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शासन व्यवस्था

न्यायिक सुधार

  • 12 Dec 2024
  • 29 min read

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय न्यायपालिका, सर्वोच्च न्यायालय, ई-कोर्ट परियोजना, राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग, केंद्र प्रायोजित योजना, लोक अदालतें, फास्टर, अदालती कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग, ADR तंत्र, अखिल भारतीय न्यायिक सेवाएँ (AIJS)

मेन्स के लिये:

भारतीय न्यायपालिका में न्यायिक सुधार, भारतीय न्यायपालिका से संबंधित वर्तमान प्रमुख मुद्दे, भारत में न्यायिक सुधार से संबंधित प्रमुख पहल।  

न्यायिक सुधार क्या हैं?

  • परिचय:
    • न्यायिक सुधार किसी देश की कानूनी प्रणाली में परिवर्तन हैं, जिसमें न्यायालय प्रणाली, कानून और प्रक्रियाएँ शामिल हैं, ताकि न्याय प्रणाली को अधिक कुशल, पारदर्शी और प्रभावी बनाया जा सके।
    • इसका लक्ष्य यह सुनिश्चित करना है कि न्याय प्रणाली कानून के शासन को कायम रखे तथा सभी नागरिकों  को निष्पक्ष एवं समय पर न्याय प्रदान करना।
  • उदाहरण:
    • न्यायपालिका की स्वतंत्रता बढ़ाना।
    • न्याय प्रणाली की निष्पक्षता में सुधार करना।
    • न्याय की गति बढ़ाना।

भारत में न्यायिक सुधारों की क्या आवश्यकता है?

  • लंबित मामलों की संख्या:
    • विश्व में सबसे ज़्यादा लंबित मामले भारत में हैं। लंबित मामलों और न्याय के प्रशासन एवं वितरण में देरी भारतीय न्यायपालिका के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।
    • वर्ष 2024 तक न्यायपालिका के सभी प्रकार और स्तरों पर लंबित मामलों की कुल संख्या 51 मिलियन (5.1 करोड़) से अधिक हो गई, जिसमें 169,000 से अधिक अदालती मामले शामिल हैं जो ज़िला और उच्च न्यायालयों में 3 दशकों (30 वर्ष) से ​​अधिक समय से लंबित हैं। 
    • उल्लेखनीय है कि अकेले ज़िला अदालतों में इनमें से लगभग 87% मामले या लगभग 45 मिलियन (4.5 करोड़) लंबित हैं, जो ज़मीनी स्तर पर बड़ी ज़िम्मेदारी को दर्शाता है।
    • नीति आयोग के 2018 के रणनीति पत्र के अनुसार, उस समय मामले के निपटान की दर को देखते हुए, मौजूदा लंबित मामलों को निपटाने में 324 वर्ष से अधिक समय लगने का अनुमान था, जो उस समय 29 मिलियन था। 
    • ऐसा अनुमान है कि लंबित मामलों के कारण भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) पर 1.5%-2% का नुकसान होगा। 
    • विश्व न्याय परियोजना द्वारा प्रकाशित विधि नियम सूचकांक 2023 में भारत की रैंकिंग इन न्यायिक विलंबों को प्रतिबिंबित करती है, जिसमें देश को नागरिक न्याय में 142 देशों में से 111वें स्थान पर तथा आपराधिक न्याय में 93वें स्थान पर रखा गया है।
    • इसके अलावा भारतीय न्यायालयों में किसी मामले के निपटारे में औसतन 3-5 वर्ष का समय लगता है और कुछ मामलों में दशकों तक का समय लग जाता है। इस देरी से न केवल वादियों (Litigants) को समय पर न्याय नहीं मिल पाता, बल्कि न्यायिक प्रणाली पर से लोगों का भरोसा भी खत्म होता है।
  • न्यायिक रिक्तियाँ:
    • उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों में न्यायाधीशों की कमी एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है, जिससे लंबित मामलों की संख्या में अतिशय वृद्धि हो रही है।
    • जनवरी 2024 भारत में 25 उच्च न्यायालय हैं जिनमें न्यायाधीशों के स्वीकृत पद 1,114 हैं, परंतु वर्तमान में केवल 783 पद ही भरे हुए हैं। वर्ष 2023 तक ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों में 5,000 से अधिक रिक्तियाँ बताई गई हैं।
    • इस कमी से न केवल मौजूदा न्यायाधीशों पर काम का बोझ बढ़ता है, बल्कि पूरी न्यायिक प्रक्रिया भी धीमी हो जाती है। प्रायः न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच मतभेदों के कारण नियुक्तियों में देरी से यह समस्या और भी जटिल हो जाती है।
  • आधारिक संरचना और तकनीकी अंतराल: 
    • एक अध्ययन पर आधारित विधि एवं न्याय मंत्रालय की हालिया रिपोर्ट (2024) में देश भर की ज़िला अदालतों के आधारिक संरचना में महत्त्वपूर्ण कमियों का खुलासा किया गया है, जो न्याय के कुशल वितरण में बाधा उत्पन्न कर रही हैं।
    • 10 राज्यों के 20 ज़िला न्यायालयों में किये गए एक अध्ययन में न्यायिक अधिकारियों, अधिवक्ताओं और प्रशासनिक कर्मचारियों को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण IT आधारिक संरचना के अंतर को उजागर किया गया है। निष्कर्षों से पता चलता है कि सर्वेक्षण किये गए न्यायिक अधिकारियों में से केवल 45% के पास न्यायालय कक्षों में इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले सुविधाओं तक पहुँच है, जबकि कुछ स्थानों पर इसकी स्थापना का कार्य चल रहा है।
    • इसके अतिरिक्त लगभग 32.7% अधिकारियों ने बताया कि ज़िला न्यायालय परिसरों में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सुविधाओं का अभाव है, जिससे विशेष रूप से जेलों में प्रभावी वर्चुअल कार्यवाही सीमित हो रही है।
    • इसने ज़िला न्यायालयों में महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे की कमी को भी उजागर किया गया है- 39% न्यायालय कक्षों में अग्नि सुरक्षा उपकरणों का अभाव हैं, 29.3% में समर्पित अहलमद कक्षों का अभाव हैं तथा 36.3% में पर्याप्त बैठने की व्यवस्था नहीं है। सहायक कर्मचारियों को सीमित सुविधाएँ प्राप्त हैं, केवल 14.6% पुरुष और 10.7% महिला कर्मचारियों के पास सामान्य कमरे हैं तथा 73.7% के पास संलग्न शौचालय नहीं हैं। इसके अलावा 41% कर्मचारियों के पास कंप्यूटर और प्रिंटर की सुविधा नहीं है। परिवहन संबंधी समस्याएँ बनी हुई हैं, 44.5% न्यायिक अधिकारी आधिकारिक कर्तव्यों के लिये निजी वाहनों पर निर्भर हैं, और केवल 50.4% सरकारी आवास में रहते हैं।
    • यद्यपि ई-कोर्ट परियोजना ने कुछ प्रगति की है, लेकिन इसका कार्यान्वयन, विशेषकर निचली अदालतों और ग्रामीण क्षेत्रों में, असंगत है।
  • न्यायिक जवाबदेही का अभाव:
    • एक मज़बूत न्यायिक जवाबदेही तंत्र की अनुपस्थिति लंबे समय से चिंता का विषय रही है, जो संभावित रूप से जनता के विश्वास को प्रभावित करती है। न्यायाधीशों को हटाने के लिये वर्तमान महाभियोग प्रक्रिया का उपयोग शायद ही कभी किया जाता है और महाभियोग से इतर मुद्दों को संबोधित करने के लिये यह अपर्याप्त है। 
    • यद्यपि राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (National Judicial Appointments Commission- NJAC) का उद्देश्य नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता लाना था, लेकिन 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे रद्द कर दिया, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता बनाम जवाबदेही पर बहस शुरू हो गई। 
    • कथित भ्रष्टाचार के मामलों और सेवानिवृत्ति के बाद की नियुक्तियों को लेकर विवादों ने न्यायिक कार्यप्रणाली में पारदर्शिता की मांग को तेज़ कर दिया है।
  • न्याय तक पहुँच में बाधाएँ:
    • कानूनी पहुँच में सुधार के प्रयासों के बावजूद, न्याय में बाधाएँ महत्त्वपूर्ण बनी हुई हैं, खासकर हाशिए के समुदायों के लिये। पिछले एक दशक में विचाराधीन कैदियों की संख्या में वृद्धि हुई है, वर्ष 2022 तक भारत की जेलों में बंद कैदियों की संख्या में 76% की वृद्धि हुई है, जिनमें से कई वंचित समुदायों से हैं जिन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। 
    • इसके अतिरिक्त मुकदमेबाजी की उच्च लागत, जटिल प्रक्रियाएँ और भाषा संबंधी बाधाएँ अक्सर लोगों को कानूनी सहायता लेने से रोकती हैं। हालाँकि कानूनी सहायता उपलब्ध है, लेकिन इसका कम उपयोग किया जाता है, 1995 में राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) की स्थापना के बाद से केवल 15 मिलियन लोग ही इससे लाभान्वित हुए हैं, जबकि भारत की 80% से अधिक आबादी सहायता के लिये योग्य है।
  • प्रतिनिधित्व और विविधता:
    • न्यायपालिका में विविधता का अभाव है, विशेषकर लिंग, जाति और क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के संदर्भ में। 
    • अगस्त 2024 तक उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में महिलाओं की संख्या क्रमशः केवल 14% और 9.3% थी। उच्च न्यायालयों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व असमान है, कुछ राज्यों में कोई महिला न्यायाधीश नहीं है या केवल एक है। 
    • केंद्रीय कानून मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2018 और 2022 के बीच नियुक्त उच्च न्यायालय के 79% न्यायाधीश सामान्य श्रेणी से थे, जो सीमित न्यायिक विविधता को दर्शाता है। 
      • 537 नियुक्तियों में से केवल 11% OBC श्रेणी से, 2.8% SC से, 1.3% ST से और 2.6% अल्पसंख्यक समुदायों से थीं, जो हाशिए पर पड़े समूहों के कम प्रतिनिधित्व को रेखांकित करता है।
  • न्यायिक अतिक्रमण और सक्रियता:
    • एक महत्त्वपूर्ण मामला अनूप बरनवाल मामला (2023) से संबंधित है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया पर निर्णय सुनाया था, जिसमें एक चयन समिति का गठन किया गया था जिसमें प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल थे।
    • आलोचकों का तर्क है कि यह निर्णय कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करता है तथा भारत के लोकतांत्रिक ढाँचे में शक्ति संतुलन को परिवर्तित करता है।
  • निर्णयों का प्रवर्तन:
    • न्यायालय के आदेशों और निर्णयों को प्रभावी ढंग से प्रवर्तित करने की चुनौती एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बनी हुई है। बड़ी संख्या में न्यायालय के आदेश, विशेषकर सरकारी निकायों के विरुद्ध दिये गए आदेशों का प्रवर्तन नहीं होता। 
      • उदाहरण के लिये यमुना नदी को साफ करने के लिये सरकार को निर्देश देने वाले अनेक न्यायालयी आदेशों के बावजूद, प्रदूषण का स्तर चिंताजनक रूप से उच्च बना हुआ है। इससे न केवल न्यायालयों का अधिकार कमज़ोर होता है, बल्कि उन वादियों को भी न्याय से वंचित किया जाता है, जिन्होंने अपने मामलों को सफलतापूर्वक अग्रेषित किया है।

भारत में न्यायिक सुधार हेतु क्या पहल की गई हैं?

  • न्याय प्रतिपादन और विधिक सुधार के लिये राष्ट्रीय मिशन:
    • इसे अगस्त 2011 में शुरू किया गया था, इसका उद्देश्य संरचनात्मक परिवर्तनों और प्रदर्शन मानकों के माध्यम से उत्तरदायित्व में सुधार करते हुए विलंबता और शेष मामलों को कम करके न्याय तक अभिगम्यता में वृद्धि करना है।
    • मिशन का उद्देश्य निम्नलिखित लक्ष्यों को प्राप्त करना है:
      • न्यायिक बुनियादी ढाँचे में सुधार और प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना।
      • अधीनस्थ न्यायपालिका की शक्ति में वृद्धि करना।
      • अत्यधिक मुकदमेबाजी को कम करने के लिये विधायी और नीतिगत उपाय लागू करना।
      • तेज़ी से मामले निपटाने के लिये अदालती प्रक्रियाओं को पुनः तैयार करना।
  • ई-कोर्ट मिशन मोड परियोजना:
    • यह न्यायालय प्रक्रियाओं को सक्षम बनाने और पारदर्शिता बढ़ाने के लिये  सूचना और संचार प्रौद्योगिकी (Information and Communication Technology- ICT) का लाभ उठाता है।
  • मुख्य भाग:
    • कम्प्यूटरीकृत न्यायालय: 18,735 ज़िला एवं अधीनस्थ न्यायालय।
    • 99.4% न्यायालय परिसरों में वाइड एरिया नेटवर्क (WAN) कनेक्टिविटी।
    • वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग: 3,240 न्यायलय 1,272 कारागारों से जुड़ीं।
    • 28 आभासी अदालतों की स्थापना की गई जो लाखों मामलों का निपटारा करेंगी तथा भारी जुर्माना वसूल करेगी।
    • 7,210 करोड़ रुपए के निवेश के साथ ई-कोर्ट परियोजना के तीसरे चरण का उद्देश्य न्यायपालिका के लिये एकीकृत, कागज रहित मंच तैयार करना है, जिससे दक्षता में और वृद्धि होगी।
  • न्यायिक अवसंरचना विकास:
    • न्यायिक अवसंरचना के लिये 1993 से क्रियान्वित केंद्र प्रायोजित योजना (Centrally Sponsored Scheme- CSS) न्यायालय हॉल, न्यायिक अधिकारियों हेतु आवासीय क्वार्टर और अन्य आवश्यक सुविधाओं के निर्माण में महत्त्वपूर्ण रही है। 
  • प्रमुख उपलब्धियों में शामिल हैं:
    • न्यायालय हॉल और न्यायिक आवासीय इकाइयों के निर्माण में वृद्धि।
    • योजना के अंतर्गत 11,167.36 करोड़ रुपए जारी किये गये।
    • न्यायालय हॉलों की संख्या वर्ष 2014 में 15,818 से बढ़कर वर्ष 2024 में 23,020 हो गई, तथा इसी अवधि में आवासीय इकाइयों की संख्या 10,211 से बढ़कर 20,836 हो गई।
  • न्यायिक रिक्तियों को भरना:
    • सरकार ने न्यायिक रिक्तियों, विशेषकर उच्च न्यायपालिका में को दूर करने के लिये ठोस प्रयास किये हैं।
    • वर्ष 2014 से 2024 के बीच सर्वोच्च न्यायालय में 62 न्यायाधीश नियुक्त किये गए, जबकि उच्च न्यायालयों में 976 नए न्यायाधीश नियुक्त किये गए और 745 अतिरिक्त न्यायाधीशों को स्थायी किया गया। 
    • परिणामस्वरूप उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की स्वीकृत संख्या 906 से बढ़कर 1,114 हो गई। ज़िला और अधीनस्थ न्यायालय स्तर पर, न्यायिक अधिकारियों की स्वीकृत संख्या वर्ष 2013 में 19,518 से बढ़कर वर्ष 2024 में 25,609 हो गई। 
    • इन पहलों का उद्देश्य रिक्तियों को समय पर भरना सुनिश्चित करके न्यायिक दक्षता को बढ़ाना है, जिससे अंततः न्यायिक प्रणाली मज़बूत होगी।
  • फास्ट ट्रैक कोर्ट:
  • 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुरूप विशेष श्रेणियों के मामलों की सुनवाई में तेजी लाने के लिये फास्ट ट्रैक कोर्ट की स्थापना की गई है, जिनमें जघन्य अपराध, महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराध तथा सांसदों/विधायकों से जुड़े अपराध शामिल हैं। 
  • प्रमुख घटनाक्रमों में शामिल हैं:
    • गंभीर अपराधों, महिलाओं और बच्चों से संबंधित मामलों के लिये 866 फास्ट ट्रैक कोर्ट कार्यरत हैं।
    • 410 विशिष्ट पोक्सो अदालतों सहित 755 फास्ट ट्रैक विशेष अदालतों ने 2.53 लाख से अधिक मामलों का निपटारा किया है।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) तंत्र:
    • सरकार ने मध्यस्थता, पंचनिर्णय और लोक अदालतों जैसे ADR तंत्रों को मज़बूत किया है।
      • वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 वाणिज्यिक विवादों में पूर्व-संस्थागत मध्यस्थता को अनिवार्य बनाता है, जिससे समाधान की गति बढ़ जाती है।
      • मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2015 ने मध्यस्थता के माध्यम से विवादों को सुलझाने के लिये समयसीमा शुरू की है।
      • मध्यस्थता अधिनियम, 2023 सिविल और वाणिज्यिक विवादों में मध्यस्थता की सुविधा प्रदान करता है।
      • नियमित रूप से आयोजित लोक अदालतों ने 2021 और 2023 के बीच 7.5 करोड़ से अधिक मामलों का निपटारा किया है, जिससे अदालत में लंबित मामलों को कम करने में मदद मिली है।
      • लंबित मामलों को कम करने तथा न्याय प्रदान करने में तेज़ी लाने के लिये कई कानूनों में संशोधन किया गया है। 
      • इनमें परक्राम्य लिखत (संशोधन) अधिनियम, 2018, वाणिज्यिक न्यायालय (संशोधन) अधिनियम, 2018, मध्यस्थता और सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2019 तथा आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2018 शामिल हैं। 
      • वाणिज्यिक विवादों के लिये पूर्व-संस्था मध्यस्थता और निपटान (PIMS) को अनिवार्य बनाने हेतु वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 में संशोधन किया गया तथा मध्यस्थता एवं सुलह (संशोधन) अधिनियम, 2015 का उद्देश्य सख्त समयसीमा निर्धारित करके विवाद समाधान में तेज़ी लाना है।
  • टेली-लॉ कार्यक्रम:
    • इसे वर्ष 2017 में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, टेलीफोन और मोबाइल ऐप के माध्यम से वंचित समुदायों तक कानूनी सलाह की पहुँच को सक्षम करने के लिये लॉन्च किया गया था। 
    • वर्ष 2024 तक 90 लाख से अधिक मामले पंजीकृत किये जाएंगे, जिनमें से लगभग 90 लाख मामलों में सलाह दी जा सकेगी।
  • न्याय बंधु प्रो बोनो फ्रेमवर्क:
    • न्यायबंधु प्लेटफॉर्म और उमंग ऐप का निर्माण वकीलों को मुफ्त कानूनी सेवाओं की आवश्यकता वाले नागरिकों से जोड़ने के लिये किया गया है।
    • न्याय बंधु भारत का पहला निःशुल्क कानूनी ढाँचा है, जहाँ वकील वंचित समूहों को निःशुल्क कानूनी सेवाएँ प्रदान करते हैं।
  • वर्ष 2024 तक 24 राज्य बार काउंसिलों और 22 उच्च न्यायालयों में 11,000 से अधिक अधिवक्ताओं ने निःशुल्क सेवाएँ देने के लिये स्वेच्छा से कार्य करते हैं।
  • भावी अधिवक्ताओं के बीच सार्वजनिक सेवा की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये 89 विधि विद्यालयों में प्रो बोनो क्लब स्थापित किये गए हैं।

न्यायिक सुधार की प्रक्रिया में चुनौतियाँ क्या हैं?

  • बदलाव का प्रतिरोध: न्यायिक सुधारों में एक महत्त्वपूर्ण बाधा न्यायपालिका और न्यायालय के कर्मचारियों दोनों की ओर से नई प्रौद्योगिकियों और प्रक्रियाओं को अपनाने का प्रतिरोध है। व्यवस्था के भीतर कई लोग पारंपरिक तरीकों के अभ्यस्त हैं, जो सुधारों को अपनाने की प्रक्रिया को धीमा कर देता है।
  • वित्तीय बाधाएँ: पर्याप्त धन की कमी न्यायिक सुधारों के कार्यान्वयन में एक बड़ी बाधा है। इससे डिजिटल बुनियादी ढाँचे को अपनाने, नई अदालती सुविधाओं के निर्माण और न्यायिक प्रणाली के समग्र आधुनिकीकरण पर असर पड़ता है।
  • कार्यपालिका और विधायिका के साथ समन्वय: न्यायिक सुधारों के लिये अक्सर न्यायपालिका, कार्यपालिका तथा विधायिका के बीच सहयोग की आवश्यकता होती है। सरकार की इन शाखाओं के बीच समन्वय की कमी एवं निर्णय लेने में देरी से सुधार प्रक्रिया में काफी बाधा आ सकती है।
  • जनता के विश्वास में कमी: न्यायिक सुधारों की प्रभावशीलता के लिये न्यायपालिका में जनता का विश्वास महत्त्वपूर्ण है। हालाँकि न्यायिक नियुक्तियों और जवाबदेही उपायों में अस्पष्टता जैसे मुद्दों ने भरोसे में कमी उत्पन्न की है, जो न्यायिक प्रणाली की विश्वसनीयता को कमज़ोर करती है और सुधार प्रयासों में बाधा डालती है।

आगे की राह

  • प्रौद्योगिकी के माध्यम से मामला प्रबंधन को सुव्यवस्थित करना: 
    • डिजिटलीकरण, ऑनलाइन केस फाइलिंग और AI-सहायता प्राप्त केस प्रबंधन के लिये ई-कोर्ट परियोजना का विस्तार करना। 
    • अदालती आदेशों के त्वरित संप्रेषण हेतु FASTER (इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड का तीव्र और सुरक्षित प्रसारण) जैसी प्रणालियों को लागू करना तथा प्रभावी क्रियान्वयन के लिये न्यायिक कर्मचारियों को प्रशिक्षित करना।
  • वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) प्रणाली: मध्यस्थता, पंचनिर्णय और लोक अदालतों जैसे ADR प्रणाली को संवर्द्धित और सुदृढ़ करने से औपचारिक न्यायालयों पर भार काफी कम हो सकता है। 
    • मध्यस्थता अधिनियम, 2023, मध्यस्थता के लिये एक सांविधिक आधार प्रदान करता है, परंतु इसके कार्यान्वयन में तेज़ी लाने की आवश्यकता है। 
  • न्यायिक नियुक्तियाँ एवं रिक्तियाँ:
    • नियुक्ति प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करने, विविधता के लिये कॉलेजियम प्रणाली में सुधार करने, न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने तथा रिक्तियों को कम करने के लिये स्वीकृत पदों को बढ़ाने की आवश्यकता है।
  • विशेष न्यायालयों और न्यायाधिकरणों की स्थापना:
    • राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (NCLT) और POCSO अदालतों जैसे विशेष न्यायालयों का विस्तार IPR तथा पर्यावरण कानून जैसे क्षेत्रों में भी करने की आवश्यकता है, ताकि तीव्र समाधान के लिये डोमेन विशेषज्ञता का लाभ उठाया जा सके।
  • कानूनी सहायता और न्याय तक पहुँच में सुधार:
    • राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण को मज़बूत करने, सचल विधिक क्लीनिकों का विस्तार करने तथा हाशिए पर पड़े समुदायों के लिये टेली-लॉ जैसी पहल को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
  • न्यायिक पहुँच और सार्वजनिक शिक्षा:
    • अनावश्यक मुकदमेबाजी को कम करने और कानूनी जागरूकता में सुधार करने के लिये लाइव स्ट्रीमिंग, क्षेत्रीय भाषा में निर्णय, सार्वजनिक व्याख्यान और शैक्षिक कार्यक्रमों के माध्यम से सार्वजनिक सहभागिता को संवर्द्धित किया जा सकता है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स 

प्रश्न: निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)

  1. भारत के संविधान के 44वें संशोधन द्वारा लाए गए एक अनुच्छेद ने प्रधानमंत्री के निर्वाचन को न्यायिक पुनर्विलोकन के परे कर दिया।
  2. भारत के संविधान के 99वें संशोधन को भारत के उच्चतम न्यायालय ने अभिखंडित कर दिया क्योंकि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अतिक्रमण करता था।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? 

(a) केवल 1 
(b) केवल 2 
(c) 1 व 2 दोनों 
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (b) 


प्रश्न: राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2013)

  1. इसका उद्देश्य समान अवसरों के आधार पर समाज के कमज़ोर वर्गों को निःशुल्क एवं सक्षम विधिक सेवाएँ उपलब्ध कराना है।
  2. यह देश-भर में विधिक कार्यक्रमों और योजनाओं को लागू करने के लिये राज्य विधिक सेवा प्राधिकरणों को निर्देश जारी करता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 
(b) केवल 2 
(c) 1 व 2 दोनों 
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (c)


मेन्स

प्रश्न: भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017)

प्रश्न: निःशुल्क कानूनी सहायता प्राप्त करने के हकदार कौन है? निःशुल्क कानूनी सहायता के प्रतिपादन में राष्ट्रीय विधि सेवा प्राधिकरण (एन.ए.एल.एस.ए.) की भूमिका का आकलन कीजिये। (2023)

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