नोएडा शाखा पर IAS GS फाउंडेशन का नया बैच 16 जनवरी से शुरू :   अभी कॉल करें
ध्यान दें:

डेली न्यूज़

  • 13 Dec, 2024
  • 62 min read
कृषि

उर्वरक उपयोग में बदलता परिदृश्य

प्रिलिम्स के लिये:

उर्वरक, उर्वरक सब्सिडी, यूरिया, DAP, पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी (NBS) योजना

मेन्स के लिये:

उर्वरक उद्योग और उर्वरक सब्सिडी से संबंधित मुद्दे और आगे की राह

स्रोत: बिज़नेस स्टैंडर्ड

चर्चा में क्यों?

हाल ही में रबी फसलों के लिये एक प्रमुख उर्वरक, डाइ-अमोनियम फॉस्फेट (DAP) उर्वरकों की बिक्री में अप्रैल से अक्तूबर वित्त वर्ष 25 के दौरान 25.4% की उल्लेखनीय गिरावट आई है, जबकि इसी अवधि में  NPKS (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम और सल्फर) उर्वरकों की बिक्री में 23.5% की वृद्धि हुई है।

  • यह बदलाव मुख्य रूप से DAP के आयात में कमी और उच्च लागत के कारण हुआ है, जिससे किसान NPKS जैसे विकल्पों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित हो रहे हैं, जो अधिक संतुलित मृदा पोषण प्रदान करते हैं।

उर्वरक उपयोग वरीयता में बदलाव को प्रभावित करने वाले कारक क्या हैं?

  • DAP के उपयोग में गिरावट: यह बदलाव मुख्य रूप से DAP से जुड़ी बढ़ती लागत और आपूर्ति शृंखला के मुद्दों से हुआ है, जो किसानों को विकल्प तलाशने के लिये प्रेरित करता है।
    • रूस-यूक्रेन संघर्ष और बेलारूस प्रतिबंधों जैसी वैश्विक चुनौतियों ने पोटाश बाज़ारों को बाधित किया, जिससे वित्त वर्ष 23 में म्यूरेट ऑफ पोटाश (MOP) की कीमतों में वृद्धि हुई। ये देश विश्व में पोटाश के प्रमुख उत्पादकों में से हैं।
    • फारस की खाड़ी संकट के कारण DAP की बिक्री 30% घटकर 2.78 मिलियन टन रह गई, जिसके कारण शिपिंग में विलंब हुआ, तथा पारगमन का समय सामान्यतः 20-25 दिनों से बढ़कर लगभग 45 दिन का हो गया।
      • इसके कारण सितंबर 2024 में DAP की कीमतें बढ़कर लगभग 632 अमेरिकी डॉलर प्रति टन हो गईं।
  • उर्वरक वरीयताओं में बदलाव: किसान तेज़ी से NPKS उर्वरकों की ओर रुख कर रहे हैं, जिन्हें संतुलित पोषक तत्त्व संरचना के कारण DAP की तुलना में अधिक फायदेमंद माना जाता है। 20:20:0:13 NPKS ग्रेड, जो नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश और सल्फर की संतुलित मात्रा प्रदान करता है, की बिक्री में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है।

Fetilizer_sales

नोट: उन्नत उर्वरक उपयोग से भारतीय मृदा में NPK अनुपात बढ़कर खरीफ 2024 में 9.8:3.7:1 हो गया, जो खरीफ 2023 में 10.9:4.9:1 था, हालाँकि यह अभी भी भारतीय उर्वरक संघ (FAI) द्वारा अनुशंसित आदर्श 4:2:1 अनुपात से कम है।

NPKS उर्वरक के उपयोग के क्या लाभ हैं?

  • संतुलित पोषक तत्त्व आपूर्ति: NPKS उर्वरक आवश्यक पोषक तत्त्वों - नाइट्रोजन (N), फास्फोरस (P), पोटेशियम (K), और सल्फर (S) की व्यापक आपूर्ति प्रदान करते हैं - जो पौधों की वृद्धि के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, और फसलों के समग्र स्वास्थ्य और उत्पादकता को बढ़ाते हैं।
    • यह संतुलन सुनिश्चित करता है कि पौधों को वानस्पतिक से लेकर प्रजनन अवस्था तक, विभिन्न विकास चरणों के लिये पर्याप्त पोषक तत्त्व प्राप्त हों।
  • उन्नत मृदा स्वास्थ्य और सतत् कृषि: सल्फर, एक आवश्यक पोषक तत्त्व है जिसकी प्रायः मृदा में कमी पाई जाती है, यह जड़ों के विकास, एंजाइम सक्रियण और रोग प्रतिरोधक क्षमता में सुधार करता है। 
    • सल्फर को शामिल करके, NPKS उर्वरक मृदा के स्वास्थ्य और उर्वरता को बढ़ाते हैं, जिससे पौधों द्वारा पोषक तत्त्वों का अधिक कुशलतापूर्वक अवशोषण होता है।
  • फसल की उपज में वृद्धि: यह प्रकाश संश्लेषण में सुधार, पौधों की प्रतिरक्षा को मज़बूत करने और बेहतर पुष्पन, फलन और बीज निर्माण को बढ़ावा देकर फसल की उपज बढ़ाने में मदद करता है। इससे उत्पादकता बढ़ती है, जो खाद्य सुरक्षा के लिये विशेष रूप से लाभदायक है।
  • इष्टतम पादप वृद्धि: इसे पौधों की समग्र वृद्धि को समर्थन देने, जड़ और तने के विकास में सुधार लाने, क्लोरोफिल उत्पादन में वृद्धि करने और सूखा प्रतिरोधकता को बढ़ाने के लिये डिज़ाइन किया गया है, जिससे फसलों को विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में पनपने में मदद मिलती है।

कृषि में प्रयुक्त होने वाले विभिन्न प्रकार के रासायनिक उर्वरक क्या हैं?

  • नाइट्रोजन युक्त उर्वरक: यूरिया (46% नाइट्रोजन), अमोनियम सल्फेट (21% नाइट्रोजन, 24% सल्फर) और कैल्शियम अमोनियम नाइट्रेट (26% नाइट्रोजन) जैसे नाइट्रोजन युक्त उर्वरक पौधों की वृद्धि, प्रोटीन संश्लेषण को बढ़ाने, क्लोरोफिल निर्माण और तीव्र विकास के लिये आवश्यक हैं।
  • फॉस्फेटिक उर्वरक: ये जड़ के विकास, पुष्पन और बीज निर्माण के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, इनमें सिंगल सुपर फॉस्फेट (16-20% P2O5, कैल्शियम और सल्फर) और डायमोनियम फॉस्फेट (46% फॉस्फोरस, 18% नाइट्रोजन) शामिल हैं, जो मृदा की उर्वरता और पौधों की वृद्धि को बढ़ाते हैं।
  • पोटाश उर्वरक: ये जल विनियमन, एंजाइम सक्रियण और रोग प्रतिरोध के लिये आवश्यक हैं, इसमें MOP (60% पोटेशियम) शामिल है, जिसका उपयोग आमतौर पर भारत में किया जाता है, और सल्फेट ऑफ पोटाश (50% पोटेशियम, 18% सल्फर), जो तंबाकू, फलों और सब्जियों जैसी क्लोराइड-संवेदनशील फसलों के लिये अनुशंसित है।
  • जटिल उर्वरक: कई प्राथमिक पोषक तत्त्वों के साथ तैयार किये गए जटिल उर्वरकों में संतुलित पोषण के लिये NPK उर्वरक (जैसे, 10:26:26, 12:32:16), NPKS (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम और सल्फर युक्त) और अमोनियम फॉस्फेट सल्फेट (Ammonium Phosphate Sulfate- APS) शामिल हैं, जो सल्फर, फास्फोरस और नाइट्रोजन से भरपूर है, जो सल्फर की कमी वाली मृदा के लिये उपयुक्त है।

उर्वरकों से संबंधित सरकारी पहल क्या हैं?

भारत में उर्वरक उपयोग से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?

  • उर्वरक उपयोग में असंतुलन: भारत का वास्तविक NPK अनुपात (खरीफ 2024 में 9.8:3.7:1) अनुशंसित 4:2:1 अनुपात से काफी विचलित है, जिससे पोषक तत्त्वों की कमी और मिट्टी का क्षरण हो रहा है।
    • अत्यधिक नाइट्रोजन और अपर्याप्त फास्फोरस तथा पोटेशियम के कारण यह असंतुलन, पोषक तत्त्वों की कमी, मृदा क्षरण एवं फसल की पैदावार में कमी का कारण बनता है।
  • नाइट्रोजन उर्वरकों का अत्यधिक उपयोग: भारत चीन के बाद विश्व में यूरिया का दूसरा सबसे बड़ा उपभोक्ता है, लेकिन इसके अत्यधिक उपयोग से मिट्टी का क्षरण, जल प्रदूषण और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन होता है। सब्सिडी उर्वरक बाज़ार को विकृत करती है तथा अकुशलता को बढ़ावा देती है।
  • कम उत्पादन और उच्च खपत: उर्वरकों के उत्पादन में वर्ष 2014-15 में 385.39 LMT से वर्ष 2023-24 में 503.35 LMT तक मामूली वृद्धि के बावजूद, देश की मांग को पूरी तरह से पूरा करने के लिये घरेलू उर्वरक उत्पादन अपर्याप्त बना हुआ है।
    • वर्ष 2020-21 में उर्वरकों की कुल खपत लगभग 629.83 LMT थी। 
  • आयात पर निर्भरता: भारत अपनी आवश्यकता का लगभग 20% यूरिया, 50-60% डायमोनियम फॉस्फेट (DAP) और 100% म्यूरिएट पोटाश (MOP) उर्वरक चीन, रूस, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, ओमान, ईरान और मिस्र जैसे देशों से आयात करता है।
    • इससे भारत प्रमुख उर्वरक पोषक तत्त्वों के लिये वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं पर अत्यधिक निर्भर हो जाता है तथा वैश्विक मूल्य में उतार-चढ़ाव और आपूर्ति में अस्थिरता के प्रति संवेदनशील हो जाता है।

आगे की राह

  • संतुलित उर्वरक उपयोग : NPKS (नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटेशियम और सल्फर) पर जोर देने के साथ संतुलित उर्वरक उपयोग को बढ़ावा देने से NPK अनुपात में असंतुलन को दूर करने, मृदा स्वास्थ्य को बढ़ाने और यूरिया जैसे नाइट्रोजन-प्रधान उर्वरकों पर निर्भरता कम करने में मदद मिल सकती है।
  • जैविक और जैव-उर्वरकों को बढ़ावा देना: जैविक खेती और जैव-उर्वरकों को प्रोत्साहित करने से रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम हो सकती है, मिट्टी की उर्वरता बढ़ सकती है और सिंथेटिक उर्वरकों के पर्यावरणीय प्रभाव को कम किया जा सकता है।
  • कुशल उर्वरक वितरण: लक्षित दृष्टिकोण के माध्यम से उर्वरक सब्सिडी और वितरण को सुव्यवस्थित करने से अकुशलताएँ कम होंगी तथा संतुलित, लागत प्रभावी उर्वरक उपयोग को बढ़ावा मिलेगा।
  • घरेलू उत्पादन क्षमता विस्तार: प्रौद्योगिकी और बुनियादी ढाँचे में निवेश के साथ फॉस्फेटिक तथा पोटाशिक उर्वरकों के घरेलू उत्पादन का विस्तार करने से भारत की आयात पर निर्भरता कम होगी एवं आपूर्ति शृंखला लचीलापन मज़बूत होगा।
  • सतत् उर्वरक नीतियाँ: सरकार को ऐसी नीतियाँ बनानी चाहिये जो क्षेत्रीय मिट्टी के प्रकार और फसल-विशिष्ट पोषक तत्त्वों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उर्वरकों के विवेकपूर्ण उपयोग को प्रोत्साहित करना।

Balanced_Fertilizer

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: भारत में उर्वरक उपयोग की चुनौतियों पर चर्चा कीजिये तथा संतुलित उपयोग को बढ़ावा देने तथा घरेलू उत्पादन बढ़ाने के उपाय सुझाइये।

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)  

प्रश्न. भारत में रासायनिक उर्वरकों के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये-

  1. वर्तमान में रासायनिक उर्वरकों का खुदरा मूल्य बाज़ार-संचालित है और यह सरकार द्वारा नियंत्रित नहीं है।
  2.  अमोनिया जो यूरिया बनाने में काम आता है, वह प्राकृतिक गैस से उत्पन्न होता है।
  3.  सल्फर, जो फॉस्फोरिक अम्ल उर्वरक के लिये कच्चा माल है, वह तेल शोधन कारखानों का उपोत्पाद है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 
(b) केवल 2 और 3
(c) केवल 2
(d) 1, 2 और 3

उत्तर: (b)


प्रश्न. भारत सरकार कृषि में 'नीम-लेपित यूरिया' (Neem-coated Urea) के उपयोग को क्यों प्रोत्साहित करती है? (2016)

(a) मृदा में नीम तेल के निर्मुक्त होने से मृदा सूक्ष्मजीवों द्वारा नाइट्रोजन यौगिकीकरण बढ़ता है 
(b) नीम लेप, मृदा में यूरिया के घुलने की दर को धीमा कर देता है 
(c) नाइट्रस ऑक्साइड, जो कि एक ग्रीनहाउस गैस है, फसल वाले खेतों से वायुमंडल में बिलकुल भी विमुक्त नहीं होती है
(d) विशेष फसलों के लिये यह एक अपतृणनाशी (वीडिसाइड) और एक उर्वरक का संयोजन है  

उत्तर: (b)


विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी

अंतरिक्ष अन्वेषण संबंधी क्लाइमेट फुटप्रिंट

प्रिलिम्स के लिये:

पेरिस समझौता, ब्लैक कार्बन, अंतरिक्ष मलबा, पृथ्वी की निचली कक्षा (LEO), बाह्य अंतरिक्ष संधि 1967, भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष संवर्द्धन और प्राधिकरण केंद्र, अंतरिक्ष वस्तुओं की ट्रैकिंग तथा विश्लेषण हेतु नेटवर्क

मेन्स के लिये:

अंतरिक्ष अन्वेषण का पर्यावरणीय प्रभाव, अंतरिक्ष स्थिरता में भारत की भूमिका, प्रौद्योगिकी एवं पर्यावरण नीति के बीच अंतर्संबंध

स्रोत: द हिंदू 

चर्चा में क्यों? 

अंतरिक्ष अन्वेषण का विस्तार तेज़ी से हो रहा है, लेकिन रॉकेट लॉन्चिंग से लेकर उपग्रह मलबे से इसके पर्यावरणीय प्रभाव को पेरिस समझौता जैसे वैश्विक स्थिरता ढाँचों द्वारा बड़े पैमाने पर अनदेखा किया जाता है। इन बढ़ती चिंताओं को दूर करने के लिये तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है।

अंतरिक्ष गतिविधियाँ पर्यावरण को किस प्रकार प्रभावित कर रही हैं?

  • रॉकेट उत्सर्जन: रॉकेट प्रक्षेपण से कार्बन डाईऑक्साइड (CO₂), ब्लैक कार्बन और जलवाष्प उत्सर्जित होते हैं। ब्लैक कार्बन CO₂ की तुलना में 500 गुना अधिक प्रभावी ढंग से सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करता है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग में वृद्धि होती है। 
  • इसके अतिरिक्त, क्लोरीन आधारित रॉकेट प्रोपल्सन ओज़ोन परत को क्षति पहुँचाते हैं, पराबैंगनी (UV) विकिरण को बढ़ाते हैं और वायुमंडलीय परिसंचरण को बाधित करते हैं।
  • अंतरिक्ष अपशिष्ट: सितंबर 2024 तक 19,590 उपग्रह प्रक्षेपित किये जा चुके हैं, जिनमें से 13,230 अभी भी कक्षा में मौजूद हैं, इनमें से 10,200 अभी भी कार्यान्वित हैं। 
  • अंतरिक्ष वस्तुओं का कुल द्रव्यमान 13,000 टन से अधिक है, जो पृथ्वी की निचली कक्षा (LEO)  में भीड़भाड़ के कारण अंतरिक्ष अपशिष्ट के प्रदूषण में योगदान देता है।
  • गैर-कार्यशील उपग्रह और टकरावों से उत्पन्न मलबा अंतरिक्ष अपशिष्ट की बढ़ती समस्या में योगदान दे रहा है तथा अंतरिक्ष को लगातार दुर्गम बना रहा है।
  • यह अपशिष्ट रेडियो तरंगों और सेंसर की सटीकता को बाधित कर सकता है, जिससे आपदा ट्रैकिंग, जलवायु निगरानी तथा संचार के लिये महत्त्वपूर्ण प्रणालियाँ प्रभावित हो सकती हैं।
  • उपग्रह निर्माण: उपग्रहों के उत्पादन में ऊर्जा-गहन प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं, जो विशेष रूप से धातुओं और मिश्रित सामग्रियों के उपयोग के माध्यम से, उनके कार्बन फुटप्रिंट में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं।
  • उपग्रह प्रणोदन प्रणालियाँ कक्षीय समायोजन के दौरान अतिरिक्त उत्सर्जन भी करती हैं। इसके अतिरिक्त उपग्रह पुनः प्रवेश के दौरान दहन हो जाते हैं, जिससे धातुयुक्त "उपग्रह की राख" निकलती है जो वायुमंडलीय गतिशीलता को परिवर्तित कर सकती है और जलवायु को क्षति पहुँचा सकती है।
  • उभरते खतरे: अंतरिक्ष खनन, हालाँकि अभी तक शुरू नहीं हुआ है, लेकिन यह पृथ्वी और अंतरिक्ष वातावरण दोनों के लिये संभावित खतरा है। 
    • कक्ष में औद्योगिक गतिविधियों में वृद्धि से पर्यावरणीय प्रभाव तीव्र हो सकते हैं तथा वर्तमान अंतरिक्ष परिचालनों द्वारा उत्पन्न चुनौतियाँ और भी जटिल हो सकती हैं।

सतत् अंतरिक्ष अन्वेषण संबंधी क्या बाधाएँ हैं?

  • विनियमन का अभाव: अंतरिक्ष गतिविधियाँ पेरिस समझौते जैसे समझौतों के अंतर्गत नहीं आती हैं, जिससे उत्सर्जन और मलबा वृहत स्तर पर अनियंत्रित रह जाता है। 
    • स्पष्ट दिशा-निर्देशों के अभाव में, उपग्रहों और मलबे में तीव्र वृद्धि के कारण कक्षाएँ अतिसंकुलित हो गई हैं, जिससे भविष्य के मिशन अधिक महँगे और जोखिमपूर्ण हो गए। 
    • यद्यपि बाह्य अंतरिक्ष संधि, 1967 के अंतर्गत ज़िम्मेदारीपूर्ण उपयोग पर ज़ोर दिया गया है लेकिन इसमें पर्यावरणीय संधारणीयता के लिये आबद्धकर प्रावधानों का अभाव है।
    • 2019 में, बाह्य अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग पर संयुक्त राष्ट्र समिति (COPUOS) ने अंतरिक्ष गतिविधियों की दीर्घकालिक संधारणीयता के लिये 21 स्वैच्छिक दिशा-निर्देशों को अंगीकार किया। 
      • हालाँकि आबद्धकर विनियमों का अभाव और परस्पर विरोधी राष्ट्रीय तथा  वाणिज्यिक प्राथमिकताएँ इन दिशा-निर्देशों के कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न करती  हैं, जिससे अंतरिक्ष संधारणीयता के लिये एकीकृत दृष्टिकोण हासिल करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
  • अंतरिक्ष का वाणिज्यिक दोहन: इसमें अंतरिक्ष से संबंधित प्रौद्योगिकियों और सेवाओं के माध्यम से राजस्व उत्पन्न करना शामिल है, जैसे कि क्षुद्रग्रहों से अंतरिक्ष संसाधनों की पुनर्प्राप्ति, वाणिज्यिक अंतरिक्ष स्टेशनों का विकास और लाभ-केंद्रित कंपनियों द्वारा संचालित अंतरिक्ष पर्यटन की पेशकश, संधारणीयता प्रयासों को कमज़ोर कर सकती है।
  • उच्च लागत: अंतरिक्ष अन्वेषण के लिये संधारणीय प्रौद्योगिकियों का विकास और कार्यान्वयन महँगा है। 
    • इसमें मलबे के शमन, ईंधन के सतत् विकल्प और दीर्घकालिक मिशन से संबंधित लागतें शामिल हैं, जिनमें से सभी के लिये महत्त्वपूर्ण निवेश की आवश्यकता होती है।
    • अंतरिक्ष में संधारणीयता प्राप्त करने के उद्देश्य से मलबे का अपसारण करने हेतु उन्नत प्रौद्योगिकियों, कुशल प्रणोदन प्रणालियों और लंबी अवधि के मिशनों के लिये जीवन सहायक प्रणालियों की आवश्यकता होती है। 
      • इनमें से कई प्रौद्योगिकियाँ अभी भी विकास के चरण में हैं और इनमें पर्याप्त निवेश की आवश्यकता है।
  • डेटा-साझाकरण मुद्दे: सुरक्षा तथा वाणिज्यिक हित प्रायः वास्तविक समय में उपग्रह और मलबे की ट्रैकिंग में बाधा उत्पन्न करते हैं, जो समन्वित अंतरिक्ष यातायात प्रबंधन के लिये आवश्यक है। 

अंतरिक्ष संधारणीयता में भारत की क्या स्थिति है?

बाह्य अंतरिक्ष के शांतिपूर्ण उपयोग पर संयुक्त राष्ट्र समिति

आगे की राह

  • तकनीकी नवाचार: एलन मस्क के स्पेसएक्स द्वारा विकसित पुन: प्रयोज्य रॉकेट, अपशिष्ट  और लागत को कम करते हैं। ग्रीन हाइड्रोजन और जैव ईंधन प्रक्षेपण में उत्सर्जन को कम कर सकते हैं। 
  • विद्युत प्रणोदन छोटे मिशनों के लिये तो कुशल है, लेकिन भारी भार वाले कार्यों के लिये उपयुक्त नहीं है। 
  • परमाणु प्रणोदन एक संभावित विकल्प प्रस्तुत करता है, लेकिन पृथ्वी के वायुमंडल में दुर्घटना की स्थिति में इससे परमाणु विकिरण प्रदूषण का खतरा बना रहता है।
  • कक्षीय मलबे को कम करना: जापान के लिग्नोसैट जैसे जैवनिम्नीकरणीय उपग्रह, जिनके घटक पुनः प्रवेश पर विघटित हो सकते हैं, जिससे अंतरिक्ष अपशिष्ट का संचय कम हो जाता है।
    • मौजूदा अपशिष्ट को साफ करने  के लिये रोबोटिक आर्म्स और लेजर जैसी स्वायत्त अपशिष्ट निष्कासन (ADR) प्रौद्योगिकियों में निवेश आवश्यक है।
    • उपग्रहों को LEO से भूस्थिर कक्षा (GEO) या उच्चतर कक्षाओं में भेजने से पृथ्वी के वायुमंडल में पुनः प्रवेश का जोखिम कम हो सकता है तथा LEO में अपशिष्ट संचयन न्यूनतम हो सकता है।
  • वैश्विक यातायात प्रबंधन: वास्तविक समय में उपग्रह की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिये एक वैश्विक प्रणाली से टकराव के जोखिम में कमी आएगी और सुरक्षित कक्षीय उपयोग सुनिश्चित होगा।
    • डेटा साझाकरण प्रतिरोध पर नियंत्रण और सुरक्षा प्रोटोकॉल के साथ विश्वास का निर्माण करना प्रभावी अंतरिक्ष यातायात प्रबंधन के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • नीति और शासन: बाह्य अंतरिक्ष संधि के साथ स्थिरता लक्ष्यों को संरेखित करना और COPUOS के अंतर्गत बाध्यकारी समझौते प्रस्तुत करना, अंतरिक्ष में पर्यावरणीय उत्तरदायित्व लागू करने के लिये आवश्यक है।
    • सरकारें स्थायी अंतरिक्ष उद्योग को बढ़ावा देने के लिये उत्सर्जन सीमा, अपशिष्ट शमन को लागू कर सकती हैं और सब्सिडी एवं ज़ुर्माने के माध्यम से हरित प्रौद्योगिकियों के लिये प्रोत्साहन दे सकती हैं।
  • सार्वजनिक-निजी भागीदारी: सरकारों और निजी संस्थाओं के बीच सहयोग सतत् प्रौद्योगिकियों के वित्तपोषण के लिये महत्त्वपूर्ण है। साझा जवाबदेही ढाँचे अंतरिक्ष में स्थिरता के लिये पारस्परिक ज़िम्मेदारी सुनिश्चित करते हैं।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: अंतरिक्ष अन्वेषण के पर्यावरणीय प्रभाव की जाँच कीजिये। स्थिरता के उपाय सुझाइये। 

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

मेन्स

प्रश्न 1. भारत की अपना स्वयं का अंतरिक्ष केंद्र प्राप्त करने की क्या योजना है और हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम को यह किस प्रकार लाभ पहुँचाएगी? (वर्ष 2019)

प्रश्न 2. अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उपलब्धियों की चर्चा कीजिये। इस प्रौद्योगिकी का प्रयोग भारत के सामाजिक-आर्थिक विकास में किस प्रकार सहायक हुआ है? (2016)

प्रश्न 3. भारत के तीसरे चंद्रमा मिशन का मुख्य कार्य क्या है जिसे इसके पहले के मिशन में हासिल नहीं किया जा सका? जिन देशों ने इस कार्य को हासिल कर लिया है उनकी सूची दीजिये। प्रक्षेपित अंतरिक्ष यान की उपप्रणालियों को प्रस्तुत कीजिये और विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र के ‘आभासी प्रक्षेपण नियंत्रण केंद्र’ की उस भूमिका का वर्णन कीजिये जिसने श्रीहरिकोटा से सफल प्रक्षेपण में योगदान दिया है। (2023)


भूगोल

अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस 2024

प्रिलिम्स के लिये:

भारतीय हिमालयी क्षेत्र, संयुक्त राष्ट्र, खाद्य और कृषि संगठन, पर्वत के प्रकार, भारत में पर्वत शृंखलाएँ

मेन्स के लिये:

भारतीय हिमालयी क्षेत्र का भूगोल, पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र, भारतीय पर्वत शृंखलाएँ

स्रोत: पी. आई. बी

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने भारतीय हिमालयी क्षेत्र (Indian Himalayan Region- IHR) के संरक्षण की आवश्यकता पर प्रकाश डालने के लिये  अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस 2024 (11 दिसंबर) मनाया।

अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस क्या है?

  • परिचय: प्रतिवर्ष 11 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय पर्वत दिवस (International Mountain Day) के रूप में मनाया जाता है। इस दिवस की स्थापना संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2003 में एक प्रस्ताव पारित करके की थी। पृथ्वी पर मौजूद पर्वत प्रकृति के मुख्य अंग हैं, पर्वतों का संरक्षण करते हुए सतत् विकास को प्रोत्साहित करना तथा पर्वतों के महत्त्व को रेखांकित करने हेतु विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करना, इसका मुख्य उद्देश्य है।
    • खाद्य एवं कृषि संगठन (Food and Agriculture Organization- FAO) इस अनुष्ठान के समन्वय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • विषय 2024: “एक सतत् भविष्य के लिये पर्वतीय समाधान- नवाचार, अनुकूलन और युवा”
  • पर्वतों का महत्त्व: पर्वत पृथ्वी की सतह के लगभग पाँचवें भाग पर विस्तृत हैं और विश्व की 15% जनसंख्या का आवास स्थान हैं तथा विश्व के आधे जैवविविधता वाले स्थल भी यहीं पर स्थित हैं।
    • यह "वाटर टावर्स" के रूप में कार्य करते हुए आधी आबादी के लिये आवश्यक शुद्ध जल की आपूर्ति करते हैं तथा कृषि, स्वच्छ ऊर्जा और स्वास्थ्य क्षेत्रों को सहायता प्रदान करते हैं।
    • पर्वत पारिस्थितिकीय निधि हैं। इनके बिना कई देशों की भूमि शुष्क और बंजर हो जाएगी। इनका संरक्षण सतत् विकास के लिये आवश्यक है।

भारतीय हिमालयी क्षेत्र (IHR) के सबंध में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • भौगोलिक विस्तार: IHR 13 भारतीय राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों तक फैला हुआ है, जिनमें जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल, असम, नगालैंड, मणिपुर, मिज़ोरम, त्रिपुरा, मेघालय तथा भूटान के कुछ हिस्से शामिल हैं।
    • यह पश्चिम से पूर्व तक लगभग 2,500 किमी. तक विस्तृत है।
  • टेक्टोनिक/विवर्तनिक गतिविधि: भारतीय प्लेट और यूरेशियन प्लेट के बीच चल रही टक्कर के कारण IHR टेक्टोनिक रूप से सक्रिय है।
    • इससे हिमालय पर्वतों का निर्माण हुआ और यह क्षेत्र की भूवैज्ञानिक विशेषताओं को आकार दे रहा है।
  • भूवैज्ञानिक विविधता: यह क्षेत्र भूवैज्ञानिक विशेषताओं से समृद्ध है, जिसमें विभिन्न चट्टान संरचनाएँ, दोष रेखाएँ और पठार हैं। हिमालय के विभिन्न भागों में आग्नेय, अवसादी और रूपांतरित चट्टानें पाई जाती हैं।
  • महत्त्व: IHR देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र का लगभग 16.2% हिस्सा कवर करता है।
    • यह क्षेत्र एक जैवविविधता वाला हॉटस्पॉट है, जहाँ अनेक पौधों और जानवरों की प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से कुछ स्थानिक या लुप्तप्राय हैं।
    • यह क्षेत्र गंगा, यमुना, सिंधु और ब्रह्मपुत्र सहित प्रमुख नदी प्रणालियों का स्रोत है।
    • इस क्षेत्र में विभिन्न पारिस्थितिक तंत्र हैं, जिनमें समशीतोष्ण वन, अल्पाइन घास के मैदान, ग्लेशियर और बर्फ से ढकी चोटियाँ शामिल हैं।
    • IHR शीतल, शुष्क आर्कटिक पवनों के लिये अवरोधक के रूप में कार्य करके और मानसून पैटर्न को प्रभावित करके भारतीय उपमहाद्वीप की जलवायु को विनियमित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
      • यह क्षेत्र अपने वनों के माध्यम से कार्बन अवशोषण में भी मदद करता है, जिससे जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध वैश्विक युद्ध (Global Fight) में योगदान मिलता है।
    • IHR भारत और चीन, नेपाल, भूटान तथा पाकिस्तान जैसे कई पड़ोसी देशों के बीच एक प्राकृतिक सीमा के रूप में कार्य करता है।
  • चिंताएँ: 
    • असंवहनीय विकास: वनों की कटाई, हिमालय में जलविद्युत परियोजनाएँ और चार धाम परियोजना जैसी अवसंरचनात्मक  परियोजनाएँ पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित करती हैं और आपदाओं में योगदान करती हैं।
    • जलवायु परिवर्तन प्रभाव: ग्लेशियरों के पिघलने और झीलों के विस्तार से बाढ़ का खतरा बढ़ता है, जबकि तापमान में वृद्धि से जल संसाधन प्रभावित होते हैं।
      • हिमाचल प्रदेश में बाढ़ और सिक्किम में हिमनद झीलों के फटने जैसी घटनाएँ इसके दुष्परिणामों को उजागर करती हैं।
    • सांस्कृतिक क्षरण: IHR स्थायी संसाधन प्रबंधन के लिये मूल्यवान पारंपरिक ज्ञान रखने वाले स्वदेशी समुदायों का आवास है, लेकिन आधुनिकीकरण से इन सांस्कृतिक प्रथाओं के नष्ट होने का खतरा है।
    • बढ़ता पर्यटन:  पर्यटन से प्रतिवर्ष 8 मिलियन टन अपशिष्ट उत्पन्न होता है तथा अनुमान है कि वर्ष 2025 तक 240 मिलियन पर्यटक पर्यटन क्षेत्र में आएंगे। 
      • इस क्षेत्र की पारिस्थितिकी खतरे में है, क्योंकि पर्वतीय शहरों में निपटान के लिये जगह की कमी के कारण कचरा अक्सर भूमि, जल और वायु को प्रदूषित कर देता है।

भारतीय हिमालयी क्षेत्र की सुरक्षा हेतु क्या किया जा सकता है?

  • सतत् पर्यटन: पारिस्थितिकी पर्यटन को बढ़ावा देना, वहन क्षमता सीमा लागू करना तथा पर्यावरणीय प्रभाव को न्यूनतम करते हुए स्थानीय लोगों के लिये आय उत्पन्न करने हेतु जागरूकता बढ़ाना।
  • हिमनद जल संग्रहण: कृषि और पारिस्थितिकी तंत्र को सहारा देने के लिये शुष्क अवधि के दौरान उपयोग हेतु हिमनद पिघले जल को संगृहीत करने तथा संगृहीत करने की विधियों को लागू करना।
  • आपदा तैयारी: क्षेत्र के लिये आपदा प्रबंधन योजनाएँ विकसित करना, जिसमें भूस्खलन, हिमस्खलन और हिमनद झील विस्फोट से होने वाली बाढ़ पर ध्यान केंद्रित किया जाए तथा पूर्व चेतावनी प्रणाली एवं सामुदायिक प्रशिक्षण दिया जाए।
  • ग्रेवाटर पुनर्चक्रण: कृषि उपयोग के लिये घरेलू ग्रेवाटर को पुनर्चक्रित करने हेतु प्रणालियाँ स्थापित करना, जिससे जल सुरक्षा और फसल उत्पादन में वृद्धि हो।
  • जैव-सांस्कृतिक संरक्षण क्षेत्र: प्राकृतिक जैवविविधता और स्वदेशी सांस्कृतिक प्रथाओं दोनों को संरक्षित करने के लिये क्षेत्रों को नामित करना।
  • एकीकृत विकास: पूरे क्षेत्र में सतत् विकास लक्ष्यों के समन्वित विकास और निगरानी के लिये एक “हिमालयी प्राधिकरण” की स्थापना करना।

पर्वतों का निर्माण कैसे होता है?

  • निर्माण: पर्वतों का निर्माण पृथ्वी की पर्पटी के अंदर हलचल से होता है, जिसमें पिघले हुए मैग्मा पर तैरती टेक्टोनिक प्लेटें होती हैं। 
    • ये प्लेटें समय के साथ खिसकती और टकराती रहती हैं, जिससे दबाव बढ़ता है, जिसके कारण पृथ्वी की सतह मुड़ जाती है या बाहर निकल आती है, जिससे पर्वतों का निर्माण होता है।
  • मुख्य विशेषताएँ:
    • ऊँचाई: पहाड़ आमतौर पर आसपास की भूमि से ऊँचे होते हैं, जिनकी ऊँचाई अक्सर 600 मीटर से अधिक होती है।
    • खड़ी ढलानें: पहाड़ों में आमतौर पर खड़ी ढलानें होती हैं, हालाँकि कुछ अधिक धीमी हो सकती हैं।
    • शिखर/पीक: किसी पर्वत के शीर्ष को शिखर कहा जाता है, जो प्रायः सबसे ऊँचा बिंदु होता है।
    • पर्वत शृंखला: ऊँचे मैदानों से जुड़े पर्वतों की शृंखला या समूह पर्वत शृंखला बनाते हैं।

पर्वत कितने प्रकार के होते हैं?

  • उत्पत्ति के आधार पर:
    • ज्वालामुखी पर्वत: पृथ्वी की पपड़ी से मैग्मा के विस्फोट से निर्मित, हवाई और फिजी जैसी चोटियों का निर्माण।
    • वलित पर्वत: टेक्टोनिक प्लेटों के टकराव और वलित होने से निर्मित, जैसे हिमालय और एण्डीज।
    • ब्लॉक पर्वत: ये पर्वत पृथ्वी की पपड़ी के बड़े खंडों के खिसकने और भ्रंश के कारण बनते हैं, जिसके परिणामस्वरूप सिएरा नेवादा जैसे उभरे या गिरे हुए खंड बनते हैं।
    • गुंबदाकार पर्वत: मैग्मा द्वारा पृथ्वी की पर्पटी को ऊपर की ओर धकेलने से निर्मित, गुंबदाकार संरचना का निर्माण, जो अक्सर ब्लैक हिल्स (अमेरिका) की तरह कटाव के बाद उजागर हो जाती है।
    • पठारी पर्वत: ये पर्वत गुंबदाकार पर्वतों जैसे दिखते हैं, लेकिन इनका निर्माण टेक्टोनिक प्लेटों के टकराने से होता है, जो भूमि को ऊपर धकेलते हैं, तथा अपक्षय और अपरदन के कारण इनका आकार बनता है।
  • उत्पत्ति की अवधि के आधार पर:
    • प्रीकैम्ब्रियन पर्वत: प्रीकैम्ब्रियन पर्वत, प्रीकैम्ब्रियन युग (4.6 अरब से 541 मिलियन वर्ष पूर्व) के दौरान निर्मित प्राचीन श्रेणियाँ हैं।
      • अरबों वर्षों में इनका व्यापक क्षरण और कायापलट हुआ है, जिसके कारण ये अपने पीछे अवशिष्ट संरचनाएँ (जैसे, भारत में अरावली) छोड़ गए हैं।
    • कैलेडोनियन पर्वत: लगभग 430 मिलियन वर्ष पहले (जैसे, अप्पलाचियन) बने।
    • हर्सीनियन पर्वत: इन पर्वतों की उत्पत्ति कार्बोनिफेरस से पर्मियन काल (लगभग 340 मिलियन वर्ष और 225 मिलियन वर्ष) के बीच हुई (जैसे, यूराल पर्वत)।
    • अल्पाइन पर्वत: तृतीयक काल (66 मिलियन वर्ष पूर्व) के दौरान निर्मित सबसे युवा पर्वत प्रणालियाँ (जैसे, हिमालय, आल्प्स)।

भारत में पर्वत शृंखलाओं के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • हिमालय: भारत की सबसे प्रसिद्ध और सबसे ऊँची पर्वत शृंखला, जो भारत और तिब्बत की सीमा पर 2,900 किलोमीटर तक फैली हुई है। 
    • हिमालय को तीन मुख्य श्रेणियों में बाँटा गया है, हिमाद्रि (महान हिमालय या आंतरिक हिमालय), हिमाचल (लघु हिमालय), शिवालिक (बाहरी हिमालय)
    • माउंट एवरेस्ट (सागरमाथा/चोमोलुंगमा) हिमालय और विश्व की सबसे ऊँची चोटी है, जो समुद्र तल से 8,848.86 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। इस पर्वतमाला की अन्य उल्लेखनीय चोटियों में K2, कंचनजंगा और मकालू शामिल हैं।
  • पश्चिमी घाट: पश्चिमी घाट (सह्याद्रि पहाड़ियाँ) भारत के पश्चिमी तट के समानांतर फैली हुई हैं और इनकी औसत ऊँचाई लगभग 1,200 मीटर है। 
    • सबसे ऊँची चोटी अनमुदी है। पश्चिमी घाट अपनी समृद्ध जैव विविधता के लिये जाने जाते हैं और यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल हैं।
    • पश्चिमी घाट अरब सागर में भूमि के नीचे की ओर खिसकने से निर्मित खंड पर्वत हैं।
    • पूर्वी घाट: पूर्वी घाट भारत के पूर्वी तट के समानांतर चलता है। सबसे ऊँची चोटी 1,680 मीटर ऊँची अरमा कोंडा है। 
  • अरावली पर्वतमाला: विश्व की सबसे पुरानी पर्वतमालाओं में से एक, जो उत्तर-पश्चिमी भारत में लगभग 800 किलोमीटर तक फैली हुई है। सबसे ऊँची चोटी गुरु शिखर है जिसकी ऊँचाई 1,722 मीटर है।
  • विंध्य पर्वतमाला: विंध्य पर्वतमाला मध्य भारत में फैली हुई है और अपने ऐतिहासिक महत्त्व के लिये जानी जाती है। इसका सबसे ऊँचा बिंदु सद्भावना शिखर है जो 752 मीटर ऊँचा है।
    • विंध्य पर्वतमाला मालवा पठार के दक्षिण में स्थित है और नर्मदा घाटी के समानांतर पूर्व-पश्चिम दिशा में फैली हुई है।
  • सतपुड़ा पर्वतमाला: मध्य भारत में स्थित इस पर्वतमाला में धूपगढ़ जैसी चोटियाँ हैं, जो 1,350 मीटर ऊँची है।

दृष्टि मेन्स प्रश्न:

प्रश्न: वलित पर्वतों के विशेष संदर्भ में पर्वत निर्माण की प्रक्रिया तथा भारतीय उपमहाद्वीप के लिये उनके महत्त्व की व्याख्या कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स

प्रश्न: जब आप हिमालय में यात्रा करेंगे, तो आपको निम्नलिखित को देखेंगें: (2012)

  1. गहरे खड्डे 
  2. U घुमाव वाले नदी-मार्ग 
  3. समानांतर पर्वत शृंखलाएँ
  4. भूस्खलन के लिये उत्तरदायी तीव्र ढाल प्रवणता 

उपर्युक्त में से कौन-से हिमालय के तरुण वलित पर्वत (नवीन मोड़दार पर्वत) के साक्ष्य कहे जा सकता हैं?

(a) केवल 1 और 2 
(b) केवल 1, 2 और 4 
(c) केवल 3 और 4 
(d) 1, 2, 3 और 4

उत्तर: (D)


मेन्स

Q. पश्चिमी घाट की तुलना में हिमालय में भूस्खलन की घटनाओं के प्रायः होते रहने के कारण बताइये। (2013)

Q. भूस्खलन के विभिन्न कारणों और प्रभावों का वर्णन कीजिये। राष्ट्रीय भूस्खलन जोखिम प्रबंधन रणनीति के महत्त्वपूर्ण घटकों का उल्लेख कीजिये। (2021)


कृषि

कृषि संकट पर उच्चतम न्यायालय पैनल की रिपोर्ट

प्रिलिम्स के लिये:

कृषि संकट, उच्चतम न्यायालय, भारत में कृषि की स्थिति, राष्ट्रीय किसान आयोग (NCF), कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP), पाम ऑयल मिशन, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना।

मेन्स के लिये:

कृषि संकट पर उच्चतम न्यायालय पैनल की रिपोर्ट: कारण, प्रभाव, सरकारी पहल।

स्रोत: डाउन टू अर्थ

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय (SC) द्वारा नियुक्त समिति ने भारत में कृषि संकट पर अपनी अंतरिम रिपोर्ट प्रस्तुत की है। रिपोर्ट में भारत में कृषि पर संकट की स्थिति को गंभीर बताया गया है।

उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त उच्च स्तरीय समिति का परिचय: 

  • इसका गठन उच्चतम न्यायालय (SC) ने सितंबर 2024 में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश नवाब सिंह की अध्यक्षता में शंभू बॉर्डर पर आंदोलन कर रहे किसानों की शिकायतों के समाधान और इसके संभावित समाधान सुझाने के लिये किया था।

कृषि में किसानों की स्थिति पर उच्चतम न्यायालय समिति की रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?

  • आय संकट: रिपोर्ट में पाया गया है कि किसान कृषि गतिविधियों से प्रतिदिन मात्र 27 रुपए कमाते हैं, जो इस क्षेत्र में व्याप्त घोर निर्धनता को उजागर करता है।
    • कृषि परिवारों की औसत मासिक आय 10,218 रुपए है, जो एक सभ्य जीवन के लिये आवश्यक बुनियादी जीवन स्तर से काफी कम है।
  • बढ़ता कर्ज: पंजाब एवं हरियाणा के किसान बढ़ते कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं, वर्ष 2022-23 में संस्थागत ऋण क्रमशः 73,673 करोड़ रुपए और 76,630 करोड़ रुपए तक पहुँच गया है ।
    • गैर-संस्थागत ऋण इस बोझ को और बढ़ा देता है, जो पंजाब में 21.3% और हरियाणा में 32% है, जिससे व्यापक वित्तीय संकट उत्पन्न होता है, जिससे अनेक किसान निराशा की ओर बढ़ते हैं।
  • किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्याएँ: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार वर्ष 1995 से अब तक भारत में 4 लाख से अधिक किसानों और कृषि मज़दूरों ने आत्महत्या की है। 
    • पंजाब में तीन सार्वजनिक क्षेत्र के विश्वविद्यालयों द्वारा किये गए घर-घर सर्वेक्षण में वर्ष 2000 से वर्ष 2015 के बीच 16,606 आत्महत्याएँ दर्ज की गईं, जिनमें मुख्य रूप से लघु एवं सीमांत किसानों और भूमिहीन श्रमिकों के बीच आत्महत्याएँ शामिल थीं तथा इसका प्रमुख कारण उच्च ऋणग्रस्तता थी।
  • कृषि विकास में स्थिरता: पंजाब एवं हरियाणा ने कृषि विकास में स्थिरता का अनुभव किया है, वर्ष 2014-15 से वर्ष 2022-23 तक उनकी वार्षिक वृद्धि दर क्रमशः 2% और 3.38% रही है, जो राष्ट्रीय औसत से काफी कम है। 
    • इस स्थिरता के कारण किसानों की आय में कमी आई है तथा जीवन स्तर में गिरावट आई है।
  • रोज़गार की असंगतता: रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत का 46% कार्यबल कृषि में कार्यरत है, फिर भी यह राष्ट्रीय आय में केवल 15% का योगदान देता है।
    • अनेक कृषि श्रमिकों को या तो कम वेतन दिया जाता है या फिर उन्हें प्रच्छन्न बेरोज़गारी का सामना करना पड़ता है, जिससे ग्रामीण निर्धनता और भी बदतर हो जाती है ।
  • जलवायु परिवर्तन का प्रभाव: घटता जल स्तर, सूखा, अनियमित वर्षा और चरम मौसमी जलवायु वर्तमान संकट को बढ़ा रही है, जिससे खाद्य सुरक्षा एवं कृषि उत्पादकता को और अधिक खतरा हो रहा है।

रिपोर्ट के निष्कर्षों के निहितार्थ क्या हैं?

  • राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव: कृषि की गिरती स्थिति, उच्च आत्महत्या दर और बढ़ते कर्ज के कारण देश की अर्थव्यवस्था के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है। 
    • कृषि की उपेक्षा से दीर्घकालिक आर्थिक अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है तथा ग्रामीण-शहरी प्रवास में वृद्धि की संभावना रहती है।
  • स्थिरता और खाद्य सुरक्षा: यदि वर्तमान स्थिति जारी रही तो भारत के कृषि क्षेत्र को खाद्य सुरक्षा के संदर्भ में संकट का सामना करना पड़ सकता है। 
    • घटती कृषि उत्पादकता, जलवायु परिवर्तन संबंधी चुनौतियों और सुधार की कमी के कारण, भारत को खाद्यान्न की बढ़ती मांग को पूरा करने में कठिनाई हो सकती है, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी एवं भुखमरी और अधिक बढ़ जाएगी।
  • सामाजिक स्थिरता: किसानों द्वारा की जा रही निरंतर आत्महत्याएँ और कृषक समुदाय में बढ़ती निराशा भी सामाजिक अशांति का कारण हो सकती है

भारत में कृषि क्षेत्र के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं?

  • ऋण और वित्त तक सीमित पहुँच: भारत की कृषि जनगणना वर्ष 2015-16 के अनुसार, लगभग 86% भारतीय किसान छोटे और सीमांत हैं तथा उनमें से कई को संस्थागत ऋण तक पहुँचने में गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। 
    • इससे मशीनरी, बीज और उर्वरक जैसे आधुनिक कृषि आगतों में निवेश करने की उनकी क्षमता सीमित हो जाती है, जिससे उत्पादकता भी प्रभावित होती है।
  • खंडित भूमि जोत: भारत में औसत भूमि जोत लगभग 1.08 हेक्टेयर है, जो वृहद् स्तर पर कुशल कृषि के लिये अपर्याप्त है। 
    • इससे किसानों के लिये आधुनिक कृषि तकनीक और प्रौद्योगिकी अपनाना मुश्किल हो जाता है। स्तरीय अर्थव्यवस्थाओं की कमी के कारण कृषि उत्पादन तथा  उत्पादकता कम होती है, जिससे वित्तीय अस्थिरता बढ़ती है।
  • पुरानी कृषि पद्धतियाँ: बड़ी संख्या में भारतीय किसान अभी भी पारंपरिक कृषि तकनीकों पर निर्भर हैं, जो अकुशल और अस्थायी हैं। 
    • आधुनिक प्रौद्योगिकी तक पहुँच की कमी और परिवर्तन के प्रति विरोध कृषि उत्पादकता तथा स्थिरता संबंधी सुधार में बाधा डालते हैं
  • जल की कमी और सिंचाई: भारत की कृषि काफी हद तक मानसूनी वर्षा पर निर्भर करती है तथा 60% फसल क्षेत्र वर्षा पर निर्भर है, जिससे यह सूखे और अनियमित वर्षा के प्रति संवेदनशील है। 
    • नीति आयोग के वर्ष 2022-23 के आँकड़ों के अनुसार, भारत का शुद्ध बोया गया क्षेत्र (73 मिलियन हेक्टेयर) का केवल 52% ही सिंचित है, जिससे जल की कमी और बढ़ रही है।
  • मृदा क्षरण और अपक्षय: खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) की रिपोर्ट के अनुसार भारत की लगभग 30% कृषि भूमि मृदा क्षरण से प्रभावित है, जिसका मुख्य कारण अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों का उपयोग, खराब सिंचाई पद्धतियाँ और वनोन्मूलन है। 
    • इससे मृदा उर्वरता कम हो जाती है, उत्पादकता में कमी आती है तथा कीटों और रोगों के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है।
  • अपर्याप्त कृषि अवसंरचना: भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के अनुसार, अपर्याप्त भंडारण, कोल्ड चेन और ग्रामीण सड़क अवसंरचना के कारण भारत को 15-20% फसलोत्तर नुकसान का सामना करना पड़ता है । 
    • इससे उत्पादन लागत बढ़ जाती है और किसानों की बाज़ार तक पहुँच सीमित हो जाती है, जिससे उचित मूल्य प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होती है।

किसान कल्याण हेतु सरकारी योजनाएँ क्या हैं?

भारत में किसानों की परेशानी कम करने के लिये क्या किया जा सकता है?

  • ऋण माफी: किसानों के लिये ऋण राहत, जिसमें ऋण माफी भी शामिल है, उनके वित्तीय संकट को कम करने के लिये एक तात्कालिक उपाय के रूप में। 
    • इससे कर्ज के भारी बोझ को कम करने में मदद मिलेगी, जो किसानों की आत्महत्या के पीछे प्रमुख कारणों में से एक है।
  • MSP को कानूनी मान्यता: उच्चतम न्यायालय द्वारा नियुक्त पैनल ने किसानों को बाज़ार मूल्य में उतार-चढ़ाव से बचाने के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को कानूनी मान्यता देने की भी सिफारिश की है।
    • इससे किसानों को उनकी उपज के लिये निश्चित मूल्य की गारंटी मिलेगी, आय स्थिरता सुनिश्चित होगी तथा कृषि क्षेत्र में अनिश्चितता कम होगी।
  • जैविक कृषि और फसल विविधीकरण को बढ़ावा देना: कुछ प्रमुख फसलों पर निर्भरता कम करने के लिये जैविक कृषि और फसल विविधीकरण को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
    • इससे स्थायित्व सुनिश्चित होगा और पारंपरिक कृषि पद्धतियों के पर्यावरणीय प्रभाव में भी कमी आएगी।
  • कृषि विपणन सुधार: कृषि बाज़ारों की दक्षता में सुधार करने हेतु, कृषि विपणन प्रणाली में सुधार की आवश्यकता है, जिसमें अधिक किसान-अनुकूल बाज़ारों की स्थापना, बिचौलियों को कम करना और किसानों के लिये बेहतर मूल्य प्राप्ति के लिये बुनियादी ढाँचे में सुधार जैसे उपाय शामिल हो सकते हैं।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार सृजन: कम कृषि आय की समस्या से निपटने के लिये नीतियों को ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर उत्पन्न करने, विविधीकरण और सतत् विकास को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिये
    • इसमें कौशल विकास कार्यक्रम, ग्रामीण औद्योगीकरण और कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देना शामिल हो सकता है।
  • जलवायु परिवर्तन के कारण कृषि पर पड़ने वाले प्रभाव को कम करने हेतु तत्काल उपाय किये जाने की आवश्यकता है, जिसमें बेहतर जल प्रबंधन पद्धतियाँ, सूखा प्रतिरोधी फसलों को बढ़ावा देना और जलवायु-लचीले बुनियादी ढाँचे में निवेश करना शामिल है।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)  

प्रिलिम्स

प्रश्न 1. 'प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना' के संदर्भ में, निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2016)

  1. इस योजना के अंतर्गत कृषकों को वर्ष के किसी भी मौसम में उनके द्वारा किसी भी फसल की खेती के लिये दो प्रतिशत की एक समान दर से बीमा किश्त का भुगतान करना होगा।
  2. यह योजना चक्रवात एवं गैर-मौसमी वर्षा से होने वाले कटाई उपरांत घाटे को बीमाकृत करती है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 
(b) केवल 2 
(c) 1 और 2 दोनों 
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (b)


प्रश्न 2. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)

  1. सभी अनाजों, दालों और तिलहनों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर प्रापण (खरीद) भारत के किसी भी राज्य/संघ राज्य क्षेत्र में असीमित है।
  2. अनाज और दालों का MSP किसी भी राज्य/संघ राज्य क्षेत्र में उस स्तर पर निर्धारित किया जाता है, जिस स्तर तक बाज़ार मूल्य कभी नहीं पहुँच पाते।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1 
(b) केवल 2 
(c) 1 और 2 दोनों 
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (d)


close
एसएमएस अलर्ट
Share Page
images-2
images-2