उच्च न्यायपालिका में पारदर्शिता

संदर्भ

न्यायपालिका को संविधान का संरक्षक और नागरिकों के मौलिक अधिकारों का रक्षक माना जाता है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के पास न केवल कानून के लिये अंतिम सहायक प्राधिकार हैं, बल्कि ये हमारे लोकतंत्र के उच्चतम आदर्शों के रक्षक भी माने जाते हैं।

आपको विदित होगा कि लगभग 10 साल पहले दिल्ली उच्च न्यायालय ने सूचना के अधिकार (RTI) अधिनियम को लेकर एक ऐतिहासिक निर्णय दिया था। इसमें कहा गया था कि भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) का कार्यालय एक सार्वजनिक प्राधिकरण है और इसलिये इस पर अधिनियम के प्रावधान लागू होते हैं। दरअसल, एक RTI दायर कर भारत के मुख्य न्यायाधीश के पास अदालती मामलों को लेकर जानकारी सहित जजों की संपत्ति के बारे में जानकारी आदि को सार्वजनिक करने की मांग की गई थी।

लेकिन इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगा दी थी और तभी से उच्चतम न्यायपालिका में पारदर्शिता का मुद्दा एक महत्त्वपूर्ण बिंदु रहा है, विशेषकर न्यायाधीशों की नियुक्ति और न्याय प्रशासन के संबंध में। ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय का हालिया निर्णय हमें न्यायपालिका की जवाबदेही और पारदर्शिता के प्रश्नों/मुद्दों के आसपास यह पूरी बहस को केंद्रित करने के लिये प्रेरित करता है।

लॉर्ड वुल्फ (Lord Woolf) ने ठीक ही कहा है, "न्यायपालिका की स्वतंत्रता न्यायपालिका की संपत्ति नहीं है, बल्कि न्यायपालिका द्वारा जनता के विश्वास के लिये रखी जाने वाली एक वस्तु है।" (Independence of the judiciary is…not the property of the judiciary, but a commodity to be held by the judiciary in trust for the public.)

न्यायपालिका को प्रभावित करने वाले मुद्दे

भारत दुनिया के कुछ उन गिने-चुने देशों में से एक है जहाँ न्यायाधीशों के कॉलेजियम तंत्र के माध्यम से उच्च न्यायापालिका में न्यायिक नियुक्तियाँ की जाती हैं और कोई उनको चुनौती नहीं दे सकता। यहाँ यह जान लेना भी ज़रूरी है कि कॉलेजियम का संविधान में कोई उल्लेख नहीं है और इसका जन्म सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले से हुआ है। माना जाता है न्यायिक नियुक्तियों में कार्यपालिका के बढ़ते हस्तक्षेप के बाद कॉलेजियम प्रणाली सामने आई, विशेष रूप से इंदिरा गांधी के शासन के दौरान हुए कार्यपालिका के हस्तक्षेप के जवाब में।

कॉलेजियम ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुरक्षित करने और इसकी गारंटी देने के एक साधन के रूप में काम करना शुरू किया।

क्या है कॉलेजियम व्यवस्था?

  • देश की उच्च अदालतों में जजों की नियुक्ति की प्रणाली को कॉलेजियम व्यवस्था कहा जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम में देश के मुख्य न्यायाधीश के अलावा शीर्ष अदालत के चार अन्य वरिष्ठतम जज शामिल होते हैं। उच्च न्यायालयों के कॉलेजियम में संबद्ध न्यायालय के तीन वरिष्ठतम जज शामिल होते हैं।
  • 1990 में सर्वोच्च न्यायालय के दो फैसलों के बाद यह व्यवस्था बनाई गई थी और 1993 से इसी के माध्यम से उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्तियाँ होती हैं। कॉलेजियम व्यवस्था के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में बनी वरिष्ठ जजों की समिति जजों के नाम तथा नियुक्ति का फैसला करती है।
  • सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति तथा तबादलों का फैसला भी कॉलेजियम ही करता है। उच्च न्यायालयों के कौन से जज पदोन्नत होकर सर्वोच्च न्यायालय जाएंगे यह फैसला भी कॉलेजियम ही करता है। 
  • कॉलेजियम की सिफारिशें प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भेजी जाती हैं और उनकी मंज़ूरी मिलने के बाद ही नियुक्ति की जाती है।
  • 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना करने वाले संवैधानिक संशोधन को रद्द कर दिया जो कॉलेजियम की जगह लेने के लिये बनाया जाना था।

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग 

केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा स्थानांतरण के लिये राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम बनाया था, जिसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। 2015 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को यह कहते हुए असंवैधानिक करार दिया था कि ‘राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग’ अपने वर्तमान स्वरूप में न्यायपालिका के कामकाज में हस्तक्षेप है। उल्लेखनीय है कि शीर्ष न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली में व्यापक पारदर्शिता लाने की बात लंबे समय से होती रही है। शीर्ष अदालत का यह मानना है कि जजों की योग्यता का निर्धारण/ आकलन करना न्यायपालिका का ज़िम्मा है।

  • पाँच न्यायाधीशों वाली संविधानिक पीठ ने बहुमत से यह फैसला दिया कि न्यायिक नियुक्तियों में न्यायिक प्रधानता शक्तिशाली राजनीतिक कार्यपालिका के बढ़ते हस्तक्षेप के खिलाफ न्यायिक स्वतंत्रता हासिल/सुनिश्चित करने का संवैधानिक रूप से अधिकृत एकमात्र तरीका है।
  • हालाँकि उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियाँ और स्थानांतरण कैसे होते हैं, यह अभी भी रहस्य बना हुआ है। यह कुछ वैसा ही है जैसे सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम के पास अपारदर्शिता के लिये कई रास्ते हैं, जो नियुक्तियों की प्रक्रिया में मौज़ूद हो सकते हैं।
  • यह मानने वालों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ रही है कि न्यायिक नियुक्तियाँ अक्सर तदर्थ और मनमाने तरीके से की जाती हैं।

न्यायपालिका में अंकल सिंड्रोम

जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता नहीं होने और इनमें परिवारवाद को वरीयता देने का मुद्दा समय-समय पर चर्चा में आ जाता है, जिसे अंकल सिंड्रोम कहते हैं। इसमें होता यह है कि जब जज बनाने के लिये अधिवक्ताओं के नाम प्रस्तावित किये जाते हैं तो किसी भी स्तर पर किसी से कोई राय नहीं ली जाती। इनमें जिन लोगों का नाम प्रस्तावित किया जाता है उनमें से कई पूर्व न्यायाधीशों के परिवार से होते हैं या उनके संबंधी होते हैं। विशेष पहुँच के कारण इनके नामों को प्रस्तावित किया जाता है, जो न्यायपालिका की शुचिता और स्वतंत्रता के हित में नहीं होता। पारदर्शिता के अभाव में न्यायपालिका में नियुक्तियाँ जब निजी संबंधों और प्रभाव के आधार पर की जाती हैं तो न्यायपालिका में इस परंपरा को 'अंकल सिंड्रोम' कहा जाता है।

कॉलेजियम ने सार्वजनिक जाँच के किसी भी तरीके से खुद को प्रतिरक्षित किया हुआ है। नामांकन प्रक्रिया बेहद गोपनीय है और किसी व्यक्ति का चयन कैसे होता है, इस बारे में बहुत कम जानकारी मिल पाती है। विचार-विमर्श गुप्त रहता है तथा पदोन्नति होने या न होने की वज़हें भी गुप्त रहती हैं, जिससे कई बार माहौल बेहद असहज बन जाता है। एक के बाद एक अफवाहों को जन्म मिलता है और न्यायपालिका में काम करने वाले लोगों के बीच गोपनीयता का माहौल बन जाता है।

समय की मांग है पारदर्शिता

  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांतों और संविधान के प्रावधानों को मिलाकर देखने पर ऐसा आभास होता है कि इसकी जवाबदेही सुनिश्चित करने का एकमात्र विशेषाधिकार सर्वोच्च न्यायालय का है। वांछित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये देश की सबसे बड़ी अदालत के कामकाज में कोई अन्य संस्थान दखलंदाज़ी नहीं कर सकता।
  • राज्य के शक्तिशाली अंगों के रूप में किसी भी अन्य निकाय की तरह अदालतों का कामकाज भी पारदर्शी और सार्वजनिक जाँच के लिये खुला होना चाहिये। अदालतों की वैधता सत्यापित तथ्यों और कानून के सिद्धांतों के आधार पर उचित आदेश प्रदान करने की उनकी क्षमता पर आधारित है।
  • उच्च न्यायपालिका में कानूनी दलीलों का परीक्षण पहले दिये जा चुके निर्णयों या एक ही अदालत की बड़ी बेंचों के निर्णयों के आधार पर किया जाता है।
  • न्यायपालिका में अदालतों का एक पदानुक्रम (Hierarchy) होता है। ट्रायल कोर्ट से लेकर अपीलीय कोर्ट तक पहुँचते-पहुँचते तथ्यों और कानून का विभिन्न चरणों में परीक्षण हो जाता है।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया था, उसके अनुसार न्यायिक शक्ति सहित अन्य सभी शक्तियाँ एक आधुनिक संविधान में जवाबदेही के अधीन हैं। ऐसे में RTI अधिनियम से पूर्णतया छूट खुले न्याय (Open Justice) के मूल सिद्धांत को खत्म करने के लिये पर्याप्त है।

न्यायपालिका को RTI कानून के तहत लाने से उत्पन्न होने वाला यह भय आधारहीन है कि इससे न्यायाधीशों की व्यक्तिगत गोपनीयता समाप्त हो जाएगी। इसके लिये RTI कानून में गोपनीयता बनाए रखने के लिये अंतर्निहित सुरक्षा प्रबंध किये गए हैं, जिसके तहत व्यक्तिगत जानकारी को तब तक प्रकट नहीं किया जा सकता, जब तक सार्वजनिक हित में ऐसा करना ज़रूरी न हो।

पारदर्शिता की राह में प्रमुख बाधाएँ

  • न्यायपालिका को RTI कानून के तहत लाने में सबसे बड़ा डर यह है कि इससे न्यायाधीशों की व्यक्तिगत गोपनीयता समाप्त हो जाएगी और ऐसी स्थिति में उनकी पक्षपात रहित रहने और सत्यनिष्ठा प्रभावित होगी।
  • न्यायाधीशों के लिये उनकी विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा बेहद महत्त्वपूर्ण है तथा इस पर यदि जरा सी भी आँच आती है या इसे किसी प्रकार की ठेस लगती है तो उनके लिये स्वतंत्र रहकर काम करना मुश्किल हो जाएगा।
  • यह आशंका भी जताई जाती है कि इसे संदर्भ से अलग जाकर भी इस्तेमाल किया जा सकता है और अदालत में लाभ उठाने के लिये इसका इस्तेमाल किया जा सकता है या किसी विशेष मामले में न्यायाधीशों की स्वतंत्रता पर सवाल उठाए जा सकते हैं।

कॉलेजियम में आने लगी है कुछ पारदर्शिता

कॉलेजियम पद्धति की गोपनीयता बरकरार रखते हुए इसमें पारदर्शिता लाने के लिये अब उच्च न्यायालयों के जजों को नियमित करने, उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश की पदोन्नति, उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों/न्यायाधीशों के स्थानांतरण और सर्वोच्च न्यायालय में उनकी नियुक्तियों के बारे में कॉलेजियम द्वारा लिये गए निर्णय कारण सहित उस समय शीर्ष अदालत की वेबसाइट पर डाले जाने लगे हैं, जब इन्हें सरकार की स्वीकृति के लिये भेजा जाता है। यह घोषणा एक नए टैब 'कॉलेजियम रिजोल्यूशन' के तहत वेबसाइट पर उपलब्ध है, जिसमें इस बात का उल्लेख होता है कि किसी का चुनाव क्यों किया गया है और किसी की उम्मीदवारी को नकारने के क्या कारण हैं।

अब तक यही धारणा व्याप्त है कि कॉलेजियम व्यवस्था में पारदर्शिता का नितांत अभाव है। उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों के मामले में पारदर्शिता लाने के लिये कॉलेजियम ने अपनी सिफारिशों को सार्वजनिक करने का निर्णय लिया है। कॉलेजियम की कार्यवाही को सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर डाला जाएगा और उम्मीदवारों के बारे में आईबी के मूल्यांकन को भी सार्वजनिक किया जाएगा।

आगे की राह

इसमें कोई दो राय नहीं कि न्यायाधीशों द्वारा दिये गए निर्णयों के खिलाफ उन पर इसलिये कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता ताकि वे पूर्ण स्वतंत्र होकर अपना काम करें और भय मुक्त हों। यही सबसे बड़ी वज़ह है कि उन्हें अपने कामकाज में स्वतंत्रता और सर्वोच्चता की आवश्यकता होती है। लेकिन न्यायिक कदाचार के मामलों से निपटने और न्यायिक जवाबदेही के विचार को बाधित करने वालों के लिये न्यायपालिका के भीतर एक पारदर्शी प्रणाली का होना अनिवार्य है। इसका एकमात्र तरीका न्यायपालिका के आवरण को थोड़ा खोलना है। ऐसी न्यायपालिका को जो खुद पर और लोकतांत्रिक गणराज्य में अपने स्थान के प्रति आश्वस्त है, न्यायिक नियुक्तियों को सार्वजनिक मंच पर लाने को लेकर चिंतित नहीं होना चाहिये। इसके लिये कॉलेजियम सिस्टम में आवश्यकतानुसार बदलाव किया जा सकता है। जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण जैसे महत्त्वपूर्ण मामलों को न्यायिक परिवार के सीमित दायरे से बाहर निकालकर उसमें आम लोगों को भागीदार बनाने के लिये कॉलेजियम व्यवस्था की निर्णय प्रक्रिया में और अधिक पारदर्शिता लाने की बेहद आवश्यकता है।

अभ्यास प्रश्न: “भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता, साख तथा सत्यनिष्ठा केवल कॉलेजियम व्यवस्था में ही बनी रह सकती है। सरकार का अनावश्यक हस्तक्षेप इसकी स्वतंत्रता को प्रभावित कर सकता है”...कथन का विश्लेषण कीजिये।