भारतीय अर्थव्यवस्था
GDP आधार वर्ष में संशोधन
प्रिलिम्स के लिये:सकल घरेलू उत्पाद, औद्योगिक उत्पादन सूचकांक, उद्योगों का वार्षिक सर्वेक्षण, डिफ्लेटर, CPI, WPI, असंगठित क्षेत्र, आधार वर्ष, राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी पर सलाहकार समिति, वस्तु और सेवा कर, ASUSI (असंगठित क्षेत्र उद्यमों का वार्षिक सर्वेक्षण)। मेन्स के लिये:आधार वर्ष की अवधारणा, इसके नियमित अद्यतन की आवश्यकता, संबंधित चुनौतियाँ। |
स्रोत: बीएस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MOSPI) ने भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के आधार वर्ष के संशोधन पर विचार-विमर्श करने के लिये कई अर्थशास्त्रियों और पूर्वानुमानकर्त्ताओं की बैठक बुलाई थी।
- यह सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा व्यापक परामर्श दिये जाने वाले महत्त्व को, शेष रूप से अतीत में आधार वर्ष समायोजन के संबंध में विवाद और आलोचना के आलोक में, रेखांकित करता है।
- वर्ष 2015 में किये गए पिछले आधार वर्ष संशोधन में आधार वर्ष को वर्ष 2004-05 से बदलकर वर्ष 2011-12 कर दिया गया था, लेकिन पद्धतिगत परिवर्तनों में कथित खामियों के कारण इसकी आलोचना की गई थी।
पिछले आधार वर्ष संशोधन से संबंधित विवाद क्या हैं?
- पद्धतिगत चिंताएँ: आधार वर्ष के पिछले संशोधन ने निजी कॉर्पोरेट क्षेत्र (PCS) के सकल घरेलू उत्पाद की गणना को कॉर्पोरेट मामलों के मंत्रालय (MCA) डेटाबेस की ऑडिट की गई बैलेंस शीट से सीधे बदल दिया तथा विनिर्माण क्षेत्र GVA का अनुमान लगाने के लिये PCS डेटा का उपयोग किया गया।
- इस प्रक्रिया में औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (IIP) और उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण (ASI) के आँकड़ों को ज़्यादातर खारिज कर दिया गया।
- एकल अपस्फीति (डिफ्लेटर) की आलोचना: कई विशेषज्ञों ने वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (Real GDP) वृद्धि को नाममात्र सकल घरेलू उत्पाद (Nominal GDP) वृद्धि से गणना करने के लिये प्रयोग किये जाने वाले एकल अपस्फीति (सिंगल डिफ्लेटर) पर सवाल उठाया, न कि दोहरे अपस्फीति की अंतर्राष्ट्रीय मानक तकनीक पर।
- एकल अपस्फीति में विभिन्न मूल्य सूचकांकों जैसे CPI, WPI द्वारा प्रत्येक क्षेत्र में नाममात्र मूल्य-वर्द्धित (Nominal Value-Added) को कम करना शामिल है, जबकि दोहरी अपस्फीति में आउटपुट मूल्यों द्वारा आउटपुट तथा इनपुट मूल्यों द्वारा इनपुट को कम करना शामिल है।
- GDP मूल्य अपस्फीति, मुद्रास्फीति को ध्यान में रखकर अर्थव्यवस्था में उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य में परिवर्तन को मापता है।
- सकल घरेलू उत्पाद अनुमानों में विसंगतियाँ: यद्यपि समग्र सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि मज़बूत प्रतीत होती है तथा उपभोग कमज़ोर प्रतीत होता है, जो महत्त्वपूर्ण माप संबंधी मुद्दों को इंगित करता है।
- इसके अलावा, सकल घरेलू उत्पाद की गणना के उत्पादन उपकरण और व्यय उपकरण के बीच विसंगति है।
- कमज़ोर उपभोग (Weak consumption), कम रिपोर्ट की गई आर्थिक गतिविधियों या सकल घरेलू उत्पाद की गणना में मुद्रास्फीति की गणना में समस्याओं का संकेत हो सकता है।
- आँकड़ों की रिपोर्टिंग: पिछले तीन दशकों में, पंजीकृत कंपनियों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है, विशेष रूप से सेवा क्षेत्र और वित्त क्षेत्र में।
- हालाँकि, घरेलू उत्पादन में उनका योगदान अस्पष्ट है, क्योंकि कई कंपनियां रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज (ROC) के पास अपनी ऑडिटेड बैलेंस शीट दाखिल नहीं करती हैं।
- असंगठित क्षेत्र को कम आंकना: वर्ष 2015 के आधार वर्ष के संशोधन की आलोचना इस कारण हुई कि इसमें सकल घरेलू उत्पाद की गणना के लिये उत्पादक इकाइयों से मूल्य-वर्द्धित आँकड़े शामिल करने की बजाय असंगठित क्षेत्र की बैलेंस शीट का उपयोग किया गया।
- इसका अर्थ है कि, अनौपचारिक क्षेत्र के उत्पादकों, जो कंपनियों के रूप में सूचीबद्ध नहीं हैं, को कम कवरेज़ प्रदान करना।
- औसत की गणना की समस्या: उत्पादन और व्यय पक्षों का औसत निकालना विकसित देशों में स्वीकार्य है, लेकिन विकासशील देशों में नहीं, क्योंकि भारत सकल घरेलू उत्पाद के दोनों पक्षों को स्वतंत्र रूप से नहीं मापता है।
- इसके अलावा, व्यय पक्ष, जिसका उपभोग भी एक हिस्सा है, के आँकड़े भी काफी खराब हैं।
आधार वर्ष क्या है?
- आधार वर्ष: आधार वर्ष एक विशिष्ट संदर्भ वर्ष है जिसके आधार पर आगामी एवं पूर्ववर्ती वर्षों के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के आँकड़ों की गणना की जाती है।
- आधार वर्ष की आवश्यकता: यह एक स्थिर संदर्भ बिंदु प्रदान करता है और आर्थिक प्रदर्शन को मापने के लिये एक बेंचमार्क के रूप में कार्य करता है तथा समय के साथ तुलना करने की अनुमति प्रदान करता है।
- सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के आँकड़ों को किसी विशिष्ट वर्ष से जोड़कर, विश्लेषक आर्थिक प्रदर्शन में रुझानों और बदलावों की स्पष्ट व्याख्या कर सकते हैं।
- आधार वर्ष की विशेषताएँ: आधार वर्ष एक सामान्य वर्ष होना चाहिये, अर्थात इस वर्ष में सूखा, बाढ़, भूकंप, महामारी आदि जैसी कोई असामान्य घटना घटित नहीं होनी चाहिये। इसके अलावा, यह वर्षों के अंतराल में बहुत अधिक अंतर नहीं होना चाहिये।
- आधार वर्ष को संशोधित करने के कारण:
- संकेतकों की परिवर्तनशील प्रकृति: सकल घरेलू उत्पाद की गणना के लिये संकेतक गतिशील होते हैं तथा उपभोक्ता व्यवहार, आर्थिक संरचना और वस्तु संरचना में बदलाव के कारण समय के साथ बदल सकते हैं।
- इसके अतिरिक्त, विकसित हो रहे डेटा संकलन तरीकों के लिये नई वर्गीकरण प्रणालियों और डेटा स्रोतों को शामिल करने की आवश्यकता हो सकती है।
- इस प्रकार, संशोधन यह सुनिश्चित करते हैं कि सकल घरेलू उत्पाद के आँकड़ें वर्तमान आर्थिक वास्तविकता को प्रतिबिंबित करें।
- आर्थिक संकेतकों पर प्रभाव : जब आधार वर्ष संशोधन के माध्यम से नए डेटा सेट शामिल किये जाते हैं, तो इससे GDP स्तर में समायोजन हो सकता है।
- इन परिवर्तनों का व्यापक आर्थिक संकेतकों पर प्रभाव पड़ता है, जिनमें सार्वजनिक व्यय, कराधान और सार्वजनिक क्षेत्र के ऋण के रुझान शामिल हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय मानक अभ्यास: संयुक्त राष्ट्र-राष्ट्रीय लेखा प्रणाली, 1993 के तहत देशों को समय-समय पर गणना प्रथाओं को संशोधित करने की आवश्यकता होती है।
- संकेतकों की परिवर्तनशील प्रकृति: सकल घरेलू उत्पाद की गणना के लिये संकेतक गतिशील होते हैं तथा उपभोक्ता व्यवहार, आर्थिक संरचना और वस्तु संरचना में बदलाव के कारण समय के साथ बदल सकते हैं।
- आधार वर्ष संशोधन की आवृत्ति: राष्ट्रीय खातों को नवीनतम उपलब्ध आँकड़ों के अनुरूप रखने के लिये आदर्शतः आधार वर्ष को प्रत्येक 5 से 10 वर्ष में संशोधित किया जाना चाहिये।
- आधार वर्ष संशोधन का इतिहास: वर्ष 1956 में पहला राष्ट्रीय आय अनुमान वित्त वर्ष 1949 को आधार वर्ष मानकर प्रकाशित किया गया था, तब से भारत ने अपने आधार वर्ष को सात बार संशोधित किया है।
- सबसे हालिया संशोधन में आधार वर्ष को वित्त वर्ष 2005 से बदलकर वित्त वर्ष 2012 किया गया था।
नये आधार वर्ष के लिये क्या विचारणीय बातें हैं?
- सलाहकार समिति का गठन: जून, 2024 में, MoSPI ने GDP डेटा के लिये आधार वर्ष तय करने के लिये बिस्वनाथ गोल्डर की अध्यक्षता में 26 सदस्यीय राष्ट्रीय लेखा सांख्यिकी पर सलाहकार समिति (ACNAS) का गठन किया।
- समिति सकल घरेलू उत्पाद (GDP) को WPI, CPI और IIP जैसे अन्य वृहद संकेतकों के साथ संरेखित करने पर भी विचार करेगी।
- संभावित आधार वर्ष: समिति GDP के लिये नए आधार वर्ष के रूप में वित्त वर्ष 2022-23 को चुनने पर विचार कर रही है, हालाँकि वित्त वर्ष 2023-24 पर भी विचार किया जा रहा है।
- GST के आँकड़ों का उपयोग: अर्थव्यवस्था का बेहतर तस्वीर प्राप्त करने के लिये नए डेटाबेस को शामिल करने हेतु GDP गणना के लिये वस्तु एवं सेवा कर (GST) डेटाबेस को शामिल करने के संबंध में चर्चा चल रही है।
- पद्धतिगत सुधार: सलाहकार समिति सूचकांक की संरचना में परिवर्तन करने पर भी विचार कर रही है, जैसे कि ASUSI (असंगठित क्षेत्र उद्यमों का वार्षिक सर्वेक्षण) को शामिल करना और GDP माप सटीकता में सुधार के लिये दोहरी अपस्फीति विधि की खोज करना।
निष्कर्ष:
भारत के GDP आधार वर्ष संशोधनों को लेकर पिछले विवादों के आधार पर, सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा विशेषज्ञों को शामिल करने तथा एक सलाहकार समिति स्थापित करने की वर्तमान पहल पारदर्शी और पद्धतिगत रूप से ठोस दृष्टिकोण की आवश्यकता को रेखांकित करती है। अद्यतन डेटा स्रोतों तथा कठोर कार्यप्रणालियों को शामिल करने का उद्देश्य GDP अनुमानों की सटीकता एवं विश्वसनीयता को बढ़ाना है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: आर्थिक गणना में आधार वर्ष की अवधारणा को समझाइये तथा यह जीडीपी आँकड़ों की सटीक व्याख्या के लिये यह क्यों आवश्यक है? चर्चा कीजिये। |
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:Q. स्फीति दर में होने वाली तीव्र वृद्धि का आरोप्य कभी-कभी "आधार प्रभाव" (base effect) पर लगाया जाता है। यह "आधार प्रभाव" क्या है? (2011) (a) यह फसलों के खराब होने से आपूर्ति में उत्पन्न उग्र अभाव का प्रभाव है उत्तर: (c) मेन्सप्रश्न. भारत के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) वर्ष 2015 से पहले और वर्ष 2015 के पश्चात् परिकलन विधि में अंतर की व्याख्या कीजिये। (2021) |
शासन व्यवस्था
असम समझौते का रोडमैप
प्रारंभिक परीक्षा के लिये:असम समझौते की धारा 6, नागरिकता अधिनियम,1955 की धारा 6A, बांग्लादेश मुक्ति युद्ध 1971, बोडोलैंड प्रादेशिक स्वायत्त ज़िला, छठी अनुसूची के तहत असम की स्वायत्त परिषदें, इनर लाइन परमिट। मुख्य परीक्षा के लिये:न्यायमूर्ति बिप्लब कुमार शर्मा समिति की 52 सिफारिशें, असम समझौते के खंड 6 का प्रभाव। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
असम सरकार, असम समझौते की धारा 6 के संबंध में न्यायमूर्ति बिप्लब कुमार शर्मा समिति द्वारा प्रस्तुत 52 सिफारिशों को लागू करने के क्रम में 25 अक्टूबर 2024 तक एक रोडमैप का मसौदा तैयार करने की योजना बना रही है।
असम समझौते की धारा 6 क्या है?
- धारा 6:
- इस समझौते की धारा 6 में असम के लोगों की सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई पहचान एवं विरासत को संरक्षित करने एवं बढ़ावा देने के लिये संवैधानिक, विधायी तथा प्रशासनिक सुरक्षा का वादा किया गया है।
- इसका मुख्य उद्देश्य असम के लोगों की स्वदेशी पहचान की रक्षा करना था।
- यह धारा जनसंख्या अनुपात में परिवर्तन और बांग्लादेश से प्रवासियों के आगमन की प्रतिक्रया में जोड़ी गई थी।
- असम समझौता:
- वर्ष 1985 में हस्ताक्षरित असम समझौता केंद्र सरकार, असम राज्य सरकार और असम आंदोलन के नेताओं के बीच एक त्रिपक्षीय समझौता था जिसका उद्देश्य बांग्लादेश में अवैध प्रवासियों के प्रवेश को रोकना था।
- इसके परिणामस्वरूप नागरिकता अधिनियम,1955 की धारा 6A को विशेष रूप से असम के संदर्भ में शामिल किया गया।
बिप्लब शर्मा समिति की रिपोर्ट क्या है?
पृष्ठभूमि:
- जुलाई 2019 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने समझौते की धारा 6 को लागू करने के तरीके सुझाने हेतु एक 14 सदस्यीय समिति का गठन किया।
- इस समिति की अध्यक्षता असम उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश बिप्लब कुमार शर्मा ने की और इसमें न्यायाधीश, सेवानिवृत्त नौकरशाह, लेखक, AASU नेता तथा पत्रकार शामिल थे।
असम के लोगों की परिभाषा:
- इस समिति ने फरवरी 2020 में अपनी रिपोर्ट पूरी की और सिफारिश की कि "असम के लोगों" की परिभाषा में निम्नलिखित शामिल होना चाहिये:
- स्थानीय जनजाति
- असम के अन्य स्थानीय समुदाय,
- 1 जनवरी 1951 को या उससे पहले असम में रहने वाले भारतीय नागरिक तथा उनके वंशज,
- असम के स्थानीय लोग
अनुशंसाएँ:
- इस समिति की 52 सिफारिशें मुख्य रूप से भाषा, भूमि और सांस्कृतिक विरासत से संबंधित सुरक्षा उपायों पर केंद्रित हैं।
प्रमुख बिंदु:
- भूमि:
- ऐसे राजस्व मंडलों की स्थापना की जाए जहाँ केवल "असम के लोग" ही भूमि का स्वामित्व और हस्तांतरण कर सकें तथा उचित दस्तावेज के बिना भूमि पर कब्जा करने वालों को भूमि का स्वामित्व प्रदान करने के क्रम में तीन वर्षीय कार्यक्रम लागू किया जाए।
- चार क्षेत्रों (ब्रह्मपुत्र के किनारे नदी क्षेत्र) का विशेष सर्वेक्षण किया जाए तथा भूमि आवंटन में कटाव प्रभावित लोगों को प्राथमिकता दी जाए।
- भाषा:
- असम की स्थानीय भाषाओं के संरक्षण एवं संवर्द्धन के लिये एक स्वायत्त भाषा और साहित्य अकादमी/परिषद की स्थापना की जाए।
- राज्य बोर्ड और सीबीएसई के अंतर्गत सभी अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में कक्षा आठवीं या दसवीं तक असमिया को अनिवार्य विषय बनाया जाए।
- सांस्कृतिक विरासत:
- वित्तीय सहायता के साथ सत्र (नव-वैष्णव मठों) के विकास के लिये एक स्वायत्त प्राधिकरण की स्थापना की जाए।
- सभी जातीय समूहों की सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देने के लिये प्रत्येक ज़िले में बहुउद्देशीय सांस्कृतिक परिसर विकसित किये जाएँ।
- असम में छठी अनुसूची की स्वायत्त परिषदों (बोडोलैंड प्रादेशिक परिषद, उत्तरी कछार हिल्स स्वायत्त परिषद और कार्बी आंगलोंग स्वायत्त परिषद) द्वारा इन 52 सिफारिशों को लागू करने पर निर्णय लिया जाए।
- छठी अनुसूची के क्षेत्रों के साथ-साथ मुख्यतः बंगाली भाषी बराक घाटी को इन सिफारिशों से छूट दी जाए।
- संसद, राज्य विधानसभा, स्थानीय निकायों और नौकरियों में “असम के लोगों” के लिये आरक्षण दिया जाए।
- वित्तीय सहायता के साथ सत्र (नव-वैष्णव मठों) के विकास के लिये एक स्वायत्त प्राधिकरण की स्थापना की जाए।
शामिल न की गई सिफारिशें:
- इस समिति की कुछ सबसे संवेदनशील सिफारिशें राज्य सरकार द्वारा सूचीबद्ध 52 बिंदुओं में शामिल नहीं हैं जैसे:
- असम में प्रवेश के लिये नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और मिज़ोरम की तरह इनर लाइन परमिट की शुरुआत।
- “असम के लोगों” के लिये आरक्षण।
- एक उच्च सदन (असम विधान परिषद) का निर्माण, जो पूरी तरह से “असम के लोगों” के लिये आरक्षित हो।
असम समझौते के कार्यान्वयन में क्या चुनौतियाँ हैं?
- असमिया पहचान को परिभाषित करने की जटिलता: "असमिया लोगों" को परिभाषित करने की समिति की सिफारिश से इस बात पर विवाद हो सकता है कि खंड 6 के तहत सुरक्षा के लिये कौन पात्र है और इससे विभिन्न जातीय समूहों के बीच असंतोष बढ़ सकता है।
- भूमि स्वामित्व और अधिकार: "असमिया लोगों" द्वारा विशेष भूमि स्वामित्व के लिये राजस्व मंडलों की स्थापना से महत्त्वपूर्ण कानूनी और प्रशासनिक मुद्दे उत्पन्न हो सकते हैं। चर क्षेत्रों में भूमि आवंटन के लिये सर्वेक्षण करना तार्किक चुनौतियों को प्रस्तुत करता है
- भाषा संबंधी नीतियाँ: असमिया को आधिकारिक भाषा बनाने तथा विद्यालयों में इसे अनिवार्य बनाने की आवश्यकता को, विशेष रूप से बराक घाटी जैसे बंगाली-प्रधान क्षेत्रों में, विरोध का सामना करना पड़ सकता है।
- वित्तपोषण एवं प्रबंधन: सत्रों एवं सांस्कृतिक परिसरों के लिये स्वायत्त प्राधिकरण की स्थापना हेतु पर्याप्त वित्तपोषण एवं प्रभावी प्रबंधन संरचना की आवश्यकता हो सकती है।
- राजनीतिक एवं नौकरशाही का विरोध: जिन सिफारिशों के लिये केंद्र सरकार की सहमति की आवश्यकता होती है, उसमें विलंब या विरोध की संभावना होती है, जिससे कार्यान्वयन प्रक्रिया जटिल हो सकती है।
- बराक घाटी के लिये छूट: बराक घाटी और छठी अनुसूची में सूचीबद्ध क्षेत्रों को इन सिफारिशों से छूट देने से राज्य के भीतर असमानता और विभाजन की धारणा उत्पन्न हो सकती है, जिससे मौज़ूदा क्षेत्रीय तनाव और भी बढ़ सकता है।
आगे की राह
- हितधारकों की सहभागिता:
- "असमिया लोगों" की परिभाषा पर आम सहमति बनाने और सिफारिशों का समावेशी कार्यान्वयन सुनिश्चित करने के लिये विभिन्न जातीय समूहों, नागरिक समाज संगठनों और राजनीतिक संस्थाओं समेत सभी हितधारकों के साथ निरंतर संवाद को बढ़ावा देना शामिल है।
- चरणबद्ध कार्यान्वयन:
- कार्यान्वयन के लिये चरणबद्ध दृष्टिकोण अपनाना, उन सिफारिशों को प्राथमिकता देना जो कम विवादास्पद हों और त्वरित परिणाम देती हों, जैसे कि शिक्षा में भाषा संबंधी नीतियाँ, जबकि धीरे-धीरे भूमि स्वामित्व और पहचान जैसे अधिक जटिल मुद्दों का समाधान किया जाए।
- क्षमता निर्माण:
- स्थानीय अधिकारियों और सामुदायिक नेताओं के लिये भूमि सर्वेक्षण और शीर्षक वितरण को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने की क्षमता निर्माण में निवेश करना। इससे पारदर्शिता सुनिश्चित होगी और समुदायों के बीच विश्वास का निर्माण होगा।
- संसाधनों का आवंटन:
- सांस्कृतिक प्राधिकरणों और शिक्षा सुधारों की स्थापना का समर्थन करने के लिये पर्याप्त धन और संसाधन सुरक्षित करना, यह सुनिश्चित करना कि ये पहल सतत् और प्रभावी ढंग से प्रबंधित हों।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: असम समझौता समिति की प्रमुख सिफारिशों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये तथा उनके कार्यान्वयन में राजनीतिक, सांस्कृतिक और कानूनी जटिलताओं पर प्रकाश डालिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रश्न. भारत के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (a) |
सामाजिक न्याय
जेल मैनुअल में 'जाति-आधारित' प्रावधान
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, मौलिक अधिकार, आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871, विमुक्त जनजातियाँ, पश्चिम बंगाल जेल का नियम 404, अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (SC), अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), अस्पृश्यता, अ नुच्छेद 17, मॉडल प्रिज़न मैनुअल, 2016, आदर्श कारागार और सुधार सेवा अधिनियम, 2023 मेन्स के लिये:कैदियों के मौलिक अधिकार, जेल मैनुअल में संशोधन, जाति आधारित भेदभाव और अस्पृश्यता का मुद्दा। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि जेलों में जाति-आधारित श्रम विभाजन "असंवैधानिक "है, जो भारत की सुधार प्रणाली में औपनिवेशिक युग की पुरानी मान्यताओं और पूर्वाग्रहों को समाप्त करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य जेल नियमावली के कई जाति-आधारित भेदभाव को बढ़ावा देने वाले प्रावधानों को निरस्त कर दिया गया, जिनसे कैदियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है।
जेल मैनुअल औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों को किस प्रकार बढ़ावा देते हैं?
- जेलों में औपनिवेशिक पूर्वाग्रह:
- औपनिवेशिक विरासत: अब निरस्त आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को कुछ हाशिये पर रह रहे समुदायों को "आपराधिक जनजाति" के रूप में चिह्नित करने की अनुमति दी, जो कि इस गलत धारणा पर आधारित थी कि वे "आदतन अपराधी" हैं।
- विमुक्त जनजातियाँ: आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 के निरस्त होने के बाद, इन समुदायों को "विमुक्त जनजातियों (Denotified Tribes)" के रूप में पुनः वर्गीकृत किया गया। हालाँकि जेल मैनुअल द्वारा उन्हें बिना किसी दोषसिद्धि के भी "आदतन अपराधी" के रूप में वर्गीकृत करना जारी रखा गया।
- उदाहरण:
- पश्चिम बंगाल जेल संहिता: न्यायालय ने पश्चिम बंगाल जेल संहिता के नियम, 404 पर प्रकाश डाला, जिसमें कहा गया है कि किसी दोषी पर्यवेक्षक को रात्रि प्रहरी के रूप में तभी नियुक्त किया जा सकता है, जब वह उन जनजातियों से संबंधित न हो, जिन्हें "भागने की प्रबल स्वाभाविक प्रवृत्ति" वाला माना जाता है, जैसे कि घुमंतू जनजातियाँ।
- आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और केरल जेल मैनुअल: इन मैनुअलों में "आदतन अपराधियों" को उन लोगों के रूप में परिभाषित किया गया है जो "आदत" के कारण डकैती, सेंधमारी, चोरी, जालसाजी या ज़बरन वसूली जैसे अपराधों में लिप्त रहते हैं - भले ही उन पर पहले से कोई दोष सिद्ध न हुआ हो।
- श्रम पर प्रतिबंध: आंध्र प्रदेश के "आवारागर्द या अपराधी जनजातियों" के सदस्यों को "बुरे या खतरनाक चरित्र" वाले व्यक्तियों या हिरासत से भागे हुए लोगों के बराबर माना जाता है। परिणामस्वरूप उन्हें जेल की दीवारों के बाहर श्रम में नियोजित होने से रोक दिया जाता है।
- भेदभाव की निरंतरता: न्यायालय ने कहा कि यह निरंतर वर्गीकरण औपनिवेशिक युग के जाति-आधारित भेदभाव को बढ़ावा देता है, जिससे इन समूहों का सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर होना और भी बदतर हो जाता है।
- जेलों में जाति-आधारित भेदभाव के उदाहरण:
- तमिलनाडु जेल: तमिलनाडु के पलायमकोट्टई सेंट्रल जेल में थेवर, नादर और पल्लार को अलग-अलग वर्गों में रखा गया था, जो बैरकों का जाति-आधारित पृथक्करण था।
- राजस्थान कारागार: राजस्थान कारागार नियम, 1951 के अनुसार शौचालय का कार्य अनुसूचित जाति समुदाय "मेहतर" को सौंपा गया, जबकि ब्राह्मणों या उच्च जाति के हिंदू कैदियों को रसोईघर का कार्य सौंपा गया।
विमुक्त, खानाबदोश और अर्द्ध-खानाबदोश जनजातियाँ
- इन्हें 'विमुक्त जाति' के नाम से भी जाना जाता है। ये समुदाय सबसे कमज़ोर और वंचित हैं।
- विमुक्त समुदाय, जिन्हें कभी ब्रिटिश शासन के दौरान आपराधिक जनजाति अधिनियम, 1871 जैसे कानूनों के तहत 'जन्मजात या आदतन अपराधी' करार दिया गया था।
- वर्ष 1952 में भारत सरकार द्वारा इन्हें आधिकारिक तौर पर विमुक्त जाति के रूप में घोषित कर दिया गया।
- इनमें से कुछ समुदाय, जिन्हें विमुक्त घोषित किया गया था, उसमें खानाबदोश जनजातियाँ भी शामिल हैं।
- खानाबदोश और अर्द्ध-खानाबदोश समुदायों को उन लोगों के रूप में परिभाषित किया जाता है, यह प्रत्येक समय एक स्थान पर रहने के बजाय एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहते हैं।
- ऐतिहासिक रूप से खानाबदोश जनजातियों और विमुक्त जनजातियों को कभी भी निजी भूमि या घर का स्वामित्त्व प्राप्त नहीं था।
- जबकि अधिकांश DNT अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) श्रेणियों में फैले हुए हैं, कुछ DNT किसी भी SC , ST या OBC श्रेणी में शामिल नहीं हैं।
कैदियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कैसे किया जाता है?
- जाति-आधारित वर्गीकरण सीमा: सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि जाति को वर्गीकरण मानदंड के रूप में तभी इस्तेमाल किया जा सकता है जब इससे जाति-आधारित भेदभाव के पीड़ितों को लाभ हो। उदाहरण के लिये जाति-आधारित सकारात्मक कार्रवाई (आरक्षण)।
- जाति के आधार पर कैदियों को अलग करने से जातिगत मतभेद बढ़ता है, इसे समाप्त किया जाना चाहिये।
- जेल मैनुअल इस उद्देश्य की पूर्ति में विफल रहा तथा संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन किया।
- प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष भेदभाव: सर्वोच्च न्यायालय ने हाशिये पर पड़े समुदायों के विरुद्ध प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के भेदभाव पर प्रकाश डाला।
- निम्न जातियों को सफाई और झाड़ू लगाने का कार्य सौंपना, जबकि उच्च जातियों को खाना पकाने जैसे कार्य करने की अनुमति देना, अनुच्छेद 15(1) के तहत प्रत्यक्ष भेदभाव का स्पष्ट उदाहरण है।
- इन समुदायों को अधिक कुशल या सम्मानजनक कार्य प्रदान करने के बजाय पारंपरिक भूमिकाओं के आधार पर कुछ कार्य आवंटित करने से अप्रत्यक्ष भेदभाव उत्पन्न होता है।
- समानता का उल्लंघन: "आदतन", "रीति-रिवाज़", "जीवन जीने के बेहतर तरीके" या "भागने की स्वाभाविक प्रवृत्ति" के आधार पर कैदियों में अंतर करना, वास्तविक समानता के सिद्धांतों को कमज़ोर करता है।
- सर्वोच्च न्यायालय ने जेल नियमों पर प्रकाश डाला, जो भोजन को “उपयुक्त जाति” द्वारा पकाने या कुछ समुदायों को “तुच्छ कार्य (Menial Duties)” सौंपने को अनिवार्य बनाते हैं, इन प्रथाओं को अस्पृश्यता के रूप में वर्गीकृत करते हैं, जो अनुच्छेद 17 के तहत निषिद्ध है।
- जीवन और सम्मान का अधिकार: न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि हाशिये पर पड़े कैदियों के सुधार पर प्रतिबंध लगाने वाले जेल नियम उनके जीवन के अधिकार का उल्लंघन करते हैं तथा उन्हें सम्मान एवं समान व्यवहार से वंचित करते हैं, जिससे वे और अधिक हाशिये पर चले जाते हैं।
भेदभाव के विरुद्ध संवैधानिक और कानूनी प्रावधान
- संवैधानिक प्रावधान:
- विधि के समक्ष समानता: अनुच्छेद 14 के अनुसार, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं किया जाएगा।
- भेदभाव का निषेध: भारत के संविधान के अनुच्छेद 15 में कहा गया है कि राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
- अस्पृश्यता का उन्मूलन: संविधान का अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करता है।
- कानूनी प्रावधान:
- नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955: यह अधिनियम भारत के संविधान के अनुच्छेद 17 को लागू करने के लिये बनाया गया था, जिसने अस्पृश्यता की प्रथा को समाप्त कर दिया।
- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989: यह अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के सदस्यों को जाति-आधारित भेदभाव तथा हिंसा से बचाने के लिये अधिनियमित किया गया था।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी निर्देश क्या थे?
- जेल मैनुअल में संशोधन: सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को भेदभावपूर्ण प्रथाओं को समाप्त करने के लिये तीन महीने के भीतर अपने जेल मैनुअल एवं नियमों में संशोधन करने का आदेश दिया गया।
- जाति संबंधी संदर्भों को हटाना: न्यायालय ने जेलों में रखे गए विचाराधीन कैदियों और दोषियों के रजिस्टरों से “जाति कॉलम” एवं जाति संबंधी किसी भी संदर्भ को हटाने का आदेश दिया।
- मॉडल प्रिज़न मैनुअल और अधिनियम में मुद्दे: केंद्र सरकार के मॉडल प्रिज़न मैनुअल, 2016 तथा आदर्श कारावास और सुधार सेवा अधिनियम, 2023 में जातिगत भेदभाव जैसी कमियों को चिह्नित किया गया था।
- वर्ष 2016 के मैनुअल की विशेष रूप से “आदतन अपराधी” की अस्पष्ट परिभाषा के लिये आलोचना की गई थी, जिससे राज्यों को विमुक्त जनजातियों के खिलाफ रूढ़िवादिता को कायम रखने की अनुमति मिल गई।
- न्यायालय ने आदेश दिया कि वर्ष 2016 और 2023 दोनों अधिनियमों में तीन महीने के भीतर सुधार किये जाएँ।
- अनुपालन निगरानी: ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरणों और आगंतुकों के बोर्डों को इन निर्देशों का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिये नियमित निरीक्षण करने का कार्य सौंपा गया।
- पुलिस निर्देश: पुलिस प्राधिकारियों को निर्देश दिया गया कि वे विमुक्त जनजातियों के सदस्यों को मनमाने ढंग से गिरफ्तार न करें तथा सर्वोच्च न्यायालय के पिछले निर्णयों में निर्धारित दिशा-निर्देशों का पालन सुनिश्चित करें।
निष्कर्ष:
इन भेदभावपूर्ण पूर्वाग्रहों को समाप्त करने के लिये सार्वोच्च न्यायालय का हालिया फैसला ज़ेलों में वास्तविक समानता हासिल करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। जाति संदर्भों को हटाने, पुरानी परिभाषाओं को संशोधित करने तथा हाशिये के समुदायों के खिलाफ पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिये अनिवार्य करके, न्यायालय ने सभी कैदियों के लिये सम्मान, निष्पक्षता तथा सुधार के महत्त्व को मज़बूत किया है। यह निर्णय भारत में अधिक न्यायपूर्ण एवं समावेशी सुधारात्मक ढाँचे का मार्ग प्रशस्त करता है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: जेलों में जाति-आधारित श्रम विभाजन पर सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय भारत की सुधार प्रणाली में संस्थागत पूर्वाग्रहों को दूर करने की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम कैसे दर्शाता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न 2. मौलिक अधिकारों की निम्नलिखित श्रेणियों में से कौन-सी एक भेदभाव के रूप में अस्पृश्यता के विरुद्ध सुरक्षा को शामिल करती है? (2020) (a) शोषण के विरुद्ध अधिकार उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न: आप वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की संकल्पना से क्या समझते हैं? क्या इसकी परिधि में घृणा वाक् भी आता है? भारत में फिल्में अभिव्यक्ति के अन्य रूपों से तनिक भिन्न स्तर पर क्यों हैं? चर्चा कीजिये। (मुख्य परीक्षा, 2014) |
कृषि
भूजल पुनः प्राप्ति के लिये सतत् कृषि
प्रिलिम्स के लिये:भूजल, चावल की खेती, फसल पैटर्न, जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल (IPCC), ग्लोबल वार्मिंग, सतत् भूजल प्रबंधन, तिलहन, उत्तर पूर्वी क्षेत्र के लिये मिशन ऑर्गेनिक वैल्यू चेन डेवलपमेंट (MOCDNER), राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन, परम्परागत कृषि विकास योजना (PKVY), कृषि वानिकी पर उप-मिशन (SMAF), राष्ट्रीय कृषि विकास योजना। मेन्स के लिये:भारत में सतत् कृषि से संबंधित चुनौतियाँ, सतत् कृषि से संबंधित सरकारी पहल। |
स्रोत: इकॉनोमिक टाइम्स
चर्चा में क्यों?
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गांधीनगर, गुजरात के अनुसार वर्तमान में चावल की खेती वाले लगभग 40% क्षेत्र के स्थान पर अन्य फसलें लगाने से उत्तर भारत में वर्ष 2000 से अब तक नष्ट हुए 60-100 क्यूबिक किलोमीटर भूजल को पुनः प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।
अध्ययन के मुख्य बिंदु क्या हैं?
- मुख्य बिंदु:
- प्रचलित कृषि पद्धतियाँ, विशेषकर चावल की खेती से संबंधित पद्धतियाँ, सिंचाई के लिये भूजल संसाधनों पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं।
- वैश्विक तापमान में निरंतर वृद्धि के कारण भूजल भंडार में कमी आई है, अनुमान है कि इसमें 13 से 43 क्यूबिक किलोमीटर तक की संभावित हानि हो सकती है।
- यदि इस तरह के असंवहनीय फसल पैटर्न पर अंकुश नहीं लगाया गया तो पहले से ही अत्यधिक दोहन किये जा रहे भूजल संसाधनों पर और अधिक दबाव पड़ेगा, जिससे जल सुरक्षा की चुनौतियाँ और भी अधिक बढ़ जाएँगी।
- कृषि पद्धतियों और भूजल की कमी के बीच संबंध, आसन्न पारिस्थितिक संकट को कम करने के लिये फसल पैटर्न में अनुकूल रनीतियों की तत्काल आवश्यकताओं को रेखांकित करता है।
- जलवायु परिवर्तन का प्रभाव:
- इसकी तुलना में, 1.5 से 3 डिग्री सेल्सियस के वैश्विक तापमान परिदृश्य के तहत मौजूदा फसल पैटर्न को बनाए रखने से भूजल की प्राप्ति बहुत कम होगी, जो अनुमानित 13 से 43 क्यूबिक किलोमीटर के बीच है।
- जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) की 1.5 डिग्री सेल्सियस वैश्विक तापमान वृद्धि पर वर्ष 2018 की विशेष रिपोर्ट में चेतावनी दी गई है कि यदि वर्तमान प्रवृत्ति जारी रही तो वर्ष 2030 से 2050 के बीच वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुँचने की उम्मीद है, साथ ही वर्ष 2100 तक इसके 3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने की संभावना है।
- इसकी तुलना में, 1.5 से 3 डिग्री सेल्सियस के वैश्विक तापमान परिदृश्य के तहत मौजूदा फसल पैटर्न को बनाए रखने से भूजल की प्राप्ति बहुत कम होगी, जो अनुमानित 13 से 43 क्यूबिक किलोमीटर के बीच है।
- अनुशंसाएँ:
- रिपोर्ट में विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में फसल पैटर्न में बदलाव की तत्काल आवश्यकताओं पर बल दिया गया है, ताकि किसानों की लाभप्रदता को बनाए रखते हुए भूजल स्थिरता को बढ़ाया जा सके।
- इसमें चावल की खेती के विकल्प के रूप में उत्तर प्रदेश में अनाज और पश्चिम बंगाल में तिलहन की खेती की सिफारिश की गई है।
- इन निष्कर्षों में महत्त्वपूर्ण नीतिगत निहितार्थ हैं, जो यह सुझाव देते हैं कि किसानों की आजीविका की सुरक्षा करते हुए उत्तर भारत के सिंचित क्षेत्रों में स्थायी भूजल प्रबंधन के लिये इष्टतम फसल पैटर्न की पहचान की जानी चाहिये।
- रिपोर्ट में विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में फसल पैटर्न में बदलाव की तत्काल आवश्यकताओं पर बल दिया गया है, ताकि किसानों की लाभप्रदता को बनाए रखते हुए भूजल स्थिरता को बढ़ाया जा सके।
नोट:
- अधिक निर्भरता: सिंचाई के लिये भूजल का योगदान 62%, ग्रामीण जल आपूर्ति के लिये 85% और शहरी जल खपत के लिये 45% है।
- निम्न दर: भारत की भूजल कमी दर वर्ष 2080 तक तीन गुनी हो सकती है, जिसका मुख्य कारण जलवायु-प्रेरित अति-निष्कर्षण है।
- अत्यधिक निष्कर्षण: राजस्थान, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली सहित कई क्षेत्रों में भूजल का दोहन उसकी पूर्ति से अधिक तथा निष्कर्षण दर उपलब्ध संसाधनों के 100% से अधिक है।
- भौगोलिक असमानताएँ: सिंधु-गंगा-ब्रह्मपुत्र के मैदानों में भारत के 60% भूजल संसाधन मौजूद हैं, लेकिन ये देश के केवल 20% क्षेत्र को कवर करते हैं।
- कृषि पर निर्भरता: 60% से अधिक सिंचित कृषि भूजल पर निर्भर है, जिससे संसाधनों पर अत्यधिक दबाव पड़ता है, विशेष रूप से कृषि केंद्र पर।
भारत में सतत् कृषि से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?
- जल की कमी: अधिक जल की आवश्यकता वाली फसलों पर अत्यधिक निर्भरता और अकुशल सिंचाई विधियों के परिणामस्वरूप भूजल में कमी आई है।
- जलवायु परिवर्तन: अप्रत्याशित मौसम पैटर्न, बढ़ता तापमान,और बाढ़ और सूखे जैसी चरम घटनाओं की बढ़ती आवृत्ति फसल की पैदावार तथा कृषि स्थिरता पर नकारात्मक प्रभाव डालती है।
- खंडित भूमि जोत: छोटे और खंडित खेतों के कारण सतत् कृषि पद्धतियों, मशीनीकरण तथा कुशल संसाधन उपयोग को अपनाना मुश्किल हो जाता है।
- रासायनिक पदार्थों का अत्यधिक उपयोग: रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और शाकनाशियों के अत्यधिक उपयोग से मृदा एवं जल प्रदूषण में वृद्धि हुई है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र व दीर्घकालिक कृषि उत्पादकता को नुकसान पहुँचा है।
- अपर्याप्त नीतिगत समर्थन: सतत् कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने वाली अपर्याप्त सरकारी नीतियों और प्रोत्साहनों के कारण पर्यावरण अनुकूल कृषि में परिवर्तन सीमित हो गया है।
सतत् कृषि पद्धतियों से संबंधित सरकारी पहल
आगे की राह
- जल-कुशल प्रथाओं को बढ़ावा देना: जल की कमी की समस्या से निपटने के लिये ड्रिप सिंचाई और वर्षा जल संचयन जैसी जल-कुशल प्रौद्योगिकियों को अपनाना, साथ ही कम पानी की खपत वाली फसलों की ओर फसल विविधीकरण करना।
- किसान प्रशिक्षण और जागरूकता: जैविक खेती, कृषि वानिकी, फसल चक्र और एकीकृत कीट प्रबंधन जैसे सतत् कृषि प्रथाओं पर किसानों को शिक्षित करने के लिये व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम और कार्यशालाएँ आयोजित करना।
- नीति और प्रोत्साहन समर्थन को मज़बूत बनाना: पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिये सब्सिडी, अनुदान और कर छूट के माध्यम से सतत् कृषि प्रथाओं को प्रोत्साहित करने वाली मज़बूत नीतियों को तैयार करना तथा उन्हें लागू करना।
- प्रौद्योगिकी और बाज़ारों तक पहुँच में सुधार: आधुनिक सतत् कृषि प्रौद्योगिकियों तक पहुँच को सुगम बनाना और किसानों के लिये उचित मूल्य पर जैविक और सतत् तरीके से उगाए गए उत्पाद बेचने के लिये कुशल आपूर्ति शृंखला तथा बाज़ार संपर्क स्थापित करना।
- अनुसंधान और नवाचार को प्रोत्साहित करना: सतत् कृषि पद्धतियों, जलवायु-अनुकूल फसलों और किफायती पर्यावरण-अनुकूल आदानों पर केंद्रित अनुसंधान और विकास में निवेश करना, साथ ही सरकारी संस्थानों, अनुसंधान निकायों तथा किसानों के बीच सहयोग को बढ़ावा देना।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में भूजल संकट से निपटने में सतत् कृषि पद्धतियों के महत्त्व पर चर्चा कीजिये? |
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:Q. भारत के संदर्भ में, निम्नलिखित में से किस/कि पद्धति/यों को पारितंत्र-अनुकूली कृषि माना जाता है ?
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1,2 और 3 उत्तर: (A) मेन्स:प्रश्न. भारत ताज़े जल संसाधनों से संपन्न है। समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये कि यह अभी भी पानी की कमी से क्यों जूझ रहा है। (2015) |