डेली न्यूज़ (05 Nov, 2021)



16वाँ पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन

प्रिलिम्स के लिये:

पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन, इंडो-पैसिफिक, आसियान, क्वाड, बहुपक्षवाद, साइबर सुरक्षा

मेन्स के लिये:

16वाँ पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन की प्रमुख विशेषताएँ एवं इंडो-पैसिफिक क्षेत्र का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में प्रधानमंत्री ने 16वें पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन (EAS) में भाग लिया।

16वें EAS में इंडो-पैसिफिक, दक्षिण चीन सागर, संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून संधि (UNCLOS), आतंकवाद और कोरियाई प्रायद्वीप तथा म्याँमार की स्थिति सहित महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर भी चर्चा की गई।

प्रमुख बिंदु

  • इंडो-पैसिफिक:
    • भारत के एक स्वतंत्र, खुले और समावेशी इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में आसियान केंद्रीयता के सिद्धांत पर फिर से ध्यान केंद्रित करने की पुष्टि की गई।
    • इसमें इंडो-पैसिफिक (AOIP) और भारत के इंडो-पैसिफिक ओशन इनिशिएटिव (IPOI) पर आसियान आउटलुक के बीच मौजूदा तालमेल की स्थिति पर प्रकाश डाला गया।
  • लचीली वैश्विक मूल्य शृंखला:
  • बहुपक्षवाद:
    • भारत बहुपक्षवाद, नियम-आधारित अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था, अंतर्राष्ट्रीय कानून और सभी देशों की संप्रभुता एवं क्षेत्रीय अखंडता के साझा मूल्यों के प्रति सम्मान को मज़बूत करने के लिये प्रतिबद्ध है।
  • साइबर सुरक्षा:
    • साइबर सुरक्षा पर वैश्विक मानकों को विकसित करने के लिये विचार-विमर्श भी किया गया।
  • अन्य:
    • EAS राजनेताओं ने मानसिक स्वास्थ्य, पर्यटन के माध्यम से आर्थिक सुधार और स्थायी सुधार पर तीन वक्तव्यों को अपनाया, जिन्हें भारत द्वारा सह-प्रायोजित किया गया है।

पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन

  • परिचय:
    • वर्ष 2005 में स्थापित यह इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के समक्ष उत्पन्न होने वाली प्रमुख राजनीतिक, सुरक्षा और आर्थिक चुनौतियों पर रणनीतिक बातचीत एवं सहयोग हेतु 18 क्षेत्रीय नेताओं (देशों) का एक मंच है।
    • वर्ष 1991 में पहली बार पूर्वी एशिया समूह की अवधारणा को तत्कालीन मलेशियाई प्रधानमंत्री, महाथिर बिन मोहम्मद (Mahathir bin Mohamad) द्वारा प्रस्तुत किया गया था।
    • EAS के ढांँचे में क्षेत्रीय सहयोग के छह प्राथमिकता वाले क्षेत्र शामिल हैं। जो इस प्रकार हैं- पर्यावरण और ऊर्जा, शिक्षा, वित्त, वैश्विक स्वास्थ्य मुद्दे और महामारी रोग, प्राकृतिक आपदा प्रबंधन तथा आसियान कनेक्टिविटी।
  • सदस्यता:
    • इसमें आसियान (दक्षिण-पूर्व एशियाई राष्ट्र संघ) के दस सदस्य देशों- ब्रुनेई, कंबोडिया, इंडोनेशिया, लाओस, मलेशिया, म्याँमार, फिलीपींस, सिंगापुर, थाईलैंड और वियतनाम के साथ 8 अन्य देश- ऑस्ट्रेलिया, चीन, जापान, भारत, न्यूज़ीलैंड, कोरिया गणराज्य, रूस एवं संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैं।
    • यह आसियान देशों पर केंद्रित एक मंच है, इसलिये इसकी अध्यक्षता केवल आसियान सदस्य ही कर सकता है।
      • वर्ष 2021 के लिये इसकी अध्यक्षता ब्रुनेई दारुस्सलाम (Brunei Darussalam) के पास है।
  • पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन और प्रक्रियाएँ:
    • पूर्वी एशिया शिखर (EAS) सम्मेलन की वार्षिक सूची नेताओं के शिखर सम्मेलन के साथ समाप्त होती है, जिसका आयोजन आमतौर पर प्रत्येक वर्ष की चौथी तिमाही में आसियान नेताओं की बैठकों के साथ किया जाता है।
    • EAS विदेश मंत्रियों और आर्थिक मंत्रियों (Economic Ministers) की बैठकें भी प्रतिवर्ष आयोजित की जाती हैं।
  • भारत और पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन:
    • भारत पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन के संस्थापक सदस्यों में से एक है।
    • भारत ने नवंबर 2019 में बैंकॉक में आयोजित पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन में भारत की इंडो-पैसिफिक ओशन इनिशिएटिव (IPOI) का अनावरण किया था, जिसका उद्देश्य एक सुरक्षित और स्थिर समुद्री डोमेन या अधिकार क्षेत्र के निर्माण के लिये भागीदार बनाना है।

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स


CoP26 शिखर सम्मेलन में नया संकल्प

प्रिलिम्स के लिये:

CoP26, मीथेन, जलवायु वित्त, वन सन, वन वर्ल्ड, वन ग्रिड

मेन्स के लिये:

जलवायु परिवर्तन और सम्बंधित मुद्दे

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ग्लासगो में CoP26 वैश्विक जलवायु सम्मेलन में नेताओं ने दशक के अंत तक वनों की कटाई को रोकने और धीमी जलवायु परिवर्तन में मदद करने के लिये मीथेन के उत्सर्जन को कम करने का संकल्प लिया है।

प्रमुख बिंदु

  • मीथेन प्लेज:
    • यूरोपीय संघ (ईयू) और अमेरिका ने शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस मीथेन के उत्सर्जन को कम करने के लिये एक ऐतिहासिक संकल्प लिया है जिसके माध्यम से ग्लोबल वार्मिंग को 0.2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित किया जा सकता है।
    • कार्बन डाइऑक्साइड के बाद जलवायु परिवर्तन में दूसरा सबसे बड़ा योगदानकर्ता मीथेन के वैश्विक उत्सर्जन को 2030 तक 2020 के स्तर से 30% तक कम करने के लिये गठबंधन के सदस्य प्रयास करेंगे।
    • यूरोपीय संघ और अमेरिका के अलावा 103 से अधिक देशों ने इस पर हस्ताक्षर किये हैं, जिनमें नाइजीरिया और पाकिस्तान जैसे प्रमुख मीथेन उत्सर्जक शामिल हैं।
      • ग्लोबल मीथेन प्लेज (यूएस), जिसे पहली बार सितंबर 2021 में घोषित किया गया था, अब वैश्विक अर्थव्यवस्था के दो-तिहाई उत्सर्जन करने वाले देशों को कवर करता है।
      • चीन, रूस और भारत ने साइन अप नहीं किया है, जबकि ऑस्ट्रेलिया ने कहा है कि वह इसका समर्थन नहीं करेगा।

मीथेन

  • मीथेन कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में वातावरण में अधिक अल्पकालिक है लेकिन पृथ्वी को गर्म करने में 80 गुना अधिक शक्तिशाली है।
  • गैर-लाभकारी विश्व संसाधन संस्थान के अनुसार, मानव जाति ने वनों को नुकसान पहुँचाकर वातावरण में ग्रीनहाउस गैसों को भी बढ़ावा दिया है जो लगभग 30% कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को अवशोषित करते हैं।
  • मीथेन के मानव स्रोतों में लैंडफिल, तेल और प्राकृतिक गैस प्रणाली, कृषि गतिविधियाँ, कोयला खनन, अपशिष्ट जल उपचार और कुछ औद्योगिक प्रक्रियाएँ शामिल हैं।
  • निर्वनीकरण संकल्प:
    • 100 से अधिक देशों ने दशक के अंत तक वनों की कटाई और भूमि क्षरण को रोकने का संकल्प लिया, जो कि वनों की रक्षा एवं पुनर्स्थापना में निवेश करने के लिये सार्वजनिक और निजी फंड में 19 बिलियन अमेरिकी डाॅलर का योगदान करता है।
    • WRI की ग्लोबल फॉरेस्ट वॉच के अनुसार, वर्ष 2020 में दुनिया में यूनाइटेड किंगडम से अधिक क्षेत्र वाले 258,000 वर्ग किमी. वनों का नुकसान हुआ है।
    • यह समझौता 2014 के न्यूयॉर्क वन घोषणापत्र के हिस्से के रूप में 40 देशों द्वारा की गई प्रतिबद्धता का विस्तार करता है और अधिक संसाधनों के निवेश का वादा करता है।
  • कॉल फॉर क्लाइमेट फाइनेंस:
    • भारत के अनुसार, वर्ष 2009 में निर्धारित 100 बिलियन अमेरिकी डालर के जलवायु वित्त स्तर को प्राप्त नहीं किया जा सकता और भारत द्वारा इस बात पर ज़ोर दिया जा रहा है कि जलवायु परिवर्तन को संबोधित कर लक्ष्यों को पूरा करने के लिये कम-से-कम 1 ट्रिलियन अमेरिकी डाॅलर का जलवायु वित्त होना चाहिये।
    • भारत ने UNFCCC (जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन) वार्ता में समान विचारधारा वाले विकासशील देशों (LMDC) की एकता और ताकत को मौलिक रूप से रेखांकित किया।
      • जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में ग्लोबल साउथ के हित को संरक्षित करने के लिये भारत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि विकासशील देशों के सामने मौजूदा चुनौतियों की पहचान करने के लिये तीव्र वैश्विक आर्थिक और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा व व्यापार युद्ध के बजाय गहन बहुपक्षीय सहयोग की आवश्यकता है।
    • भारत ने LMDC के सदस्यों से अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन (ISA), आपदा प्रतिरोधी बुनियादी ढाँचे के लिये गठबंधन (CDRI) और उद्योग संक्रमण के लिये नेतृत्व समूह (LeadIT) सहित वैश्विक पहल का समर्थन करने के लिये भारत के साथ सहयोग का अनुरोध किया।
  • इन्फ्रास्ट्रक्चर फॉर रेजिलिएंट आइलैंड स्टेट्स:
    • भारत ने CDRI के एक हिस्से के रूप में इस पहल की शुरुआत की, जो विशेष रूप से छोटे द्वीपीय विकासशील राज्यों में पायलट परियोजनाओं के क्षमता निर्माण पर ध्यान केंद्रित करेगा।
    • छोटे द्वीपीय विकासशील राज्यों या SIDS को जलवायु परिवर्तन से सबसे बड़े खतरे का सामना करना पड़ता है, भारत की अंतरिक्ष एजेंसी ISRO उपग्रह के माध्यम से चक्रवात, प्रवाल-भित्ति निगरानी, ​​तट-रेखा निगरानी आदि के बारे में समय पर जानकारी प्रदान करने हेतु उनके लिये एक विशेष डेटा विंडो का निर्माण करेगी।
  • वन सन, वन वर्ल्ड, वन ग्रिड ग्रुप (OSOWOG) का शुभारंभ:
    • यह भारत और यूनाइटेड किंगडम द्वारा सौर ऊर्जा का उपयोग करने और सीमाओं के पार निर्बाध रूप से संचरण की एक पहल है।
    • इसमें सरकारों का एक समूह शामिल है जिसे ग्रीन ग्रिड इनिशिएटिव (GGI) - वन सन, वन वर्ल्ड, वन ग्रिड ग्रुप कहा जाता है।
      • GGI का उद्देश्य वैश्विक ऊर्जा संक्रमण को कम करने के लिये आवश्यक बुनियादी ढाँचे और बाज़ार संरचनाओं में सुधारों को गति प्रदान कर मानकों को प्राप्त करने में मदद करना है।
    • इसमें आधुनिक इंजीनियरिंग की सफलता की क्षमता है और नवीकरणीय बिजली उत्पादन के विस्तार के लिये उत्प्रेरक तथा अगले दशक में जलवायु परिवर्तन को प्रभावी ढंग से कम करने की क्षमता है।
    • OSOWOG पर ISA के कॉन्सेप्ट नोट के अनुसार, वैश्विक सौर ग्रिड को तीन चरणों में लागू किया जाएगा
      • पहले चरण में 'इंडियन ग्रिड' मध्य-पूर्व, दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया ग्रिड से जुड़ेगा ताकि बिजली की ज़रूरत को पूरा करने के लिये सौर तथा अन्य नवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों को साझा किया जा सके, जिसमें पीक डिमांड भी शामिल है।
      • इसके बाद इसे दूसरे चरण में अफ्रीकी पावर पूल के साथ जोड़ा जाएगा।
      • तीसरे चरण में OSOWOG के विज़न को हासिल करने के लिये पावर ट्रांसमिशन ग्रिड के ग्लोबल इंटरकनेक्शन को कवर किया जाएगा।

स्रोत: द हिंदू


पुलिस सुधार पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की सिफारिशें

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ’ वाद, भारतीय विधि आयोग

मेन्स के लिये:

पुलिस सुधार की आवश्यकता और इससे संबंधित सिफारिशें

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग’ (NHRC) ने केंद्रीय गृह मंत्रालय और राज्य सरकारों को ‘प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ’ वाद (2006) के निर्णय के अनुसार ‘पुलिस शिकायत प्राधिकरण’ स्थापित करने के लिये कहा है।

पुलिस सुधार

  • पुलिस सुधारों का उद्देश्य पुलिस संगठनों के मूल्यों, संस्कृति, नीतियों और प्रथाओं को बदलना है।
  • यह पुलिस को लोकतांत्रिक मूल्यों, मानवाधिकारों और कानून के शासन के सम्मान के साथ कर्तव्यों का पालन करने की परिकल्पना करता है।
  • इसका उद्देश्य पुलिस सुरक्षा क्षेत्र के अन्य हिस्सों, जैसे कि अदालतों और संबंधित विभागों, कार्यकारी, संसदीय या स्वतंत्र अधिकारियों के साथ प्रबंधन या निरीक्षण ज़िम्मेदारियों में सुधार करना भी है।
  • पुलिस व्यवस्था भारतीय संविधान की अनुसूची 7 की राज्य सूची के अंतर्गत आती है।

प्रमख बिंदु

  • ‘राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग’ की सिफारिशें:
    • प्रमाण-भार (Burden of Proof): गृह मंत्रालय और विधि मंत्रालय को भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में धारा 114(B) जोड़ने के लिये भारतीय विधि आयोग की 113वीं रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करने पर विचार करना चाहिये।
      • इससे यह सुनिश्चित होगा कि यदि कोई व्यक्ति पुलिस हिरासत में घायल हो जाता है, तो यह मान लिया जाएगा कि उसे पुलिस द्वारा घायल किया गया था और चोट की व्याख्या करने के लिये सबूत प्रस्तुत करने का भार संबंधित प्राधिकारी पर है।
    • प्रौद्योगिकी अनुकूल आपराधिक न्याय प्रणाली: आपराधिक न्याय प्रणाली को गति देने के लिये कानूनी ढाँचे को प्रौद्योगिकी के अनुकूल बनाया जाना चाहिये।
      • वर्तमान में कानूनी ढाँचा आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रौद्योगिकी को अपनाने के लिये उपयुक्त नहीं है।
    • जवाबदेही सुनिश्चित करना: आयोग ने यह भी सिफारिश की है कि सभी पुलिस स्टेशनों में नाइट विज़न के साथ सीसीटीवी कैमरे लगाने के सर्वोच्च न्यायालय के दिसंबर 2020 के आदेश को जवाबदेही सुनिश्चित करने हेतु तत्काल प्रभाव से लागू किया जाना चाहिये।
    • सामुदायिक पुलिसिंग: आयोग ने सामुदायिक पुलिसिंग के हिस्से के रूप में पुलिस स्टेशनों के साथ प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्त्ताओं और कानून के छात्रों को शामिल करने तथा पुलिस मैनुअल, कानूनों व सलाह में सामुदायिक पुलिसिंग को शामिल करने पर भी ज़ोर दिया।
  • प्रकाश सिंह वाद (2006) में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश:
    • अपने निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने ‘पुलिस महानिदेशक’ के कार्यकाल और चयन से संबंधित सात दिशा-निर्देश दिये थे, जिसका उद्देश्य ऐसी स्थिति से बचना था, जिसमें कुछ ही महीनों में सेवानिवृत्त होने वाले अधिकारियों को पद दिया जाता है।
    • किसी भी प्रकार के राजनीतिक हस्तक्षेप से बचने के लिये पुलिस महानिरीक्षक हेतु न्यूनतम कार्यकाल निर्धारित किया गया था, ताकि राजनेताओं द्वारा उन्हें मध्यावधि में स्थानांतरित न किया जा सके।
    • साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने ‘पुलिस स्थापना बोर्ड’ (PEB) द्वारा पुलिस अधिकारियों की पोस्टिंग किये जाने के भी निर्देश दिये थे। इस बोर्ड का उद्देश्य राजनीतिक नेताओं को पोस्टिंग और स्थानांतरण संबंधित शक्तियों से वंचित करना था, इस बोर्ड में वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और नौकरशाहों को शामिल किया जा सकता है।
    • इसके अलावा न्यायालय ने ‘राज्य पुलिस शिकायत प्राधिकरण’ (SPCA) की स्थापना की भी सिफारिश की थी, जहाँ पुलिस कार्रवाई से पीड़ित आम लोग अपनी शिकायत दर्ज करा सकें।
    • सर्वोच्च न्यायालय ने पुलिसिंग व्यवस्था में बेहतर सुधार के लिये जाँच एवं कानून व्यवस्था के कार्यों को अलग करने हेतु ‘राज्य सुरक्षा आयोगों’ (SSC) की स्थापना करने का निर्देश दिया था, जिसमें नागरिक समाज के सदस्य होंगे, साथ ही एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग की भी सिफारिश की गई थी।

आगे की राह

  • पुलिस बलों का आधुनिकीकरण: पुलिस बलों के आधुनिकीकरण (MPF) की योजना 1969-70 में शुरू की गई थी और पिछले कुछ वर्षों में इसमें कई संशोधन हुए हैं।
    • MPF योजना की परिकल्पना में शामिल हैं:
    • आधुनिक हथियारों की खरीद
    • पुलिस बलों की गतिशीलता
    • लॉजिस्टिक समर्थन, पुलिस वायरलेस का उन्नयन आदि
    • एक राष्ट्रीय उपग्रह नेटवर्क
  • आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार: पुलिस सुधारों के साथ-साथ आपराधिक न्याय प्रणाली में भी सुधार की आवश्यकता है। इस संदर्भ में मेनन और मलीमथ समितियों की सिफारिशों को लागू किया जा सकता है। कुछ प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार हैं:
    • दोषियों के दबाव के कारण मुकर जाने वाले पीड़ितों को मुआवज़ा देने के लिये एक कोष का निर्माण करना।
    • देश की सुरक्षा को खतरे में डालने वाले अपराधियों से निपटने के लिये राष्ट्रीय स्तर पर अलग प्राधिकरण की स्थापना।
    • संपूर्ण आपराधिक प्रक्रिया प्रणाली में पूर्ण सुधार।

स्रोत: द हिंदू


ग्रीवा कैंसर को कम करने वाली HPV वैक्सीन

प्रिलिम्स के लिये:

ग्रीवा कैंसर, कैंसर उन्मूलन के लिये कार्यक्रम

मेन्स के लिये:

ग्रीवा कैंसर को कम करने वाली HPV वैक्सीन का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में नए शोध में पाया गया है कि ह्यूमन पैपिलोमावायरस (HPV) वैक्सीन महिलाओं में ग्रीवा कैंसर के खतरे को काफी कम कर देती है।

  • यह परिणाम महत्त्वपूर्ण है क्योंकि टीका 2000 के दशक में पेश किया गया था और यह तथ्य हाल ही में सामने आया है कि यह कैंसर के खिलाफ प्रभावी है।

प्रमुख बिंदु

  • निष्कर्ष:
    • ह्यूमन पैपिलोमावायरस (HPV) वैक्सीन ने यूके में उन महिलाओं में ग्रीवा कैंसर के मामलों को 87 फीसदी तक कम कर दिया, जिन्हें 12 या 13 साल की उम्र में वैक्सीन लगाई गई थी।
    • इसने उन महिलाओं में जोखिम को 34% कम कर दिया, जिनकी उम्र 16-18 वर्ष थी, जब उन्हें वैक्सीन की पेशकश की गई थी।
    • 11 वर्षों की अवधि में (2006 से) इस टीके ने लगभग 450 ग्रीवा कैंसर और लगभग 17,200 पूर्व कैंसर मामलों को रोक दिया।
  • ग्रीवा कैंसर (Cervical Cancer):
    • यह एक प्रकार का कैंसर है जो गर्भाशय की ग्रीवा की कोशिकाओं में होता है।
    • मानव पेपिलोमावायरस (HPV) के विभिन्न उपभेद अधिकांश ग्रीवा कैंसर की उत्पत्ति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
    • HPV के संपर्क में आने पर शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली आमतौर पर शरीर को वायरस प्रभावित करने से रोकती है। हालाँकि कुछ लोगों में वायरस वर्षों तक जीवित रहता है जिससे कुछ गर्भाशय ग्रीवा कोशिकाएँ कैंसर कोशिकाएँ बन जाती हैं।
    • HPV वैक्सीन (Cervarix) कैंसर पैदा करने वाले दो उपभेदों HPV 16 और 18 से सुरक्षा प्रदान करती है।
  • ह्यूमन पेपिलोमावायरस:
    • मानव पेपिलोमावायरस (HPV) प्रजनन ट्रैक का सबसे आम वायरल संक्रमण है।
    • HPV के 100 से अधिक प्रकार हैं।
    • 40 से अधिक प्रकार के HPV सीधे यौन संपर्क के माध्यम से फैलते हैं।
    • इन 40 में से दो जननांग कैंसर का कारण बनते हैं, जबकि लगभग एक दर्जन HPV गर्भाशय ग्रीवा, गुदा, ऑरोफरीन्जियल, पेनाइल, वुल्वर और योनि सहित विभिन्न प्रकार के कैंसर का कारण बनते हैं।
  • HPV टीकों के प्रकार:
    • क्वाडरिवेलेंट वैक्सीन (गार्डासिल): यह चार प्रकार के HPV (HPV 16, 18, 6 और 11) से बचाता है। बाद के दो उपभेद जननांग कैंसर का कारण बनते हैं।
    • द्विसंयोजक टीका (Cervarix): यह केवल HPV 16 और 18 से रक्षा करता है।
    • नॉन-वैलेंट वैक्सीन (गार्डासिल 9): यह HPV के नौ उपभेदों से बचाता है।
      • ये टीके ग्रीवा कैंसर से उन महिलाओं और लड़कियों का बचाव करते हैं जो अभी तक वायरस के संपर्क में नहीं आई हैं।
  • भारतीय परिदृश्य:
    • भारत में दुनिया के 16-17% सामान्य कैंसर और 27% ग्रीवा कैंसर के मामले पाए जाते हैं।
    • इसके अलावा भारत में ग्रीवा कैंसर के लगभग 77% मामलों का कारण HPV 16 और 18 हैं।
    • भारत में द्विसंयोजक और क्वाडरिवेलेंट HPV टीकों को वर्ष 2008 में लाइसेंस दिया गया था और गैर-वैलेंट वैक्सीन को वर्ष 2018 में लाइसेंस दिया गया था।
    • आधिकारिक तौर पर भारत में पुरुषों के लिये HPV वैक्सीन की सिफारिश नहीं की गई है।

कैंसर (Cancer)

  • यह रोगों का एक बड़ा समूह है जो शरीर के लगभग किसी भी अंग या ऊतक में शुरू हो सकता है, जब असामान्य कोशिकाएँ अनियंत्रित रूप से बढ़ती हैं, तो शरीर के आस-पास के हिस्सों पर आक्रमण करने और/या अन्य अंगों में फैलने के लिये अपनी सामान्य सीमाओं से परे जाती हैं। बाद की प्रक्रिया को मेटास्टेसाइजिंग कहा जाता है तथा यह कैंसर से मृत्यु का एक प्रमुख कारण है।
  • कैंसर के अन्य सामान्य नाम नियोप्लाज़्म और मैलिगनेंट ट्यूमर हैं।
  • पुरुषों में फेफड़े, प्रोस्टेट, कोलोरेक्टल, पेट और लीवर कैंसर सबसे आम प्रकार के कैंसर हैं, जबकि स्तन, कोलोरेक्टल, फेफड़े, ग्रीवा तथा थायराइड कैंसर महिलाओं में सबसे आम हैं।
  • विश्व कैंसर दिवस यूनियन फॉर इंटरनेशनल कैंसर कंट्रोल (यूआईसीसी) द्वारा आयोजित किया जाता है और प्रत्येक वर्ष 4 फरवरी को मनाया जाता है।

संबंधित भारतीय पहल:

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


संशोधित PCA ढाँचा

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय रिज़र्व बैंक, PCA ढाँचा, गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (NPA), पूंजी पर्याप्तता अनुपात

मेन्स के लिये:

संशोधित PCA ढाँचा का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में ‘भारतीय रिज़र्व बैंक’ (RBI) ने एक संशोधित ‘त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई’ (PCA) ढाँचे की घोषणा की है।

  • ज्ञात हो कि PCA ढाँचा बैंकों पर रिज़र्व बैंक के पर्यवेक्षी हस्तक्षेप को सक्षम बनाता है और प्रभावी बाज़ार अनुशासन सुनिश्चित करता है।

प्रमुख बिंदु

  • संशोधित ढाँचा
    • प्रयोज्यता
      • यह ढाँचा भारत में परिचालित सभी बैंकों पर लागू होता है, जिसमें शाखाओं या सहायक कंपनियों के माध्यम से परिचालन करने वाले विदेशी बैंक भी शामिल हैं।
      • हालाँकि भुगतान बैंकों और ‘छोटे वित्त बैंकों’ (SFBs) को उन ऋणदाताओं की सूची से हटा दिया गया है, जहाँ रिज़र्व बैंक द्वारा त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई शुरू की जा सकती है।
        • नए प्रावधान जनवरी, 2022 से प्रभावी होंगे।
    • निगरानी क्षेत्र:
      • पूंजी, परिसंपत्ति गुणवत्ता और पूंजी-से-जोखिम भारित संपत्ति अनुपात (CRAR), NPA अनुपात, टियर I लिवरेज अनुपात इस संशोधित ढाँचे में निगरानी हेतु प्रमुख क्षेत्र होंगे।
      • हालाँकि इस संशोधित ढाँचे में परिसंपत्तियों पर रिटर्न को एक पैरामीटर के रूप में शामिल नहीं किया गया है।
    • PCA का क्रियान्वयन
      • किसी भी जोखिम सीमा के उल्लंघन के परिणामस्वरूप PCA को लागू किया जा सकता है। दबावग्रस्त बैंकों को ऋण/निवेश पोर्टफोलियो का विस्तार करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
        • हालाँकि उन्हें सरकारी प्रतिभूतियों/अन्य उच्च गुणवत्ता वाले तरल निवेशों में निवेश करने की अनुमति है।
      • अपने जमाकर्त्ताओं के प्रति दायित्वों को पूरा करने में बैंक की ओर से चूक के मामले में PCA मैट्रिक्स के बिना संभावित समाधान प्रक्रियाओं का सहारा लिया जा सकता है।
    • रिज़र्व बैंक की शक्तियाँ
      • शासन-संबंधी कार्यों में भारतीय रिज़र्व बैंक ‘बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949’ की धारा 36ACA के तहत बोर्ड का स्थान ले सकता है।
      • बैंकिंग विनियमन अधिनियम की धारा 45 में संशोधन, रिज़र्व बैंक को केंद्र सरकार की मंज़ूरी के साथ किसी स्थगन को लागू करने या उसके बिना किसी बैंक के पुनर्निर्माण या समामेलन करने में सक्षम बनाता है।
      • रिज़र्व बैंक अपनी अनिवार्य और विवेकाधीन कार्रवाइयों के हिस्से के रूप में संशोधित PCA के तहत बोर्ड द्वारा अनुमोदित सीमाओं के भीतर तकनीकी उन्नयन के अलावा पूंजीगत व्यय पर उचित प्रतिबंध लगा सकता है।
    • PCA प्रतिबंधों को समाप्त करना:
      • अधिरोपित प्रतिबंधों को वापस लेने पर केवल तभी विचार किया जाएगा, जब चार निरंतर तिमाही वित्तीय विवरणों के अनुसार किसी भी पैरामीटर में जोखिम सीमा में कोई उल्लंघन नहीं देखा गया हो।
  • त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई:
    • पृष्ठभूमि: PCA एक ढाँचा है, जिसके तहत कमज़ोर वित्तीय मैट्रिक्स वाले बैंकों को रिज़र्व बैंक द्वारा निगरानी में रखा जाता है।
      • रिज़र्व बैंक ने वर्ष 2002 में PCA ढाँचे को ऐसे बैंकों के लिये एक संरचित प्रारंभिक-हस्तक्षेप तंत्र के रूप में पेश किया था, जो खराब संपत्ति की गुणवत्ता के कारण चुनौतियों का सामना कर रहे थे या लाभप्रदता के नुकसान के कारण कमज़ोर हो गए थे।
      • वित्तीय स्थिरता एवं विकास परिषद के कार्यकारी समूह की सिफारिशों के आधार पर इस ढाँचे को वर्ष 2017 में संशोधित किया गया था।
    • उद्देश्य: PCA ढाँचे का उद्देश्य उचित समय पर पर्यवेक्षी हस्तक्षेप को सक्षम करना और पर्यवेक्षित इकाई के लिये समयबद्ध ढंग से उपचारात्मक उपायों को लागू करना अनिवार्य बनाना है, ताकि उनके वित्तीय स्वास्थ्य को बहाल किया जा सके।
      • इसका उद्देश्य भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPA) की समस्या से निपटना है।
      • इसका उद्देश्य नियामक के साथ-साथ निवेशकों और जमाकर्त्ताओं को भी सतर्क करना है।
      • इसका मुख्य लक्ष्य समय के गंभीर रूप धारण करने से पूर्व ही उसका मुकाबला करना है।
    • लेखा परीक्षित वार्षिक वित्तीय परिणाम: एक बैंक को आमतौर पर लेखा परीक्षित वार्षिक वित्तीय परिणामों और भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा किये गए पर्यवेक्षी मूल्यांकन के आधार पर PCA ढाँचे के तहत रखा जाएगा।

गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (NPA)

  • जब ऋण लेने वाला व्यक्ति 90 दिनों तक ब्याज अथवा मूलधन का भुगतान करने में विफल रहता है तो उसको दिया गया ऋण गैर-निष्पादित परिसंपत्ति माना जाता है।
  • प्रायः बैंकों द्वारा ‘गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों’ को ‘सब-स्टैंडर्ड’, ‘डाउटफुल’ और ‘लॉस एसेट’ के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।

पूंजी पर्याप्तता अनुपात (CAR):

  • CAR एक बैंक की उपलब्ध पूंजी को मापने का उपाय है, जिसे बैंक के जोखिम-भारित क्रेडिट एक्सपोज़र के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है।
  • पूंजी पर्याप्तता अनुपात, जिसे ‘कैपिटल-टू-रिस्क वेटेड एसेट रेशियो’ (CRAR) के रूप में भी जाना जाता है, का उपयोग जमाकर्त्ताओं की रक्षा और दुनिया भर में वित्तीय प्रणालियों की स्थिरता एवं दक्षता को बढ़ावा देने के लिये किया जाता है।

टियर-1 लिवरेज अनुपात:

  • यह एक बैंकिंग संगठन की कोर पूंजी एवं उसकी कुल संपत्ति के बीच के संबंध को व्यक्त करता है।
  • टियर-1 लीवरेज अनुपात की गणना टियर-1 पूंजी को बैंक की औसत कुल समेकित संपत्ति और बैलेंस शीट से अलग एक्सपोज़र से विभाजित करके की जाती है।
    • लीवरेज अनुपात ऐसे कई वित्तीय मापों में से एक है, जो किसी कंपनी के वित्तीय दायित्वों को पूरा करने की क्षमता का आकलन करता है। कुछ उदाहरण हैं:
      • इक्विटी अनुपात: यह अनुपात कंपनी में मालिक के कुल योगदान को दर्शाता है।
      • ऋण अनुपात: यह अनुपात कंपनी में उपयोग किये गए कुल लीवरेज को दर्शाता है।
      • ‘डेब्ट टू इक्विटी’ अनुपात: यह अनुपात इक्विटी की तुलना में व्यवसाय में उपयोग किये गए कुल ऋण को दर्शाता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


वन और भूमि उपयोग पर ग्लासगो नेताओं की घोषणा

प्रिलिम्स के लिये:

संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन

मेन्स के लिये:

वनों की कटाई को रोकने" और भूमि क्षरण का महत्त्व

चर्चा में क्यों?

हाल ही में यूनाइटेड किंगडम द्वारा वर्ष 2030 तक ‘वनों की कटाई को रोकने’ और भूमि क्षरण पर एक महत्त्वाकांक्षी घोषणा की गई।

  • इसे वन और भूमि उपयोग पर ग्लासगो नेताओं की घोषणा के रूप में संदर्भित किया जा रहा है।
  • भारत ने इस पर हस्ताक्षर नहीं किये क्योंकि उसने समझौते में जलवायु परिवर्तन और वन मुद्दों के संदर्भ में ‘व्यापार’ शब्द पर आपत्ति जताई थी।

प्रमुख बिंदु

  • घोषणा के बारे में:
    • एकीकृत दृष्टिकोण: घोषणा में यह स्वीकार किया गया कि भूमि उपयोग, जलवायु, जैव विविधता और सतत् विकास लक्ष्यों को पूरा करने के लिये विश्व स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर परस्पर जुड़े क्षेत्रों में परिवर्तनकारी आगे की कार्रवाई की आवश्यकता होगी:
      • सतत् उत्पादन और खपत।
      • बुनियादी ढाँचे का विकास; व्यापार; वित्त और निवेश।
      • छोटे जोतदारों, स्वदेशी लोगों और स्थानीय समुदायों के लिये सहायता, जो अपनी आजीविका हेतु जंगलों पर निर्भर हैं और संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
      • मानवजनित ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और सिंक द्वारा हटाने के बीच संतुलन; जलवायु परिवर्तन के अनुकूलन और अन्य पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं को बनाए रखने के लिये।
    • हस्ताक्षरकर्त्ता: घोषणा में यूके, यूएस, रूस और चीन सहित 105 से अधिक हस्ताक्षरकर्त्ता हैं।
      • ये देश वैश्विक व्यापार के 75% और वैश्विक वनों के 85% प्रमुख वस्तुओं जैसे- ताड़ का तेल, कोको और सोया का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनका उत्पादन वनों को खतरे में डाल सकता है।
      • उन्होंने 2021-25 तक सार्वजनिक धन में 12 बिलियन अमेरिकी डॉलर के वित्तीयन का भी वादा किया है।
    • बहुपक्षीय समझौते के लिये प्रतिबद्धता: इसने जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन और पेरिस समझौते, जैविक विविधता पर कन्वेंशन, मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन, सतत् विकास लक्ष्यों के लिये संबंधित प्रतिबद्धताओं की पुष्टि की।
  • घोषणापत्र के मुख्य बिंदु:
    • संरक्षण: वनों और अन्य स्थलीय पारिस्थितिक तंत्रों का संरक्षण तथा उनकी बहाली में तेज़ी लाना।
    • सतत् विकास: अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू स्तर पर व्यापार तथा विकास नीतियों को सुगम बनाना, जो सतत् विकास एवं टिकाऊ वस्तुओं के उत्पादन व खपत को बढ़ावा देते हैं।
    • लचीलेपन का निर्माण: स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाने सहित भेद्यता को कम करना, लचीलापन और ग्रामीण आजीविका में वृद्धि करना।
    • स्वदेशी अधिकारों को मान्यता देना: स्वदेशी अधिकारों को मान्यता देते हुए लाभदायक, टिकाऊ कृषि का विकास और वनों के मूल्यों की मान्यता।
    • वित्तीय प्रतिबद्धताएँ: अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रतिबद्धताओं की पुष्टि और विभिन्न प्रकार के सार्वजनिक व निजी स्रोतों से वित्त एवं निवेश में उल्लेखनीय वृद्धि करना।
  • भारत का पक्ष:
    • भारत, अर्जेंटीना, मैक्सिको, सऊदी अरब और दक्षिण अफ्रीका ही ऐसे G20 देश हैं जिन्होंने घोषणा पर हस्ताक्षर नहीं किये।
    • यह घोषणा व्यापार को जलवायु परिवर्तन और वन मुद्दों से जोड़ती है। व्यापार विश्व व्यापार संगठन के अंतर्गत आता है और इसे जलवायु परिवर्तन घोषणाओं के तहत नहीं लाया जाना चाहिये।
    • भारत और अन्य लोगों ने "व्यापार" शब्द को हटाने के लिये कहा था, लेकिन मांग को स्वीकार नहीं किया गया था। इसलिये उन्होंने घोषणा पर हस्ताक्षर नहीं किये।
      • भारत में वनों की कटाई का मुद्दा अहम है। सरकार ने बार-बार कहा है कि पिछले कुछ वर्षों में भारत में वृक्षों का आवरण और वन आवरण बढ़ा है।
      • हालाँकि पर्यावरणविदों द्वारा लंबे समय से कहा जा रहा है कि मौजूदा सरकार पर्यावरण संरक्षण को खनन और अन्य बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं पर वरीयता दे रही है जो जंगलों, वन्यजीवों और इनके आसपास रहने वाले लोगों के जीवन को हमेशा के लिये बदल देगी।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस


अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS)

प्रिलिम्स के लिये:

अखिल भारतीय न्यायिक सेवा, विधि आयोग, संघ लोक सेवा आयोग, सर्वोच्च न्यायालय

मेन्स के लिये:

अखिल भारतीय न्यायिक सेवा : लाभ एवं चुनौतियाँ

चर्चा में क्यों?

केंद्र सरकार केंद्रीय सिविल सेवाओं की तर्ज पर अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) को नए सिरे से स्थापित करने की तैयारी कर रही है।

प्रमुख बिंदु

  • परिचय:
    • AIJS सभी राज्यों के लिये अतिरिक्त ज़िला न्यायाधीशों और ज़िला न्यायाधीशों के स्तर पर न्यायाधीशों की भर्ती को केंद्रीकृत करने हेतु एक सुधार है।
    • जिस प्रकार संघ लोक सेवा आयोग केंद्रीय भर्ती प्रक्रिया आयोजित करता है और सफल उम्मीदवारों के संवर्गों का आवंटन करता है, उसी प्रकार से निचली न्यायपालिका के न्यायाधीशों को केंद्रीय रूप से भर्ती करने और राज्यों का आवंटन करने का प्रस्ताव रखता है।
  • विगत प्रस्ताव:
    • AIJS को पहली बार वर्ष 1958 में विधि आयोग की 14वीं रिपोर्ट द्वारा प्रस्तावित किया गया था।
      • न्यायाधीशों की भर्ती और प्रशिक्षण के लिये एक मानक, केंद्रीकृत परीक्षा आयोजित करने के लिये यूपीएससी जैसे वैधानिक या संवैधानिक निकाय पर चर्चा की गई।
    • विधि आयोग की 1978 की रिपोर्ट में इस विचार को फिर से प्रस्तावित किया गया था, जिसमें निचली अदालतों में मामलों की देरी और एरियर पर चर्चा की गई थी।
    • वर्ष 2006 में कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 15वीं रिपोर्ट में अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के विचार का समर्थन किया और एक मसौदा विधेयक भी तैयार किया।
  • सर्वोच्च न्यायालय का रुख:
    • वर्ष 1992 में ऑल इंडिया जजेज़ एसोसिएशन बनाम द यूनियन ऑफ इंडिया में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र को AIJS स्थापित करने का निर्देश दिया।
    • वर्ष 1993 में फैसले की समीक्षा की गई, हालाँकि अदालत ने इस मुद्दे पर पहल करने के लिये केंद्र को स्वतंत्र छोड़ दिया
    • वर्ष 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने ज़िला न्यायाधीशों की नियुक्ति के मुद्दे पर स्वत: संज्ञान लिया और एक केंद्रीय चयन तंत्र का प्रस्ताव रखा।
      • वरिष्ठ अधिवक्ता अरविंद दातार, जिन्हें अदालत द्वारा न्याय मित्र (अदालत का मित्र) नियुक्त किया गया था, ने सभी राज्यों के लिये एक अवधारणा नोट परिचालित किया जिसमें उन्होंने अलग राज्य परीक्षा के बजाय एक सामान्य परीक्षा आयोजित करने की सिफारिश की।
      • योग्यता सूची के आधार पर उच्च न्यायालय साक्षात्कार के माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्ति करेंगे। दातार ने कहा कि यह संवैधानिक ढाँचे को न तो परिवर्तित करेगा और न ही राज्यों या उच्च न्यायालयों की शक्तियों को प्रभावित करेगा।
  • AIJS के लाभ:
    • कुशल न्यायपालिका: यह राज्यों में अलग-अलग वेतन और पारिश्रमिक जैसे संरचनात्मक मुद्दों का समाधान करने, रिक्तियों को तेज़ी से भरने और राज्यों में मानक प्रशिक्षण सुनिश्चित करने हेतु एक कुशल अधीनस्थ न्यायपालिका सुनिश्चित करेगी।
    • ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस: सरकार ने भारत की ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस रैंकिंग में सुधार के अपने प्रयास में निचली न्यायपालिका में सुधार का लक्ष्य रखा है, क्योंकि कुशल विवाद समाधान रैंक निर्धारित करने में प्रमुख सूचकांकों में से एक है।
    • जनसंख्या अनुपात में न्यायाधीशों को नियुक्त करना: एक विधि आयोग की रिपोर्ट (1987) ने सिफारिश की है कि भारत में 10.50 न्यायाधीशों (तत्कालीन) की तुलना में प्रति मिलियन जनसंख्या पर 50 न्यायाधीश होने चाहिये।
      • अब स्वीकृत संख्या के मामले में यह आँकड़ा 20 न्यायाधीशों को पार कर गया है, लेकिन यह अमेरिका या यूके की तुलना में क्रमशः 107 और 51 न्यायाधीश प्रति मिलियन लोगों की तुलना में कुछ भी नहीं है।
    • समाज के सीमांत वर्गों का उच्च प्रतिनिधित्व: सरकार के अनुसार, AIJS समाज में हाशिये पर जीवन यापन कर रहे लोगों और वंचित वर्गों के समान प्रतिनिधित्व के लिये एक आदर्श समाधान है।
    • प्रतिभाशाली समूह को आकर्षित करना: सरकार का मानना है कि अगर ऐसी कोई सेवा स्थापित होती है, तो इससे प्रतिभाशाली लोगों का एक समूह बनाने में मदद मिलेगी जो बाद में उच्च न्यायपालिका का हिस्सा बन सकते हैं।
    • बॉटम-अप अप्रोच: भर्ती में बॉटम-अप अप्रोच निचली न्यायपालिका में भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद जैसे मुद्दों का भी समाधान करेगा।
  • आलोचना:
    • राज्यों की शक्ति का अतिक्रमण: केंद्रीकृत भर्ती प्रक्रिया को संघवाद की भावना के विरुद्ध और संविधान द्वारा प्रदत्त राज्यों की शक्तियों के अतिक्रमण के रूप में देखा जाता है।
    • यह ‘राज्य-विशिष्ट’ को संबोधित नहीं करेगा: कई राज्यों का तर्क है कि केंद्रीय भर्ती प्रक्रिया उन राज्य-विशिष्ट चिंताओं को दूर करने में सक्षम नहीं होगी जो अलग-अलग राज्यों में मौजूद हैं।
      • उदाहरण के लिये भाषा और प्रतिनिधित्व इस संबंध में प्रमुख चिंताएँ हैं।
      • न्यायिक कार्य क्षेत्रीय भाषाओं में संचालित होते हैं, जो केंद्रीय भर्ती से प्रभावित हो सकते हैं।
    • ‘स्थानीय आरक्षण’ के लिये प्रतिकूल: इसके अलावा यह व्यवस्था जाति के आधार पर आरक्षण और राज्य में ग्रामीण उम्मीदवारों या भाषायी अल्पसंख्यकों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकती है।
    • ‘शक्तियों के पृथक्करण’ के सिद्धांत के विरुद्ध: ‘शक्तियों के पृथक्करण’ की संवैधानिक अवधारणा के आधार पर भी इसका विरोध किया जा रहा है। एक केंद्रीय परीक्षण, ज़िला न्यायाधीशों की नियुक्ति में कार्यपालिका को शक्ति प्रदान करेगा और इस प्रक्रिया में उच्च न्यायालयों का पक्ष कमज़ोर हो सकता है।
    • संरचनात्मक मुद्दों को संबोधित नहीं करेगी: अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) के निर्माण से निचली न्यायपालिका के समक्ष मौजूद संरचनात्मक मुद्दों का समाधान नहीं होगा।
      • वर्ष 1993 के अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ के मामले में राज्यों में एकरूपता लाकर विभिन्न वेतनमानों और पारिश्रमिक के मुद्दे को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संबोधित किया गया है।
      • विशेषज्ञों का तर्क है कि सभी स्तरों पर वेतन बढ़ाना और यह सुनिश्चित करना कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों का एक अंश निचली न्यायपालिका से चुना जाए, गुणवत्तापूर्ण प्रतिभा को आकर्षित करने के लिये केंद्रीय परीक्षा से बेहतर विकल्प हो सकता है।

नियुक्ति की वर्तमान विधि

  • भारत के संविधान के अनुच्छेद 233 और 234 ज़िला न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित हैं तथा इस विषय को राज्यों के अधिकार क्षेत्र में रखते हैं।
  • चयन प्रक्रिया राज्य लोक सेवा आयोगों और संबंधित उच्च न्यायालय द्वारा संचालित की जाती है, क्योंकि उच्च न्यायालय राज्य में अधीनस्थ न्यायपालिका पर अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हैं।
  • उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के पैनल परीक्षा के बाद उम्मीदवारों का साक्षात्कार करते हैं और नियुक्ति के लिये उनका चयन करते हैं।
  • निचली न्यायपालिका के ज़िला न्यायाधीश स्तर तक के सभी न्यायाधीशों का चयन प्रांतीय सिविल सेवा (न्यायिक) परीक्षा के माध्यम से किया जाता है।

परिवर्तन लाने संबंधी संवैधानिक प्रावधान

  • वर्ष 1976 में 42वें संवैधानिक संशोधन ने अनुच्छेद 312 (1) में संशोधन करके संसद को एक या एक से अधिक अखिल भारतीय सेवाओं के निर्माण के लिये कानून बनाने का अधिकार दिया, जिसमें ‘अखिल भारतीय न्यायिक सेवा’ भी शामिल है, जो संघ और राज्यों के लिये समान है।
  • अनुच्छेद 312 के तहत राज्यसभा को अपने उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों द्वारा समर्थित एक प्रस्ताव पारित करना आवश्यक है। इसके बाद संसद को अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के निर्माण हेतु एक कानून बनाना होगा।
  • इसका अर्थ है कि अखिल भारतीय न्यायिक सेवा की स्थापना के लिये किसी संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता नहीं होगी।

आगे की राह

  • लंबित मामलों की संख्या को देखते हुए एक ऐसी भर्ती प्रणाली की स्थापना करना आवश्यक है, जो मामलों के त्वरित निपटान हेतु बड़ी संख्या में कुशल न्यायाधीशों की भर्ती करने में सक्षम हो।
  • हालाँकि अखिल भारतीय न्यायिक सेवा को कानूनी रूप देने से पूर्व सर्वसम्मति बनाने और इस दिशा में एक निर्णायक कदम उठाने की आवश्यकता है।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस