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भारतीय राजव्यवस्था

अखिल भारतीय न्यायिक सेवा

  • 07 Jul 2021
  • 8 min read

यह एडिटोरियल दिनांक 06/07/2021 को द हिंदू में प्रकाशित लेख “Will a national judiciary work?” पर आधारित है। यह अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की स्थापना के पक्ष और विपक्ष में तर्कों की बात करता है।

भारत सरकार ने हाल ही में एक प्रवेश परीक्षा के माध्यम से अधीनस्थ न्यायालयों हेतु अधिकारियों की भर्ती के लिये अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) स्थापित करने हेतु एक विधेयक पारित करने का प्रस्ताव दिया है।

स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा और भारतीय पुलिस सेवा की तर्ज पर एक अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) का प्रावधान किया गया था।

वर्तमान में AIJS का विचार न्यायिक सुधारों की पृष्ठभूमि में प्रस्तावित किया जा रहा है, जो कि विशेष रूप से न्यायपालिका में रिक्त पदों और लंबित मामलों की जाँच से संबंधित है। AIJS की स्थापना एक सकारात्मक कदम है, लेकिन इसे कई संवैधानिक और कानूनी बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

AIJS के लिये संवैधानिक परिप्रेक्ष्य

  • AIJS को पहली बार वर्ष 1958 में विधि आयोग की 14वीं रिपोर्ट द्वारा प्रस्तावित किया गया था।
  • वर्ष 1976 में 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा अनुच्छेद 312 (1) में संशोधन करके संसद को एक या एक से अधिक अखिल भारतीय सेवाओं के निर्माण के लिये कानून बनाने का अधिकार दिया, जिसमें AIJS भी शामिल है, जो संघ और राज्यों दोनों के लिये समान है।
  • अनुच्छेद 312 के तहत, राज्यसभा को अपने उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों द्वारा समर्थित एक प्रस्ताव पारित करना आवश्यक है। इसके बाद संसद को AIJS बनाने के लिये एक कानून बनाना होगा।
    • इसका अर्थ है कि AIJS की स्थापना के लिये किसी संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता नहीं होगी।
  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भी ‘अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ बनाम भारत संघ’ मामले (1993) में इसका समर्थन करते हुए कहा कि AIJS की स्थापना की जानी चाहिये।

AIJS के लाभ:

  • जनसंख्या अनुपात के अनुसार न्यायाधीशों की संख्या: एक विधि आयोग की रिपोर्ट (वर्ष 1987) में सिफारिश की गई थी कि भारत में प्रति मिलियन जनसंख्या पर 10.50 न्यायाधीशों (तत्कालीन) की तुलना में 50 न्यायाधीश होने चाहिये।
    • वर्तमान स्वीकृत शक्ति के मामले में यह आँकड़ा 20 न्यायाधीशों को पार कर गया है, लेकिन यह अमेरिका या यूके की तुलना में (क्रमशः 107 और 51 न्यायाधीश प्रति मिलियन लोग) बहुत कम है।
    • इस प्रकार AIJS न्यायिक क्षेत्र में अंतर्निहित अंतर को पाटने की परिकल्पना करता है।
  • समाज के सीमांत वर्गों का उच्च प्रतिनिधित्व: सरकार के अनुसार AIJS समाज के हाशिए पर स्थित और वंचित वर्गों के समान प्रतिनिधित्व के लिये एक आदर्श समाधान है।
  • प्रतिभा को आकर्षित करना: सरकार का मानना ​​है कि अगर इस तरह की सेवा सामने आती है, तो इससे प्रतिभाशाली लोगों का एक पूल बनाने में मदद मिलेगी जो बाद में उच्च न्यायपालिका का हिस्सा बन सकते हैं।
  • ‘बॉटम-अप’ दृष्टिकोण: भर्ती में ‘बॉटम-अप’ दृष्टिकोण निचली न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद जैसे मुद्दों से भी निपटने में सहायक होगा। यह समाज के निचले स्तरों में न्याय व्यवस्था की गुणवत्ता में सुधार करेगा।

संबंधित चुनौतियाँ:

  • अनुच्छेद 233 और 312 के बीच द्विभाज: अनुच्छेद 233 के अनुसार अधीनस्थ न्यायपालिका में भर्ती राज्य का विशेषाधिकार है।
    • इसके कारण कई राज्यों और उच्च न्यायालयों ने इस विचार का विरोध किया है कि यह संघवाद के खिलाफ है।
    • यदि इस तरह के नियम बनाने और ज़िला न्यायाधीशों की नियुक्ति को नियंत्रित करने की राज्यों की मौलिक शक्ति छीन ली जाती है, तो यह संघवाद के सिद्धांत और बुनियादी संरचना सिद्धांत के खिलाफ हो सकता है।

नोट:

  • संविधान के अनुच्छेद 233 (1) में कहा गया है कि "किसी राज्य में ज़िला न्यायाधीश नियुक्त होने वाले व्यक्तियों की नियुक्ति तथा ज़िला न्यायाधीश की पदस्थापना और प्रोन्नति उस राज्य का राज्यपाल ऐसे राज्य के संबंध में अधिकारिता का प्रयोग करने वाले उच्च न्यायालय से परामर्श करके करेगा।”
  • भाषायी बाधा: चूंकि निचली अदालतों में मामलों की बहस स्थानीय भाषाओं में होती है, इसलिये इस बात की आशंका है कि उत्तर भारत का कोई व्यक्ति दक्षिणी राज्य में सुनवाई कैसे कर सकता है।
    • इस प्रकार AIJS के संबंध में एक और मूलभूत चिंता भाषा की बाधा है।
  • संवैधानिक सीमा: अनुच्छेद 312 का खंड 3 एक प्रतिबंध लगाता है कि AIJS में ज़िला न्यायाधीश के पद से कम पद शामिल नहीं होगा।
    • इस प्रकार AIJS के माध्यम से अधीनस्थ न्यायपालिका की नियुक्ति को संवैधानिक बाधा का सामना करना पड़ सकता है।
  • उच्च न्यायालय के प्रशासनिक नियंत्रण को कमज़ोर करना: AIJS के निर्माण से अधीनस्थ न्यायपालिका पर उच्च न्यायालयों के नियंत्रण का क्षरण होगा, जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकता है।

निष्कर्ष:

लंबित मामलों की दुर्गम संख्या एक भर्ती प्रणाली की स्थापना की मांग करती है जो मामलों के त्वरित निपटान के लिये बड़ी संख्या में कुशल न्यायाधीशों की भर्ती करे। हालाँकि AIJS के विधायी ढाँचे में आने से पहले सर्वसम्मति बनाने और AIJS की दिशा में एक निर्णायक कदम उठाने की आवश्यकता है।

मुख्य परीक्षा प्रश्न: अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की स्थापना एक सकारात्मक कदम है लेकिन कई संवैधानिक और कानूनी बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है। चर्चा कीजिये।

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