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डेली न्यूज़

  • 19 Aug, 2024
  • 57 min read
भारतीय अर्थव्यवस्था

भूमि सुधार हेतु राज्यों को केंद्र द्वारा सहायता

प्रिलिम्स के लिये:

विशिष्ट भू-खंड पहचान संख्या (ULPIN), भूमि अभिलेखों का डिजिटलीकरण, भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS), सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP), पुराने वाहनों की स्क्रैपिंग, DILRMP, गाँवों का सर्वेक्षण और ग्रामीण क्षेत्रों में उन्नत प्रौद्योगिकी के साथ मानचित्रण (SVAMITVA), कृषि जनगणना, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), ब्लॉकचेन प्रौद्योगिकी

मेन्स के लिये:

संसाधनों के संग्रहण और समावेशी विकास में भूमि सुधारों का महत्त्व।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केंद्र सरकार ने राज्यों में भूमि संबंधी सुधारों को बढ़ावा देने के लिये पूंजी निवेश के लिये राज्यों को विशेष सहायता योजना (सत्र 2024-25) के तहत वित्तीय प्रोत्साहन निर्धारित किये।

  • ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में भूमि संबंधी सुधारों को लागू करने के लिये राज्यों को केंद्र सरकार द्वारा 10,000 करोड़ रुपए और वित्तीय वर्ष 2024-25 (FY25) के दौरान किसानों की रजिस्ट्री बनाने के लिये 5,000 करोड़ रुपए का प्रोत्साहन दिया जाएगा

योजना के तहत भूमि सुधारों के लिये हाल ही में क्या घोषणाएँ की गई हैं?

  • ग्रामीण क्षेत्रों में भू-खंड (Land Parcel) को विशिष्ट भू-खंड पहचान संख्या (ULPIN), जिसे भू-आधार भी कहा जाता है, सौंपी जाएगी।
    • ULPIN यह एक ऐसी संख्या है जो भूमि के उस प्रत्येक खंड की पहचान करेगी जिसका सर्वेक्षण हो चुका है, विशेष रूप से ग्रामीण भारत में, जहाँ सामान्यतः भूमि-अभिलेख काफी पुराने एवं विवादित होते हैं। इससे भूमि संबंधी धोखाधड़ी पर रोक लगेगी।
  • कैडस्ट्रल मानचित्रों का डिजिटलीकरण किया जाएगा और वर्तमान स्वामित्व को दर्शाने के लिये भूमि उपखंडों का सर्वेक्षण किया जाएगा। इसके अतिरिक्त एक व्यापक भूमि रजिस्ट्री स्थापित की जाएगी।
  • शहरी क्षेत्रों में राज्यों को भौगोलिक सूचना प्रणाली (GIS) मैपिंग का उपयोग करके भूमि रिकॉर्ड को डिजिटल बनाने के लिये वित्तीय प्रोत्साहन मिलेगा।
    • उन्हें संपत्ति रिकॉर्ड प्रशासन, अद्यतनीकरण और कर प्रबंधन के लिये IT-आधारित प्रणालियाँ विकसित करने की भी आवश्यकता है।

योजना के तहत विभिन्न अन्य पहलों के लिये वित्तीय सहायता

  • कामकाज़ी महिलाओं के छात्रावासों के लिये सहायता: सरकार ने महिला कार्यबल भागीदारी को बढ़ावा देने के लिये छात्रावासों के निर्माण हेतु 5,000 करोड़ रुपए आवंटित किये हैं, जिसमें राज्य सरकारें बिना किसी लागत के भूमि उपलब्ध कराएंगी या अधिग्रहण लागत को कवर करेंगी और छात्रावासों का प्रबंधन सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) मॉडल के तहत किया जाएगा किंतु राज्य का स्वामित्व बरकरार रहेगा।
  • पुराने वाहनों की स्क्रैपिंग: पुराने वाहनों की स्क्रैपिंग के लिये 3,000 करोड़ रुपए प्रोत्साहन के रूप में दिये जाएंगे।
  • औद्योगिक विकास: औद्योगिक विकास को प्रोत्साहित करने के लिये 15,000 करोड़ रुपए निर्धारित किये गए हैं।
  • अवसंरचना विकास: अवसंरचना विकास के लिये 1,000 करोड़ रुपए आवंटित किये जाएंगे, जिसका हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के बीच बराबर वितरण किया जाएगा।
  • केंद्र प्रायोजित योजनाएँ: शहरी और ग्रामीण अवसंरचना परियोजनाओं सहित केंद्र प्रायोजित योजनाओं में राज्यों के हिस्से के लिये 15,000 करोड़ रुपए का समर्थन किया जाएगा।
  • SNA स्पर्श मॉडल: जस्ट-इन-टाइम फंड रिलीज़ मॉडल के कार्यान्वयन के लिये 4,000 करोड़ रुपए आवंटित किए जाएंगे।
  • पूंजीगत व्यय लक्ष्य: वित्त वर्ष 2024-25 हेतु पूंजीगत व्यय लक्ष्यों को पूरा करने के लिये प्रोत्साहन के रूप में 25,000 करोड़ रुपए प्रदान किये जाएंगे।

भूमि सुधारों के लिये प्रमुख पहल क्या हैं?

  • स्वतंत्रता पूर्व: ब्रिटिश शासन के तहत किसानों के पास भूमि स्वामित्व की कमी थी। भूमि का स्वामित्व ज़मींदारों, जागीरदारों और अन्य बिचौलियों के पास था।
    • भारत में भूमि सुधारों की प्रभावशीलता में कुछ प्रमुख चुनौतियों ने बाधा उत्पन्न की, जिनमें कुछ ही हाथों में भूमि का संकेंद्रण, शोषणकारी पट्टा व्यवस्था, अनुचित तरीके से बनाए गए भूमि अभिलेख और खंडित भूमि जोत शामिल हैं।
  • स्वतंत्रता उपरांत सुधार: उपर्युक्त मुद्दों से निपटने के लिये सरकार ने वर्ष 1949 में जे. सी. कुमारप्पा की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की, जिसने बिचौलियों के उन्मूलन, काश्तकारी सुधार, भूमि जोत की सीमा, भूमि जोत के समेकन जैसे व्यापक कृषि सुधारों की सिफारिश की।
    • बिचौलियों का उन्मूलन: ज़मींदारी प्रथा को हटाने से किसानों और राज्य के बीच बिचौलियों का उन्मूलन संभव हुआ।
    • काश्तकारी सुधार: इसका उद्देश्य किराए को नियंत्रित करना, काश्तकारी की सुरक्षा सुनिश्चित करना और काश्तकारों को स्वामित्व प्रदान करना था।
    • भूमि स्वामित्व की अधिकतम सीमा: भूमि स्वामित्व की अधिकतम सीमा तय करने के लिये भूमि सीमा अधिनियम पारित किया गया ताकि कुछ लोगों के बीच भूमि का संकेंद्रण रोका जा सके।
      • कुमारप्पा समिति की सिफारिश के आधार पर अधिकतम सीमा को एक परिवार की आजीविका के लिये आवश्यक आर्थिक जोत के आकार से तीन गुना निर्धारित किया गया था।
      • वर्ष 1961-62 तक राज्यों ने अलग-अलग अधिकतम सीमाएँ लागू की थीं, जिन्हें वर्ष 1971 में मानकीकृत किया गया। राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों ने भूमि के प्रकार और उत्पादकता के आधार पर 10-54 एकड़ के बीच सीमाएँ निर्धारित कीं।
    • भूमि स्वामित्व का समेकन: भूमि समेकन का उद्देश्य छोटे, बिखरे हुए भूखंडों को बड़ी प्रबंधनीय इकाइयों में पुनर्गठित करके विखंडन को कम करना था।
      • तमिलनाडु, केरल, मणिपुर, नागालैंड, त्रिपुरा और आंध्र प्रदेश के कुछ हिस्सों को छोड़कर अधिकांश राज्यों ने पंजाब और हरियाणा में अनिवार्य समेकन तथा अन्य राज्यों में स्वैच्छिक समेकन के साथ समेकन कानून बनाए।
  • हालिया पहल:
    • डिजिटल इंडिया भूमि रिकॉर्ड आधुनिकीकरण कार्यक्रम (DILRMP): DILRMP, जिसे पूर्व में राष्ट्रीय भूमि रिकॉर्ड आधुनिकीकरण कार्यक्रम (NLRMP) के रूप में जाना जाता था, को भारत सरकार द्वारा वर्ष 2008 में भूमि रिकॉर्ड को डिजिटल व आधुनिक बनाने तथा एक केंद्रीकृत भूमि रिकॉर्ड प्रबंधन प्रणाली विकसित करने के उद्देश्य से शुरू किया गया था।
      • DILRMP एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है, जिसका उद्देश्य विभिन्न राज्यों में भूमि अभिलेखों के बीच समानताओं का निर्माण करके पूरे देश के लिये एक उपयुक्त एकीकृत भूमि सूचना प्रबंधन प्रणाली (ILIMS) विकसित करना है, जिस पर प्रत्येक राज्य प्रासंगिकता और अपनी इच्छानुसार राज्य-विशिष्ट आवश्यकताओं को जोड़ सकने में सक्षम हो सके।
    • SVAMITVA: (गाँवों का सर्वेक्षण और ग्रामीण क्षेत्रों में तात्कालिक प्रौद्योगिकी के साथ मानचित्रण (SVAMITVA) योजना पंचायती राज मंत्रालय, राज्य पंचायती राज विभागों, राज्य राजस्व विभागों और भारतीय सर्वेक्षण विभाग का एक संयुक्त प्रयास है।

भूमि सुधार से संबंधित चुनौतियाँ तथा इन्हें दूर करने हेतु उपाय क्या हैं?

  • चुनौतियाँ:
    • स्थापित प्रभुत्वशाली स्वरुप: बड़े भूस्वामी परिवर्तनों का विरोध करते हैं, जिससे भूमि हदबंदी अधिनियमों और पुनर्वितरण नीतियों के प्रवर्तन में बाधा उत्पन्न होती है।
    • जटिल भूमि अभिलेख: अभिलेखों/रिकॉर्ड को बनाए रखने की पुरातन प्रणालियाँ विवादों को जन्म देती हैं तथा पुनर्वितरण के लिये भूमि की पहचान को जटिल बनाती हैं।
    • भूमि का विखंडन: उत्तराधिकारियों के बीच भूमि का विभाजन आर्थिक रूप से अव्यावहारिक छोटी भूमि जोत में परिणत होता है
      • कृषि जनगणना के अनुसार परिचालित जोत का औसत आकार वर्ष 1970-71 के 2.28 हेक्टेयर से घटकर वर्ष 1980-81 में 1.84 हेक्टेयर, वर्ष 1995-96 में 1.41 हेक्टेयर तथा वर्ष 2015-16 में 1.08 हेक्टेयर हो गया है।
    • विधिक एवं कार्यान्वयन संबंधी मुद्दे: मौजूदा कानूनों का अपर्याप्त प्रवर्तन तथा परिवार के आधार पर स्पष्ट अधिकतम सीमा का अभाव जैसी खामियाँ भूमि सुधार के प्रयासों को कमज़ोर करती हैं।
    • शहरीकरण का दबाव: तीव्र विकास के परिणामस्वरूप प्रायः कृषि भूमि का विवादास्पद तरीके से अधिग्रहण किया जाता है और किसानों को विस्थापित होना पड़ता है।
    • उत्पादकता बनाम समानता: भूमि के पुनर्वितरण और नए मालिकों द्वारा प्रभावी तरीके से खेती करने की आवश्यकता के बीच संतुलन बनाना एक महत्त्वपूर्ण चुनौती बनी हुई है।
  • आगे की राह:
    • प्रौद्योगिकी एकीकरण: भूमि अभिलेखों को डिजिटल और सुरक्षित बनाने के लिये सैटेलाइट इमेजिंग, AI और ब्लॉकचेन जैसी उन्नत तकनीकों का उपयोग किया जा सकता है। इससे भूमि प्रबंधन व मानचित्रण में सुधार होगा तथा विवादों में कमी के साथ पारदर्शिता सुनिश्चित होगी।
    • विधिक ढाँचे में वृद्धि: भूमि सुधार कानूनों को और अधिक कठोर बनाने तथा उन्हें सख्ती से लागू करने, संबंधित कानूनों में व्याप्त खामियों को दूर करने एवं उनके क्रियान्वयन में सुधार किये जाने की आवश्यकता है।
      • इस संदर्भ में पश्चिम बंगाल और केरल की भूमि सुधार प्रथाओं का अनुकरण किया जा सकता है, जहाँ सशक्त राजनीतिक इच्छाशक्ति के परिणामस्वरूप भूमि सुधार काफी हद तक सफल रहे हैं।
    • भूमि चकबंदी पहल: कृषि दक्षता में सुधार हेतु स्वैच्छिक पूलिंग व सहकारी खेती मॉडल के माध्यम से भूमि चकबंदी को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये।
    • न्यायसंगत भूमि अधिग्रहण: प्रभावित किसानों के लिये पर्याप्त मुआवज़े तथा पुनर्वास उपायों के साथ पारदर्शी, निष्पक्ष भूमि अधिग्रहण नीतियों को लागू किया जाना चाहिये।
    • नए भूस्वामियों का सशक्तीकरण: नए भूस्वामियों को कृषि प्रशिक्षण, ऋण तक पहुँच एवं बाज़ार संपर्क सहित व्यापक सहायता प्रदान की जानी चाहिये

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. ऐतिहासिक भूमि असमानताओं को दूर करने में राज्य द्वारा संचालित भूमि सुधारों की प्रभावशीलता का समालोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये। इन सुधारों को लागू करने में विभिन्न राज्यों का प्रदर्शन कैसा रहा है तथा उनके अनुभवों से क्या सबक लिये जा सकते हैं?

और पढ़ें: भारत में भूमि सुधार

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ) 

प्रिलिम्स:

प्रश्न. स्वतंत्र भारत में भूमि सुधारों के संदर्भ में निम्नलिखित में से कौन-सा कथन सही है?

(a) हदबंदी कानून पारिवारिक जोत पर केंद्रित थे न कि व्यक्तिगत जोत पर।
(b) भूमि सुधारों का प्रमुख उद्देश्य सभी भूमिहीनों को कृषि भूमि प्रदान करना था।
(c) इसके परिणामस्वरूप नकदी फसलों की खेती, कृषि का प्रमुख रूप बन गई।
(d) भूमि सुधारों ने हदबंदी सीमाओं को किसी भी प्रकार की छूट की अनुमति नहीं दी।

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार, कृषि उत्पादकता और गरीबी उन्मूलन के बीच संबंध स्थापित कीजिये। भारत में कृषि अनुकूल भूमि सुधारों के रूपांकन व अनुपालन में कठिनाइयों की विवेचना कीजिये। (2013)


जैव विविधता और पर्यावरण

कोसी-मेची नदी जोड़ो परियोजना

प्रिलिम्स के लिये:

कोसी-मेची नदी जोड़ो परियोजना, नदियों को जोड़ने की राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना, कोसी नदी, महानंदा नदी, मेची नदी

मेन्स के लिये:

भारत में नदियों को जोड़ने की योजना और इससे संबंधित मुद्दे।

स्रोत: डाउन टू अर्थ

चर्चा में क्यों? 

कोसी-मेची नदी जोड़ो परियोजना जो नदियों को जोड़ने की भारत की महत्त्वाकांक्षी राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (National Perspective Plan-NPP) का हिस्सा है, विवाद का विषय बन गई है। बिहार में बाढ़ पीड़ितों ने इसके क्रियान्वयन का विरोध किया है।

  • हालाँकि इस परियोजना का उद्देश्य क्षेत्र की सिंचाई प्रणाली में सुधार लाना है, लेकिन स्थानीय लोगों का तर्क है कि यह परियोजना बाढ़ नियंत्रण के महत्त्वपूर्ण मुद्दे को संबोधित करने में विफल है, जिससे वे हर साल प्रभावित प्रभावित होते हैं।

कोसी-मेची नदी जोड़ो परियोजना से संबंधित प्रमुख बिंदु क्या हैं? 

  • परियोजना के बारे में: इस परियोजना में कोसी नदी को महानंदा नदी की सहायक नदी मेची नदी से जोड़ना शामिल है, जिसका प्रभाव बिहार और नेपाल के क्षेत्रों पर पड़ेगा।
    • इस परियोजना का लक्ष्य 4.74 लाख हेक्टेयर (बिहार में 2.99 लाख हेक्टेयर) भूमि को वार्षिक सिंचाई तथा 24 मिलियन घन मीटर (Million Cubic Meters- MCM) घरेलू एवं औद्योगिक जलापूर्ति उपलब्ध कराना है।
      • परियोजना के पूरा होने पर कोसी बैराज से 5,247 क्यूबिक फीट प्रति सेकंड (क्यूसेक) अतिरिक्त जल निर्गमित होने की आशा है।
    • इस परियोजना का प्रबंधन केंद्रीय जल शक्ति (जल संसाधन) मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (National Water Development Agency- NWDA) द्वारा की जा रहा है।
  • चिंताएँ: यह परियोजना मुख्य रूप से सिंचाई उद्देश्यों की पूर्ति हेतु तैयार की गई है, जिसका लक्ष्य खरीफ सीज़न के दौरान महानंदा नदी बेसिन में 2,15,000 हेक्टेयर कृषि भूमि को सिंचाई सुविधा प्रदान करना है।
    • सरकारी दावों के बावज़ूद इस परियोजना में बाढ़ नियंत्रण का कोई महत्त्वपूर्ण घटक शामिल नहीं है, जो बाढ़-प्रवण क्षेत्र के लिये व्यापक चिंता का विषय है।
    • इस परियोजना में बैराज से केवल 5,247 क्यूबिक फीट प्रति सेकंड (क्यूसेक) अतिरिक्त जल निर्गमित किया जाएगा, जो बैराज की 9,00,000 क्यूसेक क्षमता की तुलना में नगण्य है। 
      • स्थानीय लोगों का मानना ​​है कि जल प्रवाह में मामूली कमी क्षेत्र को नुकसान पहुँचाने वाली वार्षिक बाढ़ को रोकने के लिये पर्याप्त नहीं होगी।
    • बाढ़ और भूमि कटाव के कारण घर नष्ट हो गए हैं और फसलें जलमग्न हो गई हैं, जिससे तटबंधों के बीच रहने वाले स्थानीय ग्रामीण तथा उनकी आजीविका प्रभावित हुई है। 
      • परियोजना के तहत सिंचाई पर केंद्रित ध्यान इन तात्कालिक तथा आवर्ती चुनौतियों का समाधान नहीं करता है।

कोसी और मेची नदी के संदर्भ में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • कोसी नदी: इसे ‘बिहार का शोक’ कहा जाता है। इसका उद्गम हिमालय में समुद्र तल से 7,000 मीटर ऊपर माउंट एवरेस्ट और कंचनजंगा के जलग्रहण क्षेत्र से होता है।
    • चीन, नेपाल और भारत से होकर बहती हुई यह नदी हनुमान नगर के पास भारत में प्रवेश करती है तथा बिहार के कटिहार ज़िले में कुरसेला के पास गंगा नदी में मिल जाती है।
    • कोसी नदी तीन मुख्य धाराओं सन कोसी, अरुण कोसी और तमूर कोसी के संगम से बनती है।
      • कोसी नदी अपने मार्ग को बदलने और पश्चिम की ओर बहने की प्रवृत्ति के लिये प्रसिद्ध है, जो पिछले 200 वर्षों में दरभंगा, सहरसा और पूर्णिया ज़िलों में कृषि क्षेत्र को नष्ट करते हुए 112 किलोमीटर तक चली गई है।
    • सहायक नदियाँ: नदी की कई महत्त्वपूर्ण सहायक नदियाँ हैं, जिनमें त्रिजंगा, भुतही बलान, कमला बलान और बागमती शामिल हैं, जो सभी मैदानी इलाकों से होकर कोसी नदी में मिलती हैं।                    

  • मेची नदी: यह नेपाल और भारत से होकर बहने वाली एक अंतर-सीमा नदी है। यह महानंदा नदी की एक सहायक नदी है।
    • मेची नदी एक बारहमासी नदी है, जो नेपाल में महाभारत पर्वतमाला में हिमालय की अंतरीय घाटी से निकलती है और फिर बिहार से होकर किशनगंज ज़िले में महानंदा में मिलती है।

महानंदा नदी

  • महानंदा नदी पूर्वी हिमालयी नदी तंत्र का एक हिस्सा है। इस नदी में दो धाराएँ शामिल हैं, एक नेपाल में हिमालय से निकलकर बिहार से बहती हुई  उत्तर में गंगा से मिलती है। स्थानीय रूप से इसका नाम फुलहर है।
    • दूसरी नदी पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग से निकलकर बांग्लादेश में प्रवेश करती है, जो बांग्लादेश के गोदागरीघाट के पास गंगा में मिल जाती है। इसे महानंदा के नाम से जाना जाता है।
  • जलग्रहण क्षेत्र: नेपाल और पश्चिम बंगाल के उप-हिमालयी क्षेत्र में फैला हुआ है, जो भारत में सर्वाधिक वर्षण क्षेत्रों में से एक है।
  • बाढ़: मानसून के चरम महीनों के दौरान प्रायः नदियाँ आपस में मिल जाती हैं, जिससे बिहार और पश्चिम बंगाल में भारी बाढ़ आ जाती है। जब गंगा अपने चरम पर होती है तो बाढ़ की समस्या और भी बढ़ जाती है, जिससे बिहार में पूर्णिया व कटिहार तथा पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग, पश्चिमी दिनाजपुर व मालदा जैसे प्रभावित ज़िलों में व्यापक जलभराव हो जाता है।

नदियों को जोड़ने की राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (NPP) क्या है?

  • योजना के बारे में: NPP को वर्ष 1980 में सिंचाई मंत्रालय (अब जल शक्ति मंत्रालय) द्वारा जल के अंतर-बेसिन हस्तांतरण के माध्यम से जल संसाधनों को विकसित करने हेतु तैयार किया गया था।
  • घटक: योजना को दो मुख्य घटकों में विभाजित किया गया है: हिमालयी नदी विकास घटक और प्रायद्वीपीय नदी विकास घटक।
  • चिह्नित परियोजनाएँ: नदियों को जोड़ने से संबंधित 30 परियोजनाओं को स्वीकृति दी गई है, जिनमें से 16 परियोजनाएँ प्रायद्वीपीय घटक के अंतर्गत तथा 14 हिमालयी घटक के अंतर्गत आती हैं।
    • प्रायद्वीपीय घटक के अंतर्गत प्रमुख परियोजनाएँ: महानदी-गोदावरी लिंक, गोदावरी-कृष्णा लिंक, पार-तापी-नर्मदा लिंक और केन-बेतवा लिंक (NPP के तहत कार्यान्वयन शुरू करने वाली पहली परियोजना)।
    • हिमालयी घटक के तहत प्रमुख परियोजनाएँ: कोसी-घाघरा लिंक, गंगा (फरक्का)-दामोदर-सुवर्णरेखा लिंक और कोसी-मेची लिंक।
  • महत्त्व: NPP का उद्देश्य गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना बेसिन में बाढ़ के जोखिम का प्रबंधन करना है।
    • इसका उद्देश्य राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे पश्चिमी एवं प्रायद्वीपीय राज्यों में जल की कमी को दूर करना है।
    • इस योजना का उद्देश्य जल की कमी वाले क्षेत्रों में सिंचाई प्रणाली में सुधार करना, कृषि उत्पादकता को बढ़ावा देना, खाद्य सुरक्षा को प्रोत्साहित करना तथा किसानों की आय को संभवतः दोगुना करना है।
    • NPP को सतही जल का उपयोग करने के उद्देश्य से परिकल्पित किया गया है  ताकि भूजल में हो रही कमी को रोका जा सके तथा समुद्र में प्रवाहित होने वाले स्वच्छ/मीठे/ताज़े जल (Fresh Water) की मात्रा को कम किया जा सके।
  • चुनौतियाँ: आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिक प्रभावों का आकलन करने वाले व्यापक व्यवहार्यता अध्ययन प्रायः अधूरे होते हैं या उनमें कमियाँ होती हैं।
    • अपर्याप्त डेटा से परियोजना की प्रभावशीलता और संभावित अनपेक्षित परिणामों के बारे में अनिश्चितताएँ उत्पन्न हो सकती हैं।
    • जल राज्य-सूची का विषय है। इसलिये राज्यों के बीच जल साझाकरण पर समझौते जटिल हो जाते हैं यह स्थिति संभावित विवादों को जन्म देती है। उदाहरण के लिये, केरल और तमिलनाडु के बीच जल साझाकरण से संबंधित मुद्दे।
    • बड़े पैमाने पर जल स्थानांतरण से बाढ़ की स्थिति और भी विकट हो सकती है यह स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुँचा सकता है। इसके अतिरिक्त जल प्रवाह में परिवर्तन से जलभराव की स्थिति उत्पन्न हो सकती तथा कृषि भूमि में लवणता बढ़ सकती है, जिससे मृदा की गुणवत्ता एवं फसल की पैदावार पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है।
    • बाँधों, नहरों और संबंधित आधारभूत ढाँचे के निर्माण, रख-रखाव एवं संचालन हेतु व्यापक वित्तीय परिव्यय एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक बोझ प्रस्तुत करता है।
    • जलवायु परिवर्तन से वर्षण प्रतिरूप में बदलाव आ सकता है, जिससे जल की उपलब्धता एवं वितरण दोनों प्रभावित हो सकते हैं, साथ ही नदियों को जोड़ने की परियोजनाओं के अपेक्षित लाभ पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

आगे की राह

  • बाढ़ के मैदानों को क्षेत्रीकरण करने, उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण अवसंरचना और बस्तियों को प्रतिबंधित करने के लिये एक व्यापक योजना विकसित की जानी चाहिये। निर्दिष्ट क्षेत्रों में बाढ़ प्रतिरोधी आवास और फसल पैटर्न को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
    • कोसी नदी के किनारे तटबंधों को सुदृढ़ बनाने में निवेश करने की आवश्यकता है ताकि टूट-फूट को रोका जा सके और जलभराव को कम किया जा सके।
  • परियोजना लाभों के न्यायसंगत वितरण को सुनिश्चित करने के लिये एक स्पष्ट तंत्र विकसित किया जाना चाहिये। बाढ़-ग्रस्त क्षेत्रों में बाढ़ नियंत्रण उपायों में महत्त्वपूर्ण निवेश होना चाहिये जबकि जल की कमी वाले क्षेत्रों को बेहतर सिंचाई अवसंरचना से लाभ होना चाहिये।
  • नदियों को जोड़ने की योजना के सामने आने वाली चुनौतियों को देखते हुए राष्ट्रीय जलमार्ग परियोजना (NWP) को अपनाना एक आशाजनक विकल्प प्रदान करता है।
    • NWP जल बंटवारे पर राज्य के जल-साझाकरण विवादों को रोकती है और सामान्य रूप से समुद्र में बहने वाले अतिरिक्त बाढ़ के जल का उपयोग करके कृषि और विद्युत ऊर्जा उत्पादन के लिये अधिक लागत प्रभावी समाधान प्रदान करती है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: कोसी-मेची नदी जोड़ो परियोजना के उद्देश्यों और अपेक्षित लाभों पर चर्चा कीजिये। यह नदियों को जोड़ने के लिये राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना के व्यापक लक्ष्यों के साथ किस प्रकार संरेखित है?

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ) 

मेन्स

प्रश्न. नदियों को आपस में जोड़ना सूखा, बाढ़ और बाधित जल-परिवहन जैसी बहु-आयामी अंतर्संबंधित समस्याओं का व्यवहार्य समाधान दे सकता है। आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2020)


भारतीय अर्थव्यवस्था

कार्यस्थल पर मौलिक सिद्धांत और अधिकार (FPRW) परियोजना

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय वस्त्र उद्योग परिसंघ (CITI), अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO), कार्यस्थल पर मौलिक सिद्धांतों और अधिकारों का संवर्द्धन (FPRW), ILO कन्वेंशन संख्या 138, कन्वेंशन संख्या 182, वाणिज्यिक फसलें, व्हाइट गोल्ड, पिंक बॉलवर्म, पार्किंसंस रोग

मेन्स के लिये:

बाल श्रम से संबंधित मुद्दे, भारतीय अर्थव्यवस्था में कपास और वस्त्र उद्योग का महत्त्व 

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों?

भारतीय वस्त्र उद्योग परिसंघ (Confederation of Indian Textile Industry- CITI) और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (International Labour Organisation- ILO) ने संयुक्त रूप से कार्यस्थल पर मौलिक सिद्धांत एवं अधिकार (Fundamental Principles and Rights at Work- FPRW) नामक परियोजना शुरू की है।

  • इससे सर्वोत्तम श्रम मानकों के बारे में जागरूकता पैदा करने तथा तकनीकी जानकारी एवं ज्ञान को साझा करने में मदद मिलेगी।

क्या है ILO की FPRW परियोजना?

  • परियोजना के विषय में:
    • यह सरकारों, नियोक्ताओं और श्रमिक संगठनों द्वारा उन मूलभूत/बुनियादी मानवीय मूल्यों को कायम रखने की प्रतिबद्धता है, जो हमारे सामाजिक एवं आर्थिक जीवन के लिये महत्त्वपूर्ण हैं। 
    • कार्यस्थल पर मौलिक सिद्धांतों और अधिकारों पर ILO घोषणा (FPRW) को वर्ष 1998 में अपनाया गया था और वर्ष 2022 में इसमें संशोधन किया गया था।
    • वैश्वीकरण के सामाजिक प्रभाव को लेकर बढ़ती चिंताओं के कारण ILO के सदस्यों ने श्रम मानकों की चार श्रेणियों को मान्यता दी, जिन्हें आठ कन्वेन्शनों में व्यक्त किया गया
    • वर्ष 2022 में चार श्रेणियों को संशोधित कर पाँच श्रेणियाँ बना दिया गया जिसमें दस कन्वेन्शनों में व्यक्त सुरक्षा और स्वास्थ्य कन्वेन्शन को शामिल किया गया।
  • FPRW परियोजना और संबंधित कन्वेन्शन की पाँच श्रेणियाँ:
    • संगठन बनाने की स्वतंत्रता और सामूहिक सौदेबाज़ी के अधिकार की प्रभावी मान्यता: बाह्य हस्तक्षेप से मुक्त होकर अपने स्वयं के संगठन बनाना तथा उनका प्रबंधन करना श्रमिकों और नियोक्ताओं दोनों का विशेषाधिकार है।
      • सामूहिक सौदेबाजी के माध्यम से नियोक्ता और श्रमिक अपने संबंधों विशेष रूप से कार्य के शर्तों तथा नियमों पर चर्चा एवं विमर्श करते हैं।
      • इसे निम्नलिखित कन्वेंशन द्वारा लागू किया जाता है:
        • संघ बनाने की स्वतंत्रता और संगठन के अधिकार का संरक्षण कन्वेंशन (सं. 87), 1948
        • संगठित होने का अधिकार और सामूहिक सौदेबाजी कन्वेंशन (सं. 98), 1949
    • सभी प्रकार के बलात् या अनिवार्य श्रम का उन्मूलन: 
      • श्रमिकों को स्वतंत्र रूप से ज्वाइन करने तथा उचित अवधि की पूर्व सूचना के अधीन कार्य छोड़ने की स्वतंत्रता होनी चाहिये।
      • इसे निम्नलिखित कन्वेंशन द्वारा लागू किया जाता है:
        • बलात् श्रम कन्वेंशन (सं. 29), 1930
        • बलात् श्रम उन्मूलन कन्वेंशन (सं. 105), 1957
    • बाल श्रम का प्रभावी उन्मूलन: 
      • ILO कन्वेंशन संख्या 138 (कार्य या रोज़गार में संलग्नता हेतु न्यूनतम आयु) और कन्वेंशन संख्या 182 (बाल श्रम के सबसे बुरे रूपों का उन्मूलन) कार्य हेतु न्यूनतम आयु निर्धारित करते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि यह अनिवार्य स्कूली शिक्षा के लिये निर्धारित आयु से कम नहीं है तथा किसी भी मामले में 15 वर्ष से कम नहीं है
      • इसे निम्नलिखित कन्वेंशन द्वारा लागू किया जाता है:
        • न्यूनतम आयु कन्वेंशन (सं. 138), 1973
        • बाल श्रम के सबसे बुरे स्वरूप पर कन्वेंशन (सं. 182), 1999
    • रोज़गार और व्यवसाय के संबंध में भेदभाव का उन्मूलन: 
      • जाति, रंग, लिंग, धर्म, राजनीतिक मत, राष्ट्रीय निष्कर्षण या सामाजिक मूल के आधार पर बहिष्कार या वरीयता नहीं दी जानी चाहिये।
      • इसमें समान महत्त्व के कार्य के लिये पुरुष और महिला श्रमिकों के लिये समान पारिश्रमिक का प्रावधान होना चाहिये।
      • इसे निम्नलिखित कन्वेंशन द्वारा लागू किया जाता है:
        • समान पारिश्रमिक कन्वेंशन (सं. 100), 1951
        • भेदभाव (रोज़गार और व्यवसाय) कन्वेंशन (सं. 111), 1958
    • सुरक्षित एवं स्वस्थ कार्य परिवेश: 
      • ILO कन्वेंशन संख्या 155 का उद्देश्य कार्यस्थल पर दुर्घटनाओं और स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर अंकुश लगाना है, जबकि कन्वेंशन संख्या 187 चोटों, बीमारियों और मौतों को रोकने के लिये व्यावसायिक सुरक्षा एवं स्वास्थ्य में निरंतर सुधार को अनिवार्य बनाता है।
      • इसे निम्नलिखित कन्वेंशन द्वारा लागू किया जाता है:
        • व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य कन्वेंशन (सं. 155), 1981
        • व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य कन्वेंशन के लिये प्रचारात्मक रूपरेखा (सं. 187), 2006.
  • भारत के लिये FPRW की आवश्यकता: 
    • व्यापार में नॉन-टैरिफ बाधा: भारत से कपास और हाइब्रिड/संकर कपास के बीज अमेरिकी श्रम विभाग की "बाल श्रम या बलात् श्रम द्वारा उत्पादित वस्तुओं की सूची" में बने हुए हैं। FPRW परियोजना से भारत को व्यापार में इस बाधा को कम करने में मदद मिलेगी।
    • वैश्विक दायित्व: ILO की FPRW परियोजना सभी ILO सदस्य देशों पर लागू होती है, चाहे उन्होंने इसकी पुष्टि की हो या नहीं। यह ILO के संविधान का अभिन्न अंग है। 
      • चूँकि भारत ILO का सदस्य है, इसलिये इसे FPRW परियोजना का अनुपालन करना आवश्यक है।
    • स्थायी कार्यबल: कपास उत्पादक समुदाय सभी श्रमिकों के लिये अधिक न्यायसंगत, स्थायी एवं समृद्ध परिवेश को प्रोत्साहित कर सकते हैं, जिससे व्यक्तियों तथा परिवारों को दीर्घकालिक लाभ मिल सकता है।
    • सामाजिक-आर्थिक उत्थान: यह सहयोग किसानों को उनके सामाजिक-आर्थिक उत्थान के उद्देश्य से विभिन्न सरकारी योजनाओं और पहलों के बारे में जानकारी प्रदान करेगा
      • लक्षित समुदायों के लिये आउटरीच सर्विसेज़ (पहुँच सेवाएँ), सूचना प्रसार और व्यावसायिक प्रशिक्षण सुविधाओं के साथ संपर्क उनकी स्थिति को बेहतर बनाने में सहायक हो सकती हैं।
      • सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) जैसे SDG 10 (असमानताओं में कमी) , SDG 8 (सभ्य कार्य और आर्थिक विकास) को प्राप्त करना आवश्यक है।

श्रम स्थितियों से संबंधित तथ्य और आँकड़े

  • विश्व की 40% से अधिक जनसंख्या ऐसे देशों में रहती है, जिन्होंने संगठन बनाने की स्वतंत्रता पर ILO कन्वेंशन संख्या 87 या सामूहिक सौदेबाज़ी पर कन्वेंशन संख्या 98 का ​​अनुसमर्थन नहीं किया है।
  • औसतन महिलाओं को उनके पुरुष समकक्षों की तुलना में 23% कम वेतन दिया जाता है तथा कई देशों में तो उन्हें कुछ व्यवसायों से भी वंचित रखा जाता है।
  • 5-17 वर्ष की आयु के 152 मिलियन बच्चे बाल श्रम में लिप्त हैं, उनमें से 72 मिलियन बच्चे जोखिमपूर्ण कार्य और बाल श्रम के अन्य विकृत रूपों में संलग्न हैं, जबकि 80 मिलियन से अधिक बच्चों की आयु काम करने की न्यूनतम आयु से कम है तथा काम करने के लिये वे बहुत ही छोटे हैं।
  • 25 मिलियन लोग बलात् श्रम के शिकार हैं, जिनमें से 25% बच्चे हैं
  • कम-से-कम 15 मिलियन लोग जिनमें मुख्यतः महिलाएँ और लड़कियाँ शामिल हैं, ज़बरन वैवाहिक जीवन में बंधे हुए हैं, जो कि बलात् श्रम के समान हो सकता है। 

अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO)

  • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) की स्थापना वर्ष 1919 में वर्साय की संधि के तहत की गई थी। 
  • यह 187 सदस्य देशों की सरकारों, नियोक्ताओं और श्रमिकों को श्रम मानकों को स्थापित करने, नीतियाँ बनाने तथा ऐसे कार्यक्रम बनाने के लिये एकजुट करता है, जो सभी पुरुषों व महिलाओं के लिये सभ्य/गरिमापूर्ण कार्य को बढ़ावा देते हैं।
  • यह वर्ष 1946 में संयुक्त राष्ट्र की पहली संबद्ध विशेष एजेंसी बना।
    • इसका मुख्यालय जिनेवा, स्विटज़रलैंड में है
  • इसका संस्थापक मिशन है- “सार्वभौमिक और स्थायी शांति के लिये सामाजिक न्याय  आवश्यक है” (social justice is essential to universal and lasting peace)।
  • विभिन्न वर्गों के बीच शांति स्थापित करने, श्रमिकों के लिये सभ्य कार्य और न्याय सुनिश्चित करने तथा अन्य विकासशील देशों को तकनीकी सहायता प्रदान करने के लिये इसे वर्ष 1969 में नोबेल शांति पुरस्कार प्रदान किया गया।

भारत में बाल श्रम की स्थिति क्या है?

  • पूर्व उपलब्ध जनगणना 2011 के अनुसार भारत में 10.1 मिलियन बाल श्रमिक थे
  • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट,2022 के अनुसार वर्ष 2021 में बाल श्रम (प्रतिषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986 के तहत लगभग 982 मामले दर्ज किये गए, जिनमें सबसे अधिक मामले तेलंगाना में दर्ज किये गए, इसके बाद असम का स्थान है।
  • बाल श्रम की रोकथाम के लिये सरकार द्वारा किये गए प्रयास:
    • बाल श्रम (प्रतिषेध और विनियमन) अधिनियम, 1986: खतरनाक व्यवसायों और प्रक्रियाओं में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों और 18 वर्ष से कम उम्र के किशोर के रोज़गार को प्रतिबंधित करता है।
    • फैक्टरी अधिनियम, 1948: किसी भी खतरनाक वातावरण में 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के रोज़गार को प्रतिबंधित करता है और किशोरों (14 से 18 वर्ष) के कार्य के घंटों और शर्तों को प्रतिबंधित करता है, जिन्हें केवल गैर-खतरनाक प्रक्रियाओं में काम करने की अनुमति है।
    • बाल श्रम पर राष्ट्रीय नीति,1987: इसका उद्देश्य बाल श्रम को प्रतिबंधित और विनियमित करके उसका उन्मूलन करना एवं बच्चों और उनके परिवारों के लिये कल्याण और विकास कार्यक्रम प्रदान करना और कामकाज़ी बच्चों की शिक्षा और पुनर्वास सुनिश्चित करना है।
    • पेंसिल पोर्टल: इस मंच का उद्देश्य बाल श्रम मुक्त समाज के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये बाल श्रम उन्मूलन में केंद्र सरकार, राज्य सरकार, ज़िला, नागरिक समाज और जनता को शामिल करना है। इसे श्रम और रोज़गार मंत्रालय द्वारा लॉन्च किया गया था।
    • अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के अभिसमय का अनुसमर्थन: भारत ने वर्ष 2017 में बाल श्रम पर अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के दो मुख्य अभिसमय यानी न्यूनतम आयु अभिसमय (वर्ष 1973) संख्या 138 और बाल श्रम के सबसे विकृत स्वरूप पर अभिसमय (1999) संख्या 182 का भी अनुसमर्थन किया है।

नोट:

  • भारत ने कई ILO अभिसमयों का अनुसमर्थन किया है,जैसे:
    • बलात श्रम पर अभिसमय (सं. 29),1930, वर्ष 1954 में 
    • समान पारिश्रमिक पर अभिसमय (सं. 100),1951, वर्ष 1958 में 
    • भेदभाव (रोजगार और व्यवसाय) पर अभिसमय (सं. 111),1958, वर्ष 1960 में 
    • बलात् श्रम के उन्मूलन पर अभिसमय (सं. 105),1957,वर्ष 2000 में
    • न्यूनतम आयु पर अभिसमय (सं. 138),1973 और बाल श्रम के सबसे विकृत स्वरूप पर अभिसमय (सं. 182),1999, वर्ष 2017 में।

भारत में कपास की खेती की स्थिति क्या है?

  • परिचय:
    • कपास भारत में खेती की जाने वाली सबसे महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक फसलों में से एक है और वित्तीय वर्ष 2022-23 में कुल वैश्विक कपास उत्पादन का लगभग 23% हिस्सा था। 
      • यह अनुमानित 6 मिलियन कपास की खेती से संबंधित किसानों और कपास प्रसंस्करण और व्यापार जैसी संबंधित गतिविधियों में लगे 40-50 मिलियन लोगों की आजीविका बनाए रखने में प्रमुख भूमिका निभाता है
    • भारत में इसके आर्थिक महत्त्व के कारण इसे "व्हाइट-गोल्ड" भी कहा जाता है।
  • राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य:
    • कपास के अंतर्गत क्षेत्रफल: वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत कपास की खेती के अंतर्गत 130.61 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल के साथ कपास के क्षेत्रफल में विश्व स्तर पर प्रथम स्थान पर है, यानी 324.16 लाख हेक्टेयर के विश्व क्षेत्रफल का लगभग 40%।
      • भारत का लगभग 67% कपास वर्षा आधारित क्षेत्रों में और 33% सिंचित भूमि पर उत्पादित होता है।
    • कपास की उपज: उत्पादकता के मामले में भारत 447 किलोग्राम/हेक्टेयर की उपज के साथ 39वें स्थान पर है।
    • कपास के प्रकार: भारत एकमात्र ऐसा देश है, जो कपास की सभी चार प्रजातियाँ यानी जी. आर्बोरियम एवं  जी. हर्बेशियम (एशियाई कपास), जी.बारबाडेंस (मिस्र कपास) और जी.हिर्सुटुम (अमेरिकी अपलैंड कपास) का उत्पादन करता है। 
      • जी. हिर्सुटुम भारत में 90% संकर कपास उत्पादन का प्रतिनिधित्व करता है और सभी मौजूदा बीटी कपास संकर जी.हिर्सुटुम प्रजाति की हैं
    • उत्पादन: कपास सत्र 2022-23 के दौरान 343.47 लाख गाँठ के अनुमानित उत्पादन के साथ भारत दुनिया में दूसरे स्थान पर है, यानी विश्व कपास उत्पादन का 23.83% है
    • उत्पादन पैटर्न: कपास उत्पादन का अधिकांश हिस्सा 9 प्रमुख कपास उत्पादक राज्यों से आता है, जिन्हें तीन विविध कृषि-पारिस्थितिक क्षेत्रों में बाँटा गया है, जो इस प्रकार हैं:
      • उत्तरी क्षेत्र: पंजाब, हरियाणा और राजस्थान
      • मध्य क्षेत्र: गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश
      • दक्षिणी क्षेत्र: तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक।
    • उपभोक्ता: 311 लाख गाँठ (5.29 मिलियन मीट्रिक टन) की अनुमानित खपत के साथ भारत विश्व में कपास का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता भी है
      • यह विश्व कपास की खपत 1399 लाख गाँठ (23.79 मिलियन मीट्रिक टन) का 22.24% है। 
    • कपास का आयात और निर्यात: भारत कपास के सबसे बड़े निर्यातकों में से एक है यानी वित्तीय वर्ष 2022-23 में 528 लाख गाँठ (8.98 मिलियन मीट्रिक टन) के साथ विश्व निर्यात का 6% हिस्सा रखता है
      • भारत में कपास की कुल खपत का 10% से भी कम कपड़ा उद्योग द्वारा अपनी विशिष्ट आवश्यकता को पूरा करने के लिये आयात किया जाता है।

भारत के कपास क्षेत्र में प्रमुख चुनौतियाँ और आगे की राह क्या हैं?

  • कपास क्षेत्र को प्रभावित करने वाली चुनौतियाँ:
    • कीट और रोग संक्रमण: किसानों को नियमित रूप से पिंक बॉलवर्म जैसे कीट के हमले का सामना करना पड़ता है।
      • यह कीट कपास की खेती के लिये प्रमुख चुनौती बन गया है क्योंकि यह बीटी प्रोटीन के प्रति प्रतिरोधी हो गया है, जिससे इसके समाधान हेतु विविध एवं अनुकूली कीट प्रबंधन रणनीतियों की आवश्यकता है।
    • स्वास्थ्य समस्याएँ: कृषि कार्य के दौरान कीटनाशकों के संपर्क में किसानों के आने से इनमें विषाक्तता, श्वसन संबंधी समस्याएँ, त्वचा एवं आँखों में जलन तथा दौरे और यहाँ तक कि इनकी मृत्यु भी हो सकती है।
      • दीर्घकालिक स्तर पर कीटनाशकों के संपर्क में रहने से पार्किंसंस रोग, अस्थमा, मानसिक बीमारी एवं कैंसर हो सकता है।
    • असंगठित क्षेत्र: भारत का 90% से अधिक बुनाई उद्योग असंगठित होने के साथ यहाँ अन्य एशियाई देशों की तुलना में अपर्याप्त बुनियादी ढाँचा है, जिससे इसकी प्रगति में बाधा आती है।
    • मैनुअल श्रम: वस्त्र उद्योग में स्वचालन को अपनाने की गति धीमी होने के साथ यह क्षेत्र श्रम-प्रधान बना हुआ है जिससे अकुशलता के साथ उत्पादकता सीमित रहती है।
      • तकनीक को अपनाने की गति धीमी होने के साथ बुनियादी ढाँचे के अभाव से उद्योग की समग्र दक्षता एवं विकास पर प्रभाव पड़ता है।
    • उद्योग विखंडन: परिधान उद्योग का केवल 5% संगठित है, जिससे इसकी लाभप्रदता एवं दक्षता प्रभावित होती है।
      • इससे संबंधित 70% श्रमिकों के पास औपचारिक शिक्षा का अभाव होने से उद्योग के विकास के अवसर सीमित होते हैं।
    • जल की बर्बादी: भारतीय वस्त्र उद्योग में जल की काफी बर्बादी होती है, इसके दीर्घकालिक परिणामों से बचने के लिये इसके रणनीतिक उपयोग की आवश्यकता है।

आगे की राह

  • एकीकृत कीट प्रबंधन: एकीकृत कीट प्रबंधन (IPM) रणनीतियों (जिनमें कीटनाशकों के उपयोग को कम करने के क्रम में कीटों के प्राकृतिक नियंत्रण के साथ लाभकारी कीटों को बढ़ावा देना शामिल है) को बढ़ावा देना चाहिये। 
  • त्पाद संवर्द्धन: कपास फाइबर के प्रसंस्करण हेतु स्थानीय कपास प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना करके मूल्य संवर्द्धन को प्रोत्साहित करना चाहिये, जिससे न केवल रोज़गार का सृजन होगा बल्कि कपास आपूर्ति शृंखला के मूल्य में वृद्धि भी होगी। 
  • उद्योग का आधुनिकीकरण: इसके प्रसंस्करण को आधुनिक बनाने, दक्षता में सुधार करने एवं वैश्विक प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा देने हेतु प्रौद्योगिकी उन्नयन निधि योजना (TUFS) और PM मेगा टेक्सटाइल पार्क (PM-MITRA) जैसी पहलों का लाभ उठाना चाहिये।

भारत में कपास उद्योग में बाल श्रम के क्या कारण और समाधान हैं?

  • कारण:
    • सस्ती और अनुसरित श्रम: बच्चों को प्रायः वयस्कों की तुलना में कम भुगतान किया जाता है (या बिना भुगतान के) साथ ही उनकी सौदाकारी शक्ति कमज़ोर होती है और उन्हें प्रायः आज्ञाकारी कर्मचारी माना जाता है।
    • ‘फुर्तीली उंगलियाँ (Nimble Fingers)’ मिथक: नियोक्ता दावा करते हैं कि क्रॉस-परागण, विपुंसन और हाथ द्वारा परागण के कार्य तरुण लड़कियों द्वारा सबसे अच्छे तरीके से किये जाते हैं।
      • ऐसी धारणा है कि बच्चों के छोटे हाथ और शरीर खरपतवार निकालने जैसे कार्यों के लिये बेहतर होते हैं।
    • अकुशल कार्य: कपास की कृषि बहुत हद तक अकुशल कार्य है जहाँ छोटे कद और चपलता जैसी कुछ शारीरिक विशेषताएँ बाल श्रम की माँग को बढ़ाती हैं।
    • सामाजिक मानदंड: बच्चों से प्रायः अपने माता-पिता के नक्शेकदम पर चलने की उम्मीद की जाती है और उन्हें प्रायः कम उम्र में परिवार के अन्य सदस्यों की ‘मदद’ करने की अपेक्षा की जाती है।
  • समाधान:
    • राष्ट्रीय विधान: सरकारों को स्व-अनुमोदित अंतर्राष्ट्रीय संधियों और सम्मेलनों की विषय-वस्तु को राष्ट्रीय विधान में रूपांतरित करना चाहिये।
      • इसके अतिरिक्त, सरकारों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि श्रम कानूनों का क्रियान्वयन और अनुपालन हो।
    • संधारणीय व्यावसायिक व्यवहार: कम्पनियों को आपूर्तिकर्त्ताओं और उप-ठेकेदारों के स्तर सहित अपने सभी व्यावसायिक कार्यों में उचित परिश्रम के साथ कार्य करना चाहिये।
      • इस प्रयास में बाल श्रम को समाप्त करने और रोकने को भी शामिल किया जाना चाहिये।
    • पारदर्शिता और पता लगाने की योग्यता: ब्रांडों और खुदरा विक्रेताओं को अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं को अच्छी तरह से समझने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
      • बाल श्रम का अधिकांश हिस्सा फ्रीलांसरों और अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करने वालों द्वारा किया जाता है।
      • आपूर्ति शृंखला के खरीद पक्ष पर सरकारों को बाल श्रम से बने उत्पादों के आयात पर अंकुश लगाना चाहिये।
    • कार्यबल का प्रतिस्थापन: कुशल कामकाज़ के लिये श्रम को मशीनों से प्रतिस्थापित किया जा सकता है। प्रतिस्थापित श्रमशक्ति को अन्य आर्थिक क्षेत्रों में रोज़गार योग्य बनाने हेतु पुनः कुशल बनाया जाना चाहिये।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न

प्रश्न. भारत में वस्त्र उद्योग के विकास हेतु कपास की कृषि के महत्त्व पर चर्चा कीजिये।

प्रश्न. भारत में कपास क्षेत्र में बाल श्रम के प्रचलन के क्या कारण हैं? कपास क्षेत्र के सतत् विकास के लिये बाल श्रम पर किस प्रकार अंकुश लगाया जा सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. भारत में काली कपास मृदा की रचना निम्नलिखित में से किसके अपक्षयण से हुई है? (2021)

(a) भूरी वन मृदा
(b) विदरी (फिशर) ज्वालामुखीय चट्टान
(c) ग्रेनाइट और शिस्ट
(d) शेल और चूना-पत्थर

उत्तर: (b)


प्रश्न. निम्नलिखित विशेषताएँ भारत के एक राज्य की विशिष्टताएँ हैंः (2011)

  1. उसका उत्तरी भाग शुष्क एवं अर्द्धशुष्क है।
  2. उसके मध्य भाग में कपास का उत्पादन होता है।
  3. उस राज्य में खाद्य फसलों की तुलना में नकदी फसलों की खेती अधिक होती है।

उपर्युक्त सभी विशिष्टताएँ निम्नलिखित में से किस एक राज्य में पाई जाती हैं?

(a) आंध्र प्रदेश
(b) गुजरात
(c) कर्नाटक
(d) तमिलनाडु

उत्तर: (b)


मेन्स:

प्रश्न. भारत में अत्यधिक विकेंद्रीकृत सूती वस्त्र उद्योग के लिये कारकों का विश्लेषण कीजिये। (2013)


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