अंतर्राष्ट्रीय संबंध
द बिग पिक्चर:इज़रायल-फिलिस्तीन संघर्ष
- 20 May 2021
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चर्चा में क्यों?
भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका और कई अन्य देशों ने इज़रायल और फिलिस्तीनी उग्रवादियों के बीच बढ़ते तनाव और हिंसा के मध्य शांति और संयम बरतने का आह्वान किया है।
- हिंसा शुरू होने के बाद हुए संघर्ष और हवाई हमलों में दर्जनों लोग मारे गए हैं, जिसमें इज़रायल में एक 30 वर्षीय भारतीय महिला भी शामिल है, जो गाजा से फिलिस्तीनी आतंकवादियों द्वारा रॉकेट हमले में मारी गई।
प्रमुख बिंदु:
- भारत का रुख: संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में भारत ने यरुशलम में झड़पों और हिंसा पर गहरी चिंता व्यक्त की और दोनों पक्षों से स्थिति को बदलने का आह्वान किया।
- संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि ने तत्काल शांति वार्ता फिर से शुरू करने और दो राज्यों के समाधान हेतु प्रतिबद्धता पर बल दिया।
- अमेरिका का पक्ष: अमेरिकी राष्ट्रपति ने कई लोगों की जान लेने वाली इस घातक हिंसा को समाप्त करने का भी आह्वान किया है।
- हालाँकि अमेरिका ने कहा कि अगर इज़रायल पर रॉकेटों से हमला किया जाता है तो उसे अपनी रक्षा करने का अधिकार है।
- अरब दुनिया की प्रतिक्रिया: ईरान, कतर और तुर्की पूरी तरह से फिलिस्तीन का समर्थन करते हैं और हमास का समर्थन कर रहे हैं।
इज़रायल-फिलिस्तीन
- विवाद: यह यरुशलम के प्रतीक और भूमि को लेकर सदियों पुराने संघर्ष से जुड़ा है।
- वर्ष 1948 के पहले अरब-इज़रायल युद्ध में इज़रायल ने शहर के पश्चिमी आधे हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया, और जॉर्डन ने पूर्वी हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया, जिस पर बाद में इज़रायल ने कब्जा कर लिया।
- तब से इज़रायल ने पूर्वी यरुशलम में बस्तियों का विस्तार किया है।
- फिलिस्तीनी पूर्वी यरुशलम को राजधानी बनाना चाहते हैं।
- इज़रायल पूरे शहर को अपनी "एकीकृत, शाश्वत राजधानी" के रूप में देखता है, जबकि फिलिस्तीनी नेतृत्व इस संबंध में किसी भी समझौते से इनकार करता है जब तक कि पूर्वी यरुशलम को भविष्य के फिलिस्तीनी राज्य की राजधानी के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है।
- फिलिस्तीनियों को पूर्वी यरुशलम के पास स्थित शेख जर्राह से बेदखल होने के खतरे का सामना करना पड़ रहा है।
- हाल ही में इज़रायली सशस्त्र बलों ने यरुशलम में ज़ायोनी राष्ट्रवादियों द्वारा वर्ष 1967 में शहर के पूर्वी हिस्से पर इज़रायल के कब्ज़ेको स्मरण करते हुए निकाले जाने वाले मार्च से पहले यरुशलम के हरम अस-शरीफ में अल-अक्सा मस्जिद पर हमला कर दियागया।
- अल अक्सा मस्जिद मक्का और मदीना के बाद इस्लाम का तीसरा सबसे पवित्र धर्मस्थल है।
- इसने पूरे क्षेत्र में इस्लाम के अनुयायियों में भय पैदा कर दिया और कट्टरपंथियों ने अल अक्सा मस्जिद की रक्षा हेतु आह्वान करना शुरू कर दिया।
- वर्ष 2021 की शुरुआत में पूर्वी यरुशलम के केंद्रीय न्यायालय ने यहूदी एजेंसियों के पक्ष में अपने निर्णय को बरकरार रखा, जिसमें न्यायालय ने चार फिलिस्तीनी परिवारों को शेख जर्राह से बेदखल होने के पक्ष में निर्णय दिया था।
- यह समस्या अभी भी अनसुलझी है जो गंभीर बनी हुई है।
- हिंसा का वर्तमान स्वरुप वर्ष 2014 के बाद से सबसे गंभीर है जिसमें फिलिस्तीनियों द्वारा रॉकेट-फायरिंग और जवाबी कार्रवाई में इज़रायलियों द्वारा किये गए हवाई हमले शामिल हैं।
- वर्ष 1948 के पहले अरब-इज़रायल युद्ध में इज़रायल ने शहर के पश्चिमी आधे हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया, और जॉर्डन ने पूर्वी हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया, जिस पर बाद में इज़रायल ने कब्जा कर लिया।
संघर्ष को भड़काने वाले कारक:
- फिलिस्तीन में हमास शासन: हमास वर्ष 1987 में खोजी गई मिस्र के मुस्लिम ब्रदरहुड की हिंसक शाखा है, जो हिंसक जिहाद के माध्यम से "फिलिस्तीन के हर इंच पर अल्लाह के झंडे को ऊपर उठाने" की मांग कर रहा है।
- हमास फिलिस्तीनियों का अधिक कट्टरपंथी गुट है जिसने अब जवाबी कार्रवाई शुरू कर दी है।
- फिलिस्तीन की तथाकथित राष्ट्रपति सत्ता न तो चुनाव करा रही है, न ही ठीक से काम कर रही है, हमास की तानाशाही और सीमाओं पर इज़रायल की घेराबंदी फिलीस्तीनियों को परेशान कर रही है।
- दोनों राज्यों में राजनीतिक अस्थिरता: दोनों पक्षों में नेतृत्व संरचनाओं में अक्षमता और ठहराव है, जिससे बहुत से समूह नियंत्रण से बाहर हो रहे हैं, जो हिंसा का सहारा ले रहे हैं।
- इसके अलावा पिछले दो वर्षों में इज़रायल में 4 चुनाव हुए हैं और वे सभी अनिर्णायक थे। इज़रायल के प्रधानमंत्री ने अपना पद बरकरार रखा है लेकिन केवल कार्यवाहक रूप में।
- विभाजित इज़रायल:
- अरब इज़रायली जो आबादी का सिर्फ 20% हैं, समान जातीयता के कारण फिलिस्तीनियों के साथ हैं।
- अरब इज़रायली और इज़रायल के दूर-दराज़ के समुदाय देश के अंदर गृहयुद्ध जैसी गतिविधियों में लिप्त हैं।
- फिलिस्तीनियों से संबंधित मुद्दे: फिलिस्तीनी लोगों की भावनाएँ भी बदल रही हैं, उनमें से अधिकांश का कहना है कि वे द्विराज्य समाधान नहीं चाहते हैं।
- यह भी तय नहीं है कि हमास फिलिस्तीनी राज्य या फतह पर शासन करेगा या इनमें से किसी पर भी नहीं करेगा।
- फिलीस्तीनी हमास और फतह के बीच एक दूरी रही है और वे दोनों अलग-अलग रास्तों पर आगे बढ़ रहे हैं जो कि अंतिम फिलिस्तीनी हार का मुख्य कारण है।
- संयुक्त फिलिस्तीन अरब दुनिया और अन्य देशों की मदद से अब जितना हासिल कर रहा है, उससे कहीं अधिक हासिल कर सकता था।
- वे भौगोलिक रूप से इज़रायली क्षेत्र से अलग हो गए हैं इसलिये यह अब एक व्यवहार्य राज्य नहीं है, साथ ही यहूदी हाथों में जाने वाली भूमि संबंधी मुद्दा फिलिस्तीनियों को और अधिक परेशान कर रहा है।
- यह भी तय नहीं है कि हमास फिलिस्तीनी राज्य या फतह पर शासन करेगा या इनमें से किसी पर भी नहीं करेगा।
- अमेरिका इस क्षेत्र में अपना महत्त्व खो रहा है: अमेरिका संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में फिलिस्तीनी कारणों से होने वाली बैठक को रोक रहा है और पूरी तरह से इज़रायल के बचाव के अधिकारों को मान्यता देता है।
- अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा यरुशलम को इज़रायल की वास्तविक राजधानी के रूप में मान्यता देना भी एक बड़ी समस्या बन गई।
- राष्ट्रपति जो बाइडेन के नेतृत्व में अमेरिका का इज़रायल के संबंध में अभी स्पष्ट रुख ज्ञात नहीं हुआ है, जबकि डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिका ने स्पष्ट रूप से इज़रायल का समर्थन किया था।
- हालाँकि अमेरिका में मौजूदा प्रशासन ने तटस्थ रहने की बात कही है, लेकिन उसने इस संघर्ष में ज़्यादा कूटनीतिक ऊर्जा का निवेश नहीं किया है।
आगे की राह:
- नेतृत्व में परिवर्तन: दोनों राज्यों की राजनीति में नेतृत्व और पीढ़ीगत परिवर्तन वास्तव में बहुत महत्त्वपूर्ण है।
- इज़रायल और फिलीस्तीनी दोनों प्रधानमंत्री काफी लंबे समय से सत्ता में हैं। क्योंकि सत्ता के लिये घरेलू अस्तित्व की राजनीति और अपने पद पर बने रहने की इच्छा इस क्षेत्र और उसके लोगों के व्यापक हित पर हावी है।
- नई पीढ़ी के आने से द्वि-राज्य के समाधान हेतु पुनर्विचार की उम्मीद है।
- साथ ही हमास को संयम में लाना बहुत आवश्यक है।
- अनुपातहीन प्रतिशोध को रोकना: दोनों राज्यों की एक निश्चित सीमा होनी चाहिये, जिस तक वे जवाबी कार्रवाई कर सकें, बल का अनुपातहीन उपयोग कोई समाधान नहीं है, यह केवल आतंकवाद और उग्रवाद पैदा करेगा।
- क्षेत्रीय शक्तियों की भूमिका: सऊदी अरब, कतर और संयुक्त अरब अमीरात जैसे क्षेत्रीय देशों के पास संभवतः अमेरिका की तुलना में शांति वार्ता हेतु बेहतर मार्ग उपलब्ध हैं। अमेरिका का इस क्षेत्र पर उतना नियंत्रण नहीं है, जितना पहले हुआ करता था।
- कतर और मिस्र पहले से ही शांति हेतु मिलकर काम कर रहे हैं।
- भारत की भूमिका: भारत का मानना है कि इस क्षेत्र में स्थिरता लाने और इस दशकों पुराने संघर्ष को समाप्त करने के लिये शांति वार्ता ही एकमात्र रास्ता है।
- भारत के दोनों राज्यों के साथ घनिष्ठ संबंध हैं और वह फिलिस्तीन का समर्थन करता है लेकिन एक को दूसरे के ऊपर चुनना बुद्धिमानी नहीं है।
- फिलिस्तीन चाहता है कि भारत वार्ताकार के रूप में कार्य करे क्योंकि उनका विश्वास अमेरिका, चीन या रूस पर ज्यादा नहीं है।
निष्कर्ष:
- धरातल पर स्थिति वास्तव में बहुत खराब है, तनाव बढ़ता जा रहा है और इसमें शामिल जटिल मुद्दों को देखते हुए यह समस्या निकट भविष्य में सुलझती नहीं दिख रही है।
- शांति वार्ता कम-से-कम 2 दशकों से हो रही है लेकिन यह व्यर्थ है। हालाँकि शांति वार्ता के लिये भारत का रुख अभी भी कायम है।
- दोनों पक्षों को एक संभावित समाधान पर पहुँचना होगा जो आपसी हित में हो लेकिन यह केवल बातचीत से हो सकता है, न कि रक्तपात से।