भारतीय अर्थव्यवस्था
सरकार और RBI के बीच मतभेद
प्रिलिम्स के लिये:भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI), RBI गवर्नर, रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट, CRR मेन्स के लिये:RBI की कार्यप्रणाली, RBI और केंद्र सरकार के बीच मतभेद के मुख्य कारण |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के गवर्नर शक्तिकांत दास का कार्यकाल दिसंबर 2024 में समाप्त हो गया, जिसमे उनके दूसरे कार्यकाल के अंत में सरकार के साथ कुछ मतभेद की स्थिति बनी रही।
- RBI और सरकार के बीच असहमति आर्थिक मंदी और GDP वृद्धि को बढ़ावा देने के लिये कदम उठाने की सरकार की अपील के बावजूद नीतिगत दरों में कटौती से बचने के केंद्रीय बैंक के फैसले से उत्पन्न हुई।
नोट: मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति ने वर्तमान में वित्त मंत्रालय में राजस्व सचिव के रूप में कार्यरत 56 वर्षीय संजय मल्होत्रा को भारतीय रिज़र्व बैंक के 26 वें गवर्नर के रूप में नियुक्त करने की मंजूरी दे दी है।
RBI और केंद्र सरकार के बीच प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
- त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (PCA) के मानदंडों को आसान बनाना: सरकार ने RBI से MSME के लिये ऋण को बढ़ावा देने के लिये PCA के तहत विद्युत् कंपनियों को छूट देने और ऋण नियमों को आसान बनाने का आग्रह किया, लेकिन RBI ने ऐसे उपायों का विरोध किया है।
- उन्होंने तर्क दिया कि PCA के तहत मानदंडों में ढील देने से गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (NPA) संकट से निपटने के प्रयासों को नुकसान पहुँच सकता है, जो भारतीय बैंकिंग प्रणाली के लिये एक बड़ी चुनौती बन गया है।
- RBI अधिनियम, 1934 की धारा 7: सरकार, RBI अधिनियम की धारा 7 के तहत, सार्वजनिक हित में RBI को निर्देश दे सकती है, लेकिन इसके उचित उपयोग न होने से RBI की स्वायत्तता को कम करने के बारे में चिंता जताई गई है।
- जबकि सरकार ब्याज दरों को कम करने जैसे उपायों के माध्यम से अल्पकालिक विकास को प्राथमिकता देती है, RBI मुद्रास्फीति नियंत्रण, मूल्य स्थिरता और दीर्घकालिक वित्तीय स्थिरता पर ध्यान केंद्रित करता है, जिसके कारण कभी-कभी नीतिगत मतभेद पैदा हो जाता है।
- RBI अधिशेष: RBI बॉण्ड से आय अर्जित करता है और अधिशेष का एक हिस्सा आकस्मिक निधि और परिसंपत्ति रिज़र्व जैसे बफर के लिये रखता है।
- यह देखा गया है कि सरकार प्रायः अतिरिक्त रिज़र्व का तर्क देते हुए अधिक लाभांश की मांग करती है, जबकि RBI मुद्रास्फीति के ज़ोखिम और व्यापक आर्थिक स्थिरता के लिये खतरों की चेतावनी देता है।
- अधिशेष मुद्रा मूल्य में उतार-चढ़ाव और स्वर्ण के मूल्यह्रास के खिलाफ सुरक्षा के रूप में भी कार्य करता है।
- नियामक प्राधिकरण और संस्थागत क्षेत्र : वित्तीय स्थिरता और विकास परिषद (FSDC) जैसे निकायों के निर्माण से RBI के भीतर वित्तीय विनियमन में इसकी घटती भूमिका के बारे में चिंता पैदा हो गई है।
- इसके अलावा, RBI के प्रमुख अधिकारियों की नियुक्ति में सरकार के प्रभाव के मुद्दे पर भी मतभेद है, केंद्रीय बैंक ने चिंता व्यक्त की है कि इस तरह का हस्तक्षेप उसकी स्वतंत्रता को चुनौती देते हैं।
- विदेशी मुद्रा पर मुद्दा: RBI ने राजकोषीय घाटे या ऋण माफी के लिये विदेशी मुद्रा भंडार का उपयोग करने के सरकार की मांग का विरोध किया है, क्योंकि उसे डर है कि इससे वित्तीय स्थिरता प्रभावित होगी और रुपया कमज़ोर होगा, जिससे रिज़र्व प्रबंधन पर असहमति पैदा होगी।
- RBI वित्तीय स्थिरता और रुपए की मज़बूती के लिये जोखिम का हवाला देकर इस मांग का विरोध करता है। इसके अतिरिक्त, वित्तीय समावेशन और प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को ऋण देने के लिये सरकार का ज़ोर प्रायः RBI के समग्र वित्तीय स्थिरता बनाए रखने के फोकस के साथ टकराव करता है।
RBI गवर्नर और सरकार के बीच पहले क्या मतभेद हुए थे?
- RBI गवर्नर वाई.वी. रेड्डी (2003-2008): ब्याज दरों में कटौती और वित्तीय बाज़ार विकास को लेकर तत्कालीन वित्त मंत्री के साथ उनके मतभेद थे। उन्होंने किसानों के ऋण माफ करने तथा बिना गारंटी के विदेशी मुद्रा भंडार का उपयोग करने के प्रस्तावों का विरोध किया।
- डी. सुब्बाराव (2008-2013): उनके कार्यकाल में मुद्रास्फीति विरोधी नीतियों को लेकर मतभेद देखा गया, जिसमें सरकारी अधिकारी उच्च मुद्रास्फीति के बावजूद कम ब्याज दरों पर ज़ोर देते रहे।
- रघुराम राजन (2013-2016): उन्हें उस समय भी चुनौतियों का सामना करना पड़ा जब सरकार ने RBI से परामर्श किये बिना भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) के माध्यम से मुद्रा बाज़ार को विनियमित करने का प्रयास किया। उन्होंने विमुद्रीकरण की संभावित लागतों और लाभों के बारे में चिंताएँ जताईं, जिसे सरकार ने उनकी सहमति के बिना ही लागू कर दिया।
- उर्जित पटेल (2016-2018): उनके कार्यकाल में अधिशेष हस्तांतरण और ऋण मानदंडों पर असहमति देखी गई। सरकार ने RBI की नीतियों के बारे में चर्चा करने के लिये RBI अधिनियम की धारा 7 का प्रयोग किया।
- उन्होंने बढ़ते तनाव के बीच विशेष रूप से RBI के पूंजी भंडार तक पहुँच बनाने के सरकार के प्रयासों के संबंध में इस्तीफा दिया।
आगे की राह
- RBI-सरकार संबंधों को मज़बूत करना: स्वतंत्र निरीक्षण तंत्र योग्यता आधारित नियुक्तियों को सुनिश्चित कर सकता है और RBI को अनुचित राजनीतिक प्रभाव से बचा सकता है।
- भूमिकाओं का स्पष्ट चित्रण आवश्यक है, जिसमें सरकार राजकोषीय नीतियों और विकास पर ध्यान केंद्रित करेगी, जबकि RBI मौद्रिक नीति और वित्तीय स्थिरता को प्राथमिकता देगा।
- RBI की स्वायत्तता को मजबूत करना: सरकार को RBI के साथ अल्पकालिक उपायों को लागू करने के लिये आम सहमति बनानी चाहिये, जो दीर्घकालिक वित्तीय स्थिरता से समझौता करते हैं।
- स्पष्ट कानूनी और संस्थागत ढाँचे से RBI की स्वायत्तता को सुदृढ़ किया जा सकता है, तथा यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि वह बाहरी हस्तक्षेप के बिना अपने कार्य को पूरा कर सके।
- पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाना: गलतफहमियों को कम करने और आपसी विश्वास बनाने के लिये RBI और सरकार दोनों द्वारा निर्णय लेने में अधिक पारदर्शिता की आवश्यकता है। विमुद्रीकरण (2016), PCA मानदंड, अधिशेष हस्तांतरण असहमति और मौद्रिक नीति मतभेद जैसे उदाहरण RBI-सरकार की प्राथमिकताओं को संरेखित करने और आपसी विश्वास बनाने के लिये पारदर्शी निर्णय लेने की आवश्यकता को उज़ागर करते हैं।
- स्पष्ट राजकोषीय-मौद्रिक नीति समन्वय: सरकार को राजकोषीय विस्तार की सीमाओं और मुद्रास्फीति नियंत्रण के संबंध में RBI की चिंताओं को स्वीकार करते हुए राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों के बीच बेहतर समन्वय का लक्ष्य रखना चाहिये।
- इसमें नीति संरेखण के लिये औपचारिक तंत्र शामिल हो सकता है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि दोनों संस्थाएँ एक समान आर्थिक लक्ष्य की दिशा में काम करें।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्सप्रश्न. मौद्रिक नीति समिति (MPC) के संबंध में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2017)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (a) प्रश्न. यदि भारतीय रिज़र्व बैंक एक विस्तारवादी मौद्रिक नीति अपनाने का निर्णय लेता है, तो वह निम्नलिखित में से क्या नहीं करेगा? (2020)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) |
भारतीय अर्थव्यवस्था
भारत में उपकर और अधिभार संबंधी चिंताएँ
प्रिलिम्स के लिये:16 वाँ वित्त आयोग, उपकर, अधिभार, आयकर, भारत की संचित निधि, वस्तु और सेवा कर, करों का विभाज्य पूल, राज्य सूची मेन्स के लिये:भारतीय कराधान प्रणाली, राजकोषीय संघवाद, सरकारी राजस्व संग्रह में चुनौतियाँ |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
16 वें वित्त आयोग के अध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया ने हाल ही में केंद्र की उपकरों और अधिभारों पर बढ़ती निर्भरता के मुद्दे को "जटिल मुद्दा" बताया।
उपकर और अधिभार क्या हैं?
- उपकर: उपकर एक प्रकार का कर है जो किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिये लगाया जाता है। यह कर पर कर है, जो उत्पाद शुल्क या आयकर जैसे मौजूदा कर के अतिरिक्त लगाया जाता है, तथा प्राप्त राजस्व को किसी विशेष उपयोग के लिये निर्धारित किया जाता है।
- उपकर आमतौर पर एक विशिष्ट समयावधि के लिये लगाया जाता है, या जब तक सरकार निर्दिष्ट उद्देश्य के लिये पर्याप्त धनराशि एकत्र नहीं कर लेती।
- 80 वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद 270 को औपचारिक रूप से संशोधित किया गया, तथा उपकरों और अधिभारों को स्पष्ट रूप से विभाज्य पूल से बाहर कर दिया गया (उपकरों से प्राप्त राजस्व राज्यों के साथ साझा नहीं किया जाता)।
- उपकरों को संविधान में अनुच्छेद 277 और अनुच्छेद 270 (जो संघ और राज्यों के बीच राजस्व-साझाकरण ढाँचे को रेखांकित करता है) के तहत मान्यता दी गई है।
- उदाहरण: शिक्षा उपकर (प्राथमिक शिक्षा के वित्तपोषण के लिये), स्वच्छ भारत उपकर (स्वच्छता पहल के लिये), और ईंधन उपकर (सड़क विकास के लिये)।
- अधिभार: अधिभार मौजूदा शुल्कों या करों पर लगाया गया एक अतिरिक्त कर या लेवी है। यह अनिवार्य रूप से "कर पर कर" है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 270 और 271 के तहत इसकी चर्चा की गई है।
- अधिभार प्रायः उन व्यक्तियों, कंपनियों और अन्य करदाताओं पर लगाया जाता है जो उच्च आय वर्ग में आते हैं। अधिभार की दर आय स्तर के आधार पर अलग-अलग हो सकती है।
- इन्हें प्रगतिशील बनाने के लिये डिजाइन किया गया है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि अधिक आय वाले लोग अधिक योगदान दें, सामाजिक समानता को बढ़ावा मिले और आय असमानता कम हो।
- अधिभार विशेष रूप से उच्च आय वाले या कुछ क्षेत्रों में उन व्यक्तियों या संस्थाओं की कुल कर देयता को बढ़ा देता है जो पहले से ही कर के अधीन हैं।
- अधिभार से एकत्रित धनराशि सरकार के सामान्य कोष में जाती है और इसका उपयोग विभिन्न प्रयोजनों के लिये किया जा सकता है, जैसे कि बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं, सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों और अन्य सरकारी गतिविधियों के वित्तपोषण के लिये।
- 13 वें और 14 वें वित्त आयोग ने विभाज्य पूल से अधिभार को बाहर रखने का समर्थन किया; इन शुल्कों पर केंद्र की निर्भरता कम करने की सिफारिश की।
- अधिभार प्रायः उन व्यक्तियों, कंपनियों और अन्य करदाताओं पर लगाया जाता है जो उच्च आय वर्ग में आते हैं। अधिभार की दर आय स्तर के आधार पर अलग-अलग हो सकती है।
- उपकर बनाम अधिभार: उपकर और अधिभार दोनों भारत की संचित निधि (CFI) में जाते हैं, लेकिन इनका उपयोग अलग-अलग होता हैं। अधिभार को अन्य करों की तरह व्यय किया जाता है, जबकि उपकर को अलग से आवंटित किया जाना चाहिये और केवल अपने विशिष्ट उद्देश्य के लिये उपयोग किया जाना चाहिये।
उपकर और अधिभार के संबंध में चिंताएँ क्या हैं?
- केंद्र की राजकोषीय बाधाएँ: विभाज्य कर पूल में राज्यों की हिस्सेदारी 13 वें वित्त आयोग के तहत 32% से बढ़कर 14 वें वित्त आयोग के तहत 42% और 15 वें वित्त आयोग के तहत 41% हो जाने से केंद्र की राजकोषीय क्षमता कम हो गई है।
- इसके प्रतिसंतुलन के लिये, केंद्र सरकार उपकरों और अधिभारों पर अधिक निर्भर हो रही है, जिन्हें राज्यों के साथ साझा नहीं किया जाता।
- मूलतः अस्थायी उपाय के रूप में परिकल्पित अधिभार और उपकर भारत की कर प्रणाली में स्थायी प्रावधान बन गए हैं, जिससे राजकोषीय संघवाद पर उनके दीर्घकालिक प्रभाव के बारे में चिंताएँ उत्पन्न हो गई हैं।
- राज्यों की चिंताएँ: उपकर और अधिभार वर्ष 2011-12 में 10.4% से बढ़कर वर्ष 2021-22 में 20% हो गए। यह प्रवृत्ति प्रभावी रूप से राज्यों के साथ साझा किये जाने वाले करों के पूल को कम करती है, उनके राजकोषीय लचीलेपन को सीमित करती है और राजकोषीय संघवाद की भावना को कमज़ोर करती है ।
- राज्यों ने लगातार उपकरों और अधिभारों पर सीमा लगाने तथा अधिक राजस्व वितरण सुनिश्चित करने के लिये किसी भी अतिरिक्त संग्रह को विभाज्य पूल में शामिल करने की मांग की है।
- यह मुद्दा केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति और वित्तीय स्वायत्तता के बीच संतुलन की चुनौती को रेखांकित करता है, जिससे राज्यों की महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों को वित्तपोषित करने और विकासात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने की क्षमता पर संभावित रूप से असर पड़ सकता है।
- पारदर्शिता और अस्पष्टता का अभाव: चूँकि उपकर विशिष्ट उद्देश्यों के लिये एकत्र किये जाते हैं, इसलिये वे कर राजस्व के आवंटन और वितरण में पारदर्शिता को कम करते हैं।
- राज्यों का तर्क है कि कराधान की यह पद्धति न्यायसंगत राजस्व बंटवारे के सिद्धांतों को दरकिनार कर देती है।
- स्वच्छ भारत और कृषि कल्याण उपकर जैसे कई उपकर सामान्य करों की तरह संसदीय निगरानी के अधीन नहीं हैं।
- उपकर से प्राप्त आय के उपयोग में विसंगतियाँ हैं। उदाहरण के लिये, अनुसंधान एवं विकास उपकर का उपयोग आंशिक रूप से केंद्र सरकार के राजस्व घाटे को पूरा करने के लिये किया गया (न कि इसके लक्षित उद्देश्य हेतु)।
- असमान कराधान: उपकर एवं अधिभार से समाज का धनी वर्ग असमान रूप से प्रभावित (क्योंकि ये प्राथमिक योगदानकर्त्ता होते हैं) होता है।
- आलोचकों का तर्क है कि इससे निष्पक्षता संबंधी समस्याएँ उत्पन्न होने के साथ धनी लोग तथा व्यवसाय अधिक कर-अनुकूल देशों की ओर स्थानांतरित हो सकते हैं।
करों का विभाज्य पूल क्या है?
- करों के विभाज्य पूल का आशय केंद्र सरकार द्वारा एकत्रित कुल कर राजस्व के उस हिस्से से है जिसे भारत में राज्यों के साथ साझा किया जाता है।
- यह राजकोषीय संघवाद का एक प्रमुख घटक है जिससे यह सुनिश्चित होता है कि केंद्र एवं राज्य को अपने-अपने कार्यों हेतु संसाधनों तक पहुँच प्राप्त हो।
- प्रमुख विशेषताएँ:
- कर: विभाज्य पूल में केंद्र सरकार द्वारा एकत्रित कर (निगम कर, व्यक्तिगत आयकर और वस्तु एवं सेवा कर) शामिल होते हैं।
- वित्त आयोग: विभाज्य पूल का वितरण वित्त आयोग (जिसका गठन प्रत्येक पाँच वर्ष में किया जाता है) की सिफारिशों पर आधारित होता है।
- वित्त आयोग संघ एवं राज्य के लिये इसमें प्रतिशत हिस्सेदारी का सुझाव देता है।
- 15वें वित्त आयोग ने सिफारिश की है कि राज्यों को वर्ष 2021-2026 की अवधि के लिये केंद्रीय करों के विभाज्य पूल का 41% प्राप्त हो।
- ऊर्ध्वाधर एवं क्षैतिज अंतरण:
- ऊर्ध्वाधर अंतरण (Vertical Devolution): इसका आशय संघ एवं राज्यों के बीच आवंटित विभाज्य पूल के अनुपात से है।
- क्षैतिज हस्तांतरण: इसका तात्पर्य विभाज्य पूल में से राज्यों को वितरित धन (जो जनसंख्या, आय असमानता एवं कर प्रयासों जैसे कारकों पर आधारित होता है) से है।
- उपकर और अधिभार को अलग रखना: संघ द्वारा लगाए गए उपकर एवं अधिभार को विभाज्य पूल से अलग रखा गया है।
उपकर और अधिभार पर अंतर्राष्ट्रीय प्रथाएँ
- अधिभार:
- जर्मनी: एकजुटता अधिभार 1991 में जर्मन के एकीकरण और खाड़ी युद्ध के अपव्ययों को पूरा करने के लिये आरंभ किया गया था। शुरू में यह अस्थायी था, लेकिन वर्ष 1995 में इसे पुनः शुरू किया गया जो आज भी जारी है।
- फ्राँस: राजकोषीय चुनौतियों से निपटने के लिये अस्थायी रूप से अधिभार लगाया गया।
- उपकर:
- संयुक्त राज्य अमेरिका: अलबामा जैसे राज्य विशिष्ट उद्देश्यों के लिये पर्याप्त कर राजस्व निर्धारित करते हैं।
- ऑस्ट्रेलिया: मेडिकेयर लेवी (वर्ष 1984 में आरंभ हुई) चिकित्सा सहायता हेतु निधि प्रदान करने के लिये एक व्यक्तिगत आयकर है। अन्य अस्थायी कर, जैसे कि बंदूक वापस खरीदना और एन्सेट टिकट लेवी, अल्पकालिक रहे हैं, जो कुल राजस्व में न्यूनतम योगदान देते हैं।
- ऑस्ट्रेलिया की संवैधानिक संरचना निर्धारित करों के सुसंगत उपयोग को सीमित करती है।
उपकर और अधिभार से संबंधित चिंताओं को दूर करने के लिये क्या किया जा सकता है?
- उपकर:
- अधिरोपण: केंद्र सरकार को राज्य सूची के अंतर्गत आने वाले मुद्दों, जैसे स्वास्थ्य एवं शिक्षा, पर उपकर लगाने से बचना चाहिये, क्योंकि यह संघीय सिद्धांतों को कमज़ोर करता है।
- उपकर संग्रहण की एक अधिकतम सीमा निर्धारित करना और उससे अधिक संग्रहण से बचना।
- पारदर्शिता: निधियों का स्पष्ट आवंटन और उपकर संग्रह में पारदर्शिता सुनिश्चित करना। उपकरों की प्रभावशीलता और आवश्यकता का मूल्यांकन करने के लिये एक संरचित, आवधिक समीक्षा प्रक्रिया स्थापित किये जाने की आवश्यकता है।
- यदि दुरुपयोग होता है, तो उपकर निधि को सामान्य कर में हस्तांतरित कर दिया जाए तथा वित्त आयोग की सिफारिशों के आधार पर राज्यों को हिस्सा दिया जाए।
- उन्मूलन: ऐसे उपकर, जो बहुत कम राजस्व उत्पन्न करते हैं, उन्हें समाप्त किया जा सकता है, क्योंकि ये आर्थिक रूप से अकुशल हैं तथा करों की जटिलता को बढ़ाते हैं।
- अधिकतम 5 वर्षों के लिये उपकर लगाना, एक संभावित विस्तार के साथ, जिसके बाद उन्हें समाप्त किये जाने की आवश्यकता है। अनिश्चित काल तक जारी रहने को सीमित करने के लिये उपकर कानून में समापक खंड शामिल करना।
- अधिरोपण: केंद्र सरकार को राज्य सूची के अंतर्गत आने वाले मुद्दों, जैसे स्वास्थ्य एवं शिक्षा, पर उपकर लगाने से बचना चाहिये, क्योंकि यह संघीय सिद्धांतों को कमज़ोर करता है।
- अधिभार:
- आयकर का युक्तिकरण: अधिभार प्रायः प्रगतिशील आयकर हेतु एक प्रॉक्सी के रूप में कार्य करते हैं। इसे आयकर संरचना को ही युक्तिसंगत बनाकर, बजाय अधिभार जोड़े विशेषतः उच्च आय स्लैब पर, संबोधित किया जा सकता है, ।
- अधिभार की अस्थायी प्रकृति: अधिभार को अस्थायी बनाया जा सकता है, जिसका उपयोग केवल वित्तीय संकट के दौरान किया जा सकता है, तथा उनके सतत् उपयोग को रोकने के लिये समापक खंड लगाया जा सकता है, तथा वे स्थायी कर साधन बन सकते हैं।
निष्कर्ष
भारत में उपकरों तथा अधिभारों पर निर्भरता से कार्यकुशलता एवं पारदर्शिता संबंधी चिंताओं को बढ़ावा मिला है। इनके उपयोग को सीमित करने तथा इस क्षेत्र में स्थायित्व को बढ़ावा देने हेतु स्पष्ट दिशा-निर्देशों के साथ समय-समय पर समीक्षा की आवश्यकता है। अधिभारों का उपयोग केवल असाधारण परिस्थितियों में सुनिश्चित करने हेतु इस क्षेत्र में जवाबदेहिता को बढ़ावा देना चाहिये।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: उपकरों एवं अधिभारों पर केंद्र सरकार की बढ़ती निर्भरता तथा भारत में राजकोषीय संघवाद पर इसके प्रभावों की चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित पर विचार कीजिये: (2023)
समस्तर कर-अवक्रमण के लिये पंद्रहवें वित्त आयोग ने उपर्युक्त में से कितने को जनसंख्या क्षेत्रफल और आय के अंतर के अलावा निकष के रूप में प्रयुक्त किया? (a) केवल दो उत्तर: (b) मेन्स:प्र. 13वें वित्त आयोग की उन सिफारिशों पर चर्चा कीजिये जो स्थानीय सरकार के वित्त को मजबूत करने हेतु पिछले आयोगों से अलग हैं। (2013) |
भारतीय राजव्यवस्था
भारत में महाभियोग प्रक्रिया और न्यायिक जवाबदेही
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में एक धार्मिक संगठन द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में विवादास्पद टिप्पणी के बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक वर्तमान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर विचार किया जा रहा है। कई लोगों द्वारा सांप्रदायिक भावना से प्रेरित मानी गई इन टिप्पणियों ने न्यायिक औचित्य और निष्पक्षता पर चिंताएँ उत्पन्न कर दी हैं।
भारत में न्यायाधीशों के लिये महाभियोग प्रक्रिया क्या है?
- परिचय:
- यद्यपि संविधान में महाभियोग का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, लेकिन बोलचाल की भाषा में यह उस प्रक्रिया को संदर्भित करता है जिसके द्वारा किसी न्यायाधीश को संसद द्वारा उसके पद से हटाया जा सकता है।
- भारत में न्यायाधीशों के लिये महाभियोग प्रक्रिया न्यायपालिका की स्वतंत्रता को संरक्षित करते हुए न्यायिक जवाबदेही को बनाए रखने के लिये एक महत्त्वपूर्ण तंत्र के रूप में कार्य करती है।
- संवैधानिक सुरक्षा उपाय और महाभियोग के आधार:
- अनुच्छेद 124(4): यह अनुच्छेद सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया को रेखांकित करता है, जो अनुच्छेद 218 के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर भी लागू होता है। महाभियोग के आधार स्पष्ट रूप से “सिद्ध कदाचार” और “अक्षमता” तक सीमित हैं।
- सिद्ध कदाचार: न्यायाधीश द्वारा किया गया ऐसा कृत्य या आचरण जो न्यायपालिका के नैतिक और व्यावसायिक मानकों का उल्लंघन करता है।
- अक्षमता: शारीरिक या मानसिक अक्षमता के कारण न्यायिक कर्त्तव्यों का पालन करने में न्यायाधीश की असमर्थता।
- अनुच्छेद 124(4): यह अनुच्छेद सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया को रेखांकित करता है, जो अनुच्छेद 218 के अनुसार उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों पर भी लागू होता है। महाभियोग के आधार स्पष्ट रूप से “सिद्ध कदाचार” और “अक्षमता” तक सीमित हैं।
- महाभियोग प्रक्रिया के चरण:
- प्रस्ताव की शुरूआत:
- महाभियोग प्रस्ताव को लोकसभा में कम से कम 100 सदस्यों या राज्यसभा में 50 सदस्यों का समर्थन प्राप्त होना चाहिये।
- प्रस्ताव को स्वीकार या अस्वीकार करने का निर्णय लेने से पहले अध्यक्ष या सभापति प्रासंगिक विषय की समीक्षा कर सकते हैं तथा व्यक्तियों से परामर्श कर सकते हैं।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 2018 में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ प्रस्ताव को उचित विचार-विमर्श के बाद खारिज कर दिया गया था।
- इससे यह सुनिश्चित होता है कि यह प्रक्रिया लापरवाही से या निर्वाचित प्रतिनिधियों के महत्त्वपूर्ण समर्थन के बिना शुरू नहीं की जा सकती।
- जाँच समिति का गठन:
- प्रस्ताव स्वीकार होने पर, लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति एक तीन सदस्यीय समिति गठित करते हैं, जिसमें निम्नलिखित शामिल होते हैं:
- भारत के मुख्य न्यायाधीश या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश
- किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
- एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता
- समिति आरोपों की गहन जाँच करती है, साक्ष्य एकत्र करती है और आरोपों की वैधता निर्धारित करने के लिये गवाहों की जाँच करती है।
- प्रस्ताव स्वीकार होने पर, लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा के सभापति एक तीन सदस्यीय समिति गठित करते हैं, जिसमें निम्नलिखित शामिल होते हैं:
- समिति की रिपोर्ट और संसदीय बहस:
- समिति अपने निष्कर्ष सदन के पीठासीन अधिकारी को सौंपती है, जहाँ प्रस्ताव पेश किया गया था। यदि न्यायाधीश कथित कदाचार या अक्षमता का दोषी पाया जाता है, तो रिपोर्ट पर संसद में बहस होती है।
- संसद के दोनों सदनों को विशेष बहुमत से प्रस्ताव को मंजूरी देनी होगी, जिसके लिये निम्नलिखित की आवश्यकता होगी:
- सदन की कुल सदस्यता का बहुमत।
- उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों में से कम से कम दो-तिहाई सदस्य।
- प्रस्ताव की शुरूआत:
- राष्ट्रपति द्वारा अंतिम रूप से हटाना:
- एक बार दोनों सदनों में प्रस्ताव स्वीकृत हो जाने पर उसे उसी सत्र में राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
- नियंत्रण और संतुलन:
- महाभियोग के लिये समय सीमा: महाभियोग प्रस्ताव को आरंभ करने और अनुमोदित करने से संबंधित कठोर प्रक्रियाओं से इसके दुरुपयोग की संभावना कम हो जाती है।
- विशेषज्ञों द्वारा वस्तुनिष्ठ जाँच: जाँच समिति में न्यायिक तथा विधिक विशेषज्ञों को शामिल करने से निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित होती है।
- संसदीय निगरानी: संसद के दोनों सदनों को शामिल करने से इस प्रक्रिया में जवाबदेहिता सुनिश्चित होती है।
- महाभियोग के प्रयासों के उदाहरण:
- भारत में महाभियोग के कुछ प्रयास हुए हैं जिनमें न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी (1993) तथा न्यायमूर्ति सौमित्र सेन (2011) से संबंधित उल्लेखनीय मामले शामिल हैं।
- हालांकि इनमें से किसी भी न्यायाधीश को पूरी तरह से हटाया नहीं जा सका। ये उदाहरण इस प्रक्रिया की कठोरता एवं जवाबदेहिता बनाए रखने में इसकी भूमिका पर प्रकाश डालते हैं।
- भारत में महाभियोग के कुछ प्रयास हुए हैं जिनमें न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी (1993) तथा न्यायमूर्ति सौमित्र सेन (2011) से संबंधित उल्लेखनीय मामले शामिल हैं।
न्यायाधीशों के सार्वजनिक वक्तव्यों को कौन से दिशा-निर्देश विनियमित करते हैं?
- ज़िम्मेदारी के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता: न्यायाधीश, सभी नागरिकों की तरह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हकदार हैं। हालाँकि, यह अधिकार लोक व्यवस्था, नैतिकता एवं उनके कार्यालय की अखंडता को बनाए रखने के क्रम में उचित प्रतिबंधों के अधीन है।
- न्यायाधीशों के सार्वजनिक वक्तव्यों में किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह या पक्षपात का आभास नहीं होना चाहिये तथा यह सुनिश्चित होना चाहिये कि वे अपने न्यायिक पद की गरिमा बनाए रखें।
- बेंगलुरु न्यायिक आचरण सिद्धांत (2002)
- न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन (1997)
- न्यायिक आचरण हेतु आंतरिक तंत्र: न्यायपालिका के पास ऐसे मामलों से निपटने हेतु आंतरिक प्रोटोकॉल हैं जिनमें न्यायाधीशों के सार्वजनिक वक्तव्यों को अनुचित या विवादास्पद माना जा सकता है।
- न्यायिक संयम पर विशिष्ट दिशानिर्देश:
- राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप न करना: न्यायाधीशों से अपेक्षा की जाती है कि वे पक्षपातपूर्ण न समझे जाने के क्रम में राजनीतिक घटनाओं या नीतियों पर टिप्पणी करने से बचें।
- मामलों में पूर्वाग्रह से बचना: न्यायाधीशों को चल रहे मामलों या विधिक मुद्दों के बारे में ऐसे वक्तव्यों से बचना चाहिये जिन्हें पूर्वाग्रह या पक्षपात के रूप में समझा जा सकता है।
- विवादास्पद घटनाओं में भागीदारी न करना: न्यायाधीशों को ऐसे आयोजनों या मंचों में भाग लेने से बचना चाहिये जिससे उनकी स्वतंत्रता से समझौता होता हो।
- सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ:
- न्यायमूर्ति सीएस कर्णन मामले (2017) में न्यायालय ने न्यायपालिका की अखंडता को कमज़ोर करने वाले एक न्यायाधीश के सार्वजनिक वक्तव्यों से होने वाले नकारात्मक प्रभाव पर प्रकाश डाला।
- दिशानिर्देशों के कार्यान्वयन संबंधी चुनौतियाँ:
- संहिताबद्ध नियमों का अभाव: न्यायिक व्यवहार के कुछ पहलू (जैसे सार्वजनिक वक्तव्य) वैधानिक विनियमों के बजाय परंपराओं पर निर्भर हैं।
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत ग्रे एरिया: न्यायाधीश के अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार एवं न्यायिक मर्यादा बनाए रखने के उत्तरदायित्व के बीच संतुलन, अक्सर व्यक्तिपरक होता है।
विविधतापूर्ण समाज में न्यायपालिका, निष्पक्षता को किस प्रकार बनाए रख सकती है?
- संवैधानिक मूल्यों का पालन करना: न्यायपालिका के मार्गदर्शक ढाँचे के रूप में कार्य करने वाले संविधान में निहित समानता, न्याय एवं पंथनिरपेक्षता जैसे सिद्धांतों को महत्त्व देना चाहिये।
- न्यायाधीशों को इन सिद्धांतों की व्याख्या एवं इनका अनुप्रयोग बिना किसी पूर्वाग्रह या पक्षपात के करना चाहिये।
- न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना:
- समावेशी भर्ती: यह सुनिश्चित करना कि विभिन्न पृष्ठभूमियों से आने वाले न्यायाधीशों, जिनमें अल्प-प्रतिनिधित्व वाले समुदाय भी शामिल हैं, को न्यायपीठ में नियुक्त किया जाए।
- लैंगिक संतुलन: कानूनी व्याख्या में लैंगिक पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिये न्यायपालिका में महिलाओं के अधिक प्रतिनिधित्व को प्रोत्साहित करना ।
- हाशिये पर पड़े समुदायों के प्रति जागरूकता: न्यायाधीशों को अल्पसंख्यकों और हाशिये पर पड़े समुदायों के समक्ष आने वाली चुनौतियों को पहचानने के लिये प्रशिक्षित किया जाना चाहिये।
- न्यायाधीशों की शिक्षा और संवेदनशीलता:
- विविधता और समता पर प्रशिक्षण: न्यायिक अकादमियों को नियमित रूप से सांस्कृतिक क्षमता, अंतर्निहित पूर्वाग्रह और सामाजिक विविधता के प्रति संवेदनशीलता पर कार्यक्रम आयोजित करने चाहिये।
- ऐतिहासिक असमानताओं के प्रति जागरुकता: न्यायाधीशों को समाज में विद्यमान प्रणालीगत असमानताओं को समझना चाहिये तथा यह भी समझना चाहिये कि ये असमानताएँ किस प्रकार व्यक्तियों की न्याय तक पहुँच को प्रभावित करती हैं।
- वस्तुनिष्ठ निर्णय लेना:
- न्यायिक निर्णय केवल तथ्यों, साक्ष्यों और निर्धारित कानूनों पर आधारित होने चाहिये, तथा इसमें शामिल पक्षकारों की पहचान का कोई प्रभाव नहीं होना चाहिये।
- न्यायाधीशों को सुविचारित निर्णय देने चाहिये, जो उनकी तटस्थता और विधि के शासन के प्रति पालन को प्रदर्शित करते हों।
- न्यायपालिका में प्रणालीगत पूर्वाग्रहों को संबोधित करना:
- पूर्व उदाहरणों की समीक्षा: न्यायालयों को अतीत के निर्णयों की समालोचनात्मक जाँच करनी चाहिये ताकि उन उदाहरणों की पहचान की जा सके, जिससे उनका समाधान किया जा सके, जहाँ पूर्वाग्रहों ने निर्णयों को प्रभावित किया हो।
- कानूनों की न्यायसंगत व्याख्या: न्यायाधीशों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि कानूनों को इस प्रकार लागू किया जाए, जिससे समता और न्याय को बढ़ावा मिले, विशेष रूप से वंचित समूहों के लिये।
- कमज़ोर समुदायों की सुरक्षा हेतु सक्रिय उपाय:
- सामाजिक न्यायपीठ: विशेष पीठ, जैसे कि वर्ष 2014 में उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थापित पीठ, हाशिये पर पड़े समुदायों को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती है।
- विधिक सहायता और निःशुल्क सेवाएँ: आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिये विधिक सहायता सुनिश्चित करने से समावेशिता और निष्पक्षता में वृद्धि होती है।
- नागरिक समाज और मीडिया की भूमिका:
- एक जागरूक नागरिक समाज और सतर्क मीडिया के निगरानीकर्त्ता के रूप में कार्य कर सकते हैं तथा यह सुनिश्चित कर सकते हैं, कि न्यायिक निष्पक्षता बनी रहे।
- न्यायिक कार्यों की रचनात्मक आलोचना और जाँच, स्वतंत्रता से समझौता किये बगैर जवाबदेही को सुदृढ़ करने में सहायता करती है।
निष्कर्ष
भारत जैसे विविधतापूर्ण लोकतंत्र में न्यायपालिका के लिये निष्पक्षता और जनता का विश्वास बनाए रखना बहुत आवश्यक है। विवादास्पद आचरण के उदाहरण न्यायिक जवाबदेही को स्वतंत्रता के साथ संतुलित करने की आवश्यकता को रेखांकित करते हैं। न्यायपालिका की अखंडता को बनाए रखने और न्याय एवं समानता के संरक्षक के रूप में इसकी भूमिका को सुदृढ़ करने के लिये मज़बूत महाभियोग तंत्र, संवैधानिक मूल्यों का पालन और प्रशिक्षण एवं समावेशी प्रतिनिधित्व जैसे सक्रिय उपाय आवश्यक हैं।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: न्यायपालिका की विश्वसनीयता और निष्पक्षता को बनाए रखने के लिये न्यायिक जवाबदेही आवश्यक है, विशेष रूप से भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में। टिप्पणी कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)मेन्सप्रश्न 1. भारत में जनहित याचिकाओं के बढ़ने के कारण स्पष्ट कीजिये। इसके परिणामस्वरूप, क्या भारत का उच्चतम न्यायालय दुनिया की सबसे शक्तिशाली न्यायपालिका के रूप में उभरा है? (2024) प्रश्न 2. विविधता, समता और समावेशिता सुनिश्चित करने के लिये उच्चतर न्यायपालिका में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने की वांछनीयता पर चर्चा कीजिये। (2021) प्रश्न 3. भारत में उच्चतर न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) |
भारतीय अर्थव्यवस्था
भारत में प्राकृतिक पर्ल फार्मिंग
प्रिलिम्स के लिये:पर्ल फार्मिंग, मोलस्क मेन्स के लिये:भारत में प्राकृतिक पर्ल उत्पादन के लिये सरकारी पहल, पर्ल उत्पादन की चुनौतियाँ और आगे की राह |
स्रोत: पी.आई.बी.
चर्चा में क्यों?
मत्स्यपालन विभाग, मत्स्यपालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय ने राज्य सरकारों, अनुसंधान संस्थानों और अन्य संबंधित एजेंसियों के सहयोग से भारत में प्राकृतिक पर्ल फार्मिंग को बढ़ावा देने हेतु कई पहल की हैं।
पर्ल फार्मिंग क्या है?
- पर्ल फार्मिंग/मोती उत्पादन के बारे में: पर्ल फार्मिंग एक नियंत्रित वातावरण में मीठे अथवा खारे जल के सीपों के अंदर पर्ल अथवा मोती उत्पादन की प्रक्रिया है।
- इसमें मोलस्क के शरीर में एक क्षोभक अथवा उत्तेजक पदार्थ (नाभिक) डालकर मोती उत्पादन की प्रक्रिया शामिल है, जो उसके चारों ओर नैक्रे की परतें स्रावित करता है। समय के साथ, ये परतें मोती का रूप ले लेती हैं।
- नैक्रे (मदर ऑफ पर्ल) एक कार्बनिक-अकार्बनिक मिश्रित पदार्थ है, जो कुछ मोलस्क द्वारा आंतरिक खोल/आवरण की परत के रूप में निर्मित होता है। यह पदार्थ मज़बूत, लचीला और इंद्रधनुषी चमक वाला होता है और इसी से मोती बनते हैं।
- इस वैज्ञानिक और व्यावसायिक प्रक्रिया में नियंत्रित परिस्थितियों में उच्च गुणवत्ता वाले मोती का उत्पादन करने के लिये मोलस्क की प्राकृतिक जैविक प्रक्रिया का उपयोग किया जाता है।
- मोलस्क कोमल शरीर वाले अकशेरुकी हैं जो समुद्री, मीठे जल, खारे जल या स्थलीय वातावरण में पाए जाते हैं, जैसे घोंघा, ऑक्टोपस, सीप।
- इसमें मोलस्क के शरीर में एक क्षोभक अथवा उत्तेजक पदार्थ (नाभिक) डालकर मोती उत्पादन की प्रक्रिया शामिल है, जो उसके चारों ओर नैक्रे की परतें स्रावित करता है। समय के साथ, ये परतें मोती का रूप ले लेती हैं।
- प्रक्रिया: मीठे अथवा ताज़े जल में पर्ल का उत्पादन करने की प्रक्रिया में क्रमिक रूप से छह प्रमुख चरण शामिल हैं:
- सीपियों (mussels) का संग्रह
- प्री-ऑपरेटिव कंडीशनिंग (सीपियों को एक साथ संकुल स्थिति में रखना)
- प्रत्यारोपण (सीपी में नाभिक या ग्राफ्ट ऊतक का अंतर्वेशन)
- पोस्ट ऑपरेटिव केयर (एंटीबायोटिक उपचार)
- तालाब में संवर्द्धन (12-18 माह)
- मोतियों को एकत्रित करना
- पर्ल/मोती उत्पादन:
- वैश्विक - ताज़े जल के मोतियों की बात की जाए तो चीन वैश्विक रूप से इस प्रकार के पर्ल उत्पादन में अग्रणी है, इसके बाद जापान, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया और फिलीपींस का स्थान है।
- भारत - गुजरात, महाराष्ट्र, बिहार, ओडिशा, केरल, राजस्थान, झारखंड, गोवा और त्रिपुरा में पर्ल उत्पादन किया जा रहा है।
- वर्ष 2022 में, भारत विश्व भर में मोतियों का 19वाँ सबसे बड़ा निर्यातक था, जिसने 3.79 मिलियन अमरीकी डॉलर मूल्य के मोतियों का निर्यात किया।
- भारत में पर्ल उत्पादन की चुनौतियाँ:
- ताज़े जल के मोती अथवा फ्रेशवाटर पर्ल का उत्पादन करने वाले किसानों की संख्या सीमित है तथा इससे संबंधित संगठित क्षेत्र का अभाव है।
- विविध कृषि-जलवायु क्षेत्रों के अनुरूप ब्रूडस्टॉक प्रबंधन, प्रजनन और जल गुणवत्ता के लिये मानकीकृत प्रोटोकॉल का अभाव है।
- मसल ब्रूडस्टॉक (प्रजनन योग्य परिपक्व वयस्क जो प्रजनन करते हैं और अधिक संख्या में संतति प्रदान करते हैं) की छिट पुट उपलब्धता तथा अपर्याप्त अनुसंधान समर्थन।
- मौजूदा प्रौद्योगिकियों के प्रसार अपर्याप्त विस्तार नेटवर्क।
भारत में प्राकृतिक पर्ल फार्मिंग हेतु सरकार की क्या पहल हैं?
- प्रधानमंत्री मत्स्य संपदा योजना (PMMSY):
- PMMSY के तहत सरकार ने विभिन्न राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में 461 लाख रुपए के कुल निवेश के साथ मसल्स, क्लैम्स तथा मोती सहित बाइवाल्व उत्पादन इकाइयों की स्थापना को मंज़ूरी दी है।
- इसके अतिरिक्त विशेष पर्ल उत्पादन क्लस्टरों सहित मत्स्य पालन एवं जलकृषि क्लस्टरों के विकास के मार्गदर्शन हेतु एक मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) अपनाई गई है।
- पर्ल उत्पादन क्लस्टर:
- झारखंड के हज़ारीबाग में पहला पर्ल उत्पादन क्लस्टर स्थापित किया गया है। TRIFED (भारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास संघ) ने भी आदिवासी क्षेत्रों में पर्ल उत्पादन को बढ़ावा देने हेतु झारखंड स्थित पूर्ति एग्रोटेक के साथ समझौता किया है।
- नीली क्रांति के तहत सहायता:
- मत्स्य पालन विभाग ने इस क्षेत्र को प्रोत्साहित करने के लिये नीली क्रांति योजना में पर्ल उत्पादन हेतु एक उप-घटक को शामिल किया है।
- प्रशिक्षण एवं क्षमता निर्माण:
- भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) संस्थानों द्वारा मीठे जल के पर्ल फार्मिंग और सी पर्ल फार्मिंग दोनों पर 1900 से अधिक प्रतिभागियों को प्रशिक्षण दिया गया है।
आगे की राह
- भारत में पर्ल फार्मिंग में वृद्धि करने के लिये सब्सिडी को बढ़ाने, ब्रूडस्टॉक प्रबंधन में सुधार करने और प्रजनन एवं जल गुणवत्ता प्रोटोकॉल को मानकीकृत करके सरकारी समर्थन एवं बुनियादी ढाँचे में वृद्धि की आवश्यकता है।
- संगठित क्षेत्र एवं सहकारी समितियों की स्थापना से परिचालन सुचारू होगा और बाज़ार संपर्क में सुधार होगा। ICAR-CIFA जैसी संस्थाओं के माध्यम से अनुसंधान को बढ़ावा देना और नवीन तकनीकों एवं प्रशिक्षण कार्यक्रमों के साथ किसानों की क्षमता का निर्माण करना आवश्यक है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न. भारत में पर्ल फार्मिंग को एक स्थायी आजीविका विकल्प के रूप में अपनाने की संभावनाओं पर चर्चा कीजिये। इस क्षेत्र के समक्ष आने वाली चुनौतियों पर प्रकाश डालिये और उनसे निपटने के उपाय सुझाइये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा जीव निस्यंंदक भोजी (फिल्टर फीडर) है? (2021) (a) अशल्क मीन (कैटफिश) उत्तर: (c) प्रश्न: किसान क्रेडिट कार्ड योजना के अंतर्गत किसानों को निम्नलिखित में से किस उद्देश्य के लिये अल्पकालिक ऋण सुविधा प्रदान की जाती है? (2020)
निम्नलिखित कूट की सहायता से सही उत्तर का चयन कीजिये: (a) केवल 1, 2 और 5 उत्तर: (b) |