भारतीय राजनीति
कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के बीच संबंध
- 29 Nov 2024
- 26 min read
प्रारंभिक परीक्षा के लिये:संविधान दिवस, कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका, लोकसभा, आम चुनाव, सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार, राज्यसभा, भारत के राष्ट्रपति, मंत्रिपरिषद, संघ लोक सेवा आयोग (UPSC), सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, कॉलेजियम व्यवस्था, सातवीं अनुसूची, शक्ति पृथक्करण सिद्धांत, संसदीय समितियाँ, प्रश्नकाल, लोक लेखा समिति (PAC), मुख्य न्यायाधीश, क्षमा, दंड का निलंबन या परिहार, प्रत्यायोजित विधान, केशवानंद भारती मामला, न्यायपालिका की दक्षता, न्यायिक समीक्षा, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG), लोकपाल। मुख्य परीक्षा के लिये:भारतीय राजनीति और शासन का महत्त्व, शक्तियों के पृथक्करण, नियंत्रण और संतुलन, संवैधानिक प्रावधानों और कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच अंतर्संबंधों के प्रमुख पहलुओं को संबोधित करना। |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के संविधान के महत्त्व को दर्शाते हुए संविधान दिवस मनाया गया।
- इसका एक प्रमुख प्रावधान, शक्ति का पृथक्करण भारत में कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के बीच संबंधों को विनियमित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
भारत सरकार की तीन शाखाएँ कौन-सी हैं?
- विधायिका: विधायिका कानून बनाने वाली संस्था है, जिसका मुख्य कार्य देश के शासन के लिये कानूनों बनाना, उनमें संशोधन करना और उन्हें निरस्त करना है।
- विधानमंडल लोगों की इच्छा का भी प्रतिनिधित्व करता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि राष्ट्रीय नीतियों में जनता की चिंताओं को शामिल किया जाए।
- संरचना और चुनाव: लोकसभा सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार (अनुच्छेद 81) के तहत आयोजित आम चुनावों, के माध्यम से भारत के नागरिकों द्वारा सीधे चुने गए प्रतिनिधियों से मिलकर बनती है।
- राज्यसभा में राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों की विधानसभाओं द्वारा निर्वाचित सदस्य शामिल होते हैं (अनुच्छेद 80)।
- इससे राज्यों को राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व प्रदान करके भारत का संघीय ढाँचा सुनिश्चित होता है।
- संसद का कार्यकरण अनुच्छेद 79-123 द्वारा नियंत्रित होता है, जो इसकी शक्तियों, विशेषाधिकारों और ज़िम्मेदारियों को रेखांकित करता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि यह संवैधानिक सीमाओं के भीतर काम करे।
- कार्यपालिका: कार्यपालिका एक कार्यकारी शाखा है, जो कानूनों को लागू करने, नीतियों को तैयार करने और सरकार के दैनिक मामलों का प्रशासन करने के लिये ज़िम्मेदार है।
- यह कानून और व्यवस्था बनाए रखने, कल्याणकारी योजनाओं को क्रियान्वित करने तथा विधायी निर्देशों को लागू करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- नियुक्ति: भारत के राष्ट्रपति, कार्यपालिका के संवैधानिक प्रमुख का चुनाव संसद और राज्य विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्यों वाले निर्वाचक मंडल द्वारा किया जाता है(अनुच्छेद 52-54)।
- प्रधानमंत्री जो मंत्रिपरिषद का नेतृत्व करता है, को राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 75 के तहत लोकसभा में बहुमत वाले दल या गठबंधन के आधार पर नियुक्त किया जाता है।
- भारत में 91वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2003 ने संघ और राज्य सरकारों में मंत्रियों की कुल संख्या को संबंधित विधायी निकायों के 15% तक सीमित कर दिया, जिसका उद्देश्य मंत्रिमंडल के आकार को कम करना था।
- अन्य मंत्रियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह पर की जाती है, जिससे कार्यपालिका में सामंजस्य सुनिश्चित होता है।
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 78 के तहत प्रधानमंत्री का यह कर्तव्य है कि वह कार्यकारी मामलों से संबंधित मंत्रिपरिषद के सभी निर्णयों की जानकारी राष्ट्रपति को दे।
- संविधान के अनुच्छेद 63 के अनुसार भारत का उपराष्ट्रपति राज्यसभा के पदेन सभापति के रूप में कार्य करता है तथा राष्ट्रपति को सहायता प्रदान करके कार्यपालिका में भूमिका निभाता है, विशेष रूप से संवैधानिक कर्तव्यों और निर्णय लेने के मामलों में।
- अनुच्छेद 309-311 के तहत संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) द्वारा प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से चुने गए सिविल सेवक, योग्यता आधारित प्रणाली के माध्यम से शासन में सक्षमता और तटस्थता सुनिश्चित करते हैं।
- न्यायपालिका : न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करके, विवादों को सुलझाकर और मौलिक अधिकारों की रक्षा करके संविधान को देश के सर्वोच्च कानून के रूप में स्थापित रखती है।
- यह विधायिका और कार्यपालिका पर भी अंकुश लगाती है, क्योंकि यदि वे संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं तो यह उनके कार्यों को असंवैधानिक घोषित कर देती है।
- भारतीय न्यायपालिका पदानुक्रमिक है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय सबसे ऊपर है, उसके बाद राज्य स्तर पर उच्च न्यायालय तथा ज़िला स्तर पर ‘ज़िला एवं सत्र न्यायालय’ स्थानीय मामलों को संभालते हैं।
- नियुक्ति:सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा कॉलेजियम व्यवस्था की सिफारिशों के आधार पर की जाती है, जिसे सेकंड जजेज़ केस (1993) में स्थापित किया गया था। यह प्रक्रिया जवाबदेही बनाए रखते हुए न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है।
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता को अनुच्छेद 124-147 द्वारा सुरक्षित किया गया है, जो कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान करता है और महाभियोग के लिये विशेष प्रक्रियाओं को छोड़कर न्यायाधीशों को संसद में अपने आचरण पर चर्चा करने से रोकता है।
शक्ति पृथक्करण क्या है और इसकी आवश्यकता क्या है?
- शक्ति पृथक्करण की अवधारणा: शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत तीन अलग-अलग शाखाओं - कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के विभाजन को संदर्भित करता है।
- प्रत्येक शाखा को दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप किये बिना विशिष्ट कार्य करने के लिये विकसित किया गया है, जिससे अधिकार के संकेन्द्रण को रोका जा सके।
- मोंटेस्क्यू द्वारा प्रस्तुत यह अवधारणा लोकतांत्रिक शासन को बनाए रखने और स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- आवश्यकता: सत्ता के दुरुपयोग को रोकने से सरकार की विभिन्न शाखाओं के बीच अधिकार वितरित करके सत्तावादी शासन या सत्ता के दुरुपयोग का खतरा कम हो जाता है।
- जाँच और संतुलन सुनिश्चित करने से प्रत्येक शाखा को अन्य पर निगरानी रखने की अनुमति मिलती है, जिससे किसी भी अंग को उसके संवैधानिक अधिदेश से परे कार्य करने से रोका जा सकता है।
- विशेषज्ञता के माध्यम से दक्षता को बढ़ावा देने से यह सुनिश्चित होता है कि प्रत्येक शाखा अपनी मूल दक्षताओं पर ध्यान केंद्रित कर सके, जिससे अधिक प्रभावी प्रशासन सुनिश्चित हो सके।
- अधिकारों की रक्षा न्यायिक स्वतंत्रता के माध्यम से प्राप्त की जाती है, जो विधायिका और कार्यपालिका द्वारा अतिक्रमण के विरुद्ध उपचार प्रदान करके व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा की गारंटी देती है।
- एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) में सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति शासन के मनमाने उपयोग को सीमित कर दिया, जबकि केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) में इसने निर्णय दिया कि संसद संविधान के मूल ढाँचे में बदलाव नहीं कर सकती है, जिससे कार्यकारी और विधायी दोनों शक्तियों पर जाँच की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया।
- संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 50 स्पष्ट रूप से सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने का आदेश देता है, जिससे न्याय का निष्पक्ष प्रशासन सुनिश्चित होता है।
- अनुच्छेद 121 संसद में न्यायाधीशों के आचरण पर चर्चा पर रोक लगाता है; अनुच्छेद 211 राज्य विधानसभाओं पर भी इसी प्रकार लागू होता है।
- अनुच्छेद 122 न्यायालयों को संसद की कार्यवाही पर प्रश्न उठाने से रोकता है; अनुच्छेद 212 राज्य विधानमंडल की कार्यवाही पर भी इसी प्रकार लागू होता है।
- अनुच्छेद 245 और 246 संघ एवं राज्यों के बीच विधायी शक्तियों का स्पष्ट विभाजन प्रदान करते हैं तथा विधायी अतिक्रमण को सीमित करते हुए संघवाद को बनाए रखते हैं।
- संविधान की सातवीं अनुसूची में उन विषयों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है, जिन पर संघ और राज्य विधानमंडल कानून बना सकते हैं, जिससे सरकार के विभिन्न स्तरों के बीच टकराव कम हो जाता है।
- अनुच्छेद 361 राष्ट्रपति और राज्यपालों को उनके कार्यकाल के दौरान सिविल और आपराधिक कार्यवाही से उन्मुक्ति प्रदान करता है।
- शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत को इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण (1975) जैसे ऐतिहासिक निर्णयों में बरकरार रखा गया है, जहाँ सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक प्राधिकार को दरकिनार करने के विधायी प्रयासों को खारिज कर दिया था।
सरकार की तीन शाखाओं के बीच अंतर्संबंध क्या है?
- सहयोग के क्षेत्र:
- कानून निर्माण और क्रियान्वयन: विधायिका कानूनों का मसौदा तैयार करती है तथा उन्हें पारित करती है, जिनका क्रियान्वयन कार्यपालिका द्वारा किया जाता है।
- उदाहरण के लिये, वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) कानून संसद द्वारा अधिनियमित किया गया तथा कार्यपालिका के प्रशासनिक ढाँचे के माध्यम से देश भर में लागू किया गया।
- विधान निर्माण के लिये न्यायिक मार्गदर्शन: न्यायपालिका अक्सर ऐसे दिशानिर्देश प्रदान करती है, जो विधायी सुधारों की ओर ले जाते हैं।
- उदाहरण के लिये, कार्यस्थल पर उत्पीड़न से निपटने के लिये सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित विशाखा दिशानिर्देश (1997) को बाद में कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न अधिनियम, 2013 के रूप में औपचारिक रूप दिया गया।
- आपातकालीन सहयोग: आपातकाल के दौरान, तीनों शाखाएँ सार्वजनिक कल्याण की रक्षा के लिये एकजुट होकर काम करती हैं।
- कोविड-19 महामारी के दौरान कार्यपालिका ने विधायी प्रावधानों के तहत लॉकडाउन लागू किया, जबकि न्यायपालिका ने सरकार के संवैधानिक अधिकारों के पालन की निगरानी की।
- कानून निर्माण और क्रियान्वयन: विधायिका कानूनों का मसौदा तैयार करती है तथा उन्हें पारित करती है, जिनका क्रियान्वयन कार्यपालिका द्वारा किया जाता है।
- विधानमंडल की अतिव्यापी शक्तियाँ
- न्यायपालिका के साथ: विधानमंडल अनुच्छेद 124(4) और 217(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों पर महाभियोग लगा सकता है और उन्हें हटा सकता है।
- यह प्रक्रिया संसद को गंभीर कदाचार के लिये न्यायाधीशों को जवाबदेह ठहराने की अनुमति देती है, जिससे न्यायिक अखंडता सुनिश्चित होती है।
- यदि न्यायपालिका किसी कानून को असंवैधानिक घोषित कर देती है, तो विधानमंडल के पास उस कानून को संशोधित कर उसे संविधान के अनुरूप बनाने तथा प्रभावी रूप से उसे पुनः वैध बनाने का अधिकार है।
- विधायिका अपने विशेषाधिकारों का उल्लंघन करने या संसद की अवमानना करने के लिये व्यक्तियों को दंडित कर सकती है, यह भूमिका आमतौर पर न्यायपालिका से जुड़ी होती है, इस प्रकार यह सुनिश्चित किया जाता है कि विधायी प्राधिकार का सम्मान किया जाए।
- न्यायपालिका के साथ: विधानमंडल अनुच्छेद 124(4) और 217(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों पर महाभियोग लगा सकता है और उन्हें हटा सकता है।
- कार्यपालिका के साथ: प्रधानमंत्री और कैबिनेट मंत्रियों सहित मंत्रालयों के प्रमुख विधानमंडल के सदस्य होते हैं।
- यह दोहरी सदस्यता कार्यपालिका और विधायिका के बीच सीधा संबंध बनाती है तथा जवाबदेही को बढ़ावा देती है।
- अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से विधायिका कार्यपालिका को जनता के प्रति जवाबदेह बनाते हुए उसे इस्तीफा देने के लिये बाध्य कर सकती है।
- विधायिका बहस, संसदीय समितियों और प्रश्नकाल के माध्यम से कार्यपालिका के कार्य की जाँच और मूल्यांकन कर सकती है तथा सरकारी नीति को प्रभावित कर सकती है।
- उदाहरण के लिये, विपक्षी नेता की अध्यक्षता वाली संसद की लोक लेखा समिति (PAC) इस बात का उदाहरण है कि विधायी समितियाँ किस प्रकार कार्यकारी वित्तीय कार्यों और व्यय की जाँच करती हैं।
- विधानमंडल अनुच्छेद 61 के तहत संवैधानिक उल्लंघनों के लिये राष्ट्रपति पर महाभियोग चला सकता है, जिससे कार्यपालिका के सर्वोच्च पद पर नियंत्रण सुनिश्चित हो सकता है।
- विधानमंडल के निर्वाचित सदस्यों से मिलकर बनी मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति तथा राज्यपाल को सलाह देती है, जिससे दोनों शाखाओं के बीच पारस्परिक संबंध अधिक प्रभावी होते हैं।
- कार्यपालिका की अतिव्यापी शक्तियाँ
- न्यायपालिका के साथ: राष्ट्रपति, कार्यपालिका के प्रमुख के रूप में, अनुच्छेद 124 के तहत मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है।
- यह शक्ति न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करती है, विशेष रूप से कॉलेजियम प्रणाली के माध्यम से, जहाँ न्यायिक सिफारिशें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
- कार्यपालिका को अनुच्छेद 72 और 161 के तहत क्षमा, विलंब या सजा में छूट देने का अधिकार है, जो सीधे न्यायिक निर्णयों को प्रभावित कर सकता है।
- कार्यपालिका न्यायाधिकरणों और अर्ध-न्यायिक निकायों की स्थापना करती है, जो न्यायिक कार्य करते हैं तथा कानूनी निर्णय में न्यायपालिका की भूमिका के साथ संरेखित करते हैं।
- विधायिका के साथ: राष्ट्रपति अनुच्छेद 123 के तहत अध्यादेश जारी कर सकते हैं, जिससे उन्हें कानून की शक्ति मिल जाती है और कार्यपालिका को आपातकालीन स्थितियों में विधायिका को दरकिनार करने की अनुमति मिल जाती है।
- कार्यपालिका को संवैधानिक प्रावधानों के अधीन, अनुच्छेद 77 और 166 के तहत बनाए गए नियमों के माध्यम से अपनी आंतरिक प्रक्रियाओं को विनियमित करने का अधिकार है।
- प्रत्यायोजित विधान के माध्यम से, कार्यपालिका विधायी कार्यों का प्रयोग कर सकती है, जहाँ विधायिका विशिष्ट मुद्दों पर कानून बनाने की शक्ति प्रत्यायोजित करती है, जिससे प्रशासनिक दक्षता में सुविधा होती है।
- उदाहरण के लिये खाद्य सुरक्षा एवं मानक अधिनियम, 2006 ने भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI), जो एक कार्यकारी निकाय है, को विस्तृत विनियम बनाने का अधिकार दिया, जिससे विधानमंडल से कार्यपालिका को कानून बनाने की शक्तियों का हस्तांतरण प्रदर्शित होता है।
- न्यायपालिका के साथ: राष्ट्रपति, कार्यपालिका के प्रमुख के रूप में, अनुच्छेद 124 के तहत मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है।
- न्यायपालिका की अतिव्यापी शक्तियाँ
- कार्यपालिका के साथ: अनुच्छेद 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय " पूर्ण न्याय " के लिये आदेश जारी कर सकता है, जिससे उसे कुछ कार्यकारी कार्यों के संचालन की अनुमति मिलती है, जैसे कि जब कार्यपालिका विफल हो जाती है तो अधिकारियों को कार्य करने का निर्देश देना।
- न्यायिक समीक्षा न्यायपालिका को कार्यपालिका के कार्यों की जाँच करने की अनुमति देती है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे संविधान के अनुरूप हैं।
- विधायिका के साथ: न्यायपालिका संविधान के मूल ढाँचे की अपरिवर्तनीयता सुनिश्चित करती है, जैसा कि केशवानंद भारती मामले में स्थापित किया गया था, जिससे वह विधायिका द्वारा किये गए उन संशोधनों को निरस्त करने में सक्षम हो जाती है, जो मूल संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करते हैं।
- न्यायपालिका विधानमंडल द्वारा पारित कानूनों की न्यायिक समीक्षा भी करती है तथा अनुच्छेद 13 के तहत असंवैधानिक पाए गए किसी भी कानून को अमान्य कर देती है।
- कार्यपालिका के साथ: अनुच्छेद 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय " पूर्ण न्याय " के लिये आदेश जारी कर सकता है, जिससे उसे कुछ कार्यकारी कार्यों के संचालन की अनुमति मिलती है, जैसे कि जब कार्यपालिका विफल हो जाती है तो अधिकारियों को कार्य करने का निर्देश देना।
आगे बढ़ने का रास्ता
- शक्ति पृथक्करण को प्रभावी करना: कॉलेजियम प्रणाली को संहिताबद्ध करके और पारदर्शिता सुनिश्चित करके न्यायिक नियुक्तियों में सुधार किया जाना चाहिए।
- नियुक्तियों के लिये निश्चित समयसीमा से देरी कम हो सकती है और न्यायपालिका की दक्षता बनी रह सकती है।
- न्यायिक अतिक्रमण के मुद्दे को हल करने के लिये, विशेष रूप से न्यायिक समीक्षा के क्षेत्रों में, विधायी सीमाओं को स्पष्ट किया जाना चाहिये, ताकि संघर्षों को कम किया जा सके और शाखाओं के बीच सामंजस्य बनाए रखा जा सके।
- जाँच और संतुलन को बढ़ाना: कानूनों के कार्यान्वयन की निगरानी और उनकी प्रभावशीलता का आकलन करने के लिये विधायी जाँच के बाद के तंत्र को संस्थागत बनाया जाना चाहिये।
- नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) और लोकपाल जैसे निरीक्षण निकायों को कार्यपालिका को जवाबदेह बनाने के लिये अधिक स्वायत्तता तथा अधिकार दिये जाने चाहिये।
- कार्यपालिका को विधायी आदेशों की अवहेलना करने से रोकने के लिये अध्यादेश बनाने की शक्तियों को सीमित किया जाना चाहिये।
- विधायी समितियों को प्रशिक्षण और संसाधनों के माध्यम से कार्यकारी कार्यों की अधिक प्रभावी रूप से जाँच करने के लिये सशक्त बनाना तथा जाँच एवं संतुलन की एक प्रभावी प्रणाली को बढ़ावा देना।
- नागरिक सहभागिता और लोक कल्याण: पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के लिये विधेयकों तथा फीडबैक तंत्र के माध्यम से विधायी प्रक्रिया में सार्वजनिक परामर्श को संस्थागत बनाया जाना चाहिये।
- कानूनी साक्षरता कार्यक्रम नागरिकों को अपने अधिकारों को समझने और उनकी रक्षा करने में सशक्त बना सकते हैं तथा यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि सभी शाखाएँ जनता के प्रति जवाबदेह बनी रहें।
- पारदर्शिता, जवाबदेही और दक्षता बढ़ाने के लिये विधायी, कार्यकारी तथा न्यायिक प्रक्रियाओं का डिजिटलीकरण करना एवं सूचना तक जनता की पहुँच सुनिश्चित करना।
- अंतर-शाखा समन्वय: शाखाओं के बीच नियमित संवाद और परामर्श से विवादों का समाधान किया जा सकता है तथा सहयोग को बढ़ावा दिया जा सकता है।
- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका को शामिल करने वाले राष्ट्रीय सम्मेलन विवादों को सुलझाने एवं सामंजस्यपूर्ण शासन को बढ़ावा देने के लिये मंच के रूप में काम कर सकते हैं।
- एक प्रभावी लोकतांत्रिक प्रणाली के लिये संतुलन, जवाबदेही और संवैधानिक सिद्धांतों के पालन के माध्यम से अधिकारों की सुरक्षा आवश्यक है।
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रारंभिक:प्रश्न 1. संसदीय शासन प्रणाली का मुख्य लाभ यह है कि (2017) (a) कार्यपालिका और विधायिका स्वतंत्र रूप से काम करते हैं। उत्तर: C प्रश्न 2. भारत के सर्वोच्च न्यायालय की स्वायत्तता की रक्षा के लिये क्या प्रावधान है? (2012)
उपर्युक्त में से कौन सा/से कथन सही है/हैं? (a) केवल 1 और 3 उत्तर: (A) मुख्य:Q. ‘भारत का सर्वोच्च न्यायालय संविधान में संशोधन करने में संसद की मनमानी शक्ति पर नियंत्रण रखता है।’ आलोचनात्मक चर्चा कीजिये। (2013) |