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सामाजिक न्याय

जाति और हाथ से मैला ढोने की प्रथा

  • 24 Feb 2022
  • 13 min read

यह एडिटोरियल 23/02/2022 को ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित “Indignity Made Invisible” लेख पर आधारित है। इसमें हाथ से मैला ढोने की प्रथा के बारे में चर्चा की गई है और इस तथ्य पर विचार किया गया है कि जाति आधारित विभाजन ने किस प्रकार इस सामाजिक समस्या को और गहरा कर दिया है।

संदर्भ

आज़ादी के बाद से भारत में शक्ति समीकरण और राजनीतिक आदर्शों में गहरा बदलाव आया है जिसने व्यक्तिगत जीवन के साथ-साथ सामूहिक विचार को भी बदल दिया है। हालाँकि आधुनिकता लाने वाली ताकतें गहरे रूप से पक्षपाती भी रही हैं। जाति प्रथा भारतीय समाज की वास्तविकता है, जो केवल पहचान का ‘टैग’ भर नहीं है बल्कि यह देश में जीवन के तरीके को भी निर्धारित करती है।

जाति असमानता को एक बुनियादी मूल्य के रूप में आज भी सुदृढ़ कर रही है और श्रम का निर्धारण इसकी प्रमुख अभिव्यक्तियों में से एक है। जाति पदानुक्रम व्यावसायिक पदानुक्रम को मज़बूत करता है और व्यावसायिक शुद्धता एवं संदूषण के विचार व्यक्तियों के जीवन में और अधिक अंतर्निहित हुए हैं।

हाथ से मैला ढोने की प्रथा और जाति आधारित पूर्वाग्रह

हाथ से मैला ढोने की प्रथा/मैनुअल स्कैवेंजिंग (Manual scavenging)

  • हाथ से मैला ढोने की प्रथा को ‘‘किसी सुरक्षा साधन के बिना और नग्न हाथों से सार्वजनिक सड़कों एवं सूखे शौचालयों से मानव मल को हटाने, सेप्टिक टैंक, गटर एवं सीवर की सफाई करने’’ के रूप में परिभाषित किया गया है।
  • हाथ से मैला ढोने की प्रथा भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 का उल्लंघन है जो 'मानवीय गरिमा के साथ जीवन जीने के अधिकार’ की गारंटी देता है।
  • ‘हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास (संशोधन) विधेयक, 2020’ (Prohibition of Employment as Manual Scavengers and their Rehabilitation (Amendment) Bill, 2020) सीवर की सफाई को पूरी तरह से मशीनीकृत करने, 'ऑन-साइट' सुरक्षा के तरीके अपनाने और सीवर में होने वाली मौतों के मामले में कर्मियों के परिवार वालों को मुआवज़ा प्रदान करने का प्रस्ताव करता है।
    • इसे अभी कैबिनेट की मंज़ूरी मिलना शेष है।

जाति विभाजन और मैला ढोने की प्रथा का संबंध 

  • जाति प्रथा श्रम के साथ-साथ श्रमिकों के विभाजन की ओर ले जाती है। दलितों को ‘शुद्ध’ माने जाने वाले क्षेत्रों में रोज़गार पाने में प्रायः भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
    • उदाहरण के लिये, हाथ से मैला ढोना या सूखे शौचालयों की सफाई एक ऐसा काम है जिसे दलित वर्गों के ऊपर लाद दिया गया है।
  • उनसे बेहद मामूली पारिश्रमिक पर या बेगारी के रूप में मानव मलमूत्र ढोने और सीवेज की सफाई करने की अपेक्षा की जाती है। वे गरीबी और सामाजिक बहिर्वेशन के दुष्चक्र में फँसे हुए हैं।
  • यद्यपि ‘हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013’ के तहत मैला ढोने की प्रथा को प्रतिबंधित किया गया है, यह अमानवीय अभ्यास अभी भी जारी है।
    • सरकारी आँकड़ों के अनुसार हाथ से मैला ढोने वालों में 97% दलित हैं। लगभग 42,594 मैला ढोने वाले कर्मी अनुसूचित जाति, 421 अनुसूचित जनजाति और 431 अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित हैं।
  • ये आँकड़े जातिगत आधारों से ऊपर उठने और सभी को श्रम की गरिमा प्रदान करने के मामले में हमारी सामूहिक विफलता के अनुस्मारक हैं।

हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के लिये किये गए प्रयास 

  • ‘हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के नियोजन का प्रतिषेध और उनका पुनर्वास अधिनियम, 2013’ सूखे शौचालयों से मैला ढोने पर प्रतिबंध से आगे जाते हुए हाथ से अस्वच्छ शौचालयों, खुली नालियों या गड्ढों की किसी भी प्रकार की मलमूत्र सफाई को अवैध बनाता है।
  • वर्ष 1989 में लाया गया ‘अत्याचार निवारण अधिनियम’ (Prevention of Atrocities Act) स्वच्छता कर्मियों के लिये एक एकीकृत प्रहरी के रूप में सामने आया जहाँ हाथ से मैला उठाने वाले कर्मियों के रूप में नियोजित 90% से अधिक लोग अनुसूचित जाति के थे। 
    • यह मैला ढोने वाले लोगों को निर्दिष्ट पारंपरिक व्यवसायों से मुक्त कराने के संघर्ष में एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर बना।
  • आवास एवं शहरी कार्य मंत्रालय द्वारा विश्व शौचालय दिवस पर सभी राज्यों के लिये अप्रैल 2021 तक सीवर-सफाई को मशीनीकृत करने के लिये ‘सफाईमित्र सुरक्षा चुनौती’ की शुरुआत की गई।
    • हाथ से मैला ढोने की प्रथा के उन्मूलन के लिये एक सफाई कर्मचारी आंदोलन भी चलाया गया।

विभिन्न प्रयासों के बावजूद वर्तमान परिदृश्य

  • जाति-आधारित पूर्वाग्रह को इस हद तक सामान्य कर दिया गया है कि हाथ से मैला उठाने वालों की दुर्दशा पर उस प्रकार का ध्यान ही नहीं दिया जाता, जिसके वह हकदार हैं। केंद्र और राज्य स्तर की सरकारें इस समस्या को छुपा रही हैं।
    • हमेशा आँकड़ों में हेराफेरी करने की कोशिश की जाती रही है और प्रायः सरकारी आँकड़ों में ही विरोधाभास पाया जाता है।
  • सरकार का दावा है कि वर्तमान में मैनुअल स्कैवेंजिंग में संलग्न लोगों की कोई रिपोर्ट नहीं है और पाँच वर्षों (2013-2018) में इस अभ्यास के कारण किसी की मौत की कोई सूचना नहीं है। 
    • लेकिन सफाई कर्मचारी आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक के अनुसार वर्ष 2016 से 2020 के बीच देश भर में इस कार्य से जुड़े 472 कर्मियों की मौत हुई।
  • गंभीर शोध के साथ तैयार कुछ मीडिया रिपोर्टों के अनुसार भारतीय रेलवे, सेना और शहरी नगरपालिकाएँ अभी भी ऐसी बड़ी संस्थाएँ हैं जहाँ हाथ से मैला ढोने वाले कर्मी कार्यरत हैं।
    • ऐसे संस्थाएँ या तो इन कार्य को ठेकेदारों को आउटसोर्स करने के तरीके ढूँढ लेती हैं ताकि उन्हें सीधे जवाबदेह या उत्तरदायी न ठहराया जा सके अथवा ऐसे श्रमिकों को ‘स्वीपर’ के रूप में गलत तरीके से दिखाया जाता है।

आगे की राह 

  • मौजूदा कल्याण नीतियों का कार्यान्वयन: सरकार की प्रतिक्रिया उदासीनता की गहरी भावना को दर्शाती है। यह समझने की ज़रूरत है कि समस्या से इनकार करना केवल उसके समाधान में देरी में ही योगदान देता है। सीवर में होने वाली मौतें आज भी एक वास्तविकता है।
    • भारत अभी भी हाथ से मैला ढोने वालों के पुनर्वास के मामले में बहुत पीछे है। सरकार की योजना 40,000 रुपए की एकमुश्त नकद सहायता, कौशल विकास प्रशिक्षण और स्व-रोज़गार परियोजनाओं के लिये पूंजीगत सब्सिडी प्रदान करती है।
    • इन योजनाओं के प्रभावी क्रियान्वयन की आवश्यकता है।
  • सख्त एवं एकीकृत कानून: यदि कोई कानून राज्य एजेंसियों की ओर से स्वच्छता सेवाएँ प्रदान करने के लिये एक वैधानिक दायित्व लागू करता है तो इससे ऐसा परिदृश्य बनेगा, जहाँ इन श्रमिकों के अधिकारों की अनदेखी नहीं होगी।
    • अब तक दंड के प्रावधान अत्यंत कमज़ोर रहे हैं। इसके साथ ही, सामाजिक कार्यकर्त्ताओं द्वारा उजागर किया गया है कि हाथ से मैला ढोने वाले कर्मियों को संलग्न या नियोजित करने के आरोपी लोगों और संगठनों के विरुद्ध कोई गंभीर कानूनी कार्यवाही नहीं हुई है।
    • सामाजिक कार्यकर्त्ताओं की मांग है कि नियोजन प्रतिषेध कानून को SC एवं ST (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के साथ एकीकृत दृष्टिकोण से पढ़ा जाए, ताकि इसे और मज़बूत बनाया जा सके।
  • व्यवहार परिवर्तन: हाथ से मैला ढोने के पीछे की सामाजिक स्वीकृति को संबोधित करने के लिये सर्वप्रथम इसके अस्तित्व को स्वीकार करना होगा और फिर यह समझना होगा कि मैला ढोने की प्रथा किस प्रकार और क्यों जाति व्यवस्था में अंतर्निहित है।
    • यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि हाथ से मैला ढोना न केवल प्रौद्योगिकी या वित्तीय सहायता की समस्या है बल्कि सामाजिक पूर्वाग्रह से भी संबंधित है।
    • राज्य को जाति की भूमिका को स्वीकार करना चाहिये और सक्रिय रूप से इसे हल करना चाहिये। हमें अधीरता एवं अत्यावश्यकता की भावना दिखानी चाहिये और समानता, न्याय एवं श्रम की गरिमा को स्थापित करने के लिये अब और प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिये।
  • सामाजिक जागरूकता: हाथ से मैला ढोने की प्रथा को समाप्त करने के लिये समस्या के मूल को समझना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। कोई और कार्य कर सकने के लिये कौशल की कमी एवं स्वयं समाज की ओर से भेदभाव वे प्रमुख कारण हैं जो लोग आज भी ऐसे कार्यों में संलग्न बने हुए हैं।
    • यह सभी स्तरों पर सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों, स्वास्थ्य अधिकारियों और सामाजिक समुदायों की सामूहिक ज़िम्मेदारी है कि वे स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों, स्वच्छता संबंधी प्रथाओं और स्वच्छता प्रक्रियाओं के विषय में हाथ से मैला उठाने वाले समुदाय के बीच जागरूकता पैदा करें।
    • इसके अलावा, आम जनता को भी हाथ से मैला ढोने संबंधी कार्य में नियोजित करने से संबद्ध कानूनी निहितार्थों से अवगत कराया जाना चाहिये।

निष्कर्ष

मौजूदा विश्व में अपने भाग्य को साकार करने हेतु कार्य करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अपने लिये और अपने परिवार के लिये आर्थिक उपार्जन कर सकना मानवीय गरिमा के मूल में है। इसकी कमी से अलगाव उत्पन्न होता है और मानव विकास अवरुद्ध हो जाता है।

अभ्यास प्रश्न: ‘‘21वीं सदी में हाथ से मैला ढोने की प्रथा जाति वर्चस्व के संबंध में एक घिनौनी चेतावनी प्रकट करती है।’’ टिप्पणी कीजिये।

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