विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
रक्षा क्षेत्र हेतु DRDO के गहन तकनीकी प्रयास
प्रारंभिक परीक्षा के लिये:रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO), लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट, पिनाका, आकाश, रडार और इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणाली, नैनो प्रौद्योगिकी, जैव प्रौद्योगिकी, अग्नि, पृथ्वी मिसाइल शृंखला, तेजस लाइट कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (LCA), आकाश मिसाइल प्रणाली, ब्रह्मोस मिसाइल, अर्जुन मेन बैटल टैंक (MBT)। मुख्य परीक्षा के लिये:DRDO की उपलब्धियाँ, DRDO के समक्ष आने वाली चुनौतियाँ और संभावित समाधान। |
स्रोत: बिज़नेस लाइन
चर्चा में क्यों?
सैन्य अनुप्रयोगों हेतु उभरती प्रौद्योगिकियों पर ध्यान केंद्रित करने के क्रम में अपने अनुसंधान कार्यक्रम को नया रूप देने के उद्देश्य से रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) एक अग्रणी पहल शुरू करने जा रहा है। इसके तहत रक्षा उत्पादों के स्वदेशीकरण को बढ़ावा देने एवं राष्ट्रीय सुरक्षा को मज़बूत करने के क्रम में पाँच डीप-टेक परियोजनाओं को वित्तपोषित करने के साथ प्रत्येक परियोजना को 50 करोड़ रुपये तक मिलेंगे।
- इस पहल को रक्षा क्षेत्र में परिवर्तनकारी अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिये अंतरिम बजट 2024-2025 में घोषित 1 लाख करोड़ रुपये के कोष द्वारा समर्थित किया गया है।
परियोजना के मुख्य बिंदु क्या हैं?
- उद्देश्य:
- DRDO का लक्ष्य स्वदेशीकरण के माध्यम से तीनों सेनाओं के लिये आवश्यक प्रणालियों, उप-प्रणालियों और घटकों संबंधी आयात पर निर्भरता को कम करना है।
- भविष्योन्मुखी और विध्वंसकारी प्रौद्योगिकियों पर ध्यान केंद्रित कर DRDO उन अवधारणाओं के लिये नवीन समाधान तलाशेगा जो वर्तमान में भारत या विश्व स्तर पर उपलब्ध नहीं हैं।
- भविष्योन्मुखी एवं विध्वंसकारी तकनीक:
- DRDO ने प्रस्ताव आमंत्रित करने के लिये तीन व्यापक श्रेणियों की पहचान की है: स्वदेशीकरण, भविष्योन्मुखी और विघटनकारी प्रौद्योगिकी तथा अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी।
- यह मुख्य रूप से भविष्योन्मुखी और विघटनकारी प्रौद्योगिकियों जैसे क्वांटम कंप्यूटिंग, ब्लॉकचेन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता में अनुसंधान को आगे बढ़ाने पर केंद्रित है।
- भविष्योन्मुखी और विघटनकारी प्रौद्योगिकियों का आशय ऐसे नवाचार से है जो नई पद्धतियों, उत्पादों या सेवाओं को प्रस्तुत करके मौजूदा उद्योगों, बाजारों या सामाजिक मानदंडों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन या क्रांतिकारी बदलाव लाने पर केंद्रित हैं।
- वैश्विक स्तर पर इसी प्रकार के कार्यक्रमों का नेतृत्व राज्य रक्षा अनुसंधान संगठनों द्वारा किया जाता है जैसे कि US DARPA (संयुक्त राज्य अमेरिका रक्षा उन्नत अनुसंधान परियोजना एजेंसी), जिसे DRDO अपनी गहन तकनीक पहल के क्रम में एक मॉडल के रूप में उपयोग कर रहा है।
- इन गहन प्रौद्योगिकी परियोजनाओं में निवेश, DRDO के प्रौद्योगिकी विकास कोष (TDF) के माध्यम से किया जाएगा।
- TDF के तहत सशस्त्र बलों के लिये आवश्यक सैन्य हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर विकसित करने के लिये निजी उद्योगों, विशेषकर MSMEs और स्टार्ट-अप्स को सहयोग किया जा रहा है।
रक्षा उन्नत अनुसंधान परियोजना एजेंसी (DARPA)
- DARPA संयुक्त राज्य अमेरिका के रक्षा विभाग के अंतर्गत एक अनुसंधान और विकास एजेंसी है, जो सैन्य अनुप्रयोगों हेतु उभरती प्रौद्योगिकियों के विकास पर केंद्रित है।
- इसका उद्देश्य तत्काल सैन्य आवश्यकताओं को पूरा करने के क्रम में अनुसंधान एवं विकास परियोजनाओं को डिज़ाइन और कार्यान्वित करना है।
रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (DRDO) क्या है?
- परिचय:
- DRDO रक्षा मंत्रालय की अनुसंधान एवं विकास शाखा है जिसका उद्देश्य भारत को अत्याधुनिक रक्षा प्रौद्योगिकियों में सशक्त बनाना है।
- आत्मनिर्भरता की दिशा में प्रयास तथा अग्नि और पृथ्वी मिसाइल शृंखला, हल्के लड़ाकू विमान तेजस, मल्टी बैरल रॉकेट लांचर, पिनाका, वायु रक्षा प्रणाली आकाश, रडारों की एक विस्तृत शृंखला और इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणाली आदि जैसी सामरिक प्रणालियों एवं प्लेटफॉर्मों के सफल स्वदेशी विकास एवं उत्पादन से भारत की सैन्य शक्ति में वृद्धि हुई है।
- गठन:
- इसका गठन वर्ष 1958 में भारतीय सेना के तकनीकी विकास प्रतिष्ठान (TDEs) और तकनीकी विकास एवं उत्पादन निदेशालय (DTDP) तथा रक्षा विज्ञान संगठन (DSO) के एकीकरण से हुआ था।
- DRDO, 50 से अधिक प्रयोगशालाओं का एक नेटवर्क है जो विभिन्न विषयों जैसे वैमानिकी, आयुध, इलेक्ट्रॉनिक्स, लड़ाकू वाहन, इंजीनियरिंग प्रणाली आदि को कवर करते हुए रक्षा प्रौद्योगिकियों के विकास में गहनता के साथ संलग्न है।
- DRDO के प्रौद्योगिकी क्लस्टर:
- वैमानिकी: विमान, मानव रहित हवाई वाहन (UAV) और उन्नत सामग्रियों समेत विमानन प्रौद्योगिकियों के डिज़ाइन और विकास पर ध्यान केंद्रित करता है।
- आयुध और युद्ध इंजीनियरिंग: सशस्त्र बलों के लिये शस्त्र प्रणालियाँ, तोपखाना और गोला-बारूद विकसित करता है।
- मिसाइल और सामरिक प्रणालियाँ: बैलिस्टिक मिसाइलों, क्रूज मिसाइलों और सामरिक मिसाइल प्रणालियों सहित मिसाइल प्रौद्योगिकी में विशेषज्ञता।
- इलेक्ट्रॉनिक्स और संचार प्रणालियाँ: सैन्य अनुप्रयोगों के लिये रडार प्रणालियों, संचार उपकरणों और इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणालियों पर काम करता है।
- जीवन विज्ञान: चरम वातावरण में मानव अस्तित्व के लिये प्रौद्योगिकियों का विकास, जैसे सुरक्षात्मक गियर, जीवन-सहायक प्रणालियाँ, और युद्ध में हताहत लोगों की देखभाल।
- सामग्री और जीवन विज्ञान: रक्षा अनुप्रयोगों के लिये उन्नत सामग्री, नैनो प्रौद्योगिकी और जैव-प्रौद्योगिकी पर ध्यान केंद्रित करता है।
DRDO की उपलब्धियाँ क्या हैं?
प्रणाली |
विवरण |
अग्नि और पृथ्वी मिसाइल शृंखला |
बैलिस्टिक मिसाइल प्रणालियों का सफल विकास, जिससे भारत की सामरिक क्षमताओं में उल्लेखनीय वृद्धि होगी। |
तेजस हल्का लड़ाकू विमान (LCA) |
यह एक स्वदेशी बहु-भूमिका वाला लड़ाकू विमान है, जिसे DRDO द्वारा अन्य अभिकरणों के सहयोग से डिज़ाइन और विकसित किया गया है। |
आकाश मिसाइल प्रणाली |
एक मध्यम दूरी की सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइल प्रणाली, जो भारतीय सेना और वायु सेना को हवाई रक्षा सहायता प्रदान करती है। |
ब्रह्मोस मिसाइल |
रूस के सहयोग से विकसित विश्व की सबसे तेज़ सुपरसोनिक क्रूज़ मिसाइल। |
अर्जुन मुख्य युद्धक टैंक (MBT) |
अर्जुन मुख्य युद्धक टैंक (MBT) भारतीय सेना के लिये डिज़ाइन किया गया एक स्वदेशी युद्धक टैंक है, जिसमें उन्नत मारक क्षमता, गतिशीलता और सुरक्षा प्रणालियाँ हैं। |
इंसास राइफल शृंखला |
इंसास राइफल शृंखला भारतीय सशस्त्र बलों के लिये राइफलों समेत छोटे हथियारों की स्वदेशी उपकरण है। |
हल्का लड़ाकू हेलीकॉप्टर (LCH) |
भारतीय सेना और वायु सेना की परिचालन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये विकसित किया गया। |
नेत्र यूएवी |
नेत्रा यूएवी एक स्वदेशी मानव रहित हवाई वाहन है, जिसे निगरानी और टोही कार्यों के लिये डिज़ाइन किया गया है। |
पनडुब्बी सोनार प्रणालियाँ (Submarine Sonar Systems) |
भारतीय नौसेना की पनडुब्बियों के लिये सोनार और अंतर्जलीय संचार प्रणालियों का विकास। |
DRDO के समक्ष क्या चुनौतियाँ हैं?
- परियोजना के कार्यान्वयन में विलंब: DRDO की विभिन्न परियोजनाओं, जैसे कि उन्नत शस्त्र प्रणालियों और विमानों के विकास में, काफी विलंब हुआ है, जिससे समय पर तैनाती प्रभावित हुई है और लागत में वृद्धि हुई है।
- प्रौद्योगिकी अंतराल और आयात पर निर्भरता: पर्याप्त उत्पादन और अनुसंधान एवं विकास आधार के बावज़ूद, भारतीय रक्षा उद्योग में प्रमुख प्रणालियों, महत्त्वपूर्ण भागों, घटकों और कच्चे माल को स्वतंत्र रूप से डिज़ाइन और निर्माण करने की तकनीकी क्षमता का अभाव है, जिसके कारण आयात पर निर्भरता जारी है।
- यह सीमित तकनीकी गहनता ही भारत सरकार द्वारा विभिन्न प्रमुख रक्षा प्रणालियों के निर्माण के लिये लाइसेंस देने को प्राथमिकता देने के पीछे एक प्रमुख कारक है।
- बजट संबंधी बाधाएँ: DRDO के लिये बज़ट आवंटन वित्त वर्ष 2024-25 में बढ़कर 23,855 करोड़ रुपए हो गया, जो वित्त वर्ष 2023-24 में 23,263.89 करोड़ रुपए था।
- इस वृद्धि के बावज़ूद बज़ट वृद्धि मामूली बनी हुई है, जो आधुनिकीकरण और रक्षा प्रौद्योगिकी के स्वदेशीकरण पर सरकार द्वारा किये जाने वाले प्रयासों के अनुरूप नहीं है।
- उद्योग और शिक्षा जगत के साथ सहयोग: DRDO निज़ी उद्योगों और शैक्षणिक संस्थानों के साथ सहयोग बढ़ाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन रक्षा अनुसंधान एवं विकास आवश्यकताओं के साथ उन्हें कुशलतापूर्वक संरेखित करना एक चुनौती बनी हुई है।
आगे की राह
- औद्योगिक सहयोग को मज़बूत करना: DRDO को नवाचार और अत्याधुनिक रक्षा प्रौद्योगिकियों के विकास में तेजी लाने तथा कुशल प्रौद्योगिकी हस्तांतरण को बढ़ावा देने के लिये निज़ी उद्योगों, MSME और स्टार्ट-अप के साथ साझेदारी बढ़ानी चाहिये।
- समयबद्ध निष्पादन पर ध्यान केंद्रित करना: कठोर परियोजना समयसीमा को लागू करने और बेहतरीन परियोजना प्रबंधन तकनीकों को अपनाने से विलंब को कम करने और महत्त्वपूर्ण रक्षा प्रणालियों की समय पर डिलीवरी सुनिश्चित करने में सहायता मिल सकती है।
- अनुसंधान एवं विकास के निवेश में वृद्धि: अनुसंधान एवं विकास के लिये अतिरिक्त संसाधन और निरंतर वित्त पोषण का आवंटन, DRDO को तकनीकी अंतराल को समाप्त करने और विदेशी आयात पर निर्भरता कम करने में सक्षम बनाएगा।
- वैश्विक सहयोग को बढ़ावा देना: अंतर्राष्ट्रीय रक्षा अनुसंधान अभिकरणों के साथ सहयोग का विस्तार करने और संयुक्त उद्यमों को बढ़ावा देने से DRDO को उभरते क्षेत्रों में उन्नत प्रौद्योगिकी और विशेषज्ञता हासिल करने में सहायता मिल सकती है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: DRDO के प्रौद्योगिकी क्लस्टरों के महत्त्व का विश्लेषण कीजिये, हाल के वर्षों में उल्लेखनीय उपलब्धियों पर प्रकाश डालिये। ये उपलब्धियाँ भारत की सामरिक स्वायत्तता में किस प्रकार योगदान देती हैं? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्स:प्रश्न: भारतीय रक्षा के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2009)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (d) प्रश्न: निम्नलिखित में से कौन सा 'आईएनएस अस्त्रधारिणी' का सबसे अच्छा वर्णन है, जो हाल ही में खबरों में था? (2016) (a) उभयचर (एम्फिब) युद्ध जहाज़ उत्तर: (c) मुख्य:प्रश्न: एस-400 वायु रक्षा प्रणाली, दुनिया में वर्तमान में उपलब्ध किसी भी अन्य प्रणाली से तकनीकी रूप से कैसे बेहतर है? (मुख्य परीक्षा, 2021) |
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
इज़रायल-हिजबुल्लाह संघर्ष और युद्ध सिद्धांत
प्रारंभिक परीक्षा:इज़रायल, फिलिस्तीन, मध्य-पूर्व, अरब-विश्व, योम-किप्पुर युद्ध, ज़ायोनीवाद, अल-अक्सा, गाजा पट्टी, यरुशलम, फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (PLO) मुख्य विषय:इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष का प्रभाव, युद्ध और शांति के लिये नैतिक आधार और संबंधित मुद्दे |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल के संघर्षों जैसे कि लंबे समय से चल रहा इज़रायल-हिजबुल्लाह युद्ध, रूस -यूक्रेन युद्ध तथा विश्व के कई अन्य भागों में अशांति से इस विमर्श को बढ़ावा मिला है कि क्या बड़े पैमाने पर हिंसा को उचित ठहराया जा सकता है।
- तीन प्रमुख विचारधाराओं का इस मामले पर अलग-अलग नैतिक दृष्टिकोण है जिससे युद्ध की नैतिकता के संबंध में अलग-अलग दृष्टिकोण मिलते हैं, जिससे यह मुद्दा वर्तमान में और अधिक प्रासंगिक हो जाता है।
इज़रायल और हिजबुल्लाह के बीच संघर्ष के क्या कारण हैं?
- संघर्ष की उत्पत्ति (1982):
- वर्ष 1948 में इज़रायल राज्य की स्थापना के कारण 750,000 से अधिक फिलिस्तीनी अरबों को बड़े पैमाने पर विस्थापित होना पड़ा (वर्ष 1948 के अरब-इज़रायल युद्ध के दौरान)।
- इनमें से कई शरणार्थियों ने दक्षिणी लेबनान में शरण ली, जिससे इस क्षेत्र में तनाव बढ़ गया। ईसाई मिलिशिया और फिलिस्तीनी समूहों सहित विभिन्न लेबनानी गुटों के बीच संघर्षों से यह स्थिति और भी जटिल हो गई।
- 1960 और 1970 के दशक के दौरान दक्षिणी लेबनान में फिलिस्तीन मुक्ति संगठन (PLO) की उपस्थिति से इज़रायल की सुरक्षा चिंताएँ बढ़ गईं।
- उत्तरी इज़रायली शहरों पर PLO के हमलों की प्रतिक्रया में इज़रायल ने लेबनान में सैन्य अभियान शुरू किया (वर्ष 1978 और 1982), जिसके परिणामस्वरूप लंबे समय तक इसका कब्ज़ा रहने से अंततः हिजबुल्लाह का उदय हुआ।
- हिजबुल्लाह की स्थापना वर्ष 1982 में ईरानी समर्थन से इज़रायल के आक्रमण और चल रहे गृहयुद्ध की प्रतिक्रया में हुई थी, जिसका उद्देश्य इज़रायल के कब्जे का विरोध करना तथा लेबनानी संप्रभुता की रक्षा करना था।
- हिंसा में वृद्धि (1980-1990 का दशक): 1980 के दशक के दौरान हिजबुल्लाह ने लेबनान में इज़रायली सेना और उनके सहयोगियों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध चलाया (विशेष रूप से वर्ष 1983 में अमेरिकी और फ्राँसीसी बैरकों पर बमबारी की) जिससे बड़ी संख्या में लोग हताहत हुए।
- वर्ष 1985 तक जब हिजबुल्लाह की सैन्य शक्ति बढ़ गयी तो इज़रायल दक्षिणी लेबनान में एक स्व-घोषित "सुरक्षा क्षेत्र" में चला गया, जिस पर उसका वर्ष 2000 तक कब्ज़ा रहा।
- राजनीतिक एकीकरण और शत्रुता की निरंतरता (1990 का दशक): लेबनानी गृहयुद्ध के बाद हिजबुल्लाह राजनीति में एकीकृत हो गया और इसने संसद में सीटें हासिल कीं, जिससे शिया समुदायों के बीच इसकी वैधता बढ़ गई।
- वर्ष 1993 में इज़रायल ने हिजबुल्लाह के हमलों की प्रतिक्रया में "ऑपरेशन अकाउंटेबिलिटी" शुरू किया, जिसके परिणामस्वरूप लेबनान में बड़ी संख्या में नागरिक हताहत हुए तथा बुनियादी ढाँचे को नुकसान पहुँचा, जिसे सात दिवसीय युद्ध (1993) के रूप में जाना जाता है।
- जुलाई युद्ध (2006): जुलाई 2006 में हिजबुल्लाह ने दो इज़रायली सैनिकों को पकड़ लिया, जिसके कारण इज़रायली सेना ने बड़े पैमाने पर जवाबी कार्रवाई की। यह संघर्ष 34 दिनों तक चला और इसके परिणामस्वरूप लगभग 1,200 लेबनानी तथा 158 इज़रायली सैनिक मारे गए। इस युद्ध से हिजबुल्लाह की सैन्य क्षमताओं पर प्रकाश पड़ने के साथ लेबनानी और क्षेत्रीय राजनीति में एक प्रमुख हितधारक के रूप में इसकी स्थिति मज़बूत हुई।
- हालिया घटनाक्रम (2010 से वर्तमान तक):
- सीरियाई गृहयुद्ध में भागीदारी: वर्ष 2012 से हिजबुल्लाह ने असद शासन का समर्थन करने के लिये सीरियाई गृहयुद्ध में हस्तक्षेप किया, जिससे आलोचना का सामना करने के बावजूद उसे बहुमूल्य युद्ध अनुभव प्राप्त हुआ।
- गाजा संघर्ष (2023): अक्टूबर 2023 में हिजबुल्लाह ने बढ़ती इज़रायली सैन्य कार्रवाइयों के बीच गाजा के साथ एकजुटता दिखाते हुए एक व्यापक अभियान शुरू किया, जिससे सीमा पार शत्रुता तेज़ हो गई।
- हाल ही में तनाव में वृद्धि: प्रमुख हिजबुल्लाह नेताओं की हत्या के साथ सितंबर 2024 में वॉकी-टॉकी और पेजर विस्फोट से तनाव बढ़ने के साथ हिजबुल्लाह की जवाबी कार्रवाई से संघर्ष की संभावना को बढ़ावा मिला है।
युद्ध और शांति का नैतिक आधार क्या है?
न्यायपूर्ण युद्ध सिद्धांत (JWT): एक मानक दृष्टिकोण:
- परिचय:
- न्यायपूर्ण युद्ध सिद्धांत (JWT) अंतर्राष्ट्रीय कानून में एक महत्त्वपूर्ण ढाँचा है, जिसे मुख्य रूप से ऑगस्टीन और एक्विनास जैसे दार्शनिकों द्वारा व्यक्त किया गया है।
- इसके अनुसार कुछ स्थितियों में युद्ध को नैतिक रूप से उचित ठहराया जा सकता है, हालांकि यह केवल अपनी रणनीतिक या साहसिक प्रकृति के कारण सराहनीय नहीं है।
- इसमें युद्ध को विशिष्ट परिस्थितियों में सामूहिक राजनीतिक हिंसा का स्वीकार्य रूप माना गया है।
- JWT के भाग:
- जूस एड बेलम (जस्ट कॉज़): यह सिद्धांत युद्ध शुरू करने के औचित्य पर केंद्रित है। इसके न्यायपूर्ण कारणों में आत्मरक्षा, भविष्य में आक्रमण को रोकना और चल रहे अत्याचारों को रोकना शामिल है।
- उदाहरण: द्वितीय विश्व युद्ध में मित्र देशों की सेनाओं के हस्तक्षेप को अक्सर एक न्यायपूर्ण युद्ध के रूप में उद्धृत किया गया, जिसे धुरी शक्तियों द्वारा किये गए आक्रमण और अत्याचारों की प्रतिक्रिया के रूप में देखा गया था।
- जूस इन बेल्लो (सही आचरण): यह सिद्धांत बताता है कि युद्ध कैसे लड़ा जाता है। यह नागरिक हताहतों को कम करने, अनावश्यक पीड़ा से बचने और युद्ध में शामिल न होने वालों के अधिकारों का सम्मान करने पर बल देता है।
- इन सिद्धांतों के उल्लंघन से युद्ध अपराधों को जन्म मिल सकता है, जैसा कि अंतर्राष्ट्रीय मानवीय कानून में उल्लिखित है।
- जूस पोस्ट बेलम (न्यायपूर्ण शांति): यह सिद्धांत युद्ध के बाद न्यायपूर्ण और स्थायी शांति पर केंद्रित है। यह हारने वालों के साथ उचित व्यवहार, पुनर्निर्माण प्रयासों और संघर्ष के मूल कारणों को हल करने पर केंद्रित है।
- जूस एड बेलम (जस्ट कॉज़): यह सिद्धांत युद्ध शुरू करने के औचित्य पर केंद्रित है। इसके न्यायपूर्ण कारणों में आत्मरक्षा, भविष्य में आक्रमण को रोकना और चल रहे अत्याचारों को रोकना शामिल है।
यथार्थवाद: सत्ता की राजनीति
दृष्टिकोण:
- यथार्थवाद का मानना है कि अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिक विचारों का कोई स्थान नहीं है।
- यथार्थवादियों के अनुसार, राज्य एक अराजक अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में कार्य करते हैं जहाँ शक्ति और राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वोपरि है।
- उनका मानना है कि राष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्रीय हित और सत्ता की खोज अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रेरक शक्तियाँ हैं और युद्ध इन लक्ष्यों को प्राप्त करने का एक साधन बन जाता है।
- इसे थ्यूसीडाइड्स और मैकियावेली जैसे दार्शनिकों ने व्यक्त किया था।
- ये न्यायपूर्ण युद्ध सिद्धांत की अव्यावहारिक एवं आदर्शवादी होने के कारण आलोचना करते हैं तथा तर्क देते हैं कि नैतिकता पर ध्यान केंद्रित करने से राज्य की स्वयं की रक्षा करने तथा अपने हितों को आगे बढ़ाने की क्षमता कमज़ोर हो जाती है।
- यथार्थवाद की आलोचना: यथार्थवाद के आलोचक कहते हैं कि नैतिकता की पूर्ण अवहेलना से क्रूर और अनावश्यक युद्धों को जन्म मिल सकता है।
- उदाहरण: प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध की पूर्व संध्या जैसी ऐतिहासिक घटनाएँ दर्शाती हैं कि राज्य नैतिकता की तुलना में रणनीतिक गणनाओं को प्राथमिकता देते हैं।
- क्यूबा मिसाइल संकट से इस यथार्थवादी दृष्टिकोण पर प्रकाश पड़ता है कि राष्ट्रीय सुरक्षा नैतिक चिंताओं से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
- शांतिवाद: सभी प्रकार की हिंसा से घृणा
- विचार:
- शांतिप्रियता युद्ध सहित सभी प्रकार की हिंसा को अस्वीकार करते हैं, तथा महात्मा गांधी और मार्टिन लूथर किंग जूनियर जैसे नेताओं के आदर्शों के साथ तालमेल बिठाते हुए संघर्षों को हल करने के लिये अहिंसक प्रतिरोध और कूटनीति को बढ़ावा देते हैं।
- शांतिवादी न्यायपूर्ण युद्ध सिद्धांत की आलोचना करते हुए तर्क देते हैं कि युद्ध का कोई भी औचित्य अधिक हिंसा और पीड़ा को जन्म देता है।
- उनका मानना है कि रचनात्मक और सतत् अहिंसक तरीकों से सशस्त्र संघर्ष की तुलना में अधिक स्थायी रूप से शांति प्राप्त की जा सकती है।
- शांतिवाद की आलोचना:
- आलोचकों का मानना है कि अपराधों को रोकने या समाप्त करने के लिये कभी-कभी सशस्त्र बल की आवश्यकता पड़ सकती है, तथा उनका तर्क है कि आक्रामकता एवं बुराई से निपटने के लिये शांतिवाद अवास्तविक है।
- विचार:
हिजबुल्लाह क्या है?
- हिज़्बुल्लाह (Hezbollah) का अनुवाद “ईश्वर की पार्टी (Party of God) ” है। लेबनान स्थित एक शिया मिलिशिया और राजनीतिक पार्टी है।
- हिजबुल्लाह की उत्पत्ति:
- हिजबुल्लाह की उत्पत्ति वर्ष 1982 में लेबनानी गृहयुद्ध (1975-1990) के दौरान लेबनान पर इज़रायल के आक्रमण के विरुद्ध एक प्रतिरोध आंदोलन के रूप में की गई थी।
- इसे लेबनान के शिया समुदाय, ईरान और उसके इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) तथा वर्ष 1979 में ईरान (Iran) में एक इस्लामी क्रांति से प्रभावित फिलिस्तीनी समूहों से समर्थन प्राप्त हुआ।
- सामरिक एवं अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन केंद्र (CSIS) के अनुसार, इसे वैश्विक स्तर पर सबसे अधिक सशस्त्र गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं में से एक माना जाता है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका और इज़रायल समेत कई देशों ने हिजबुल्लाह को आतंकवादी संगठन घोषित किया है।
भारत की विदेश नीति के सिद्धांत क्या हैं?
- पंचशील (पाँच सिद्धांत): इसे सर्वप्रथम वर्ष 1954 में भारत और चीन के तिब्बत क्षेत्र के बीच व्यापार समझौते में औपचारिक रूप दिया गया था, जिसने भारत के अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की बुनियाद रखी। ये सिद्धांत इस प्रकार हैं:
- सभी देशों द्वारा अन्य देशों की क्षेत्रीय अखंडता और प्रभुसत्ता का सम्मान करना
- एक-दूसरे देश पर आक्रमण न करना
- दूसरे देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना
- परस्पर सहयोग एवं लाभ को बढ़ावा देना
- शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीति का पालन करना
- वसुधैव कुटुंबकम (संपूर्ण विश्व एक परिवार है): भारत विश्व को एक वैश्विक परिवार के रूप में देखता है, तथा सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास के साथ सद्भाव, सामूहिक विकास और राष्ट्रों के बीच विश्वास को बढ़ावा देता है।
- गुजराल सिद्धांत भारत के अपने निकटतम पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को निर्देशित करने के लिये 5 सिद्धांतों का एक समूह है, जो मैत्रीपूर्ण, सौहार्दपूर्ण संबंधों के महत्त्व को मान्यता देता है। ये 5 सिद्धांत इस प्रकार हैं:
- भारत बाँग्लादेश, भूटान, मालदीव, नेपाल और श्रीलंका जैसे पड़ोसी देशों को पारस्परिकता की अपेक्षा किये बिना, सद्भावना और विश्वास के साथ सहायता प्रदान करता है।
- किसी भी दक्षिण एशियाई देश को अपने भूभाग का उपयोग क्षेत्र के किसी अन्य देश के हितों के विरुद्ध नहीं करने देना चाहिये।
- देशों को एक दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने से बचना चाहिये।
- सभी दक्षिण एशियाई देशों को एक-दूसरे की क्षेत्रीय अखंडता और संप्रभुता का सम्मान करना चाहिये।
- विवादों का समाधान द्विपक्षीय वार्ता के माध्यम से शांतिपूर्ण ढंग से किया जाना चाहिये।
- गुजराल सिद्धांत भारत के अपने निकटतम पड़ोसी देशों के साथ संबंधों को निर्देशित करने के लिये 5 सिद्धांतों का एक समूह है, जो मैत्रीपूर्ण, सौहार्दपूर्ण संबंधों के महत्त्व को मान्यता देता है। ये 5 सिद्धांत इस प्रकार हैं:
- सक्रिय एवं निष्पक्ष सहायता: भारत सक्रिय सहायता के माध्यम से लोकतंत्र और विकास को बढ़ावा देता है, अपितु संबंधित सरकार की सहमति से।
- यह साझेदार देशों में क्षमता निर्माण और संस्थागत सुदृढ़ीकरण पर बल देता है, जैसा कि अफगानिस्तान में भारत के प्रयासों में देखा गया है।
- संयुक्त राष्ट्र के लिये समर्थन: भारत संयुक्त राष्ट्र (UN) का संस्थापक सदस्य है और संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों और सिद्धांतों का समर्थन करता है।
- सामरिक स्वायत्तता: इसमें स्वतंत्र निर्णय लेने पर ज़ोर दिया गया है और भारत साझेदारी का पक्षधर है, लेकिन औपचारिक सैन्य गठबंधनों से बचता है, तथा अपने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में लचीलापन बनाए रखता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न 1. निम्नलिखित में से दक्षिण-पश्चिम एशिया का कौन-सा देश भूमध्य सागर की तरफ नहीं खुलता है? (2015) (a) सीरिया उत्तर: (b) प्रश्न. कभी-कभी समाचारों में उल्लिखित पद "टू-स्टेट सोल्यूशन" किसकी गतिविधियों के संदर्भ में आता है। (2018) (a) चीन उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न : “भारत के इज़रायल के साथ संबंधों ने हाल ही में एक ऐसी गहराई और विविधता हासिल की है, जिसकी पुनर्वापसी नहीं की जा सकती है।” विवेचना कीजिये। (मुख्य परीक्षा- 2018) |
सामाजिक न्याय
फास्ट ट्रैक विशेष न्यायालयों की प्रभावशीलता
प्रारंभिक परीक्षा के लिये:भारत में फास्ट-ट्रैक कोर्ट, यौन अपराध, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (POCSO अधिनियम), आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2018, केंद्र प्रायोजित योजना, न्यायपालिका। मुख्य परीक्षा के लिये:भारत में फास्ट-ट्रैक न्यायालयों के समक्ष चुनौतियाँ। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
गंभीर आपराधिक मामलों के त्वरित निपटान हेतु बनाए गए भारत के फास्ट-ट्रैक कोर्ट अपनी प्रभावशीलता को लेकर जाँच का सामना कर रहे हैं। हालाँकि शुरुआती रुझान के बावजूद कार्यात्मक न्यायालयों की संख्या में कमी आई है।
नोट:
- फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स की संख्या का रुझान:
- वर्ष 2018 और वर्ष 2020 के बीच भारत में फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई, जो 699 से बढ़कर 907 हो गई, जिसका मुख्य कारण हाई-प्रोफाइल मामलों में विलंब को लेकर जनता में व्याप्त आक्रोश था।
- हालाँकि वर्ष 2020 के बाद से यह प्रगति धीमी हो गई है, वर्ष 2023 में कार्यात्मक न्यायालयों की संख्या घटकर 832 हो गई है, जो वित्तीय और प्रशासनिक बाधाओं के कारण इन न्यायालयों को बनाए रखने में राज्यों के समक्ष विभिन्न चुनौतियों को दर्शाती है।
- फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स की उपलब्धता में असमानताएँ:
- उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने उच्च संख्या में त्वरित न्यायालयों की क्रियाशीलता को बनाए रखा है, जबकि अन्य राज्यों में इनकी संख्या बहुत कम है या कुछ मामलों में तो एक भी नहीं है।
- ये असमानताएँ स्थानीय संसाधन सीमाओं, प्राथमिकता के विभिन्न स्तरों और भिन्न प्रशासनिक क्षमताओं का प्रतिबिंब हैं।
FTSC क्या हैं?
- परिचय:
- FTSC भारत में स्थापित न्यायिक निकाय हैं, जो यौन अपराधों से संबंधित मामलों, विशेष रूप से बलात्कार और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम (POCSO अधिनियम) से संबंधित मामलों की सुनवाई की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिये स्थापित किये गए हैं।
- स्थापना:
- केंद्र सरकार ने वर्ष 2018 में आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम पारित किया, जिसमें बलात्कार के अपराधियों के लिये मृत्युदंड सहित कठोर दंड का प्रावधान किया गया। इसके पश्चात् ऐसे मामलों के त्वरित निर्णय की सुविधा के लिये FTSC की स्थापना की गई।
- भारत के उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के अनुसार, केंद्र प्रायोजित योजना के रूप में अगस्त 2019 में FTSC की स्थापना की पहल को औपचारिक रूप दिया गया था।
- FTSC की स्थापना के कारण:
- यौन अपराधों में अधिकतम वृद्धि और पारंपरिक न्यायालयों में मुकदमों की दीर्घकालीन अवधि के कारण पीड़ितों को न्याय मिलने में काफी विलंब हो रहा था, जिसके कारण FTSC की स्थापना की गई थी।
- FTSC का विस्तार:
- FTSC योजना, जिसे मूल रूप से वर्ष 2019 में एक वर्ष के लिये आरंभ किया गया था, को केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा वर्ष 2023 से वर्ष 2026 तक अतिरिक्त तीन वर्षों के लिये बढ़ा दिया गया है।
पोक्सो अधिनियम क्या है?
- परिचय: इस कानून का उद्देश्य बच्चों के यौन शोषण और यौन उत्पीड़न के अपराधों को संबोधित करना है। यह अधिनियम 18 वर्ष से कम आयु के किसी भी व्यक्ति को बच्चे के रूप में परिभाषित करता है।
- इसे वर्ष 1992 में बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन के भारत के अनुसमर्थन के परिणामस्वरूप अधिनियमित किया गया था।
- विशेषताएँ:
- लिंग-निष्पक्ष प्रकृति: अधिनियम के अनुसार, लड़के और लड़कियाँ दोनों यौन शोषण के शिकार हो सकते हैं और पीड़ित के लिंग की परवाह किये बिना ऐसा दुर्व्यवहार एक अपराध है।
- पीड़ित की पहचान की गोपनीयता: पोक्सो अधिनियम, 2012 की धारा 23 में यह प्रावधान है कि बाल पीड़ितों की पहचान गोपनीय रखी जानी चाहिये।
- मीडिया रिपोर्ट में पीड़ित की पहचान उजागर करने वाला कोई भी विवरण नहीं दिया जा सकता, जैसे कि उसका नाम, पता और परिवार की जानकारी।
- नाबालिगों के साथ यौन दुर्व्यवहार के मामलों में अनिवार्य रिपोर्टिंग: धारा 19 से 22 ऐसे व्यक्तियों को, जिन्हें ऐसे अपराधों की जानकारी है या उचित संदेह है, संबंधित प्राधिकारियों को रिपोर्ट करने के लिये बाध्य करती है।
FTSC के समक्ष क्या चुनौतियाँ हैं?
- बुनियादी ढाँचे का अभाव: फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स प्रायः अपर्याप्त सुविधाओं के साथ कार्य करती हैं, जिसमें आधुनिक प्रौद्योगिकी जैसे आवश्यक संसाधनों और मुकदमों के भार को कुशलतापूर्वक निपटाने के लिये पर्याप्त स्थान का अभाव होता है।
- न्यायिक अधिभार: अपने उद्देश्य के बावजूद, फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स को प्रायः मामलों की अधिकता का सामना करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप विलंब देखने को मिलता है, जो त्वरित न्याय के उनके मूलभूत उद्देश्य के विपरीत है।
- असंगत कार्यान्वयन: फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स की स्थापना और कार्यप्रणाली विभिन्न राज्यों में भिन्न हो सकती है, जिसके परिणामस्वरूप न्याय तक असमान पहुँच और विधिक मानकों का असंगत अनुप्रयोग होता है।
- न्यायिक कार्मिकों की गुणवत्ता: न्यायाधीशों और सहायक कर्मचारियों की भर्ती और प्रशिक्षण सदैव फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं हो सकता है, जिससे न्यायिक निर्णय लेने की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
- सीमित सार्वजनिक जागरूकता: फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स के कार्यों और प्रक्रियाओं के संबंध में सामान्य जन में जागरूकता का अभाव है, जो उनकी प्रभावशीलता और पहुँच में बाधा उत्पन्न कर सकता है।
आगे की राह
- बुनियादी ढाँचे का विकास: न्यायालय के बुनियादी ढाँचे के आधुनिकीकरण और विस्तार में निवेश करना ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स मुकदमों के बोझ को संभालने में सक्षम हों।
- व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रम: न्यायाधीशों और सहायक कर्मचारियों के कौशल को बढ़ाने हेतु उनके लिये लक्षित प्रशिक्षण कार्यक्रम लागू करना, जिसमें आमतौर पर फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स द्वारा निपटाए जाने वाले मामलों की जटिलताओं पर ध्यान केंद्रित किया जाए, जैसे कि संवेदनशील मुद्दे।
- सुव्यवस्थित न्यायिक प्रक्रियाएँ: न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता को बनाए रखते हुए दक्षता सुनिश्चित करने के लिये स्पष्ट प्रक्रियात्मक दिशानिर्देश और सर्वोत्तम प्रथाओं की स्थापना करना, निष्पक्षता से समझौता किये बगैर त्वरित समाधान की सुविधा प्रदान करना।
- जन जागरूकता अभियान: फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स के कार्यों, प्रक्रियाओं और लाभों के बारे में जनता को शिक्षित करने के लिये पहल शुरू करना, जिससे न्यायिक प्रणाली में अधिक सामुदायिक सहभागिता और विश्वास को बढ़ावा मिले।
- विधायी सुधार: फास्ट-ट्रैक कोर्ट्स की विशिष्ट परिचालन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये मौज़ूदा कानूनों में संशोधन की वकालत करना, तथा यह सुनिश्चित करना कि प्रक्रियात्मक ढाँचे उनके उद्देश्यों के अनुरूप हों।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में फास्ट ट्रैक स्पेशल कोर्ट (FTSC) की भूमिका और प्रभावशीलता का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)मुख्य परीक्षा:Q. हाल के समय में भारत और यू.के. की न्यायिक व्यवस्थाएँ अभिसरणीय और अपसरणीय होती प्रतीत हो रही हैं। दोनों राष्ट्रों की न्यायिक कार्य प्रणालियों के आलोक में अभिसरण तथा अपसरण के मुख्य बिंदुओं को आलोकित कीजिये। (2020) Q. न्यायालयों के द्वारा विधायी शक्तियों के वितरण से संबंधित मुद्दों को सुलझाने से, 'परिसंघीय सर्वोच्चता का सिद्धांत' और 'समरस अर्थान्वयन' उभर कर आए हैं। स्पष्ट कीजिये। (2019) |
शासन व्यवस्था
राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा (NHA) अनुमान 2020-21 और 2021-22
प्रीलिम्स के लिये:राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा (NHA), कोविड-19 महामारी, आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय (OOPE), भारत के लिये राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा दिशानिर्देश, 2016, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (AB-PMJAY), राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग, पीएम राष्ट्रीय डायलिसिस कार्यक्रम, जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम (JSSK), राष्ट्रीय बाल स्वास्थ्य कार्यक्रम (RBSK) मुख्य परीक्षा के लिये:स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में सरकार द्वारा की गई विभिन्न पहल। |
स्रोत: पी.आई.बी
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने वित्त वर्ष 2020-21 और 2021-22 के लिये राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा (NHA) अनुमान जारी किये हैं।
- ये रिपोर्टें NHA शृंखला के आठवें और नौवें संस्करण हैं, जिनसे देश के स्वास्थ्य देखभाल व्यय का व्यापक अवलोकन मिलता है।
वर्ष 2020-21 और 2021-22 के लिये NHA अनुमानों के प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं?
- स्वास्थ्य में सरकारी व्यय (GHE) में वृद्धि: सकल घरेलू उत्पाद में GHE की हिस्सेदारी वर्ष 2014-15 के 1.13% से बढ़कर वर्ष 2021-22 में 1.84% हो गई।
- सामान्य सरकारी व्यय (GHE) में GHE की हिस्सेदारी वर्ष 2014-15 के 3.94% से बढ़कर वर्ष 2021-22 में 6.12% हो गई।
- यह वृद्धि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ाने के लिये सरकार की प्रतिबद्धता (विशेष रूप से कोविड-19 महामारी की प्रतिक्रिया में) को दर्शाती है।
- आउट-ऑफ-पॉकेट व्यय (OOPE) में गिरावट:
- वर्ष 2014-15 से वर्ष 2021-22 तक कुल स्वास्थ्य व्यय (THE) में OOPE की हिस्सेदारी 62.6% से घटकर 39.4% हो गई।
- यह कमी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यय को बढ़ाने और स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच में सुधार करने के सरकारी प्रयासों के कारण हुई है, जिससे व्यक्तियों पर वित्तीय दबाव कम हुआ है।
- कुल स्वास्थ्य व्यय (THE) में सरकार की हिस्सेदारी वर्ष 2014-15 के 29% से बढ़कर वर्ष 2021-22 में 48% हो गई।
- यह बदलाव सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर अधिक निर्भरता और नागरिकों पर कम वित्तीय बोझ का संकेत देता है।
- GHE में वृद्धि से स्वास्थ्य सेवा बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करने और व्यक्तियों के लिये वित्तीय सुरक्षा बढ़ाने के क्रम में सरकार की प्राथमिकता पर प्रकाश पड़ता है।
- कुल स्वास्थ्य व्यय (THE) में सरकारी स्वास्थ्य व्यय की हिस्सेदारी में वृद्धि: THE में सरकार की हिस्सेदारी वर्ष 2014-15 के 29% से बढ़कर वर्ष 2021-22 में 48% हो गई।
- इससे नागरिकों पर वित्तीय बोझ में कमी आई है।
- सरकारी स्वास्थ्य व्यय (GHE) में वृद्धि से चिकित्सा सेवाओं तक बेहतर पहुँच और व्यक्तियों के लिये वित्तीय सुरक्षा वृद्धि का संकेत मिलता है।
- कुल स्वास्थ्य व्यय:
- भारत का अनुमानित कुल स्वास्थ्य व्यय 7,39,327 करोड़ रुपए था, जो सकल घरेलू उत्पाद का 3.73% था, यह वर्ष 2020-21 में प्रति व्यक्ति व्यय 5,436 रुपए था।
- भारत का कुल स्वास्थ्य व्यय बढ़कर 9,04,461 करोड़ रुपए हो गया, जो सकल घरेलू उत्पाद का 3.83% है, जो वर्ष 2021-22 में प्रति व्यक्ति व्यय 6,602 रुपए था।
- स्वास्थ्य पर सामाजिक सुरक्षा व्यय (SSE) में वृद्धि: देश के स्वास्थ्य वित्तपोषण में सामाजिक सुरक्षा व्यय (SSE) में सकारात्मक रुझान रहा है।
- कुल स्वास्थ्य व्यय में SSE की हिस्सेदारी वर्ष 2014-15 में 5.7% से बढ़कर वर्ष 2021-22 में 8.7% हो गई।
- इसमें सरकारी वित्तपोषित स्वास्थ्य बीमा, सरकारी कर्मचारियों के लिये चिकित्सा प्रतिपूर्ति और सामाजिक स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम शामिल हैं।
- SSE में हुई वृद्धि से स्वास्थ्य देखभाल के लिये जेब से किये जाने वाले भुगतान में प्रत्यक्ष रूप से कमी आती है।
- एक मज़बूत सामाजिक सुरक्षा तंत्र आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच के दौरान वित्तीय कठिनाई और निर्धनता को रोकने में सहायक है।
- कुल स्वास्थ्य व्यय में SSE की हिस्सेदारी वर्ष 2014-15 में 5.7% से बढ़कर वर्ष 2021-22 में 8.7% हो गई।
- वर्तमान स्वास्थ्य व्यय का वितरण:
- वर्ष 2020-21 में चालू स्वास्थ्य व्यय (CHE) में केंद्र सरकार का हिस्सा 81,772 करोड़ रुपए (CHE का 12.33%) था, जिसमें राज्य सरकारों ने 1,38,944 करोड़ रुपए (CHE का 20.94%) का योगदान दिया।
- वर्ष 2021-22 तक केंद्र सरकार के CHE का हिस्सा बढ़कर 1,25,854 करोड़ रुपए (15.94%) हो गया, जिसमें राज्य का योगदान बढ़कर 1,71,952 करोड़ रुपए (21.77%) पहुँच गया।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा क्या हैं?
- NHA के अनुमान विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा वर्ष 2011 में स्थापित वैश्विक स्तर पर मान्यता प्राप्त स्वास्थ्य लेखा प्रणाली (SHA) ढाँचे पर आधारित हैं।
- यह ढाँचा स्वास्थ्य देखभाल व्यय पर नज़र रखने और रिपोर्ट करने के लिये एक मानकीकृत पद्धति प्रदान करके अंतर-देशीय तुलना की अनुमति देता है।
- NHA भारत की स्वास्थ्य प्रणाली में वित्तीय प्रवाह का विवरण देता है, तथा यह दर्शाता है कि किस प्रकार धन एकत्रित किया जाता है, स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में व्यय किया जाता है, तथा स्वास्थ्य सेवाओं के लिये उसका उपयोग किया जाता है।
- भारत का NHA अनुमान भारत के लिये राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा दिशानिर्देश, 2016 का अनुसरण करते हैं, जिसमें स्वास्थ्य देखभाल परिदृश्य में परिवर्तन को प्रतिबिंबित करने के लिये अद्यतन किये जाते हैं।
- NHA की कार्यप्रणाली और अनुमानों को भारतीय स्वास्थ्य प्रणाली की गतिशील प्रकृति और विकसित नीतियों/कार्यक्रमों के अनुरूप नियमित रूप से अद्यतन किया जाता है।
- डेटा उपलब्धता, आकलन पद्धतियों और हितधारक फीडबैक के संबंध में निरंतर सुधार किये जाते हैं।
स्वास्थ्य सेवा से संबंधित सरकार की पहल क्या हैं? |
निष्कर्ष
- वर्ष 2020-21 और वर्ष 2021-22 के लिये राष्ट्रीय स्वास्थ्य लेखा अनुमान भारत के स्वास्थ्य सेवा व्यय के रुझान और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सरकार के बढ़ते निवेश के बारे में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं।
- बढ़ते सरकारी स्वास्थ्य व्यय, कम होते जेब खर्च और बढ़ते सामाजिक सुरक्षा व्यय जैसे प्रमुख संकेतक एक लचीली और समावेशी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का संकेत देते हैं।
- ये अनुमान वित्तीय बाधाओं को कम करने, स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढाँचे में सुधार लाने तथा चल रहे सुधारों और मज़बूत वित्तीय समर्थन से सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज़ की दिशा में आगे बढ़ने के लिये सरकार की प्रतिबद्धता को उज़ागर करते हैं।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (NHM) के उद्देश्यों और प्रमुख घटकों पर चर्चा कीजिये। ग्रामीण और वंचित क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवा की पहुँच और परिणामों को बेहतर बनाने में इसकी प्रभावशीलता का मूल्यांकन कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रारंभिक परीक्षा:प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-से 'राष्ट्रीय पोषण मिशन (नेशनल न्यूट्रिशन मिशन)' के उद्देश्य हैं? (2017)
नीचे दिए गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (a) मुख्य परीक्षा:Q. लगातार उच्च विकास के बावजूद मानव विकास सूचकांक में भारत अभी भी सबसे कम अंकों के साथ है। उन मुद्दों की पहचान करें जो संतुलित और समावेशी विकास को सुनिश्चित करते हैं। (वर्ष 2019) |