भारत के राष्ट्रपति का चुनाव और पद की गरिमा
भारत की लोकतांत्रिक और संवैधानिक व्यवस्था में सबसे प्रतिष्ठित पद राष्ट्रपति का है। लेकिन, पिछले कुछ दिनों में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर जिस तरह से राजनीति हो रही है, उससे इस पद की गरिमा कम हुई है। राष्ट्रपति की अपनी कोई विशिष्ट विचारधारा नहीं होती, वह तो समय एवं परिस्थितियों के अनुसार, जो बात देश के हित में हो, वही उसकी विचारधारा और सिद्धांत बन जाती है।
देश की राजनीति और राजनेताओं के लिये कुछ शब्द बेहद संवेदनशील और सियासी नफे-नुकसान की दृष्टि से लोकप्रिय हैं, जैसे कि दलित, गाय, हिंदू, सेक्युलर, अल्पसंख्यक वगैरह। इन शब्दों को उछालकर खूब राजनीति होती है। राष्ट्रपति के पद की गरिमा तभी बची रह सकती है, जब हम इसका राजनीतिकरण होने से रोक सकें। कैसे इस पद की गरिमा को क्षति पहुँचाई जा रही है, यह देखने से पहले बात करते हैं कि कैसे चुना जाता है राष्ट्रपति?
कैसे होता है राष्ट्रपति का चुनाव?
- भारत में राष्ट्रपति के चुनाव का तरीका अमेरिका की तरह नहीं है। माना जाता है कि भारत के संविधान निर्माताओं ने विभिन्न देशों की चुनाव पद्धतियों का खासा अध्ययन करने के बाद कई महत्त्वपूर्ण प्रावधानों को इसमें शामिल किया।
- दरअसल, जहाँ राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का पाँच साल का कार्यकाल 24 जुलाई, 2017 को खत्म हो रहा है, वहीं उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी का कार्यकाल 10 अगस्त, 2017 को खत्म होने वाला है।
- उपराष्ट्रपति को जहाँ लोक सभा और राज्य सभा के निर्वाचित सदस्य चुनते हैं, वहीं राष्ट्रपति को इलेक्टोरल कॉलेज चुनता है, जिसमें लोक सभा, राज्य सभा और अलग-अलग राज्यों एवं संघराज्य क्षेत्रों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य होते हैं।
- इलेक्टोरल कॉलेज में इसके सदस्यों का आनुपातित प्रतिनिधित्व होता है। यहाँ पर उनका एकल मत हस्तानांतरित होता है, पर उनकी दूसरी पसंद की भी गिनती होती है। इस प्रक्रिया को सिंगल वोट ट्रान्सफरेबल सिस्टम या एकल संक्रमणीय मत पद्धति कहते हैं।
क्या है एकल संक्रमणीय मत पद्धति
- राष्ट्रपति का चुनाव एक निर्वाचक मंडल, जिसे इलेक्टोरल कॉलेज भी कहा जाता है, करता है। संविधान के अनुच्छेद 54 में इसका वर्णन है। यानी जनता अपने राष्ट्रपति का चुनाव सीधे नहीं करती, बल्कि उसके द्वारा चुने गए प्रतिनिधि करते हैं। चूँकि जनता राष्ट्रपति का चयन सीधे नहीं करती है, इसलिए इसे परोक्ष निर्वाचन कहा जाता है।
- भारत के राष्ट्रपति के चुनाव में सभी राज्यों की विधानसभाओं एवं संघराज्य क्षेत्रों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य और लोक सभा तथा राज्य सभा के निर्वाचित सदस्य भाग लेते हैं। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य, राष्ट्रपति चुनाव में वोट नहीं डाल सकते हैं।
- एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि विधान परिषद के सदस्य राष्ट्रपति चुनाव में मत का प्रयोग नहीं कर सकते हैं। ध्यातव्य हो कि भारत में 9 राज्यों में विधान परिषदें आस्तित्व में हैं लेकिन राष्ट्रपति का चयन जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ही करते हैं।
- भारत में राष्ट्रपति के चुनाव में एक विशेष तरीके से वोटिंग होती है। इसे सिंगल ट्रांसफरेबल वोट सिस्टम कहते हैं। सिंगल वोट यानी मतदाता एक ही वोट देता है, लेकिन वह कई उम्मीदवारों को अपनी प्राथमिकता के आधार पर वोट देता है। अर्थात् वह बैलेट पेपर पर यह बताता है कि उसकी पहली पसंद कौन है और दूसरी, तीसरी कौन।
- यदि पहली पसंद वाले वोटों से विजेता का फैसला नहीं हो सका, तो उम्मीदवार के खाते में वोटर की दूसरी पसंद को नए सिंगल वोट की तरह ट्रांसफर किया जाता है। इसलिये इसे सिंगल ट्रांसफरेबल वोट कहा जाता है।
- उल्लेखनीय है कि वोट डालने वाले सांसदों और विधायकों के मतों की प्रमुखता भी अलग-अलग होती है। इसे ‘वेटेज़’ भी कहा जाता है। दो राज्यों के विधायकों के वोटों का ‘वेटेज़’ भी अलग-अलग होता है। यह ‘वेटेज़’ राज्य की जनसंख्या के आधार पर तय किया जाता है और यह ‘वेटेज़’ जिस तरह तय किया जाता है, उसे आनुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था कहते हैं।
राष्ट्रपति की शक्तियाँ
- 26 जनवरी, 1950 को संविधान के अस्तित्व में आने के साथ ही देश ने 'संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य' के रूप में नई यात्रा शुरू की। परिभाषा के मुताबिक गणराज्य (रिपब्लिक) का आशय होता है कि राष्ट्र का मुखिया निर्वाचित होगा, जिसको राष्ट्रपति कहा जाता है।
- राष्ट्रपति की शक्तियाँ कुछ इस प्रकार से हैं; अनुच्छेद 53 : संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी। वह इसका उपयोग संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करेगा। इसकी अपनी सीमाएँ भी हैं ;
1. यह संघ की कार्यपालिका शक्ति (राज्यों की नहीं) होती है, जो उसमें निहित होती है।
2. संविधान के अनुरूप ही उन शक्तियों का प्रयोग किया जा सकता है।
3. सशस्त्र सेनाओं के सर्वोच्च कमांडर की हैसियत से की जाने वाली शक्ति का उपयोग विधि के अनुरूप होना चाहिये।
- अनुच्छेद 72 द्वारा प्राप्त क्षमादान की शक्ति के तहत राष्ट्रपति, किसी अपराध के लिये दोषी ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, निलंबन, लघुकरण और परिहार कर सकता है। मृत्युदंड पाए अपराधी की सज़ा पर भी फैसला लेने का उसको अधिकार है।
- अनुच्छेद 80 के तहत प्राप्त शक्तियों के आधार पर राष्ट्रपति, साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव रखने वाले 12 व्यक्तियों को राज्य सभा के लिये मनोनीत कर सकता है।
- अनुच्छेद 352 के तहत राष्ट्रपति, युद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में आपातकाल की घोषणा कर सकता है।
- अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति द्वारा किसी राज्य के संवैधानिक तंत्र के विफल होने की दशा में राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर वहाँ राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है।
- वहीं अनुच्छेद 360 के तहत भारत या उसके राज्य क्षेत्र के किसी भाग में वित्तीय संकट की दशा में वित्तीय आपात की घोषणा का अधिकार राष्ट्रपति को है।
- राष्ट्रपति कई अन्य महत्त्वपूर्ण शक्तियों का भी निर्वहन करता है, जो अनुच्छेद 74 के अधीन करने के लिए वह बाध्य नहीं है। वह संसद के दोनों सदनों द्वारा पास किये गए बिल को अपनी सहमति देने से पहले 'रोक' सकता है। वह किसी बिल (धन विधेयक को छोड़कर) को पुनर्विचार के लिये सदन के पास दोबारा भेज सकता है।
- अनुच्छेद 75 के मुताबिक, 'प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। चुनाव में किसी भी दल या गठबंधन को जब स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो राष्ट्रपति अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए ही सरकार बनाने के लिये लोगों को आमंत्रित करता है। ऐसे मौकों पर उसकी भूमिका निर्णायक होती है
राष्ट्रपति पद की गरिमा का सवाल
- सत्ता और प्रतिपक्ष को आम सहमति बनाकर राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार तय करना चाहिये था, लेकिन यह पहल नहीं की जा सकी। महामहिम की कुर्सी पर विराजमान होने वाला व्यक्ति भारतीय गणराज्य और संप्रभु राष्ट्र का राष्ट्राध्यक्ष होता है। संवैधानिक व्यवस्था में उसका उतना ही सम्मान और अधिकार संरक्षित है, जितना इस परंपरा के दूसरे व्यक्तियों का रहा है।
- आज दलित उम्मीदवार को लेकर दोनों पक्षों से जो राजनीति देखने को मिल रही है, उससे इस पद की गरिमा को ठेस ही पहुँची है। राजनैतिक दलों को यह समझना चाहिये कि दलित शब्द जुड़ने मात्र से इस पद की गरिमा नहीं बढ़ जाएगी और न ही राष्ट्रपति के संवैधानिक अधिकारों में कोई बदलाव आएगा और न ही राष्ट्रपति को असीमित अधिकार मिल जाएंगे।
- दशकों से दबे-कुचले और शोषित समाज से संबंध रखने वाला व्यक्ति यदि किसी संवैधानिक पद पर आसीन होता है तो उस समाज में आशा की एक लहर दौड़ जाती है और लोकतंत्र में उनका विश्वास मज़बूत होता है, लेकिन यहाँ समस्या यह है कि दोनों ही पक्ष दलित उम्मीदवार लेकर आए हैं और समूचे मामले का राजनीतिकरण किया जा रहा है।
निष्कर्ष
- इसमें कोई शक नहीं है कि दलित पिछड़ों और समाज के सबसे निचली पायदान के लोगों का सामाजिक उत्थान होना चाहिये और उन्हें समाज में बराबरी का सम्मान मिलना चाहिये। ऐसे लोगों का आर्थिक एवं सामाजिक विकास होना चाहिये, लेकिन राजनीति में जाति, धर्म, भाषा और संप्रदाय की माला नहीं जपी जानी चाहिये।
- दरअसल, भारतीय राजव्यवस्था में संसद को जो विशेषाधिकार हैं, वह राष्ट्रपति को नहीं है। महामहिम दलितों के लिये कोई अलग से कानून नहीं बना पाएंगे।
- भारतीय गणराज्य के संविधान में सभी नागरिकों को समता और समानता का अधिकार है, फिर वह दलित हो या ब्राह्मण, हिंदू, सिख, ईसाई, मुसलमान सभी को यह अधिकार है। हमारा संविधान जाति, धर्म, भाषा के आधार पर कोई भेदभाव की बात नहीं करता है। फिर महामहिम जैसे प्रतिष्ठित पद के लिये दलित शब्द की बात करना, इस पद की गरिमा को खंडित करना ही कहा जाएगा।