क्या होना चाहिये बैड लोन की समस्या का हल?
संदर्भ
विजय माल्या और नीरव मोदी के मामलों के बीच एक निराशाजनक समानता है। दोनों ने भारतीय बैंकों को 22,000 करोड़ रुपए से अधिक का चूना लगाया और देश छोड़कर भाग गए। यदि इस मुद्दे पर गहराई से विचार करें, तो पाएंगे कि 22,000 करोड़ रुपए की यह परिसंपत्ति बैंकों की कुल गैर-निष्पादित संपत्ति (Non-Performing Assets (NPAs) का एक छोटा सा हिस्सा है, वास्तविक रूप में यह कई लाख करोड़ रुपए के आँकड़े में है।
- इन एनपीए का एक बहुत बड़ा हिस्सा कॉर्पोरेट जगत की फर्मों को प्रदान किया गया है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना अत्यंत आवश्यक है कि खुदरा उधारकर्त्ताओं द्वारा किये गए डिफ़ॉल्ट की संख्या इन बड़ी शेयरधारक कंपनियों और उद्योग जगत के बड़े-बड़े घरानों की तुलना में बहुत कम है।
- इससे यह स्पष्ट है कि बैंकिंग सिस्टम का डिफॉल्टर्स द्वारा शोषण किया जा रहा है। ये बेईमान उधारकर्त्ता या तो बैंकिंग प्रणाली में विद्यमान अक्षमता का शोषण करते हैं या फिर व्यवस्था को धोखा देने के लिये बैंक अधिकारियों के साथ मिलकर इस काम को अंजाम देते हैं।
- पिछले कुछ समय से चर्चा का विषय बनी ये गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ अथवा एनपीए क्या है? इनके कारण देश की अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है? साथ ही इनसे संबद्ध अन्य पक्षों के विषय में इस लेख के अंतर्गत संक्षेप में चर्चा की गई है।
क्या हैं गैर-निष्पादनकारी परिसम्पतियाँ?
- गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों से तात्पर्य ऐसे ऋण से है, जिसका लौटना संदिग्ध हो।
- बैंक अपने ग्राहकों को जो ऋण देता है वह उसे अपने खाते में संपत्ति के रूप में दर्ज़ करता है, परन्तु यदि किसी कारणवश बैंक को यह आशंका होती है कि ग्राहक यह ऋण नहीं लौटा पाएगा, तो ऐसी संपत्ति को ही गैर-निष्पादनकारी संपत्तियाँ कहा जाता है।
- यह किसी भी बैंक की वित्तीय अवस्था को मापने का पैमाना है। यदि इसमें वृद्धि होती है, तो यह बैंक के लिये चिंता का विषय बन जाता है।
- गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ (non-performing assets-NPA) किसी भी अर्थव्यवस्था के लिये बोझ होती हैं। ये देश की बैंकिंग व्यवस्था को रुग्ण बनाती हैं। गौरतलब है कि पिछले कुछ वर्षों से ‘बैड लोन’ और ‘बैड एसेट’ (ख़राब परिसम्पत्तियाँ) में बेतहाशा वृद्धि हुई है। विदित हो कि ‘गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ’, बैड लोन और बैड एसेट से ही मिलकर बनती हैं।
- बैड लोन से बैंकों के लाभांश में कमी आती है, फलस्वरूप बैंक के लिये ऋण देना मुश्किल हो जाता है। जब बैंकों के लिये ऋण देना मुश्किल हो जाता है, तो फिर निवेश में कमी आने लगती है और जब निवेश में कमी आने लगे तो अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर पर प्रतिकूल प्रभाव देखने को मिलता है।
- यदि किसी बैंक ने किसी संस्था को कुछ राशि ऋण के तौर पर दी, जब बैंक ने ऋण दिया था तब तो परिस्थितियाँ ऐसी थी कि संस्था द्वारा ऋण राशि को चुकाया जाना आसान लग रहा था। लेकिन बाद में प्रतिकूल हालातों में संस्था ऋण चुकाने में असमर्थ हो गई।
- यदि बैंक उसे वित्तीय संकटों से उबारने के उद्देश्य से और ऋण देता है, तो इस बात का डर लगातार बना रहता है कि कहीं बाद में दिया गया ऋण भी न डूब जाए। इस प्रकार से एनपीए किसी भी अर्थयवस्था के लिये बिगड़ैल बैल के जैसा होता है।
- स्पष्ट है कि एनपीए को पूरी तरह से खत्म करना संभव नहीं है। लेकिन दो ऐसे क्षेत्र हैं, जिनमें संरचनात्मक सुधार करके निश्चित रूप से इस स्थिति में सुधार लाया जा सकता हैं: पहला है पीएसबी का प्रबंधन करके और दूसरा जाँच एजेंसियों द्वारा बैंक धोखाधड़ी के मामलों को संभालने से संबंधित है।
एनपीए का प्रबंधन कैसे किया जाए?
- यदि लेनदारों द्वारा तय समय पर ऋण नहीं चुकाया जाता है, तो बैंक ऋण के बदले गिरवी रखी गई संपत्ति को ज़ब्त कर सकता है और फिर उस संपत्ति को बेच सकता है।
- एनपीए की गंभीर होती समस्या के समाधान के लिये भारतीय रिज़र्व बैंक ने सामरिक ऋण पुनर्गठन (Strategic Debt Restructuring-SDR) योजना शुरू की थी।
- एसडीआर के तहत, यदि कोई कंपनी या संस्था ऋण नहीं चुका पा रही है, तो उस डिफॉल्टर कंपनी के प्रबंधन में बैंक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
- यहाँ तक कि एसडीआर योजना के तहत बैंक, कंपनी के प्रमोटरों को भी बदल सकते हैं। बैंक, बैड लोन का पुनर्गठन भी कर सकते हैं, जिससे कि लेनदारों को उधार चुकाना थोड़ा आसान हो जाए। बैंक, गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों को डिस्काउंट पर परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनियों को बेचकर भी स्वयं का ऋण चुकता कर सकते हैं।
एनपीए के प्रबंधन में आने वाली दिक्कतें
- परिसंपत्तियों के ज़ब्ती के माध्यम से स्वयं का ऋण चुकता करना बैंकों के लिये प्रायः फायदेमंद नहीं होता, क्योंकि ज़ब्त की गई परिसंपत्तियों को प्रायः कम दाम पर बेचना पड़ता है, जो कि दिये गए ऋण की तुलना में बहुत ही कम होती है।
- गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों के पुनर्गठन में दो समस्याएँ आती हैं। पहली, हो सकता है बैंक के प्रबंधक अवैध तरीके से कुछ कंपनियों की गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों का मूल्य बहुत ही कम कर दें, ताकि वे अवैध लाभ कमा सकें।
- दूसरी समस्या यह है कि यदि गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों को डिस्काउंट दर पर बेचा जाता है, तो सीधे इसका प्रतिकूल प्रभाव बैंकों के लाभांश पर देखने को मिलेगा।
बासेल नियम
- स्विट्ज़रलैंड में एक शहर है बासेल, जहाँ अंतर्राष्ट्रीय निपटान ब्यूरो (Bank for International Settlements-BIS) का मुख्यालय भी है।
- बीआईएस, केंद्रीय बैंकों के बीच वित्तीय स्थिरता के समान लक्ष्य और बैंकिंग नियमों के आम मानकों के साथ सहयोग को बढ़ावा देता है।
- बैंकिंग पर्यवेक्षण पर बासेल समिति द्वारा बैंकों और वित्तीय प्रणाली के लिये जोखिम पर केंद्रित समझौतों के सेटों को बासेल नियम (Basel Norms) कहा जाता है।
उद्देश्य
- यह सुनिश्चित करना है कि दायित्वों को पूरा करने और अप्रत्याशित हानि को सहन करने के लिये वित्तीय संस्थानों के पास पर्याप्त पूंजी होनी चाहिये।
- भारत ने अपनी बैंकिंग प्रणाली के लिये बासेल नियमों को स्वीकार किया है। अब तक तीन बासेल नियम (1, 2, 3) जारी हो चुके हैं।
‘बैड बैंक' क्या है?
- एनपीए के प्रबंधन हेतु, इस लेख में बैड बैंक की अवधारणा का जिक्र किया गया है। यहाँ इस अवधारणा का आधार जाने बिना एनपीए के विषय में बात करना मुद्दे से भटकने जैसा है। आइये पहले बैड बैंक को समझते है।
- यह एक आर्थिक अवधारणा है, जिसके अंतर्गत आर्थिक संकट के समय घाटे में चल रहे बैंकों द्वारा अपनी देयताओं को एक नए बैंक को स्थानांतरित कर दिया जाता है|
- ये बैड बैंक कर्ज़ में फँसी बैंकों की राशि को खरीद लेगा और उससे निपटने का काम भी इसी बैंक का होगा|
- जब किसी बैंक की गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ सीमा से अधिक हो जाती हैं, तब राज्य के आश्वासन पर एक ऐसे बैंक का निर्माण किया जाता है, जो मुख्य बैंक की देयताओं को एक निश्चित समय के लिये धारण कर लेता है|
बैड बैंक का सिद्धांत
- बैड बैंक, एआरसी यानी परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनियों की तरह काम करेगा| बैड बैंक एक ऐसा बैंक होगा, जो दूसरे बैंकों के डूबते कर्ज़ को खरीदेगा|
- ध्यातव्य है कि बैड बैंक का नाम ‘पब्लिक सेक्टर एसेट रिहैबिलिटेशन एजेंसी’ यानी पीएआरए होगा और यह प्रयोग जर्मनी, स्वीडन, फ्रॉन्स जैसे देशों में सफल रहा है| दरअसल, बैंकों (खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की) की गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ तेज़ी से बढ़ी हैं|
- बैड बैंक के आने से दूसरे बैंकों से डूबते कर्ज़ को वसूलने का दबाव हट जाएगा| दूसरे बैंक नए ऋण देने पर ध्यान केन्द्रित कर पाएंगे| बैंकों को अपने डूबते कर्ज़ बैड बैंक को बेचने की सुविधा मिलेगी।
- डिफॉल्टर कंपनियों की संपत्ति बेचने के काम में तेज़ी आएगी| बैंक अधिकारी परिसंपत्तियों की ज़ब्ती की जगह बैंकिंग गतिविधियों को सुचारु ढंग से चला पाएंगे|
बासेल 3 की समय-सीमा में वृद्धि
- बैंकों की गैर-निष्पादित संपत्तियों (Non Performing Assets-NPA) के अस्वीकार्य स्तर (बहुत अधिक) पर पहुँचने की स्थिति को देखते हुए वित्त मंत्रालय, बैंकों में बासेल-3 नियमों को लागू करने की समय-सीमा को आगे बढ़ाने के पक्ष में है।
- वित्त मंत्रालय का कहना है कि बैंकों को इस समस्या से निपटने के लिये काफी पूंजी की आवश्यकता होगी।
- विदित हो कि रिज़र्व बैंक बासेल-3 पूंजी नियमनों को चरणबद्ध तरीके से लागू कर रहा है तथा इन नियमों को 31 मार्च, 2019 तक पूर्णतः लागू किया जाना है।
- बासेल-3 नियमों की समय-सीमा बढ़ा देने से बैंकों को अपनी पूंजी आवश्यकताओं को पूरा करने में मदद मिलेगी और उत्पादक क्षेत्रों को अधिक ऋण दिया जा सकेगा।
बैड बैंक से संबंधित समस्याएँ
- बैड बैंक की स्थापना में सबसे बड़ी समस्या बैंक में हिस्सेदारी को लेकर है| यह जानना दिलचस्प है कि समस्या निजी और सार्वजनिक दोनों ही क्षेत्रों के अधिकतम भागीदारी से है|
- यदि बैड बैंक में सरकार की हिस्सेदारी अधिक हो तो बैंकों की गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियाँ इतनी अधिक हो गई हैं कि बैड बैंक के माध्यम से इनकी खरीद पर सरकार को उल्लेखनीय व्यय करना पड़ सकता है|
- साथ ही, एक सरकारी बैड बैंक को उन्हीं समस्याओं का सामना करना पड़ेगा जिनका सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों के सन्दर्भ में कर रहे हैं|
- यदि बैड बैंक को निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया गया, तो सबसे बड़ी समस्या गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों के मूल्य को लेकर हो सकती है| निजी क्षेत्र का बैड बैंक अपने लाभ को ध्यान में रखते हुए गैर-निष्पादनकारी परिसंपत्तियों का मूल्य तय करेगा|
- यदि यह मूल्य बहुत अधिक हुआ, तो बैड बैंक का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा और यदि यह मूल्य बहुत ही कम हो गया, तो बैंकों को उनकी ऋण देयता के अनुपात में राशि नहीं मिल पाएगी|
इस समस्या का समाधान क्या हो सकता है?
आर्थिक विशेषज्ञों द्वारा इस समस्या के समाधान हेतु निम्नलिखित पक्षों पर ध्यान केंद्रित किया गया है-
- सर्वप्रथम, शीर्ष अधिकारियों की नियुक्ति और चयन व्यवस्था में बदलाव किये जाने की आवश्यकता है। इसके अंतर्गत कार्यकारी निदेशकों, बोर्ड के सदस्यों से लेकर अध्यक्ष तक सबके संदर्भ में बदलाव किये जाने की आवश्यकता है।
- इस परिवर्तन का आधार यह है कि शीर्ष स्तर पर मौजूद कोई भी व्यक्ति एक संगठन को बना भी सकता है और उसे तोड़ भी सकता है। शीर्ष प्रबंधन की गुणवत्ता पीएसबी की मुख्य समस्याओं में से एक है। इसका सबसे अहम् कारण यह है कि चयन प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप बहुत अधिक होता है, जिसके चलते एक निष्पक्ष चुनाव का विकल्प नहीं रह जाता है।
- ऐसे में होता यह है कि राजनीतिक दबाव की स्थिति में ऐसे अधिकारी बिना किसी उचित क्रेडिट मूल्यांकन के ही अग्रिम ऋण को मंज़ूरी दे देते हैं। ज़ाहिर सी बात है ऐसे बहुत से ऋण आगे चलकर एनपीए बन जाते हैं। हाल की बहुत सी घटनाओं में यह बात सामने आई है। स्पष्ट रूप से व्यावहारिक रूप से बैंकों में कोई जवाबदेही प्रणाली मौजूद नहीं है, जो एनपीए की समस्या को बढ़ावा देने में एक भूमिका निभाती है।
इंद्रधनुष योजना
- देश के सरकारी बैंकों की हालत सुधारने के लिये सरकार ने वर्ष 2015 में एक सात सूत्रीय इंद्रधनुष योजना बनाई थी।
- ‘इंद्रधनुष' योजना का उद्देश्य चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता लाना, एनपीए में कमी करना और बैंकों का प्रदर्शन सुधारना है।
- 'इंद्रधनुष' के अंतर्गत, पुनर्पूंजीकरण के उपाय किये जा रहे हैं और गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) को कम करने में मदद की जा रही है।
- ‘इंद्रधनुष’ के 7 सूत्र इस प्रकार हैं:
♦ नियुक्तियाँ।
♦ बैंक बोर्ड ब्यूरो।
♦ पूंजीकरण।
♦ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर दबाव हटाना।
♦ सशक्तीकरण।
♦ जवाबदेही की योजना बनाना।
♦ प्रशासनिक सुधार।
वरिष्ठ कर्मचारियों को आवश्यक ट्रेनिंग उपलब्ध कराना
- दूसरे कदम के तौर पर वरिष्ठ बैंक कर्मचारियों के लिये मूल्यांकन परियोजना के तहत, आवश्यक प्रशिक्षण सुनिश्चित किया जाना चाहिये। नियमित बैंकिंग परिचालन की अपेक्षा वित्तीय परियोजनाओं में विभिन्न तरह के कौशल की आवश्यकता होती है। विदित हो कि आईसीआईसीआई और आईडीबीआई जैसे विकास वित्तीय संस्थानों (development financial institutions) में दृढ़ परियोजना मूल्यांकन विभाग होते थे। बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय बैंकों में प्रत्येक उद्योग के लिये एक विशेष सेटअप होता है, जहाँ कर्मचारियों को लंबी अवधि के रुझानों और परियोजना की व्यवहार्यता का आकलन करने के लिये प्रशिक्षित किया जाता है।
- इसकी तुलना में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पास कौशल विकसित करने हेतु ऐसा कोई संस्थागत तंत्र होता ही नहीं है, स्पष्ट रूप से इससे दोनों प्रकार के वित्तीय संस्थानों की कार्यप्रणाली और प्रबंधन में अंतर स्पष्ट होता है। यही अंतर एनपीए जैसी बड़ी समस्याओं को आधार भी प्रदान करता है।
- यहाँ पर अधिकांश वित्त पोषण बैलेंस शीट के माध्यम से होता है जिसकी अपनी समस्याएँ होती हैं। कुछ मामलों में यह देखा गया है कि ऐसी शाखा प्रबंधक या अधिकारी, जिनका कॅरियर ज्यादातर शाखा स्तर पर ही आधारित या निर्भर होता है, वे बगैर किसी विशिष्ट जाँच-पड़ताल के बड़े ऋण को पास कर देते हैं। भले ही कितनी ही ईमानदारी और नेक नियति से काम का प्रबंधन किया जाए लेकिन आवश्यक कौशल के अभाव में ऋण को एनपीए में परिवर्तित से नहीं रोका जा सकता है। इसके लिये ज़रूरी है कि बैंकिंग व्यवस्था के प्रत्येक स्तर पर नियमित प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिये।
सतर्कता को सुदृढ़ बनाना
- तीसरा कदम सतर्कता विभागों को सुदृढ़ करने का होना चाहिये। वर्तमान समय में पीएसबी में कोई प्रभावी सतर्कता तंत्र मौजूद नहीं है।
- सतर्कता विभाग द्वारा केवल छोटे-छोटे मामलों के संदर्भ में कार्यवाही की जाती है, जहाँ कई मध्य-स्तर या जूनियर अधिकारियों को छोटी प्रक्रियात्मक चूक के लिये दंडित किया जाता है।
- लेकिन, इसके इतर भले ही शीर्ष अधिकारियों के स्तर पर कितनी बड़ी चूक क्यों न हुई हो, सतर्कता विभाग उनके संबंध में शायद ही कभी कोई रिपोर्ट दर्ज़ की जाती है।
- स्पष्ट रूप से सतर्कता विभाग को सुदृढ़ किये जाने की दिशा में कार्य किया जाना चाहिये, ताकि प्रबंधन के स्तर पर होने वाली चूक को समय रहते सुधारा जा सके और किसी बड़ी परेशानी से बचा जा सके।
समयबद्ध जाँच की व्यवस्था की जानी चाहिये
- इस संबंध में चौथा कदम समयबद्ध जाँच की व्यवस्था का होना चाहिये। बड़े स्तर पर एनपीए के कुछ मामले ऐसे भी जो सार्वजनिक डोमेन में हैं या जहाँ जान-बुझकर चूक किये जाने के प्रमाण मौजूद हैं, ऐसे मामलों को केंद्रीय जाँच ब्यूरो (Central Bureau of Investigation - CBI) को सौंप देना चाहिये, ताकि निष्पक्ष एवं समयबद्ध जाँच की जा सके।
- कई मामलों में ऐसा भी होता है, जहाँ बैंकों द्वारा कार्यवाही किये जाने में इतना अधिक समय लग जाता है कि या तो तब तक कई गवाह सेवानिवृत्त हो चुके होते हैं या फिर उनकी मृत्यु हो जाती है अथवा उस पूरे मामले को ही भुला दिया जाता है।
- यहाँ सबसे अधिक ज़रूरी है कि यह अनिवार्य कर देना चाहिये कि कोई भी मामला दो साल के भीतर समाप्त हो जाना चाहिये। असाधारण (अधिक जटिल मामलों) स्थितियों में, इस समय-सीमा को तीन साल तक बढ़ाया जा सकता है।
जवाबदेही को बढ़ाना
- पाँचवां, किसी भी पीएसबी का मालिकाना हक़ सरकार के पास होता है और इसके प्रबंधन में भी सरकार की भूमिका बहुत अहम् होती है। आम तौर पर, बैंक बोर्ड की मीटिंग्स में सरकार का प्रतिनिधित्व वित्त मंत्रालय के नौकरशाहों द्वारा किया जाता है।
- यह कोई अनिवार्य घटक नहीं है कि इन अधिकारियों के पास बैंकिंग व्यवस्था से संबंधित अनुभव या ज्ञान होना आवश्यक हो। ऐसे में इनके द्वारा लिये जाने वाले निर्णय और की जाने वाली कार्यवाही की जवाबदेहिता का प्रश्न बहुत अहम् हो जाता है।
- इसमें कोई दो राय नहीं है कि ये अधिकारी अद्भुत व्यक्तित्व के स्वामी हों अथवा दूसरे क्षेत्रों में अनुभव असाधारण रहा हो लेकिन, जब तक ये बैंकिंग और वित्तीय सेवाओं के विषय में प्राथमिक सबक सीखते हैं, तब तक या तो इनकी सेवा समाप्ति का समय हो जाता है या फिर इनका स्थानान्तरण हो जाता है।
प्रतिभूति हित प्रवर्तन एवं ऋणों की वसूली के कानून एवं विविध प्रावधान (संशोधन) कानून, 2016
- इस कानून के तहत, बैंकों को ऋण अदायगी नहीं किये जाने पर गिरवी रखी गई संपत्ति को कब्ज़े में लेने का अधिकार दिया गया है।
- खेती की ज़मीन को इस कानून के दायरे से बाहर रखा गया है। शिक्षा ऋण की अदायगी में हुई चूक को बट्टे खाते में नहीं डाला जाएगा तथा इसकी वसूली में ‘सहानुभूति का दृष्टिकोण’ अपनाया जाएगा।
- उपरोक्त कानून के ज़रिये चार मौज़ूदा कानूनों--प्रतिभूतिकरण एवं वित्तीय संपत्तियों के पुनर्गठन एवं प्रतिभूति हित प्रवर्तन अधिनियम 2002 (सरफेसी कानून), ऋण वसूली न्यायाधिकरण अधिनियम 1993, भारतीय स्टांप शुल्क अधिनियम, 1899 और डिपॉजिटरी अधिनियम 1996 के कुछ प्रावधानों में संशोधन किये गए हैं, ताकि ऋण वसूली की व्यवस्था को और कारगर बनाया जा सके।
अन्य महत्त्वपूर्ण उपाय क्या हो सकते हैं?
- स्पष्ट रूप से सिस्टम को बदलने की ज़रूरत है। इसका एक तरीका यह हो सकता है कि मंत्रालय के अंतर्गत अधिकारियों को नियुक्त करने और उन्हें बैंकिंग एवं वित्तीय सेवाओं में प्रशिक्षण प्रदान करने का एक व्यवस्थित तरीका होना चाहिये।
- इसके अतिरिक्त बैंकिंग व्यवस्था के तहत, पेशेवरों को शामिल किये जाने पर बल दिया जाना चाहिये, ताकि बैंकिंग कार्यप्रणाली में आवश्यक विशेषज्ञता को निहित किया जा सके।
- अंत में नियामक के रूप में भारतीय रिज़र्व बैंक को प्रमुख भूमिका निभानी होगी। स्पष्ट रूप से यह किसी भी धोखाधड़ी की घटना के तुरंत बाद कुछ निश्चित उपायों की घोषणा करके अपनी नियामकीय ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकता है।
- जब कभी जमाकर्त्ताओं के पैसे की सुरक्षा की बात आती है, तो आरबीआई के पास बैंक बोर्ड को बदलने संबंधी पर्याप्त शक्तियाँ मौजूद हैं। अत: इस समस्या के संदर्भ में आरबीआई की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिये आगे की राह
- भारत को दीर्घावधि में सार्वजनिक बैंकों का निजीकरण कर देना चाहिये। हालाँकि, यह कदम आसान नहीं होगा। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि एक विशाल निजी बैंकिंग प्रणाली होने की पूर्व शर्त यह है कि बैंकिंग नियमन में राज्य की सक्षमता है।
- इस संदर्भ में देश की वर्तमान स्थिति और आवश्यकताओं को मद्देनज़र रखते हुए तीन बिंदुओं पर विशेष रूप से ध्यान देने की ज़रूरत है।
- सर्वप्रथम, जहाँ सार्वजनिक बैंकों के पास इक्विटी पूंजी की किल्लत है वहीं उन्हें सरकार का समर्थन भी हासिल है। जिसके परिणामस्वरुप उनके पास कारोबार की कमी नहीं है।
- ग्राहक सार्वजनिक बैंकों पर सरकार पर उनके विश्वास की मन माकिफ भरोसा करते हैं। इन भरोसे के दम पर ही ग्राहकों से मिलने वाले सस्ते जमा के तौर पर बैंकों को भारी मात्रा में सब्सिडी प्राप्त होती है।
- दूसरा, निजी बैंकों की अपेक्षा सार्वजनिक बैंकों की संगठनात्मक क्षमताएँ काफी भिन्न होती हैं। उदाहरण के तौर पर भारतीय स्टेट बैंक का संचालन काफी बेहतर तरीके से होता है, यही कारण है कि वह निजी क्षेत्र के बैंकों से भी बेहतर कार्य करता है। वहीं दूसरी ओर बहुत से ऐसे भी बैंक हैं, जिनकी प्रबंधन प्रणाली बेहद जीर्ण है।
- तीसरा, सार्वजनिक बैंकों की तरफ से कंपनियों को दिये गए ऋण के बकाया पर काफी ध्यान दिया जा रहा है, लेकिन ये आँकड़े पुराने कर्ज़ के भुगतान और नए कर्ज़ के आवंटन के चक्र से निर्धारित किये जा रहे हैं। स्पष्ट रूप से इस संबंध में प्रभावी कार्यवाही किये जाने की आवश्यकता है।
- सरकारी एजेंसियों सीबीआई, सीवीसी और सीएजी की कार्य प्रक्रियाओं में भी महत्त्वपूर्ण बदलाव किये जाने चाहिये ताकि वर्तमान आवश्यकताओं के संदर्भ में सार्वजनिक बैंक की कार्यप्रणाली एवं प्रबंधन व्यवस्था को और अधिक कारगर बनाया जा सके।
- निम्न क्षमता वाले सार्वजनिक बैंक के संदर्भ में यह व्यवस्था की जानी चाहिये कि वह अपने बकाया कर्ज़ को खुली नीलामी के ज़रिये बेच सके।
- इसके लिये परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनियों (एआरसी) के विशेष दर्जे को खत्म करना बेहद ज़रूरी है, ऐसा इसलिये ताकि कोई भी वित्तीय निवेशक इन परिसंपत्तियों की खरीद के लिये समान स्तर पर बोली लगा सके।
- इसके अतिरिक्त, निजी इक्विटी फंड और ऋणग्रस्त परिसंपत्ति फंडों का एक बड़ा पूल तैयार किया जाना चाहिये, ताकि इन बॉन्ड या बकाया कर्जों की खरीद में प्रतिस्पर्द्धा का माहौल तैयार किया जा सके। इससे सार्वजनिक बैंकों की मूल्य वसूली और अधिक बेहतर हो सकेगी।
- अब सवाल यह उठता है कि उन कंपनियों के संदर्भ में बैंकों की क्या नीति होनी चाहिये जिनके द्वारा कर्ज़ भुगतान में किसी प्रकार की कोई चूक नहीं की गई है? इसके काम के लिये बैंकों द्वारा कंपनियों के खाते संबंधी आँकड़ों के आधार पर नियम बनाते हुए उन्हें कर्ज़दारों की सशक्त एवं अशक्त श्रेणी में बाँटा जाना चाहिये।
निष्कर्ष
भारत की बैंकिंग प्रणाली ऐसी चुनौती भरी पृष्ठभूमि में अपेक्षाकृत लंबे समय से कार्य कर रही है, जिसके कारण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की आस्ति गुणवत्ता, पूंजी पर्याप्तता तथा लाभ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। इनके मद्देनज़र सरकार सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में वैश्विक जोखिम मानदंडों के अनुरूप उनकी पूंजी ज़रूरतों को पूरा करने और क्रेडिट ग्रोथ को बढ़ावा देने के लिये पूंजी लगा रही है। लेकिन एनपीए का स्तर 7 लाख करोड़ रुपए से अधिक हो जाने के कारण चिंता होना स्वाभाविक है, क्योंकि इतनी बड़ी राशि किसी काम की नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि एनपीए को कम करने का उपाय उसके मर्ज़ में छिपा है। बैंक में व्याप्त अंदरूनी तथा अन्य खामियों का इलाज, बैंक के कार्यकलापों में बेवज़ह दखलंदाज़ी पर रोक, मानव संसाधन में बढ़ोतरी आदि की मदद से बढ़ते एनपीए पर निश्चित रूप से काबू पाया जा सकता है।