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नीतिशास्त्र

न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन

  • 14 Sep 2024
  • 14 min read

प्रिलिम्स के लिये:

भारत का मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय, न्यायिक आचरण के बंगलुरू सिद्धांत, न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर संयुक्त राष्ट्र के बुनियादी सिद्धांत, भ्रष्टाचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय,

मेन्स के लिये:

न्यायपालिका के लिये नैतिक ढाँचे, न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिये निर्धारित वैश्विक मानक

स्रोत: TH

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के आवास पर की गई यात्रा, विशेष रूप से वर्ष 1997 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाए गए "'न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन' (The Restatement of Values of Judicial Life)" के आधार पर विवाद का विषय बन गई है

नोट: 

  • किसी लोक सेवक का सामाजिक-धार्मिक (व्यक्तिगत) और प्रशासनिक/न्यायिक जीवन अलग-अलग होता है। मुख्य न्यायाधीश (या कोई अन्य लोक सेवक) से व्यक्तिगत जीवन के बारे में पूछताछ नहीं की जा सकती, क्योंकि व्यक्तिगत संबंध न्यायिक जाँच के दायरे से बाहर हैं। हालाँकि न्यायपालिका को शक्तियों के पृथक्करण के संवैधानिक सिद्धांत को कायम रखते हुए स्वतंत्र और अनुचित प्रभाव से मुक्त रहना चाहिये ।

'न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन' क्या है?

  • 'न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन' सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाई गई न्यायिक आचार संहिता है, जो स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका के लिये मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है तथा न्याय का निष्पक्ष प्रशासन सुनिश्चित करती है।
  • संहिता में 16 बिंदु शामिल हैं:
    • न्याय केवल किया ही नहीं जाना चाहिये बल्कि यह भी दिखना चाहिये कि न्याय हो रहा है। न्यायाधीशों को ऐसे किसी भी कार्य से बचना चाहिये जिससे न्यायपालिका की निष्पक्षता से जनता का विश्वास कम हो। 
      • तदनुसार सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश का कोई भी कार्य, चाहे वह आधिकारिक हो या व्यक्तिगत हो, जिससे इस धारणा की विश्वसनीयता कम होती हो, टाला जाना चाहिये।
    • किसी न्यायाधीश को किसी क्लब, सोसायटी या अन्य एसोसिएशन के किसी भी पद के लिये चुनाव नहीं लड़ना चाहिये, सिवाय किसी सोसायटी या एसोसिएशन के जो कानून से संबंधित हो।
    • बार परिषद के व्यक्तिगत सदस्यों, विशेषकर जो एक ही न्यायालय में प्रैक्टिस करते हैं, के साथ निकट संबंध रखने से बचना चाहिये।
    • किसी न्यायाधीश को अपने निकट परिवार के किसी सदस्य या निकट संबंधी को, जो बार का सदस्य हो, अपने समक्ष उपस्थित होने या उनके द्वारा निपटाए जा रहे किसी मामले में शामिल होने की अनुमति नहीं देनी चाहिये।
    • किसी न्यायाधीश के परिवार के किसी भी सदस्य को, जो बार का सदस्य है, पेशेवर कार्य के लिये न्यायाधीश के आवास या अन्य सुविधाओं का उपयोग करने की अनुमति नहीं देनी चाहिये।
    • एक न्यायाधीश को अपने पद की गरिमा के अनुरूप एक सीमा तक दूरी बनाए रखना चाहिये।
    • किसी भी न्यायाधीश को ऐसे मामले की सुनवाई और निर्णय नहीं करना चाहिये, जिसमें उसके परिवार का कोई सदस्य, निकट संबंधी या मित्र शामिल हो।
    • कोई भी न्यायाधीश न्यायिक निर्णय के लिये लंबित या संभावित मामलों पर सार्वजनिक बहस में शामिल नहीं होगा या राजनीतिक विचार व्यक्त नहीं करेगा।
    • एक न्यायाधीश को अपने निर्णयों से ही अपनी बात कहनी चाहिये और मीडिया को साक्षात्कार नहीं देना चाहिये।
    • न्यायाधीश को परिवार, निकट संबंधियों और मित्रों को छोड़कर किसी से उपहार या आतिथ्य स्वीकार नहीं करना चाहिये।
    • कोई न्यायाधीश किसी ऐसे मामले की सुनवाई और निर्णय नहीं करेगा जिसमें उस कंपनी का संबंध हो जिसमें उसके शेयर हों, जब तक कि उसने अपनी रुचि प्रकट न कर दी हो तथा मामले की सुनवाई तथा निर्णय पर कोई आपत्ति न उठाई गई हो।
    • किसी न्यायाधीश को शेयर, स्टॉक या इससे संबंधित किसकी भी चीजों में निवेश नहीं करना चाहिये।
    • न्यायाधीशों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यापार या कारोबार में संलग्न नहीं होना चाहिये, लेकिन कानूनी कार्य संबंधी गतिविधियों को प्रकाशित करना अपवाद है।
    • किसी भी न्यायाधीश को किसी भी उद्देश्य के लिये धन जुटाने का अनुरोध या उसे स्वीकार नहीं करना चाहिये, या उससे संबद्ध नहीं होना चाहिये।
    • किसी न्यायाधीश को अपने पद से संबद्ध किसी भी तरह की सुविधा या विशेषाधिकार के रूप में कोई वित्तीय लाभ नहीं मांगना चाहिये, जब तक कि यह स्पष्ट रूप से उपलब्ध न हो। इस संबंध में किसी भी संदेह का समाधान और स्पष्टीकरण मुख्य न्यायाधीश के माध्यम से किया जाना चाहिये।
    • न्यायाधीशों को हमेशा यह ध्यान रखना चाहिये कि वे सार्वजनिक जाँच के दायरे में हैं और उन्हें अपने उच्च पद के अनुरूप कार्य करना चाहिये।

न्यायिक आचरण का बंगलुरु सिद्धांत

  • जुलाई 2006 में संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद (ICOSOC) ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें न्यायिक आचरण के बंगलुरु सिद्धांतों को न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर वर्ष 1985 के संयुक्त राष्ट्र के मूल सिद्धांतों के लिये एक महत्त्वपूर्ण प्रगति तथा पूरक के रूप में मान्यता प्रदान की गई है।
  • न्यायिक आचरण के बंगलुरु सिद्धांतों का उद्देश्य न्यायाधीशों के लिये नैतिक मानदंड निर्धारित करना, न्यायिक व्यवहार को विनियमित करने के लिये एक रूपरेखा प्रदान करना और न्यायिक नैतिकता बनाए रखने पर मार्गदर्शन प्रदान करना है। 
    • ये सिद्धांत छह प्रमुख मूल्यों को चिह्नित करते हैं: स्वतंत्रता (independence), निष्पक्षता (impartiality), अखंडता/सत्यनिष्ठा (integrity), औचित्य (propriety), समानता (equality) और योग्यता एवं कर्मठता (competence and diligence), जो प्रत्येक मूल्य के प्रभावी ढंग से पालन के लिये न्यायाधीशों के अपेक्षित आचरण को परिभाषित करते हैं।

वर्ष 1985 न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर संयुक्त राष्ट्र के बुनियादी सिद्धांत:

  • इसे वर्ष 1985 में अपराध की रोकथाम और अपराधियों के उपचार पर सातवें संयुक्त राष्ट्र कॉन्ग्रेस में अपनाया गया तथा महासभा के प्रस्ताव 40/32 एवं 40/146 द्वारा इसका समर्थन किया गया था। 
    • इन सिद्धांतों का उद्देश्य आदर्श न्यायिक स्वतंत्रता और वास्तविक रूप से विश्व की प्रथाओं के बीच के अंतर को कम करना है, साथ ही यह सुनिश्चित करना है कि न्याय कायम रहे, मानव अधिकारों का संरक्षण एवं न्यायपालिका पारदर्शिता के साथ कार्य करे। 
    • प्रमुख पहलुओं में स्वतंत्रता की गारंटी, निष्पक्ष निर्णय, अनन्य क्षेत्राधिकार, हस्तक्षेप न करना और निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार शामिल हैं। 

भारत में न्यायिक अखंडता के संदर्भ में अन्य प्रमुख चिंताएँ क्या हैं?

  • न्यायाधीशों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ: न्यायाधीशों द्वारा राजनीति में प्रवेश करने के लिये सार्वजनिक रूप से अपने पदों से इस्तीफा देने से भारत के संविधान के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और उनके न्यायिक निर्णयों की निष्पक्षता के संदर्भ में चिंताएँ उत्पन्न हो गई हैं।
  • सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों द्वारा सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद आकर्षक राजनीतिक पद या सरकारी भूमिकाएँ स्वीकार करने से पक्षपात और लेन-देन के आरोप लगे हैं।
  • ऐसे उदाहरण जहाँ न्यायाधीश ऐसे निर्णय देते हैं जो सत्तारूढ़ दल को लाभ पहुँचाते हैं तथा बाद में उन्हें उच्च-स्तरीय सरकारी पद प्राप्त करते हैं, इससे संभावित पारस्परिक लाभ व्यवस्था का संकेत मिलता है।
  • पारदर्शिता के मुद्दे: महत्त्वपूर्ण मामलों में सूचना को जिस प्रकार से संभाला जाता है उसकी अपारदर्शिता के कारण न्यायिक प्रक्रिया में जनता का विश्वास कम होता है।
    • हितों का टकराव: न्यायाधीशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे हितों के टकराव से बचें और न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता बनाए रखें।
      • न्यायाधीशों की राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारी, विशेष रूप से न्यायाधीश पद पर रहते हुए विवादास्पद बयान और फैसले देने के बाद, संभावित हितों के टकराव की चिंता उत्पन्न करती है।
  • जनता का भरोसा और विश्वास: न्यायपालिका अपनी भूमिका निभाने के लिये जनता के भरोसे और विश्वास पर निर्भर करती है। न्यायाधीशों की ऐसी कार्रवाइयाँ जो न्यायिक अखंडता एवं निष्पक्षता की अवधारणा को कमज़ोर करती हैं, न्यायिक प्रणाली में जनता के विश्वास को कम करती हैं।

आगे की राह: 

  • 'न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन' और न्यायिक आचरण के बंगलुरु सिद्धांतों के पालन को सुदृढ़ करना। यह न्यायाधीशों के लिये अनिवार्य प्रशिक्षण तथा नियमित पुनश्चर्या पाठ्यक्रमों के माध्यम से किया जा सकता है।
    • न्यायिक आचरण और नैतिक मानकों के पालन की समय-समय पर लेखापरीक्षा तथा समीक्षा करने के लिये स्वतंत्र निकायों की स्थापना करना।
  • वैश्विक न्यायिक अखंडता नेटवर्क का लाभ उठाएँ, जिसका उद्देश्य भ्रष्टाचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UNCAC) के अनुरूप न्यायिक अखंडता को सुदृढ़ करने और न्याय क्षेत्र में भ्रष्टाचार को रोकने में न्यायपालिकाओं की सहायता करना है। 
  • ऐसे मंचों या चर्चाओं का आयोजन करके सार्वजनिक सहभागिता को बढ़ावा दें जहाँ नागरिक न्यायपालिका के साथ संवाद कर सकें और उसके कार्यों एवं निर्णयों को बेहतर ढंग से समझ सकें।
  • यह सुनिश्चित करने के लिये मानदंडों को सुदृढ़ किया जाना चाहिये कि राजनीति में प्रवेश करने के इच्छुक न्यायाधीशों को ‘कूलिंग-ऑफ पीरियड (cooling-off period)’ का पालन करना होगा तथा प्रासंगिक हो सकने वाले किसी भी पिछले न्यायिक निर्णय का पूर्ण खुलासा करना होगा।
  • सेवानिवृत्ति के बाद पदभार ग्रहण करने वाले न्यायाधीशों के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देश स्थापित करना तथा यह सुनिश्चित करना कि वे अपने न्यायिक निर्णयों की सत्यनिष्ठा से समझौता किये बिना निष्पक्ष रूप से निर्णय दें।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाए गए 'न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन' पर चर्चा कीजिये। इसका उद्देश्य न्यायपालिका की अखंडता और स्वतंत्रता को किस प्रकार से बनाए रखना है?

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