मातृत्व लाभ अधिनियम : समस्याएँ एवं समाधान
चर्चा में क्यों?
चाहे संगठित क्षेत्र से संलग्नित महिलाएँ हों अथवा असंगठित क्षेत्र से, सभी कामकाजी महिलाओं हेतु मातृत्व लाभ का मुद्दा हमेशा से ही श्रम सुधारों का एक अहम् हिस्सा रहा है। दुनिया के कई देशों द्वारा इस संबंध में कानूनी प्रबध किये गए हैं। हालाँकि, भारत में पहले से ही इस विषय में कानून बनाया गया था तथापि हाल ही में एक संशोधन विधेयक के माध्यम से उसमें सुधार करते हुए मातृत्व अवकाश को 12 सप्ताह से बढ़कर 26 सप्ताह कर दिया गया है। मातृत्व लाभ अधिनियम के अंतर्गत किये गए संशोधनों में 26 सप्ताह के सवेतनिक प्रसूति अवकाश के साथ-साथ अनिवार्य क्रैच सुविधा का विशेष प्रावधान किया गया है।
- इसके बावजूद इस अधिनियम की व्यवहार्यता के संबंध में अभी भी चिंताएँ ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। विदित हो कि कुछ समय पहले ही श्रम मंत्रालय द्वारा इन सुधारों को लागु करने हेतु नियोक्ताओं को निर्देश जाती किये गए हैं जिसके कारण नियोक्ताओं पर वित्तीय बोझ बढ़ गया है, किंतु इससे इस अधिनियम के कार्यान्वयन के संबंध में मौजूद इन चिंताओं को और अधिक बल मिला है।
- इस अधिनियम में किये गए संशोधनों का उद्देश्य शिशु मृत्यु दर (34 प्रति हज़ार जीवित शिशु) और मातृ मृत्यु दर (167 प्रति 100,000 जीवित शिशु) में सुधार करना है, परंतु मुख्य चुनौती इनके कार्यान्वयन में निहित है।
- उक्त संशोधनों में क्रैच सुविधा प्रदान करने की बात कही गई है, जोकि एक गहन-लागत वाला मुद्दा है, जिसके परिणामस्वरूप न केवल नियोक्ता गर्भवती महिलाओं को काम पर रखने से परहेज़ करेंगे, बल्कि पहले से कार्यरत गर्भवती महिलाओं को नौकरी बनाए रखने पर भी रोक लगा सकते हैं।
आई.एल.ओ. की रिपोर्ट के अनुसार
- एक इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन रिपोर्ट (International Labour Organisation report) के अंतर्गत इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि सभी कामकाजी महिलाओं हेतु मातृत्व लाभ सुनिश्चित करने के लिये सबसे ज़रूरी यह है कि नियोक्ताओं को इस बारे में उत्तरदायी बनाया जाना चाहिये।
- इस रिपोर्ट में इस बात पर भी बल दिया गया है कि मातृत्व लाभ को सामाजिक बीमा या सार्वजनिक फण्ड के माध्यम से प्रदान किया जाना चाहिये।
स्थायी समिति का सुझाव
- वर्ष 2007 में श्रम पर बनी स्थायी समिति द्वारा सुझाव दिया गया था कि सरकार को मातृत्व लाभ प्रदान करने के लिये नियोक्ता द्वारा किये जाने वाले खर्चों को आंशिक रूप से प्रायोजित करने हेतु एक कोष निधि निर्मित करनी चाहिये। हालांकि, किसी भी सरकार द्वारा इस संदर्भ में कोई विशेष रुचि प्रकट नहीं की गई ।
यूनिसेफ एवं डब्लू.एच.ओ. की रिपोर्ट के अनुसार
- यूनिसेफ एवं विश्व स्वास्थ्य संगठन की अगुवाई वाली ग्लोबल ब्रेस्टफीडिंग कलेक्टिव (Global Breastfeeding Collective) द्वारा जारी एक रिपोर्ट, 2017 में माताओं द्वारा शिशु को स्तनपान कराने को "वैश्विक स्वास्थ्य में सबसे अच्छा निवेश" के नाम से संबोधित किया गया है।
- इस रिपोर्ट के अंतर्गत स्पष्ट किया गया है कि यदि शिशुओं को स्तनपान सुनिश्चित करने की दिशा में एक डॉलर का भी निवेश किया जाता है तो वह बदले में वैश्विक स्तर पर $35 का उत्पादन करता है।
- ग्लोबल ब्रेस्टफीडिंग कलेक्टिव के अनुसार, एक 'ग्लोबल ब्रेस्टफेडिंग स्कोरकार्ड, 2017' से प्रात जानकारी के अनुसार, भारत द्वारा प्रति बच्चा मात्र $0.15 (10 रुपए से भी कम) खर्च किया जाता है।
- स्पष्ट रूप से यह शिशुओं के स्वास्थ्य के संदर्भ में भारत की लापरवाही का प्रतीक है। भावी पीढ़ी के बेहतर स्वास्थ्य के लिये भारत को इस संदर्भ में विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करने की आवश्यकता है।
- इस रिपोर्ट में बताया गया है कि यदि इस संदर्भ में भारत द्वारा निवेशित स्तर इसी स्तर पर बना रहा तो, भारत को सीधे अपर्याप्त स्तनपान के कारण उच्च बाल मृत्यु दर और कैंसर एवं टाइप-II मधुमेह के कारण महिलाओं की मृत्यु की बढ़ती संख्या की वज़ह से अपनी अर्थव्यवस्था में अनुमानत: 14 अरब डॉलर अथवा अपनी सकल राष्ट्रीय आय के 0.70% का नुकसान उठाना पड़ेगा।
मातृत्व लाभ अधिनियम के प्रमुख प्रावधान
- यह अधिनियम 10 या उससे अधिक व्यक्तियों को रोज़गार देने वाले सभी संस्थानों पर लागू होगा।
- अधिनियम के अनुसार, प्रत्येक महिला को मिलने वाले मातृत्व अवकाश की अवधि 12 सप्ताह से बढ़ाकर 26 सप्ताह कर दी गई है। ऐसे मामले जिनमें महिला के दो या दो से अधिक बच्चे हैं, को 12 सप्ताह का मातृत्व अवकाश दिया जाना जारी है।
- दत्तक और कमिशनिंग माताओं के लिये भी 12 सप्ताह के अवकाश का प्रावधान है।
- ऐसी संस्थाएँ जिनमें 50 अथवा अधिक कर्मचारी कार्यरत हैं, को एक निर्धारित दूरी के अंदर क्रेच (शिशु गृह) की सुविधाएँ उपलब्ध करानी होंगी।
- इस प्रकार यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 42 के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के मानकों का भी अनुसरण करता है।
अधिनियम संबंधी चिंताएँ क्या-क्या हैं?
- इस अधिनियम के संबंध में कुछ आशंकाएँ भी उभरी हैं, जो निम्नलिखित हैं- मातृत्व अवकाश 12 सप्ताह से बढ़ाकर 26 सप्ताह कर देने से महिलाओं के लिये उपलब्ध रोज़गारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार नियोक्ता को मातृत्व अवकाश के दौरान पूरा वेतन देना पड़ेगा।
- इससे नियोक्ता पुरुष श्रमिकों को प्राथमिकता देगा। इसके प्रावधानों का पालन करने से नियोक्ता की लागत में वृद्धि होने से उन उद्योगों की प्रतिस्पर्धात्मकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है, जिनमें महिला श्रमिकों की संख्या ज़्यादा है।
- अतः इन उद्योगों में रोज़गार सृजन भी प्रभावित होगा। इस अधिनियम के अंतर्गत असंगठित क्षेत्र को शामिल नहीं किया गया, जबकि कुल महिला श्रमिकों का 90 प्रतिशत से अधिक भाग असंगठित क्षेत्र में हैं।
- इस प्रकार, यहाँ यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि इस अधिनियम के प्रावधान महिला श्रमिकों को नकारात्मक रूप से प्रभावित न करें। इसका समाधान यह हो सकता है कि चूँकि महिला एवं बाल कल्याण एक सार्वजनिक मामला है, अतः मातृत्व अवकाश के दौरान वेतन का भुगतान सरकार द्वारा किया जाना चाहिये।
निष्कर्ष
वैश्विक रिपोर्टों के संदर्भ में विचार करने के बाद यह तो स्पष्ट है कि यह मुद्दा न तो उपेक्षा करने योग्य है और न ही अधिक विलंब। भारत सरकार द्वारा मातृत्व लाभ अधिनियम में निहित लक्ष्यों को सुनिश्चित करने हेतु नियोक्ताओं की वित्तीय ज़िम्मेदारी तय करने के किये जल्द से जल्द से कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। इसके अलावा, सरकार द्वारा उक्त लक्ष्यों को सुनिश्चित करने के लिये नवीन और लागत प्रभावी तरीकों का अनुपालन करना चाहिये, ताकि कामकाजी महिलाओं को स्तनपान के लिये प्रोत्साहित किया जा सके। स्पष्ट रूप से इस दिशा में सबसे प्रभावी तरीका यह होगा कि नियोक्ताओं द्वारा कामकाजी महिलाओं को स्तनपान कराने हेतु एक स्वच्छ सुविधाजनक स्थान प्रदान किया जाना चाहिये।