डेली न्यूज़ (26 Sep, 2024)



साक्षी संरक्षण हेतु समर्पित कानून की आवश्यकता

प्रारंभिक परीक्षा के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, साक्षी संरक्षण योजना 2018, ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश, कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (CSR), अनुच्छेद 142, ड्रग्स एवं अपराध पर संयुक्त राष्ट्र कार्यालय (UNODC), मलिमथ समिति (2003), व्हिसल ब्लोअर संरक्षण अधिनियम, 2011, भूल जाने का अधिकार

मुख्य परीक्षा के लिये:

आपराधिक न्याय प्रणाली के सुचारू संचालन हेतु एक समर्पित साक्षी संरक्षण कानून की आवश्यकता है।

स्रोत: पी.टी.आई

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने साक्षी संरक्षण योजना, 2018 के प्रभावी कार्यान्वयन न होने पर चिंता व्यक्त करते हुए एक समर्पित साक्षी संरक्षण कानून की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।

न्यायालय ने यह टिप्पणी एक मामले में CBI जाँच का आदेश देते हुए की, जिसमें याचिकाकर्त्ता ने अपील दायर करने से मना कर दिया था और दावा किया था कि उसने न्यायालय में मौजूद वकीलों में से किसी को भी कभी नियुक्त नहीं किया था।

साक्षी संरक्षण योजना, 2018 के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं? 

  • परिचय: यह आपराधिक मामलों में शामिल गवाहों की सुरक्षा के लिये गृह मंत्रालय द्वारा विकसित एक विधिक ढाँचा है।
    • इसे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित किया गया और यह गवाहों को धमकी, भय या क्षति से बचाने के उद्देश्य से बनाई गई पहली योजना है।
    • इसके सुरक्षा उपायों में गवाह/साक्षी की पहचान बदलना, स्थानांतरण करना, सुरक्षा उपकरण लगाना और सुनवाई के दौरान गवाहों की सुरक्षा के लिये विशेष रूप से डिज़ाइन किये गए न्यायालय कक्षों का उपयोग करना शामिल है।
  • गवाह की परिभाषा: गवाह ऐसा व्यक्ति होता है जो न्यायाधिकरण के समक्ष साक्ष्य प्रस्तुत करता है या गवाही देता है।
    • आपराधिक न्याय प्रणाली के सुचारू रूप से कार्य करने हेतु गवाहों की स्वतंत्र एवं निष्पक्ष गवाही महत्त्वपूर्ण है।
    • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC या भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) में "गवाह" शब्द को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है लेकिन न्यायालय किसी भी व्यक्ति को गवाह के रूप में बुला सकता है, यदि उसका साक्ष्य किसी मामले के निर्णय के लिये आवश्यक हो। 
      • रितेश सिन्हा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सामान्य व्याकरणिक अर्थ में गवाह होने का अर्थ न्यायालय में मौखिक गवाही देना है।
  • गवाहों की श्रेणियाँ: थ्रेट मूल्यांकन रिपोर्ट (TAR) के अनुसार, गवाहों की तीन श्रेणियाँ हैं: 
    • श्रेणी 'A': गवाह या उसके परिवार के सदस्यों के जीवन को खतरा।
    • श्रेणी 'B': गवाह या उसके परिवार के सदस्यों की सुरक्षा, प्रतिष्ठा, संपत्ति को खतरा।
    • श्रेणी 'C': सामान्य धमकी जिससे गवाह या उसके परिवार के सदस्यों की प्रतिष्ठा या संपत्ति को खतरा हो।
  • योजना के लक्ष्य और उद्देश्य: इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि गवाहों को डराया या धमकाया न जाए, जिससे अपराधों की जाँच, अभियोजन या मुकदमे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
    • इसका उद्देश्य न्याय प्रणाली में अनुचित हस्तक्षेप के साथ गवाहों को धमकी से बचाने के लिये कानून प्रवर्तन को बढ़ावा देना है।
  • साक्षी संरक्षण के लिये सक्षम प्राधिकारी: सक्षम प्राधिकारी का आशय प्रत्येक ज़िले में स्थापित एक स्थायी समिति है, जिसकी अध्यक्षता ज़िला एवं सत्र न्यायाधीश करते हैं तथा ज़िला पुलिस प्रमुख और ज़िला अभियोजन अधिकारी इसके सदस्य होते हैं।
    • यह समिति अपने अधिकार क्षेत्र में साक्षी संरक्षण उपायों की देखरेख के लिये ज़िम्मेदार है।
  • राज्य साक्षी संरक्षण निधि: संरक्षण आदेशों के कार्यान्वयन में होने वाले व्यय को कवर करने के लिये राज्य साक्षी संरक्षण निधि की स्थापना की गई है।
  • सुरक्षा उपायों के प्रकार: सुरक्षा उपाय खतरे के स्तर पर निर्भर करते हैं और उनकी नियमित रूप से समीक्षा की जाती है। 
    • जाँच या परीक्षण के दौरान गवाह और अभियुक्त के बीच आमने-सामने संपर्क को रोकना।
  • गवाह का फोन नंबर बदलना या उनके निवास पर सुरक्षा उपकरण लगाना।
    • गवाह की पहचान छिपाना, एस्कॉर्ट उपलब्ध कराना, बंद कमरे में सुनवाई करना तथा विशेष रूप से डिज़ाइन किये गए न्यायालयों में सुनवाई करना।
    • अन्य विशिष्ट सुरक्षा उपायों का अनुरोध गवाह द्वारा किया जा सकता है या सक्षम प्राधिकारी द्वारा आवश्यक उपायों को अपनाया जा सकता है।
  • व्यय की समीक्षा और वसूली: यदि किसी गवाह ने झूठी शिकायत दर्ज कराई है तो राज्य सरकार उसकी सुरक्षा पर किये गए व्यय की वसूली कर सकती है।
  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा समर्थन: सर्वोच्च न्यायालय ने महेंद्र चावला एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य मामला, 2018 में साक्षी संरक्षण योजना का समर्थन किया तथा निर्देश दिया कि इसे सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों द्वारा लागू किया जाए।
  • न्यायालय ने फैसला सुनाया कि इस योजना को संविधान के अनुच्छेद 141 और 142 के तहत तब तक “विधि” माना जाना चाहिये जब तक कि इसके लिये औपचारिक कानून नहीं बन जाता है।
  • अनुच्छेद 141 में कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा घोषित कानून भारत के राज्यक्षेत्र के तहत सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी होगा।
  • अनुच्छेद 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय को अपने समक्ष किसी भी मामले या विषय के संबंध में पूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के क्रम में आदेश या डिक्री पारित करने की शक्ति प्राप्त है।

साक्षी संरक्षण योजना अप्रभावी क्यों है?

  • संरक्षित अपराधों की संकीर्ण परिभाषा: इस योजना में मृत्यु या आजीवन कारावास जैसे दंडनीय अपराधों के साथ महिलाओं के विरुद्ध विशिष्ट अपराधों से संबंधित गवाहों तक संरक्षण प्रक्रिया को सीमित किया गया है।
    • इसमें कई अन्य अपराधों को शामिल नहीं किया गया है जिससे गवाहों को जोखिम हो सकता है।
  • गवाहों के वर्गीकरण से संबंधित मुद्दे: इसमें गवाहों को श्रेणी A (प्रत्यक्ष खतरा), श्रेणी B (सुरक्षा के लिये खतरा) और श्रेणी C (मध्यम खतरा) में वर्गीकृत करने में वस्तुनिष्ठ मानदंडों का अभाव है और यह विधि प्रवर्तन अधिकारियों के व्यक्तिपरक निर्णय पर निर्भर करता है, जिससे खतरे के वास्तविक स्तर का सटीक आकलन नहीं भी हो सकता है।
  • खतरा आकलन रिपोर्ट संबंधी चिंताएँ: प्रशिक्षित पुलिस अधिकारियों की खतरे की धारणा एवं सामान्य नागरिकों की वास्तविकताओं के बीच विसंगति होने के कारण गवाहों के समक्ष आने वाले खतरों को कम करके देखा जा सकता है।
  • गवाहों द्वारा दी जाने वाली जानकारी की गोपनीयता: यह योजना गोपनीयता के उल्लंघन से बचाने के लिये प्रवर्तन तंत्र प्रदान करने में विफल रही है। भारतीय विधिक प्रणाली की अप्रभाविता से गोपनीयता के उल्लंघन का जोखिम बना रहता है, जिससे गवाहों को अनिश्चित परिस्थितियों में रहना पड़ता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय मानकों के साथ तुलना: अंतर्राष्ट्रीय ढाँचे (जिनमें ड्रग्स और अपराध पर संयुक्त राष्ट्र कार्यालय' (UNODC) के ढाँचे भी शामिल हैं) के तहत गवाहों के मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य एवं उनकी गवाही के महत्त्व पर विचार करते हुए उनके व्यापक मूल्यांकन पर बल दिया गया है।
    • इस योजना का प्रमुख बल केवल खतरों पर केंद्रित है तथा इसमें जोखिम मूल्यांकन के महत्त्वपूर्ण पहलू की अनदेखी की गई है।

समर्पित साक्षी संरक्षण कानून की आवश्यकता क्यों है?

  • "न्यायिक प्रणाली की आँख और कान" के रूप में गवाह: दार्शनिक और विधिवेत्ता जेरेमी बेन्थम ने कहा था कि "गवाह न्यायिक प्रणाली की आँख और कान हैं"।
    • गवाहों की सुरक्षा के लिये विधिक दायित्वों के अभाव से न्यायिक प्रणाली के साथ राज्य के सहयोग की अनिच्छा प्रदर्शित होती है।
    • सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ: गुजरात राज्य बनाम अनिरुद्ध सिंह मामले, 1997 में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि प्रत्येक गवाह का (जिसे किसी अपराध की जानकारी है) यह वैधानिक कर्त्तव्य है कि वह साक्ष्य उपलब्ध कराने के माध्यम से राज्य की सहायता करे।
      • ज़ाहिरा हबीबुल्ला एच. शेख बनाम गुजरात राज्य मामले, 2004 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यदि गवाहों को धमकाया जाता है या झूठी गवाही देने के लिये मजबूर किया जाता है तो इससे निष्पक्ष सुनवाई से समझौता होता है।
    • समिति की सिफारिशें: आपराधिक न्याय संबंधी सुधार पर मलिमथ समिति (2003) ने दोहराया कि साक्ष्य देना एक पवित्र कर्त्तव्य है क्योंकि इससे न्यायालय को सच का पता लगाने में मदद मिलती है।
      • राष्ट्रीय पुलिस आयोग की चतुर्थ रिपोर्ट, 1980 में कहा गया कि अभियुक्त के दबाव में गवाह अक्सर अपने बयान से पलट जाते हैं जिससे न्यायिक प्रणाली की अखंडता को बनाए रखने के लिये एक मज़बूत साक्षी संरक्षण कानून की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश पड़ता है।
  • विधि आयोग की रिपोर्ट: विधि आयोग की 154 वीं, 178 वीं और 198 वीं रिपोर्टों में साक्षी संरक्षण मुद्दे पर चर्चा की गई और औपचारिक साक्षी संरक्षण कार्यक्रम की शुरुआत की सिफारिश की गई।
  • विधि आयोग की 198 वीं रिपोर्ट, विशेष रूप से साक्षी पहचान संरक्षण और साक्षी संरक्षण कार्यक्रम, 2006 को समर्पित थी।
  • अपर्याप्त संरक्षण: भारतीय दंड संहिता (भारतीय न्याय संहिता) की धारा 195A, किशोर न्याय अधिनियम (2015), पोक्सो अधिनियम (2012) और व्हिसल ब्लोअर्स संरक्षण अधिनियम, 2011 गवाहों के लिये सुरक्षा उपाय प्रदान करते हैं लेकिन यह समय के साथ अपर्याप्त साबित हुए हैं।
  • उग्रवाद और संगठित अपराध: उग्रवाद, आतंकवाद और संगठित अपराध के बढ़ने से गवाहों की सुरक्षा की आवश्यकता बढ़ गई है क्योंकि विधि प्रवर्तन के लिये उनका सहयोग महत्त्वपूर्ण है। 

निष्कर्ष

भारत में साक्षी सुरक्षा उपाय अपर्याप्त हैं। साक्षी सुरक्षा योजना, 2018 इस दिशा में सराहनीय कदम है। विशेष इकाइयों के साथ एक स्तरीय मॉडल से इस दिशा में प्रभावशीलता को बढ़ावा मिल सकता है। भूल जाने के अधिकार को एकीकृत करने से गवाहों की व्यक्तिगत जानकारी की रक्षा हो सकती है जिससे न्यायिक प्रक्रिया में उनके अधिकार एवं सुरक्षा को सुनिश्चित किया जा सकता है। इसके आधार पर न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता को बनाए रखने के लिये एक व्यापक साक्षी सुरक्षा कानून बनाया जाना चाहिये।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: साक्षी संरक्षण योजना, 2018 की सीमाओं का आलोचनात्मक विश्लेषण करते हुए एक समर्पित साक्षी संरक्षण कानून की आवश्यकता पर विचार कीजिये।



हिमालयी क्षेत्र में प्लास्टिक अपशिष्ट संकट

प्रिलिम्स के लिये:

हिमालयी क्षेत्र, विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व, बहुपरतीय प्लास्टिक, माइक्रोप्लास्टिक, सिंधु, गंगा, ग्रेटर एडजुटेंट स्टॉर्क, लैंडफिल

मेन्स के लिये:

ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016, प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016, हिमालयी क्षेत्र में प्लास्टिक अपशिष्ट संकट: चुनौतियाँ, परिणाम और स्थायी समाधान

स्रोत: डी.टी.ई.

चर्चा में क्यों?

हिमालयी क्षेत्र, जो अपने स्वच्छ पर्यावरण के लिये जाना जाता है, प्लास्टिक अपशिष्ट के बढ़ते संकट का सामना कर रहा है। वर्ष 2018 से, “हिमालयन क्लीनअप (THC)” अभियान में कचरे की सफाई करने और इसके स्रोतों का पता लगाने के लिये एकत्रित किये गए अपशिष्ट का ऑडिट करने के लिये प्रत्येक वर्ष स्वयंसेवक शामिल होते रहे हैं। 

  • इस मुद्दे के समाधान के रूप में एक महत्त्वपूर्ण कार्य, अपशिष्ट को कम करने और स्वच्छता संबंधी स्थानीय प्रयासों का समर्थन करने हेतु सतत् प्रथाओं को अपनाने के लिये प्रोत्साहित करते हुए विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) का क्रियान्वन करना है, जिससे निर्माताओं का उनके उत्पादों के जीवनचक्र पर उत्तरदायित्व सुनिश्चित होगा।

नोट: हिमालयन क्लीनअप (THC) पर्वतीय क्षेत्रों में प्लास्टिक प्रदूषण के समाधान से संबोधित सबसे बड़ा अभियान है। प्रत्येक वर्ष, THC शीर्ष प्रदूषणकारी कंपनियों की पहचान करता है और उनका उत्तरदायित्व सुनिश्चित कराने की मांग करता है। यह अभियान व्यक्तियों, संगठनों, अपशिष्ट प्रबंधकों और नीति निर्माताओं को प्लास्टिक अपशिष्ट संकट का समाधान करने हेतु कार्रवाई करने के लिये प्रोत्साहित करता है।

हिमालयी क्षेत्र में प्लास्टिक अपशिष्ट संकट का स्तर क्या है?

  • अपशिष्ट उत्पादन: हिमालय में ठोस अपशिष्ट उत्पादन (SWG) विभिन्न कारकों जैसे शहरीकरण, पर्यटन और घरेलू आय के स्तर के आधार पर भिन्न-भिन्न है।  
    • अपशिष्ट का एक बड़ा हिस्सा घरों, बाज़ारों और होटलों से आता है जो जैव निम्‍नीकरणीय है। किंतु पर्यटन क्षेत्रों में प्लास्टिक अपशिष्ट सर्वाधिक है।
    • पर्यटन स्थलों पर काफी मात्रा में प्लास्टिक अपशिष्ट एकत्र होता है। ये पारिस्थितिकी तंत्र महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन फिर भी हिमालयी क्षेत्र में अपशिष्ट प्रबंधन अपर्याप्त बना हुआ है।
  • प्लास्टिक अपशिष्ट: प्लास्टिक प्रदूषण पर्वतीय क्षेत्रों के सुदूर भागों तक विस्तृत हो चुका है, जहाँ से अपशिष्ट का पुनर्चक्रण या निपटान करने के लिये उसे वापस लाने की कोई व्यवस्था नहीं है।
    • कुल एकत्रित प्लास्टिक अपशिष्ट में से केवल 25% ही पॉलीइथिलीन टेरेफ्थेलेट (PET), उच्च घनत्व पॉलीइथिलीन (HDPE) और निम्न घनत्व पॉलीइथिलीन (LDPE) से निर्मित थे, जिन्हें पुनर्चक्रण योग्य के रूप में वर्गीकृत किया गया, जबकि अधिकांश (75%) गैर-पुनर्चक्रण योग्य है। संबंधित क्षेत्र में एक अन्य चुनौती बहुपरतीय प्लास्टिक (MLP) की है क्योंकि ये गैर-पुनर्चक्रण योग्य हैं और उनका प्रबंधन करना कठिन है।
    • बड़े प्लास्टिक वस्तुओं के विघटन से निर्मित माइक्रोप्लास्टिक हिमालय के ग्लेशियर, नदियों, झीलों और साथ ही मानव ऊतकों में भी पाए गए हैं।
    • प्लास्टिक अपशिष्ट में सबसे बड़ी भूमिका शीर्ष खाद्य ब्रांडों, धूम्रपान और तम्बाकू ब्रांडों, तथा पर्सनल केयर उत्पादों से उत्पन्न प्लास्टिक की है।

नोट: भारत विश्व में प्लास्टिक प्रदूषण में सबसे बड़ा योगदान देने वाले देशों में से एक है, जहाँ वर्ष में लगभग 9.3 मिलियन टन प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पन्न होता है। यह आँकड़ा कुल अपशिष्ट का लगभग 20% है।

  • शहरीकरण में तीव्रता, जनसंख्या वृद्धि और आर्थिक विकास के कारण एकल-उपयोग प्लास्टिक और पैकेजिंग सामग्री का उपयोग बढ़ गया है।
  • स्विस गैर-लाभकारी संस्था EA अर्थ एक्शन की रिपोर्ट के अनुसार विश्व के कुल कुप्रबंधित प्लास्टिक अपशिष्ट में भारत का अन्य 11 देशों के साथ 60% का योगदान है। 
    • EA की रिपोर्ट के अनुसार, कुप्रबंधित अपशिष्ट सूचकांक (MWI) 2023 में भारत का स्थान चौथा है, जहाँ उत्पन्न अपशिष्ट का 98.55% कुप्रबंधित है और प्लास्टिक अपशिष्ट के प्रबंधन में इसका प्रदर्शन निम्न है।
      • MWI कुप्रबंधित अपशिष्ट और कुल अपशिष्ट का अनुपात है।

भारत का हिमालयी क्षेत्र

  • इसका आशय भारत के उस पर्वतीय क्षेत्र से है जिसमें देश का संपूर्ण हिमालय पर्वतमाला शामिल है। यह जम्मू-कश्मीर में भारत के उत्तर-पश्चिमी भाग से लेकर भूटान, नेपाल और तिब्बत (चीन) जैसे देशों की सीमा पर स्थित पूर्वोत्तर राज्यों तक विस्तृत है।
  • भारत का हिमालयी क्षेत्र भारत के 13 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों (अर्थात् जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नगालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल) में 2500 किलोमीटर में विस्तृत है। 

प्लास्टिक अपशिष्ट कुप्रबंधन के परिणाम क्या हैं?

  • पर्यावरण क्षरण: अपशिष्ट को खुले में फेंकने से न केवल पर्वतों की प्राकृतिक सुंदरता प्रभावित होती है, बल्कि वायु और मृदा प्रदूषण भी बढ़ता है तथा पर्वतीय ढालों में अस्थिरता आती है।
  • जल स्रोतों पर प्रभाव: हिमालय क्षेत्र सिंधु, गंगाऔर ब्रह्मपुत्र जैसी प्रमुख भारतीय नदियों की जल आपूर्ति के लिये महत्त्वपूर्ण है। अवैज्ञानिक रीति से प्लास्टिक अपशिष्ट का निपटान इन जल स्रोतों को प्रदूषित कर रहा है और जैवविविधता को नुकसान पहुँचा रहा है।
  • जैवविविधता के समक्ष खतरा: असम में पाए जाने वाले ग्रेटर एडजुटेंट स्टॉर्क जैसे वन्यजीव अपने प्राकृतिक आहार के बजाय प्लास्टिक अपशिष्ट का भक्षण करने हेतु विवश हैं।
  • लोक स्वास्थ्य का जोखिम: लैंडफिल में मिश्रित अपशिष्ट से होने वाला प्रदूषण स्थानीय समुदायों के लिये स्वास्थ्य जोखिम उत्पन्न करता है और पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करता है।

हिमालय में अपशिष्ट प्रबंधन से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?

  • असमतल भूभाग और जलवायु: सुदूर और असमतल भूभाग तथा विषम जलवायु परिस्थितियाँ, अपशिष्ट संग्रहण और निपटान को शहरी क्षेत्रों की तुलना में अधिक चुनौतीपूर्ण बना देती हैं।
    • हिमालयी राज्यों में अपशिष्ट उत्पन्न होने के स्रोत पर ही अपशिष्ट का पृथक्करण, संग्रहण और अपशिष्ट परिवहन प्रमुख चुनौतियाँ बनी हुई हैं।
    • अधिकांश अपशिष्ट को एकत्र कर लैंडफिल में डाल दिया जाता है या नीचे की ओर लुढ़का दिया जाता है, जिससे प्रदूषण की समस्या और भी गंभीर हो जाती है।
  • सीमित अवसंरचना: अपशिष्ट उपचार और निपटान के लिये भूमि की उपलब्धता सीमित है और ठोस अपशिष्ट प्रबंधन के लिये अवसंरचना प्रायः या तो अपर्याप्त होती है या इसका अभाव होता है।
    • केंद्रीकृत डम्पिंग की प्रथा वर्तमान में भी व्यापक है तथा रीसाइक्लिंग के लिये बुनियादी ढाँचे का अभाव है।
  • विनियमन और आँकड़ो का अभाव: हिमालयी आवासों में  उत्पन्न अपशिष्ट की मात्रा और प्रकार के बारे में उपलब्ध आँकड़े अपर्याप्त हैं, जिससे अपशिष्ट का प्रभावी प्रबंधन करना कठिन हो जाता है।
  • जागरूकता का अभाव: स्थानीय समुदाय अपशिष्ट प्रबंधन और पर्यावरणीय स्वास्थ्य के बीच संबंध से अवगत हैं किंतु उचित निपटान प्रथाओं के बारे में उन्हें ज्ञान का अभाव है। 

हिमालयी क्षेत्र में EPR के संबंध में चिंताएँ क्या हैं?

  • सीमित क्रियान्वयन: प्लास्टिक प्रदूषण से निपटने के लिये अपेक्षित EPR ढाँचे का हिमालयी राज्यों में न्यूनतम क्रियान्वयन हुआ है। स्थानीय निकाय EPR के बारे में पूर्ण रूप से जागरूक नहीं हैं, जिससे प्रभावी संचालन में बाधा आती है।
  • स्थानीय संदर्भ की अमान्यता: वर्तमान EPR नियमों में पर्वतीय समुदायों की विशिष्ट आवश्यकताओं और स्थितियों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है तथा जनसंख्या घनत्व, स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं और पर्यावरणीय संधारणीयता जैसे कारकों की अनदेखी की गई है
    • सभी के लिये एक समान दृष्टिकोण अपनाने से हिमालय में व्याप्त पारिस्थितिक महत्त्व और चुनौतियों को पहचानने में असफलता मिलती है।
  • भौगोलिक चुनौतियाँ: पर्वतीय भूभाग अपशिष्ट संग्रहण, एकत्रीकरण और परिवहन में अद्वितीय चुनौतियाँ प्रस्तुत करता है, जिससे पारंपरिक EPR मॉडल का क्रियान्वन कठिन हो जाता है।
    • दुर्गम क्षेत्रों में अपशिष्ट प्रबंधन की समस्याएँ बढ़ जाती हैं, जिससे अपशिष्ट की मात्रा बढ़ जाती है।
  • अपर्याप्त उत्पादक उत्तरदायित्व: अपशिष्ट प्रबंधन के दायित्व का निर्वहन बड़े पैमाने पर उपभोक्ताओं और अपशिष्ट प्रबंधकों को करना पड़ा है तथा उत्पादकों को उनके उत्पादों के जीवनचक्र के लिये पर्याप्त रूप से उत्तरदायी नहीं ठहराया जाता है।
    • उत्पादकों का उनके उत्पादों से उत्पन्न अपशिष्ट हेतु उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने हेतु समर्थित तंत्र का निरंतर अभाव है, विशेष रूप से दूरवर्ती क्षेत्रों में।

हिमालयी क्षेत्र में अपशिष्ट प्रबंधन हेतु विधिक अधिदेश

  • राष्ट्रीय विनियामक ढाँचा: भारत में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन (SWM) नियम 2016, प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन (PWM) नियम 2016 और विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (EPR) 2022 प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन के लिये ढाँचा तैयार करते हैं।
  • पहाड़ी क्षेत्रों की स्वीकृति: SWM में पहाड़ी क्षेत्रों की विशेष आवश्यकताओं को मान्यता दी गई है लेकिन स्थानीय निकायों और उत्पादकों, आयातकों और ब्रांड मालिकों (PIBO) से संबंधित अधिदेशों में यह पर्याप्त रूप से प्रतिबिंबित नहीं होता है।
  • राज्य विशिष्ट पहल और नियामक प्रयास:
    • हिमाचल प्रदेश: राज्य ने 2019 में कुछ प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाते हुए कुछ राज्य कानून बनाए और गैर-पुनर्चक्रणीय और एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक के लिये बायबैक नीति की पेशकश की, हालाँकि समस्या अभी भी बनी हुई है।
    • सिक्किम: जनवरी 2022 में पैकेज्ड मिनरल वाटर पर प्रतिबंध लगा दिया गया और एक मज़बूत नियामक प्रणाली विकसित की गई किंतु फिर भी राज्य में प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन के लिये बुनियादी ढाँचा अपर्याप्त है।
    • त्रिपुरा: एकल-उपयोग प्लास्टिक से निपटने के लिये नगरपालिका उप-नियम बनाए गए तथा राज्य स्तरीय टास्क फोर्स का गठन किया गया किंतु इनके परिणाम सीमित रहे।

आगे की राह 

  • EPR नियमों का स्थानीय अनुकूलन: पर्वतीय क्षेत्रों में अपशिष्ट प्रबंधन की विशिष्ट चुनौतियों के अनुरूप विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व नियम (2022 ) को संशोधित करने की आवश्यकता है।
    • EPR विनियमों के विकास और प्रवर्तन में स्थानीय निकायों को शामिल करना आवश्यक है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वे व्यावहारिक और प्रभावी हों। निर्माताओं को सतत् प्रथाओं को अपनाने और उनकी पैकेजिंग तथा अपशिष्ट की उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने हेतु उन्हें प्रोत्साहन प्रदान किया जाना चाहिये।
  • ज़ोनिंग विनियमन का क्रियान्वन: राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) द्वारा नैनीताल को निषिद्ध, विनियमित और विकास क्षेत्रों में वर्गीकृत करने के समान, हिमालयी क्षेत्र को निर्दिष्ट क्षेत्रों की स्थापना करनी चाहिये जो पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने और उत्तरदायित्वपुर्ण विकास को बढ़ावा देने के लिये अनुमेय गतिविधियों की सीमा निर्धारित करते हों।
  • पर्वतीय समुदायों का सशक्तीकरण: हिमालय में अपशिष्ट संकट से निपटने के लिये, प्लास्टिक अपशिष्ट उत्पन्न करने वाले पैकेज्ड सामानों पर निर्भरता को कम करने के लिये स्थानीय कृषि को प्रोत्साहित करना महत्त्वपूर्ण है। समुदाय समर्थित कृषि (CSA) उपभोक्ताओं और स्थानीय किसानों के बीच साझेदारी को बढ़ावा दे सकती है, जिससे ताज़ी उपज तक पहुँच में सुधर हो सकता है। 
    • इसके अतिरिक्त, शैक्षिक पहलों से समुदायों को प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों का उपयोग करने के बजाय स्थानीय खाद्य पदार्थों के लाभों के बारे में जानकारी दी जा सकती है, जिससे प्रभावी अपशिष्ट प्रबंधन और समग्र कल्याण को बढ़ावा मिलेगा।
  • चरणबद्ध कार्यान्वयन: एक व्यवस्थित, बहुस्तरीय दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जिसमें सरकार और साझेदार ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में संस्थागत क्षमता, नीति निर्माण, प्रवर्तन और तकनीकी प्रगति का प्रबंधन करें।
  • बेहतर डेटा संग्रहण: पर्वतीय क्षेत्रों में अपशिष्ट उत्पादन और प्रबंधन पर पर्याप्त डेटा, बाधाओं को दूर करने और प्रभावी समाधान तैयार करने के लिये आवश्यक है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाएँ: दक्षिण कोरिया द्वारा नानजीदो द्वीप के अपशिष्ट के ढेर को इको-पार्क में परिवर्तित करने जैसे मामले के अध्ययन से हिमालय में पारिस्थितिकी-पुनर्स्थापना और बेहतर SWM प्रथाओं के लिये रणनीतियों को प्रेरणा मिल सकती है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: हिमालयी क्षेत्र में जैवविविधता और लोक स्वास्थ्य पर प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन प्रथाओं के प्रभाव पर चर्चा कीजिये। यह किस प्रकार संवेदनशील पारिस्थितिकी प्रणालियों के समक्ष विद्यमान व्यापक चुनौतियों को दर्शाता है?

 UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न 

प्रिलिम्स:

प्रश्न. पर्यावरण में मुक्त हो जाने वाली सूक्ष्म कणिकाओं (माइक्रोबीड्स) के विषय में अत्यधिक चिंता क्यों है? (2019) 

(a) ये समुद्री पारितंत्रों के लिये हानिकारक मानी जाती हैं।
(b) ये बच्चों में त्वचा कैंसर का कारण मानी जाती हैं।
(c) ये इतनी छोटी होती हैं कि सिंचित क्षेत्रों में फसल पादपों द्वारा अवशोषित हो जाती हैं।
(d) अक्सर इनका इस्तेमाल खाद्य पदार्थों में मिलावट के लिये किया जाता है।

उत्तर: (a)


प्रश्न. भारत में निम्नलिखित में से किसमें एक महत्त्वपूर्ण विशेषता के रूप में 'विस्तारित उत्पादक दायित्व' आरंभ किया गया था? (2019) 

(a) जैव चिकित्सा अपशिष्ट (प्रबंधन और हस्तन) नियम, 1998
(b) पुनर्चक्रित प्लास्टिक (निर्माण और उपयोग) नियम, 1999
(c) ई-अपशिष्ट (प्रबंधन और हस्तन) नियम, 2011
(d) खाद्य सुरक्षा और मानक विनियम, 2011

उत्तर: (c)


आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) रिपोर्ट 2023-24

प्रिलिम्स के लिये:

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO), आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS), औपचारिक नौकरियाँ, रिवर्स माइग्रेशन, अनौपचारिकीकरण, स्वचालन, डिजिटलीकरण, वस्तु एवं सेवा कर (GST), सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSME), ग्रीन जॉब्स 

मेन्स के लिये:

भारत में रोज़गार की स्थिति, औपचारिक नौकरियों के सृजन से जुड़ी चुनौतियाँ।

स्रोत: बीएस

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) द्वारा वार्षिक आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) रिपोर्ट 2023-24 जारी की गई, जिसमें दिखाया गया कि बेरोज़गारी दर 3.2% पर स्थिर है, जिसमें पर्याप्त औपचारिक रोज़गार सृजन करने में असमर्थता को लेकर चिंता जताई गई है।

PLFS रिपोर्ट 2023-24 की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

  • स्थिर बेरोज़गारी दर: सत्र 2023-24 के लिये बेरोज़गारी दर 3.2 % पर अपरिवर्तित रही, जो स्तर 2022-23 के समान जारी है।
    • सत्र 2017-18 में PLFS की स्थापना के बाद से ऐसा पहली बार हुआ है कि बेरोज़गारी दर में साल-दर-साल गिरावट नहीं देखी गई है।
  • श्रम बल भागीदारी दर (LFPR): राष्ट्रीय स्तर पर LFPR में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई जो सत्र 2022-23 में 57.9% से बढ़कर 2023-24 में 60.1% हो गई।
    • ग्रामीण LFPR बढ़कर 63.7% हो गया, जबकि शहरी LFPR बढ़कर 52% हो गया। यह दर्शाता है कि अधिक लोग ग्रामीण क्षेत्रों में काम/रोज़गार की तलाश कर रहे हैं, संभवतः महामारी के दौरान और उसके बाद रिवर्स माइग्रेशन या सीमित शहरी नौकरी के अवसरों के कारण।
      • किसी भी आबादी में LFPR कामगर या काम की तलाश करने वाले व्यक्तियों को प्रतिशत के रूप में दर्शाता है।
  • श्रमिक जनसंख्या अनुपात (WPR) में वृद्धि की प्रवृत्ति: सत्र 2023-2024 में WPR 58.2% थी। पुरुषों और महिलाओं के लिये यह क्रमशः 76.3% और 40.3% थी।
    • WPR को जनसंख्या में नियोजित व्यक्तियों के प्रतिशत के रूप में परिभाषित किया जाता है।
  • नौकरी की गुणवत्ता में मामूली सुधार: नौकरी की गुणवत्ता में मामूली सुधार हुआ, वेतनभोगी या नियमित वेतन पाने वाले श्रमिकों की हिस्सेदारी 0.8 प्रतिशत अंक बढ़कर 21.7% हो गई।
  • शहरी और ग्रामीण विचलन: ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोज़गारी दर में मामूली वृद्धि देखी गई, जो सत्र 2022-23 में 2.4% से बढ़कर 2023-24 में 2.5% हो गई।
    • इसके विपरीत, शहरी बेरोज़गारी दर में सुधार हुआ तथा यह 5.4% से घटकर 5.1% हो गयी।
  • लैंगिक असमानता: महिलाओं के लिये बेरोज़गारी दर बढ़कर 3.2% हो गई (सत्र 2022-23 में 2.9% से ऊपर), जबकि पुरुषों के लिये यह 3.3% से थोड़ी कम होकर 3.2% हो गई।
  • स्व-रोज़गार और अवैतनिक कार्य में वृद्धि: अवैतनिक घरेलू कार्य और छोटे व्यवसायों सहित स्व-रोज़गार में संलग्न लोगों की हिस्सेदारी सत्र 2022-23 में 57.3% से बढ़कर 58.4% हो गई।
    • स्वरोज़गार में उपक्रम संबंधी उद्यम और अनिश्चित अनौपचारिक कार्य दोनों शामिल हैं, जिससे यह नौकरी की गुणवत्ता का मिश्रित संकेतक बन जाता है।
  • अच्छे रोज़गार सृजित करने में चुनौतियाँ: पर्याप्त अच्छे रोज़गार सृजित करने में अर्थव्यवस्था की असमर्थता के कारण अधिक लोगों को स्वरोज़गार के के विकल्प तलाशने पड़ रहे हैं, जो प्रायः अनौपचारिक क्षेत्र में या अवैतनिक पारिवारिक भूमिकाओं में होता है।
    • महामारी से पहले की तुलना में वेतनभोगी रोज़गार का प्रतिशत अभी भी बहुत कम है, जो औपचारिक व स्थायी रोज़गार स्थापित करने की चुनौती को रेखांकित करता है।

PLFS रिपोर्ट के संदर्भ में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • परिचय: यह भारत में रोज़गार और बेरोज़गारी की स्थिति का आकलन करने के लिये सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) के तहत NSO द्वारा आयोजित किया जाता है।
  • PLFS के दो प्राथमिक उद्देश्य: इसे रोज़गार और बेरोज़गारी की स्थिति का आकलन करने के दो प्रमुख उद्देश्यों के साथ तैयार किया गया था:
    • पहला उद्देश्य: वर्तमान साप्ताहिक स्थिति (CWS) उपागम का प्रयोग करके शहरी क्षेत्रों के लिये लघु अंतराल (प्रत्येक तीन माह) पर श्रम बल भागीदारी और रोज़गार की स्थिति की गतिशीलता का आकलन करना।
    • दूसरा उद्देश्य: सामान्य स्थिति और CWS मापदंडों का प्रयोग करके ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों के लिये श्रम बल गणना का आकलन करना।
  • प्रतिदर्शन डिज़ाइन और डेटा संग्रहण में नवाचार: PLFS ने NSSO द्वारा किये गए पिछले पंचवर्षीय सर्वेक्षणों की तुलना में प्रतिदर्शन डिज़ाइन और जाँच अनुसूची की संरचना में परिवर्तन किये।
    • PLFS में अतिरिक्त डेटा भी शामिल किया गया है, जैसे कि काम किये गए घंटों की संख्या, जिसे NSSO के पूर्ववर्ती पंचवर्षीय दौर में संग्रह नहीं किया गया था।

रोज़गार से संबंधित सरकार की पहल क्या हैं?

भारत पर्याप्त औपचारिक रोज़गार सृजन में क्यों संघर्ष करता है?

  • रोज़गार में अनौपचारिकता में वृद्धि: कृषि और निर्माण क्षेत्र में रोज़गार में वृद्धि, अनौपचारिकता में वृद्धि से संबंधित है।
    • चूँकि ये क्षेत्र आमतौर पर श्रम कानूनों द्वारा असुरक्षित होते हैं, इसलिये इन क्षेत्रों में सामाजिक सुरक्षा या नौकरी की सुरक्षा तक पहुँच नहीं होती है।
  • तकनीकी उन्नति: AI और IoT की शुरूआत से कुशल श्रमिकों के लिये भी नौकरी की संभावनाएँ खतरे में पड़ गई हैं, जिससे रोज़गार परिदृश्य और भी जटिल हो गया है। इस बात की चिंता बढ़ रही है कि स्वचालन और डिजिटलीकरण के कारण श्रम की मांग कम हो जाएगी। 
    • IT कंपनियों में छंटनी जैसे उदाहरण दर्शाते हैं कि स्वचालन से, यहाँ तक ​​कि कुशल श्रमिकों के लिये भी रोज़गार/नौकरी के अवसर कम हो सकते हैं।
  • नौकरी चाहने वालों की बढ़ती संख्या: नौकरी तलाशने वाले शिक्षित लोगों की संख्या, विशेष रूप से स्नातक डिग्री वाले लोगों की संख्या में वृद्धि, उपयुक्त नौकरियों की उपलब्धता को लेकर चिंता उत्पन्न करती है, क्योंकि प्रतीत होता है कि ऐसे रोज़गार की कमी होती जा रही है।
  • नीतिगत त्रुटियाँ: वर्ष 2016 में विमुद्रीकरण और वर्ष 2017 में खराब तरीके से क्रियान्वित वस्तु एवं सेवा कर (GST) जैसी नीतियों ने सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (MSME) जो भारत के अधिकांश कार्यबल को रोज़गार प्रदान करता है, को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किया है, जिससे रोज़गार सृजन में और गिरावट आई है।
  • स्थिर सेवा क्षेत्र: परिवहन, भंडारण, संचार और वित्तीय सेवाओं जैसे क्षेत्रों का उत्पादन अंश स्थिर रहा, लेकिन उनका रोज़गार प्रतिशत 6% से घटकर 5% हो गया, जबकि वित्तीय सेवाएँ 1% से नीचे गिर गईं।
  • कौशल असंतुलन: कौशल विकास पर सरकार द्वारा ध्यान केंद्रित करने के बावजूद, कुशल नौकरियों में श्रमिकों की हिस्सेदारी सत्र 2018-19 में 18% से गिरकर 2022-23 में 14% हो गई। 
    • इसके साथ ही बढ़ती असमानता और घटते श्रमिक-जनसंख्या अनुपात ने बढ़ती बेरोज़गारी चुनौतियों को उजागर किया है।

आगे की राह

  • क्षेत्रीय विविधीकरण: विनिर्माण, नवीकरणीय ऊर्जा और तकनीकी नवाचार में निवेश से अधिक उत्पादकता एवं उच्च श्रम बल के साथ रोज़गार सृजित हो सकते हैं।
  • MSME का सुदृढ़ीकरण: सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) को अपनी रोज़गार क्षमता को पुनः प्राप्त करने और विस्तार करने में सहायता के लिये लक्षित वित्तीय सहायता, कर राहत एवं एक सुव्यवस्थित विनियामक परिवेश की आवश्यकता है।
  • मानव-केंद्रित तकनीक अनुकूलन: चूँकि कुछ उद्योगों जैसे संधारणीय विनिर्माण, स्वास्थ्य सेवा और नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र के पूर्णतः स्वचालित होने की कम संभावना होती है, इसलिये नवाचार को बढ़ावा देने के लिये इन पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिये।
  • उद्योग-संरेखित कौशल विकास: सरकार की कौशल पहल को वर्तमान और भविष्य की उद्योग आवश्यकताओं के साथ संरेखित किया जाना चाहिये और इसमें ग्रीन जॉब्स, AI नैतिकता, साइबर सुरक्षा और डेटा एनालिटिक्स जैसे उभरते क्षेत्रों में प्रशिक्षण शामिल होना चाहिये।
  • उच्च-संभावना वाले सेवा क्षेत्र: ई-कॉमर्स, लॉजिस्टिक्स और ऑनलाइन शिक्षा जैसी नए-युग की सेवाओं के विकास को प्रोत्साहित करने पर भी ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये, जिनमें विभिन्न कौशल स्तरों के लिये रोज़गार सृजन करने की क्षमता है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न. आर्थिक विकास के बावजूद भारत अपनी आबादी के लिये पर्याप्त औपचारिक नौकरियाँ सृजन करने में संघर्ष क्यों करता है, उपाय बताइए?

 यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ) 

प्रिलिम्स

प्रश्न. निरपेक्ष तथा प्रति व्यत्ति वास्तविक GNP की वृद्धि आर्थिक विकास की ऊँची दर का संकेत नहीं करतीं, यदि (2018)

(a) औद्योगिक उत्पादन कृषि उत्पादन के साथ-साथ बढ़ने में विफल रह जाता है।
(b) कृषि उत्पादन औद्योगिक उत्पादन के साथ-साथ बढ़ने में विफल रह जाता है।
(c) निर्धनता और बेरोज़गारी में वृद्धि होती है।
(d) निर्यातों की अपेक्षा आयात तेज़ी से बढ़ते हैं।

उत्तर: (c)


प्रश्न. प्रच्छन्न बेरोजगारी का सामान्यतः अर्थ होता है कि (2013) 

(a) लोग बड़ी संख्या में बेरोजगार रहते हैं
(b) वैकल्पिक रोजगार उपलब्ध नहीं है
(c) श्रमिक की सीमान्त उत्पादकता शून्य है
(d) श्रमिकों की उत्पादकता नीची है

उत्तर: (C)


मेन्स

प्रश्न. भारत में सबसे ज्यादा बेरोज़गारी प्रकृति में संरचनात्मक है। भारत में बेरोज़गारी की गणना के लिये अपनाई गई पद्धति का परीक्षण कीजिये और सुधार के सुझाव दीजिये। (2023)

प्रश्न. ‘भारत में बनाइये (मेक इन इंडिया)’ कार्यक्रम की सफलता, ‘कौशल भारत’ कार्यक्रम और आमूल श्रम सुधारों की सफलता पर निर्भर करती है। तर्कसम्मत दलीलों के साथ चर्चा कीजिये। (2015)

प्रश्न. “जिस समय हम भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड) को शान से प्रदर्शित करते हैं, उस समय हम रोज़गार-योग्यता की पतनशील दरों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।” क्या हम ऐसा करने में कोई चूक कर रहे हैं? भारत को जिन जॉबों की बेसबरी से दरकार है, वे जॉब कहाँ से आएंगे? स्पष्ट कीजिये। (2014)


स्कूली बच्चों की सुरक्षा

प्रारंभिक परीक्षा के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, स्कूल सुरक्षा और संरक्षा दिशानिर्देश 2021राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR), शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009, NISHTHA कार्यक्रम, राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP), 2020, SDG 16, E-बालनिदान, POCSO ई-बॉक्स

मुख्य परीक्षा के लिये:

स्कूल सुरक्षा और संरक्षा दिशानिर्देश, 2021 को लागू करने में NCPCR की भूमिका

स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र के बदलापुर में दो स्कूली छात्राओं के साथ यौन उत्पीड़न की घटना के बाद स्कूलों में स्कूल सुरक्षा और संरक्षा दिशानिर्देश, 2021 को लागू करने का निर्देश दिया। 

स्कूल सुरक्षा और संरक्षा दिशानिर्देश, 2021 क्या हैं?

  • शिक्षा मंत्रालय ने स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा के लिये स्कूल प्रबंधन की जवाबदेही सुनिश्चित करने हेतु दिशानिर्देश तैयार किये हैं।
    • इसमें सुरक्षा उपायों, कर्मचारियों की ज़िम्मेदारियों और क्षति या दुर्व्यवहार की घटनाओं को रोकने की प्रक्रियाओं सहित प्रमुख मुद्दों पर ध्यान दिया गया है।
    • यह निजी स्कूलों सहित सभी स्कूलों पर लागू है।
  • दिशानिर्देशों का उद्देश्य:
    • स्कूल में सुरक्षित वातावरण का निर्माण: एक सुरक्षित और संरक्षित स्कूल वातावरण बनाने के लिये सभी हितधारकों यानी छात्रों, अभिभावकों, शिक्षकों एवं स्कूल प्रबंधन के बीच सहयोगी दृष्टिकोण को बढ़ावा देना चाहिये।
    • मौजूदा अधिनियमों, नीतियों और दिशा-निर्देशों के बारे में जागरूकता: सभी हितधारकों को बाल सुरक्षा के विभिन्न पहलुओं से संबंधित विभिन्न कानूनों, नीतियों, प्रक्रियाओं और दिशा-निर्देशों के बारे में जागरूक करना चाहिये। उदाहरण के लिये, किशोर न्याय मॉडल नियम, 2016, शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 आदि।
    • शून्य सहनशीलता नीति: किसी भी प्रकार की लापरवाही या कदाचार के विरुद्ध "शून्य सहनशीलता नीति" लागू करने के साथ अपराधी को कठोर दंड देना।
  • त्रि-आयामी दृष्टिकोण:
    • बाल सुरक्षा के लिये जवाबदेहिता: सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में स्कूल के प्रमुख, शिक्षक और शिक्षा प्रशासन को बाल सुरक्षा के लिये जवाबदेह ठहराया गया है।
      • निजी और गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में ज़िम्मेदारी स्कूल प्रबंधन, प्रधानाचार्य और शिक्षकों की है। 
    • संपूर्ण विद्यालयी दृष्टिकोण: इन दिशानिर्देशों के तहत शिक्षा में सुरक्षा और संरक्षा पहलुओं को शामिल करके "संपूर्ण विद्यालयी दृष्टिकोण" पर बल दिया गया है।
      • इसमें बाल सुरक्षा के स्वास्थ्य, शारीरिक, सामाजिक-भावनात्मक, मनो-सामाजिक और संज्ञानात्मक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करना तथा छात्रों के कल्याण के बारे में समग्र दृष्टिकोण सुनिश्चित करना शामिल है।
    • बहु-क्षेत्रीय चिंताएँ: इसमें शिक्षा क्षेत्र से परे विभिन्न मंत्रालयों और विभागों से प्राप्त इनपुट और अनुशंसाओं को एकीकृत किया जाता है। उदाहरण के लिये, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा स्वास्थ्य एवं स्वच्छता प्रोटोकॉल।
  • प्रमुख विशेषताऐं: 
    • शिक्षक और हितधारक क्षमता निर्माण: इसमें सुरक्षा प्रोटोकॉल को बेहतर ढंग से प्रबंधित करने के लिये शिक्षकों, स्कूल प्रमुखों, अभिभावकों और छात्रों की संवेदनशीलता, उन्मुखीकरण और क्षमता निर्माण की तत्काल आवश्यकता पर बल दिया गया है।
      • उदाहरण के लिये, प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों के लिये निष्ठा कार्यक्रम में कोविड-19 के प्रति शैक्षिक प्रतिक्रिया पर एक विशेष मॉड्यूल शामिल किया गया।
    • साइबर सुरक्षा और ऑनलाइन शिक्षा: इसके तहत बच्चों और शिक्षकों के लिये मज़बूत डिजिटल सुरक्षा उपायों को अपनाने हेतु साइबर और ऑनलाइन सुरक्षा के महत्त्व पर बल दिया गया है।
    • आपदा प्रबंधन और सुरक्षा नीतियों का अनुपालन: इसे भौतिक अवसंरचना और आपदा तैयारी के संबंध में स्कूल सुरक्षा नीति पर राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन दिशानिर्देश,2016 के अनुरूप बनाया गया है।
      • यह आवासीय विद्यालयों के लिये राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) के दिशानिर्देशों के भी अनुरूप है।
    • राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP), 2020: NEP, 2020 के तहत सभी स्कूलों द्वारा कुछ व्यावसायिक और गुणवत्ता मानकों को बनाए रखने को सुनिश्चित करने के लिये एक राज्य स्कूल मानक प्राधिकरण (SSSA) के गठन को अनिवार्य बनाया गया है।
      • इस नीति में आवासीय छात्रावासों में विद्यार्थियों (विशेषकर बालिकाओं) की सुरक्षा को प्राथमिकता दी गई है।
    • अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का अनुपालन: बाल अधिकार सम्मेलन के तहत राष्ट्रों को यह सुनिश्चित करने के लिये बाध्य किया गया है कि बच्चों को सभी प्रकार की हिंसा से संरक्षित किया जाए।
  • सतत् विकास लक्ष्यों की पूर्ति: सतत् विकास लक्ष्य संख्या 4, सभी के लिये समावेशी और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने से संबंधित है।
    • SDG संख्या 16 बच्चों के विरुद्ध हिंसा से संबंधित होने के साथ हिंसा को कम करके तथा बच्चों के शोषण, तस्करी और दुर्व्यवहार को समाप्त करके शांतिपूर्ण एवं समावेशी समाज को बढ़ावा देने पर केंद्रित है।

सर्वोत्तम प्रथाएँ: 

  • नागालैंड ने स्कूल काउंसलिंग में 9 महीने का डिप्लोमा कोर्स शुरू किया है और इसे वर्ष 2018 से स्कूल काउंसलिंग के सिद्धांत एवं व्यवहार में शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के प्राथमिक उद्देश्य से डिज़ाइन और प्रस्तुत किया गया है।
  • यह शिक्षकों और पेशेवरों को छात्रों के भावनात्मक एवं मनोवैज्ञानिक कल्याण को बढ़ावा देने के क्रम में आवश्यक कौशल और ज्ञान से लैस करता है।

बच्चों के कल्याण की दिशा में कार्य करने वाले NGO 

  • बचपन बचाओ आंदोलन (BBA): यह भारत का सबसे बड़ा जमीनी स्तर का तस्करी विरोधी आंदोलन है। इसकी शुरुआत वर्ष 1980 में नोबेल शांति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी ने बच्चों को सभी प्रकार के शोषण से बचाने के उद्देश्य से की थी।
  • CRY (बाल अधिकार और आप): यह निःशुल्क एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तथा प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच प्रदान करने के साथ बच्चों के विरुद्ध हिंसा, दुर्व्यवहार और शोषण को रोकने पर केंद्रित है।
  • प्रथम: प्रथम एक नवोन्मेषी शिक्षण संगठन है जिसकी स्थापना भारत में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाने के लिये की गई है।
  • नन्ही कली: यह कक्षा 1 से 10 तक की वंचित बालिकाओं को 360 डिग्री सहायता प्रदान करती है, जिसका उद्देश्य उन्हें सम्मान के साथ अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने में सक्षम बनाना है। 

बाल सुरक्षा सुनिश्चित करने में NCPCR की क्या भूमिका है?

  • निगरानी की ज़िम्मेदारी: NCPCR और SCPCRs (राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग) स्कूल सुरक्षा और संरक्षा से संबंधित दिशानिर्देशों के कानूनी पहलुओं के कार्यान्वयन की निगरानी के लिये ज़िम्मेदार हैं।
  • ई-बाल निदान: बाल अधिकारों के विभिन्न उल्लंघनों और वंचना की शिकायतों का समय पर निवारण सुनिश्चित करने के लिये NCPCR की एक समर्पित ऑनलाइन शिकायत प्रणाली "ई-बाल निदान" है।
  • पोक्सो ई-बॉक्स: NCPCR ने बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों की आसान और प्रत्यक्ष रिपोर्टिंग के साथ-साथ पोक्सो अधिनियम, 2012 के तहत अपराधियों के खिलाफ समय पर कार्रवाई के लिये पोक्सो ई-बॉक्स शुरू किया है।
  • शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009: शिक्षा का अधिकार (RTE) अधिनियम, 2009 की धारा 31 और धारा 32 के तहत NCPCR और SCPCRs को बच्चों की मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने सहित RTE अधिनियम, 2009 के कार्यान्वयन की देखरेख का कार्य सौंपा गया है।
  • बाल अधिकार संरक्षण आयोग (CPCR) अधिनियम, 2005: CPCR अधिनियम, 2005 की धारा 13(1) के तहत NCPCR और SCPCRs को बाल अधिकार उल्लंघन की शिकायतों की जाँच करने एवं बाल संरक्षण कानूनों के कार्यान्वयन की निगरानी आदि का कार्य सौंपा गया है।
    • NCPCR और SCPCRs बाल अधिकारों के उल्लंघन और वंचना से संबंधित मामलों का स्वतः संज्ञान ले सकते हैं।
  • किशोर न्याय अधिनियम, 2015: किशोर न्याय अधिनियम, 2015 की धारा 109, आयोगों को बच्चों की सुरक्षा के लिये किशोर न्याय अधिनियम, 2015 के कार्यान्वयन की निगरानी का कार्य सौंपा गया है।

बच्चों की सुरक्षा और संरक्षण के लिये संविधान के प्रावधान

प्रावधान

अधिकार

अनुच्छेद 14

कानून के समक्ष समता का मौलिक अधिकार

अनुच्छेद 15 (3)

विशेष प्रावधानों का मौलिक अधिकार

अनुच्छेद 21

जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार

अनुच्छेद 21A

6-14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा का अधिकार

अनुच्छेद 23 और 24

शोषण के विरुद्ध मौलिक अधिकार

अनुच्छेद 39 (E)

स्वास्थ्य का अधिकार और आर्थिक आवश्यकता के कारण दुर्व्यवहार से मुक्ति

अनुच्छेद 39 (F)

सम्मान के साथ विकास का अधिकार तथा शोषण और नैतिक एवं भौतिक परित्याग से बचपन तथा युवावस्था की गारंटीकृत सुरक्षा

अनुच्छेद 46

कमज़ोर वर्गों की विशेष शैक्षिक देखभाल के साथ सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषण से सुरक्षा का अधिकार

अनुच्छेद 47

पोषण, जीवन स्तर और बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य का अधिकार

अनुच्छेद 51A (k)

शिक्षा के अवसर प्रदान करना, माता-पिता या अभिभावकों का कर्त्तव्य है

आगे की राह:

  • NCPCR के दिशानिर्देशों का सख्ती से अनुपालन: स्कूलों को स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा पर NCPCR के मैनुअल का सख्ती से पालन करना चाहिये एवं उनके सुरक्षा प्रोटोकॉल में अंतराल की पहचान करनी चाहिये तथा उन्हें हल करना चाहिये।
  • सुरक्षा योजना: प्रत्येक स्कूल को अपनी स्कूल विकास योजना (SDP) के एक प्रमुख घटक के रूप में स्कूल सुरक्षा योजना को शामिल करना चाहिये। 
  • सेवाकालीन शिक्षक प्रशिक्षण: शिक्षकों को बाल यौन अपराध निवारण (POCSO) अधिनियम, 2012 सहित विभिन्न सुरक्षा मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनाया जाना चाहिये तथा अपराधों की रिपोर्टिंग के लिये उनकी ज़िम्मेदारियों के बारे में भी जागरूक किया जाना चाहिये।
    • स्कूलों को POCSO अधिनियम, 2012 की धारा 19 के अनुसार बाल यौन शोषण से संबंधित किसी भी अपराध या संदेह की रिपोर्ट करनी चाहिये।
  • एंटी बुलिंग समिति (Anti-Bullying Committee): स्कूलों को अवैध गतिविधि विरोधी समितियों की स्थापना करनी चाहिये, रैगिंग रोकथाम कार्यक्रम लागू करने चाहिये एवं नियमित रूप से इसकी प्रभावशीलता पर चर्चा करनी चाहिये।
  • स्कूल सुरक्षा सप्ताह: स्कूलों को सभी सुरक्षा व्यवस्थाओं की समीक्षा के लिये प्रत्येक शैक्षणिक सत्र की शुरुआत में स्कूल सुरक्षा सप्ताह मनाना चाहिये।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये आवश्यक उपायों पर चर्चा कीजिये। इसे लागू करने में राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) की क्या भूमिका है?

 यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs) 

मेन्स

प्रश्न. राष्ट्रीय बाल नीति के प्रमुख प्रावधानों का परीक्षण करते हुए इसके कार्यान्वयन की स्थिति पर प्रकाश डालिये। (2016)