शासन व्यवस्था
जाति जनगणना: आवश्यकता और चिंता
- 06 Oct 2023
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यह एडिटोरियल 04/10/2023 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित ‘‘Bihar caste survey data released: A look at the complicated history of caste census’’ लेख पर आधारित है। यह जाति जनगणना की आवश्यकता का विश्लेषण किया गया है।
प्रिलिम्स के लिये:जनगणना, सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना, रोहिणी आयोग। मेन्स के लिये:जाति जनगणना का महत्त्व, जाति जनगणना से संबंधित चुनौतियाँ, OBCs उपवर्गीकरण। बिहार सरकार द्वारा हाल ही में जारी किये गए जाति सर्वेक्षण के आँकड़ों ने एक बार फिर से |
जाति जनगणना के मुद्दे को चर्चा में ला दिया है। हालाँकि, भारत की जनगणना द्वारा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों पर आँकड़े प्रकाशित किये जाते रहे हैं, अन्य पिछड़ा वर्ग (Other Backward Classes- OBCs) एवं अन्य समूहों की आबादी का कोई अनुमान उपलब्ध नहीं कराया जाता है।
जनगणना एवं सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना:
- भारत में जनगणना (Census in India):
- भारत में जनगणना की शुरुआत वर्ष 1881 के औपनिवेशिक अभ्यास के साथ हुई।
- जनगणना का उपयोग सरकार, नीति निर्माताओं, शिक्षाविदों और अन्य लोगों द्वारा भारतीय आबादी का आकलन करने, संसाधनों तक पहुँच बनाने, सामाजिक परिवर्तन की रूपरेखा तय करने और परिसीमन अभ्यासों के लिये किया जाता है।
- हालाँकि, इसकी एक अप्रभावी साधन के रूप में आलोचना की जाती है जो विशेषीकृत आकलन के लिये अनुपयुक्त है।
- सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (Socio-Economic and Caste Census- SECC):
- SECC पहली बार वर्ष 1931 में आयोजित किया गया था, जिसका उद्देश्य अभाव के संकेतकों की पहचान करने के लिये ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में भारतीय परिवारों की आर्थिक स्थिति के बारे में सूचना एकत्र करना था।
- यह विभिन्न जाति समूहों की आर्थिक स्थितियों का मूल्यांकन करने के लिये विशिष्ट जाति नामों पर भी डेटा एकत्र करता है।
- जनगणना और SECC के बीच अंतर:
- जनगणना भारतीय जनसंख्या का एक सामान्य चित्र प्रदान करती है, जबकि SECC का उपयोग राज्य सहायता के लाभार्थियों की पहचान करने के लिये किया जाता है।
- जनगणना अधिनियम 1948 के तहत जनगणना के आँकड़े गोपनीय होते हैं, जबकि SECC में संग्रहित व्यक्तिगत सूचना सरकारी विभागों द्वारा परिवारों को लाभ देने या लाभ से वंचित करने हेतु उपयोग के लिये उपलब्ध होती है।
- भारत में जाति-आधारित आँकड़ा संग्रह का इतिहास:
- भारत में जाति-आधारित आँकड़ा संग्रह का एक लंबा इतिहास है, जिसमें वर्ष 1931 तक की जातियों की सूचना शामिल है।
- वर्ष 1951 के बाद जातिगत आँकड़ों का संग्रह बंद करने का निर्णय लिया गया ताकि इस विभाजनकारी दृष्टिकोण से बचा जा सके और राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा दिया जा सके।
- हालाँकि, बदलती सामाजिक-राजनीतिक गतिशीलता और सटीक सूचना की आवश्यकता को देखते हुए जातिगत जनगणना का नए सिरे से आह्वान किया जा रहा है।
जातिगत जनगणना का महत्त्व:
- सामाजिक असमानता को दूर करने के लिये:
- भारत के कई हिस्सों में जाति-आधारित भेदभाव अभी भी प्रचलित है। जातिगत जनगणना वंचित समूहों की पहचान करने और उन्हें नीति निर्माण की मुख्यधारा में लाने में मदद कर सकती है।
- विभिन्न जाति समूहों के वितरण को समझकर, सामाजिक असमानता को दूर करने और हाशिये पर अवस्थित समुदायों के उत्थान के लिये लक्षित नीतियों को लागू किया जा सकता है।
- संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित करने के लिये:
- OBCs और अन्य समूहों की जनसंख्या पर सटीक आँकड़े के बिना संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित करना कठिन है।
- जातिगत जनगणना विभिन्न जाति समूहों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों और आवश्यकताओं के बारे में सूचना प्रदान कर इस संबंध में मदद कर सकती है।
- यह नीति निर्माताओं को ऐसी नीतियों के निर्माण में मार्गदर्शन प्रदान कर सकती है जो प्रत्येक समूह की विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा करे और इस प्रकार समावेशी विकास को बढ़ावा दे।
- सकारात्मक कार्रवाई नीतियों की प्रभावशीलता की निगरानी के लिये:
- OBCs और अन्य समूहों के लिये आरक्षण जैसी सकारात्मक कार्रवाई नीतियों का उद्देश्य सामाजिक न्याय को बढ़ावा देना है। हालाँकि, जनसंख्या पर उचित आँकड़े के बिना इन नीतियों के प्रभाव और प्रभावशीलता का मूल्यांकन करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
- जातिगत जनगणना ऐसी नीतियों के कार्यान्वयन और परिणामों की निगरानी में मदद कर सकती है, जिससे नीति निर्माताओं को उनकी निरंतरता और संशोधन के संबंध में सूचना-संपन्न निर्णय लेने में सक्षम बनाया जा सकता है।
- भारतीय समाज की एक व्यापक तस्वीर प्रदान करने के लिये:
- जाति भारतीय समाज का एक अभिन्न अंग है, जो सामाजिक संबंधों, आर्थिक अवसरों और राजनीतिक गतिशीलता को प्रभावित करती है।
- जातिगत जनगणना भारतीय समाज की विविधता की एक व्यापक तस्वीर प्रदान कर सकती है, जो सामाजिक ताने-बाने और विभिन्न जाति समूहों के बीच परस्पर क्रिया पर प्रकाश डाल सकती है।
- यह आँकड़ा सामाजिक गतिशीलता की बेहतर समझ पाने में योगदान कर सकता है।
- संवैधानिक अधिदेश:
- भारत का संविधान भी जातिगत जनगणना आयोजित कराने का पक्षधर है। अनुच्छेद 340 सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की दशा की जाँच करने और इस संबंध में सरकारों द्वारा उठाए जा सकने वाले कदमों के बारे में सिफ़ारिशें करने के लिये एक आयोग की नियुक्ति का प्रावधान करता है।
जातिगत जनगणना के विपक्ष में तर्क
- जाति व्यवस्था की पुष्टि:
- जाति जनगणना के विरोधियों का तर्क है कि जाति-आधारित भेदभाव अवैध है और जातिगत जनगणना जाति व्यवस्था को सबल ही करेगी।
- उनका मानना है कि लोगों को उनकी जातिगत पहचान के आधार पर वर्गीकृत करने के बजाय सभी नागरिकों के लिये व्यक्तिगत अधिकारों और समान अवसरों पर ध्यान केंद्रित करने को प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- जातियों को परिभाषित करना कठिन:
- जातियों को परिभाषित करना एक जटिल मुद्दा है, क्योंकि भारत में हजारों जातियाँ और उपजातियाँ पाई जाती हैं। जाति जनगणना के लिये जातियों की स्पष्ट परिभाषा की आवश्यकता होगी, जो आसान कार्य नहीं है।
- आलोचकों का तर्क है कि इससे समाज में भ्रम, विवाद और विभाजन की वृद्धि की स्थिति बन सकती है।
- सामाजिक विभाजन की वृद्धि:
- कुछ लोगों का तर्क है कि जातिगत जनगणना से सामाजिक विभाजन की वृद्धि हो सकती है और इसके बजाय सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करना बेहतर होगा।
- उनका मानना है कि लोगों में अंतर या पृथकता को उजागर करने के बजाय उनके बीच समानता पर बल देना राष्ट्रीय एकता के लिये अधिक लाभप्रद होगा।
जातिगत जनगणना पर सरकार का रुख:
- भारत सरकार ने वर्ष 2021 में लोकसभा में कहा था कि उसने नीतिगत तौर पर जनगणना में SCs और STs के अलावा अन्य जाति-वार आबादी की गणना नहीं करने का निर्णय लिया है।
सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना (SECC) की भूमिका क्या होगी?
- वर्ष 2011 में आयोजित SECC जाति संबंधी सूचना के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर व्यापक आँकड़ा एकत्र करने का एक प्रयास था।
- हालाँकि, आँकड़े की गुणवत्ता और वर्गीकरण से जुड़ी चुनौतियों के संबंध में विद्यमान चिंताओं के कारण SECC में एकत्र किये गए जाति के कच्चे आँकड़े (raw data) को अभी तक जारी नहीं किया गया है या प्रभावी ढंग से इसका उपयोग नहीं किया गया है।
- कच्चे आँकड़े को वर्गीकृत और श्रेणीबद्ध करने के लिये एक विशेषज्ञ समूह का गठन किया गया था, लेकिन इसकी सिफ़ारिशें अभी भी कार्यान्वयन के लिये लंबित हैं।
आगे की राह:
- जातियों और उपजातियों के आँकड़े प्राप्त करने के लिये ज़िला और राज्य स्तर पर स्वतंत्र अध्ययन आयोजित किया जा सकता है।
- आँकड़े को चुनाव जीतने के लिये मतभेदों को गहरा करने और ध्रुवीकरण बढ़ाने का हथियार नहीं बनना चाहिये। इसे एक वृहत और विविध लोकतंत्र में प्रतिनिधित्व की अवधारणा के बिखराव और संकुचन का कारण नहीं बनना चाहिये।
- आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग जैसी प्रौद्योगिकियों का उपयोग डेटा का विश्लेषण करने में मदद कर सकता है।
- OBCs के अंतर्गत आने वाले कम प्रतिनिधित्व प्राप्त उपजातियों को प्रतिनिधित्व प्रदान करने के लिये OBCs का उपवर्गीकरण किया जाना चाहिये, जिसके लिये न्यायमूर्ति रोहिणी आयोग ने हाल ही में रिपोर्ट प्रस्तुत की थी।
निष्कर्ष:
यद्यपि जातिगत जनगणना के पक्ष और विपक्ष, दोनों में ही प्रबल तर्क मौजूद हैं, सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने और संसाधनों के समान वितरण को सुनिश्चित करने के लिये OBCs एवं अन्य समूहों की आबादी पर सटीक आँकड़े का होना आवश्यक है। जातिगत जनगणना सकारात्मक कार्रवाई नीतियों की प्रभावशीलता की निगरानी करने और भारतीय समाज की एक व्यापक तस्वीर प्रदान करने में भी मदद कर सकती है। नीति निर्माताओं के लिये अधिक न्यायसंगत और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण करने के लिये दोनों पक्षों के तर्कों पर सावधानीपूर्वक विचार करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
अभ्यास प्रश्न: भारत में जातिगत जनगणना आयोजित कराने से संबद्ध महत्त्व और चुनौतियों की चर्चा कीजिये। सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के कुछ उपाय भी सुझाइये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2009)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (d) व्याख्या:
अतः विकल्प (d) सही है। |