भारतीय राजनीति
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत
- 14 Jan 2023
- 11 min read
प्रिलिम्स के लिये:शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत, संविधान की मूल संरचना, सर्वोच्च न्यायालय, NJAC अधिनियम मेन्स के लिये:शक्ति और मुद्दों के पृथक्करण का सिद्धांत, संविधान की मूल संरचना |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के उपराष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक 1973 के केशवानंद भारती मामले का हवाला देते हुए शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत पर बहस को फिर से शुरू कर दिया है, जिसमें कहा गया था कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, लेकिन इसकी मूल संरचना में नहीं।
शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत:
- शक्तियों का पृथक्करण सरकार के विधायी, कार्यकारी और न्यायिक कार्यों का विभाजन है।
- अनुच्छेद 50 के अनुसार, राज्य न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने के लिये कदम उठाएंगे।
- संवैधानिक सीमांकन से सरकार की किसी भी एक शाखा में शक्ति के एकीकरण को रोका जा सकता है।
- भारतीय संविधान संरचना निर्धारित करता है, राज्य के प्रत्येक अंग की भूमिका तथा कार्यों को परिभाषित एवं निर्धारित करता है, उनके अंतर्संबंधों तथा नियंत्रण और संतुलन के लिये मानदंड स्थापित करता है।
नियंत्रण एवं संतुलन का साधन:
- विधायिका का नियंत्रण:
- न्यायपालिका के संदर्भ में: न्यायाधीशों पर महाभियोग और उन्हें हटाने की शक्ति तथा न्यायालय के ‘अधिकार से परे’ या अल्ट्रा वायर्स घोषित कानूनों में संशोधन करने तथा इसे पुनः मान्य बनाने की शक्ति।
- कार्यपालिका के संदर्भ में: विधायिका निर्धारित प्रक्रिया के तहत एक अविश्वास मत पारित कर सरकार को भंग कर सकती है। विधायिका को प्रश्नकाल और शून्यकाल के माध्यम से कार्यपालिका के कार्यों का आकलन करने की शक्ति प्रदान की गई है।
- कार्यपालिका का नियंत्रण:
- न्यायपालिका के संदर्भ में: मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करना।
- विधायिका के संदर्भ में: प्रत्यायोजित कानून के तहत प्राप्त शक्तियाँ। संविधान के प्रावधानों के तहत संबंधित कानूनों के प्रभावी कार्यन्वयन हेतु आवश्यक नियम बनाने का अधिकार।
- न्यायिक नियंत्रण:
- कार्यपालिका पर: न्यायिक समीक्षा यानी संविधान के उल्लंघन की स्थिति में कार्यकारी गतिविधियों की जाँच करने का अधिकार ।
- विधायिका पर: केशवानंद भारती मामला 1973 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित मूल संरचना सिद्धांत के तहत संविधान की असंशोधनीयता।
शक्तियों के पृथक्करण से संबंधित समस्याएँ:
- कमज़ोर विपक्ष: नियंत्रण और संतुलन लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है। ये लोकतंत्र को बहुसंख्यकवादी व्यवस्था में बदलने से रोकते हैं।
- संसदीय प्रणाली में ये नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत विपक्षी दल द्वारा प्रदान किये जाते हैं।
- हालाँकि लोकसभा में एक दल के बहुमत ने संसद में एक प्रभावी विपक्ष की भूमिका को कम कर दिया है।
- न्यायपालिका की नियंत्रण और संतुलन के प्रति विमुखता: राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना 99वें संवैधानिक संशोधन द्वारा की गई थी, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकारातीत करार दिया था।
- NJAC अनुचित राजनीतिकरण से व्यवस्था की स्वतंत्रता की गारंटी दे सकता है, नियुक्तियों की गुणवत्ता में सुधार कर सकता है, चयन प्रक्रिया की निष्पक्षता को बढ़ा सकता है, न्यायपालिका की संरचना में विविधता को बढ़ावा दे सकता है और व्यवस्था में जनता के विश्वास का पुनर्निर्माण कर सकता है।
- न्यायिक सक्रियता: हालिया कई निर्णयों में को देखें तो कानून और नियम से संबंधित निर्णय लेने के मामले में सर्वोच्च न्यायालय अति-सक्रिय हो गया है। यह विधायिका एवं कार्यपालिका के क्षेत्र का उल्लंघन है।
- कार्यपालिका: भारत में कार्यपालिका पर सत्ता के अति-केंद्रीकरण, सार्वजनिक संस्थानों को कमज़ोर करने, कानून, व्यवस्था और राज्य की सुरक्षा में सुधार के लिये कानून पारित करने के साथ-साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने की आलोचना की जाती है।
संविधान की मूल संरचना:
आगे की राह
- भारत का संविधान एक जीवंत दस्तावेज़ है और इसमें बदलाव के समय समाज की ज़रूरतों को ध्यान में रखना चाहिये।
- भारतीय संविधान के निर्माताओं ने स्वीकार किया कि ज्ञान पर किसी पीढ़ी का एकाधिकार नहीं है और कोई भी पीढ़ी यह तय नहीं कर सकती है कि आने वाली पीढ़ियों हेतु सरकार कैसी होनी चाहिये।
- हालाँकि संशोधन की शक्ति का विवेकपूर्ण उपयोग किया जाना चाहिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (d) व्याख्या:
अतः विकल्प (d) सही है। प्रश्न. ‘आधारिक संरचना’ के सिद्धांत से प्रारंभ करते हुए न्यायपालिका ने यह सुनिश्चित करने के लिये कि भारत एक उन्नतिशील लोकतंत्र के रूप में विकसित हो, एक उच्चतः अग्रलक्षी (प्रोऐक्टिव) भूमिका निभाई है। इस कथन के प्रकाश में लोकतंत्र के आदर्शों की प्राप्ति के लिये हाल के समय में ‘न्यायिक सक्रियतावाद’ द्वारा निभाई भूमिका का मूल्यांकन कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2014) प्रश्न. अध्यादेशों का आश्रय लेने ने हमेशा ही शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत की भावना के उल्लंघन पर चिंता जागृत की है। अध्यादेशों को लागू करने की शक्ति के तर्काधार को नोट करते हुए विश्लेषण कीजिये कि क्या इस मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय के विनिश्चयों ने इस शक्ति का आश्रय लेने को और सुगम बना दिया है। क्या अध्यादेशों को लागू करने की शक्ति का निरसन कर दिया जाना चाहिये? (मुख्य परीक्षा, 2015) प्रश्न. क्या आपके विचार में भारत का संविधान शक्तियों के कठोर पृथक्करण के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता है बल्कि यह “नियंत्रण और संतुलन” के सिद्धांत पर आधारित है? व्याख्या कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2019) प्रश्न. न्यायिक विधान, भारतीय संविधान में परिकल्पित शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का प्रतिपक्षी है। इस संदर्भ में कार्यपालक अधिकारणों को दिशा-निर्देश देने की प्रार्थना करने संबंधी बड़ी संख्या में दायर होने वाली लोक हित याचिकाओं का न्याय औचित्य सिद्ध कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2020) |