इन्फोग्राफिक्स
इन्फोग्राफिक्स
जैव विविधता और पर्यावरण
शहरीकरण और औद्योगीकरण से भूजल स्तर में कमी आना
प्रिलिम्स के लिये:केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB), भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD), PMKSY, जल शक्ति अभियान, अटल भूजल योजना (ABHY) मेन्स के लिये:राष्ट्रीय जलभृत मानचित्रण और प्रबंधन (NAQUIM) कार्यक्रम, भारत में भूजल की कमी के सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय परिणाम, शहरीकरण की भूमिका, भूजल पुनर्भरण के संदर्भ में सरकारी पहल, भूजल प्रबंधन संबंधी मुद्दे, टिकाऊ शहरी जल प्रबंधन के लिये रणनीतियाँ। |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
डिटेक्शन एंड सोसिओ-इकोनाॅमिक एट्रीब्यूशन ऑफ ग्राउंडवाॅटर डेप्लीशन इन इंडिया (Detection and Socio-Economic Attribution of Groundwater Depletion in India) शीर्षक से हाल ही में किये गए एक अध्ययन में पाँच भारतीय राज्यों में भूजल स्तर में आने वाली कमी में शहरीकरण और औद्योगीकरण की भूमिका पर प्रकाश डाला गया है।
इस अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?
- प्रभावित राज्य: इस अध्ययन में पाँच हॉटस्पॉट अर्थात् पंजाब और हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और केरल के लिये गंभीर चिंता व्यक्त की गई है:
- पंजाब और हरियाणा (हॉटस्पॉट I): यह सबसे अधिक प्रभावित हैं, जहाँ दो दशकों में 64.6 बिलियन क्यूबिक मीटर भूजल की क्षति हुई है।
- उत्तर प्रदेश (हॉटस्पॉट II): यहाँ सिंचाई की मांग में 8% की गिरावट आई है जबकि घरेलू और औद्योगिक उपयोग में 38% की वृद्धि होने के कारण भूजल में 4% की क्षति हुई है।
- पश्चिम बंगाल (हॉटस्पॉट III): यहाँ सिंचाई में न्यूनतम वृद्धि (0.09%) हुई है लेकिन अन्य उपयोगों में 24% की वृद्धि के कारण भूजल में 3% की कमी आई है।
- छत्तीसगढ़ (हॉटस्पॉट IV): यहाँ सभी क्षेत्रों में बढ़ते उपयोग के कारण भूजल स्तर में गिरावट आई है।
- केरल (हॉटस्पॉट V): यहाँ उच्च वर्षा के बावजूद भूजल में 17% की गिरावट आई है, जिसका कारण सिंचाई में 36% की गिरावट एवं अन्य उपयोगों में 34% की वृद्धि होना है।
प्राथमिक कारण:
- तीव्र शहरीकरण: वर्ष 2001 से 2011 के बीच इसमें 10 प्रतिशत की वृद्धि हुई तथा विशेष रूप से फरीदाबाद और गुड़गांव जैसे शहरी क्षेत्रों में (जो कृषि पर बहुत अधिक निर्भर नहीं हैं) होने वाले औद्योगीकरण से यहाँ वर्ष 2012 से भूजल स्तर में तीव्र गिरावट देखी गई।
- बढ़ती मांग: घरेलू और औद्योगिक जल उपभोग में वृद्धि के साथ ही वर्षा में कमी भी इसका कारण हैं।
नोट:
- शोधकर्त्ताओं ने वर्ष 2003 से 2020 के बीच केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB), भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) और ग्रेविटी रिकवरी एंड क्लाइमेट एक्सपेरिमेंट (GRACE) उपग्रह से प्राप्त डेटा का उपयोग किया।
शहरीकरण से भूजल स्तर में कमी को किस प्रकार बढ़ावा मिल रहा है?
- जल के प्राकृतिक पुनर्भरण में कमी: अभेद्य सतहों से वर्षा जल का भूमि में रिसाव सीमित हो जाता है, जिससे प्राकृतिक भूजल पुनर्भरण में बाधा उत्पन्न होती है।
- अत्यधिक निष्कर्षण: शहरों में सीमित वैकल्पिक स्रोतों के कारण अत्यधिक एवं अनियमित भूजल निष्कर्षण होता है।
- शहरी विस्तार के कारण जल की मांग बढ़ रही है और यह भूजल पर अत्यधिक निर्भर (विशेष रूप से जहाँ सतही जल दुर्लभ है) है।
- प्रदूषण: शहरी अपशिष्ट और अनुपचारित सीवेज से भूजल दूषित हो रहा है, जिससे स्वच्छ जल की उपलब्धता कम होने के साथ गहन जल स्रोतों से निकासी बढ़ जाती है।
- उच्च निष्कर्षण लागत: अत्यधिक उपयोग के कारण जल स्तर में कमी से पम्पिंग लागत बढ़ जाती है तथा सब्सिडी के कारण कभी-कभी अनियमित निष्कर्षण की समस्या और भी बढ़ जाती है।
भूजल स्तर में कमी के प्रमुख कारण क्या हैं?
- भूजल पर अत्यधिक निर्भरता: भारत में कुल जल उपयोग में से 80% सिंचाई के लिये उपयोग किया जाता है जिसमें भूजल की प्रमुख हिस्सेदारी है। जैसे-जैसे खाद्यान्न की मांग बढ़ रही है, सिंचाई के लिये भूजल का दोहन बढ़ने से भूजल कम हो रहा है।
- अकुशल जल प्रबंधन: अकुशल जल उपयोग, लीक पाइप तथा वर्षा जल को संग्रहित करने एवं संचय करने के लिये अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे से भूजल की कमी होती है।
- पारंपरिक जल संरक्षण विधियों में गिरावट: वर्षा जल संचयन, बावड़ी और चेक डैम जैसी पद्धतियों में गिरावट आई है, जिसके कारण भूजल पुनर्भरण के अवसर सीमित हो रहे हैं।
- जलवायु परिवर्तन: बढ़ते तापमान के साथ वर्षा के पैटर्न में बदलाव से भूजल भण्डारों की पुनर्भरण दर प्रभावित होने से उनके समाप्त होने की संभावना बढ़ रही है।
- वनों की कटाई जैसे कारक (जो मृदा अपरदन का कारण है) से भूमि में रिसने वाले जल की मात्रा में कमी आ सकती है जिससे भूजल भण्डारों के प्राकृतिक पुनर्भरण में कमी आ सकती है।
- जलवायु परिवर्तन की घटनाएँ जैसे सूखा, बाढ़ और बाधित मानसूनी मौसम से भारत के भूजल संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है।
भूजल में कमी के क्या प्रभाव हैं?
- फसल उत्पादन में कमी: भूजल स्तर में कमी के कारण सिंचाई सीमित होने से फसल उत्पादकता और खाद्य सुरक्षा प्रभावित होती है।
- शहरों में जल की कमी: शहरों में भूजल पर निर्भरता बढ़ती जा रही है तथा भूजल की कमी के कारण इसकी लागत बढ़ने के साथ जल की उपलब्धता कम हो रही है और नगरपालिका सेवाओं पर दबाव बढ़ रहा है।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य जोखिम: भारत में विश्व की 18% जनसंख्या है लेकिन विश्व के मीठे जल संसाधनों का केवल 4% ही भारत में उपलब्ध है।
- अत्यधिक उपयोग और संदूषण से जल की गुणवत्ता में गिरावट के कारण जलजनित रोगों के साथ भारी धातुओं के संपर्क में आने की संभावना बढ़ जाती है।
- पारिस्थितिकी तंत्र की क्षति: जल स्तर में गिरावट से आर्द्रभूमि, वन और जलीय पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होते हैं जिससे जैवविविधता बाधित होती है।
- सूखे का खतरा बढ़ना: भूजल की कमी से सूखे के प्रति सहनशीलता कम हो जाती है जिसकी जलवायु परिवर्तन के साथ और अधिक बढ़ने की संभावना रहती है।
सतत् भूजल प्रबंधन हेतु भारत की पहल?
भारत में भूजल प्रबंधन में क्या चुनौतियाँ हैं?
- अतिदोहन: हरित क्रांति से खाद्य सुरक्षा के क्रम में भूजल के उपभोग को बढ़ावा मिला है, जिसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर बोरवेल को बढ़ावा मिला।
- केंद्रीय भूजल बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार 17% ब्लॉकों में अत्यधिक दोहन हो चुका है तथा उत्तर-पश्चिमी, पश्चिमी और दक्षिणी भारत में जल की काफी कमी हुई है।
- जलवायु प्रेरित चुनौतियाँ: अनियमित वर्षा और बढ़ते प्रदूषण से जल संकट को और भी बढ़ावा मिला है।
- भूजल से ग्रामीण घरेलू जल के 85%, शहरी जल के 45% तथा कृषि सिंचाई के 60% से अधिक की पूर्ति होती है, जिससे अनेक क्षेत्र प्रभावित होते हैं।
- कमज़ोर विनियामक ढाँचा: वर्तमान में विनियमन के तहत केवल 14% अतिदोहित ब्लॉकों को ही कवर किया गया है जिससे अनियंत्रित भूजल निष्कर्षण होता है।
- जल की कमी के प्रारंभिक चरणों में स्थानीय विनियामक प्रवर्तन के अभाव से जल की कमी को बढ़ावा मिलता है।
- सामुदायिक भागीदारी और संस्थागत कमज़ोरियाँ:
- सहभागी भूजल प्रबंधन (PGM) से कुछ क्षेत्रों में समुदायों को सशक्त बनाया गया है लेकिन कमजोर संस्थाओं और आपूर्ति विफलताओं के कारण यह सफलता सीमित हो जाती है।
- अनौपचारिक भूजल समितियाँ अक्सर परियोजना के पूरा होने के बाद निष्क्रिय हो जाती हैं जिससे दीर्घकालिक रूप से स्थायित्व का अभाव हो जाता है।
- सब्सिडी और उपयोग:
- जल पम्पिंग के लिये सब्सिडी वाली विद्युत से अत्यधिक भूजल निष्कर्षण को बढ़ावा मिलता है जिससे भूजल में तेज़ी से कमी आती है।
- औद्योगिक और घरेलू उपयोग में 34% की वृद्धि हुई है जबकि सिंचाई से संबंधित भूजल की मांग में 36% की गिरावट आई है।
सतत् भूजल प्रबंधन के लिये रणनीतियाँ क्या हैं?
- मांग और आपूर्ति को संबोधित करना:
- आपूर्ति पक्ष: जलग्रहण प्रबंधन और जलभृत पुनर्भरण जैसी पहल महत्त्वपूर्ण हैं, लेकिन इसके लिये पूरक मांग पक्ष उपायों की आवश्यकता है।
- मांग पक्ष: जल-कुशल सिंचाई (जैसे, ड्रिप प्रणाली) को बढ़ावा देना तथा कम जल-प्रधान फसलों को प्रोत्साहित करना, भूजल संसाधनों पर दबाव को कम कर सकता है।
- सामुदायिक भागीदारी:
- शासन में समुदाय की बढ़ी हुई भागीदारी से स्थिरता में सुधार होता है, जैसा कि परिभाषित जलभृतों (Aquifer) वाले क्षेत्रों में PGM दृष्टिकोण से पता चलता है।
- प्रभावी प्रबंधन के लिये स्थानीय संस्थाओं को सशक्त बनाना और सामुदायिक स्तर पर क्षमता विकास को समर्थन देना आवश्यक है।
- विनियामक संवर्द्धन:
- ब्लॉकों के अतिदोहित चरण तक पहुँचने से पहले स्थानीय स्तर पर व्यापक विनियामक उपाय करने से आगे की कमी को रोका जा सकता है।
- सतत् भूजल प्रबंधन के लिये जल उपयोगकर्त्ता संघों (WUAs) जैसी संस्थाओं की दीर्घकालिक व्यवहार्यता महत्त्वपूर्ण है।
- क्रॉस सेक्टोरल सुधार:
- भूजल के अत्यधिक दोहन के लिये प्रोत्साहन को कम करने वाले क्रॉस सेक्टोरल सुधार, जैसे कि बिजली सब्सिडी में संशोधन, सतत् उपयोग के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
- जलवायु-अनुकूल कृषि के लिये समर्थन को पुनःप्रयोजनित करना तथा ऊर्जा नीतियों को जल संरक्षण उद्देश्यों के साथ संरेखित करना संसाधनों के सतत् उपयोग में सहायक हो सकता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत के भूजल संसाधनों पर शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के प्रभाव का विश्लेषण कीजिये तथा उन राज्यों को चिह्नित कीजिये जहाँ भूजल में उल्लेखनीय कमी आई है। संबंधित चुनौतियों पर चर्चा कीजिये और शमन के उपाय प्रस्तावित कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सQ.1 निम्नलिखित में से कौन-सा प्राचीन नगर अपने उन्नत जल संचयन और प्रबंधन प्रणाली के लिये सुप्रसिद्ध है, जहाँ बाँधों की शृंखला का निर्माण किया गया था और संबद्ध जलाशयों में नहर के माध्यम से जल को प्रवाहित किया जाता है? (2021) (a) धौलावीरा उत्तर: (a) प्रश्न 2. 'वाटरक्रेडिट' के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (c) मेन्स:प्रश्न 1. जल संरक्षण एवं जल सुरक्षा हेतु भारत सरकार द्वारा प्रवर्तित जल शक्ति अभियान की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? (2020) प्रश्न 2. रिक्तीकरण परिदृश्य में विवेकी जल उपयोग के लिये जल भंडारण और सिंचाई प्रणाली में सुधार के उपायों को सुझाइये। (2020) |
भारतीय राजनीति
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यूपी मदरसा अधिनियम, 2004 को मान्यता
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT), अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 15, शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009, अनुच्छेद 21A, अरुणा रॉय बनाम भारत संघ 2002, अनुच्छेद 28, लोकतंत्र, संघवाद, पंथनिरपेक्षता, राज्य विधानमंडल, समवर्ती सूची, अनुच्छेद 30। मेन्स के लिये:पंथनिरपेक्ष लोकतंत्र में अल्पसंख्यक अधिकारों एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के बीच संतुलन। |
स्रोत: बिज़नेस स्टैण्डर्ड
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 की संवैधानिक वैधता को आंशिक रूप से मान्यता दी तथा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले के विपरीत दृष्टिकोण रखा, जिसमें इसे असंवैधानिक घोषित किया गया था।
- हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च शिक्षा (कामिल और फाज़िल) से संबंधित प्रावधानों को असंवैधानिक घोषित कर दिया क्योंकि वे विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम (UGC अधिनियम) 1956 के अनुरूप नहीं हैं, जो सूची 1 की प्रविष्टि 66 द्वारा शासित है।
सर्वोच्च न्यायालय ने यूपी मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 को मान्यता क्यों दी है?
- संवैधानिक वैधता: मदरसा अधिनियम, 2004 शिक्षा के मानकों को प्रभावी ढंग से विनियमित करने पर केंद्रित है, जो राज्य के दायित्व के अनुरूप है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि समाज में छात्र सक्रिय रूप से भाग लेने के लिये योग्य हो सकें।
- विधायी आधार: सर्वोच्च न्यायालय ने पुष्टि की कि मदरसा अधिनियम राज्य विधानमंडल की विधायी क्षमता (विशेष रूप से संविधान की समवर्ती सूची के तहत प्राप्त अधिकार) के अनुरूप है।
- धार्मिक शिक्षा बनाम धार्मिक निर्देश: न्यायालय ने धार्मिक शिक्षा और धार्मिक निर्देश के बीच अंतर स्पष्ट किया।
- अरुणा रॉय बनाम भारत संघ, 2002 में न्यायालय ने सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने वाली धार्मिक शिक्षा को स्वीकार्य बताया जबकि अनिवार्य पूजा जैसी धार्मिक शिक्षा अनुच्छेद 28 के तहत राज्य-मान्यता प्राप्त संस्थानों में निषिद्ध है।
- मूल ढाँचा के प्रति संरक्षा: किसी विधि की संवैधानिक वैधता को संविधान के मूल ढाँचे के उल्लंघन के रूप में चुनौती नहीं दी जा सकती (इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण केस, 1975 )। पंथनिरपेक्षता से संबंधित संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन होने पर विधि को असंवैधानिक घोषित किया जाएगा।
- लोकतंत्र, संघवाद और पंथनिरपेक्षता जैसी अपरिभाषित अवधारणाओं का उल्लंघन करने वाले कानूनों को रद्द करने के संदर्भ में न्यायालयों को अधिकार देने से संवैधानिक न्यायनिर्णयन में अनिश्चितता पैदा होती है।
- राज्य विनियमन: न्यायालय ने कहा कि राज्य सरकार अधिनियम के तहत नियम बना सकती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि मदरसे पंथनिरपेक्षता का उल्लंघन किये बिना धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ पंथनिरपेक्ष शिक्षा दे सकें।
- अल्पसंख्यक अधिकार और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा: राज्य को यह सुनिश्चित करने के लिये उपयुक्त निर्देश देने चाहिये कि मदरसों में पढ़ने वाले छात्र राज्य द्वारा अन्य संस्थानों में उपलब्ध कराई जाने वाली गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित न हों।
- अल्पसंख्यक अधिकार: इस अधिनियम को बरकरार रखते हुए न्यायालय ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने के धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार को मज़बूत किया है।
- समावेशिता पर बल देना: मदरसा के छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त हो सके, यह सुनिश्चित करने के लिये न्यायालय का निर्देश राज्य के व्यापक शैक्षिक ढाँचे के तहत मदरसा शिक्षा के एकीकरण को महत्त्व देने पर केंद्रित है।
इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण मामला, 1975
- सर्वोच्च न्यायालय ने पहली बार मूल ढाँचे के सिद्धांत का प्रयोग राज नारायण मामले, 1975 में एक संवैधानिक संशोधन को रद्द करने के लिये किया था।
- राज नारायण पीठ के न्यायाधीशों ने साधारण कानून और संविधान संशोधन के बीच अंतर किया था।
- संवैधानिक संशोधनों का परीक्षण मूल ढाँचे के सिद्धांत के आधार पर किया जाता है, न कि साधारण कानून का।
- तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे ने कहा कि किसी कानून की वैधता के परीक्षण के लिये मूल ढाँचे के सिद्धांत को लागू करना “संविधान को फिर से लिखने” के समान होगा।
- अन्य न्यायाधीशों ने पाया कि मूल ढाँचा की अवधारणा "अत्यंत अस्पष्ट और अनिश्चित है, जिससे किसी साधारण कानून की वैधता निर्धारित करने का कोई पैमाना नहीं बनता है।
- न्यायालय ने कहा था कि संविधान संशोधन और सामान्य कानून अलग-अलग क्षेत्रों में कार्य करते हैं और यह अलग-अलग सीमाओं के अधीन हैं।
- नोट: न्यायालय ने इस बात पर बल देते हुए, कि अल्पसंख्यकों को संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत धार्मिक या पंथनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान करने के लिये शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना एवं प्रशासन का मौलिक अधिकार है, कहा कि यह अधिकार “पूर्ण नहीं” है।
उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 क्या है?
- परिचय: इसका उद्देश्य उत्तर प्रदेश राज्य में मदरसा शिक्षा को विनियमित करने के साथ औपचारिक बनाना है।
- इससे यह सुनिश्चित हुआ कि मदरसे निर्धारित शैक्षिक मानकों और मानदंडों के अंतर्गत संचालित हों।
- मदरसा शिक्षा: इसका उद्देश्य राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) द्वारा निर्धारित पंथनिरपेक्ष पाठ्यक्रम के साथ-साथ धार्मिक शिक्षा को एकीकृत करना था तथा औपचारिक शिक्षा को इस्लामी शिक्षाओं के साथ मिश्रित करना था।
- मदरसा शिक्षा बोर्ड: इस अधिनियम के तहत उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड का गठन किया गया, जिसे राज्य में मदरसा शिक्षा की देखरेख एवं विनियमन का कार्य सौंपा गया।
- परीक्षा: इसमें मदरसा के छात्रों के लिये परीक्षा आयोजित करने का प्रावधान है, जिसमें 'मौलवी' स्तर (कक्षा 10 के समकक्ष) से लेकर 'फाज़िल' स्तर तक के पाठ्यक्रम शामिल हैं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 को असंवैधानिक क्यों घोषित किया?
- पंथ निरपेक्षता: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पाया कि मदरसा अधिनियम, 2004 सभी स्तरों पर इस्लामी शिक्षा को अनिवार्य बनाकर पंथ निरपेक्षता का उल्लंघन करता है, जबकि आधुनिक विषयों को वैकल्पिक या अनुपस्थित रखा गया है।
- सरकार को पंथ निरपेक्ष शिक्षा की अवधारणा को अपनाना चाहिये तथा आधुनिक शिक्षा पर धर्म-आधारित शिक्षा को प्राथमिकता नहीं देनी चाहिये।
- मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: शिक्षा का अधिकार (अनुच्छेद 21A): इस अधिनियम ने अनुच्छेद 21A का उल्लंघन किया, जो 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करता है। न्यायालय ने इस दावे को असंवैधानिक घोषित कर दिया है कि नाममात्र शुल्क के साथ पारंपरिक शिक्षा संवैधानिक दायित्वों को पूरा करती है।
- यह अधिनियम मदरसा और मुख्यधारा के स्कूली छात्रों के बीच भेदभाव उत्पन्न कर अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।
- यह अधिनियम मदरसा छात्रों के लिये पृथक एवं असमान शिक्षा प्रणाली स्थापित करके अनुच्छेद 15 का उल्लंघन करता है।
- केंद्रीय कानून के साथ असंगत: न्यायालय ने पाया कि मदरसा अधिनियम, 2004 विश्वविद्यालय अनुदान आयोग अधिनियम, 1956 (UGC अधिनियम) के साथ असंगत है।
- केवल UGC अधिनियम, 1956 के तहत विश्वविद्यालयों या मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय संस्थाओं को ही डिग्री प्रदान करने का अधिकार है।
धार्मिक स्वतंत्रता से संबंधित संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 25: यह अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म की अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 26: यह धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता देता है।
- अनुच्छेद 27: यह किसी विशेष धर्म के प्रचार हेतु करों के भुगतान की स्वतंत्रता प्रदान करता है।
- अनुच्छेद 28: यह कुछ शैक्षणिक संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक पूजा में उपस्थिति के संबंध में स्वतंत्रता देता है।
उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के क्या निहितार्थ हैं?
- शिक्षा मानकों का विनियमन: गुणवत्ता बनाए रखने के लिये शिक्षा मानकों को निर्धारित करने में राज्य की भूमिका को सुदृढ़ करता है।
- अल्पसंख्यक अधिकारों का संरक्षण: यह विधेयक धार्मिक अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने के अधिकारों की पुष्टि करता है, बशर्ते वे शैक्षिक मानकों का पालन करता हो।
- गुणवत्तापूर्ण शिक्षा: संविधान के अनुच्छेद 21A के अनुसार सभी बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त हो, यह सुनिश्चित करने के लिये राज्य के दायित्व को सुदृढ़ करता है।
- समावेशिता: व्यापक शैक्षिक ढाँचे में मदरसों के एकीकरण का समर्थन करता है।
निष्कर्ष:
उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 को बरकरार रखने का सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय धार्मिक शिक्षा और धर्मनिरपेक्ष मानकों के बीच संतुलन पर जोर देता है। अल्पसंख्यक अधिकारों की पुष्टि करते हुए, यह शिक्षा को विनियमित करने के लिये राज्य के अधिकार को मज़बूत करता है। यह निर्णय देश भर में धार्मिक शिक्षा के विनियमन को प्रभावित कर सकता है, जिससे समावेशिता और गुणवत्ता सुनिश्चित हो सकती है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा बोर्ड अधिनियम, 2004 पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के निहितार्थों का, विशेष रूप से अल्पसंख्यक अधिकारों और धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान करने की राज्य की जिम्मेदारी के संबंध में, परीक्षण कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)प्रिलिम्स:प्रश्न: 26 जनवरी, 1950 को भारत की वास्तविक सांविधानिक स्थिति क्या थी? (2021) (a) लोकतंत्रात्मक गणराज्य उत्तर: (b) प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (d) मेन्सप्रश्न: धर्मनिरपेक्षता के नाम पर हमारी सांस्कृतिक प्रथाओं के सामने क्या-क्या चुनौतियाँ हैं? (2019) प्रश्न: धर्मनिरपेक्षतावाद की भारतीय संकल्पना, धर्मनिरपेक्षतावाद के पाश्चात्य मॉडल से किन-किन बातों में भिन्न है? चर्चा कीजिये। (2018) प्रश्न: स्वतंत्र भारत में धार्मिकता किस प्रकार सांप्रदायिकता में रूपांतरित हो गई, इसका एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए धार्मिकता एवं सांप्रदायिकता के मध्य विभेदन कीजिये। (2017) |
कृषि
खरीफ फसल उत्पादन के लिये पहला अग्रिम अनुमान
प्रिलिम्स के लिये:खरीफ फसल, डिजिटल फसल सर्वेक्षण, डिजिटल कृषि मिशन (DAM), गिरदावरी पद्धति, सकल घरेलू उत्पाद, डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना मेन्स के लिये:भारत की खाद्य सुरक्षा और किसानों की सहायता में ई-प्रौद्योगिकी |
स्रोत: पी.आई.बी.
चर्चा में क्यों?
कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने हाल ही में वर्ष 2024-25 के लिये खरीफ फसल उत्पादन के पहले अग्रिम अनुमान की घोषणा की है, जिसमें खाद्यान्न और तिलहन में रिकॉर्ड तोड़ उत्पादन का खुलासा किया गया है।
- रिपोर्ट में कृषि नियोजन में सरकार द्वारा प्रौद्योगिकी और हितधारकों के इनपुट के बढ़ते उपयोग को दर्शाया गया है तथा उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि को रेखांकित किया गया है, विशेष रूप से चावल और मक्का जैसी प्रमुख फसलों में।
खरीफ फसल उत्पादन के प्रथम अग्रिम अनुमान की मुख्य बातें क्या हैं?
- डिजिटल फसल सर्वेक्षण (Digital Crop Survey- DCS): पहली बार, डिजिटल कृषि मिशन (Digital Agriculture Mission- DAM) के तहत DCS का उपयोग फसल क्षेत्रों का अनुमान लगाने के लिये किया गया, जिसने चार राज्यों (उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और ओडिशा) में मैनुअल गिरदावरी पद्धति को प्रतिस्थापित किया।
- रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन: 2024-25 के लिये कुल खरीफ खाद्यान्न उत्पादन 1647.05 लाख मीट्रिक टन (LMT) होने का अनुमान है, जो वर्ष 2023-24 की तुलना में 89.37 LMT अधिक है और चावल, ज्वार एवं मक्का के अच्छे उत्पादन के कारण औसत खरीफ खाद्यान्न उत्पादन से 124.59 LMT अधिक है।
फसलवार अनुमान:
- आशय:
- खाद्य सुरक्षा: आवश्यक फसलों का प्रबल उत्पादन घरेलू खपत और संभावित निर्यात के लिये निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित करके भारत की खाद्य सुरक्षा को सुदृढ़ करता है।
- आर्थिक प्रभाव: उच्च पैदावार से ग्रामीण आय को समर्थन, कीमतों को स्थिर करने और कृषि सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में योगदान को बढ़ावा देकर अर्थव्यवस्था को लाभ हो सकता है।
- नीति नियोजन: डेटा-समर्थित अनुमान नीति निर्माताओं को प्रभावी सहायता कार्यक्रम और आपूर्ति शृंखला रणनीतियों को डिज़ाइन करने में सहायता करते हैं।
टिप्पणी:
- गिरदावरी एक फसल कटाई निरीक्षण है, जो पटवारी द्वारा फसल की उपज, गुणवत्ता और भूमि की स्थिति में परिवर्तन का आकलन करने के लिये किया जाता है। रबी और खरीफ फसलों के लिये वर्ष में दो बार और फलों और सब्जियों के लिये दो बार से अधिक आयोजित किया जाता है और इसे ज़ायद रबी और ज़ायद खरीफ कहा जाता है।
- इसमें भूमि अधिकारों, फसल की स्थिति, मृदा के प्रकार में परिवर्तन तथा खसरा गिरदावरी (गाँव के मानचित्र) में आवश्यक अद्यतनों का रिकॉर्ड रखा जाता है।
डिजिटल कृषि मिशन क्या है?
- परिचय: DAM का उद्देश्य डिजिटल नवाचार और प्रौद्योगिकी-संचालित समाधानों के माध्यम से कृषि क्षेत्र को बदलना है। इस मिशन के लिये 2,817 करोड़ रुपए का बजट आवंटन किया गया है और इसे कृषि को अधिक कुशल, पारदर्शी और सुलभ बनाने के लिये डेटा, डिजिटल उपकरण और प्रौद्योगिकी को एकीकृत करके कृषि को आधुनिक बनाने के लिये संरचित किया गया है।
- DAM के घटक:
- एग्रीस्टैक: किसानों पर केंद्रित एक व्यापक डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना (DPI)।
- एग्रीस्टैक में शामिल हैं: किसानों की रजिस्ट्री (जिसमें आधार के समान किसानों की आईडी शामिल है), और भू-संदर्भित ग्राम मानचित्र (कृषि भूमि का सटीक मानचित्रण), और बोई गई फसल रजिस्ट्री (कौन सी फसलें लगाई गई हैं और उनके स्थानों का डेटाबेस)।
- एग्रीस्टैक का उद्देश्य सरकारी सेवाओं को सुव्यवस्थित करना, कागज़ी कार्यवाही को कम करना और किसानों के लिये लाभ प्राप्त करने की प्रक्रिया को सरल बनाना है।
- किसान पहचान-पत्र और DCS के निर्माण का परीक्षण करने के लिये छह राज्यों में पायलट परियोजनाएँ संचालित की गई हैं।
- इन छह राज्यों में उत्तर प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र, हरियाणा, पंजाब और तमिलनाडु शामिल हैं।
- प्रमुख लक्ष्यों में शामिल हैं: तीन वर्षों में 11 करोड़ किसानों के लिये डिजिटल पहचान बनाना (वित्त वर्ष 2024-25 में 6 करोड़, वित्त वर्ष 2025-26 में 3 करोड़ और वित्त वर्ष 2026-27 में 2 करोड़)
- दो वर्षों के भीतर DCS को देश भर में लॉन्च किया जाएगा, वित्त वर्ष 2024-25 में 400 ज़िलों को तथा वित्त वर्ष 2025-26 में सभी ज़िलों को कवर किया जाएगा
- कृषि निर्णय सहायता प्रणाली (DSS): एक भू-स्थानिक प्रणाली जो मृदा, मौसम, जल और फसलों पर रिमोट सेंसिंग डेटा को जोड़ती है। यह प्रणाली किसानों को सूचित निर्णय लेने में सहायता करने के लिये वास्तविक समय, डेटा-संचालित अंतर्दृष्टि प्रदान करती है।
- मृदा प्रोफाइल मानचित्रण: मृदा स्वास्थ्य की समझ को बेहतर बनाने और सतत् कृषि को समर्थन देने के लिये कृषि भूमि के लिये उच्च-रिज़ॉल्यूशन वाले मृदा मानचित्र बनाए जाएंगे।
- डिजिटल सामान्य फसल अनुमान सर्वेक्षण (DGCES): फसल उपज अनुमानों की सटीकता बढ़ाने, उत्पादकता और नीति नियोजन का समर्थन करने के लिये प्रौद्योगिकी का उपयोग करता है।
- लाभ:
- बढ़ी हुई पारदर्शिता: सटीक डेटा फसल बीमा, ऋण और सरकारी योजनाओं के लिये अधिक कुशल और पारदर्शी प्रसंस्करण को सक्षम बनाता है।
- आपदा प्रतिक्रिया: बेहतर फसल मानचित्र प्राकृतिक आपदाओं के दौरान तेजी से प्रतिक्रिया करने, आपदा राहत और बीमा दावों में सहायता करने में सहायक होंगे।
- लक्षित समर्थन: डिजिटल बुनियादी ढाँचे के साथ, किसान अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप वास्तविक समय पर सलाह, कीट प्रबंधन मार्गदर्शन और सिंचाई सलाह प्राप्त कर सकते हैं।
- रोज़गार के अवसर: इस मिशन से कृषि क्षेत्र में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रोज़गार सृजित होने की उम्मीद है, जिससे लगभग 2,50,000 प्रशिक्षित स्थानीय युवाओं को सहायता मिलेगी।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: विशेष रूप से खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आय के संदर्भ में भारत में खाद्यान्न उत्पादन के आर्थिक निहितार्थों का विश्लेषण कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)प्रिलिम्स: प्रश्न: निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2023)
उपर्युक्त कथनों में से कितने सही हैं? (a) केवल एक (b) केवल दो (c) सभी तीन (d) कोई भी नहीं उत्तर: C मेन्स:Q. विज्ञान हमारे जीवन में गहराई तक कैसे गुथा हुआ है? विज्ञान आधारित प्रौद्योगिकियों द्वारा कृषि में उत्पन्न हुए महत्त्वपूर्ण परिवर्तन क्या हैं? (2020) |
जैव विविधता और पर्यावरण
वर्ल्ड सिटीज़ रिपोर्ट 2024
प्रिलिम्स के लिये:यूएन-हैबिटेट, आर्द्र जलवायु, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, चक्रवात, ग्रीन जेंट्रीफिकेशन, संयुक्त राष्ट्र महासभा, शहरीकरण, असमानता, मीथेन, लैंडफिल, शहरी ऊष्मा द्वीप प्रभाव, इलेक्ट्रिक वाहन, ग्रीन रूफ, शहरी वन, शहरी नियोजन, ग्रीन बॉण्ड। मेन्स के लिये:ग्लोबल वार्मिंग में शहरों का योगदान। ग्लोबल वार्मिंग से निपटने में शहरों की भूमिका। |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
हाल ही में यूएन-हैबिटेट ने वर्ल्ड सिटीज़ रिपोर्ट 2024: सिटीज़ एंड क्लाइमेट एक्शन जारी की है।
- इस रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि ये शहर ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सबसे बड़े योगदानकर्त्ताओं में से हैं और इन पर जलवायु परिवर्तन के अत्यधिक गंभीर प्रभावों में असंगतता है।
वर्ल्ड सिटीज़ रिपोर्ट, 2024 के प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं?
- तापमान में वृद्धि: वर्ष 2040 तक शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लगभग दो अरब लोगों को तापमान में 0.5°C की वृद्धि का अनुभव होगा।
- 14% शहरों के शुष्क जलवायु में परिवर्तित होने की उम्मीद है जबकि कम से कम 900 शहर अधिक आर्द्र जलवायु (विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय जलवायु क्षेत्र) में परिवर्तित हो सकते हैं।
- समुद्र के जल स्तर में वृद्धि: वर्ष 2040 तक निचले तटीय क्षेत्रों में स्थित 2,000 से अधिक शहरों (जिनमें से अधिकतर समुद्र के जल स्तर से 5 मीटर से भी कम ऊँचाई पर होंगे) के 1.4 बिलियन से अधिक लोगों को समुद्र-स्तर में वृद्धि के साथ तूफानी लहरों के कारण उच्च जोखिम का सामना करना पड़ेगा।
- असंगत प्रभाव: शहरी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन से असंगत रूप से प्रभावित होते हैं लेकिन ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भी यह प्रमुख योगदान देते हैं, जिससे ये बाढ़ और चक्रवात जैसे जलवायु उतार-चढ़ाव के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाते हैं।
- निवेश की कमी: जलवायु-अनुकूल प्रणालियाँ विकसित करने के लिये, शहरों को प्रति वर्ष अनुमानित 4.5 से 5.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर की आवश्यकता होती है। हालाँकि वर्तमान वित्तपोषण केवल 831 बिलियन अमेरिकी डॉलर है, जो कि वित्तपोषण की कमी को दर्शाता है।
- नदीय बाढ़: शहरों में बाढ़ का जोखिम काफी बढ़ गया है, वर्ष 1975 के बाद से ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में यह 3.5 गुना तेज़ी से बढ़ा है।
- वर्ष 2030 तक शहरों में 517 मिलियन लोग नदी की बाढ़ से प्रभावित होंगे।
- हरित स्थानों में गिरावट: शहरी हरित स्थानों में उल्लेखनीय गिरावट आई है, जो वर्ष 1990 के 19.5% से घटकर वर्ष 2020 में 13.9% रह गए हैं, जिससे शहरों में पर्यावरणीय एवं सामाजिक दोनों तरह की चुनौतियाँ पैदा हो रही हैं।
- भेद्यता में वृद्धि: अनौपचारिक बस्तियाँ (झुग्गी-झोपड़ियाँ) भेद्यता की प्रमुख चालक हैं क्योंकि ये अक्सर बाढ़-प्रवण, निचले इलाकों या अनिश्चित क्षेत्रों में स्थित होती हैं।
- सुरक्षात्मक बुनियादी ढाँचे की कमी के कारण ये जलवायु प्रभावों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं।
- ग्रीन जेंट्रीफिकेशन: कुछ जलवायु हस्तक्षेपों (जैसे पार्कों के निर्माण) के परिणामस्वरूप ग्रीन जेंट्रीफिकेशन से वंचित समुदायों को विस्थापित होना पड़ा है।
- जेंट्रीफिकेशन का आशय है कि कम आय वाले क्षेत्र में धनी निवासियों और व्यवसायों के आगमन के कारण परिवर्तन होता है, जिसके परिणामस्वरूप संपत्ति के मूल्य एवं किराए में वृद्धि होती है।
यूएन-हैबिटेट
- अधिदेश: संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा स्थापित यूएन-हैबिटैट सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टि से धारणीय शहरी विकास को बढ़ावा देने पर बल देता है।
- वैश्विक फोकल प्वाइंट: यह शहरीकरण और मानव बस्ती संबंधी मुद्दों के लिये संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के तहत प्रमुख एजेंसी के रूप में कार्य करता है।
- मुख्य मिशन: इसका उद्देश्य समावेशी, सुरक्षित, लचीले और टिकाऊ शहरों एवं समुदायों का निर्माण करना तथा असमानता, भेदभाव और गरीबी को कम करना है।
- वैश्विक उपस्थिति: यह ज्ञान साझाकरण, नीतिगत सलाह और तकनीकी सहायता के माध्यम से शहरी क्षेत्रों में परिवर्तनकारी बदलाव को बढ़ावा देने के लिये 90 से अधिक देशों में कार्यरत है।
- रणनीतिक दृष्टिकोण (2020-2023 योजना): 21वीं सदी की शहरी चुनौतियों से निपटने के लिये एक समग्र एवं एकीकृत रणनीति पर बल दिया गया है।
- चार मुख्य भूमिकाएँ:
- थिंक: मानक कार्य, अनुसंधान, क्षमता निर्माण, नीति निर्माण और वैश्विक मानक स्थापित करने में संलग्न होना।
- कार्य: टिकाऊ शहरीकरण को समर्थन देने के लिये तकनीकी सहायता एवं संकट प्रतिक्रिया परियोजनाएँ विकसित करना।
- साझाकरण: विकास योजनाओं और निवेशों में परिवर्तन को प्रेरित करने के लिये संचार और आउटरीच को महत्त्व देना।
- साझेदारी: शहरीकरण की चुनौतियों से निपटने के लिये सरकारों, अंतर-सरकारी निकायों, नागरिक समाज, शिक्षा जगत तथा निजी क्षेत्र के साथ कार्य करना।
शहरी क्षेत्र ग्लोबल वार्मिंग में किस प्रकार योगदान देते हैं?
- ऊर्जा खपत: ऊर्जा-गहन उद्योग, परिवहन, तथा उच्च घनत्व वाले आवासीय और वाणिज्यिक भवन शहरी क्षेत्रों में केंद्रित हैं, जो विश्व भर में अंतिम ऊर्जा उपयोग के CO2 उत्सर्जन में 71-76% का योगदान करते हैं।
- शहरी जीवनशैली ऊर्जा-प्रधान होती है, जिसमें भवनों में बिजली, हीटिंग और शीतलन जैसी प्रणालियों की उच्च मांग होती है।
- औद्योगिक गतिविधियाँ: कारखाने और बिजली संयंत्र जो जीवाश्म ईंधन का उपयोग करते हैं, कार्बन डाइऑक्साइड (CO2), मीथेन (CH4), और नाइट्रस ऑक्साइड (N2O) सहित विभिन्न ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में योगदान करते हैं।
- भूमि उपयोग में परिवर्तन: आवास, बुनियादी ढाँचे और औद्योगिक विकास के लिये भूमि को साफ करने से पृथ्वी की कार्बन को अवशोषित करने तथा संग्रहीत करने की क्षमता कम हो जाती है।
- अनुमान है कि वर्ष 2015 और 2050 के बीच शहरी भूमि क्षेत्रों की वृद्धि तीन गुनी से भी अधिक हो जाएगी, जिसके परिणामस्वरूप वनोंमूलन और आवासीय विनाश होगा।
- अपशिष्ट उत्पादन और लैंडफिल: जैविक अपशिष्ट का लैंडफिल में विघटित होने से मीथेन नामक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित होती है, जिसकी ग्लोबल वार्मिंग क्षमता CO2 से कई गुना अधिक है।
- अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट: शहर, विशेष रूप से वे शहर जिनमें कंक्रीट, डामर और भवन शामिल है, ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में अधिक ऊष्मा को अवशोषित और बनाए रखते हैं, जिससे अर्बन हीट आइलैंड इफेक्ट उत्पन्न होता है।
ग्लोबल वार्मिंग से शहर किस प्रकार प्रभावित होते हैं?
- हीटवेव: ग्लोबल वार्मिंग के कारण वैश्विक तापमान और हीटवेव की आवृत्ति में भी वृद्धि हो रही है। उदाहरण के लिये, भारत में हीटवेव जैसी घटनाएँ देखने को मिलती हैं।
- अर्बन हीट आइलैंड (UHIs): UHIs महानगरीय क्षेत्र हैं जो ताप अवशोषित करने वाली सतहों और ऊर्जा उपयोग के कारण आसपास के क्षेत्रों की तुलना में अधिक गर्म होते हैं।
- तटीय बाढ़: जैसे-जैसे तापमान में वृद्धि होती है, ग्लेशियर और बर्फ की चादरें पिघलती हैं, जिससे महासागरों में जल की मात्रा बढ़ने से समुद्र का जल स्तर बढ़ जाता है।
- इससे तटीय क्षेत्र जलमग्न, समुदाय विस्थापित, तथा पारिस्थितिकी तंत्र बाधित हो जाते हैं।
- वनाग्नि का मौसम: बढ़ते तापमान और दीर्घकालिक सूखे के कारण वनाग्नि मौसम की अवधि अधिक और तीव्र हो गई है, जिससे आग लगने का खतरा बढ़ गया है।
शहरी क्षेत्रों में तापमान वृद्धि से निपटने के लिये भारत की प्रमुख पहल:
आगे की राह
- समुत्थानशील बुनियादी ढाँचा: बुनियादी ढाँचा GHG को कम करने में मुख्य भूमिका निभाता है, जो कुल उत्सर्जन के 79% के लिये ज़िम्मेदार है और 72% SDG लक्ष्यों को पूर्ण करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- बुनियादी ढाँचे को जलवायु प्रभावों का सामना करने के लिये डिज़ाइन किया जाना चाहिये तथा सामुदायिक भेद्यता को बढ़ाने वाले सामाजिक और पर्यावरणीय कारकों का समाधान करना चाहिये।
- हरित ऊर्जा: सार्वजनिक परिवहन का विद्युतीकरण और इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने से व्यक्तिगत और सामूहिक गतिशीलता के कार्बन पदचिह्न में कमी आएगी।
- विविध वित्तपोषण मिश्रण: वित्तीय अंतराल को पाटने के लिये, अच्छी तरह से संरचित ऋण और ऋण सुविधाएँ शहरों को दीर्घकालिक जलवायु समाधानों में निवेश करने में सहायता कर सकती हैं।
- जलवायु-अनुकूल ऋण और ग्रीन बॉण्ड सहित किफायती वित्तपोषण मॉडल, शहरों को जलवायु परियोजनाओं के लिये आवश्यक पूंजी सुरक्षित करने में मदद कर सकते हैं।
- शहरी कार्बन सिंक: शहर प्रकृति आधारित समाधानों जैसे कि हरित छतों, शहरी वनों और पार्कों में निवेश करके उत्सर्जन को कम कर सकते हैं जो कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करते हैं।
- सघन शहरी नियोजन से शहरी विस्तार कम होता है, जिससे व्यापक यात्रा की आवश्यकता कम होती है और संबंधित उत्सर्जन कम होता है।
- परिपत्र अपशिष्ट प्रबंधन: प्रभावी अपशिष्ट प्रबंधन पद्धतियाँ, जैसे पुनर्चक्रण और खाद बनाना, लैंडफिल से मीथेन उत्सर्जन को रोकती हैं।
- समग्र समाज दृष्टिकोण: सरकारी स्तरों के बीच ऊर्ध्वाधर समन्वय तथा विभिन्न क्षेत्रों और हितधारकों के बीच क्षैतिज समन्वय, सुसंगत, समावेशी और प्रभावी जलवायु कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- स्थानीय क्षमताओं को सुदृढ़ बनाना: स्थानीय सरकारें अपने समुदायों की विशिष्ट चुनौतियों और आवश्यकताओं को समझने के कारण, उनके अनुरूप, स्थानीय रूप से उपयुक्त समाधान विकसित करने के लिये सर्वोत्तम स्थिति में होती हैं।
- जीवनशैली में बदलाव को प्रोत्साहित करने से, जैसे निजी वाहन के उपयोग के स्थान पर पैदल चलना, बाइक चलाना और कारपूलिंग को प्राथमिकता देना, मांग को और कम कर सकता है।
निष्कर्ष
वर्ल्ड सिटीज़ रिपोर्ट 2024 में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिये शहरों की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित किया गया है, जिसमें उनकी भेद्यता और वैश्विक तापमान वृद्धि में उनके योगदान पर प्रकाश डाला गया है। प्रभावी समाधानों के लिये लचीले बुनियादी ढाँचे, हरित ऊर्जा और सर्कुलर अपशिष्ट प्रबंधन की आवश्यकता है जिसे जलवायु-अनुकूल एवं समावेशी शहरी वातावरण निर्माण के लिये विविध वित्तपोषण और स्थानीयकृत कार्यों द्वारा समर्थित किया जाता है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: चर्चा कीजिये कि शहरी क्षेत्र ग्लोबल वार्मिंग में किस प्रकार योगदान देते हैं तथा उनके प्रभाव को कम करने के लिये क्या उपाय आवश्यक हैं। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:(2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: C प्रश्न. बेहतर नगरीय भविष्य की दिशा में कार्यरत संयुक्त राष्ट्र कार्यक्रम में संयुक्त राष्ट्र पर्यावास (UN-Habitat) की भूमिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (2017)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) 1, 2 और 3 उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न: पिछले कुछ वर्षों में भारी बारिश के कारण शहरी बाढ़ की आवृत्ति बढ़ रही है। शहरी बाढ़ के कारणों पर चर्चा करते हुए, ऐसी घटनाओं के दौरान जोखिम को कम करने के लिये तैयारियों के तंत्र पर प्रकाश डालिये। (2016) |