भारत और वैश्वीकरण का बदलता परिदृश्य | 16 Dec 2024
प्रारंभिक परीक्षा के लिये:वैश्वीकरण, भारत और वैश्वीकरण, भारत में एफडीआई, आत्मनिर्भर भारत, अमेरिका-चीन व्यापार, भारत-चीन संबंध, जनसांख्यिकीय लाभांश मुख्य परीक्षा के लिये:वैश्वीकरण का प्रभाव, विवैश्वीकरण, संरक्षणवाद और वैश्वीकरण का मुद्दा |
स्रोत: फाइनेंसियल एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल के भू-राजनीतिक बदलावों, जैसे कि रूस-यूक्रेन युद्ध , मध्य-पूर्व में संघर्ष और चीन तथा पश्चिम के बीच बिगड़ते राजनीतिक संबंधों ने वैश्वीकरण के भविष्य और भारत जैसे देशों के लिये इसके निहितार्थ पर सवाल उठाए हैं।
- साथ ही भारत का आत्मनिर्भर भारत का दृष्टिकोण वैश्विक एकीकरण के साथ आत्मनिर्भरता के संतुलन संबंधी परिचर्चा को जन्म देता है।
- नोट: वैश्वीकरण वस्तुओं, सेवाओं, प्रौद्योगिकी और विचारों के आदान-प्रदान के माध्यम से देशों की बढ़ती अंतर्संबंधता है, जो संचार, परिवहन और व्यापार उदारीकरण में प्रगति से प्रेरित है।
समय के साथ वैश्वीकरण किस प्रकार विकसित हुआ है?
वैश्वीकरण की नींव:
- प्रारंभिक व्यापार नेटवर्क: सिल्क रोड, हिंद महासागर व्यापार और ट्रांस-सहारा व्यापार मार्ग जैसे व्यापार मार्ग विविध क्षेत्रों को जोड़ते थे, जिससे रेशम, मसाले, सोना, नमक और हाथीदाँत जैसी वस्तुओं का आदान-प्रदान संभव हो पाता था।
- सांस्कृतिक और धार्मिक आदान-प्रदान: व्यापार और प्रवास ने बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म तथा इस्लाम जैसे धर्मों के प्रसार को सुगम बनाया, साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में कला, वास्तुकला और वैज्ञानिक ज्ञान के आदान-प्रदान को भी संभव बनाया।
- उपनिवेशवाद और औद्योगीकरण: यूरोपीय औपनिवेशिक विस्तार और औद्योगिक क्रांति ने मशीनीकृत उत्पादन तथा लंबी दूरी के व्यापार के माध्यम से दूरस्थ अर्थव्यवस्थाओं को जोड़ा।
युद्धोत्तर काल में वैश्वीकरण को संस्थागत बनाना:
- वैश्विक संस्थाएँ और शीत युद्ध प्रतिद्वंद्विता: अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF), विश्व बैंक और विश्व व्यापार संगठन (WTO) जैसी संस्थाओं ने वैश्विक व्यापार को बढ़ावा दिया, जबकि शीत युद्ध से उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (NATO) और वारसा संधि जैसे प्रतिस्पर्द्धी गुटों का निर्माण किया।
- उपनिवेशवाद का उन्मूलन और नए गठबंधन: नव स्वतंत्र देश गुटनिरपेक्ष आंदोलन (NAM) जैसे प्रयासों के माध्यम से औपनिवेशिक संबंधों से आगे बढ़ते हुए वैश्विक व्यापार और कूटनीति में शामिल हुए।
आधुनिक वैश्वीकरण:
- उत्प्रेरक के रूप में प्रौद्योगिकी: 20वीं सदी के उत्तरार्ध में इंटरनेट और डिजिटल संचार के उदय से त्वरित वैश्विक कनेक्टिविटी सक्षम हुई तथा ई-कॉमर्स, सोशल मीडिया और इंटरनेट ऑफ थिंग्स (IoT) के माध्यम से अंत: संबद्ध विश्व को बढ़ावा दिया।
- बहुराष्ट्रीय कंपनियों का उदय: एप्पल, गूगल और टोयोटा जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं का उदाहरण हैं, जो समग्र विश्व में नवाचार, निवेश एवं रोज़गार सृजन को बढ़ावा देते हुए विभिन्न महाद्वीपों में उत्पादन तथा सेवाओं का प्रसार कर रही हैं।
- वैश्विक वित्तीय प्रवाह: आर्थिक उदारीकरण ने सीमा पार निवेश और वैश्विक वित्तीय बाज़ार एकीकरण को बढ़ावा दिया, जिसमें यूरोज़ोन, BRICS और ASEAN जैसी पहलों ने वैश्विक ढाँचे के भीतर क्षेत्रीय अंतरनिर्भरता का उदाहरण प्रस्तुत किया।
- वैश्वीकरण की आघात सहनीयता: 2008 के वित्तीय संकट और कोविड-19 महामारी जैसी असफलताओं के बावजूद , वैश्विक व्यापार और संचार में तेज़ी आई, जो सुदृढ़ वैश्विक अंतर्संबंध का द्योतक है।
21वीं सदी में वैश्वीकरण से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं ?
- वैश्वीकरण की चुनौतियाँ:
- आर्थिक राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद: राष्ट्रवादी सरकारें सामान्यतः उच्च आयात शुल्क, व्यापार बाधाएँ और घरेलू उद्योगों के लिये सब्सिडी जैसे संरक्षणवादी उपाय अपनाती हैं, जिससे वैश्विक व्यापार और निवेश प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है।
- उदाहरण के लिये, भारत के ‘आत्मनिर्भर भारत’ संकल्पना को अंतर्मुखी या संरक्षणवादी होने के कारण इसकी आलोचना की गई।
- भू-राजनीतिक संघर्ष: अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध, रूस-यूक्रेन संघर्ष और आर्थिक प्रतिबंध जैसे तनाव वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं को बाधित करते हैं और बहुपक्षीय सहयोग को कमज़ोर करते हैं।
- आर्थिक असमानताएँ: बाज़ार पहुँच, तकनीकी प्रगति और संसाधन वितरण के संदर्भ में विकसित और विकासशील देशों के बीच असमानताएँ वैश्वीकरण की समावेशिता के समक्ष चुनौती हैं।
- आर्थिक राष्ट्रवाद और संरक्षणवाद: राष्ट्रवादी सरकारें सामान्यतः उच्च आयात शुल्क, व्यापार बाधाएँ और घरेलू उद्योगों के लिये सब्सिडी जैसे संरक्षणवादी उपाय अपनाती हैं, जिससे वैश्विक व्यापार और निवेश प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है।
- वैश्वीकरण से उत्पन्न चुनौतियाँ:
- आर्थिक असमानताएँ: वैश्वीकरण से प्रायः धनी देशों और बहुराष्ट्रीय निगमों को अधिक लाभ होता है, जिससे आय अंतराल बढ़ता है और छोटी अर्थव्यवस्थाएँ कमज़ोर हो जाती हैं।
- इसके अतिरिक्त कंपनियाँ अपने उत्पादन को उन देशों में स्थानांतरित करने की प्रवृत्ति रखती हैं जहाँ पारिश्रमिक कम होता है तथा श्रम विधि कम कठोर होती है, जिससे रोज़गार सृजन एवं श्रमिक शोषण के बीच संतुलन के संबंध में चिंताएँ उजागर होती हैं।
- सांस्कृतिक क्षरण: वैश्विक संस्कृति के प्रसार से अक्सर स्थानीय परंपराओं पर ग्रहण लगने का संकट रहता है - वैश्विक मीडिया और उपभोक्तावाद के माध्यम से पश्चिमी संस्कृति का प्रभुत्व स्थानीय रीति-रिवाजों, भाषाओं और सांस्कृतिक पहचानों के लिये संकट उत्पन्न करता है।
- पर्यावरणीय प्रभाव: वैश्वीकरण द्वारा प्रेरित बढ़ता औद्योगीकरण, वैश्विक परिवहन और संसाधनों का दोहन पर्यावरणीय क्षरण और जलवायु परिवर्तन में योगदान देता है ।
- आर्थिक असमानताएँ: वैश्वीकरण से प्रायः धनी देशों और बहुराष्ट्रीय निगमों को अधिक लाभ होता है, जिससे आय अंतराल बढ़ता है और छोटी अर्थव्यवस्थाएँ कमज़ोर हो जाती हैं।
वैश्वीकरण के युग में भारत की उपलब्धियाँ क्या हैं?
- पृष्ठभूमि: भारत ने भुगतान संतुलन का संकट से उत्पन्न आर्थिक सुधारों के माध्यम से वर्ष 1991 में वैश्वीकरण को अपनाया।
- सुधारों में उदारीकरण, निजीकरण और विदेशी निवेश के लिये रास्ता खोलना शामिल था, जिससे अर्थव्यवस्था संरक्षणवाद से बाजार संचालित प्रणाली में परिवर्तित हो गयी।
- आर्थिक योगदान:
- आईटी एवं डिजिटल क्रांति: वैश्विक स्तर पर सूचना प्रौद्योगिकी में अग्रणी भारत, बेंगलुरु जैसे शहरों और इंफोसिस एवं टीसीएस जैसी कंपनियों के साथ, विश्वभर के ग्राहकों को डिजिटल सेवाओं की सुविधा प्रदान करने वाला केंद्र बन गया है।
- वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में भागीदारी: भारत विनिर्माण को बढ़ावा देने और विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिये मेक इन इंडिया जैसी पहलों के समर्थन से फार्मास्यूटिकल्स, वस्त्र एवं ऑटोमोटिव घटकों जैसे क्षेत्रों में वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में एकीकृत हो रहा है।
- व्यापार और निवेश: भारत ने आसियान, यूरोपीय संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे समूहों के साथ व्यापार साझेदारी का विस्तार किया है, जबकि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) के प्रवाह में उतार-चढ़ाव वैश्विक निवेश गंतव्य के रूप में इसके आकर्षण को दर्शाता है।
- जनसांख्यिकीय लाभांश: युवा कार्यबल और विशाल प्रवासी समुदाय के साथ, भारत वैश्विक श्रम बाजार में, विशेष रूप से स्वास्थ्य सेवा और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में, महत्वपूर्ण योगदान देता है, जबकि डायस्पोरा धन प्रेषण से उसके वैश्विक आर्थिक संबंध मजबूत होते हैं।
- राजनीतिक और रणनीतिक भूमिका:
- बहुपक्षवाद को बढ़ावा देना: संयुक्त राष्ट्र (यूएन), जी-20, ब्रिक्स एवं शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) जैसे वैश्विक मंचों में भारत की सक्रिय भागीदारी, साथ ही जी-20 की अध्यक्षता, विकासशील देशों के लिये इसकी वकालत और समावेशी, सतत् विकास के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को उजागर करती है।
- क्वाड में भारत की भागीदारी स्वतंत्र और खुले हिंद-प्रशांत के प्रति उसकी प्रतिबद्धता को रेखांकित करती है।
- बहुपक्षवाद को बढ़ावा देना: संयुक्त राष्ट्र (यूएन), जी-20, ब्रिक्स एवं शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) जैसे वैश्विक मंचों में भारत की सक्रिय भागीदारी, साथ ही जी-20 की अध्यक्षता, विकासशील देशों के लिये इसकी वकालत और समावेशी, सतत् विकास के प्रति इसकी प्रतिबद्धता को उजागर करती है।
- शक्तियों में संतुलन: भारत की रणनीतिक स्थिति अमेरिका, रूस एवं चीन जैसी प्रमुख शक्तियों के साथ संतुलित संबंध बनाने में सक्षम बनाती है।
- सॉफ्ट पॉवर डिप्लोमेसी: भारत योग, बॉलीवुड और पारंपरिक व्यंजनों समेत अपनी सांस्कृतिक विरासत का लाभ उठाता है, तथा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस जैसी पहलों के माध्यम से अपने वैश्विक प्रभाव को बढ़ाता है तथा एक शांतिप्रिय राष्ट्र के रूप में अपनी छवि को बढ़ावा देता है।
- सुरक्षा एवं संरक्षण: संयुक्त राष्ट्र शांति मिशनों में भारत का योगदान तथा इसके रक्षा निर्यात एवं इज़रायल तथा अमेरिका जैसे देशों के साथ सहयोग वैश्विक सुरक्षा और सामरिक मामलों में इसकी महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते हैं।
भारत की विकास रणनीति में राष्ट्रवाद और वैश्वीकरण एक साथ कैसे रह सकते हैं?
- वैश्विक स्तर पर स्वदेशी उत्पादों और संस्कृति को बढ़ावा देना: भारतीय हस्तशिल्प, पारंपरिक दवाओं और स्थानीय वस्तुओं के निर्यात के लिये वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट और वोकल फॉर लोकल जैसी पहलों का विस्तार करना, साथ ही भारत की सॉफ्ट पॉवर को मज़बूत करने और पारंपरिक शिल्प को वैश्विक मूल्य शृंखलाओं में एकीकृत करने के लिये सांस्कृतिक कूटनीति का लाभ उठाना।
- नवीकरणीय ऊर्जा में अग्रणी: वैश्विक जलवायु कार्रवाई के साथ राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा को संतुलित करने के लिये अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA) और नवीकरणीय ऊर्जा नवाचारों में भारत की भूमिका को मज़बूत करना।
- व्यापार के लिये प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: व्यापार को आधुनिक बनाने, पारदर्शिता, दक्षता और सतत् विकास के साथ संरेखण सुनिश्चित करने के लिये ब्लॉकचेन, फिनटेक और डिजिटल उपकरणों को एकीकृत करना।
- वैश्विक साझेदारियों में विविधता लाना: महत्त्वपूर्ण खनिजों, अर्द्धचालकों और नवकरणीय ऊर्जा घटकों जैसे संसाधनों के लिये एकल राष्ट्र पर निर्भरता कम करने के लिये उभरते बाज़ारों के साथ लचीले संबंधों को बढ़ावा देना, तथा पारस्परिक विकास को बढ़ावा देना।
- जनसांख्यिकीय लाभांश का उपयोग: भारत कौशल में वृद्धि, उद्यमशीलता को बढ़ावा देने और आर्थिक विकास को गति देने के लिये वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं में एकीकरण करके अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का उपयोग कर सकता है।
निष्कर्ष
वैश्वीकरण में वृद्धि हो रही है, यह भू-राजनीतिक तनाव और जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियों का समाधान करने के लिये अनुकूल रणनीतियों की मांग कर रहा है, साथ ही नवाचार और स्थिरता के अवसरों का लाभ उठा रहा है। भारत अपनी जनसांख्यिकीय क्षमता, आर्थिक प्रभाव और वैश्विक पहलों में नेतृत्व के साथ इस परिवर्तन को आगे बढ़ाने के लिये अच्छी स्थिति में है। आत्मनिर्भरता को वैश्विक एकीकरण के साथ जोड़कर, भारत एक लचीली, समावेशी और दूरदर्शी वैश्विक व्यवस्था को आकार दे सकता है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: 21वीं सदी में वैश्वीकरण के समक्ष आने वाली चुनौतियों और अवसरों पर चर्चा कीजिये। भारत अपनी आत्मनिर्भरता की महत्त्वाकांक्षाओं को वैश्वीकृत दुनिया की मांगों के साथ किस प्रकार संतुलित कर सकता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)मुख्य:प्रश्न 1. वैश्वीकरण ने भारत में सांस्कृतिक विविधता के आंतरक (कोर) को किस सीमा तक प्रभावित किया है?स्पष्ट कीजिये। (2016) प्रश्न 2. भारत में महिलाओं पर वैश्वीकरण के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों पर चर्चा कीजिये। (2015) |