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डेली न्यूज़

  • 03 Oct, 2024
  • 80 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण रिपोर्ट 2022-23

प्रारंभिक परीक्षा:

उद्योगों का वार्षिक सर्वेक्षण , सकल मूल्य वर्धित , सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) , शुद्ध मूल्य वर्धित, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ)

मुख्य परीक्षा:

सकल मूल्य वर्द्धन और आर्थिक विकास के आकलन में इसका महत्त्व, उद्योगों का वार्षिक सर्वेक्षण (ASI), संवृद्धि एवं विकास

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) ने वर्ष 2022-23 के लिये उद्योगों का वार्षिक सर्वेक्षण (ASI) जारी किया, जो भारत में विनिर्माण क्षेत्र की रिकवरी और विकास पर महत्त्वपूर्ण अंतर्दृष्टि प्रस्तुत करता है।

  • ASI वर्ष 2022-23 के लिये सर्वेक्षण फील्डवर्क नवंबर 2023 से जून 2024 तक आयोजित किया गया था।

ASI रिपोर्ट 2022-23 की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

  • विनिर्माण क्षेत्र में रोज़गार वृद्धि: 
    • ASI के अनुसार विनिर्माण क्षेत्र में रोज़गार वर्ष 2021-22 में 1.72 करोड़ से 7.5% बढ़कर वर्ष 2022-23 में 1.84 करोड़ हो गया, जो विगत 12 वर्षों में वृद्धि की उच्चतम दर है।
    • वर्ष 2022-23 में विनिर्माण क्षेत्र ने 13 लाख नौकरियाँ सृजित कीं, जो वित्त वर्ष 2022 की तुलना में 11 लाख से अधिक है।

  • सकल मूल्य वर्द्धन (GVA) और उत्पादन वृद्धि: 
    • विनिर्माण जीवीए में 7.3% की मज़बूत वृद्धि हुई, जो वर्ष 2022-23 में 21.97 लाख करोड़ रुपए तक पहुँच गई, यह वर्ष 2021-22 में 20.47 लाख करोड़ रुपए थी। 
    • कुल औद्योगिक इनपुट में 24.4% की वृद्धि हुई, जबकि वर्ष 2021-22 की तुलना में 2022-23 में इस क्षेत्र में उत्पादन में 21.5% की वृद्धि हुई, जो विनिर्माण गतिविधियों में महत्त्वपूर्ण उछाल को दर्शाता है।

  • विनिर्माण वृद्धि के मुख्य चालक:
    • वर्ष 2022-23 में विनिर्माण वृद्धि के प्राथमिक चालक मूल धातु, कोक और परिष्कृत पेट्रोलियम उत्पाद, खाद्य उत्पाद, रसायन और मोटर वाहन थे। 
      • इन उद्योगों का संयुक्त योगदान कुल उत्पादन का लगभग 58% था।
  • क्षेत्रीय प्रदर्शन:
    • रोज़गार के मामले में शीर्ष 5 राज्य तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश और कर्नाटक थे।
  • कारखानों की संख्या में वृद्धि: 
    • कारखानों की संख्या वर्ष 2021-22 में 2.49 लाख से बढ़कर 2022-23 में 2.53 लाख हो गई, जो कोविड-19 व्यवधानों के बाद पहली पूर्ण रिकवरी अवस्था को चिह्नित करती है।
  • अनौपचारिक क्षेत्र में गिरावट: 
  • औसत वेतन:
    • प्रति व्यक्ति औसत पारिश्रमिक वर्ष 2021-22 की तुलना में वर्ष 2022-23 में 6.3% बढ़कर 3.46 लाख रुपये हो गया।
  • पूंजी निवेश में उछाल: 
    • सकल स्थायी पूंजी निर्माण (GFCF) वर्ष 2022-23 में 77% से अधिक बढ़कर 5.85 लाख करोड़ रुपए हो गया, जबकि शुद्ध स्थायी पूंजी निर्माण 781.6% बढ़कर 2.68 लाख करोड़ रुपए हो गया, जिससे विनिर्माण क्षेत्र की निरंतर वृद्धि देखने को मिली।
      • सकल स्थायी पूंजी निर्माण (GFCF), या "निवेश", से तात्पर्य उत्पादित परिसंपत्तियों के अधिग्रहण से है, जिसमें सेकेंड-हैंड खरीद भी शामिल है, साथ ही निपटान घटाने के बाद उत्पादकों द्वारा अपने स्वयं के उपयोग के लिये परिसंपत्तियों का उत्पादन, शामिल है।
      • शुद्ध स्थायी पूंजी निर्माण, सकल स्थायी पूंजी निर्माण (GFCF) में से स्थायी पूंजी की खपत की राशि को घटाकर प्राप्त राशि होती है।
    • विनिर्माण क्षेत्र में मुनाफा 2.7% बढ़कर 9.76 लाख करोड़ रुपए हो गया। 

टिप्पणी:

  • श्रमिकों में प्रत्यक्ष रूप से या किसी एजेंसी के माध्यम से नियोजित सभी व्यक्ति शामिल हैं, जिनमें विनिर्माण प्रक्रियाओं या मशीनरी और परिसर की सफाई में शामिल वेतनभोगी और अवैतनिक कर्मचारी भी शामिल हैं।
  • कर्मचारियों में वेतन पाने वाले सभी कर्मचारी, साथ ही लिपिक, पर्यवेक्षी या प्रबंधकीय भूमिका में कार्यरत कर्मचारी तथा कच्चा माल या अचल सम्पत्ति खरीदने में शामिल कर्मचारी, तथा निगरानी एवं रखवाली करने वाले कर्मचारी शामिल हैं।

सकल मूल्य वर्द्धन (GVA)

  • GVA उस मूल्य को दर्शाता है, जो उत्पादक उत्पादन प्रक्रिया के दौरान वस्तुओं और सेवाओं में जोड़ते हैं।
  • इसकी गणना कुल उत्पादन से इनपुट (मध्यवर्ती खपत) की लागत घटाकर की जाती है ।
  • यह सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का एक प्रमुख घटक है, जो आर्थिक संवृद्धि को दर्शाता है। GVA विकास दर क्षेत्रीय प्रदर्शन में अंतर्दृष्टि प्रदान करती है, जिससे आर्थिक विश्लेषण और नीति निर्धारण में सहायता मिलती है।
    • GVA= GDP+ उत्पादों पर सब्सिडी - उत्पादों पर कर।
    • शुद्ध मूल्य वर्द्धन (NVA) की गणना सकल मूल्य वर्द्धन (GVA) से मूल्यह्रास को घटाकर की जाती है। 
  • यह मध्यवर्ती उपभोग और स्थायी पूंजी के उपभोग दोनों को घटाने के बाद उत्पादन के मूल्य को दर्शाता है।

वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण (ASI) क्या है?

  • परिचय:
    • वार्षिक उद्योग सर्वेक्षण (ASI) भारत में  औद्योगिक आँकड़ों का प्राथमिक स्रोत है ।
    • 1953 के सांख्यिकी संग्रह अधिनियम के अनुसार इसकी शुरुआत वर्ष 1960 में हुई थी, वर्ष 1959 को आधार वर्ष मानकर, वर्ष 1972 को छोड़कर, यह प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता है।
    • ASI वर्ष 2010-11 से यह सर्वेक्षण सांख्यिकी संग्रह अधिनियम, 2008 के तहत आयोजित किया गया है, जिसे अखिल भारतीय स्तर पर विस्तारित करने के लिये वर्ष 2017 में संशोधित किया गया था। 
  • क्रियान्वयन एजेंसी:
    • सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) का एक हिस्सा, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) ASI का संचालन करता है। 
      • सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय द्वारा जारी किये गए आँकड़ों की कवरेज़ और गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिये ज़िम्मेदार है।
  • ASI का दायरा और कवरेज़:
    • ASI का विस्तार संपूर्ण देश में है। इसमें कारखाना अधिनियम, 1948 की धारा 2(एम)(आई) और 2(एम)(आईआई) के तहत पंजीकृत सभी कारखाने शामिल हैं
    • बीड़ी और सिगार श्रमिक (रोज़गार की शर्तें) अधिनियम, 1966 के अंतर्गत पंजीकृत बीड़ी और सिगार निर्माण प्रतिष्ठान।
    • विद्युत उत्पादन, पारेषण और वितरण में लगे विद्युत उपक्रम केन्द्रीय विद्युत प्राधिकरण (CEA) के पास पंजीकृत नहीं हैं।
    • राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए प्रतिष्ठानों के व्यवसाय रजिस्टर (BRE) में पंजीकृत 100 या अधिक कर्मचारियों वाली इकाइयाँ, जैसा कि संबंधित राज्यों द्वारा साझा किया गया है।
  • डेटा संग्रहण तंत्र:

भारत में विनिर्माण क्षेत्र के लिये अवसर और चुनौतियाँ क्या हैं?

  • अवसर:
    • व्यापक घरेलू बाज़ार और मांग: भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों ग्राहकों की ओर से अपने उत्पादों की मज़बूत मांग देखी गई है।
      • मई 2024 में क्रय प्रबंधक सूचकांक (PMI) 58.8 दर्ज किया गया, जो भारत के विनिर्माण परिदृश्य में विस्तार का संकेत देता है।
    • क्षेत्रीय लाभ: रसायन, फार्मास्यूटिकल्स, ऑटोमोटिव, इलेक्ट्रॉनिक्स, औद्योगिक मशीनरी और वस्त्र सहित प्रमुख विनिर्माण क्षेत्रों ने हाल के वर्षों में उल्लेखनीय वृद्धि दिखाई है। 
      • भारत में औषधि निर्माण लागत अमेरिका और यूरोप की तुलना में लगभग 30%-35% कम है।
    • वैश्विक दक्षिणी बाज़ार तक पहुँच: भारतीय विनिर्माण यूरोपीय से एशियाई वैश्विक मूल्य शृंखलाओं (GVC) की ओर स्थानांतरित हो रहा है, वैश्विक दक्षिणी भागीदारों से विदेशी मूल्य वर्द्धित (FVA) वर्ष 2005-2015 में 27% से बढ़कर 45% हो गया है।
      • इससे भारतीय कम्पनियों को अपना स्वयं का जी.वी.सी. स्थापित करने तथा भारत को एक क्षेत्रीय विकास केंद्र के रूप में स्थापित करने का अवसर मिलता है।
    • MSME का उदय: सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSME) भारत के सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 30% का योगदान करते हैं और आर्थिक विकास को गति देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, देश के कुल निर्यात में इनका योगदान लगभग 45% है।
      • मार्च 2024 तक, उद्यम पोर्टल पर 4 करोड़ से अधिक MSME पंजीकृत थे, जिनमें से 67% की पहचान विनिर्माण MSME के रूप में की गई थी।
    • विकास की संभावना: भारतीय विनिर्माण क्षेत्र में वर्ष 2025 तक 1 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचने की क्षमता है, जो अर्थव्यवस्था में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करता है।
  • चुनौतियाँ:
    • पुरानी प्रौद्योगिकी और बुनियादी ढाँचा: पुरानी प्रौद्योगिकी और अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे पर निर्भरता, भारतीय निर्माताओं की वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा करने और अंतर्राष्ट्रीय गुणवत्ता मानकों को पूरा करने की क्षमता में बाधा डालती है।
    • कुशल कार्यबल की कमी: विश्व बैंक के अनुसार भारत के केवल 24% कार्यबल के पास जटिल विनिर्माण नौकरियों के लिये आवश्यक कौशल है, जबकि अमेरिका में यह 52% और दक्षिण कोरिया में 96% है।
    • उच्च इनपुट लागत: भारतीय रिज़र्व बैंक ( 2022) के अनुसार भारत में लॉजिस्टिक्स लागत वैश्विक औसत से 14% अधिक है, जो विनिर्माण क्षेत्र की समग्र प्रतिस्पर्द्धात्मकता को प्रभावित कर रही है।
      • इसके अलावा भारत में भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया भी जटिल है।
    • चीन से प्रतिस्पर्द्धा और आयात निर्भरता: वर्ष 2023-24 में, भारत के वस्त्र और परिधान आयात में चीन का हिस्सा लगभग 42% , मशीनरी का 40% और इलेक्ट्रॉनिक्स आयात का 38.4% होगा।

भारत में विनिर्माण क्षेत्र में सरकार की क्या पहल हैं?

आगे की राह

  • बुनियादी ढाँचे में निवेश: बुनियादी ढाँचे की गुणवत्ता और पहुँच को बढ़ाने के साथ-साथ रसद लागत को कम करने से विनिर्माण में अधिक निवेश आकर्षित हो सकता है।
  • उद्योग 4.0 की आवश्यकता: उद्योग 4.0 को अपनाने से विनिर्माण क्षेत्र को वित्त वर्ष 26 तक सकल घरेलू उत्पाद में 25% योगदान करने में मदद मिल सकती है। भारतीय निर्माता अपने परिचालन बजट का 35% डिजिटल परिवर्तन में निवेश कर रहे हैं, इस राशि को बढ़ाया जाना चाहिये।
  • निर्यातोन्मुख विनिर्माण को बढ़ावा देना: निर्यातोन्मुख विनिर्माण के विकास को समर्थन देने से भारतीय व्यवसायों को नए बाज़ारों में प्रवेश करने और लक्षित नीतियों के माध्यम से प्रतिस्पर्द्धात्मकता में सुधार करने में सहायता मिल सकती है।
  • वित्तीय सहायता: कई MSME को निर्यात के लिये ऋण प्राप्त करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिससे SME के विकास के लिये वित्तीय सहायता बढ़ाना महत्त्वपूर्ण हो जाता है।
  • सक्षम विनियमन: विनियमनों को सुव्यवस्थित करने से व्यवसायों पर बोझ कम हो सकता है तथा विनिर्माण में निवेश को बढ़ावा मिल सकता है।
  • कौशल विकास: प्रशिक्षण कार्यक्रमों में वृद्धि से कुशल श्रमिकों की कमी दूर हो सकती है तथा क्षेत्र की प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ सकती है, जैसा कि वियतनाम द्वारा वैश्विक विनिर्माण केंद्र बनने में सफलता से प्रदर्शित होता है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

Q. भारत में विनिर्माण क्षेत्र के समक्ष प्रमुख अवसरों और चुनौतियों पर चर्चा कीजिये तथा वैश्विक बाज़ार में इसकी प्रतिस्पर्द्धात्मकता बढ़ाने के उपाय सुझाइए।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रारंभिक परीक्षा

प्रश्न 1 ‘आठ कोर उद्योग सूचकांक' में निम्नलिखित में से किसको सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है? 

(a) कोयला उत्पादन 
(b) विद्युत उत्पादन 
(c) उर्वरक उत्पादन 
(d) इस्पात उत्पादन 

उत्तर: (b) 


Q2. भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2015)

  1. पिछले दशक में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में लगातार वृद्धि हुई है। 
  2. बाज़ार मूल्य पर सकल घरेलू उत्पाद (रुपए में) पिछले एक दशक में लगातार बढ़ा है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (b)


मुख्य परीक्षा

प्रश्न 1. “सुधारोत्तर अवधि में सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की समग्र संवृद्धि में औद्योगिक संवृद्धि दर पिछड़ती गई है” कारण बताइये। औद्योगिक नीति में हाल ही में किये गए परिवर्तन औद्योगिक संवृद्धि दर को बढ़ाने में कहाँ तक सक्षम हैं? (2017)

प्रश्न 2: आमतौर पर देश कृषि से उद्योग और बाद में सेवाओं में अंतरित होते हैं, पर भारत सीधे ही कृषि से सेवाओं को अंतरित हो गया है। देश में उद्योग के मुकाबले सेवाओं की विशाल संवृद्धि के क्या कारण हैं? क्या भारत सशक्त औद्योगिक आधार के बिना एक विकसित देश बन सकता है? (2014)


जैव विविधता और पर्यावरण

PKC-ERCP लिंक परियोजना पर मध्य प्रदेश एवं राजस्थान के बीच समझौता ज्ञापन

प्रारंभिक परीक्षा के लिये:

पार्वती-कालीसिंध-चंबल (PKC) लिंकिंग परियोजना, पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना (ERCP), नदियों को जोड़ने के लिये राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना, चंबल बेसिन,  विंध्य पर्वत,  यमुना नदी, नेशनल इंटरलिंकिंग ऑफ रिवर अथॉरिटी (NIRA)

मुख्य परीक्षा के लिये:

भारत में नदियों को आपस में जोड़ना और इससे संबंधित मुद्दे, विकास से संबंधित मुद्दे, जल प्रबंधन

स्रोत: टाइम्स ऑफ इंडिया

चर्चा में क्यों?

हाल ही में संशोधित पार्वती-कालीसिंध-चंबल पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना (PKC-ERCP) नामक नदी लिंक परियोजना को लागू करने के लिये राजस्थान एवं मध्य प्रदेश के बीच एक समझौता ज्ञापन (MoU) पर हस्ताक्षर किये गए। 

संशोधित PKC-ERCP क्या है?

  • पार्वती-कालीसिंध-चंबल (PKC): इस नदी-जोड़ो पहल को पार्वती, नेवज और कालीसिंध नदियों के अधिशेष जल को चंबल नदी में भेजने के लिये डिज़ाइन किया गया है। 
    • यह केंद्रीय जल आयोग और केंद्रीय सिंचाई मंत्रालय द्वारा तैयार राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (1980) के तहत 30 लिंकों में से एक है।
    • इसका उद्देश्य घरेलू उपयोग के लिये जल उपलब्ध कराना, चंबल बेसिन में जल संसाधनों का अनुकूलन करना तथा मध्य प्रदेश और राजस्थान के क्षेत्रों को लाभान्वित करना है। 

इस परियोजना में शामिल नदियाँ:

  • चम्बल नदी:
    • उद्गम: सिंगार चौरी चोटी, विंध्य पर्वत, इंदौर, मध्य प्रदेश।
    • प्रमुख सहायक नदियाँ: बनास, काली सिंध, सिप्रा, पारबती।
  • पार्वती नदी:
    • उद्गम: विंध्य रेंज, सीहोर ज़िला, मध्य प्रदेश।
  • कालीसिंध नदी:
    • उद्गम स्थल: बागली, देवास ज़िला, मध्य प्रदेश।
    • प्रमुख सहायक नदियाँ: परवन, नेवज, आहू।
  • पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना (ERCP): ERCP को जल संसाधनों के अनुकूलन के लिये वर्ष 2019 में राजस्थान द्वारा प्रस्तावित किया गया था। 
    • इसका उद्देश्य चंबल बेसिन में अंतर-बेसिन जल स्थानांतरण को सुविधाजनक बनाना है।
    • इसका उद्देश्य कालीसिंध, पार्वती, मेज और चाकन उप-बेसिनों के अधिशेष मानसून जल का दोहन करना तथा इसे जल की कमी वाले बनास, गंभीरी, बाणगंगा और पार्वती उप-बेसिनों की ओर भेजना है। 
    • इस पहल से अलवर, भरतपुर, सवाई माधोपुर और जयपुर सहित पूर्वी राजस्थान के 13 ज़िलों को पेयजल और औद्योगिक जल की आपूर्ति होगी।
    • ERCP का उद्देश्य जल चैनलों का एक ऐसा नेटवर्क स्थापित करना है जो राजस्थान के 23.67% क्षेत्र में विस्तारित होने के साथ राज्य की 41.13% आबादी को लाभान्वित करेगा।
  • लाभ:
    • ERCP से 2 लाख हेक्टेयर का अतिरिक्त कमांड क्षेत्र सृजित होने तथा 4.31 लाख हेक्टेयर क्षेत्र को सिंचाई उपलब्ध होने की उम्मीद है। 
    • इसका उद्देश्य राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र के भू-जल स्तर में सुधार लाना तथा सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बेहतर बनाना है।
    • यह परियोजना औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने और निवेश आकर्षित करने के लिये स्थायी जल स्रोत सुनिश्चित करने के क्रम में दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे (DMIC) को भी समर्थन प्रदान करती है।
  • संशोधित PKC-ERCP:
    • संशोधित पार्वती-कालीसिंध-चंबल-ERCP (PKC-ERCP) लिंक परियोजना, PKC लिंक को पूर्वी राजस्थान नहर परियोजना (ERCP) के साथ जोड़ने वाली एक अंतर-राज्यीय परियोजना है। 
    • यह राज्यों के बीच जल बंँटवारे, लागत-लाभ वितरण और जल विनिमय जैसे मुद्दों को हल करने पर केंद्रित है।
  • ऐसी परियोजना की आवश्यकता:
    • राजस्थान, भारत का सबसे बड़ा राज्य है जिसका भौगोलिक क्षेत्रफल 342.52 लाख हेक्टेयर ( देश के कुल क्षेत्रफल का 10.4%) है तथा राजस्थान के जल संसाधन विभाग के अनुसार, देश के सतही जल का केवल 1.16% एवं भूजल संसाधनों का 1.72% ही यहाँ उपलब्ध है।

चंबल नदी

  • परिचय: यह नदी मध्य प्रदेश में विंध्य पर्वतमाला के दक्षिणी ढलान पर मानपुर इंदौर के पास, महूटाउन के दक्षिण में जानापाव से निकलती है। वहाँ से यह मध्य प्रदेश में उत्तर दिशा में लगभग 346 किमी और फिर राजस्थान से होकर 225 किमी तक उत्तर-पूर्व दिशा में प्रवाहित होती है।
    • यह नदी उत्तर प्रदेश में प्रवेश करती है और इटावा ज़िले में यमुना नदी में मिलने से पहले लगभग 32 किमी तक बहती है।
    • यह एक बरसाती नदी है और इसका बेसिन विंध्य पर्वत श्रृंखलाओं तथा अरावली से घिरा हुआ है। चंबल और इसकी सहायक नदियाँ उत्तर-पश्चिमी मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र को जल प्रदान करती हैं।
    • राजस्थान का हाड़ौती का पठार, मेवाड़ मैदान के दक्षिण-पूर्व में चंबल नदी के ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र में स्थित है।
  • सहायक नदियाँ: बनास, काली सिंध, सिप्रा, पार्बती, आदि।
  • मुख्य विद्युत परियोजनाएँ/बाँध: गांधी सागर बाँध, राणा प्रताप सागर बाँध, जवाहर सागर बाँध और कोटा बैराज।
  • राष्ट्रीय चंबल अभयारण्य राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के त्रि-जंक्शन पर चंबल नदी के किनारे स्थित है। यह गंभीर रूप से संकटग्रस्त घड़ियाल, रेड क्राउन रूफ टर्टल और संकटग्रस्त गंगा नदी डॉल्फिन के लिये जाना जाता है।

यमुना

  • यमुना नदी गंगा नदी की एक प्रमुख सहायक नदी है, जो उत्तराखंड के उत्तरकाशी ज़िले में निम्न हिमालय के मसूरी पर्वतमाला की बंदरपूँछ चोटियों के पास यमुनोत्री ग्लेशियर से निकलती है।
  • यह नदी उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली से होकर बहने के बाद उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में गंगा से मिलती है।
  • प्रमुख बाँध: लखवार-व्यासी बाँध (उत्तराखंड), ताजेवाला बैराज बाँध (हरियाणा) आदि।
  • प्रमुख सहायक नदियाँ: चंबल, सिंध, बेतवा और केन

नदियों को जोड़ने के लिये राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना क्या है?

परिचय: 

  • नदी जोड़ो परियोजना (जिसे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (NPP) के रूप में भी जाना जाता है) वर्ष 1980 में जल शक्ति मंत्रालय द्वारा तैयार की गई एक बड़े पैमाने की सिविल इंजीनियरिंग परियोजना है जिसका उद्देश्य भारत में जल के अधिशेष वाले बेसिनों से जल की कमी वाले बेसिनों में जल स्थानांतरित करना है।
  • इसमें नदियों और जल निकायों को जोड़ने के लिये कृत्रिम चैनलों का निर्माण शामिल है।

घटक: 

  • हिमालयी और प्रायद्वीपीय नदियों का विकास

चिह्नित परियोजनाएँ: 

  • इसके तहत कुल 30 लिंक परियोजनाओं की पहचान की गई है, जिनमें से 16 प्रायद्वीपीय क्षेत्र और 14 हिमालयी क्षेत्र के अंतर्गत शामिल हैं।
  • प्रायद्वीपीय घटक के अंतर्गत प्रमुख परियोजनाएँ: महानदी-गोदावरी लिंक, गोदावरी-कृष्णा लिंक, पार-तापी-नर्मदा लिंक और केन-बेतवा लिंक
  • हिमालयी क्षेत्र के तहत प्रमुख परियोजनाएँ: कोसी-घाघरा लिंक, गंगा (फरक्का)-दामोदर-सुवर्णरेखा लिंक और कोसी-मेची लिंक।

महत्त्व: 

  • बाढ़ प्रबंधन: इसका उद्देश्य गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना बेसिन जैसे बाढ़ प्रवण क्षेत्रों में बाढ़ के जोखिम का प्रबंधन करना है।
  • जल की कमी को दूर करना: इसका उद्देश्य राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु सहित पश्चिमी और प्रायद्वीपीय राज्यों में जल की कमी को दूर करना है।
  • सिंचाई सुधार: इसका उद्देश्य जल की कमी वाले क्षेत्रों में सिंचाई का विस्तार करना है, जिससे कृषि उत्पादकता बढ़ने और खाद्य सुरक्षा में सुधार होने के साथ किसानों की आय दोगुनी करने में मदद मिलेगी। 
    • उदाहरण: केन-बेतवा लिंक परियोजना।
  • बुनियादी ढाँचे का विकास: यह राष्ट्रीय जलमार्ग-1 जैसे कुशल एवं पर्यावरण अनुकूल अंतर्देशीय जलमार्गों की स्थापना की सुविधा प्रदान करता है।
  • सतत् जल उपयोग: इसे भू-जल की कमी को पूरा करने और समुद्र में बहने वाले मीठे जल को कम करने के क्रम में सतही जल के उपयोग को अनुकूलित करने के लिये डिज़ाइन किया गया है।

चिंताएँ:

  • जैवविविधता की हानि: प्राकृतिक नदी मार्गों में परिवर्तन से जैवविविधता की हानि के साथ आवास विघटन हो सकता है।
    • उदाहरण: मध्य प्रदेश में केन-बेतवा लिंक परियोजना से पन्ना टाइगर रिज़र्व का एक बड़ा भाग जलमग्न होने से जीवों के आवास को नुकसान पहुँचेगा।
  • सामुदायिक विस्थापन: नदी जोड़ो परियोजनाओं के कारण स्थानीय समुदाय विस्थापित होने से महत्त्वपूर्ण सामाजिक और मानवीय मुद्दे उभर सकते हैं।
  • उच्च लागत और कार्यान्वयन संबंधी चुनौतियाँ: इसमें निवेश, तकनीकी कठिनाइयाँ तथा भूमि अधिग्रहण संबंधी मुद्दे उभर सकते हैं।
  • इसी प्रकार की परियोजनाओं की विफलता: चीन की दक्षिण-से-उत्तर जल डायवर्जन परियोजना (SNWDP) में कई चुनौतियों और नकारात्मक परिणामों को देखा गया। इसका उद्देश्य दक्षिण में यांग्त्ज़ी नदी से जल को उत्तर में पीली नदी बेसिन तक ले जाना था।
  • अंतर्राज्यीय जल विवाद: सीमित जल संसाधनों के लिये राज्यों के बीच संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धा। उदाहरण: कृष्णा जल विवाद 
  • अन्य चिंताएँ: इससे नकारात्मक सामाजिक प्रभाव, दीर्घकालिक स्थिरता तथा मौजूदा समस्याओं के और अधिक गंभीर होने की संभावना है।

केन-बेतवा नदी लिंक परियोजना (KBLP)

  • यह नदियों को जोड़ने के क्रम में राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (NPP) के तहत पहली परियोजना है।
  • KBLP के तहत मध्य प्रदेश की केन नदी से उत्तर प्रदेश की बेतवा नदी में जल स्थानांतरित करना शामिल है, यह दोनों ही यमुना नदी की सहायक नदियाँ हैं।

राष्ट्रीय नदी जोड़ो प्राधिकरण (NIRA)

  • यह एक प्रस्तावित स्वतंत्र निकाय है जो राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (NWDA) का स्थान लेगा।
  • यह भारत में नदी जोड़ो परियोजनाओं की योजना, जाँच, वित्तपोषण और कार्यान्वयन के लिये ज़िम्मेदार  होगा और सभी नदी जोड़ो पहलों के लिये एक छत्र संगठन के रूप में कार्य करेगा।
  • यह पड़ोसी देशों, संबंधित राज्यों और विभागों के साथ समन्वय करने में भूमिका निभाने के साथ इन परियोजनाओं से संबंधित पर्यावरण, वन्यजीव और वन मंजूरी संबंधी अधिकार भी रखेगा।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

Q. भारत में नदी जोड़ो परियोजना से संबंधित संभावित लाभ और चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। ये परियोजनाएँ देश में जल प्रबंधन तथा सामाजिक-आर्थिक विकास में किस प्रकार योगदान दे सकती हैं?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

Q. नदियों को आपस में जोड़ना सूखा, बाढ़ और बाधित जल-परिवहन जैसी बहु-आयामी अंतर्संबंधित समस्याओं का व्यवहार्य समाधान दे सकता है। आलोचनात्मक परिक्षण कीजिये। (2020)


भारतीय अर्थव्यवस्था

इंटरनेशनल डे ऑफ अवेयरनेस ऑफ फूड लाॅस एंड वेस्ट

प्रारंभिक परीक्षा के लिये:

इंटरनेशनल डे ऑफ अवेयरनेस ऑफ फूड लाॅस एंड वेस्ट, खाद्य और कृषि संगठन, प्राकृतिक आपदाएँ, सतत् विकास के लिये एजेंडा 2030, ग्रीनहाउस गैस, मीथेन, संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम, किसान उत्पादक संगठन 

मुख्य परीक्षा के लिये:

भारत में खाद्य हानि और बर्बादी का खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव, खाद्य बर्बादी के पर्यावरणीय परिणाम

स्रोत: फाइनेंसियल एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों? 

29 सितंबर को इंटरनेशनल डे ऑफ अवेयरनेस ऑफ फूड लाॅस एंड वेस्ट (IDAFLW) के तहत खाद्य सुरक्षा और पर्यावरणीय स्थिरता से संबंधित इसके निहितार्थों पर बल दिया गया। हाल ही में 29 सितंबर को विश्व स्तर पर  इंटरनेशनल डे ऑफ अवेयरनेस ऑफ फूड लाॅस एंड वेस्ट (IDAFLW) मनाया गया, जिसमें खाद्य सुरक्षा और पर्यावरणीय स्थिरता पर इसके प्रभावों पर प्रकाश डाला गया।

  • खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) की वर्ष 2023 की रिपोर्ट से पता चलता है कि वैश्विक खाद्य उत्पादन का लगभग 30% नष्ट हो जाता है या बर्बाद हो जाता है। यह गंभीर मुद्दा इस दिशा में तत्काल कार्रवाई की मांग (खासकर भारत में जहाँ फसल कटाई के बाद होने वाला नुकसान काफी अधिक हैं) का संकेत देता है

प्रमुख शब्द

  • खाद्य हानि: इसका तात्पर्य मानव उपभोग के लिये उपलब्ध भोजन के द्रव्यमान (शुष्क पदार्थ) या पोषण मूल्य (गुणवत्ता) में कमी आना है।
    • ऐसा मुख्य रूप से खाद्य आपूर्ति श्रृंखलाओं में अक्षमताओं के कारण होता है जिसमें खराब बुनियादी ढाँचा, अपर्याप्त रसद, प्रौद्योगिकी की कमी और अपर्याप्त कौशल तथा प्रबंधन उत्तरदायी हैं। इसके अलावा प्राकृतिक आपदाएँ भी इन नुकसानों में योगदान करती हैं।
  • खाद्य अपशिष्ट: इसका तात्पर्य मानव उपभोग के लिये उपयुक्त ऐसे खाद्य पदार्थ से है जिसे खराब होने या समाप्ति तिथि बीत जाने के कारण नष्ट किया जाता है। 
    • ऐसा बाज़ार में अधिक आपूर्ति या व्यक्तिगत उपभोक्ता की खरीदारी एवं खाने की आदतों में बदलाव जैसे कारकों के कारण हो सकता है।
  • खाद्य अपव्यय: इसका तात्पर्य किसी भी ऐसे खाद्य पदार्थ से है जो खराब होने या बर्बाद होने के कारण नष्ट हो जाता है। इस प्रकार "अपव्यय" शब्द में खाद्य हानि और खाद्य अपशिष्ट दोनों शामिल हैं।

इंटरनेशनल डे ऑफ अवेयरनेस ऑफ फूड लाॅस एंड वेस्ट क्या है?

  • संयुक्त राष्ट्र महासभा (UNGA) द्वारा वर्ष 2019 में नामित IDAFLW के तहत फूड लाॅस एंड वेस्ट जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। इसका उद्देश्य जागरूकता बढ़ाना और फूड लाॅस एंड वेस्ट को कम करने के प्रयास करने के साथ जलवायु लक्ष्यों एवं सतत् विकास हेतु एजेंडा, 2030 को प्राप्त करने के क्रम में वित्तीय सहायता की आवश्यकता पर प्रकाश डालना है।
  • यह पहल सतत् विकास लक्ष्य 12.3 के अनुरूप है जिसका उद्देश्य वर्ष 2030 तक वैश्विक खाद्य अपशिष्ट को आधा करना और खाद्य हानि को कम करना है तथा यह कुनमिंग मॉन्ट्रियल वैश्विक जैवविविधता फ्रेमवर्क से संबंधित है।
    • फूड लाॅस एंड वेस्ट को कम करने के लिये जलवायु वित्त में वृद्धि की आवश्यकता है।

खाद्य हानि और बर्बादी/फूड लाॅस एंड वेस्ट (FLW) के क्या निहितार्थ हैं?

  • खाद्य सुरक्षा पर प्रभाव: नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार वैश्विक जनसंख्या का लगभग 29% मध्यम से गंभीर खाद्य असुरक्षा से ग्रस्त है जबकि उत्पादित खाद्यान्न का एक तिहाई (1.3 बिलियन टन) नष्ट हो जाता है या बर्बाद हो जाता है।
  • FLW के कारण उपभोग के लिये भोजन की उपलब्धता में उल्लेखनीय कमी आती है, जिससे भूख और कुपोषण में वृद्धि (विशेष रूप से कमज़ोर आबादी में) होती है।
  • पर्यावरणीय परिणाम: भोजन के साथ-साथ बड़ी मात्रा में संसाधन (जैसे भूमि, जल, ऊर्जा और श्रम) बर्बाद होने से प्राकृतिक संसाधनों का ह्रास होता है।
  • कार्बन फुटप्रिंट: खाद्य पदार्थों की बर्बादी से प्रतिवर्ष 3.3 बिलियन टन CO2 समतुल्य गैसें उत्पन्न होती हैं जिससे वैश्विक ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन में भी वृद्धि होती है।
  • जल उपयोग: जिस भोजन को नहीं खाया जाता है उस पर बर्बाद होने वाले जल की मात्रा रूस की वोल्गा नदी के वार्षिक प्रवाह के बराबर या जिनेवा झील के आयतन का तीन गुना है।
  • भूमि उपयोग: लगभग 1.4 बिलियन हेक्टेयर भूमि (जो विश्व की कृषि भूमि का लगभग 28% है) का उपयोग ऐसे खाद्यान्न उत्पादन के लिये किया जाता है जो अंततः बर्बाद हो जाता है।
  • ऊर्जा की बर्बादी: वैश्विक खाद्य प्रणाली की कुल ऊर्जा का लगभग 38% भोजन के उत्पादन (जो नष्ट या बर्बाद हो जाता है) में खपत हो जाता है।
  • मीथेन उत्सर्जन: लैंडफिल में खाद्य अपशिष्ट से मीथेन उत्पन्न होती है, जो CO2 से कहीं अधिक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है, जिससे जलवायु परिवर्तन में वृद्धि होती है।
  • जलवायु लक्ष्य: कृषि क्षेत्र की अकुशलता के कारण वैश्विक जलवायु लक्ष्यों को पूरा करना कठिन हो गया है क्योंकि खाद्य प्रणालियों से होने वाले उत्सर्जन में कुल ग्रीनहाउस गैसों का 37% तक हिस्सा है।
  • आर्थिक प्रभाव: FLW से जुड़ी आर्थिक लागतें बहुत अधिक हैं जिसके कारण उत्पादकों की आय में कमी आती है तथा उपभोक्ताओं के लिये कीमतें बढ़ जाती हैं।
    • खाद्यान्न की कीमतें अक्सर खाद्य उत्पादन की वास्तविक सामाजिक और पर्यावरणीय लागतों को प्रतिबिंबित करने में विफल रहती हैं जिसके परिणामस्वरूप बाजार में अकुशलताएँ पैदा होने के साथ असमानताएँ बढ़ती हैं।

भारत में FLW के क्या निहितार्थ हैं?

  • फसलोत्तर नुकसान: राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास परामर्श सेवा बैंक (NABCONS) द्वारा वर्ष 2022 में किये गए सर्वेक्षण के अनुसार भारत को 1.53 लाख करोड़ रुपये (18.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर) का खाद्यान्न नुकसान हुआ।
  • इसमें 12.5 मिलियन मीट्रिक टन अनाज, 2.11 मिलियन मीट्रिक टन तिलहन और 1.37 मिलियन मीट्रिक टन दालें शामिल हैं।
  • अपर्याप्त शीत श्रृंखला अवसंरचना के कारण प्रतिवर्ष लगभग 49.9 मिलियन मीट्रिक टन बागवानी फसलें नष्ट हो जाती हैं।
  • फसल-उपरांत हानि के प्रमुख कारण: भारतीय अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संबंध अनुसंधान परिषद (ICRIER) द्वारा किये गए सर्वेक्षण में पाया गया कि खाद्यान्न की हानि मुख्यतः कटाई, मड़ाई, सुखाने और भंडारण के दौरान मशीनीकरण के निम्न स्तर के कारण होती है।
    • भारतीय अनाज भंडारण प्रबंधन एवं अनुसंधान संस्थान (IGSMRI) के अनुसार भारत में कुल खाद्यान्न क्षति में लगभग 10% का कारण खराब भंडारण सुविधाओं का होना है।
  • राष्ट्रीय खाद्यान्न हानि: संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) का अनुमान है कि भारत में प्रत्येक वर्ष 74 मिलियन टन खाद्यान्न बर्बाद होता है, जो 92,000 करोड़ रुपये की हानि दर्शाता है।
    • रेस्तराँ में भोजन की बर्बादी अत्यधिक भोजन बनाने, अधिक मात्रा में भोजन परोसने तथा विभिन्न प्रकार के व्यंजन परोसने जैसी जटिलता के कारण होती है।
      • इसके अलावा ग्राहक अक्सर ज़रूरत से ज़्यादा ऑर्डर कर देते हैं जिससे खाना या तो खाया नहीं जाता या फेंक दिया जाता है। कर्मचारियों और ग्राहकों में आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों के बारे में जागरूकता की कमी से इस समस्या को और बढ़ावा मिलता है।
    • UNEP खाद्य अपशिष्ट सूचकांक रिपोर्ट 2021 के अनुसार, भारतीय घरों में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष 50 किलोग्राम खाद्य अपशिष्ट होता है, जिसके परिणामस्वरूप सालाना कुल 68,760,163 टन खाद्य अपशिष्ट हो जाता है।

भारत में भविष्य में FLW को कम करना क्यों महत्त्वपूर्ण है?

  • जलवायु परिवर्तन: खाद्यान्न की बर्बादी को कम करने से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में उल्लेखनीय कमी आ सकती है, जिससे जलवायु परिवर्तन में प्रमुख योगदान देने वाले कारकों की समस्या का समाधान हो सकता है।
    • FLW को कम करने से उत्सर्जन में 12.5 गीगाटन CO2 समतुल्य (Gt CO2e) की कटौती हो सकती है, जो सड़क पर 2.7 बिलियन कारों से होने वाले उत्सर्जन को हटाने के बराबर है।
    • FLW को न्यूनतम करके, जल और भूमि जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव को काफी हद तक कम किया जा सकता है, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि ज़रूरतमंदों तक अधिक भोजन पहुँचे।
  • खाद्य सुरक्षा: वैश्विक स्तर पर वर्ष 2022 में 691 से 783 मिलियन लोग भूख से ग्रसित थे। खाद्य और कृषि संगठन (FAO) के अनुसार, भारत की 74% से अधिक आबादी स्वस्थ आहार का खर्च उठाने में असमर्थ है। 
    • भारत में लाखों लोग अभी भी कुपोषित हैं, इसलिये खाद्यान्न की कमी को कम करने से यह सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है कि अधिक भोजन ज़रूरतमंदों तक पहुँचे
  • आर्थिक दक्षता: फसल की कटाई के बाद की प्रक्रियाओं में सुधार करके, भारत कृषि उत्पादकता को बढ़ा सकता है, बर्बादी को कम कर सकता है और किसानों की आय को बढ़ा सकता है, जिससे एक अधिक लचीली कृषि अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा।

खाद्यान्न हानि और बर्बादी से निपटने के लिये भारत की क्या पहल हैं?

  • प्रधानमंत्री किसान संपदा योजना: यह खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्रालय (MoFPI) के तहत एक केंद्रीय क्षेत्र की व्यापक योजना है जिसका उद्देश्य पूरे भारत में मज़बूत खाद्य प्रसंस्करण और संरक्षण बुनियादी ढाँचे के विकास के माध्यम से खाद्य हानि एवं बर्बादी को कम करना है।
  • प्रमुख पहलू: 
    • कोल्ड चैन, मूल्य संवर्द्धन एवं संरक्षण अवसंरचना: फसलोपरांत होने वाले नुकसान को न्यूनतम करने के लिये एकीकृत कोल्ड चैन, संरक्षण अवसंरचना एवं मूल्य संवर्द्धन अवसंरचना की स्थापना की गई है।
    • मेगा फूड पार्क: इसका उद्देश्य खाद्य प्रसंस्करण और वितरण को सुव्यवस्थित करना है (अप्रैल 2021 में भारत सरकार द्वारा इसे बंद कर दिया गया)।
    • कृषि प्रसंस्करण क्लस्टर: इसके तहत खाद्य अपव्यय को कम करने और स्थानीय आपूर्ति श्रृंखलाओं को बढ़ाने के लिये स्थानीय खाद्य प्रसंस्करण इकाइयों को बढ़ावा दिया जाता है।
    • ऑपरेशन ग्रीन्स: खाद्य प्रसंस्करण परियोजनाओं की स्थापना के लिये अनुदान/सब्सिडी के रूप में ऋण से जुड़ी वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है, जिससे खाद्य प्रसंस्करण और संरक्षण अवसंरचना सुविधाओं का सृजन होता है। 
  • भोजन बचाओ, भोजन बाँटो, आनंद बाँटो (IFSA): भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) के नेतृत्व में यह पहल आपूर्ति श्रृंखला में खाद्य हानि और बर्बादी को रोकने के लिये विभिन्न हितधारकों को एक साथ लाती है। यह अधिशेष भोजन के सुरक्षित वितरण की सुविधा भी प्रदान करता है।

खाद्यान्न की बर्बादी से निपटने के लिये अंतर्राष्ट्रीय मॉडल

  • व्यवसायों के लिये प्रोत्साहन: अमेरिका में कर वृद्धि से अमेरिकियों की सुरक्षा (PATH) अधिनियम, 2015 के तहत खाद्य पदार्थ दान करने के संदर्भ में कर कटौती में वृद्धि की गई, जिससे व्यवसायों को अतिरिक्त खाद्य पदार्थ दान करने हेतु प्रोत्साहित किया गया।
  • इटली का प्रोत्साहन मॉडल: इटली ने व्यवसायों को खाद्य पदार्थ दान करने हेतु प्रोत्साहन देकर, दस लाख टन खाद्य अपशिष्ट को कम करने के लिये प्रति वर्ष लगभग 10 मिलियन अमेरिकी डॉलर आवंटित किये हैं।
  • संयुक्त राष्ट्र वैश्विक खाद्य हानि और अपशिष्ट प्रोटोकॉल: यह खाद्य हानि और अपशिष्ट के मापन के लिये एक वैश्विक मानक है। इसे प्रसंस्करण, खुदरा, उपभोक्ताओं के संबंध में  SDG लक्ष्य 12.3 के लिये एक संकेतक के रूप में प्रस्तावित किया गया था।
    • इसका उपयोग देश और कंपनियाँ अपनी सीमाओं और आपूर्ति श्रृंखलाओं के तहत FLW को मापने के लिये कर सकती हैं।

FLW से निपटने के लिये क्या कार्रवाई आवश्यक है?

  • मशीनीकरण को बढ़ावा देना: कंबाइन हार्वेस्टर जैसे मशीनीकृत उपकरणों का उपयोग करने से धान उत्पादन में काफी कम नुकसान होता है। हालाँकि भारतीय किसानों का केवल छोटा प्रतिशत ही ऐसी मशीनरी का उपयोग कर पाता है।
  • भंडारण और पैकेजिंग समाधान में सुधार करना: पारंपरिक भंडारण विधियाँ (जिनमें धूप में सुखाना और जूट पैकेजिंग शामिल हैं) उपयुक्त नहीं हैं
    • सौर ड्रायर, वायुरोधी पैकेजिंग को लागू करने के साथ सरकार की योजना के अनुसार पाँच वर्षों में भारत की अनाज भंडारण क्षमता को 70 मिलियन मीट्रिक टन (MMT) तक उन्नत करने से फसल-उपरांत होने वाले नुकसानों पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है।
  • अपशिष्ट प्रबंधन प्रोटोकॉल और पुनर्चक्रण: संयुक्त राष्ट्र वैश्विक खाद्य हानि और अपशिष्ट प्रोटोकॉल को अपनाने से भारत मूल्य शृंखला में खाद्य हानि की मात्रा निर्धारित करने और लक्षित समाधान विकसित करने में सक्षम हो सकता है। 
    • खाद्य अपशिष्ट को खाद, बायोगैस या ऊर्जा में पुनर्चक्रित करना, अतिरिक्त उत्पादन और फसल-पश्चात अपशिष्ट के प्रबंधन का एक स्थायी तरीका प्रदान करता है।
  • अतिरिक्त भोजन का पुनर्वितरण: अतिरिक्त भोजन को ज़रूरतमंदों में पुनर्वितरित किया जा सकता है, जिससे भूख और खाद्य असुरक्षा कम हो सकती है। वैकल्पिक रूप से अतिरिक्त भोजन को पशु आहार या जैविक खाद में परिवर्तित किया जा सकता है जो एक प्रभावी पुनर्चक्रण समाधान प्रदान करता है।
  • उपभोक्ता उत्तरदायित्व: उपभोक्ता केवल आवश्यक वस्तुएँ खरीदकर खाद्य अपव्यय को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। 
    • जागरूकता अभियानों के माध्यम से उपभोक्ता व्यवहार में परिवर्तन लाकर ज़िम्मेदार उपभोग पैटर्न को बढ़ावा दिया जा सकता है।
  • नवीन प्रौद्योगिकियों को अपनाना: मोबाइल खाद्य प्रसंस्करण प्रणाली, बेहतर लॉजिस्टिक्स और ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म जैसे नवाचार, खाद्य उत्पादन और खपत के बीच के अंतराल को कम करने में मदद कर सकते हैं तथा भंडारण, परिवहन और वितरण में अक्षमताओं को कम कर सकते हैं।
  • सामाजिक आयोजनों से भोजन एकत्र करना: सामाजिक आयोजनों में अक्सर भोजन की काफी बर्बादी होती है। शहरी संगठन पहले से ही आयोजनों से बचा हुआ भोजन एकत्र कर रहे हैं और इसे झुग्गी-झोपड़ियों में वितरित कर रहे हैं, जिससे भोजन की बर्बादी और भूख दोनों ही समस्याओं से निपटा जा सकता है।
  • खाद्य उत्पादन को मांग के अनुरूप करना: संसाधनों की बर्बादी को कम करने के लिये खाद्य उत्पादन को वास्तविक मांग के अनुरूप करने से जल, ऊर्जा और भूमि का अनुकूलतम उपयोग होने के साथ यह सुनिश्चित हो सकता है कि अतिरिक्त संसाधनों का उपयोग ऐसे खाद्य पदार्थों पर न किया जाए, जो अंततः बर्बाद हो जाएंगे।

निष्कर्ष:

भारत में खाद्यान्न की हानि और बर्बादी को कम करना केवल आर्थिक दक्षता में सुधार लाने तक सीमित नहीं है; यह लाखों लोगों के लिये खाद्य सुरक्षा की रक्षा करते हुए पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने तक विस्तारित है। तकनीकी नवाचारों के साथ-साथ सहायक नीतियों से खाद्यान्न की बर्बादी को 50% तक कम करने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। जैसे-जैसे भारत एक संधारणीय भविष्य की ओर बढ़ रहा है, खाद्यान्न की हानि और बर्बादी की समस्या को हल करना, लोगों की खाद्यान ज़रूरतों एवं ग्रह की रक्षा की दिशा में निर्णायक है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में खाद्य हानि और बर्बादी से खाद्य सुरक्षा पर पड़ने वाले प्रभावों की चर्चा कीजिये। इस मुद्दे को हल करने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

मेन्स:

Q. देश में खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र की चुनौतियाँ एवं अवसर क्या हैं? खाद्य प्रसंस्करण को प्रोत्साहित कर कृषकों की आय में पर्याप्त वृद्धि कैसे की जा सकती है? (2020)

Q. खाद्य सुरक्षा बिल से भारत में भूख व कुपोषण के विलोपन की आशा है। उसके प्रभावी कार्यान्वयन में विभिन्न आशंकाओं की समालोचनात्मक विवेचना कीजिये, साथ ही यह बताएँ कि विश्व व्यापार संगठन में इसमें कौन-सी चिंताएँ उत्पन्न हो गई हैं। (2013)


सामाजिक न्याय

नमस्ते योजना

प्रारंभिक परीक्षा:

नमस्ते योजना, शहरी स्थानीय निकाय, अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST), AB-PMJAY , स्वच्छता उद्यमी, अस्पृश्यता, स्वच्छ भारत मिशन, स्वयं सहायता समूह (SHG)

मुख्य परीक्षा:

भारत में मैनुअल स्कैवेंजिंग, मैनुअल स्कैवेंजिंग को रोकने के लिये सरकारी पहल, पुनर्वास और रोज़गार

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों? 

3,000 से अधिक शहरी स्थानीय निकायों (ULB) से प्राप्त हालिया सरकारी आँकड़ों से पता चलता है कि नमस्ते योजना के तहत भारत के शहरों में जोखिमपूर्ण सीवर और सेप्टिक टैंक की सफाई में शामिल 38,000 मैनुअल स्कैवेंजरों और श्रमिकों में से 92% अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) या अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) समुदायों से संबंधित हैं। 

परिभाषा

  • मैनुअल स्कैवेंजर: मैनुअल स्कैवेंजर वह व्यक्ति होता है जिसे अस्वास्थ्यकर शौचालयों, खुली नालियों, गड्ढों या रेलवे पटरियों से मानव मल को पूर्ण रूप से सड़ने से पहले हाथ से साफ करने, ले जाने या बटोरने के लिये नियुक्त किया जाता है, जैसा कि मैनुअल स्कैवेंजर्स के रूप में रोज़गार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013 (PEMSR) में उल्लिखित है।
  • जोखिमपूर्ण सफाई: इसका तात्पर्य पर्याप्त सुरक्षात्मक उपकरण के बिना सीवर या सेप्टिक टैंक की मैन्युअल सफाई से है।
  • स्वच्छता कर्मी/सफाई कर्मचारी: स्वच्छता कार्य में नियोजित व्यक्ति, जिनमें कचरा बीनने वाले और सीवर/सेप्टिक टैंक साफ करने वाले लोग शामिल हैं, परंतु घरेलू कामगार इसमें शामिल नहीं हैं।
  • सीवर और सेप्टिक टैंक श्रमिक (SSW): सीवर और सेप्टिक टैंकों की जोखिमपूर्ण सफाई में लगे श्रमिक। 
  • सीवर एंट्री प्रोफेशनल्स (SEP): प्रशिक्षित सफाई कर्मचारी जो अनुमति और उचित सुरक्षा उपकरणों के साथ सीवर/सेप्टिक टैंकों की सफाई करते हैं, उन्हें SEP के रूप में पहचाना जाता है।

नमस्ते योजना क्या है?

  • राष्ट्रीय मशीनीकृत स्वच्छता पारिस्थितिकी तंत्र (नमस्ते) योजना: सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय (MOSJE) एवं आवासन और शहरी मामलों के मंत्रालय (MOHUA) की एक संयुक्त पहल, जो मैनुअल स्कैवेंजिंग को समाप्त करने और सफाई कर्मचारी सुरक्षा को बढ़ावा देने पर केंद्रित है।
    • 349.70 करोड़ रुपए के परिव्यय के साथ, नमस्ते का लक्ष्य वर्ष 2025-26 तक सभी 4800 से अधिक शहरी स्थानीय निकायों को कवर करना है, जो मैनुअल स्कैवेंजर्स के पुनर्वास के लिये पूर्व की स्व-रोज़गार योजना (SRMS) का स्थान लेगी।
    • नवीन संशोधित योजना के अनुसार शहरी स्थानीय निकायों द्वारा नियोजित  सीवर/सेप्टिक टैंक श्रमिकों (SSW) की प्रोफाइलिंग की जाएगी।
    • इन SSW को व्यावसायिक सुरक्षा प्रशिक्षण, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (PPE) किट और स्वास्थ्य बीमा आयुष्मान भारत प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (AB-PMJAY) प्रदान करने का प्रस्ताव है।
  • नमस्ते का लक्ष्य: इसका लक्ष्य ULB द्वारा नियोजित SSW को प्रोफाइल करना, सुरक्षा प्रशिक्षण और उपकरण प्रदान करना तथा उन्हें "सैनिप्रिन्योर्स" या स्वच्छता उद्यमियों में बदलने के लिये पूंजीगत सब्सिडी प्रदान करना है, जिससे स्वरोज़गार और औपचारिक रोज़गार के अवसरों को बढ़ावा मिले।
    • इसका मुख्य उद्देश्य सफाई कार्य में होने वाली मौतों को रोकना तथा सफाई कर्मचारियों के जीवन स्तर और स्वास्थ्य में सुधार लाना है।
      • संसद में पेश सरकारी आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2019 और वर्ष 2023 के बीच देश भर में कम-से-कम 377 लोगों की मौत सीवर और सेप्टिक टैंकों की खतरनाक सफाई से हुई है।
  • प्रोफाइलिंग की प्रगति: सितंबर 2024 तक 3,326 ULB ने लगभग 38,000 SSW की प्रोफाइलिंग की है। 283 ULB ने ज़ीरो SSW की सूचना दी, जबकि 2,364 ने 10 से न्यून SSW की सूचना दी।
  • राज्य स्तरीय प्रयास: केरल और राजस्थान समेत 12 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों ने प्रोफाइलिंग प्रक्रिया पूरी कर ली है।
    • आंध्रप्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे 17 राज्य अभी भी इस प्रक्रिया में क्रियान्वित हैं।
    • तमिलनाडु और ओडिशा जैसे कुछ राज्य अपने अलग कार्यक्रम चला रहे हैं, जिसमें वे केंद्र को रिपोर्ट नहीं कर रहे हैं।
  • आवासन एवं शहरी मामलों के मंत्रालय का अनुमान है कि शहरी जनसंख्या आँकड़ों और दशकीय वृद्धि दर के आधार पर, वर्तमान में भारत के शहरी क्षेत्रों में लगभग 1,00,000 SSW कार्यरत हैं।

मैनुअल स्कैवेंजिंग क्या है?

  • मैनुअल स्कैवेंजिंग (MS): मैनुअल स्कैवेंजिंग (MS) से तात्पर्य सीवर या सेप्टिक टैंक में से हाथ से मानव मल को साफ करने की प्रथा से है। हालाँकि भारत में PEMSR अधिनियम, 2013 के तहत इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, लेकिन यह प्रथा अभी भी जारी है। 
    • यह अधिनियम मानव मल की सफाई या प्रबंधन के लिये किसी को भी नियुक्त करने पर प्रतिबंध लगाता है तथा परिभाषा को व्यापक बनाते हुए इसमें सेप्टिक टैंक, गड्ढों या रेलवे पटरियों की सफाई को भी शामिल करता है। 
    • यह इस प्रथा को "अमानवीय" मानता है तथा मैनुअल स्कैवेंजरों द्वारा सामना किये गए ऐतिहासिक अन्याय को संबोधित करने का प्रयास करता है।

MS को कम करने के प्रयास: 

  • संवैधानिक सुरक्षा उपाय:
    • अनुच्छेद-14: सभी नागरिकों के लिये विधि के समान संरक्षण की गारंटी देता है, यह सुनिश्चित करता है कि हाथ से मैला ढोने वालों को जाति या व्यवसाय के आधार पर भेदभावपूर्ण प्रथाओं का सामना न करना पड़े।
    • अनुच्छेद-16: सभी के लिये समान रोज़गार के अवसर सुनिश्चित करता है, सरकारी नौकरियों में जाति-आधारित भेदभाव पर रोक लगाता है, मैनुअल स्कैवेंजरों के आर्थिक उत्थान को बढ़ावा देता है।
    • अनुच्छेद-17: अस्पृश्यता को समाप्त करता है और इसे लागू करने वालों को दंडित करता है। यह हाथ से मैला ढोने वालों को जाति-आधारित बहिष्कार और कलंक से बचाता है।
    • अनुच्छेद-21: सम्मान के साथ जीने के अधिकार को सुनिश्चित करता है तथा मैनुअल स्कैवेंजरों को अमानवीय कार्य से सुरक्षा की मांग करने के लिये कानूनी आधार प्रदान करता है।
    • अनुच्छेद 23: बलात श्रम के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करता है, यह सुनिश्चित करता है कि मैनुअल स्कैवेंजरों को उचित वेतन या सुरक्षा मानकों के बिना कठोर परिस्थितियों में काम करने के लिये मज़बूर नहीं किया जा सकता।

कानूनी ढाँचा:

  • मैनुअल स्कैवेंजर के रूप में रोज़गार का निषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013: यह अधिनियम अस्वास्थ्यकर शौचालयों के निर्माण समेत मैनुअल स्कैवेंजिंग पर प्रतिबंध लगाता है, ऐसे शौचालयों को खत्म करने या स्वच्छ शौचालयों में परिवर्तित करने का आदेश देता है।
    • इसमें कौशल विकास, वित्तीय सहायता और वैकल्पिक रोज़गार के माध्यम से मैनुअल स्कैवेंजरों की पहचान और पुनर्वास का भी प्रावधान है।
  • SC/ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989: यह अनुसूचित जातियों के लोगों को हाथ से मैला ढोने के काम में लगाने को अपराध बनाता है।

सरकारी पहल और योजनाएँ:

  • मैनुअल स्कैवेंजरों के पुनर्वास के लिये स्वरोज़गार योजना (SESRM): यह योजना पहचाने गए मैनुअल स्कैवेंजरों को स्वरोज़गार अपनाने में सहायता प्रदान करती है।
  • राष्ट्रीय सफाई कर्मचारी वित्त एवं विकास निगम (NSKFDC): NSKFDC सफाई कर्मचारियों और उनके परिवारों के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिये रियायती ऋण और वित्तीय सहायता प्रदान करता है।
    • राष्ट्रीय गरिमा अभियान: यह मैनुअल स्कैवेंजिंग की प्रथा को समाप्त करने और मैनुअल स्कैवेंजरों के पुनर्वास के लिये एक राष्ट्रीय अभियान है।
  • स्वच्छ भारत मिशन 2.0: यह शहरी स्थानीय निकायों को सफाई कर्मचारियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये प्रोत्साहित करता है, तथा मशीनीकरण और सुरक्षात्मक उपायों को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करता है।
  • स्वच्छ भारत मिशन के एक भाग के रूप में शुरू की गई सफाईमित्र सुरक्षा चुनौती (SFC) इस पहल का उद्देश्य शहरों को सीवर सफाई के लिये मशीनीकरण करने तथा मानवीय हस्तक्षेप को कम करके मृत्यु दर को रोकने के लिये प्रोत्साहित करना है।
    • दीनदयाल अंत्योदय योजना-राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन (DAY-NULM): इसके दिशानिर्देशों में सुझाया गया है कि गठित स्वयं सहायता समूह (SHG) में कम-से-कम 10%  सदस्य सफाई कर्मियों समेत कमज़ोर व्यवसायों में लगे व्यक्ति होने चाहिये। 
      • इसके बाद इन स्वयं सहायता समूहों को अपना उद्यम चलाने का अधिकार मिल जाएगा।

जाति-आधारित व्यवसाय भारत में मैनुअल स्कैवेंजिंग को किस प्रकार कायम रखता है?

  • जाति पदानुक्रम और सामाजिक भेदभाव: भारतीय वर्ण व्यवस्था में दलित सामाजिक पदानुक्रम में सबसे निचले पायदान पर हैं। उन्हें अक्सर "प्रदूषणकारी" माने जाने वाले कार्यों से जोड़ा जाता है, जैसे कि मानव मल को साफ करना। 
    • यह जाति-आधारित भेदभाव न केवल उन्हें मुख्यधारा के समाज से बहिष्कृत करता है, बल्कि उन्हें शोषणकारी श्रम प्रथाओं के अधीन भी करता है। 
    • उनके काम से जुड़ा कलंक उनकी हाशिये पर स्थिति को और बढ़ा देता है, क्योंकि उन्हें ऊँची जातियों के अलावा कभी-कभी अपने समुदायों के भीतर भी भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
  • जजमानी प्रणाली और विरासत में मिले व्यवसाय: पारंपरिक जजमानी प्रणाली, जो विरासत में मिली जाति-आधारित भूमिकाओं को मज़बूत करती है, मैनुअल स्कैवेंजिंग को कायम रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 
    • यह विरासत उनके समुदायों में मैनुअल स्कैवेंजिंग को सामान्य बना देती है, जिससे इन व्यवसायों से बचना मुश्किल हो जाता है।
  • विकल्पों की कमी: कई दलितों को मैनुअल स्कैवेंजिंग के लिये काम करना पड़ता है क्योंकि उनके पास कोई व्यावहारिक विकल्प नहीं है। परिवार अल्प खाद्यान्न पर निर्भर हैं, क्योंकि जातिगत भेदभाव के कारण रोज़गार के अवसर सीमित हो जाते हैं, जिससे निर्धनता और बहिष्कार कायम रहता है।
  • संरचनात्मक बाधाएँ और भेदभाव: नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 जैसे विधिक ढाँचों का उद्देश्य जाति-आधारित भेदभाव को रोकना है, लेकिन इसका प्रवर्तन कमज़ोर है। PEMSR अधिनियम, 2013 की शुरुआत के बावजूद, दोषसिद्धि दर बहुत कम है, जिससे समस्या और भी बढ़ गई है।
  • मैनुअल स्कैवेंजरों को अक्सर जल, शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल जैसी बुनियादी अधिकारों और सेवाओं तक पहुँच नहीं होती है, जिससे इस व्यवसाय की जातिगत प्रकृति मज़बूत होती है और वैकल्पिक आजीविका को आगे बढ़ाने की उनकी क्षमता में बाधा उत्पन्न होती है।
  • शिक्षा में भेदभाव: मैला ढोने वाले परिवारों के बच्चों को स्कूलों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण उनके स्कूल छोड़ने की दर बहुत अधिक होती है। उन्हें अक्सर बहिष्कृत समझा जाता है, उन्हें धमकाया जाता है और मज़दूरी करने के लिये मज़बूर किया जाता है। 
  • भेदभाव का यह चक्र शिक्षा के अवसरों को सीमित करता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि अगली पीढ़ी जाति-आधारित व्यवसायों में फँसी रहे।

भारत में मैनुअल स्कैवेंजिंग के उन्मूलन और पुनर्वास की चुनौतियाँ क्या हैं?

  • समझ और जागरूकता की कमी: PEMSR अधिनियम, 2013 में हाथ से मैला उठाने की प्रक्रिया को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है। हालाँकि कई सरकारी अधिकारी भी इस बात से अनजान हैं कि किसको हाथ से मैला उठाने वाला माना जाता है। 
    • प्रायः ये व्यक्ति सफाईकर्मी या सफाई कर्मचारी के पद पर काम करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप आँकड़े अदृश्य और दोषपूर्ण संग्रहीत होते हैं।
  • अस्वास्थ्यकर शौचालयों को खत्म करने में अकुशलता: मैनुअल स्कैवेंजिंग का मूल कारण अस्वास्थ्यकर शौचालय हैं, जो धीमी और अप्रभावी प्रशासनिक कार्रवाइयों के कारण अनदेखा रह जाते हैं।
    • सामाजिक आर्थिक एवं जाति जनगणना (SECC) 2011 के अनुसार, भारत में दस लाख से अधिक अस्वास्थ्यकर शौचालय हैं, जिनमें से कई में अभी भी मल (मानव मल के लिये शब्द, जो सीवर प्रणाली या सेप्टिक टैंक के बिना क्षेत्रों से एकत्र किया गया था) को खुली नालियों में प्रवाहित किया जाता है और उन्हें मैन्युअल रूप से साफ किया जाता है। 
    • इन शौचालयों के अनिवार्य परिवर्तन या खत्म करने को सभी राज्यों में प्रभावी ढंग से क्रियान्वित नहीं किया गया है।
  • अपर्याप्त सीवेज और ड्रेनेज सिस्टम: अन्य क्षेत्रों में प्रगति के बावज़ूद भारत में अपशिष्ट जल प्रबंधन और जल निकासी प्रणाली अविकसित बनी हुई है। आधुनिक सीवेज सिस्टम में खराब योजना और अपर्याप्त निवेश के कारण मैनुअल स्कैवेंजिंग की आवश्यकता बनी रहती है।
  • कानूनी प्रतिबंधों को लागू करने में विफलता: भारत सरकार उन लोगों को दंडित करने में अप्रभावी रही है, जो अवैध रूप से मैनुअल स्कैवेंजरों को नियुक्त करना जारी रखते हैं। 
    • मैनुअल स्कैवेंजर्स रोज़गार और शुष्क शौचालय निर्माण (निषेध) अधिनियम, 1993 और PEMSR अधिनियम, 2013 जैसे कानूनों की नियमित रूप से अनदेखी की जाती है, जिससे यह प्रथा जारी रहती है।
  • आपराधिक न्याय प्रणाली तक पहुँचने में बाधाएँ: दलितों और हाशिये के समुदायों को न्याय पाने में महत्त्वपूर्ण बाधाओं का सामना करना पड़ता है, क्योंकि पुलिस अक्सर मैनुअल स्कैवेंजरों के खिलाफ अपराधों की जाँच करने से इनकार कर देती है, खासकर जब अपराधी प्रभावशाली जातियों से संबंधित हों। 
  • यह प्रणालीगत पूर्वाग्रह विधिक सुरक्षा को कमज़ोर करता है और पीड़ितों को निवारण मांगने से हतोत्साहित करता है।
  • नियोक्ताओं और समुदाय से उत्पीड़न: मैनुअल स्कैवेंजर जो अपना पेशा छोड़ना चाहते हैं, उन्हें अक्सर धमकियों, शारीरिक हिंसा और सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। 
    • सामुदायिक दबाव और प्रमुख जाति समूहों के प्रतिशोध के कारण लोग शोषणकारी परिस्थितियों में फँसे रहते हैं, जिससे उनके लिये मैला ढोने का काम छोड़ना मुश्किल हो जाता है।
  • वैकल्पिक रोज़गार के अवसरों की कमी: मैनुअल स्कैवेंजर जीवित रहने के लिये दैनिक अनुदान पर निर्भर रहते हैं, जिससे वैकल्पिक आजीविका तक तत्काल पहुँच के बिना इस व्यवसाय को छोड़ना मुश्किल हो जाता है।
    • जाति और लैंगिक भेदभाव समेत सामाजिक और आर्थिक बाधाएँ, नवीन रोज़गार हासिल करने की उनकी क्षमता को सीमित करती हैं। भ्रष्टाचार इन चुनौतियों को और बढ़ा देता है, क्योंकि आरक्षित सरकारी पदों को पाने के लिये अक्सर रिश्वत की आवश्यकता होती है।
  • अपर्याप्त तिथि: मैनुअल स्कैवेंजरों की संख्या की सही पहचान करने और उसका दस्तावेज़ीकरण करने में सरकारी सर्वेक्षण अप्रभावी रहे हैं। 
    • विभिन्न स्रोतों से प्राप्त रिपोर्टों में विसंगतियाँ समस्या के न्यूनतम आकलन को उज़ागर करती हैं। व्यापक और नियमित सर्वेक्षणों के बिना, लक्षित हस्तक्षेप चुनौतीपूर्ण बने हुए हैं।

आगे की राह

  • पुनर्वास को सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से जोड़ना: पुनर्वास कार्यक्रमों को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) और अन्य सामाजिक सुरक्षा कानूनों से जोड़ें। इससे मैला ढोने वाले समुदायों को रोज़गार तक पहुँच आसान होगी, जिससे इस प्रथा को समाप्त करने में मदद मिलेगी।
  • समन्वय को बढ़ावा देना: मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के लिये एकीकृत दृष्टिकोण को सुविधाजनक बनाने के लिये प्रमुख मंत्रालयों को शामिल करते हुए एक समन्वय समिति की स्थापना करना। गैर सरकारी संगठनों और सामुदायिक संगठनों की भूमिका को मज़बूत करने से स्थानीय स्तर पर अधिनियम को लागू करने में सहायता मिल सकती है।
  • रेलवे की प्रथाओं पर ध्यान देना: भारतीय रेलवे, जो हाथ से मैला ढोने में महत्त्वपूर्ण योगदानकर्त्ता है, को जैव-शौचालय अपनाना चाहिये तथा जवाबदेही और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिये संसद को नियमित प्रगति रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिये।
  • लेखापरीक्षण तंत्र: नमस्ते योजना के कार्यान्वयन की नियमित निगरानी के लिये एक राष्ट्रीय स्तर की निगरानी समिति का गठन करना तथा प्रणालीगत मुद्दों की पहचान करने एवं उनका समाधान करने के लिये व्यापक सामाजिक लेखापरीक्षण करना।
  • विधायी ढाँचे में संशोधन: हाथ से मैला ढोने वालों के लिये सुरक्षा बढ़ाने और एकरूपता सुनिश्चित करने के लिये मौज़ूदा कानूनों में संशोधन करना। निगरानी एजेंसियों के बीच जवाबदेही को प्रोत्साहित करना।
  • प्रौद्योगिकी और संसाधनों में निवेश: उन्नत सफाई प्रौद्योगिकियों की खरीद के लिये स्थानीय प्राधिकारियों को पर्याप्त धनराशि आवंटित करना, जिससे मैनुअल हस्तक्षेप कम हो और सफाई कर्मचारियों के लिये कार्य स्थितियों में सुधार हो।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारत में मैनुअल स्कैवेंजिंग को प्रतिबंधित करने वाले कानूनों के प्रभावी कार्यान्वयन में कौन-सी प्रणालीगत बाधाएँ उत्पन्न होती हैं? संभावित समाधानों पर चर्चा कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रारंभिक

प्रश्न 1. 'राष्ट्रीय गरिमा अभियान' एक राष्ट्रीय अभियान है, जिसका उद्देश्य है: (2016)

(a) बेघर एवं निराश्रित व्यक्तियों का पुनर्वास और उन्हें आजीविका के उपयुक्त स्रोत प्रदान करना।
(b) यौनकर्मियों को उनके अभ्यास से मुक्त करना और उन्हें आजीविका के वैकल्पिक स्रोत प्रदान करना।
(c) हाथ से मैला ढोने की प्रथा को खत्म करना और हाथ से मैला ढोने वालों का पुनर्वास करना।
(d) बंधुआ मज़दूरों को मुक्त करना और उनका पुनर्वास करना।

उत्तर: (c)


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