शासन व्यवस्था
तेल क्षेत्र संशोधन विधेयक 2024
प्रिलिम्स के लिये:राज्यसभा, हाइड्रोकार्बन, हीलियम, कच्चा तेल और प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस बोर्ड विनियामक बोर्ड मेन्स के लिये:तेल क्षेत्र (विनियमन और विकास) संशोधन विधेयक 2024, खनिज तेल निष्कर्षण में विनियमन, भारत की ऊर्जा नीतियाँ। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में तेल क्षेत्र (विनियमन और विकास) संशोधन विधेयक, 2024 को राज्यसभा द्वारा पारित किया गया, जिसका उद्देश्य निज़ी निवेश को आकर्षित करते हुए पेट्रोलियम एवं खनिज तेलों के घरेलू उत्पादन को प्रोत्साहित करना है।
- इस विधेयक का उद्देश्य तेल उत्पादन के प्रशासन को खनन गतिविधियों से स्पष्ट रूप से अलग करके मौजूदा तेल क्षेत्र अधिनियम 1948 में संशोधन करना है।
तेल क्षेत्र संशोधन विधेयक के प्रमुख प्रावधान क्या हैं?
- खनिज तेल की परिभाषा: विधेयक खनिज तेलों की परिभाषा को व्यापक बनाता है, जिसमें प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले हाइड्रोकार्बन (जैसे पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस) के साथ-साथ कोल बेड मीथेन और शेल गैस/तेल को भी शामिल किया गया है।
- पेट्रोलियम लीज़: विधेयक “माइनिंग लीज़” शब्द के स्थान पर “पेट्रोलियम लीज़” शब्द का प्रयोग करता है, जो खनिज़ तेलों की खोज, उत्पादन और निपटान जैसी गतिविधियों को नियंत्रित करेगा।
- तेल क्षेत्र अधिनियम, 1948 के तहत दिये गए मौज़ूदा माइनिंग लीज़/खनन पट्टे वैध रहेंगे और उनमें कोई परिवर्तन नहीं किया जाएगा।
- उल्लंघन के लिये दंड: तेल क्षेत्र अधिनियम, 1948 के तहत उल्लंघन के परिणामस्वरूप छह माह तक का कारावास, 1,000 रुपये का ज़ुर्माना या दोनों हो सकते हैं।
- नवीन विधेयक तेल क्षेत्र अधिनियम के उल्लंघन हेतु आपराधिक दंड के स्थान पर वित्तीय दंड का प्रावधान करता है, जिससे अधिकतम ज़ुर्माना राशि 25 लाख रुपए हो जाती है, तथा निरंतर उल्लंघन के लिये 10 लाख रुपए तक का अतिरिक्त दैनिक ज़ुर्माना भी लगाया जाता है।
- निज़ी निवेश को प्रोत्साहन: विधेयक में पेट्रोलियम उत्पादन में निज़ी निवेश को आकर्षित करने के उपाय शामिल हैं, तथा यह स्पष्ट किया गया है कि मौज़ूदा खनन पट्टे, पट्टेधारकों को किसी प्रकार का नुकसान पहुँचाए बगैर वैध बने रहेंगे।
- केंद्र सरकार की नियम बनाने की शक्तियाँ: विधेयक में केंद्र सरकार को विभिन्न पहलुओं पर नियम बनाने की शक्ति बरकरार रखी गई है, जिसमें पट्टे प्रदान करना और उनका विनियमन करना, नियम और शर्तें निर्धारित करना (जैसे पट्टे का क्षेत्र और अवधि), खनिज तेलों का संरक्षण और विकास, तथा रॉयल्टी के संग्रह के साथ-साथ तेल उत्पादन के तरीके शामिल हैं।
- इसके अलावा, विधेयक केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र का दायरा बढ़ाकर पेट्रोलियम पट्टों का समेकन, सुविधा साझाकरण, प्रदूषण को कम करने और पर्यावरण को संरक्षित करने के लिये पट्टाधारकों की ज़िम्मेदारियाँ, तथा पेट्रोलियम पट्टा पुरस्कारों के लिये वैकल्पिक विवाद समाधान प्रक्रियाएँ शामिल करता है।
- दंड का निर्णय: केंद्र सरकार दंड का निर्णय करने के लिये संयुक्त सचिव स्तर या उससे उच्च स्तर के अधिकारी की नियुक्ति करेगी।
- न्यायनिर्णायक प्राधिकरण के निर्णयों के विरुद्ध अपील पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस बोर्ड विनियामक बोर्ड (PNGRB) अधिनियम, 2006 में निर्दिष्ट अपीलीय न्यायाधिकरण में की जाएगी।
- PNGRB अधिनियम, 2006 के अनुसार, PNGRB के निर्णयों के विरुद्ध अपील विद्युत अपीलीय न्यायाधिकरण के समक्ष की जानी है, जिसका गठन विद्युत अधिनियम, 2003 के अंतर्गत किया गया है।
पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस बोर्ड नियामक बोर्ड
- PNGRB की स्थापना पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस विनियामक बोर्ड अधिनियम, 2006 के तहत की गई थी।
- नोडल मंत्रालय: पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय
- इसका उद्देश्य उपभोक्ता हितों की रक्षा करना, पेट्रोलियम से संबंधित गतिविधियों को विनियमित करना और प्रतिस्पर्द्धी बाज़ारों को बढ़ावा देना है।
- PNGRB सिटी गैस वितरण (CJD) नेटवर्क, प्राकृतिक गैस और पेट्रोलियम उत्पाद पाइपलाइनों को अधिकृत, टैरिफ का निर्धारण तथा तकनीकी एवं सुरक्षा मानक स्थापित करता है।
तेल क्षेत्र संशोधन विधेयक, 2024 के समक्ष चुनौतियाँ क्या हैं?
- राज्य के अधिकारों पर प्रभाव: विधेयक में खनन पट्टों से पेट्रोलियम पट्टों की ओर बदलाव से राज्य सूची की प्रविष्टि 50 के अंतर्गत आने वाले राज्य के कराधान अधिकारों का हनन हो सकता है।
- मिनरल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी एवं अन्य बनाम मेसर्स स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया एवं अन्य 2024 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने पुष्टि की कि राज्यों को भारतीय संविधान में राज्य सूची की प्रविष्टि 50 के तहत खनन गतिविधियों पर कर लगाने का विशेष अधिकार है।
- आलोचकों का तर्क है कि संघ सूची की प्रविष्टि 53, जो केंद्र सरकार को तेल क्षेत्रों और खनिज तेलों पर अधिकार प्रदान करती है, केंद्रीय नियंत्रण को बढ़ा सकती है, जिससे संघवाद से संबंधित चिंताएँ उत्पन्न हो सकती हैं तथा अधिकार क्षेत्र एवं राजस्व पर संभावित विवाद देखने को मिल सकते हैं।
- पर्यावरण संबंधी चिंताएँ: निजी खिलाड़ियों की बढ़ती भागीदारी से पर्यावरण संबंधी सुरक्षा उपाय कमज़ोर हो सकते हैं।
- ऐसी आशंका है कि निजी कंपनियाँ पर्यावरण संरक्षण की अपेक्षा मुनाफे को प्राथमिकता देंगी, जिससे उत्सर्जन और पारिस्थितिकी क्षति बढ़ सकती है।
- गैर-अनुपालन के लिये दंड: आपराधिक दंड के स्थान पर जुर्माने लगाने से जवाबदेही संबंधी चिंताएँ उत्पन्न होंगी, जिससे संभावित रूप से निवारण और सुरक्षा एवं पर्यावरण मानकों के अनुपालन में कमी आएगी।
- निजी निवेश बनाम सार्वजनिक क्षेत्र की प्राथमिकता: विपक्षी दलों का तर्क है कि संसाधन अन्वेषण के लिये तेल और प्राकृतिक गैस निगम (ONGC) जैसे सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को निजी संस्थाओं की तुलना में प्राथमिकता दी जानी चाहिये।
- आलोचकों को डर है कि निजी निवेश से सार्वजनिक क्षेत्र का प्रभुत्व कमजोर हो सकता है और सामुदायिक कल्याण तथा स्थिरता की तुलना में लाभ को प्राथमिकता दी जा सकती है।
आगे की राह
- क्षेत्राधिकार संबंधी सीमाएँ: क्षेत्राधिकार संबंधी विवादों को रोकने के लिये केंद्रीय एवं राज्य प्राधिकरण के बीच स्पष्ट सीमाएँ स्थापित करने के साथ संसाधन प्रशासन में सहकारी संघीय संरचना सुनिश्चित करना आवश्यक है।
- पारदर्शी राजस्व साझाकरण: संसाधनों का उचित वितरण सुनिश्चित करने और वित्तीय नियंत्रण पर तनाव कम करने के लिये केंद्र एवं राज्यों के बीच पारदर्शी तथा न्यायसंगत राजस्व-साझाकरण तंत्र विकसित करना चाहिये।
- धारणीय प्रथाएँ: उन कंपनियों को प्रोत्साहन देना चाहिये जो धारणीय प्रथाओं को प्राथमिकता (जैसे कि कार्बन उत्सर्जन को कम करने और नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों में निवेश करने के लिये कर छूट या कम रॉयल्टी लेना) देती हैं।
- पर्यावरण नियमों को मज़बूत करना: विधेयक के अंतर्गत मजबूत पर्यावरण सुरक्षा उपायों को लागू करने से तेल उत्पादन में निजी क्षेत्र की बढ़ती भागीदारी से संबंधित जोखिमों को कम किया जा सकता है। इसमें नई परियोजनाओं के लिये अनिवार्य पर्यावरण प्रभाव आकलन शामिल है।
- जन जागरूकता अभियान: घरेलू तेल उत्पादन के लाभों एवं ऊर्जा सुरक्षा पर इसके प्रभाव के बारे में जागरूकता बढ़ाने से विधेयक के प्रति जन समर्थन को बढ़ावा मिलेगा तथा इससे संबंधित नकारात्मक धारणाओं को भी दूर किया जा सकेगा।
दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न: भारत की ऊर्जा सुरक्षा एवं राज्य के अधिकारों पर तेल क्षेत्र (विनियमन और विकास) संशोधन विधेयक, 2024 के निहितार्थों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष प्रश्नप्रश्न: कभी-कभी समाचारों में पाया जाने वाला शब्द 'वेस्ट टेक्सास इंटरमीडिएट' निम्नलिखित में से किसे संदर्भित करता है: (2020) (a) कच्चा तेल उत्तर: (a) प्रश्न. जैव ईंधन पर भारत की राष्ट्रीय नीति के अनुसार, जैव ईंधन के उत्पादन के लिये निम्नलिखित में से किसका उपयोग कच्चे माल के रूप में किया जा सकता है? (2020)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1, 2, 5 और 6 उत्तर: (a) |
भारतीय अर्थव्यवस्था
मुक्त व्यापार समझौतों की समीक्षा
प्रिलिम्स के लिये:मुक्त व्यापार समझौता, MSME, व्यापार घाटा, गैर-टैरिफ बाधाएँ, रूल्स ऑफ ओरिजिन, ASEAN, FDI, बौद्धिक संपदा अधिकार, UPOV 1991, पौधों की नई किस्मों के संरक्षण हेतु अंतर्राष्ट्रीय संघ, TRIPS, EU, आर्थिक सहयोग एवं व्यापार समझौता, उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (PLI) योजना। मेन्स के लिये:FTA से संबंधित भारत की चिंताएँ और आगे की राह। |
स्रोत: बिज़नेस स्टैण्डर्ड
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के विदेश मंत्री ने कहा कि सरकार ने MSME या किसानों के हितों की रक्षा के लिये मुक्त व्यापार समझौतों प्रति सतर्क रुख अपनाया है।
- यह निर्णय पिछले समझौतों के प्रतिकूल परिणामों को ध्यान में रखते हुए लिया गया है तथा यह सुनिश्चित किया गया है कि FTA से MSME या किसानों पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े।
FTA भारत के लिये किस प्रकार प्रतिकूल साबित हुए?
- व्यापार घाटा असंतुलन: वर्ष 2017 से 2022 के बीच FTA के तहत शामिल देशों को भारत का निर्यात 31% बढ़ा लेकिन इसके आयात में 82% की वृद्धि हुई, जो एक अस्थिर व्यापार घाटे का प्रतीक है।
- भारत बदले में आनुपातिक पहुँच प्राप्त किये बिना अपने बाज़ार खोल रहा है।
- FTA का कम उपयोग: भारत में FTA उपयोग लगभग 25% के साथ काफी कम बना हुआ है, जो विकसित देशों में देखी जाने वाली सामान्य 70-80% उपयोग दर से काफी कम है।
- इससे भारत की अपने द्विपक्षीय एवं बहुपक्षीय व्यापार समझौतों के लाभों का पूर्ण उपयोग करने में विफलता पर प्रकाश पड़ता है।
- विनिर्माण प्रतिस्पर्द्धात्मकता में कमी: अनुसंधान, नवाचार, सरकारी सहायता एवं मूल्य शृंखला उन्नयन पर आसियान के फोकस से उत्पादन लागत में कमी आने के साथ इनकी वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता को बढ़ावा मिला है।
- दक्षिण कोरिया और आसियान ने इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल एवं वस्त्र जैसे क्षेत्रों में भारत से बेहतर प्रदर्शन किया।
- इससे रिवर्स शुल्क संरचना (Inverted Duty Structure) की स्थिति पैदा हो जाती है, जहाँ कच्चे माल से बने सामानों पर आयात शुल्क तैयार माल की तुलना में अधिक होता है।
- उदाहरण के लिये, आयातित वस्तुओं पर कम आयात शुल्क की तुलना में घरेलू कच्चे माल की खरीद पर अधिक जीएसटी दर का भुगतान किया जाता है।
- हितधारकों के परामर्श का अभाव: वार्ताकार प्रासंगिक उद्योगों, व्यवसायों एवं संघों के प्रतिनिधियों को शामिल करने में विफल रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप FTA के प्रभाव की सीमित समझ रहने के साथ घरेलू चिंताओं पर विचार किये बिना बाजार पहुँच प्रदान की गई।
- गैर-टैरिफ बाधाएँ: FTA के कारण टैरिफ दरों में कमी आई है, जिससे साझेदारों को भारतीय बाज़ार सुलभ पहुँच मिली है।
- लेकिन साझेदार देशों द्वारा लगाए गए गैर-टैरिफ अवरोध जैसे कि कड़े मानक, सैनिटरी और फाइटोसैनिटरी संबंधी उपाय तथा व्यापार में तकनीकी बाधाएँ बनी रहीं, जिससे भारतीय निर्यातकों की बाज़ार पहुँच और निर्यात के अवसर सीमित हो गए।
- जटिल प्रमाणन: FTA के अंतर्गत प्रमाणन आवश्यकताओं और उत्पत्ति के नियमों की जटिलता के कारण निर्यातकों के लिये निर्धारित मानकों को पूरा करना कठिन हो गया है और अनुपालन लागत बढ़ गई है।
- जागरूकता का अभाव: विभिन्न निर्यातकों को FTA के अंतर्गत उपलब्ध प्रोत्साहनों और संभावित लाभों के बारे में जानकारी नहीं है, जिससे FTA के प्रभावी कार्यान्वयन में बाधा आ रही है।
- सीमित सेवा व्यापार: सेवाओं में भारत की प्रतिस्पर्द्धात्मक बढ़त होने के बावज़ूद, सेवा व्यापार में अपेक्षा के अनुरूप वृद्धि नहीं हुई है।
- प्रौद्योगिकी हस्तांतरण और निवेश संबंधी चुनौतियाँ: FDI के प्रवाह से प्रौद्योगिकी या मूल्य-वर्द्धित संबंधों में कोई महत्त्वपूर्ण प्रगति नहीं हुई है, जिससे भारत की औद्योगिक क्षमता में वृद्धि हो सके।
मुक्त व्यापार समझौते
- FTA: यह दो देशों (या ब्लॉकों) के बीच व्यापार समझौता है, जिसका उद्देश्य निर्यात और आयात पर सीमा करों और अन्य बाधाओं (जैसे मानकों, प्रक्रियाओं) जैसे सीमा सुरक्षा उपायों को कम करने या हटाने के द्वारा एक-दूसरे को बाज़ारों तक पहुँच प्रदान करना है।
- कवरेज़: FTA में वस्तुओं के व्यापार (जैसे कृषि या औद्योगिक उत्पाद) या सेवाओं के व्यापार (जैसे बैंकिंग, विनिर्माण, व्यापार आदि) को शामिल किया जा सकता है।
- एफटीए में बौद्धिक संपदा अधिकार (IPR), निवेश, सरकारी खरीद और प्रतिस्पर्द्धा नीति जैसे अन्य क्षेत्र भी शामिल हो सकते हैं।
व्यापार समझौतों के प्रकार:
भारत के प्रमुख व्यापार समझौते:
प्रतिस्पर्द्धात्मकता बनाए रखने के लिये निर्यात करों के उपयोग के उदाहरण
- केन्या: केन्या ने कच्चे चमड़े पर 40% निर्यात शुल्क लगाकर अपने चमड़ा उद्योग को पुनः पटरी पर ला दिया।
- इस नीति से देश में चमड़े के कारखानों की संख्या में वृद्धि हुई, सात हज़ार नए रोज़गार सृजित हुए, 40,000 लोगों की आय में वृद्धि हुई तथा इस क्षेत्र से आय में लगभग 8 मिलियन यूरो की वृद्धि हुई, तथा इसमें और भी वृद्धि की संभावना है।
- मलेशिया: मलेशिया का फर्नीचर क्षेत्र निर्यात प्रतिबंधों और कच्ची लकड़ी पर करों पर निर्भर है, जिससे प्रतिस्पर्द्धी बने रहने के लिये इनकी आगत अपेक्षाकृत सस्ती रहती है।
- इन निर्यात प्रतिबंधों और करों के बगैर, फर्नीचर SME प्रतिस्पर्द्धा करने में असमर्थ हो जाएँगे।
- फर्नीचर SME विनिर्माण क्षेत्र में मलेशियाई SME का 6% हिस्सा हैं।
FTA MSME पर नकारात्मक प्रभाव कैसे डाल सकते हैं?
- सीमित वैश्विक पहुँच: केवल 16% भारतीय SME अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में संलग्न हैं, जिनमें से 13% निर्यात में शामिल हैं। यह अंतर्राष्ट्रीय औसत 19% से काफी कम है।
- बाह्य आघातों के प्रति संवेदनशीलता: भारतीय SME वैश्विक व्यवधानों के प्रति संवेदनशील हैं, जैसा कि कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान देखा गया, जिसने आपूर्ति शृंखलाओं को गंभीर रूप से प्रभावित किया।
- तकनीकी बाधाएँ: भारतीय MSME को प्रायः अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुपालन में संघर्ष करना पड़ता है, जिसमें सैनिटरी और फाइटोसैनिटरी (SPS) उपाय और व्यापार में तकनीकी बाधाएँ (TBT) शामिल हैं।
- सीमित नेटवर्किंग अवसर: भारत में MSME के पास प्रायः विदेश में संभावित खरीदारों के साथ संपर्क की कमी होती है, जिससे उनकी बाज़ार पहुँच और दृश्यता सीमित हो जाती है।
- घरेलू बाज़ार के हिस्सेदारी में कमी: FTA के अंतर्गत कम टैरिफ के कारण सस्ती आयातित वस्तुएँ बाज़ार में आएँगी, जिससे घरेलू MSME विदेशी प्रतिस्पर्द्धियों के समक्ष बाज़ार हिस्सेदारी खो देंगे, जिससे बिक्री और राजस्व में कमी आएगी।
- मापनीय चुनौतियाँ: पूंजी, प्रौद्योगिकी और कुशल श्रम तक पहुँच की कमी भारतीय बाज़ार में प्रवेश करने वाली विदेशी वस्तुओं के विरुद्ध मूल्य, गुणवत्ता और दक्षता पर प्रतिस्पर्द्धा करने की उनकी क्षमता में बाधा बन सकती है।
FTA किसानों पर नकारात्मक प्रभाव कैसे डाल सकते हैं?
- UPOV 1991 कन्वेंशन: यूरोपीय संघ भारत पर UPOV 1991 (पौधों की नई किस्मों के संरक्षण के लिये अंतर्राष्ट्रीय संघ) में शामिल होने के लिये दबाव बना रहा है, जो बड़े निगमों को नई पादप किस्मों पर विशेष अधिकार प्रदान करता है।
- यदि भारत UPOV 1991 में शामिल होता है, तो भारत को बीज संप्रभुता पर प्रतिबंधों का सामना करना पड़ सकता है, जहाँ टर्मिनेटर सीड्स/बीजों ( पहली फसल के बाद बाँझ होने के लिये आनुवंशिक रूप से संशोधित) के उपयोग के कारण किसानों को प्रत्येक मौसम में सीड्स/बीज खरीदने के लिये मज़बूर किया जा सकता है।
- ‘ट्रिप्स-प्लस’ मांगें: यूरोपीय संघ की ट्रिप्स-प्लस मांगों का उद्देश्य कीटनाशकों और उर्वरकों जैसे कृषि रसायनों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों (MNCs) के बौद्धिक संपदा (IP) अधिकारों का विस्तार करना है।
- इससे कृषि रसायन बाज़ार पर बड़ी कंपनियों का एकाधिकार हो जाएगा और किसानों के लिये आवश्यक आगतों की कीमतें बढ़ जाएंगी।
- गैर-टैरिफ बाधाएँ (NTB): कई कीटनाशकों और खाद्य वस्तुओं के लिये यूरोपीय संघ की कीटनाशक अधिकतम अवशेष सीमा (MRL) 0.01 भाग प्रति मिलियन (PPM) लागू करने से भारत के कृषि निर्यात को अस्वीकार किया जा सकता है।
- प्रतिस्पर्द्धा में वृद्धि: आर्थिक सहयोग और व्यापार समझौते (ECTA) के तहत, ऑस्ट्रेलिया भारत में दाल, मदिरा, भेड़ के मांस, ऊन और बागवानी उत्पादों का निर्यात बढ़ाना चाहता है, जो जीविका आधारित भारतीय छोटे भूमिधारक किसानों के लिये हानिकारक साबित हो सकता है।
- खाद्य असुरक्षा: भारत वर्तमान में सभी कनाडाई मसूर निर्यात पर 30% टैरिफ लागू करता है, जो भारत-कनाडा FTA के बाद समाप्त हो जाएगा।
- इससे पाँच वर्षों में कनाडा के निर्यात में 147% की वृद्धि हो सकती है, जिससे भारत के घरेलू दाल उत्पादन को बढ़ावा देने और आयात निर्भरता को कम करने के लक्ष्य को खतरा हो सकता है।
आगे की राह:
- बुनियादी ढाँचे में निवेश से लॉजिस्टिक्स लागत कम होगी तथा बंदरगाहों, रेलमार्गों और सड़कों को जोड़ने और डिजिटल प्रौद्योगिकियों का उपयोग करके लॉजिस्टिक्स को सुव्यवस्थित करने से दक्षता बढ़ेगी।
- उत्पत्ति के नियम (ROO) में छूट: भारत को FTA उपयोग को बढ़ाने और निर्यातकों के लिये लेनदेन लागत को कम करने हेतु ROO विनियमों को सभी क्षेत्रों में एक समान लागू करने की बजाय अधिक वस्तु-विशिष्ट और अनुकूल बनाने का प्रयास करना चाहिये।
- सेवाओं पर अधिक ध्यान केंद्रित करना: भारत को अपने मज़बूत सेवा क्षेत्रों, विशेष रूप से आईटी, बिज़नेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (BPO) और अन्य ज्ञान-आधारित सेवाओं के लिये बाज़ार पहुँच पर अधिक ज़ोर देते हुए FTA डिज़ाइन करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
- मौजूदा FTA पर पुनः संवाद करना: पहले से हस्ताक्षरित FTA के लिये, भारत को रसायन, ऑटोमोटिव घटकों और विद्युत उपकरणों जैसे उच्च तकनीक और मूल्यवर्द्धित उत्पादों में विविधीकरण पर ध्यान केंद्रित करने के लिये शर्तों पर पुनः संवाद करना चाहिये।
- अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा देना: निर्यातोन्मुख उद्योगों में अनुसंधान एवं विकास को बढ़ावा देना ताकि वैश्विक मांग के अनुरूप उच्च मूल्य वाले उत्पाद तैयार किये जा सकें।
- एकीकृत नीति दृष्टिकोण: भारत की उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (PIL) योजना, जिसका उद्देश्य चुनिंदा क्षेत्रों में विनिर्माण को बढ़ावा देना है, को भविष्य के FTA के साथ जोड़ा जाना चाहिये ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि PIL योजना से लाभान्वित होने वाले क्षेत्रों को व्यापार समझौतों में भी प्राथमिकता दी जाए।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत के कृषि क्षेत्र और लघु उद्योगों पर मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) के प्रभाव का आलोचनात्मक विश्लेषण करें। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)प्रारंभिकप्रश्न: निम्नलिखित देशों पर विचार कीजिये: (2018)
उपर्युक्त में से कौन-से आसियान के 'मुक्त-व्यापार साझेदार' हैं? (a) 1, 2, 4 और 5 उत्तर: C प्रश्न. 'रीजनल कॉम्प्रिहेन्सिव इकॉनॉमिक पार्टनरशिप (Regional Comprehensive Economic Partnership)' पद प्रायः समाचारों में देशों के एक समूह के मामलों के संदर्भ में आता है। देशों के उस समूह को क्या कहा जाता है? (2016) (a) G20 उत्तर: (b) मेन्सQ. विश्व व्यापार में संरक्षणवाद और मुद्रा चालबाज़ियों की हाल की परिघटनाएँ भारत की समष्टि-आर्थिक स्थिरता को किस प्रकार से प्रभावित करेंगी? (2018) Q. शीतयुद्धोत्तर अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के संदर्भ में, भारत की पूर्वोन्मुखी नीति के आर्थिक और सामरिक आयामों का मूल्यांकन कीजिये। (2016) |
भारतीय अर्थव्यवस्था
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में लोन ‘राइट-ऑफ’ और NPA
प्रिलिम्स के लिये:ऋण वसूली न्यायाधिकरण (DRTs), NPA, नेशनल एसेट रिकंस्ट्रक्शन लिमिटेड (NARC), भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI), भारत ऋण समाधान कंपनी लिमिटेड, SARFAESI अधिनियम, दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता (IBC) मेन्स के लिये:ऋण माफ़ी: निहितार्थ, चुनौतियाँ और आगे का रास्ता, एनपीए की चुनौतियाँ, एनपीए समाधान के प्रावधान |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
पिछले कुछ वर्षों में बैंकों द्वारा बड़े पैमाने पर राइट-ऑफ (ऋण माफ करना) गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (NPA) में उल्लेखनीय कमी आई है।
- परिणामस्वरूप, बैंकों ने मार्च, 2024 तक अग्रिमों के 2.8% का NPA अनुपात 12 वर्षों के निम्नतम स्तर पर प्राप्त कर लिया है।
बैंकों द्वारा लोन राइट-ऑफ के संबंध में मुख्य आँकड़े क्या हैं?
- लोन राइट-ऑफ:
- वित्त वर्ष 2015 और वित्त वर्ष 2024 के बीच, भारतीय वाणिज्यिक बैंकों ने 12.3 लाख करोड़ रुपए के ऋण माफ किये, जिसमें पिछले 5 वर्षों (वित्त वर्ष 2020-2024) में ही 9.9 लाख करोड़ रुपए शामिल हैं।
- वर्ष 2015 में शुरू किया गया ‘एसेट क्वालिटी रिव्यु’ के बाद, वित्त वर्ष 2019 में ऋण राइट-ऑफ करने का उच्चतम आँकड़ा 2.4 लाख करोड़ रुपए रहा।
- हालाँकि, तब से राइट-ऑफ में कमी आई है, वित्त वर्ष 2024 में यह सबसे कम 1.7 लाख करोड़ रुपए दर्ज किया गया, जो कुल बैंक ऋण का सिर्फ 1% है।
- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का हिस्सा:
- पिछले 5 वर्षों (वित्त वर्ष 2020-2024) में कुल ऋण माफी में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSB) का हिस्सा 53% (6.5 लाख करोड़ रुपए) था।
- वसूली दरें:
- ऋण माफ करने (राइट-ऑफ) के बावजूद, इन ऋणों से वसूली अपेक्षाकृत कम रही है, जो पिछले 5 वर्षों (वित्त वर्ष 2020-2024) में केवल 18.7% (1.85 लाख करोड़ रुपए) रही है।
- वित्त वर्ष 2020-2024 के बीच राइट-ऑफ की गई राशि का 81% से अधिक (8 लाख करोड़ रुपए से अधिक) वसूल नहीं हो पाया, जो कि डिफॉल्ट किये गए ऋणों की वसूली में चुनौतियों को दर्शाता है।
- ये ऋण खाते अधिकतर विल्फुल डिफॉल्ट थे, जिनमें से कुछ कंपनियों के प्रवर्तक और निदेशक तो देश छोड़कर भाग गए थे।
- ऋण माफ करने (राइट-ऑफ) के बावजूद, इन ऋणों से वसूली अपेक्षाकृत कम रही है, जो पिछले 5 वर्षों (वित्त वर्ष 2020-2024) में केवल 18.7% (1.85 लाख करोड़ रुपए) रही है।
- NPA अनुपात पर प्रभाव:
- सितंबर, 2024 तक, PSBs और निजी क्षेत्र के बैंकों (PSBs) का सकल NPA क्रमशः 3.16 लाख करोड़ रुपए और 1.34 लाख करोड़ रुपए था।
- बकाया ऋणों के प्रतिशत के रूप में NPS अनुपात सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिये 3.01% तथा निजी क्षेत्र के बैंकों के लिये 1.86% था।
नोट:
- विलफुल डिफॉल्टर वह उधारकर्त्ता या गारंटर होता है, जो 25 लाख रुपए या उससे अधिक की बकाया राशि वाले ऋण को चुकाने में जानबूझकर विफल रहता है।
- बड़े डिफॉल्टर से तात्पर्य ऐसे उधारकर्त्ता से है, जिसका ऋण बकाया 1 करोड़ रुपए या उससे अधिक है, तथा जिसके खाते को संदिग्ध या घाटे वाली श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है।
- राइट-ऑफ से तात्पर्य किसी गैर-निष्पादित ऋण या परिसंपत्ति को बैंक के वित्तीय अभिलेखों से हटाने से है, यह मानते हुए कि ऋण की वसूली की संभावना नहीं है।
- यह प्रक्रिया उधारकर्त्ता को ऋण चुकाने की ज़िम्मेदारी से मुक्त नहीं करती है, बल्कि वसूली की असंभावना को स्वीकार करती है।
गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (NPA) क्या है?
- परिचय:
- इसका तात्पर्य आमतौर पर एक ऋण या अग्रिम से है जिसका मूलधन या ब्याज भुगतान एक निश्चित अवधि के लिये अतिदेय रहता है। ज़्यादातर मामलों में ऋण को गैर-निष्पादित के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, जब ऋण का भुगतान न्यूनतम 90 दिनों की अवधि के लिये नहीं किया गया हो।
- कृषि के लिये यदि 2 शस्य ऋतुओं/फसली मौसमों के लिये मूलधन और ब्याज का भुगतान नहीं किया जाता है, तो ऋण को NPA के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
- NPA के प्रकार:
- सकल NPA: यह अनंतिम राशि में कटौती किये बिना NPA की कुल राशि है।
- निवल NPA: सकल NPA में से प्रावधान घटाने पर निवल NPA प्राप्त होता है।
- प्रावधान का तात्पर्य ऋणों अथवा NPAs से उत्पन्न होने वाले संभावित नुकसान की भरपाई करने के लिये बैंकों द्वारा अलग रखे गए धन से है।
भारत में NPA से निपटने के प्रावधान:
- बैड बैंक:
- नेशनल नेशनल एसेट रिकंस्ट्रक्शन लिमिटेड (NARC) भारत का नामित "बैड बैंक" है।
- इन परिसंपत्तियों की बिक्री को सुविधाजनक बनाने के लिये सरकार ने भारत ऋण समाधान कंपनी लिमिटेड (IDRC) की भी स्थापना की है, जो परिसंपत्तियों को बाज़ार में बेचने का कार्य करती है।
- वित्तीय आस्तियों के प्रतिभूतिकरण और पुनर्निर्माण और प्रतिभूति हित का प्रवर्तन अधिनियम (Securitisation and Reconstruction of Financial Assets and Enforcement of Security Interest Act- SARFAESI अधिनियम), 2002
- दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता ( Insolvency and Bankruptcy Code- IBC), 2016
- इसने इस प्रक्रिया की देखरेख के लिये राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (NCLT) और दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता (IBC) की भी स्थापना की।
- बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को शोध्य ऋण वसूली अधिनियम (RDB अधिनियम), 1993।
- नेशनल नेशनल एसेट रिकंस्ट्रक्शन लिमिटेड (NARC) भारत का नामित "बैड बैंक" है।
EASE फ्रेमवर्क
- सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की वित्तीय स्थिति में सुधार हेतु वर्ष 2018 में उन्नत पहुँच और सेवा उत्कृष्टता (EASE) ढाँचा पेश किया है।
- यह शासन, विवेकपूर्ण ऋण, जोखिम प्रबंधन, प्रौद्योगिकी अपनाने और परिणामोन्मुखी मानव संसाधन प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करता है, जो कि उभरते बैंकिंग परिदृश्य के साथ संरेखित वृद्धिशील सुधारों को संस्थागत बनाता है, तथा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की दक्षता और स्थिरता को बढ़ाता है।
बैंकों द्वारा ऋण माफी क्या है?
- परिचय:
- लोन राइट ऑफ को खाते में डालने, बैंक के परिसंपत्ति रिकॉर्ड से लोन को हटाने की प्रक्रिया को संदर्भित करता है, जो यह दर्शाता है कि बैंक को अब राशि वसूलने की उम्मीद नहीं है।
- यह मुख्य रूप से बैंकों द्वारा अपनी बैलेंस शीट को NPA से मुक्त करने तथा अपनी वित्तीय स्थिति में सुधार लाने के लिये किया जाने वाला एक लेखांकन उपाय है।
- यह प्रक्रिया बैंकों को वसूली योग्य परिसंपत्तियों पर ध्यान केंद्रित करने और अपनी कर देनदारियों को कुशलतापूर्वक प्रबंधित करने की अनुमति देती है।
- लेखांकन तंत्र:
- NPA वर्गीकरण और प्रावधान:
- भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के विवेकपूर्ण मानदंडों के अनुसार, बैंकों को NPA के लिये प्रावधान बनाना चाहिये, जो परिसंपत्ति की आयु बढ़ने के साथ बढ़ता है और संपार्श्विक के प्राप्ति योग्य मूल्य से प्रभावित होता है।
- इससे गैर-निष्पादित ऋणों से संबंधित वित्तीय जोखिमों को कम करने के लिये सतर्क लेखांकन दृष्टिकोण सुनिश्चित होता है।
- तकनीकी अपलेखन:
- तकनीकी राइट ऑफ को खाते में डालने की प्रक्रिया तब होती है, जब प्रावधान अधिशेष ऋण राशि से मेल खाते हैं, जिससे बैंकों को अपने बैलेंस शीट से ऋण को हटाने की अनुमति मिलती है, जबकि इसे "एडवांस अंडर कलेक्शन" के अंतर्गत ऑफ-बैलेंस शीट आइटम के रूप में वर्गीकृत किया जाता है।
- राइट ऑफ खाते में डाले जाने के बावज़ूद, ऋणकर्त्ता की देनदारी बनी रहती है, तथा विधिक और संस्थागत तंत्र के माध्यम से वसूली के प्रयास जारी रहते हैं।
- NPA वर्गीकरण और प्रावधान:
- नियामक दिशानिर्देश:
- इसके लिये आवश्यक है कि राइट ऑफ खाते में डाली गई राशि बैलेंस शीट प्रबंधन और कर दक्षता पर केंद्रित बोर्ड द्वारा अनुमोदित नीतियों के अनुरूप हो।
- बैंकों को राइट ऑफ खाते में डाले गए खातों पर नज़र रखना जारी रखना चाहिये तथा रिटर्न को अनुकूलतम बनाने के लिये वसूली के लिये सक्रिय प्रयास करना चाहिये।
- इसके अतिरिक्त आयकर अधिनियम राइट ऑफ खाते में डाली गई राशि पर कटौती की अनुमति देता है, जिससे बैंकों पर कर का बोझ कम करने में सहायता मिलती है।
भारत में बढ़ते NPA के कारण क्या हैं?
- दोषपूर्ण ऋण प्रक्रिया: ऋणकर्त्ता के चयन के दौरान अपर्याप्त सावधानी और क्रेडिट प्रोफाइल की आवधिक समीक्षा के परिणामस्वरूप पुनर्भुगतान क्षमताओं का अनुचित मूल्यांकन होता है।
- इसके अतिरिक्त अंतिम उपयोग निगरानी प्रणालियों की कमी से धन को गैर-उत्पादक उद्देश्यों के लिये मोड़ दिया जाता है, जिससे NPA की समस्या और बढ़ जाती है।
- विलफुल डिफॉल्ट और खराब क्रेडिट कल्चर: विलफुल डिफॉल्ट की संख्या में वृद्धि, NPA में वृद्धि में योगदान करती है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में 2.5 मिलियन रुपए और उससे अधिक के अधिशेष ऋण वाले विलफुल डिफॉल्टरों की संख्या में निरंतर वृद्धि देखी गई है, जो जून 2019 में 10,209 से बढ़कर मार्च 2023 तक 14,159 हो गई है।
- बार-बार ऋण माफी, विशेषकर कृषि ऋण के लिये, ने ऋण संस्कृति पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।
- ऋण माफी के वादे, भविष्य में ऋण माफी की प्रत्याशा में ऋण न चुकाने के लिये ऋणकर्त्ताओं को प्रोत्साहित करते हैं।
- बार-बार ऋण माफी, विशेषकर कृषि ऋण के लिये, ने ऋण संस्कृति पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।
- औद्योगिक रुग्णता: औद्योगिक रुग्णता अप्रभावी प्रबंधन, अपर्याप्त तकनीकी प्रगति, तथा सरकारी नीतियों में निरंतर बदलावों के कारण उत्पन्न होती है, जिससे उद्योग वित्तीय रूप से अस्थिर हो जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप बैंकों की ऋण वसूली दर खराब हो जाती है।
- धोखाधड़ी और कदाचार: बैंकरों और ऋणकर्त्ताओं दोनों द्वारा धोखाधड़ी के बढ़ते मामलों ने NPA संकट को बढ़ा दिया है।
- वित्त वर्ष 2023-24 की पहली छमाही में भारतीय बैंकों में धोखाधड़ी के मामलों में 166% की वृद्धि हुई और यह संख्या 36,000 से अधिक हो गई।
- नीरव मोदी-PNB धोखाधड़ी और विजय माल्या-किंगफिशर डिफॉल्ट जैसे हाई-प्रोफाइल घोटालों ने जनता के विश्वास और वित्तीय स्थिरता को गंभीर रूप से प्रभावित किया है।
- विनियामक और नीतिगत जोखिम: RBI के दिशानिर्देशों का पालन न करने, जैसे कि वैधानिक और विनियामक पालन में कमियों, के कारण बैंकों पर ज़ुर्माना लगाया गया है, जैसे कि सितंबर 2024 में RBI द्वारा एक्सिस बैंक और HDFC बैंक पर हाल ही में 2.91 करोड़ रुपए का ज़ुर्माना लगाया गया है।
- इसके अतिरिक्त ऋणों को सदाबहार बनाए रखना और बैलेंस शीट की विंडो ड्रेसिंग (स्वस्थ वित्तीय स्थिति प्रस्तुत करने के लिये वित्तीय विवरणों में हेरफेर करना) जैसी प्रथाएँ, विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और सहकारी बैंकों के बीच प्रचलित रही हैं।
- ये प्रथाएँ वास्तविक परिसंपत्ति गुणवत्ता को विकृत करती हैं, अंतर्निहित वित्तीय तनाव को छुपाती हैं और सटीक जोखिम आकलन में बाधा डालती हैं।
- इसके अतिरिक्त ऋणों को सदाबहार बनाए रखना और बैलेंस शीट की विंडो ड्रेसिंग (स्वस्थ वित्तीय स्थिति प्रस्तुत करने के लिये वित्तीय विवरणों में हेरफेर करना) जैसी प्रथाएँ, विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और सहकारी बैंकों के बीच प्रचलित रही हैं।
- क्षेत्र-विशिष्ट चुनौतियाँ: विमानन क्षेत्र में उच्च परिचालन लागत जैसे उद्योग-विशिष्ट कारक उच्च NPA का कारण बनते हैं।
- भारतीय एयरलाइनों को वित्त वर्ष 2025 में 2,000-3,000 करोड़ रुपए का शुद्ध घाटा होने का अनुमान है, जिसका मुख्य कारण उच्च परिचालन व्यय और कम टिकट कीमतें हैं।
- कृषि और MSME को प्राथमिकता क्षेत्र ऋण (PSL) देने में अक्सर पुनर्भुगतान संबंधी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसके कारण बैंकिंग क्षेत्र के NPA में वृद्धि होती है।
- समाधान तंत्र में अकुशलता: ऋण वसूली न्यायाधिकरणों (DRT) के समक्ष मामलों के समाधान में देरी एवं दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता (IBC) तथा SARFAESI अधिनियम जैसे वसूली संबंधी कानूनों के शिथिल कार्यान्वयन से प्रभावी NPA प्रबंधन में बाधा उत्पन्न हुई है।
NPA वसूली से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?
- विधिक एवं विनियामक बाधाएँ: भारत में NPA वसूली में शिथिल एवं परंपरागत विधिक फ्रेमवर्क से बाधा आ रही है। IBC और SARFAESI अधिनियम जैसे कानूनों के बावजूद, कॉर्पोरेट दिवालियापन मामलों के समाधान में 400 दिनों से अधिक समय लगता है, जैसा कि भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता बोर्ड (IBBI) द्वारा बताया गया है।
- ऋणदाता अक्सर वसूली में देरी करने के क्रम में कानून का सहारा लेते हैं, जिससे स्थिति और भी खराब हो जाती है।
- उचित परिसंपत्ति मूल्यांकन और प्राप्ति: NPA वसूली में सटीक परिसंपत्ति मूल्यांकन महत्त्वपूर्ण है। बाज़ार की स्थितियों एवं आर्थिक कारकों के कारण इसका अधिमूल्यन या अवमूल्यन हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप वित्तीय नुकसान हो सकता है।
- कोलेटरल को नकदी में परिवर्तित करना (विशेष रूप से आर्थिक मंदी के दौरान या विशिष्ट बाज़ार स्थितियों में) धीमा और चुनौतीपूर्ण हो सकता है, क्योंकि परिसंपत्तियों का अक्सर उचित मूल्यांकन सुनिश्चित करना जटिल होता है।
- उधारकर्त्ताओं का सहयोग: यह NPA वसूली के लिये महत्त्वपूर्ण है। कई उधारकर्त्ताओं में या तो चुकाने की क्षमता या इच्छा की कमी होती है, जिसके कारण वे संपत्ति को छिपाने या उसका कम मूल्यांकन करने या कानून का उपयोग कर इसमें देरी करते हैं, जिससे वसूली प्रक्रिया में काफी बाधा आती है।
- परिचालन अक्षमताएँ: खराब दस्तावेज़ीकरण, अपर्याप्त ट्रैकिंग प्रणाली एवं समन्वय की कमी जैसी आंतरिक अक्षमताओं से NPA वसूली में बाधा आती है।
- केंद्रीकृत प्रबंधन प्रणाली के अभाव में सूचना के कुप्रबंधन एवं वसूली में देरी होने के साथ लागत में वृद्धि होती है।
- आर्थिक कारक एवं बाज़ार की स्थिति: आर्थिक मंदी के कारण संपत्ति के मूल्यों में गिरावट आती है, जिससे पूर्ण ऋण राशि वसूलना मुश्किल हो जाता है। बाज़ार में अस्थिरता (विशेष रूप से रियल एस्टेट और मशीनरी जैसे क्षेत्रों में) से वसूली प्रक्रिया और भी जटिल हो जाती है।
आगे की राह
- सरकारी सहायता: पारदर्शी मान्यता, बेहतर वसूली, पुनर्पूंजीकरण और वित्तीय पारिस्थितिकी तंत्र सुधारों के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को मज़बूत बनाने एवं NPA को कम करने के लिये 4R रणनीति- मान्यता, समाधान, पुनर्पूंजीकरण एवं सुधार को लागू करना चाहिये।
- उन्नत निगरानी: बैंकों को ऋण चूक के प्रारंभिक संकेतों का पता लगाने के लिये बेहतर निगरानी प्रणालियों में निवेश करना चाहिये तथा ऋणों के NPA बनने से पहले निवारक उपाय करने चाहिये।
- उधारकर्त्ताओं के साथ सक्रिय सहभागिता एवं ऋण निष्पादन का नियमित पुनर्मूल्यांकन, चूक के जोखिम को कम करने में सहायक हो सकता है।
- अनुमोदन प्रक्रिया: एक संरचित ऋण अनुमोदन प्रक्रिया स्थापित करनी चाहिये, जिसमें उधारकर्त्ताओं की वित्तीय स्थिति एवं पुनर्भुगतान क्षमता का व्यापक मूल्यांकन करने के साथ आवधिक समीक्षा शामिल हो।
- संस्थागत तंत्र: दीर्घकालिक औद्योगिक एवं बुनियादी ढाँचे के वित्तपोषण के लिये नवीन विकास वित्तीय संस्थानों (DFI) का विकास करना चाहिये।
- सार्वजनिक-निजी सहयोग: सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के बैंकों तथा विशेष एजेंसियों के बीच सहयोगात्मक प्रयासों से वसूली कार्यों की दक्षता में सुधार हो सकता है।
- डिफॉल्टरों पर नज़र रखने के लिये प्रौद्योगिकी एवं डेटा एनालिटिक्स का उपयोग करने से भी वसूली प्रयासों में वृद्धि हो सकती है।
- जोखिम प्रबंधन: ऋण पोर्टफोलियो में विविधता लाकर संकेंद्रण जोखिम को कम करने के साथ मंदी के दौरान NPA को न्यूनतम करने के लिये विशिष्ट क्षेत्रों या उधारकर्त्ताओं पर निर्भरता कम करनी चाहिये।
- बैंकों को कड़े ऋण मानदंड अपनाने के साथ सफलता की अधिक संभावना वाली परियोजनाओं के वित्तपोषण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये।
निष्कर्ष
यद्यपि ऋण माफी से भारतीय बैंकों के NPA में कमी आई है लेकिन इस दृष्टिकोण की दीर्घकालिक स्थिरता, वसूली तंत्र में सुधार के साथ विधिक ढाँचे को मज़बूत करने एवं वित्तीय संस्थानों के समग्र प्रशासन को उन्नत बनाने पर निर्भर है।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: भारतीय बैंकों में बढ़ते NPA के कारणों का विश्लेषण करते हुए उसे कम करने के क्रम में सरकार तथा RBI के उपायों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा हाल ही में समाचारों में आए ‘दबावयुक्त परिसम्पत्तियों के धारणीय संरचन पद्धति (स्कीम फॉर सस्टेनेबल स्ट्रक्चरिंग ऑफ स्ट्रेचड एसेट्स/S4A)’ का सर्वोत्कृष्ट वर्णन करता है? (2017) (a) यह सरकार द्वारा निरूपित विकासपरक योजनाओं की पारिस्थितिक कीमतों पर विचार करने की पद्धति है। उत्तर: (b) |
शासन व्यवस्था
PSC द्वारा MGNREGA योजना में सुधार का सुझाव
प्रिलिम्स के लिये:ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसदीय स्थायी समिति, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना, आधार-आधारित भुगतान प्रणाली, आधार, ग्राम पंचायत, लोकपाल, मुद्रास्फीति, राष्ट्रीय मोबाइल निगरानी प्रणाली, कृषि श्रमिकों के लिये उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) ग्रामीण, लोकसभा अध्यक्ष। मेन्स के लिये:मनरेगा योजना से संबंधित चुनौतियाँ और आगे की राह। |
स्रोत: लाइवमिंट
चर्चा में क्यों?
हाल ही में ग्रामीण विकास और पंचायती राज पर संसदीय स्थायी समिति (PSC) ने उन चुनौतियों पर प्रकाश डाला है जिससे MGNREGS के तहत मजदूरी, मुद्रास्फीति के अनुरूप नहीं हो पाई है और इसने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (MGNREGS) में कुछ सुधारों की सिफारिश की है।
नोट: मुद्रास्फीति से तात्पर्य धन की क्रय शक्ति में कमी से है जो किसी अर्थव्यवस्था में वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों में सामान्य वृद्धि के माध्यम से स्पष्ट होती है।
मनरेगा के कार्यान्वयन से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?
- मजदूरी दर का मुद्रास्फीति के अनुरूप न होना: मनरेगा मजदूरी दर मुद्रास्फीति के अनुरूप न होने से ग्रामीण श्रमिकों की क्रय शक्ति में कमी आती है और ये 100 कार्यदिवस पूरा करने से हतोत्साहित होते हैं।
- इसके अतिरिक्त 100 दिन की रोज़गार गारंटी प्रायः अपर्याप्त (विशेष रूप से प्राकृतिक आपदाओं और महामारी के बाद की स्थिति में) सिद्ध होने से ग्रामीण परिवारों को दीर्घकालिक आजीविका सुरक्षा प्रदान करने की इसकी क्षमता सीमित हो जाती है।
- अनुमेय कार्यों में संशोधन: मनरेगा कार्य सूची प्रायः बाढ़ सुरक्षा और भूमि अपरदन प्रबंधन जैसी ग्रामीण आवश्यकताओं को पूरा करने में विफल रहती है।
- स्थानीय आवश्यकताओं के आधार पर अनुमेय कार्यों को संशोधित करने में विलंब, क्षेत्रीय चुनौतियों से निपटने में योजना की प्रभावशीलता को सीमित करता है।
- मजदूरी का विलंबित भुगतान: भुगतान में देरी अक्सर आधार-आधारित भुगतान प्रणाली (ABPS), निष्क्रिय आधार विवरण, या फ्रीज हुए बैंक खातों के कारण होती है, जिससे योजना का अपेक्षित प्रभाव प्रभावित होता है।
- संभावित तकनीकी खामियों और बुनियादी ढाँचा संबंधी समस्याओं के कारण कमज़ोर श्रमिकों को भुगतान नहीं मिल पाता।
- मुआवज़े में विलंब: मज़दूरी के भुगतान में विलंब के मामले में, लाभार्थी विलंब अवधि के लिये प्रतिदिन अवैतनिक श्रम के 0.05% की दर से मुआवज़े के हकदार हैं।
- हालाँकि देश में अधिकांश स्थानों पर विलंब मुआवज़े के भुगतान का पालन नहीं किया जाता है।
- बेरोज़गारी भत्ता: मनरेगा के अंतर्गत जो व्यक्ति काम के लिये आवेदन करते हैं, लेकिन उन्हें 15 दिनों के भीतर काम नहीं मिलता है, वे दैनिक बेरोज़गारी भत्ते के हकदार होते हैं।
- बेरोज़गारी भत्ता शायद ही कभी दिया जाता है और दी जाने वाली राशि भी न्यूनतम होती है।
- कमजोर सामाजिक अंकेक्षण: मनरेगा के अंतर्गत, ग्राम सभा को ग्राम पंचायत के अंतर्गत शुरू की गई सभी परियोजनाओं का नियमित सामाजिक अंकेक्षण करना चाहिये।
- हालाँकि वर्ष 2020-21 में केवल 29,611 ग्राम पंचायतों का कम-से-कम एक बार ऑडिट किया गया, जो कमज़ोर सामाजिक ऑडिट तंत्र को दर्शाता है।
- लोकपालों की कमी: 715 संभावित नियुक्तियों में से अभी तक केवल 263 लोकपालों की नियुक्ति की गई है।
समिति द्वारा मनरेगा में सुधार हेतु सुझाव की विभिन्न सिफारिशें क्या हैं?
- मजदूरी दरों में संशोधन: पारिश्रमिक दरों में ग्रामीण क्षेत्रों में जीवन निर्वाह की बढ़ती लागत के दृष्टिगत मौजूदा मुद्रास्फीति के अनुरूप उपयुक्त मुद्रास्फीति सूचकांक के अनुसार संशोधन किया जाना चाहिये।
- आधार वर्ष 2009-2010 और दरों को वर्तमान मुद्रास्फीति उपनति और ग्रामीण आर्थिक स्थितियों के अनुरूप अद्यतन करने की आवश्यकता है।
- कार्य दिवसों में वृद्धि: समिति ने मनरेगा के अंतर्गत कार्य दिवसों की संख्या को 100 से बढ़ाकर 150 करने की भी सिफारिश की।
- भुगतान तंत्र: इसने निर्बाध वेतन संवितरण सुनिश्चित करने के लिये APBS के साथ-साथ वैकल्पिक भुगतान प्रणालियों को बनाए रखने की सिफारिश की।
- पैनल ने समय पर वेतन भुगतान सुनिश्चित करने के लिये एक सुव्यवस्थित भुगतान प्रक्रिया की सिफारिश की, जिसका उद्देश्य नौकरशाही बाधाओं को कम करना है।
- राष्ट्रीय मोबाइल निगरानी प्रणाली (NMMS): समिति ने लाभार्थियों को NMMS का प्रभावी उपयोग करने में सहायता के लिये जागरूकता अभियान और प्रशिक्षण कार्यक्रमों की आवश्यकता पर बल दिया।
- इसने तकनीकी समस्याओं के कारण श्रमिकों द्वारा योजना से बाहर होने से बचाने के लिये वैकल्पिक उपस्थिति पद्धति को बनाए रखने की भी सिफारिश की।
- NMMS की सहायता से पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के लिये मनरेगा के अंतर्गत उपस्थिति और कार्य प्रगति की निगरानी की जाती है।
- मनरेगा के लिये पर्याप्त निधि आवंटन: समिति ने सरकार द्वारा मनरेगा के लिये पर्याप्त वित्तीय आवंटन सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर बल दिया ताकि ग्रामीण परिवारों को आजीविका सुरक्षा प्रदान करने में इसकी प्रभावशीलता सुनिश्चित हो सके।
नोट:
- वित्तीय वर्ष 2024-25 में संपूर्ण भारत में औसत मनरेगा पारिश्रमिक में प्रतिदिन केवल 28 रुपए की वृद्धि हुई।
- वित्तीय वर्ष 2023-24 में मनरेगा पारिश्रमिक वृद्धि 2% से 10% तक रही।
- भारत सरकार कृषि श्रम के लिये उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI-AL) का उपयोग करके मनरेगा के तहत पारिश्रमिक दर अधिसूचित करती है।
- राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी (NMW) के निर्धारण की कार्यप्रणाली की समीक्षा और सिफारिश करने के लिये गठित डॉ. अनूप सत्पथी समिति (2019) ने सिफारिश की थी कि मनरेगा के तहत मजदूरी 375 रुपए प्रतिदिन होनी चाहिये।
- डॉ. नागेश सिंह समिति (2017) ने मनरेगा मजदूरी को CPI-कृषि श्रम के बजाय उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) ग्रामीण के अनुसार अनुक्रमित करने की सिफारिश की।
ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज संबंधी संसदीय स्थायी समिति क्या है?
- परिचय: इसे पहली बार 5 अगस्त, 2004 को लोकसभा के प्रक्रिया एवं कार्य-संचालन नियमों के 331C के अंतर्गत ग्रामीण विकास से संबंधित मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिये गठित किया गया था।
- अधिकारिता: निम्नलिखित मंत्रालय/विभाग पर समिति की अधिकारिता है:
- ग्रामीण विकास मंत्रालय
- पंचायती राज मंत्रालय
- संरचना: समिति में अध्यक्ष द्वारा लोकसभा से नामित 21 सदस्य और सभापति द्वारा राज्यसभा से नामित 10 सदस्य, कुल 31 सदस्य शामिल हैं।
- किसी मंत्री को समिति के सदस्य के रूप में नामित नहीं किया जाता है।
- समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति लोकसभा अध्यक्ष द्वारा समिति के सदस्यों में से की जाती है।
- सदस्यों का कार्यकाल: समिति के सदस्यों का कार्यकाल एक वर्ष से अनधिक होता है।
- कार्य:
- अनुदानों की मांगों पर विचार करना और सदनों को सूचना देना।
- अध्यक्ष या सभापति द्वारा प्रेषित विधेयकों की जाँच करना तथा उनकी सूचना देना।
- मंत्रालयों/विभागों की वार्षिक रिपोर्ट की समीक्षा करना और उनकी सूचना देना।
- अध्यक्ष या सभापति द्वारा संदर्भित राष्ट्रीय नीति दस्तावेज़ों पर विचार करना और सूचना देना।
MGNREGS
- परिचय: ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा वर्ष 2005 में शुरू किया गया, MGNREGS सबसे बड़े कार्य गारंटी कार्यक्रमों में से एक है, जिसके अंतर्गत प्रत्येक वर्ष ग्रामीण क्षेत्रों के प्रत्येक परिवार को न्यूनतम वेतन पर 100 दिनों का शारीरिक कार्य प्रदान किया जाता है।
- कार्यान्वयन: ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा राज्य सरकारों के साथ मिलकर योजना के कार्यान्वयन की देखरेख करता है।
- प्रमुख विशेषताएँ:
- विधिक गारंटी: मनरेगा की मुख्य विशेषता इसके अंतर्गत कार्य की विधिक गारंटी है, जिसके तहत ग्रामीण क्षेत्र के वयस्कों द्वारा कार्य का अनुरोध किये जाने पर 15 दिनों के भीतर कार्य प्रदान किया जाना सुनिश्चित किया जाता है।
- बेरोज़गारी भत्ता: यदि 15 दिनों के भीतर काम उपलब्ध नहीं कराया जाता है तो बेरोज़गारी भत्ता प्रदान किया जाना होता है।
- महिला वर्ग का समावेशन: इस योजना में महिलाओं को प्राथमिकता दी जाती है तथा लाभुकों में न्यूनतम एक तिहाई महिलाओं का होना सुनिश्चित किया जाता है, जिन्होंने पंजीकरण कराया हो तथा काम के लिये अनुरोध किया हो।
- सामाजिक अंकेक्षण: महात्मा गांधी नरेगा, 2005 की धारा 17 में ग्रामसभा द्वारा योजना कार्यों का सामाजिक अंकेक्षण किये जाने का अधिदेश वर्णित है।
- लागत सहभागिता: केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा क्रमशः 90:10 के अनुपात में वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।
- संविदाकार पर प्रतिबंध: संविदाकारों की नियुक्ति और श्रमिकों का विस्थापन करने वाली मशीनों के उपयोग पर प्रतिबंध है।
निष्कर्ष
- मनरेगा के लिये संसदीय स्थायी समिति की सिफारिशों का उद्देश्य अपर्याप्त कार्यदिवस, पारिश्रमिक असमानता, विलंबित भुगतान और अनुपयुक्त निगरानी प्रणाली जैसी प्रमुख चुनौतियों का समाधान करना है। ग्रामीण आजीविका में सुधार और दीर्घावधि में योजना की स्थिरता सुनिश्चित करने के लिये इन सुधारों का प्रभावी कार्यान्वयन आवश्यक है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (MGNREGS) के कार्यान्वयन की चुनौतियों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिये और इसकी प्रभावकारिता बढ़ाने हेतु सुधारों का सुझाव दीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन "महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम" से लाभान्वित होने के पात्र हैं? (2011) (a) केवल अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति परिवारों के वयस्क सदस्य उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. भारत में आज भी सुशासन के लिये भूख और गरीबी सबसे बड़ी चुनौतियाँ हैं. मूल्यांकन कीजिये कि इन विशाल समस्याओं से निपटने में सरकारों ने कितनी प्रगति की है। सुधार के उपाय सुझाइये। (2017) प्रश्न. क्या कमज़ोर और पिछड़े समुदायों के लिये आवश्यक सामाजिक संसाधनों को सुरक्षित करने के द्वारा, उनकी उन्नति के लिये सरकारी योजनाएँ, शहरी अर्थव्यवस्थाओं में व्यवसायों की स्थापना करने में उनको बहिष्कृत कर देती हैं? (2014) |