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विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

पार्किंसंस रोग हेतु तकनीक

  • 15 May 2020
  • 6 min read

प्रीलिम्स के लिये:

पार्किंसंस रोग

मेन्स के लिये:

पार्किंसंस रोग की गई अध्ययन से संबंधित मुद्दे 

चर्चा में क्यों?

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान- भारतीय खनि विद्यापीठ, धनबाद (Indian Institute of Technology- Indian School of Mines) और वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद- भारतीय रासायनिक जीव विज्ञान संस्थान, कोलकाता (Council of Scientific & Industrial Research- Indian Institute of Chemical Biology, Kolkata) ने एक तकनीक विकसित की है जो पार्किंसंस रोग (Parkinson’s disease) के अध्ययन में मददगार साबित हो सकती है। 

प्रमुख बिंदु:

  • पार्किंसंस रोग (Parkinson’s disease):
    • पार्किंसंस रोग एक ऐसी बीमारी है, जिसमें तंत्रिका तंत्र लगातार कमज़ोर होते जाते हैं। इस बीमारी का अब तक कोई इलाज़ उपलब्ध नहीं है।
    • सामान्यतः 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों में पार्किंसंस रोग के लक्षण दिखते हैं किंतु यह रोग किसी भी उम्र में हो सकता है।  
    • लक्षण:
      • शरीर में कंपन, जकड़न, शिथिल गतिशीलता, झुककर चलना, याद्दाश्त संबंधी समस्याएँ और व्यवहार में बदलाव। 

  • पार्किंसंस रोग पर अध्ययन: 

    • पार्किंसंस रोग से पीड़ित लोगों के मस्तिष्क के मध्य (सब्सटेनटिया नाइग्रा- Substantia Nigra) भाग में अल्फा सिन्यूक्लिन (alpha synuclein- ASyn) नामक प्रोटीन अत्यधिक मात्रा में एकत्रित हो जाती है।
    • दुनियाभर के शोधकर्त्ताओं का मत है कि अल्फा सिन्यूक्लिन नामक प्रोटीन का एकत्रीकरण पार्किंसंस रोग की वृद्धि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
    • दुनियाभर के कई शोधकर्त्ता पार्किंसंस रोग से संबंधित यह अध्ययन कर रहे हैं कि प्रोटीन कैसे एकत्रित होती है और किस प्रकार यह एकत्रीकरण न्यूरोनल कोशिकाओं को खत्म कर देता है।
    • अल्फा सिन्यूक्लिन नामक प्रोटीन (एकत्रीकरण) के अंतिम बिंदु पर छोटे पतले फाइबर या ‘फाइब्रिल्स’ (Fibrils) का निर्माण होता है 
    • इस ‘फाइब्रिल्स’ में प्रोटीन की एक संरचना होती है जिसे क्रॉस बीटा फोल्ड (Cross Beta Fold) कहा जाता है।
    • फाइब्रिल्स का विस्तृत अध्ययन एक डाई थियोफ्लेविन टी (Dye Thioflavin T) की मदद से किया गया है। यह डाई क्रॉस-बीटा संरचना को जोड़ती है और प्रकाश उत्सर्जित करती है।
    • इन अध्ययनों की मदद से दवा विकसित की गई लेकिन ये दवाएँ नैदानिक ​​परीक्षणों में सफल नहीं हो पाई।
    • इन विफलताओं ने शोधकर्त्ताओं को यह सोचने पर मज़बूर कर दिया है कि शायद उन्हें न केवल फ़िब्रिल्स को समझने की आवश्यकता है, बल्कि प्रोटीन एकत्रीकरण की प्रक्रिया से पूर्व उत्पन्न होने वाले विभिन्न मध्यवर्तियों को भी समझना आवश्यक है।
  • भारतीय शोधकर्त्ताओं द्वारा विकसित की गई तकनीक:
    • भारतीय शोधकर्त्ताओं ने जेड-स्कैन (Z-scan) तकनीक विकसित की है। इस तकनीक का उपयोग करते हुए बायोमैटिरियल्स के असमान व्यवहार का अध्ययन किया जा सकता है।
    • शोधकर्त्ताओं ने पाया कि जेड-स्कैन तकनीक पार्किंसंस रोग पर अध्ययन में मददगार साबित हो सकती है।
    • यह तकनीक अल्फा सिन्यूक्लिन नामक प्रोटीन के एकत्रीकरण के शुरुआती और बाद के दोनों चरणों की निगरानी में मदद कर सकती है।
    • शोधकर्त्ताओं ने पाया कि प्रोटीन में मोनोमेरिक स्थिति से लेकर फाइब्रिलर संरचना तक असमानता है। साथ ही शोधकर्त्ताओं ने इससे संबंधित तथ्य भी प्रस्तुत किये हैं-
      • प्रोटीन के अन्य अनुरूपों की तुलना में फाइब्रिल्स की विषमता की ताकत अत्यधिक होती है।
      • एकत्रीकरण के विभिन्न चरणों में एक विशिष्ट विषमता है जिसे इस तकनीक की सहायता से लक्षित किया जा सकता है।
      • लगभग 24 घंटों की देरी से बनाने वाले ऑलिगोमर्स जो विषमता में बदलाव के संकेत देते हैं।
    • अल्फा सिन्यूक्लिन में सबसे खतरनाक देर से बनने वाले ऑलिगोमर्स को माना जाता है। अतः इस तकनीक की मदद से इस प्रोटीन पर आसानी से नज़र रखा जा सकता है जो दवा विकसित करने में कारगर साबित हो सकती है।

स्रोत: पीआईबी

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