शासन व्यवस्था
संघवाद और भारत
- 18 Nov 2019
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इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में संघवाद और भारत के संबंध में उसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।
संदर्भ
RBI के पूर्व गवर्नर डी. सुब्बाराव ने अपने एक हालिया लेख में कहा था कि जिस प्रकार देश का आर्थिक केंद्र (Economic Center) राज्यों की ओर स्थानांतरित हो रहा है उसे देखते हुए इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में भारत का आर्थिक विकास सहकारी संघवाद पर टिका हुआ है। ध्यातव्य है कि भारतीय संविधान का संघीय चरित्र इसकी प्रमुख विशेषताओं में से एक है, हालाँकि भारतीय संविधान में कहीं भी महासंघ या फेडरेशन (Federation) शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। बल्कि इसके स्थान पर भारतीय संविधान में भारत को ‘राज्यों के संघ’ के रूप में संबोधित किया गया है। दरअसल, कई जानकार मानते हैं कि भारत एक अर्द्ध-संघीय देश है अर्थात् यह एक ऐसा संघीय राज्य है जिसमें एकात्मक सरकार की भी कुछ विशेषताएँ मौजूद हैं।
संघवाद क्या है?
- ज्ञातव्य है कि संघवाद (Federalism) शब्द की उत्पत्ति लैटिन शब्द ‘Foedus’ से हुई है जिसका अर्थ है एक प्रकार का समझौता या अनुबंध।
- वास्तव में महासंघ दो तरह की सरकारों के बीच सत्ता साझा करने और उनके संबंधित क्षेत्रों को नियंत्रित करने हेतु एक समझौता है।
- इस आधार पर कहा जा सकता है कि संघवाद सरकार का वह रूप है जिसमें देश के भीतर सरकार के कम-से-कम दो स्तर मौजूद हैं- पहला केंद्रीय स्तर पर और दूसरा स्थानीय या राज्यीय स्तर पर।
- भारत की स्थिति में संघवाद को स्थानीय, केंद्रीय और राज्य सरकारों के मध्य अधिकारों के वितरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
सहकारी बनाम प्रतिस्पर्द्धी संघवाद
केंद्र और राज्य सरकार के बीच संबंधों के आधार पर संघवाद की अवधारणा को दो भागों में विभाजित किया गया है (1) सहकारी संघवाद (2) प्रतिस्पर्द्धी संघवाद।
- सहकारी संघवाद
सहकारी संघवाद में केंद्र व राज्य एक-दूसरे के साथ क्षैतिज संबंध स्थापित करते हुए एक-दूसरे के सहयोग से अपनी समस्याओं को हल करने का प्रयास करते हैं। सहकारी संघवाद की इस अवधारणा में यह स्पष्ट किया जाता है कि केंद्र और राज्य में से कोई भी किसी से श्रेष्ठ नहीं है।
- जानकारों का मानना है कि यह राष्ट्रीय नीतियों के निर्माण और कार्यान्वयन में राज्यों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिये एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है।
- संघ और राज्य संवैधानिक रूप से संविधान की 7वीं अनुसूची में निर्दिष्ट मामलों पर एक-दूसरे के साथ सहयोग करने हेतु बाध्य हैं।
- प्रतिस्पर्द्धी संघवाद
- प्रतिस्पर्द्धी संघवाद में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के मध्य संबंध लंबवत होते हैं जबकि राज्य सरकारों के मध्य संबंध क्षैतिज होते हैं।
- गौरतलब है कि प्रतिस्पर्द्धी संघवाद की अवधारणा को देश में 1990 के दशक के आर्थिक सुधारों के बाद से महत्त्व प्राप्त हुआ।
- प्रतिस्पर्द्धी संघवाद में राज्यों को आपस में और केंद्र के साथ लाभ के उद्देश्य से प्रतिस्पर्द्धा करनी होती है।
- सभी राज्य धन और निवेश को आकर्षित करने के लिये एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्द्धा करते हैं, ताकि विकास संबंधी गतिविधियों को बढ़ावा दिया जा सके है।
- सामान्यतः निवेशक अपने पैसे का निवेश करने के लिये अधिक विकसित राज्यों को पसंद करते हैं।
- उल्लेखनीय है कि प्रतिस्पर्द्धी संघवाद भारतीय संविधान की मूल संरचना का हिस्सा नहीं है।
संवैधानिक प्रावधान- केंद्र और राज्य संबंध
केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों का उल्लेख संविधान के भाग XI और XII में विधायी, प्रशासनिक तथा वित्तीय संबंधों के तहत किया गया है।
विधायी संबंध
- केंद्र अथवा राज्य द्वारा किसी विषय पर कानून बनाने की शक्ति को विधायी शक्ति कहा जाता है।
- हम एक ऐसी प्रणाली का पालन करते हैं जिसमें विधायी शक्तियों का वर्णन करने वाली दो प्रकार की विषय सूची होती है, जिन्हें क्रमशः संघ सूची और राज्य सूची के रूप में जाना जाता है। इसके अलावा एक अन्य सूची भी है जिसे समवर्ती सूची कहा जाता है।
- संघ सूची में राष्ट्रीय हित के 100 विषय शामिल हैं और यह तीनों सूचियों में सबसे बड़ी है। गौरतलब है कि इस सूची से संबंधित विषयों पर कानून बनाने का अधिकार केंद्र के पास होता है। रक्षा, रेलवे, पोस्ट और टेलीग्राफ, आयकर, कस्टम ड्यूटी, आदि इस सूची में शामिल कुछ महत्त्वपूर्ण विषय हैं।
- राज्य सूची में राज्यों के मध्य व्यापार, पुलिस, मत्स्य पालन, वन, स्थानीय सरकारें, थिएटर, उद्योग आदि 61 विषय शामिल हैं और राज्यों के पास इन विषयों पर कानून बनाने की शक्ति है।
- समवर्ती सूची में स्टाम्प ड्यूटी, ड्रग्स एवं ज़हर, बिजली, समाचार पत्र, आपराधिक कानून, श्रम कल्याण जैसे कुल 52 विषय शामिल हैं और संसद तथा राज्य विधानसभा दोनों इस सूची में शामिल विषयों पर कानून बना सकते हैं। परंतु किसी विषय पर संघ और राज्य के कानून के बीच टकराव की स्थिति में संघ के कानून को सर्वोपरि माना जाएगा।
प्रशासनिक संबंध
- संविधान के अनुच्छेद 256-263 तक केंद्र तथा राज्यों के प्रशासनिक संबंधों की चर्चा की गई है। प्रशासनिक संबंधों से तात्पर्य केंद्र व राज्यों की सरकारों के कार्यपालिका संबंधी तालमेल से होता है।
- सामान्य रूप में संघ तथा राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है, परंतु प्रशासनिक शक्तियों के विभाजन में संघीय सरकार अधिक शक्तिशाली है और राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए राज्य सरकार के प्रशासन पर संघ को पूर्ण नियंत्रण प्रदान किया गया है।
- केंद्र को यह अधिकार दिया गया है कि वह आवश्यकतानुसार कभी भी राज्यों को निर्देश दे सकता है। इसके अलावा संसद को यह अधिकार है कि वह अंतर-राज्यीय नदी विवादों पर फैसला कर सकती है।
- भारतीय संविधान ने प्रशासनिक व्यवस्था में एकरूपता सुनिश्चित करने का भी प्रावधान किया है। इसमें IAS और IPS जैसी अनिल भारतीय सेवाओं का निर्माण और उन्हें राज्य के प्रमुख पद आवंटित करने संबंधी प्रावधान शामिल हैं। अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की मौजूदगी से केंद्र सरकार को अपने अधिकारों का प्रयोग करने और उनके माध्यम से राज्यों पर नियंत्रण रखने का मार्ग प्रशस्त होता है, क्योंकि केंद्र का अखिल भारतीय सेवाओं के सदस्यों पर अधिकार होता है।
- अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों की भर्ती तो केंद्र सरकार द्वारा की जाती है, परंतु उनकी नियुक्ति राज्यों में होती है।
वित्तीय संबंध
- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 268-293 तक केंद्र एवं राज्यों के मध्य वित्तीय संबंधों की व्याख्या की गई है। साथ ही संघ एवं राज्यों के मध्य वित्तीय संसाधनों का विभाजन किया गया है, जो कि भारत शासन अधिनियम, 1935 पर आधारित हैं।
- गौरतलब है कि वित्त आयोग के सुझाव पर केंद्र एवं राज्यों के मध्य राजस्व का वितरण किया जाता है।
- संविधान, द्वारा केंद्र और राज्य सरकारों को राजस्व का स्वतंत्र स्रोत प्रदान किया गया है।
- संविधान के अनुसार, संसद के पास संघ सूची में शामिल विषयों पर कर लगाने की शक्ति है।
- राज्य विधायिकाओं के पास राज्य सूची में शामिल विषयों पर कर लगाने की शक्ति है।
- संसद और राज्य विधायिकाओं दोनों के पास ही समवर्ती सूची में वर्णित विषयों पर कर लगाने का अधिकार है।
- संसद के पास अवशिष्ट विषयों से संबंधित मामलों पर भी कर लगाने का अधिकार है।
भारत के लिये संघवाद का महत्त्व
- भारतीय प्रशासन में शक्ति केंद्र से स्थानीय निकायों यानी पंचायत तक प्रवाहित होती है, इसी कारण देश में विकेंद्रीकरण आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि केंद्र सभी शक्तियों का अधिग्रहण न करे। यही संघवाद की आवश्यकता को जन्म देता है।
- यह प्रणाली कार्य के बोझ तले दबे प्रशासन की काफी मदद करती है। गौरतलब है कि केंद्र पर बैठे अधिकारी गाँवों तक नहीं पहुँच पाते जिसके कारण गाँव विकास से अछूते रह जाते हैं। इसलिये स्थानीय सरकार कार्यपालिका को निचले स्तर तक पहुँचने में मदद करती है और देश के सभी नागरिकों की लोकतंत्र में सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करती है।
- भारत में विभिन्न नस्लों और धर्मों के लोग मौजूद हैं। सरकार ने एक धर्मनिरपेक्ष विचार को अपनाया जो 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के माध्यम से प्रस्तावना में जोड़ा गया। संघवाद की अवधारणा देश के अंतर्गत विविधता को कायम रखने में मदद करती है।
भारत में संघवाद के समक्ष चुनौतियाँ
- क्षेत्रवाद को भारत में संघवाद के समक्ष मौजूद सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक माना जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि संघवाद सबसे अधिक लोकतंत्र में ही कामयाब रहता है, क्योंकि यह केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों के केंद्रीकरण को कम करता है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के विपरीत भारत में शक्तियों का वितरण संविधान की सातवीं अनुसूची में वर्णित तीन सूचियों के तहत किया जाता है। शक्तियों के विभाजन का आधारभूत सिद्धांत यही माना जा सकता है कि जो विषय राष्ट्रीय महत्त्व के हैं उन पर कानून बनाने का अधिक केंद्र के पास है और जो विषय क्षेत्रीय महत्त्व के हैं उन पर कानून बनाने का अधिकार राज्य के पास है।
- इसके अलावा समवर्ती सूची में वे विषय शामिल हैं जिनमें केंद्र व राज्य दोनों की ही भागीदारी की आवश्यकता होती है। परंतु विवाद की स्थिति में केंद्र को प्रमुख माना जाएगा।
- इस प्रकार शक्तियों के बँटवारे के कई अन्य प्रावधान भी हैं जिनमें केंद्र को वरीयता दी गई है, जो कि राज्यों के मध्य केंद्रीकरण का भय उत्पन्न करता है।
- एक सामान्य महासंघ में संविधान में संशोधन की शक्ति महासंघ और इसकी इकाइयों के बीच साझा आधार पर विभाजित होती है। भारत में संविधान संशोधन की शक्ति अनुच्छेद 368 और अन्य प्रावधानों के तहत केंद्र के ही पास है।
- भारत में प्रत्येक राज्य के लिये राज्यपाल का कार्यालय एक संवेदनशील मुद्दा रहा है, क्योंकि यह कभी-कभी भारतीय संघ के संघीय चरित्र के लिये खतरा बन जाता है। केंद्र द्वारा इस तरह के संवैधानिक कार्यालय का दुरुपयोग किया जाना सदैव ही देश में तीखी बहस और मतभेद का विषय रहा है।
- ध्यातव्य है कि अरुणाचल प्रदेश में जनवरी 2016 में राष्ट्रपति शासन लागू करने (जबकि राज्य में एक निर्वाचित सरकार थी) को भारत के संवैधानिक इतिहास में एक विचित्र घटना माना जाता है।
- भारत में भाषाओं की विविधता भी कभी-कभी संविधान की संघीय भावना को ठेस पहुँचती है। भारत में संवैधानिक रूप से स्वीकृत 22 भाषाएँ हैं। इसके अलावा देश में सैकड़ों भाषाएँ बोली जाती हैं। समस्या तब उत्पन्न होती है जब महासंघ की सबसे मज़बूत इकाई दूसरों पर एक विशेष भाषा को लागू करने का प्रयास करती है। भारत में आधिकारिक भाषा के लिये लड़ाई अभी भी एक ज्वलंत मुद्दा है।
निष्कर्ष
भारत सरकार का लक्ष्य देश को वित्तीय वर्ष 2024-2025 तक 5 ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनाना है, परंतु यह तब तक संभव नहीं होगा जब तक देश में केंद्र और राज्य साथ मिलकर कार्य नहीं करेंगे। कई बार केंद्र और राज्य दोनों के मध्य सुगम संबंध न बन पाने का एक प्रमुख कारण राजनीतिक मतभेद भी होता है, परंतु विशेषज्ञों का मानना है कि देश में सहकारी संघवाद के लिये यह सबसे उपयुक्त समय है, क्योंकि वर्तमान में जो राजनीतिक दल केंद्र में है उसकी सरकार देश के लगभग दो-तिहाई राज्यों में है। अतः आवश्यक है कि देश में संघवाद के समक्ष मौजूद चुनौतियों को जल्द-से-जल्द दूर किया जाए, ताकि देश के आर्थिक और सामाजिक विकास में राज्यों की अधिक भूमिका को सुनिश्चित किया जा सके।
प्रश्न: संघवाद के भारतीय स्वरूप को स्पष्ट करते हुए भारत में केंद्र-राज्य संबंधों पर चर्चा कीजिये।