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डेली न्यूज़

  • 12 Nov, 2024
  • 62 min read
सामाजिक न्याय

वैश्विक क्षय रोग रिपोर्ट 2024

प्रिलिम्स के लिये:

क्षय रोग (TB), WHO की वैश्विक क्षय रोग रिपोर्ट 2024, सतत् विकास लक्ष्य (SDG), वन वर्ल्ड टीबी समिट (2023), निक्षय पोषण योजना

मेन्स के लिये:

क्षय रोग उन्मूलन के लिये भारत की प्रतिबद्धता और पहल, क्षय रोग उन्मूलन के लिये भविष्य की रणनीतियाँ, राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम, भारत और विश्व में क्षय रोग की वर्तमान स्थिति।

स्रोत: पी.आई.बी

चर्चा में क्यों?

विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैश्विक क्षय रोग रिपोर्ट 2024 के अनुसार, भारत ने वर्ष 2015 से 2023 तक क्षय रोग (TB) के मामलों में उल्लेखनीय 17.7% की गिरावट आई है।

  • यह गिरावट वैश्विक औसत 8.3% से अधिक है, जो राष्ट्रीय क्षय रोग उन्मूलन कार्यक्रम (NTEP) के तहत वर्ष 2025 तक तपेदिक को समाप्त करने की भारत की अटूट प्रतिबद्धता को रेखांकित करती है।

वैश्विक क्षय रोग रिपोर्ट 2024 के प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं?

  • वैश्विक तपेदिक घटना रुझान: वर्ष 2023 में 8.2 मिलियन नए क्षय रोग के मामले दर्ज किये गए, जो वर्ष 2022 में 7.5 मिलियन से अधिक है, जो वर्ष 1995 के बाद से WHO द्वारा दर्ज किया गया उच्चतम आँकड़ा है।
    • अनुमान है कि वर्ष 2023 में क्षय रोग से 1.25 मिलियन मृत्यु दर्ज की गईं थी, जो वर्ष 2022 में 1.32 मिलियन से थोड़ी कम थी।
  • क्षय रोग मामलों की जनसांख्यिकी: 30 निम्न और मध्यम आय वाले देशों (LMIC) में वैश्विक क्षय रोग का 87% हिस्सा है।
    • अकेले पाँच देश भारत (26%), इंडोनेशिया (10%), चीन (6.8%), फिलीपींस (6.8%) और पाकिस्तान (6.3%) वैश्विक क्षय रोग बोझ का 56% योगदान देते हैं।
    • क्षय रोग के 55% मामले पुरुषों में, 33% महिलाओं में और 12% बच्चों तथा युवा किशोरों में पाए गए।
  • क्षय रोग उन्मूलन रणनीति लक्ष्य (वर्ष 2015 के बाद): विश्व स्वास्थ्य संगठन की क्षय रोग उन्मूलन रणनीति के तहत देशों को वर्ष 2025 तक क्षय रोग से होने वाली मृत्यु दर में 75% और घटना दर में 50% की कमी लानी होगी।
    • हालाँकि, विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैश्विक क्षय रोग रिपोर्ट 2024 और इंडिया क्षय रोग रिपोर्ट 2024 से संकेत मिलता है कि भारत द्वारा इन लक्ष्यों को हासिल करना या वर्ष 2025 तक क्षय रोग को समाप्त करना संभव नहीं है।
  • भारत में क्षय रोग का परिदृश्य: भारत में वर्ष 2023 में अनुमानित 27 लाख तपेदिक के मामले दर्ज किये गए, जिनमें से 25.1 लाख व्यक्तियों का निदान किया गया और उनका उपचार शुरू किया गया।
    • भारत में क्षय रोग के मामले वर्ष 2015 में प्रति लाख जनसंख्या पर 237 मामलों से घटकर वर्ष 2023 में प्रति लाख 195 हो गए, जो इस अवधि में 17.7% की गिरावट दर्शाता है।
    • उपचार कवरेज वर्ष 2015 में 72% से बढ़कर वर्ष 2023 में 89% हो गया, जिससे निदान न किये गए या उपचार न किये गए मामलों का अंतर काफी कम हो गया।

तपेदिक/क्षय रोग/यक्ष्मा/टीबी (TB)

  • क्षय रोग बैक्टीरिया (माइकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस) नामक जीवाणु के कारण उत्पन्न होता है, जो प्रायः फेफड़ों को प्रभावित करता है।
  • संक्रमण: क्षय रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में हवा के ज़रिये फैलता है। जब फेफड़े की क्षय रोग से पीड़ित व्यक्ति खांसता, छींकता या थूकता है तो वे क्षय रोग के कीटाणुओं को हवा में फैला देते हैं।
  • लक्षण: खांसी के साथ बलगम और कभी-कभी खून आना, सीने में दर्द, कमज़ोरी, वजन कम होना, बुखार और रात में पसीना आना।
  • उपचार: क्षय रोग एक उपचार योग्य एवं साध्य रोग है।
    • क्षय रोग का इलाज 4 रोगाणुरोधी दवाओं के 6 माह के मानक कोर्स के साथ किया जाता है, जहाँ स्वास्थ्य कार्यकर्ता या प्रशिक्षित स्वयंसेवक द्वारा रोगी को जानकारी, पर्यवेक्षण एवं सहायता भी प्रदान की जाती है।
    • क्षय रोग रोधी दवाओं का उपयोग दशकों से किया जा रहा है और सर्वेक्षण किये गए प्रत्येक देश में एक या अधिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधी उपभेदों (स्ट्रेन) की उपस्थिति को दर्ज किया गया है।
      • बहुऔषध-प्रतिरोधक तपेदिक (Multidrug-resistant tuberculosis- MDR-TB) क्षय रोग का एक रूप है जो ऐसे जीवाणु द्वारा उत्पन्न होता है जो दो सबसे प्रभावशाली और प्रथम पंक्ति की तपेदिक-रोधी दवाओं आइसोनियाज़िड (isoniazid) एवं रिफैम्पिसिन (rifampicin) पर प्रतिक्रिया नहीं करता है। MDR-TB का उपचार बेडाक्विलिन (Bedaquiline) जैसी दूसरी पंक्ति की दवाओं के उपयोग से संभव है।
      • व्यापक दवा प्रतिरोधी तपेदिक (Extensively drug-resistant TB- XDR-TB) MDR-TB का एक अधिक गंभीर रूप है जो ऐसे जीवाणु के कारण उत्पन्न होता है जो सबसे प्रभावी दूसरी पंक्ति की क्षय रोग-रोधी दवाओं पर भी प्रतिक्रिया नहीं करता है, जिससे प्रायः रोगियों के पास किसी अन्य उपचार का विकल्प नहीं बचता।

क्षय रोग उन्मूलन के लिये भारत की प्रतिबद्धता

  • सतत् विकास लक्ष्य 3.3: सतत् विकास लक्ष्य (SDG) के एक भाग के रूप में भारत वैश्विक समय-सीमा वर्ष 2030 से पाँच वर्ष पहले ही 2025 तक क्षय रोग को समाप्त करने के लिये प्रतिबद्ध है।
  • लक्ष्य:
    • वर्ष 2015 के स्तर से क्षय रोग की घटनाओं में 80% की कमी।
    • वर्ष 2015 के स्तर से क्षय रोग मृत्यु दर में 90% की कमी।
    • क्षय रोग प्रभावित परिवारों के लिये भयावह स्वास्थ्य लागत का उन्मूलन।
  • उच्च स्तरीय पहल: "क्षय रोग उन्मूलन शिखर सम्मेलन" (2018) और "वन वर्ल्ड टीबी समिट (2023) जैसे आयोजनों में प्रतिबद्धता दोहराई गई तथा भारत द्वारा गांधीनगर घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किये गए (दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र के देशों द्वारा क्षय रोग उन्मूलन के लिये की गई प्रगति का अनुसरण करने हेतु गांधीनगर गुजरात में आयोजित दो दिवसीय बैठक के अंत में अपनाया गया)

क्षय रोग उन्मूलन में क्या चुनौतियाँ हैं? 

  • अपर्याप्त वैश्विक वित्तपोषण: वर्ष 2023 में, निम्न और मध्यम आय वाले देशों (LMIC) में उपलब्ध कुल वित्तपोषण 5.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जो वर्ष 2027 तक 22 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँचने के लक्ष्य का केवल 26% के बराबर है। 
  • भयावह क्षय रोग लागत: क्षय रोग से पीड़ित लगभग 20% भारतीय परिवारों को भयावह स्वास्थ्य व्यय का सामना करना पड़ता है, जो WHO के शून्य लक्ष्य से कहीं अधिक है।
  • LMIC में सीमित दाता समर्थन: LMIC में अंतर्राष्ट्रीय दाता वित्तपोषण लगभग 1.1-1.2 बिलियन अमरीकी डॉलर प्रतिवर्ष पर स्थिर रहती है।
    • यद्यपि अमेरिका और ग्लोबल फंड प्रमुख योगदानकर्त्ता हैं, लेकिन उनका समर्थन आवश्यक क्षय रोग सेवा आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये  अपर्याप्त है।
  • अपर्याप्त वित्त पोषित क्षय रोग अनुसंधान: वर्ष 2022 तक 5 बिलियन अमेरिकी डॉलर के अनुसंधान लक्ष्य का केवल पाँचवाँ हिस्सा ही पूरा होने के कारण क्षय रोग निदान, दवाओं और टीकों में महत्त्वपूर्ण प्रगति बाधित है।
  • जटिल एवं परस्पर संबद्ध महामारी चालक: यह महामारी अनेक जोखिम कारकों से प्रेरित है, जिनमें कुपोषण, HIV, शराब का सेवन, धूम्रपान और मधुमेह शामिल हैं। 

आगे की राह 

  • विस्तारित तपेदिक निवारक चिकित्सा (TPT): पहुँच बढ़ाने और क्षय रोग संचरण को कम करने के लिये TPT को छोटे उपचारों के साथ बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये।
  • नवीन निदान और विकेंद्रीकरण: क्षय रोग का शीघ्र पता लगाने के लिये आणविक निदान परीक्षण का विस्तार करने और रिपोर्टिंग में सुधार करने के प्रयास किये जाने चाहिये।  
  • क्षय रोग सेवा वितरण का विकेंद्रीकरण: "आयुष्मान आरोग्य मंदिरों" के माध्यम से सेवाओं के विकेंद्रीकरण से क्षेत्रों में पहुँच और उपचार दक्षता में सुधार होगा।
  • समुदाय-आधारित रोगी सहायता प्रणालियों को बढ़ाना: रोगी देखभाल में सुधार और कलंक को दूर करने के लिये सामुदायिक भागीदारी तथा सहायता प्रणालियों को मज़बूत करने हेतु प्रधानमंत्री टीबी मुक्त भारत अभियान (PMTBMBA) जैसी पहल को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
  • वयस्कों में BCG टीकाकरण पर अध्ययन आयोजित करना: क्षय रोग की रोकथाम के लिये वयस्कों में बेसिल कैलमेट-ग्यूरिन (BCG) टीकाकरण (क्षय रोग रोग के लिये एक टीका) की  प्रभावकारिता का विश्लेषण करने के लिये व्यापक अध्ययन आवश्यक है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: वर्ष 2025 तक क्षय रोग उन्मूलन प्राप्त करने में भारत के दृष्टिकोण और प्रगति पर चर्चा कीजिये। इस लक्ष्य को पूरा करने में मुख्य बाधाएँ क्या हैं और इनके समाधान के लिये भविष्य में कौन-सी रणनीतियाँ अपनाई जा सकती हैं? (250 शब्द)

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न   

प्रिलिम्स:

प्रश्न: निम्नलिखित में से कौन-से 'राष्ट्रीय पोषण मिशन' के उद्देश्य हैं? (2017)

  1. गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली माताओं में कुपोषण के बारे में ज़ागरूकता पैदा करना। 
  2. छोटे बच्चों, किशोरियों और महिलाओं में एनीमिया के मामलों को कम करना। 
  3. बाजरा, मोटे अनाज और बिना पॉलिश किये चावल की खपत को बढ़ावा देना। 
  4. पोल्ट्री अंडे की खपत को बढ़ावा देना।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a)  केवल 1 और 2
(b) केवल 1, 2 और 3
(c) केवल 1, 2 और 4
(d) केवल 3 और 4

उत्तर: A


मेन्स:

Q. "एक कल्याणकारी राज्य की नैतिक अनिवार्यता होने के अलावा, सतत् विकास के लिये प्राथमिक स्वास्थ्य संरचना एक आवश्यक पूर्व शर्त है।" विश्लेषण कीजिये। (2021)


कृषि

स्टेट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर 2024

प्रिलिम्स के लिये:

खाद्य और कृषि संगठन, संयुक्त राष्ट्र, गैर-संचारी रोग, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, सतत् विकास लक्ष्य, कृषि विकास के लिये अंतर्राष्ट्रीय कोष, सतत् कृषि के लिये राष्ट्रीय मिशन, 'ईट राइट’ पहल

मेन्स के लिये:

खाद्य सुरक्षा, कृषि खाद्य प्रणालियाँ और स्थिरता, भारत की कृषि खाद्य प्रणाली और प्रच्छन्न लागत

स्रोत: डाउन टू अर्थ

चर्चा में क्यों? 

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (AFO) की स्टेट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर 2024 रिपोर्ट क्वे अनुसार, अस्वास्थ्यकर आहार (अनहेल्दी डाइट) पैटर्न और पर्यावरण क्षरण वैश्विक वैश्विक कृषि खाद्यान्न की प्रच्छन्न लागत के मुख्य कारण हैं, जो कुल मिलाकर लगभग 12 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर प्रतिवर्ष है।

  • यह रिपोर्ट अक्सर नजरअंदाज़ किये जाने वाले उन कारकों की जाँच करती है जो इन लागतों में योगदान करते हैं, तथा वैश्विक कृषि खाद्य प्रणालियों में परिवर्तन का आग्रह करती है। 

नोट: प्रच्छन्न लागतें उन आर्थिक बोझों को संदर्भित करती हैं जो खाद्य उत्पादों के बाज़ार मूल्य में परिलक्षित नहीं होती हैं। इनमें वर्तमान कृषि खाद्य प्रणाली से उत्पन्न स्वास्थ्य लागत, पर्यावरण क्षरण और सामाजिक असमानताएँ शामिल हैं।

स्टेट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर 2024 की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

  • प्रच्छन्न लागतें: कृषि खाद्य प्रणालियों की प्रच्छन्न लागतें प्रतिवर्ष लगभग 12 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच जाती हैं।
  • भारत पर अंतर्दृष्टि: भारत की प्रच्छन्न लागत, कुल 1.3 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर है, जो विश्व स्तर पर चीन (1.8 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर) और संयुक्त राज्य अमेरिका (1.4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर) के बाद तीसरी सबसे बड़ी लागत है।
  • ये लागतें कृषि-खाद्य प्रणाली से जुड़ी महत्वपूर्ण स्वास्थ्य, सामाजिक और पर्यावरणीय चुनौतियों को दर्शाती हैं।
    • इनमें से 73% से अधिक लागत आहार संबंधी जोखिमों, जैसे प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों का अधिकऔर पौधे-आधारित खाद्य पदार्थों का कम सेवन, से उत्पन्न होती हैं
    • प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों और योजकों के अत्यधिक उपभोग से भारत को प्रतिवर्ष 128 बिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान होता है, जिसका मुख्य कारण हृदय रोग, स्ट्रोक और मधुमेह जैसी बीमारियाँ हैं। 
    • भारत में पादप-आधारित खाद्य पदार्थों और लाभकारी फैटी एसिडों के अपर्याप्त उपभोग से 846 बिलियन अमेरिकी डॉलर की प्रच्छन्न लागत बढ़ जाती है, जिससे स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों पर और अधिक बोझ पड़ता है।
    • कृषि खाद्य प्रणाली में वितरण संबंधी विफलताओं के कारण कृषि खाद्य श्रमिकों के बीच कम मज़दूरी और कम उत्पादकता और भी बदतर हो गई है, जिसके कारण भारत में गरीबी बढ़ रही है।
  • कृषि खाद्य प्रणाली के अनुसार प्रच्छन्न लागतें: रिपोर्ट में कृषि खाद्य प्रणालियों को छह प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है- ये हैं दीर्घकालिक संकट, पारंपरिक, विस्तार, विविधीकरण, औपचारिकीकरण और औद्योगिक, जिनमें से प्रत्येक की अपनी अलग प्रच्छन्न कॉस्ट प्रोफाइल है।
    • अधिकांश प्रणालियों में, साबुत अनाज, फलों और सब्जियों का कम सेवन प्राथमिक आहार जोखिम है। हालाँकि, दीर्घकालिक संकट और पारंपरिक प्रणालियों जैसी प्रणालियों में, फलों और सब्जियों का कम सेवन एक बड़ी चिंता का विषय है।
    • पारंपरिक से औपचारिक प्रणालियों की ओर सोडियम सेवन में वृद्धि होती है, औपचारिक प्रणालियों में यह चरम पर होता है तथा औद्योगिक प्रणालियों में घटता है। 
    • अधिक औद्योगिक प्रणालियों में प्रसंस्कृत और लाल माँस की खपत में लगातार वृद्धि हो रही है। 

  • पर्यावरणीय और सामाजिक लागत: असंवहनीय कृषि पद्धतियों, विशेषकर कृषि खाद्य प्रणालियों में विविधता लाने से महत्त्वपूर्ण पर्यावरणीय लागत उत्पन्न होती है, जिसमें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और नाइट्रोजन अपवाह जैसी लागतें 720 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच जाती हैं।
    • लंबे समय से संकट का सामना कर रहे देशों को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 20% तक की महत्त्वपूर्ण सापेक्ष पर्यावरणीय लागत वहन करनी पड़ती है।
    • पारंपरिक तथा दीर्घकालिक संकट प्रणालियों को सबसे अधिक सामाजिक लागतों का सामना करना पड़ता है, जिसमें गरीबी और अल्पपोषण शामिल हैं, जो इन क्षेत्रों में सकल घरेलू उत्पाद का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है (8% से 18%)।
  • परिवर्तनकारी बदलाव के लिये सिफारिशें:
    • वास्तविक लागत लेखांकन: प्रच्छन्न लागतों को बेहतर ढंग से पकड़ने और निर्णय लेने में सहायता करने के लिये वास्तविक लागत लेखांकन को लागू करना।
    • स्वास्थ्यवर्धक आहार: स्वास्थ्य संबंधी प्रच्छन्न लागतों को कम करते हुए पौष्टिक भोजन को अधिक किफायती और सुलभ बनाने की नीतियाँ।
    • स्थिरता प्रोत्साहन: सतत् प्रथाओं को अपनाने तथा उत्सर्जन को कम करने के लिये वित्तीय और नियामक प्रोत्साहन प्रदान करना।
    • उपभोक्ता सशक्तीकरण: उपभोक्ता व्यवहार को निर्देशित करने के लिये खाद्य विकल्पों के पर्यावरणीय, सामाजिक और स्वास्थ्य प्रभावों पर स्पष्ट एवं सुलभ जानकारी।
    • सामूहिक कार्रवाई का महत्त्व: प्रणालीगत परिवर्तन लाने के लिये  कृषि व्यवसायों, सरकारों, वित्तीय संस्थाओं, अंतर्राष्ट्रीय संगठनों और उपभोक्ताओं के बीच सहयोग का आह्वान।
    • सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने तथा खाद्य सुरक्षा, पोषण और सतत् विकास सुनिश्चित करने के लिये वैश्विक कृषि खाद्य प्रणालियों में परिवर्तन आवश्यक है।

कृषि खाद्य प्रणालियाँ

  • FAO कृषि-खाद्य प्रणालियों को इस रूप में परिभाषित करता है कि इसमें कृषि उत्पादन से लेकर प्रसंस्करण, वितरण और अपशिष्ट प्रबंधन सहित खाद्य उपभोग तक की सभी गतिविधियाँ शामिल हैं।
    • ये प्रणालियाँ आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय कारकों से प्रभावित होती हैं, जो खाद्य उत्पादन, वितरण एवं उपभोग को प्रभावित करती हैं।
  • तीव्र शहरीकरण और बदलती आहार संबंधी प्राथमिकताओं के कारण कृषि खाद्य प्रणालियाँ अब ऐसे दबावों का सामना कर रही हैं जो उनकी स्थिरता तथा पौष्टिक भोजन उपलब्ध कराने की क्षमता को चुनौती दे रहे हैं।

भारत SFS की दिशा में कैसे कार्य कर रहा है?

SFS में भारत की चुनौतियाँ क्या हैं?

  • जलवायु परिवर्तन: हाल के वर्षों में, भारत मौसम के बदलते पैटर्न, अनियमित वर्षा और चरम घटनाओं (अनावृष्‍टि, बाढ़ एवं हीट वेव) का सामना कर रहा है, जिससे फसल की पैदावार और खाद्य सुरक्षा प्रभावित हो रही है।
  • पर्यावरण क्षरण: रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से मृदा क्षरण, जल प्रदूषण तथा जैव विविधता को नुकसान हो सकता है।
    • प्राकृतिक संसाधनों से संबंधित प्रमुख चिंताओं में घटती पैदावार, मृदा उर्वरता, मृदा कार्बनिक कार्बन (SOC) का स्तर और जल की कमी शामिल हैं।
  • असंगत घटक सीमाएँ: प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों में शर्करा और नमक जैसे घटकों की सीमा में भारतीय मानकों तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा निर्धारित मानकों के बीच असंगतता है।
    • यह विसंगति प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों की पोषण गुणवत्ता को विनियमित करने और सुनिश्चित करने के प्रयासों को जटिल बनाती है तथा आहार-संबंधी बीमारियों को कम करने के उद्देश्य से किये गए सार्वजनिक स्वास्थ्य पहलों को संभावित रूप से कमज़ोर करती है।
  • स्वच्छता और पादप स्वच्छता मानक: भारत के कृषि-निर्यात को कभी-कभी गुणवत्ता संबंधी मुद्दों के कारण प्रमुख बाज़ारों में अस्वीकार कर दिया जाता है, जिससे मानकों में सुधार की आवश्यकता उजागर होती है।
  • कम उत्पादकता और आय: भारतीय किसानों का एक बड़ा हिस्सा छोटी जोत का मालिक है, जो उनकी उत्पादकता और आय को सीमित करता है।
    • कई किसान पुरानी पद्धतियों पर निर्भर रहते हैं, जिसके कारण उपज कम होती है और संसाधनों का अकुशल उपयोग होता है।
  • सीमित व्यापार सहयोग: भारत के व्यापार समझौतों में SFS पर पर्याप्त चर्चा का अभाव है, जिससे मानकों पर आपसी समझौतों के माध्यम से विकास के अवसर कम हो रहे हैं।
  • निर्यात रणनीति और डेटा का अभाव: SFS-संरेखित व्यापार योजना का समर्थन करने के लिये उत्पाद-विशिष्ट निर्यात रणनीतियों और व्यापक डेटा का अभाव है।

भारत में संधारणीय और समावेशी SFS के लिये क्या आवश्यक है?

  • संधारणीय प्रथाएँ: संधारणीय जल उपयोग, मृदा स्वास्थ्य बहाली और पर्यावरण के अनुकूल कृषि पद्धतियों को अपनाना।
  • छोटे किसानों के लिये सहायता: हाशिये पर पड़े किसानों के लिये वित्तीय सेवाओं, प्रौद्योगिकी और बाज़ारों तक पहुँच बढ़ाना।
  • फार्म-टू-फोर्क ट्रैसेबिलिटी को लागू करना: खाद्य आपूर्ति शृंखला में गुणवत्ता, सुरक्षा और स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये उत्पाद ट्रैसेबिलिटी महत्त्वपूर्ण है।
  • अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ सहयोग: FAO, अंतर्राष्ट्रीय कृषि विकास कोष, विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP) और भारत सरकार कृषि सुधारों को बढ़ावा देते हैं तथा शिक्षा, प्रौद्योगिकी एवं वित्तीय संसाधनों के माध्यम से छोटे किसानों को समर्थन देते हैं।
  • गुणवत्ता परीक्षण और प्रमाणन को बढ़ावा देना: परीक्षण और प्रमाणन प्रक्रियाओं के माध्यम से गुणवत्ता नियंत्रण को मज़बूत करने से भारतीय कृषि उत्पादों को अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा करने में सहायता मिलेगी। 
  • सामाजिक सुरक्षा जाल को मज़बूत करना: गैर-कृषि परिवारों का समर्थन करने के लिये, खाद्य वितरण प्रणालियों को वहनीयता और पहुँच सुनिश्चित करने के लिये कुशल होना चाहिये।

निष्कर्ष

भारत को अपनी कृषि खाद्य प्रणाली में अस्वास्थ्यकर आहार और पर्यावरण क्षरण के कारण महत्त्वपूर्ण प्रच्छन्न लागतों का सामना करना पड़ रहा है। हालाँकि प्रगति हुई है, लेकिन जलवायु परिवर्तन, निर्यात प्रतिबंध और कम उत्पादकता जैसी चुनौतियाँ प्रगति में बाधा डालती हैं। सतत् प्रथाओं, छोटे किसानों के लिये समर्थन और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर ध्यान केंद्रित करने वाला एक समग्र दृष्टिकोण वैश्विक स्थिरता लक्ष्यों के साथ संरेखित अनुकूलन तथा समावेशी कृषि खाद्य प्रणाली बनाने के लिये महत्त्वपूर्ण है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: भारत की कृषि खाद्य प्रणाली का मूल्यांकन कीजिये और प्रमुख प्रच्छन्न लागतों की पहचान कीजिये। भारत सतत् खाद्य प्रणाली प्राप्त करने के लिये इन चुनौतियों का समाधान कैसे कर सकता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. FAO, पारम्परिक कृषि प्रणालियों को 'सार्वभौम रूप से महत्त्वपूर्ण कृषि विरासत प्रणाली [Globally Important Agricultural Heritage System (GIAHS)]' की हैसियत प्रदान करता है। इस पहल का संपूर्ण लक्ष्य क्या है? (2016)

  1. अभिनिर्धारित GIAHS के स्थानीय समुदायों को आधुनिक प्रौद्योगिकी, आधुनिक कृषि प्रणाली का प्रशिक्षण एवं वित्तीय सहायता प्रदान करना जिससे उनकी कृषि उत्पादकता अत्यधिक बढ़ जाए
  2. पारितंत्र-अनुकूली परम्परागत कृषि पद्धतियाँ और उनसे संबंधित परिदृश्य (लैंडस्केप), कृषि जैव विविधता और स्थानीय समुदायों के ज्ञानतंत्र का अभिनिर्धारण एवं संरक्षण करना
  3. इस प्रकार अभिनिर्धारित GIAHS के सभी भिन्न-भिन्न कृषि उत्पादों को भौगोलिक सूचक (जिओग्राफिकल इंडिकेशन) की हैसियत प्रदान करना

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये।

(a) केवल 1 और 3
(b) केवल 2
(c) केवल 2 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (B)


मेन्स:

प्रश्न. एकीकृत कृषि प्रणाली (आइ० एफ० एस०) किस सीमा तक कृषि उत्पादन को संधारित करने में सहायक है? (2019)


कृषि

‘नैनो कोटेड’ उर्वरक

प्रिलिम्स के लिये:

नैनो-उर्वरक, पोषक तत्त्व उपयोग दक्षता, कार्बन नैनोट्यूब (CNT), फुलरीन, फुलरोल्स, परिशुद्ध कृषि, नाइट्रोजन उपापचय, प्रकाश संश्लेषण, बायोफोर्टिफिकेशन, मृदा संदूषण, नाइट्रोजन निर्धारण, राइज़ोबियम, एज़ोटोबैक्टर, इकोटॉक्सिसिटी, फॉस्फेट रॉक 

मेन्स के लिये:

कृषि में नैनो प्रौद्योगिकी का उपयोग, नैनो प्रौद्योगिकी से जुड़े लाभ और चुनौतियाँ। 

स्रोत: पी.आई.बी

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, भारतीय वैज्ञानिकों ने नैनो कोटेड म्यूरिएट ऑफ पोटाश (नैनो उर्वरक) विकसित किया है, जो उर्वरकों की पोषक तत्त्व उपयोग दक्षता (NUE) को बढ़ा सकता है।

  • नैनोक्ले-प्रबलित बाइनरी कार्बोहाइड्रेट से बनी कोटिंग अनुशंसित उर्वरक खुराक को कम कर सकती है और फसल उत्पादन को बढ़ा सकती है
  • यांत्रिक रूप से स्थिर, बायोडिग्रेडेबल, हाइड्रोफोबिक नैनोकोटिंग सामग्री रासायनिक उर्वरकों की पोषक तत्त्व उपयोग दक्षता को धीमी गति से उत्सर्जन के लिये तालमेल करके बढ़ा सकती है।
  • NUE बायोमास उत्पादन के लिये प्रयुक्त या स्थिर नाइट्रोजन का उपयोग करने में संयंत्र की दक्षता है।

नैनो-उर्वरकों के विषय में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • परिचय: नैनोमटेरियल (1-100 नैनोमीटर की नैनोस्केल रेंज में कण) के साथ कोटेड उर्वरकों को नैनो उर्वरक कहा जाता है।
    • ये नैनोमटेरियल मृदा में पोषक तत्त्वों के नियंत्रित उत्सर्जन को सक्षम बनाती हैं, जिससे पौधों को लंबी अवधि तक पोषक तत्त्वों की उपलब्धता अधिकतम हो जाती है।
  • नैनोमटेरियल घटक: 
    • अकार्बनिक सामग्री: नैनो-उर्वरकों के लिये उपयोग किये जाने वाले सामान्य अकार्बनिक नैनोमटेरियल में शामिल हैं:
      • धातु ऑक्साइड: जिंक ऑक्साइड (ZnO), टाइटेनियम डाइऑक्साइड (TiO2) , मैग्नीशियम ऑक्साइड (MgO), और सिल्वर ऑक्साइड (AgO)। 
      • सिलिका नैनोकण: ये उच्च सतह क्षेत्र, जैव-संगतता और गैर-विषाक्तता प्रदान करते हैं, जिससे फसल की गुणवत्ता बढ़ती है तथा विशेष रूप से लवणता जैसे तनाव के तहत संधारणीय कृषि को समर्थन मिलता है।
      • हाइड्रोक्सीएपेटाइट नैनोहाइब्रिड्स: वे पौधों तक कैल्शियम और फास्फोरस पहुँचाने में सहायता करते हैं।
    • कार्बनिक पदार्थ: नैनो-उर्वरकों के लिये प्रयुक्त सामान्य कार्बनिक नैनोपदार्थों में शामिल हैं:
      • चिटोसन: यह एक बायोडिग्रेडेबल प्राकृतिक पदार्थ है जो पोषक तत्त्वों को कुशलतापूर्वक वितरित करने में सहायता करता है।
      • कार्बन-आधारित नैनो सामग्री: कार्बन नैनोट्यूब (CNT), फुलरीन और फुलरोल जैसे कार्बनिक नैनो सामग्री अंकुरण की दर, क्लोरोफिल सामग्री तथा प्रोटीन सामग्री को बढ़ाते हैं।
  • नैनो-उर्वरकों के प्रकार: नैनो-उर्वरकों को तैयार करने की विधि के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है।
    • नैनोस्केल कोटिंग उर्वरक: इन उर्वरकों में धीमी गति और नियंत्रित उत्सर्जन के लिये पोषक तत्त्वों को नैनोकणों में कोटेड किया जाता है।
    • नैनोस्केल एडिटिव उर्वरक: पोषक तत्त्वों को नैनो आकार के अधिशोषकों में मिलाया जाता है जिससे वे स्थिर रहते हैं और अंततः पौधों के लिये उपलब्ध हो जाते हैं।
    • नैनोपोरस पदार्थ: नैनोपोरस पदार्थों में उर्वरक पोषक तत्त्वों का धीमी गति से उत्सर्जन करता हैं, जिससे पौधे उन्हें पूरी तरह अवशोषित कर लेते हैं।
  • कृषि में अनुप्रयोग: 
    • परिशुद्ध कृषि: परिशुद्ध कृषि में नैनो प्रौद्योगिकी का उपयोग जल एवं उर्वरकों के इष्टतम उपयोग के लिये किया जाता है, जिससे अपशिष्ट और ऊर्जा की खपत कम होती है।
      • परिशुद्ध कृषि में, पारंपरिक कृषि तकनीकों की तुलना में औसत उपज बढ़ाने के लिये इनपुट का सटीक मात्रा में उपयोग किया जाता है।
    • मृदा एवं पौध स्वास्थ्य: नैनोउर्वरक बीज अंकुरण, नाइट्रोजन उपापचय, प्रकाश संश्लेषण, प्रोटीन एवं कार्बोहाइड्रेट उत्पादन तथा तनाव सहनशीलता को बढ़ाते हैं, जिससे फसलें अधिक स्वस्थ होती हैं।
    • दीर्घकालिक मृदा उर्वरता: नैनोउर्वरक धीमी गति से उत्सर्जित होते हैं, जिससे संधारणीय फसल उत्पादन के लिये मृदा उर्वरता को बनाए रखने या सुधारने में सहायता मिलती है।

नैनो-उर्वरकों के क्या लाभ हैं?

  • पोषक तत्त्वों की बेहतर दक्षता: नैनो-उर्वरक द्वारा लीचिंग (निक्षालन) और रनऑफ (अपवाह) के कारण पोषक तत्त्वों की हानि तथा उनके तीव्र क्षरण और अस्थिरता को कम किया जा सकता है। इससे मिट्टी की उर्वरता में सुधार होता है और यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि पौधों को पोषक तत्व अधिक कुशलता से प्राप्त हों।
  • बेहतर फसल उत्पादकता: पोषक तत्त्वों की धीमी और नियंत्रित उत्सर्जन से समय के साथ फसल की उपज में वृद्धि हो सकती है, क्योंकि पौधे आवश्यकता पड़ने पर पोषक तत्त्वों को प्राप्त कर सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप बेहतर वृद्धि एवं विकास होता है।
  • उच्च पृष्ठीय क्षेत्रफल और प्रवेश क्षमता: नैनो-उर्वरकों का उच्च पृष्ठीय क्षेत्रफल-आयतन अनुपात ( Surface Area-to-Volume Ratio) होता है, जिससे पौधों की जड़ों द्वारा पोषक तत्त्वों को बेहतर तरीके से ग्रहण किया जा सकता है। यह गुण मिट्टी में पोषक तत्त्वों के गहरे प्रवेश को भी सुगम बनाता है ।
  • बायोफोर्टिफिकेशन: नैनो-आधारित बायोफोर्टिफिकेशन (जैव-प्रबलीकरण) के माध्यम से आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्त्वों, जैसे लोहा, जस्ता और आयोडीन की आपूर्ति करके नैनो-उर्वरकों का उपयोग फसलों की पोषण सामग्री को बढ़ाने के लिये किया जा सकता है । 
  • पर्यावरणीय लाभ: नैनो-उर्वरक पारंपरिक उर्वरकों के कारण होने वाले पर्यावरणीय खतरों, जैसे रनऑफ/अपवाह एवं मृदा प्रदूषण को कम तथा पर्यावरण अनुकूल कृषि पद्धतियों को बढ़ावा दे सकते हैं।
  • लागत दक्षता: नैनो उर्वरकों के लगातार उपयोग की आवश्यकता को कम करके दीर्घावधि में लागत को न्यूनतम किया जा सकता है। उदाहरण के लिये पारंपरिक यूरिया की दक्षता लगभग 25% है, जबकि तरल नैनो यूरिया की दक्षता 85-90% तक हो सकती है।
    • विनिर्माण तकनीक में हाल ही में हुए सुधारों के कारण अब छोटे किसान और पौध प्रजनक इन्हें आसानी से खरीद सकते हैं।
  • जैविक उर्वरकों के साथ अनुकूलता: नैनो-उर्वरक मिट्टी में लाभकारी सूक्ष्मजीवों की गतिविधियों का समर्थन करके जैविक उर्वरकों के पूरक हो सकते हैं। उदाहरण के लिये राइज़ोबियम और एज़ोटोबैक्टर द्वारा बढ़ाया गया नाइट्रोजन फिक्सेशन
    • नैनो-कम्पोज़िट उर्वरक राइज़ोस्फीयर बैक्टीरिया को बढ़ावा देते हैं, सेकेंडरी मेटाबोलाइट्स को प्रोत्साहित कर जड़ की सतह पर पहुँच कर पौधों की वृद्धि में योगदान देते हैं।

नैनो-उर्वरकों के उपयोग के समक्ष चुनौतियाँ क्या हैं?

  • पर्यावरण पर प्रभाव: नैनो-उर्वरकों से मिट्टी, पानी और गैर-लक्ष्यित जीवों के लिये संभावित पारिस्थितिक विषाक्तता का खतरा उत्पन्न हो सकता है।
    • पारिस्थितिक विषाक्तता यह सुनिश्चित करती है कि किस प्रकार रसायन, भौतिक कारक जीवों और पर्यावरण को नुकसान पहुँचाते हैं।
  • मनुष्यों के लिये विषाक्तता: नैनो कण बड़े कणों की तुलना में जैविक प्रणालियों में आसानी से प्रवेश कर सकते हैं, जिससे मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों के लिये संभावित खतरा उत्पन्न हो सकता है।
  • मृदा सूक्ष्मजीवों पर प्रभाव: धातु या धातु ऑक्साइड नैनोकण मृदा पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित कर सकते हैं, तथा पोषक चक्रण एवं मृदा उर्वरता के लिये आवश्यक लाभदायक सूक्ष्मजीवों को नुकसान पहुँचा सकते हैं।
  • कानून और विनियमन का अभाव: वर्तमान में, नैनो-उर्वरकों के उपयोग को विनियमित करने के लिये कोई पर्याप्त कानून या जोखिम प्रबंधन प्रणाली मौजूद नहीं है, जिससे नैनो-उर्वरकों की सुरक्षा एवं प्रभावशीलता के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
    • कृषि में नैनो सामग्रियों के उपयोग से मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण संरक्षण दोनों के लिये विनियमन एवं सुरक्षा मानकों के संबंध में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
  • जैव-संचय: पादप प्रणालियों में नैनो-उर्वरकों के दीर्घकालिक बने रहने से खाद्य शृंखला में नैनोकणों का निर्माण हो सकता है।
  • उपज में गिरावट: एक अध्ययन में पाया गया है कि भारत में नैनो यूरिया के उपयोग से गेहूँ की उपज में 21.6% और चावल की उपज में 13% की कमी आई है।

आगे की राह:

  • छोटे किसानों को सहायता प्रदान करना: प्रचुर मात्रा में उपलब्ध फॉस्फेट रॉक संसाधनों के प्रसंस्करण से फॉस्फेट नैनोउर्वरक छोटे पैमाने के किसानों के लिये अधिक किफायती और प्रभावी बन सकते हैं।
  • किसानों की पहुँच बढ़ाना: कृषि विज्ञान केंद्रों (Krishi Vigyan Kendras- KVK), किसान शिक्षा अभियान आदि के माध्यम से सूक्ष्म और स्थूल पोषक तत्त्वों में नैनो उर्वरक की पहुँच बढ़ाना।
  • मानकीकरण और विनियमन: नैनो-उर्वरकों को व्यापक रूप से अपनाने के लिये उनके उत्पादन, अनुप्रयोग तथा सुरक्षा को नियंत्रित करने वाले स्पष्ट विनियमन एवं मानक होने चाहिये।
  • मौलिक अनुसंधान में निवेश करना: यह समझने के लिये निरंतर अनुसंधान की आवश्यकता है कि नैनो कण पौधों के साथ किस प्रकार अंतःक्रिया करते हैं, तथा नैनो विषाक्तता और सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये।
  • नैनो सामग्रियों का अनुकूलन: जैवनिम्नीकरणीय नैनो सामग्रियाँ, जैसे कि पादप-आधारित स्रोतों या सूक्ष्मजीवों से प्राप्त, संभावित विषाक्तता और पर्यावरणीय खतरों को कम कर सकती हैं।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: नैनो प्रौद्योगिकी में कृषि उत्पादकता बढ़ाने की अपार संभावनाएँ हैं, लेकिन इसके अपनाने से सुरक्षा और पर्यावरणीय स्थिरता के संबंध में कई चिंताएँ उत्पन्न होती हैं। आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स

प्रश्न. भारत में रासायनिक उर्वरकों के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)

  1. वर्तमान में रासायनिक उर्वरकों का खुदरा मूल्य बाज़ार-संचालित है और यह सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं है।
  2. अमोनिया जो यूरिया बनाने में काम आता है, वह प्राकृतिक गैस से उत्पन्न होता है।
  3. सल्फर, जो फॉस्फोरिक अम्ल उर्वरक के लिये कच्चा माल है, वह तेल शोधन कारखानों का उपोत्पाद है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 2
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)


प्रश्न: विभिन्न उत्पादों के विनिर्माण में उद्योग द्वारा प्रयुक्त होने वाले कुछ रासायनिक तत्त्वों के नैनो-कणों के बारे में कुछ चिंता है। क्यों? (2014)

  1. वे पर्यावरण में संचित हो सकते हैं तथा जल और मृदा को संदूषित कर सकते हैं।
  2. वे खाद्य शृंखलाओं में प्रविष्ट हो सकते हैं।
  3. वे मुक्त मूलकों के उत्पादन को विमोचित कर सकते हैं।

नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये:

(a) केवल 1 और 2
(b) केवल 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (d)


मेन्स:

प्रश्न: नैनोटेक्नोलॉजी से आप क्या समझते हैं और यह स्वास्थ्य क्षेत्र में कैसे मदद कर रही है? (2020) 

प्रश्न: किसानों के जीवन मानको को उन्नत करने के लिये जैव प्रौद्योगिकी किस प्रकार सहायता कर सकती है? (2019)

प्रश्न: क्या कारण है कि हमारे देश में जैब प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अत्यधिक सक्रियता है? इस सक्रियता ने बायोफार्मा के क्षेत्र को कैसे लाभ पहुँचाया है? (2018)


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

तीसरा भारतीय अंतरिक्ष सम्मेलन और भारत का पहला एनालॉग मिशन

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन, चंद्रयान-3, गगनयान, यूरोपीय संघ, न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड, राष्ट्रीय वैमानिकी एवं अंतरिक्ष प्रशासन, एनालॉग मिशन

मेन्स के लिये:

उपग्रह संचार, अंतरिक्ष अन्वेषण और भारतीय महत्वाकांक्षाएँ, एनालॉग मिशन और अंतरिक्ष अनुसंधान

स्रोत: पी.आई.बी

चर्चा में क्यों? 

नई दिल्ली में आयोजित तीसरे भारतीय अंतरिक्ष सम्मेलन में भारत की बढ़ती अंतरिक्ष क्षमताओं पर प्रकाश डाला गया, जिसमें उपग्रह संचार (Satellite Communication- Satcom) और भारत-यूरोपीय संघ अंतरिक्ष साझेदारी पर ध्यान केंद्रित किया गया। डिजिटल इंडिया और भारत के महत्त्वाकांक्षी अंतरिक्ष लक्ष्यों को आगे बढ़ाने में सैटकॉम की भूमिका पर मुख्य चर्चा की गई।

  • एक अन्य घटनाक्रम में, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के नेतृत्व में लेह, लद्दाख में भारत के पहले मंगल और चंद्रमा एनालॉग मिशन का उद्घाटन किया गया; यह मिशन अंतरिक्ष आवास परीक्षण के लिये अलौकिक स्थितियों का अनुकरण करता है।

तीसरे भारतीय अंतरिक्ष सम्मेलन की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ?

  • उपग्रह संचार (सैटकॉम): संचार एवं ग्रामीण विकास राज्य मंत्री ने डिजिटल इंडिया में सैटकॉम की परिवर्तनकारी भूमिका पर प्रकाश डाला।
    • सैटकॉम अनुप्रयोग विभिन्न क्षेत्रों जैसे दूरसंचार, आपदा प्रबंधन, कृषि, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा को सहायता तथा वंचित क्षेत्रों तक पहुँच प्रदान करते हैं।
    • सैटकॉम सुधार 2022 नीति अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी में नवाचार एवं सार्वजनिक-निजी भागीदारी को बढ़ावा देती है।
  • वैश्विक अंतरिक्ष नेता के रूप में भारत का उदय: चंद्रयान-3 और आगामी गगनयान मिशन सहित भारत की उपलब्धियाँ अंतरिक्ष अन्वेषण में इसकी अग्रणी भूमिका को दर्शाती हैं।
    • भारत अब अंतरिक्ष में एक वैश्विक साझेदार के रूप में कार्य कर रहा है, जिसका लक्ष्य एक मज़बूत नेटवर्क विकसित करना है जो स्थलीय बुनियादी ढाँचे का पूरक हो।
  • भारत-यूरोपीय संघ अंतरिक्ष सहयोग: यूरोपीय संघ के राजदूत ने अंतरिक्ष अन्वेषण में साझा लक्ष्यों पर प्रकाश डालते हुए भारत की गतिशील अंतरिक्ष शक्ति के रूप में सराहना की।
    • प्रस्तावित संयुक्त पहलों में पृथ्वी अवलोकन, प्रशिक्षण और अंतरिक्ष सुरक्षा शामिल हैं।
    • वर्ष 2025 यूरोपीय संघ-भारत शिखर सम्मेलन से अंतरिक्ष प्रशासन और अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग में सहयोग को और मज़बूत करने की उम्मीद है।
    • भारत यूरोपीय संघ के प्रोबा-3 उपग्रह को प्रक्षेपित करने के लिये तैयार है, जो सूर्य के अवलोकन पर केंद्रित है, यह भारत-यूरोपीय संघ सहयोग में एक मील का पत्थर साबित होगा।
  • प्रोबा-1 और प्रोबा-2 मिशनों की सफलता के बाद, यह यूरोपीय संघ के लिये भारत का तीसरा प्रक्षेपण है, जिससे इसरो की एक विश्वसनीय वैश्विक साझेदार के रूप में स्थिति मज़बूत हुई है।
  • अंतरिक्ष स्टार्टअप: वर्ष 2020 के अंतरिक्ष सुधारों के बाद अंतरिक्ष-केंद्रित स्टार्टअप के को स्वीकार किया गया, भारत में अब 300 से अधिक अंतरिक्ष-केंद्रित स्टार्टअप हैं जो आर्थिक विकास एवं नवाचार में योगदान दे रहे हैं।
    • स्टार्टअप्स में वृद्धि के कारण प्रतिभा पलायन में कमी आई है तथा नासा जैसी वैश्विक एजेंसियों से भारतीय प्रतिभाओं को आकर्षित किया गया है।
  • भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की महत्वाकांक्षाएँ:  भारत के दीर्घकालिक उद्देश्यों में गगनयान मानव अंतरिक्ष उड़ान मिशन, वर्ष 2040 तक मानवयुक्त चंद्र लैंडिंग और वर्ष 2035 तक एक भारतीय अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करना शामिल हैं। वर्ष 2040 तक अंतरिक्ष पर्यटन की योजनाएँ, अभिनव और समावेशी अंतरिक्ष अन्वेषण के प्रति भारत के समर्पण को उज़ागर करती हैं।

अंतरिक्ष क्षेत्र सुधार 2020

  • वर्ष 2020 में भारत ने अंतरिक्ष क्षेत्र सुधारों की घोषणा की, जो भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम में निजी अभिकर्त्ताओं की बढ़ी हुई भागीदारी और वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था में भारत की बाज़ार हिस्सेदारी को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ भारतीय अंतरिक्ष क्षेत्र में एक बड़ा परिवर्तन है।
    • भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष संवर्धन एवं प्राधिकरण केंद्र (Indian National Space Promotion and Authorisation Centre- IN-SPAC) की स्थापना तथा न्यू स्पेस इंडिया लिमिटेड (New Space India Limited- NSIL) की भूमिका को बढ़ाना सुधार के दो प्रमुख क्षेत्र हैं।
      • अंतरिक्ष विभाग के तहत एक स्वायत्त एजेंसी IN-SPACe का उद्देश्य उद्योग, शिक्षा और स्टार्टअप को बढ़ावा देना, गैर-सरकारी अंतरिक्ष गतिविधियों को विनियमित करना तथा वैश्विक अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा हासिल करना है। इसका मुख्यालय अहमदाबाद में है।
      • NSIL, जिसका मुख्यालय बंगलुरु में है, अंतरिक्ष विभाग Department of Space- DOS), के तहत भारत सरकार की पूर्ण स्वामित्व वाली कंपनी है यह इसरो की वाणिज्यिक शाखा है जो भारतीय उद्योगों को उच्च प्रौद्योगिकी अंतरिक्ष संबंधी गतिविधियों को करने में सक्षम बनाने और भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम के वाणिज्यिक उपयोग को बढ़ावा देने के लिये ज़िम्मेदार है।

सैटकॉम सुधार 2022

  • इसे दूरसंचार विभाग (Department of Telecommunications- DoT) द्वारा प्रस्तुत किया गया था, जिसका उद्देश्य उपग्रह-आधारित संचार नेटवर्क अनुप्रयोग प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना और निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित करना था। 
    • प्रसंस्करण समय को 6-8 महीने से घटाकर 6 सप्ताह करने से, सुधार सेवा प्रदाताओं के लिये उपग्रह संचार प्रणाली स्थापित करना आसान बना देंगे। 
  • सुधारों का उद्देश्य विभिन्न चरणों में शुल्क कम करके व्यापार सुगमता को बढ़ाना और अंतरिक्ष क्षेत्र में नवाचार को बढ़ावा देना है।

भारत का पहला मंगल और चंद्रमा एनालॉग मिशन क्या है?

  • एनालॉग मिशन: एनालॉग मिशन ऐसे स्थानों पर किये जाने वाले फील्ड परीक्षण हैं जो अंतरिक्ष के कठोर वातावरण से मिलते-जुलते होते हैं। ये मिशन अंतरिक्ष उड़ान से संबंधित विभिन्न समस्याओं का समाधान खोजने के लिये महत्त्वपूर्ण होते हैं, जैसे- जीवन समर्थन प्रणालियों की कार्यप्रणाली, मनोवैज्ञानिक चुनौतियाँ और लंबी अवधि के मिशनों में मानव स्वास्थ्य को बनाए रखना।
  • भारत का पहला मंगल और चंद्रमा एनालॉग मिशन, इसरो के नेतृत्व में AAKA स्पेस स्टूडियो, लद्दाख विश्वविद्यालय के सहयोग से तथा लद्दाख स्वायत्त पर्वतीय विकास परिषद के सहयोग से किया जा रहा है।
  • उद्देश्य: यह मिशन पृथ्वी से परे एक स्थायी आधार स्थापित करने की चुनौतियों से निपटने हेतु एक अंतर-ग्रहीय आवास में जीवन का अनुकरण करता है तथा भारत की अंतरिक्ष महत्त्वाकांक्षाओं का समर्थन करता है। 
  • यह मंगल और चंद्रमा के आवास की स्थितियों पर ध्यान केंद्रित करता है तथा कठोर वातावरण के प्रति मानव अनुकूलन को समझने के लिये एकांत में स्थिरता, जीवन समर्थन प्रणालियों और मनोवैज्ञानिक कल्याण का अध्ययन करता है।
  • लद्दाख, अंतरिक्ष परीक्षण के लिये आदर्श: लद्दाख को इसकी अनूठी पर्यावरणीय विशेषताओं के लिये चुना गया था जो मंगल और चंद्रमा के समान ही हैं। इस क्षेत्र की ऊँचाई, शुष्क जलवायु और अत्यधिक तापमान में उतार-चढ़ाव इसे अंतरिक्ष आवास प्रौद्योगिकियों के परीक्षण के लिये एक आदर्श स्थान बनाते हैं। 
    • 15°C से -10°C तक के तापमान के साथ, यह मिशन बाह्य अंतरिक्ष वातावरण की तापीय चुनौतियों का अनुकरण करता है। 
    • लद्दाख में समुद्र तल की तुलना में ऑक्सीज़न का स्तर केवल 40% होने के कारण, यह मंगल ग्रह जैसी कम दबाव की स्थितियों के लिये जीवन रक्षक प्रणालियों का परीक्षण करने का आदर्श स्थान बन जाता है। यहाँ की विशेष भौतिक परिस्थितियाँ मंगल और चंद्रमा के वातावरण से मिलती हैं, जिससे अंतरिक्ष अन्वेषण के लिये आवश्यक तकनीकों की जाँच करना संभव होता है।
    • इस क्षेत्र की चट्टानी, रेतीली मिट्टी भी मंगल ग्रह और चंद्रमा की रेगोलिथ जैसी है, जो इसे रोवर गतिशीलता और इन-सीटू संसाधन उपयोग पर अनुसंधान के लिये योग्य बनाती है।
  • तकनीकी परीक्षण: शोधकर्त्ता अंतरिक्ष आवासों को समर्थन देने के लिये उन्नत प्रौद्योगिकियों का परीक्षण करेंगे, जिनमें शामिल हैं:
    • सर्केडियन प्रकाश व्यवस्था: नींद के पैटर्न और स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिये दिन के प्रकाश चक्रों का अनुकरण करती है।
    • हाइड्रोपोनिक्स: अंतरिक्ष में सतत् खाद्य विकास के लिये एक प्रणाली है, जो अंतरिक्ष यात्री पोषण सुनिश्चित करती है।
    • स्टैंडअलोन सौर ऊर्जा प्रणाली: आवास स्वतंत्रता के लिये नवीकरणीय ऊर्जा प्रदान करती है।
  • एनालॉग मिशन का महत्त्व: यह वैज्ञानिकों को पृथ्वी पर रहते हुए अंतरिक्ष अभियानों में उत्पन्न होने वाली शारीरिक, मानसिक और परिचालन चुनौतियों का अध्ययन करने को सक्षम बनाता है।
    • एनालॉग मिशन अंतरिक्ष यात्रियों को क्षुद्रग्रहों, मंगल और चंद्रमा के निकट-अवधि तथा भविष्य के अन्वेषण के लिये तैयार करते हैं।

विश्व में एनालॉग मिशन 

  • मरुस्थल अनुसंधान एवं प्रौद्योगिकी अध्ययन (डेज़र्ट RATS): राष्ट्रीय वैमानिकी एवं अंतरिक्ष प्रशासन (नासा) के नेतृत्व में यह कार्यक्रम मुख्य रूप से अमेरिका के एरिज़ोना के रेगिस्तान में आयोजित किया जाता है।
    • डेज़र्ट रैट्स एक क्षेत्रीय अभियान है, जो चंद्रमा और मंगल ग्रह पर स्थितियों का अनुकरण करने के लिये चुनौतीपूर्ण वातावरण में मिशन रोवर तथा अतिरिक्त वाहन गतिविधि का परीक्षण करता है।
  • नासा एक्सट्रीम एनवायरनमेंट मिशन ऑपरेशन्स (नीमो): अंतरिक्ष यात्री एक्वेरियस में रहते हैं, जो विश्व का एकमात्र अनुसंधान केंद्र है जोकि समुद्र के नीचे है। 
  • हवाई अंतरिक्ष अन्वेषण एनालॉग और सिमुलेशन (HI-SEAS):  यह एक मंगल और चंद्रमा अन्वेषण एनालॉग अनुसंधान स्टेशन है, जो वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय मूनबेस एलायंस (IMA) द्वारा संचालित है।
    • IMA एक गैर-लाभकारी संगठन है जो चंद्र अन्वेषण को बढ़ावा देने हेतु अग्रणी वैज्ञानिकों, शिक्षकों और उद्यमियों को एकत्रित करता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: भारत का मंगल और चंद्रमा एनालॉग मिशन देश के अंतरिक्ष अन्वेषण लक्ष्यों में किस प्रकार योगदान देता है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016)

इसरो द्वारा प्रक्षेपित मंगलयान

  1. को मंगल ऑर्बिटर मिशन भी कहा जाता है। 
  2. के कारण अमेरिका के बाद मंगल ग्रह की परिक्रमा करने वाला भारत दूसरा देश बना। 
  3. ने भारत को अपने अंतरिक्ष यान को अपने पहले ही प्रयास में मंगल ग्रह की परिक्रमा करने में सफल होने वाला एकमात्र देश बना दिया।

उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं?

(a) केवल
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 1 और 3
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (c)


मेन्स:

प्रश्न 1.  अंतरिक्ष स्टेशन से आप क्या समझते हैं? भारत के संदर्भ इसकी उपयोगिता स्पष्ट कीजिये। (2019)

प्रश्न 2. भारत के तीसरे चंद्रमा मिशन का मुख्य कार्य क्या है जिसे इसके पहले के मिशन में हासिल नहीं किया जा सका? जिन देशों ने इस कार्य को हासिल कर लिया है उनकी सूची दीजिये। प्रक्षेपित अंतरिक्ष यान की उपप्रणालियों को प्रस्तुत कीजिये और विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र के ‘आभासी प्रक्षेपण नियंत्रण केंद्र’ की उस भूमिका का वर्णन कीजिये जिसने श्रीहरिकोटा से सफल प्रक्षेपण में योगदान दिया है। (2023)


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