदिन औसतन 5.8 घंटे अवैतनिक घरेलू कार्य किये।
    • उक्त विषय में बेरोज़गार पुरुषों का योगदान 3.5 घंटे था जबकि कार्यरत पुरुषों ने घरेलू कार्य में प्रतिदिन केवल 2.7 घंटे ही व्यतीत किये।

  • क्षेत्रीय विविधताएँ:
    • 15 से 59 वर्ष की आयु की लगभग 85% महिलाएँ अवैतनिक रूप से घरेलू कार्य करती हैं, जो दर्शाता है कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच बहुत कम अंतर है। 
    • NFHS (2019-21) के आँकड़ो के अनुसार, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों में कई क्षेत्रों में पुरुषों की भागीदारी 50% से कम है।

भारत में गैर-श्रमिकीय (व्हाइट-कॉलर) नौकरियों का परिदृश्य क्या है?

  • विनियमन की वर्तमान स्थिति:
    • गैर-श्रमिकीय श्रमिक से तात्पर्य वेतनभोगी पेशेवर से है, जो प्रायः प्रशासनिक अथवा प्रबंधकीय कार्य में संलग्न होता है।
    • वर्तमान में, कई केंद्रीय विधानों, जैसे औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947, दुकान और स्थापना अधिनियम, 1954 और कारखाना अधिनियम, 1948, में निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के अधिकारों का प्रावधान किया गया है। 
    • मानक अनुबंध प्रारूपों के अभाव के कारण कंपनियों में मतभेद होते हैं, जिससे कर्मचारियों के अधिकारों में विसंगतियाँ उत्पन्न होती हैं और इससे विनियमन जटिल हो जाता है।
  • विनियमन की आवश्यकता:
    • ASSOCHAM द्वारा वर्ष 2023 में किये गए अध्ययन के अनुसार 42% भारतीय गैर-श्रमिकीय कर्मचारी प्रति सप्ताह विधिक रूप से निर्धारित 48 घंटे की कार्य सीमा से अधिक कार्य करते हैं।
    • इसके अतिरिक्त, वर्ष 2022 के टीमलीज सर्वेक्षण (भारत-आधारित मानव संसाधन कंपनी) के अनुसार 68% पेशेवर कार्य और निजी जीवन के संतुलन में संघर्ष करते हैं, जिससे उनका मानसिक स्वास्थ्य और व्यक्तिगत संबंध प्रभावित होता है। 
    • गिग अर्थव्यवस्था के उदय से यह अथिति और भी जटिल हो गई है क्योंकि कई फ्रीलांसर सवेतन अवकाश और स्वास्थ्य बीमा जैसी आवश्यक सुविधाओं से वंचित रहते हैं।
  • अधिक सख्त श्रम कानूनों से संबंधित चिंताएँ:
    • नवप्रवर्तन और अनुकूलनशीलता पर प्रभाव: सख्त विनियमन IT जैसे गतिशील क्षेत्रों के लिये आवश्यक अनुकूलनशीलता और त्वरित अनुक्रिया में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।
    • नियोक्ता-कर्मचारी संबंध: कार्य और निजी जीवन को संतुलित करने हेतु कठोर नियमों की अपेक्षा मुक्त संचार और आपसी विश्वास अधिक प्रभावी हैं।
    • रोज़गार सृजन पर प्रभाव: अनुपालन लागत में वृद्धि के कारण नियोक्ताओं द्वारा नियुक्तियों में कमी या छंँटनी की जा सकती है, जिससे रोज़गार परिदृश्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।

श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी के लिये क्या चुनौतियाँ हैं?

  • पितृसत्तात्मक सामाजिक मानदंड: समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक मानदंड और परंपरागत लैंगिक भूमिकाएँ महिलाओं की शिक्षा और रोज़गार तक पहुँच को सीमित करती हैं। सामाजिक अपेक्षाओं में प्रायः देखभाल करने वालों और गृहणियों के रूप में उनकी भूमिकाओं को प्राथमिकता दी जाती है, जिससे कार्यबल में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी प्रभावित होती है।
  • लैंगिक मजदूरी अंतराल: भारत में महिलाओं को पुरुषों की तुलना में मजदूरी (वेतन) में बड़े अंतराल का सामना करना पड़ता है। विश्व असमानता रिपोर्ट, 2022 के अनुसार, पुरुष श्रम आय का 82% अर्जित करते हैं जबकि महिलाओं को केवल 18% ही प्राप्त होता है। मजदूरी में यह अंतराल महिलाओं को औपचारिक रोज़गार पाने से हतोत्साहित करता है।
  • सुरक्षा संबंधी चिंता: महिलाओं को प्रायः कार्यस्थल पर सुरक्षा संबंधी चिंताओं का सामना करना पड़ता है, जिसमें उत्पीड़न और हिंसा भी शामिल है, जिससे श्रमबल में उनकी भागीदारी बाधित होती है।
  • नेतृत्वकारी भूमिकाओं में अल्प प्रतिनिधित्व: नेतृत्व और निर्णय लेने वाले पदों पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व प्रायः अल्प होता है, जो संगठनात्मक नीतियों में लैंगिक पूर्वाग्रह को बढ़ावा देता है और कार्यबल में अन्य महिलाओं की उन्नति में बाधा डालता है।

गैर-श्रमिकीय भूमिकाओं में महिलाओं की कार्य स्थितियों में सुधार के लिये क्या किया जा सकता है?

  • महिलाओं के समावेशन और समर्थन पर ध्यान केन्द्रित करना: गैर-श्रमिकीय नौकरियों में महिलाओं की स्थितियों में सुधार के लिये लैंगिक समता सुनिश्चित करने वाली नीतियाँ, जिनमें सवेतन मातृत्व अवकाश, स्थिति के अनुरूप कार्य करने के घंटे और सुरक्षित कार्यस्थल वातावरण शामिल हैं, आवश्यक हैं। 
    • कंपनियों को समान अवसरों को बढ़ावा देने के लिये नियुक्ति, पदोन्नति और वेतन में लैंगिक पूर्वाग्रह को समाप्त करने के लिये काम करना चाहिये।
  • सांस्कृतिक परिवर्तन: महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य सहायता की व्यवस्था तथा अत्यधिक कार्य घंटों को हतोत्साहित करने जैसी CSR पहलों के माध्यम से कर्मचारी कल्याण को बढ़ावा देने से कार्य-जीवन संतुलन में सुधार हो सकता है तथा उनकी क्लान्ति कम हो सकती है। 
  • कानूनी सुधार और प्रवर्तन: मौजूदा श्रम कानूनों का सख्ती से पालन करना अत्यंत आवश्यक है और साथ ही गिग और फ्रीलांस कार्य के मुद्दे को संबोधित करने के लिये नियमों का अद्यतन करना भी ज़रूरी है। इसमें न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित करना, महिलाओं की सुरक्षा चिंता को संबोधित करना, सामाजिक सुरक्षा लाभ और गैर-पारंपरिक श्रमिकों के लिये कुशल विवाद समाधान तंत्र शामिल हैं।
  • सरकारी नीतियाँ और जागरूकता : सरकार को वे नीतियाँ बनानी चाहिये जो अनुकूल कार्य वातावरण को प्रोत्साहित करें, स्वास्थ्य कवरेज सुनिश्चित करें और विविधता को बढ़ावा दें। 
    • कर्मचारी (महिलाओं सहित) के अधिकारों और नियोक्ता दायित्वों पर जागरूकता अभियान भी निष्पक्ष कार्य स्थितियों को बनाए रखने में मदद कर सकते हैं।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

भारत के कार्यबल में महिलाओं के समक्ष क्या चुनौतियाँ हैं और इन समस्याओं को दूर करने के लिये क्या कदम उठाए जा सकते हैं?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा विश्व के देशों के लिये 'सार्वभौमिक लैंगिक अंतराल सूचकांक' का श्रेणीकरण प्रदान करता है? (2017)

(a) विश्व आर्थिक मंच
(b) संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद
(c) संयुक्त राष्ट्र महिला
(d) विश्व स्वास्थ्य संगठन

उत्तर: (a)


मेन्स:

प्रश्न. “महिलाओं का सशक्तीकरण जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने की कुंजी है।” विवेचना कीजिये। (2019) 


भारत का प्रस्तावित पोत निर्माण मिशन

प्रिलिम्स के लिये:

पोत निर्माण मिशन, पोत जीर्णोद्धार और पुनर्चक्रण मिशन, अंतर्राष्ट्रीय समुद्री विवाद समाधान केंद्र, वधावन पत्तन, गैलेथिया खाड़ी, इंडिया पोर्ट्स ग्लोबल लिमिटेड (IMEC), चाबहार पत्तन, भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा (IMEC), मुंद्रा पत्तन, समुद्री भारत विज़न 2030

मेन्स के लिये:

भारत की अर्थव्यवस्था के लिये पत्तन आधारिक संरचना का महत्त्व।

स्रोत: एलएम

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, पत्तन,पोत परिवहन और जलमार्ग मंत्री मेक इन इंडिया पहल से प्रेरित होकर वर्ष 2047 तक एक सुदृढ़ वैश्विक पोत निर्माण उद्योग के निर्माण हेतु एक पोत निर्माण मिशन निर्मित कर रहे हैं।

  • सरकार भारत को शीर्ष समुद्री शक्तियों में सम्मिलित करने के लिये एक व्यापक रणनीति निर्मित कर रही है।

प्रस्तावित पोत निर्माण मिशन की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

  • वैश्विक बाज़ार स्थिति: सरकार वर्ष 2047 तक भारत को शीर्ष पोत निर्माण उद्योग और वैश्विक समुद्री केंद्र के रूप में स्थापित करना चाहती है। 
    • वर्तमान में पोत परिवहन से संबंधित गतिविधियों में भारत की वैश्विक बाज़ार हिस्सेदारी 1% से भी कम है।
  • व्यापक रणनीति: मिशन ने कार्रवाई के लिये बारह क्षेत्रों की पहचान की है, जिनमें वित्तपोषण, बीमा, पोत स्वामित्व और पट्टे, अधिकार पत्र, पोत निर्माण, पोत जीर्णोद्धार, पोत पुनर्चक्रण, प्रस्तरमार्ग और पंजीकरण, संचालन, तकनीकी प्रबंधन, स्टाफिंग और चालक दल एवं मध्यस्थता शामिल हैं। 
  • पोत निर्माण पार्कों का विकास: इसका उद्देश्य भारत के दोनों तटों पर बड़े पोत निर्माण पार्क स्थापित करना है। सरकार ने विदेशी निवेश के अवसरों का पता लगाने के लिये दक्षिण कोरिया और जापान को आमंत्रित किया है।
    • इन्हें महाराष्ट्र, केरल, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और गुजरात में स्थापित किया जाएगा।
  • वर्तमान व्यापार गतिशीलता में परिवर्तन: वर्तमान में, भारत का लगभग 95% व्यापार विदेशी पोतों पर निर्भर करता है, जिसके परिणामस्वरूप प्रति वर्ष 110 बिलियन अमेरिकी डॉलर का बहिर्वाह होता है। इस पहल का उद्देश्य इस गतिशीलता को महत्त्वपूर्ण रूप से परिवर्तित करना है।
  • समुद्री विकास कोष: सरकार समुद्री पहलों के लिये दीर्घकालिक वित्तपोषण प्रदान करने हेतु लगभग 25,000 करोड़ रुपये की धनराशि के साथ समुद्री विकास कोष स्थापित करने की योजना बना रही है।
  • संबद्ध मिशन: इस केंद्रित दृष्टिकोण के अनुरूप दो और मिशन शीघ्र ही आरंभ किये जाने हैं। 
    • क्रूज़ इंडिया मिशन: यह पोत अवसंरचना को संवर्द्धित करेगा और बड़े क्रूज़ पोतों को समायोजित करने के लिये विशेष क्रूज़ टर्मिनलों का निर्माण करेगा। 
    • जीर्णोद्धार और पुनर्चक्रण: पोत निर्माण के अतिरिक्त, भारत पोत जीर्णोद्धार और पुनर्चक्रण मिशन शुरू करने की तैयारी कर रहा है। 
      • कोच्चि, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता और वाडिनार (गुजरात) को प्रमुख जीर्णोद्धार केंद्र बनाने के लिये विकसित किया जाएगा।
  • उत्कृष्टता केंद्र: पोत निर्माण एवं जीर्णोद्धार में उत्कृष्टता केंद्र की स्थापना की जाएगी ताकि इन क्षेत्रों में नवाचार को संवर्द्धित किया जा सके।
  • मुक्त व्यापार डिपो: पोत जीर्णोद्धार के लिये आयातित सामग्रियों पर सीमा शुल्क छूट प्रदान करने के लिये शिपयार्डों में एक मुक्त व्यापार डिपो स्थापित किया जाएगा।
  • अंतर्राष्ट्रीय समुद्री विवाद समाधान केंद्र (IIMDRC): IIMDRC को समुद्री विवादों को घरेलू स्तर पर सुलझाने के लिये शुरू किया गया है, जिससे दुबई और सिंगापुर जैसे वैश्विक केंद्रों पर निर्भरता कम हो गई है। IIMDRC योग्यता-आधारित और उद्योग-शासित समाधान प्रदान करता है, जिससे भारत मध्यस्थता के लिये एक वैश्विक केंद्र के रूप में स्थापित हो गया है।
  • घरेलू संरक्षण और क्षतिपूर्ति इकाई: मंत्रालय तटीय पोत परिवहन और अंतर्देशीय जलमार्गों के लिये तीसरे पक्ष के समुद्री बीमा प्रदान करने के लिये एक घरेलू इकाई इंडिया क्लब की स्थापना की संभावना तलाश रहा है। इसका उद्देश्य अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंधों और दबावों के जोखिम को कम करना है। उदाहरण के लिये, यूक्रेन युद्ध के कारण अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ ने रूसी पोत परिवहन कंपनियों पर प्रतिबंध लगा दिया।

भारत के समुद्री क्षेत्र में हाल की घटनाएँ क्या हैं?

  • पत्तन अवसंरचना: भारत ने देशभर में बड़े पत्तनों के लिये जो योजनाएँ बनाई हैं, उनमें महाराष्ट्र के वधावन में हाल ही में 76,220 करोड़ रुपये की लागत से निर्मित पत्तन भी शामिल हैं।
  • 40 मिलियन TEU का लक्ष्य: मंत्रालय का अनुमान है कि भारत में आगामी पांच वर्षों में 40 मिलियन TEU (बीस फुट समतुल्य यूनिट) तक पहुँच जाएगी।
    • जवाहरलाल नेहरू पत्तन की परिचालन क्षमता वर्तमान में 6.6 मिलियन से बढ़कर 10 मिलियन तक पहुँच गई है, जिससे यह उपलब्धि प्राप्त करने वाला भारत का प्रथम पत्तन बन गया है।
  • हाइड्रोजन विनिर्माण केंद्र: हाइड्रोजन विनिर्माण केंद्र स्थापित करने के लिये दीनदयाल पत्तन प्राधिकरण (DPA), कांडला और वीओ चिदंबरनार पत्तन न्यास (पूर्व में तूतीकोरिन पत्तन न्यास) में कुल 3,900 एकड़ भूमि आवंटित की गई है।
  • वैश्विक विस्तार: इंडिया पोर्ट्स ग्लोबल लिमिटेड (IPGL) ने श्रीलंका, म्याँमार और बांग्लादेश में विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय पत्तनों पर टर्मिनलों के संचालन का अधिग्रहण किया। 
    • इसके अतिरिक्त, भारत ने चाबहार पत्तन के लिये अपना अनुबंध स्वीकृत किया है।
  • व्यापार गलियारे: प्रस्तावित 4,800 किलोमीटर लंबा भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा (IMEC) भारतीय पत्तनों को सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) जैसे देशों से जोड़ेगा और अंततः यूरोप तक विस्तारित होगा।
  • मैत्री प्लेटफॉर्म: मैत्री (अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और विनियामक अंतराफलक के लिये मास्टर एप्लिकेशन) कई भारतीय विक्रय पोर्टलों को संयुक्त अरब अमीरात के साथ समेकित किया जाता है, जिससे सीमा पार व्यापार व्यवसाय सुव्यवस्थित होता है।  
  • इसे IMEC के वर्चुअल ट्रेड कॉरिडोर (VTC) के आधार के रूप में अभिकल्पित किया गया है, जो देश के बीच व्यापार डेटा के सुरक्षित और कुशल साझाकरण की सुविधा प्रदान करता है।

पोत निर्माण उद्योग से संबंधित प्रमुख तथ्य क्या हैं?

    • पोत निर्माण का परिचय: पोत निर्माण से तात्पर्य परिवहन, रक्षा और व्यापार के लिये उपयोग किये जाने वाले पोतों के निर्माण, जीर्णोद्धार और संधारण से है।
      • शिपयार्ड नामक विशेष सुविधाएँ बड़े पैमाने की परियोजनाओं और जटिल पोत  समन्वायोजन प्रक्रियाओं को प्रबंधित करती हैं।
    • वैश्विक पोत निर्माण बाज़ार अवलोकन: वैश्विक पोत निर्माण बाज़ार का मूल्य वर्ष 2023 में 207.15 बिलियन अमरीकी डॉलर था और वर्ष 2024 में इसके 220.52 बिलियन अमरीकी डॉलर तक बढ़ने की उम्मीद है।
      • प्रमुख पोत निर्माण करने वाले देशों में चीन, दक्षिण कोरिया, जापान, भारत, जर्मनी और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैं।
      • चीन, दक्षिण कोरिया और जापान सामूहिक रूप से 85% बाज़ार पर नियंत्रण रखते हैं।
    • पोत निर्माण बाज़ार में भारत की हिस्सेदारी: वैश्विक पोत निर्माण बाज़ार में भारत की हिस्सेदारी 0.06% है। पोत निर्माण निर्यात में भारत 1.12 बिलियन अमेरिकी डॉलर के साथ 12वें स्थान पर है, जबकि चीन 25 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निर्यात के साथ सबसे आगे है।
    • भारत के पोत निर्माण बाज़ार में संवृद्धि: वर्ष 2022 में, भारत के पोत निर्माण उद्योग का मूल्य 90 मिलियन अमेरिकी डॉलर था और वर्ष 2033 तक 8,120 मिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचने का अनुमान है। 
      • सरकारी समर्थन, सामरिक अवस्थिति, श्रम लागत लाभ के कारण भारतीय पोत निर्माण बाज़ार वर्ष 2047 तक 237 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक मूल्य के अवसर खोल सकता है।
    • भारत की शीर्ष पोत निर्माण कंपनियाँ: 
      • मझगांव डॉक लिमिटेड (MDL): भारतीय नौसेना और तटरक्षक बल के लिये युद्धपोतों के निर्माण के लिये जाना जाता है।
      • कोचीन शिपयार्ड लिमिटेड (CSL): CSL अपतटीय पोतों, तेल टैंकरों, विमान वाहकों में विशेषज्ञता रखता है। यह भारत का सबसे बड़ा पोत निर्माता और देश की सबसे बड़ी पोत जीर्णोद्धार सुविधा है।
      • अडानी समूह की पहल: वर्ष 2024 में, अडानी समूह ने 45,000 करोड़ रुपये के निवेश के साथ  गुजरात के मुंद्रा पत्तन पर एक प्रमुख पोत निर्माण पहल की घोषणा की।
        • इसका उद्देश्य भारत को वैश्विक पोत निर्माण केंद्र के रूप में स्थापित करना है तथा वर्ष 2047 तक 62 बिलियन अमेरिकी डॉलर का बाज़ार बनाना है।

    मैरीटाइम इंडिया विज़न 2030 क्या है?

    • मैरीटाइम इंडिया विज़न 2030 देश के समुद्री क्षेत्र को सुदृढ़ करने के लिये शुरू की गई एक सामरिक पहल है।
    • इसने पोत निर्माण और पोत जीर्णोद्धार में भारत के वैश्विक श्रेणीक्रम को वर्ष 2030 तक 20वें स्थान से शीर्ष 10 में लाने का साहसिक लक्ष्य रखा है तथा वर्ष 2047 तक शीर्ष पांच में स्थान प्राप्त करने का महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को प्रस्तुत किया है।
    • फरवरी 2023 तक, भारतीय पत्तनों पर क्षमता वृद्धि और विश्व स्तरीय अवसंरचना के विकास के लिये 1,00,000 से 1,25,000 करोड़ रुपये के निवेश का अनुमान है।

    निष्कर्ष

    मैरीटाइम इंडिया विज़न 2030 द्वारा संचालित भारत के पोत निर्माण मिशन का लक्ष्य देश को शीर्ष वैश्विक पोत निर्माण केंद्रों में स्थान दिलाना है। सरकारी समर्थन, सामरिक निवेश और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के साथ, यह मिशन भारत के समुद्री आधारिक संरचना को संवर्द्धित करेगा, लाखों नौकरियों का सृजन करेगा और वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा को सुदृढ़ करेगा। नवाचार और सतत् विकास पर इसका ध्यान भारत की आर्थिक और भू-राजनीतिक अवस्थिति को महत्त्वपूर्ण रूप से संवर्द्धित करेगा।

    दृष्टि मेन्स प्रश्न:

    प्रश्न: मैरीटाइम इंडिया विज़न 2030 के अंतर्गत भारत के पोत निर्माण मिशन की प्रमुख विशेषताओं पर चर्चा कीजिये।


    भारत जल सप्ताह 2024

    प्रिलिम्स के लिये:

    जल शक्ति मंत्रालय, 8वाँ भारत जल सप्ताह 2024, जल संसाधन प्रबंधन, विश्व जल परिषद, विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक, जल संरक्षण, राष्ट्रीय जल नीति, 2012, प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, जल शक्ति अभियान- कैच द रेन अभियान, अटल भूजल योजना, जल जीवन मिशन (JJM), राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (NMCG)

    मेन्स के लिये:

    भारत में जल संसाधन प्रबंधन के लिये चुनौतियाँ और उपाय।

    स्रोत: पीआईबी

    चर्चा में क्यों?

    हाल ही में, भारत के राष्ट्रपति ने जल शक्ति मंत्रालय के तत्वावधान में नई दिल्ली में 8वें भारत जल सप्ताह (IWW) 2024 का उद्घाटन किया। 

    • यह प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम जल संसाधन प्रबंधन पर चर्चा और सहयोग के लिये एक प्रमुख मंच के रूप में स्थापित हो गया है।

    भारत जल सप्ताह 2024 क्या है?

    • उद्देश्य:
      • इस कार्यक्रम का उद्देश्य जल प्रबंधन की महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का समाधान करना, नवाचार को बढ़ावा देना एवं स्थायी जल कार्यप्रणालियों को बढ़ावा देना था।
        • वर्ष 2012 में अपनी शुरुआत के बाद से, भारत जल सप्ताह वैश्विक जल कूटनीति के संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम बन गया है। यह कार्यक्रम संवाद, नवाचार और ज्ञान साझा करने के लिये एक मंच प्रदान करता है। 
    • थीम: 
      • भारत जल सप्ताह 2024 की थीम "समावेशी जल विकास एवं प्रबंधन के लिये भागीदारी और सहयोग" है। इस विषय ने 21वीं सदी की बढ़ती जल चुनौतियों से निपटने के लिये विभिन्न क्षेत्रों और देशों के सहयोगात्मक प्रयासों की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डाला गया है।
      • इसमें जल संरक्षण, कुशल प्रबंधन और जल संसाधनों के न्यायसंगत वितरण के लिये  एकीकृत एवं समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता पर बल दिया गया।
      • थीम में सतत् जल विकास सुनिश्चित करने तथा वैश्विक जल सुरक्षा चिंताओं के समाधान में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और बहु-हितधारक साझेदारी के महत्त्व को भी रेखांकित किया गया।
    • प्रतिभागी:
      • डेनमार्क, इज़राइल, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर जैसे देशों ने अपने जल-संबंधी नवाचारों और अनुभवों को प्रस्तुत किया।
        • चीन और बांग्लादेश ने भारत में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय जल सप्ताह कार्यक्रमों में भाग नहीं लिया।
      • विश्व जल परिषद, विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक के प्रतिनिधि भी उपस्थित थे।

    • अंतर्राष्ट्रीय वॉश सम्मेलन:
      • परिचय:
        • जल शक्ति मंत्रालय के पेयजल एवं स्वच्छता विभाग (DDWS) द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य (WASH) सम्मेलन IWW 2024 का मुख्य आकर्षण था। 
        • इस सम्मेलन में जल, स्वच्छता और स्वास्थ्य (WASH) में वैश्विक सहयोग पर ध्यान केंद्रित किया गया, जिसका उद्देश्य स्वच्छता संबंधी चुनौतियों का समाधान करना और स्वच्छता मानकों को बढ़ावा देना था।
      • उद्देश्य:
        • सम्मेलन में महत्त्वपूर्ण स्वच्छता चुनौतियों से निपटने और स्वच्छता मानकों को बढ़ावा देने के लिये WASH में वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित किया गया।
    • थीम:
      • ‘ग्रामीण जल आपूर्ति को बनाए रखना’ थीम पर केंद्रित इस तीन दिवसीय सम्मेलन ने ज्ञान के आदान-प्रदान, नवाचारों को प्रदर्शित करने और वैश्विक वॉश चुनौतियों का समाधान करने के उद्देश्य से सर्वोत्तम कार्यप्रणालियों को साझा करने के लिये एक मंच प्रदान किया, जिसमें सतत् विकास लक्ष्य 6 (SDG) को प्राप्त करने पर विशेष ध्यान दिया गया।
    • परिणाम: 
      • सम्मेलन के महत्त्वपूर्ण परिणाम सामने आए, जिसमें जल जीवन मिशन और स्वच्छ भारत मिशन जैसी पहलों के माध्यम से ग्रामीण जल प्रबंधन में भारत की अग्रणी भूमिका पर प्रकाश डाला गया।
      • इसमें भविष्य की जल एवं स्वच्छता चुनौतियों से निपटने के लिये वैश्विक साझेदारी, समुदाय-संचालित समाधान और प्रौद्योगिकी-आधारित नवाचारों के महत्त्व पर बल दिया गया।
    • प्रमुख पहल:
      • कैच द रेन अभियान (2021) ने चल रहे जल संकट का प्रभावी ढंग से सामना करने के लिये एक राष्ट्रव्यापी, जन-केंद्रित आंदोलन का समर्थन किया।
      • राष्ट्रीय सुरक्षित जल संवाद ने ‘जल जीवन मिशन (JJM)के प्रभाव को प्रदर्शित किया, जिसमें जल कीटाणुशोधन प्रौद्योगिकियों को बड़े पैमाने पर लागू करने से जुड़ी सीख, सामुदायिक जुड़ाव और जल जीवन मिशन के प्रभाव आकलन जैसे विषयों पर विचार-विमर्श किया गया।

    भारत में जल की वर्तमान स्थिति क्या है?

    • जल की कमी: वर्ष 2024 तक, भारत में विश्व की 18% जनसंख्या निवास करती है, लेकिन उसके पास मीठे जल के केवल 4% संसाधन हैं , जिससे यह विश्व स्तर पर सबसे अधिक जल-तनावग्रस्त देशों में से एक बन गया है।
    • भूजल का ह्रास: भूजल 80% पेयजल और दो-तिहाई सिंचाई आवश्यकताओं के लिये महत्त्वपूर्ण है। 
      • हालाँकि, अत्यधिक दोहन से, विशेष रूप से पंजाब जैसे कृषि प्रधान राज्यों में, भूजल स्तर में भारी गिरावट आ रही है।
    • जल प्रदूषण: भारत का लगभग 70% जल दूषित है तथा देश की लगभग आधी नदियाँ पीने या सिंचाई के लिये असुरक्षित हैं। 
      • इससे वैश्विक जल गुणवत्ता सूचकांक 2024 में भारत 122 देशों में से 120वें स्थान पर आ गया।
    • ग्रामीण जल पहुँच: लगभग 163 मिलियन भारतीयों के पास सुरक्षित पेयजल तक पहुँच नहीं है और 600 मिलियन लोग अत्यधिक जल संकट का सामना कर रहे हैं। कई ग्रामीण क्षेत्र अभी भी असुरक्षित स्रोतों पर निर्भर हैं।
    • जलवायु भेद्यता: जलवायु परिवर्तन ने भारत में अनावृष्‍टि एवं बाढ़ की समस्या को और बढ़ा दिया है, जिससे जल की उपलब्धता पर भी असर पड़ रहा है। अनुमान है कि वर्ष 2030 तक भारत की जल आपूर्ति इसकी मांग का केवल आधा हिस्सा ही पूरा कर पाएगी।

    भारत में जल संकट से संबंधित कारक क्या हैं?

    • तीव्र जनसंख्या वृद्धि और शहरीकरण: बढ़ती जनसंख्या और तीव्र शहरीकरण के कारण जल की मांग बढ़ गई है, जिससे मौजूदा जल संसाधनों और बुनियादी ढाँचे पर भारी दबाव पड़ रहा है।
    • भूजल भंडार में कमी: विशेष रूप से कृषि प्रयोजनों के लिये भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण पंजाब, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों में भूजल की कमी की दर चिंताजनक हो गई है।
    • अकुशल कृषि पद्धतियाँ: कृषि, जो भारत के लगभग 80% ताजे या मीठे जल का उपयोग करती है, अत्यधिक जल-प्रधान फसलों और अकुशल सिंचाई तकनीकों पर निर्भर है, जिसके कारण जल का असंवहनीय उपयोग होता है।
    • जल निकायों का प्रदूषण: औद्योगिक अपशिष्ट, अनुपचारित सीवेज और कृषि अपवाह ने नदियों, झीलों तथा भूजल को गंभीर रूप से प्रदूषित कर दिया है , जिससे सुरक्षित एवं पीने योग्य जल की उपलब्धता और कम हो गई है।
    • जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन के कारण अनियमित वर्षा प्रारूप, अनावृष्‍टि की बढ़ती आवृत्ति तथा बदलते मानसून चक्र ने जल उपलब्धता को बाधित कर दिया है , जिससे सूखाग्रस्त और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में संकट बढ़ गया है।
    • असमान वितरण और पहुँच: जल उपलब्धता में क्षेत्रीय असंतुलन के कारण, कुछ क्षेत्रों में संसाधनों की भारी कमी है, जबकि अन्य में संसाधनों की प्रचुरता है, जिसके परिणामस्वरूप असमान पहुँच हुई है, विशेष रूप से ग्रामीण और हाशिये पर स्थित समुदायों में।
    • पुराना बुनियादी ढाँचा और खराब जल प्रबंधन: आधुनिक जल प्रबंधन प्रणालियों की कमी तथा जल भंडारण, वितरण व उपचार के लिये पुराना एवं अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे के कारण अकुशलता और बर्बादी हुई है।
    • मानसून पर अत्यधिक निर्भरता: जल पुनःपूर्ति के लिये भारत की मानसूनी वर्षा पर अत्यधिक निर्भरता, देश को मानसून परिवर्तनशीलता के प्रति संवेदनशील बनाती है, जिसका प्रभाव कृषि उत्पादन और जल उपलब्धता दोनों पर पड़ता है।
    • कमज़ोर शासन और नीति कार्यान्वयन: असंगत एवं खंडित जल नीतियों, खराब शासन और विनियमों के कमज़ोर प्रवर्तन ने प्रभावी जल प्रबंधन तथा संरक्षण प्रयासों में बाधा उत्पन्न की है।

    आगे की राह

    • एकीकृत जल संसाधन प्रबंधन (IWRM): विभिन्न क्षेत्रों और क्षेत्रों में जल संसाधनों के प्रबंधन के लिये एक समग्र एवं समन्वित ढाँचा आवश्यक है। इसमें सतही और भूजल का कुशल उपयोग सुनिश्चित करने के साथ-साथ जल निकायों की पारिस्थितिक अखंडता को बनाए रखना शामिल होगा।
    • जल-कुशल कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देना: जल-कुशल फसलों की ओर रुख करने, ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई जैसी सूक्ष्म सिंचाई प्रणालियों को बढ़ावा देने तथा सतत् कृषि पद्धतियों को अपनाने हेतु प्रोत्साहित करने से कृषि में जल की खपत कम होगी।
    • भूजल विनियमन और पुनर्भरण तंत्र को मज़बूत बनाना: भूजल के अत्यधिक दोहन को रोकने के लिये नियामक ढाँचे को मज़बूत करना, साथ ही भूजल पुनर्भरण, वर्षा जल संचयन और वाटरशेड प्रबंधन के लिये समुदाय के नेतृत्त्व वाली पहल को बढ़ाना , भूजल की कमी को रोकने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
    • जल निकायों का पुनरोद्धार: तालाबों, झीलों और आर्द्रभूमि जैसे पारंपरिक जल निकायों को बहाल करने और उनका कायाकल्प करने से जल प्रतिधारण, बाढ़ नियंत्रण एवं भूजल पुनर्भरण में सहायता मिलेगी। नदियों और जलभृतों के प्रदूषण को रोकने के लिये कड़े उपाय करके इसे पूरक बनाया जाना चाहिये।
    • जलवायु-लचीला बुनियादी ढाँचा और योजना: जलवायु-लचीला जल बुनियादी ढाँचा विकसित करना जो अनावृष्‍टि और बाढ़ जैसी चरम मौसम की घटनाओं का सामना कर सके, साथ ही शहरी और ग्रामीण विकास में जल संसाधन नियोजन को शामिल करना, बदलती जलवायु परिस्थितियों में जल चुनौतियों का प्रबंधन करने की भारत की क्षमता को मज़बूत करेगा।
    • प्रभावी नीति कार्यान्वयन और संस्थागत सुदृढ़ीकरण: संस्थानों के बीच बेहतर समन्वय, समय पर नीतिगत हस्तक्षेप एवं मज़बूत नियामक ढाँचे के माध्यम से राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर शासन को मज़बूत करना आवश्यक है। 
    • अंतर्राष्ट्रीय और क्षेत्रीय सहयोग को बढ़ावा देना: कई जल निकायों की सीमापारीय प्रकृति को देखते हुए, भारत को साझा जल संसाधनों पर क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में सक्रिय रूप से शामिल होना चाहिये। 

    दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

    प्रश्न: जल संसाधन प्रबंधन में वैश्विक सहयोग के लिये एक मंच के रूप में अंतर्राष्ट्रीय जल सप्ताह के महत्त्व पर चर्चा कीजिये। ऐसे अंतर्राष्ट्रीय आयोजन जल संबंधी चुनौतियों के समाधान में किस प्रकार प्रभावी हो सकते हैं?

     UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

    मेन्स:

    प्रश्न. जल तनाव (Water Stress) क्या है? भारत में क्षेत्रीय स्तर पर यह कैसे और क्यों भिन्न है? (2019)

    प्रश्न. रिक्तीकरण परिदृश्य में विवेकी जल उपयोग के लिये जल भंडारण और सिंचाई प्रणाली में सुधार के उपायों को सुझाइये। (2020)


    सर्वोच्च न्यायालय द्वारा AFSPA के तहत आपराधिक मामलों पर रोक लगाना

    प्रारंभिक परीक्षा के लिये:

    सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम, 1958, अशांत क्षेत्र, सर्वोच्च न्यायालय (SC), संसद, केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल, अशांत क्षेत्र (विशेष न्यायालय) अधिनियम, 1976

    मुख्य परीक्षा के लिये:

    AFSPA की निरंतरता, मानवाधिकार संबंधी निहितार्थ, अन्य विकल्प, पक्ष और विपक्ष में तर्क तथा AFSPA के दीर्घकालिक परिणाम।

    स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

    चर्चा में क्यों?

    हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने नागालैंड में नागरिकों की कथित हत्या के आरोपियों (विशेष बल के 30 सैन्य कर्मियों) के खिलाफ FIR को रद्द करने के साथ सभी को कार्यवाही से मुक्त कर दिया है।

    • केंद्रीय गृह मंत्रालय (MHA) ने इन कर्मियों के खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने की स्वीकृति देने से मना कर दिया।

    नोट: 

    • AFSPA अधिनियम के क्रियान्वयन को मणिपुर के पहाड़ी ज़िलों, नगालैंड के आठ ज़िलों और अरुणाचल प्रदेश के तीन ज़िलों में छह महीने (1 अक्टूबर 2024 से) के लिये बढ़ा दिया गया है।
      • यह विस्तार इन राज्यों में कानून और व्यवस्था की स्थिति की समीक्षा के बाद किया गया है ताकि व्यवस्था बनाए रखने के साथ "अशांत" क्षेत्रों में सशस्त्र बलों की कार्रवाइयों को सुविधाजनक बनाया जा सके।
    • गृह मंत्रालय के अनुसार पूर्वोत्तर के 70% राज्यों से AFSPA हटा लिया गया है लेकिन जम्मू-कश्मीर में यह अभी भी लागू है तथा जम्मू-कश्मीर में भी इसे हटाने पर विचार किया जा रहा है।

    इस मामले के मुख्य तथ्य और सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय?

    • पृष्ठभूमि:  
      • इस घटना में सेना के जवानों द्वारा सही पहचान न कर पाने के कारण वर्ष 2021 में नागालैंड में नागरिकों की मौत हुई थी। 
      • सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम, 1958 की धारा 6 के तहत केंद्र सरकार (गृह मंत्रालय) की मंज़ूरी के अभाव के कारण सर्वोच्च न्यायालय ने आगे की कानूनी कार्यवाही पर रोक लगा दी थी। 
      • इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने घटना में शामिल सैन्यकर्मियों के खिलाफ आपराधिक कार्यवाही को रोक दिया तथा सरकार द्वारा आवश्यक मंज़ूरी दिये जाने पर कार्यवाही को पुनः शुरू करने की संभावना पर सहमति जताई।
    • विधिक प्रावधान: 
      • AFSPA की धारा 6: इसके द्वारा अधिनियम के तहत की गई कार्रवाइयों के संबंध में सुरक्षा प्रदान की गई है, जिसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति के बिना अधिनियम के तहत की गई या की जाने वाली कार्रवाइयों के लिये किसी भी व्यक्ति के खिलाफ कोई अभियोजन, मुकदमा या अन्य कानूनी कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती है।

    सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम (AFSPA), 1958 क्या है?

    • पृष्ठभूमि:
      • ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार ने भारत छोड़ो आंदोलन को शांत करने के लिये 15 अगस्त, 1942 को सशस्त्र बल विशेष अधिकार अध्यादेश लागू किया था।
        • इसके परिणामस्वरूप कई अध्यादेश पारित हुए, जिसमें विभाजन-प्रेरित आंतरिक सुरक्षा चुनौतियों से निपटने के लिये वर्ष 1947 में लागू किये गए "असम अशांत क्षेत्रों" के लिये एक अध्यादेश भी शामिल था।
      • नागा हिल्स में अशांति को दूर करने के लिये असम अशांत क्षेत्र अधिनियम, 1955 के बाद सशस्त्र बल (असम और मणिपुर) विशेषाधिकार अधिनियम, 1958 को लागू किया गया। 
        • व्यापक अनुप्रयोग हेतु अधिनियम को AFSPA द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था।
    • परिचय: 
      • पूर्वोत्तर राज्यों में बढ़ती हिंसा की प्रतिक्रया में AFSPA को संसद द्वारा 11 सितम्बर 1958 को पारित किया गया था। 
        • इसके द्वारा "अशांत क्षेत्रों" में सशस्त्र बलों और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों को व्यापक अधिकार प्रदान किये गए हैं।
      • AFSPA के तहत सशस्त्र बलों और "अशांत क्षेत्रों" में तैनात केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों को कानून के उल्लंघन करने वाले किसी भी व्यक्ति को मारने, गिरफ्तारी करने और वॉरंट के बिना किसी भी परिसर की तलाशी लेने के लिये काफी शक्तियाँ प्रदान की गई हैं और इसमें केंद्र सरकार की स्वीकृति के बिना अभियोजन तथा कानूनी मुकदमों से सुरक्षा सुनिश्चित की गई है। 
      • राज्य और केंद्र सरकार, AFSPA के संबंध में अधिसूचना जारी कर सकते हैं। 
      • अरुणाचल प्रदेश और नगालैंड राज्यों के लिये गृह मंत्रालय समय-समय पर "अशांत क्षेत्र" की अधिसूचना जारी करता है।

    AFSPA के अंर्तगत वर्णित अशांत क्षेत्र क्या हैं?

    • AFSPA की धारा 3 के तहत अधिसूचना द्वारा अशांत क्षेत्र घोषित किया जाता है। इसे उन स्थानों पर लागू किया जा सकता है जहाँ नागरिक शांति के लिये सशस्त्र बलों का उपयोग आवश्यक है।
    • इस अधिनियम में वर्ष 1972 में संशोधन किया गया और किसी क्षेत्र को "अशांत" घोषित करने की शक्तियाँ राज्यों के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी प्रदान की गईं।
      • विभिन्न धार्मिक, नस्लीय, भाषायी या क्षेत्रीय समूहों या जातियों या समुदायों के सदस्यों के बीच मतभेद या विवादों के कारण कोई क्षेत्र अशांत हो सकता है।
    • केंद्र सरकार, या राज्य के राज्यपाल या केंद्रशासित प्रदेश के प्रशासक पूरे राज्य या केंद्र शासित प्रदेश को अशांत क्षेत्र घोषित कर सकते हैं।
      • अशांत क्षेत्र (विशेष न्यायालय) अधिनियम, 1976 के अनुसार, एक बार 'अशांत' घोषित होने के बाद किसी क्षेत्र को लगातार तीन महीने की अवधि के लिये अशांत बनाए रखा जाता है। 
      • राज्य सरकार यह सिफारिश कर सकती है कि राज्य में इस अधिनियम की आवश्यकता है या नहीं।

    AFSPA पर समितियाँ और उनकी सिफारिशें क्या हैं?

    • जीवन रेड्डी समिति की सिफारिशें: नवंबर 2004 में केंद्र सरकार ने पूर्वोत्तर राज्यों में इस अधिनियम के प्रावधानों की समीक्षा के लिये न्यायमूर्ति बी पी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में पाँच सदस्यीय समिति गठित की। इस समिति की प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार थीं:
      • AFSPA को निरस्त किया जाना चाहिये और इस संदर्भ में उचित प्रावधानों को गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 में शामिल किया जाना चाहिये।
      • सशस्त्र बलों और अर्द्धसैनिक बलों की शक्तियों को स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट करने हेतु गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम को संशोधित किया जाना चाहिये।
      • प्रत्येक ज़िले में (जहांँ सशस्त्र बल तैनात हैं) शिकायत प्रकोष्ठ स्थापित किये जाने चाहिये।
    • द्वितीय ARC की सिफारिशें: लोक व्यवस्था पर द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) की 5वीं रिपोर्ट में भी AFSPA को निरस्त करने की सिफारिश की गई है। हालांँकि इन सिफारिशों को लागू नहीं किया गया है।
    • संतोष हेगड़े आयोग की सिफारिशें:
      • AFSPA की अनिवार्यता सुनिश्चित करने तथा इसके मानवीय पहलुओं को विस्तारित करने के लिये प्रत्येक 6 माह में इसकी समीक्षा की जानी चाहिये।
      • आतंकवाद से निपटने के लिये केवल AFSPA पर निर्भर रहने के बजाय UAPA अधिनियम में संशोधन करना चाहिये।
      • सशस्त्र बलों द्वारा अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन के दौरान की गई ज्यादतियों की जाँच की अनुमति (यहाँ तक कि "अशांत क्षेत्रों" में भी) देना चाहिये।

    भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में हिंसा के क्या कारण हैं?

    • बहु-जातीय विविधता: यह भारत का सर्वाधिक जातीय विविधता वाला क्षेत्र है जहाँ लगभग 40 मिलियन लोगों के साथ 635 जनजातीय समूहों में से 213 रहते हैं। 
      • प्रत्येक जनजाति की एक अलग संस्कृति होने के कारण आम समाज के साथ इनके एकीकरण में प्रतिरोध होने से सांस्कृतिक पहचान के नष्ट होने की चिंता रहती है।
    • आर्थिक विकास का अभाव: सरकारी नीतियों से इस क्षेत्र में आर्थिक विकास सीमित होने के परिणामस्वरूप रोज़गार के अवसर सीमित रहे हैं। 
      • इस आर्थिक विपन्नता से कई युवा बेहतर संभावनाओं की तलाश में विद्रोही समूहों में शामिल होने के लिये प्रेरित होते हैं।
    • जनसांख्यिकीय परिवर्तन: बांग्लादेश से शरणार्थियों के आगमन के कारण इस क्षेत्र के जनसांख्यिकीय परिदृश्य में बदलाव आया है, जिससे असंतोष पैदा होने एवं उग्रवाद को बढ़ावा मिलने के साथ इस क्षेत्र में यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जिसका गठन आप्रवासी विरोधी भावनाओं की प्रतिक्रया में किया गया) जैसे समूहों का गठन हुआ।
    • सेना की कथित ज्यादतियाँ: AFSPA के कार्यान्वयन की आलोचना होने के साथ इससे स्थानीय लोगों में अलगाव पैदा हुआ है और विद्रोही समूहों द्वारा इसका दुष्प्रचार किया जाता है।
      • मणिपुर की इरोम शर्मिला चानू ने पूर्वोत्तर में AFSPA के प्रयोग का विरोध करने तथा इसे हटाने की मांग को लेकर 16 वर्षों तक अनशन किया।
    • पड़ोसी देशों में राजनीतिक अस्थिरता: बांग्लादेश और म्यांमार की अस्थिरता से उत्तर-पूर्व में सुरक्षा गतिशीलता और अधिक जटिल होने के कारण उग्रवाद की समस्या को बढ़ावा मिला है।
    • बाह्य समर्थन: ऐतिहासिक रूप से पूर्वोत्तर में विद्रोही समूहों को पड़ोसी देशों से समर्थन प्राप्त होता रहा है। 
      • पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) ने 1950 और 1960 के दशक में इस क्षेत्र के उग्रवादी समूहों को प्रशिक्षण और हथियार उपलब्ध कराए, जबकि चीन ने अपनी कूटनीतिक विदेश नीति के तहत वर्ष 1967 से 1975 तक ऐसे समूहों को सहायता प्रदान की।

    आगे की राह

    • आपसी समन्वय और आत्मविश्वास का निर्माण: स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाने और सरकार तथा लोगों के बीच समन्वय के अंतराल को कम करने के क्रम में बॉटम टू टॉप एप्रोच का शासन मॉडल अपनाना चाहिये।
    • शांति समझौतों को प्राथमिकता देना: AFSPA को निरस्त करने के क्रम में पूर्व शर्त के रूप में विद्रोही समूहों के साथ शांति समझौते किये जाने की आवश्यकता है, जिसमें उचित पुनर्वास और सहायता तंत्र भी शामिल होना चाहिये।
    • बेहतर कनेक्टिविटी: पूर्वोत्तर में बुनियादी ढाँचे के विकास और कनेक्टिविटी में सुधार करने के क्रम में इस क्षेत्र की सुरक्षा और शांति को प्राथमिकता देनी चाहिये।
    • मानवाधिकारों का पालन: इस क्षेत्र में मानवाधिकारों का पालन सुनिश्चित करने के साथ आतंकवाद विरोधी अभियानों को मज़बूत करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये, जिससे सुरक्षा उपायों की प्रभावशीलता और वैधता को बढ़ावा मिल सकेगा।

    दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

    भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में AFSPA के निहितार्थों का विश्लेषण करते हुए सुरक्षा, मानवाधिकार एवं शासन के संदर्भ में इसके प्रभावों पर प्रकाश डालिये।

     UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

    मेन्स:

    प्रश्न. मानवाधिकार सक्रियतावादी लगातार इस विचार को उजागर करते हैं कि सशस्त्र बल (विशेष शक्तियाँ) अधिनियम, 1958 (AFSP) एक क्रूर अधिनियम है, जिससे सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकार के दुरुपयोगों के मामले उत्पन्न होते हैं। इस अधिनियम की कौन-सी धाराओं का सक्रियतावादी विरोध करते हैं? उच्चतम न्यायालय द्वारा व्यक्त विचार के संदर्भ में इसकी आवश्यकता का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। (2015)