भारतीय अर्थव्यवस्था
सर्वोच्च न्यायालय की हीरक जयंती
प्रिलिम्स के लिये:भारत का सर्वोच्च न्यायालय, भारतीय संविधान, डिजिटल न्यायालय 2.0, भारत सरकार अधिनियम, 1935, भारत का मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये पात्रता मानदंड, न्यायाधीशों को हटाना, सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता मेन्स के लिये:वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित प्रमुख मुद्दे, कॉलेजियम प्रणाली, NJAC |
स्रोत: पी.आई.बी.
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने दिल्ली के सर्वोच्च न्यायालय सभागार में अपना हीरक जयंती (Diamond Jubilee) समारोह (75वीं वर्षगांठ) आयोजित किया। यह भारतीय संविधान की 75वीं वर्षगाँठ के साथ भी मेल खाता है।
- इस कार्यक्रम में न्यायिक पहुँच तथा पारदर्शिता बढ़ाने के उद्देश्य से कई नागरिक-केंद्रित सूचना तथा प्रौद्योगिकी पहलों का शुभारंभ किया गया।
आयोजन की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
- कार्यक्रम के एक भाग के रूप में डिजिटल पहल जैसे डिजिटल सुप्रीम कोर्ट रिपोर्ट (Digi SCR) तथा डिजिटल कोर्ट 2.0 और सर्वोच्च न्यायालय की एक नई वेबसाइट का शुभारंभ किया गया।
- डिजिटल सुप्रीम कोर्ट रिपोर्ट्स (Digi SCR) पहल का उद्देश्य पारदर्शिता तथा पहुँच को बढ़ावा देते हुए वर्ष 1950 के बाद से सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों की रिपोर्ट तक निशुल्क, इलेक्ट्रॉनिक पहुँच प्रदान करना है।
- डिजिटल कोर्ट 2.0, कृत्रिम बुद्धिमत्ता के माध्यम से न्यायालय की कार्रवाई का वास्तविक समय प्रतिलेखन करने में सहायता करेगा जो कुशल रिकॉर्ड-कीपिंग और न्यायिक प्रक्रियाओं की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण सफलता प्रदर्शित करता है।
- सर्वोच्च न्यायालय की नई वेबसाइट अब द्विभाषी प्रारूप (अंग्रेज़ी व हिंदी) में उपलब्ध है जो न्यायिक जानकारी तक निर्बाध पहुँच के लिये एक उपयोगकर्त्ता-अनुकूल इंटरफेस प्रदान करती है।
- विशेष रूप से दूरवर्ती क्षेत्रों में न्याय प्रदान करने की पहुँच बढ़ाने के उद्देश्य के साथ सर्वोच्च न्यायालय की पहुँच विस्तारित करने के प्रयासों पर ज़ोर दिया गया।
- सर्वोच्च न्यायालय कॉम्प्लेक्स के विस्तार हेतु निवेश की घोषणा की गई जो न्यायिक दक्षता बढ़ाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित प्रमुख बिंदु क्या हैं?
- स्थापना: भारत के संप्रभु लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनने के दो दिन पश्चात्, 28 जनवरी 1950 को सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई।
- इसने भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत स्थापित भारत के संघीय न्यायालय का स्थान लिया।
- इसने अपील की सर्वोच्च न्यायालय के रूप में ब्रिटिश प्रिवी काउंसिल को भी प्रतिस्थापित किया जिसके परिणामस्वरूप सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार पूर्ववर्ती के संघीय न्यायालय से अधिक है।
- सांविधानिक उपबंध: संविधान के भाग V में अनुच्छेद 124 से 147 सर्वोच्च न्यायालय के संगठन, स्वतंत्रता, क्षेत्राधिकार, शक्तियों, प्रक्रियाओं आदि से संबंधित हैं।
- इसके अतिरिक्त इन्हें संसद द्वारा विनियमित किया जाता है।
- वर्तमान संरचना: भारत के सर्वोच्च न्यायालय में भारत के मुख्य न्यायाधीश सहित 34 अन्य न्यायाधीश शामिल होते हैं जिनकी नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
- वर्ष 1950 के मूल संविधान में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 7 उप-न्यायाधीशों के साथ एक सर्वोच्च न्यायालय की परिकल्पना की गई थी तथा न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाने का कार्य संसद क्षेत्राधिकार के तहत आता है।
- नियुक्ति: सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों से परामर्श करने के बाद राष्ट्रपति द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति की जाती है।
- अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश और अतिरिक्त न्यायाधीशों से परामर्श के बाद की जाती है।
- भारत के मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त किसी भी अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति के लिये भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श अनिवार्य है।
- नियुक्ति के लिये पात्रता मानदंड: सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिये एक व्यक्ति को भारतीय नागरिक होना चाहिये।
- इसके अतिरिक्त उन्हें कम-से-कम पाँच वर्ष के लिये उच्च न्यायालय का न्यायाधीश अथवा कम-से-कम 10 वर्ष के लिये उच्च न्यायालय का अधिवक्ता होना चाहिये अथवा वह राष्ट्रपति की राय में एक पारंगत विधिवेत्ता होना चाहिये।
- हालाँकि संविधान ने सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिये न्यूनतम आयु निर्धारित नहीं की है।
- 65 वर्ष की आयु पूरी होने पर वे सेवानिवृत्त हो जाते हैं।
- सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों को भारत में किसी भी न्यायालय में या किसी भी प्राधिकारी के समक्ष अभ्यास करने से प्रतिबंधित किया जाता है।
- न्यायाधीशों को हटाना: राष्ट्रपति के आदेश द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को उनके पद से हटाया जा सकता है।
- राष्ट्रपति द्वारा न्यायाधीश को हटाने का आदेश तभी जारी किया सकता है जब उसे हटाने के लिये उसी सत्र में संसद का अभिभाषण राष्ट्रपति के सामने प्रस्तुत किया गया हो।
- अभिभाषण को सिद्ध दुर्व्यवहार या अक्षमता के आधार पर, संसद के प्रत्येक सदन के विशेष बहुमत द्वारा समर्थित होना चाहिये अर्थात् उपस्थित और मतदान करने वाले दो-तिहाई सदस्यों के बहुमत से।
- कार्यवाही और विनियमन की भाषा: सर्वोच्च न्यायालय में कार्यवाही विशेष रूप से अंग्रेज़ी में आयोजित की जाती है।
- सर्वोच्च न्यायालय के नियम, 1966 तथा सर्वोच्च न्यायालय के नियम 2013 को सर्वोच्च न्यायालय की कार्यप्रणाली और प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिये संविधान के अनुच्छेद 145 के तहत निर्मित किया गया है।
- सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता:
- निश्चित सेवा शर्तें: संसद न्यायाधीशों के वेतन, भत्तों एवं अन्य लाभों का निर्धारण करती है, जिससे सेवा शर्तों में स्थिरता सुनिश्चित होती है जब तक कि वित्तीय आपातकाल के दौरान इसमें बदलाव नहीं किया जाता है।
- वेतन, भत्ते और प्रशासनिक लागतें समेकित निधि पर भारित होती हैं, जिससे उन्हें संसद द्वारा गैर-मतदान योग्य बना दिया जाता है, परिणामस्वरूप वित्तीय स्वतंत्रता सुनिश्चित होती है।
- आचरण प्रतिरक्षा: संविधान के अनुच्छेद 121 के तहत संसद के सदस्यों को सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के आचरण पर चर्चा करने से प्रतिबंधित किया गया है।
- अवमानना की शक्ति: सर्वोच्च न्यायालय के पास अपने निर्णयों एवं अधिकार के प्रति सम्मान सुनिश्चित करते हुए अवमानना को दंडित करने का अधिकार है। (अनुच्छेद 129)
- कर्मचारी नियुक्ति स्वायत्तता:भारत के मुख्य न्यायाधीश को कार्यकारी हस्तक्षेप से मुक्त होकर सर्वोच्च न्यायालय के कर्मचारियों को नियुक्त करने और उनकी सेवा शर्तें निर्धारित करने की स्वतंत्रता है।
- क्षेत्राधिकार संरक्षण: संसद सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार को कम नहीं कर सकती, हालाँकि वह इमें वृद्धि कर सकती है।
- कार्यपालिका से पृथक्करण: संविधान सार्वजनिक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक्करण का आदेश देता है, कार्यान्वयन पर न्यायिक मामलों में कार्यकारी प्रभाव को समाप्त कर देता है (अनुच्छेद 50)।
- निश्चित सेवा शर्तें: संसद न्यायाधीशों के वेतन, भत्तों एवं अन्य लाभों का निर्धारण करती है, जिससे सेवा शर्तों में स्थिरता सुनिश्चित होती है जब तक कि वित्तीय आपातकाल के दौरान इसमें बदलाव नहीं किया जाता है।
- सर्वोच्च न्यायालय का महत्त्व:
- संविधान का संरक्षक: सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद 32 के तहत रिट जारी करके संविधान की रक्षा करता है, उसकी सर्वोच्चता सुनिश्चित करता है और साथ ही मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है।
- विधिक शासन को बनाए रखना: यह कानूनी विवादों के अंतिम मध्यस्थ के रूप में कार्य करता है, कानूनों की व्याख्या करता है और न्यायिक समीक्षा की शक्ति के माध्यम से उनके उचित अनुप्रयोग को सुनिश्चित करता है।
- सामाजिक न्याय और मानवाधिकार: न्यायालय सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने, हाशिये पर पड़े समुदायों की रक्षा करने तथा मानवाधिकारों को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
- कार्यकारी अतिरेक की निगरानी: यह सुनिश्चित करता है कि कार्यकारी शाखा कानून की सीमा के भीतर कार्य करती है।
सर्वोच्च न्यायालय से संबंधित प्रमुख मुद्दे क्या हैं?
- मामलों का लंबित होना: सर्वोच्च न्यायालय में मामलों का लंबित होना इसकी चल रही समस्याओं में से एक है। कार्यकुशलता में सुधार के प्रयासों के बावजूद, बड़ी संख्या में मामलों के कारण न्यायालय के संसाधनों पर दबाव पड़ रहा है।
- न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक संयम: न्यायपालिका की उचित भूमिका को लेकर बहस चल रही है, जिसमें इस बात पर चर्चा चल रही है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय को सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों को संबोधित करने में अधिक सक्रिय होना चाहिये अथवा संयम बरतना चाहिये या हस्तक्षेप को सीमित करना चाहिये।
- न्यायाधीशों की नियुक्ति की चिंताएँ: न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया, विशेषकर कॉलेजियम प्रणाली की भूमिका, विवाद का विषय रही है। नियुक्ति प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के लिये राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग जैसे सुधारों पर चर्चा की गई है।
- प्रौद्योगिकी एवं न्याय तक पहुँच: हालाँकि न्याय तक पहुँच में सुधार के लिये ई-फाइलिंग एवं वर्चुअल सुनवाई जैसी पहल लागू की गई है, लेकिन विशेष रूप से प्रौद्योगिकी तक सीमित पहुँच वाले हाशिये पर रहने वाले समुदायों के लिये न्यायसंगत पहुँच सुनिश्चित करने में चुनौतियाँ बनी हुई हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय में महिलाओं का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व: हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय के कुल न्यायाधीशों में से केवल तीन महिलाएँ हैं। यह कानून व्यवस्था में महिलाओं के विषम प्रतिनिधित्व को दर्शाता है।
आगे की राह
- सर्वोच्च न्यायालय को विभाजित करना: भारत के 10वें विधि आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय को दो प्रभागों में विभाजित करने की सिफारिश की जिसमें संवैधानिक प्रभाग और कानूनी प्रभाग शामिल हैं।
- प्रस्ताव के अनुसार संवैधानिक प्रभाग द्वारा केवल संवैधानिक कानून से संबंधित मामलों की सुनवाई की जाएगी।
- इसी प्रकार 11वें विधि आयोग द्वारा वर्ष 1988 में दोहराया कि सर्वोच्च न्यायालय को खंडों में विभाजित करने से न्याय तक पहुँच में वृद्धि होगी और वादकारियों का शुल्क भी कम होगा।
- इसके अतिरिक्त 229वीं विधि आयोग की रिपोर्ट, 2009 में गैर-संवैधानिक मुद्दों की सुनवाई के लिये दिल्ली, चेन्नई या हैदराबाद, कोलकाता तथा मुंबई में चार क्षेत्रीय पीठें स्थापित करने की सिफारिश की गई थी।
- उन्नत न्यायिक व्यवस्था: मलिमथ समिति ने लंबित मामलों के बैकलॉग को संबोधित करने के लिये छुट्टियों के समय को 21 दिनों तक कम करने की सिफारिश करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के कार्य दिवसों को 206 दिनों तक बढ़ाने का प्रस्ताव दिया।
- इसी तरह वर्ष 2009 के विधि आयोग ने अपनी 230वीं रिपोर्ट में मामलों के लंबित मामलों को कम करने के लिये न्यायपालिका के सभी स्तरों पर न्यायालयों की छुट्टियों को 10-15 दिनों तक कम करने की सिफारिश की थी।
- NJAC की स्थापना पर फिर से विचार करना: इसकी संवैधानिकता सुनिश्चित करने के लिये सुरक्षा उपायों को शामिल करने हेतु NJAC (राष्ट्रीय न्यायिक आयोग विधेयक) अधिनियम में संशोधन किया जा सकता है, साथ ही यह सुनिश्चित करने के लिये पुनर्गठित किया जा सकता है कि बहुमत का नियंत्रण न्यायपालिका के पास बना रहे।
- न्यायपालिका में लैंगिक विविधता बढ़ाना: महिला न्यायाधीशों का एक निश्चित प्रतिशत लागू करने से भारत में लिंग-समावेशी न्यायिक प्रणाली के विकास को बढ़ावा मिलेगा।
- सितंबर 2027 में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश के रूप में न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की आगामी नियुक्ति, न्यायपालिका के भीतर लैंगिक समानता प्राप्त करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न. 26 जनवरी, 1950 को भारत की वास्तविक सांविधानिक स्थिति क्या थी? (2021) (a) लोकतंत्रात्मक गणराज्य उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. भारत में उच्चतर न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (2017) |
शासन व्यवस्था
भारत की परीक्षा प्रणाली पर पुनर्विचार
प्रिलिम्स के लिये:भारत की परीक्षा प्रणाली पर पुनर्विचार, नई शिक्षा नीति 2020 मेन्स के लिये:भारत की परीक्षा प्रणाली पर पुनर्विचार, बौद्धिक क्षमता के स्थान पर प्रतिस्पर्द्धा को वरीयता पर विचार, नीतियों के निर्माण और कार्यान्वयन से उत्पन्न होने वाले मुद्दे। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
बोर्ड परीक्षाओं के नज़दीक आने के साथ ही भारत की परीक्षा प्रणाली को लेकर बहस तेज़ हो गई है, इसकी कमियों को उजागर करते हुए प्रस्तावित सुधार प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
भारत में परीक्षा प्रणाली से संबंधित मुद्दे क्या हैं?
- स्कूल लीविंग एग्जामिनेशन और माध्यमिक शिक्षा में कमी:
- 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्कूल लीविंग एग्जामिनेशन यह निर्धारित करने के तरीके के रूप में बनाई गई थी कि उच्चतर शिक्षा के लिये विद्यार्थियों के चयन के लिये एक आधार निर्धारित किया जा सके, यह प्रक्रिया तत्कालीन और कार्यालयों में निचले स्तर की नौकरियों के लिये भी बहुत दुर्लभ थी।
- यह मूलतः निष्कासन (यानी नामांकन हेतु चयन प्रक्रिया का एक रूप) का एक साधन था और यह अब तक ऐसा ही बना हुआ है। उदाहरण के लिये दसवीं कक्षा की परीक्षा में बड़ी संख्या में बच्चे फेल हो जाते हैं और उन्हें अगली कक्षाओं में जाने से रोक दिया जाता है।
- यह उस व्यवस्था में एक प्रकार की संरचनात्मक व्यवस्था है जिसमें माध्यमिक शिक्षा कम लोकप्रिय है तथा उच्चतर माध्यमिक शिक्षा तो और भी कम लोकप्रिय है। स्नातक स्तर पर आगे की शिक्षा या विभिन्न प्रकार की तकनीकी शिक्षा के अवसर भी अपेक्षाकृत कम हैं।
- 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में स्कूल लीविंग एग्जामिनेशन यह निर्धारित करने के तरीके के रूप में बनाई गई थी कि उच्चतर शिक्षा के लिये विद्यार्थियों के चयन के लिये एक आधार निर्धारित किया जा सके, यह प्रक्रिया तत्कालीन और कार्यालयों में निचले स्तर की नौकरियों के लिये भी बहुत दुर्लभ थी।
- समान अवसर का भ्रम:
- इस परीक्षा में सभी बच्चों को, चाहे उनकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो, तीन घंटे की एक ही परीक्षा का सामना करना पड़ता है।
- परीक्षा प्रश्नपत्र तैयार करने वाले और मूल्यांकनकर्त्ताओं की पहचान को उजागर नहीं किया जाता है, इस प्रकार गोपनीयता उस प्रणाली को मज़बूती प्रदान करती जिसमें सभी पृष्ठभूमि के बच्चों को समान अवसर दिये जाते हैं।
- समझ से अधिक प्रतिस्पर्द्धा को प्राथमिकता देना:
- भारत की शिक्षा प्रणाली समझ पर प्रतिस्पर्द्धा को प्राथमिकता देती है, वास्तविक समझ के बजाय रटने की संस्कृति को बढ़ावा देती है।
- इसके अलावा स्कूलों और पाठ्यक्रम की संरचना समस्या को बढ़ाती है, जिससे अन्वेषण तथा समग्र शिक्षा के लिये बहुत कम जगह बचती है।
- अत्यधिक प्रतिस्पर्द्धी और तनावपूर्ण:
- चीन, यूरोपीय और उत्तरी अमेरिकी देशों में मूल्यांकन तथा आकलन के संदर्भ में भारत की परीक्षा प्रणाली बहुत खराब है।
- प्रशिक्षकों को यह बेहतर ढंग से समझने में मदद करके कि शुरू से ही एक बच्चे में कौन से गुण देखने चाहिये, उन्होंने अपनी मूल्यांकन प्रणाली में सुधार किया है।
- भारतीय प्रणाली शुरू से ही अत्यधिक प्रतिस्पर्द्धी तथा तनावपूर्ण हो जाती है तथा उच्च अंकों की प्राप्ति के साथ शिक्षा जारी रखने हेतु पाठ्यक्रम रटने को बढ़ावा देती है।
- चीन, यूरोपीय और उत्तरी अमेरिकी देशों में मूल्यांकन तथा आकलन के संदर्भ में भारत की परीक्षा प्रणाली बहुत खराब है।
- अपर्याप्त शैक्षणिक अवसंरचना:
- कई बोर्डों के पास अपनी प्रक्रियाओं के निगरानी के लिये पर्याप्त कर्मचारी, अकादमिक संकाय नहीं है और साथ ही कई राज्य बोर्ड के शैक्षणिक अवसंरचना की स्थिति वास्तव में बहुत खराब है।
- केंद्रीय स्कूल शिक्षा बोर्ड (CBSE) तथा इंडियन सर्टिफिकेट ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन (ICSE) भी नौकरशाही, यांत्रिक सेट-अप के रूप में कार्य करते हैं जो संभावित रूप से परीक्षा प्रक्रियाओं की गुणवत्ता को प्रभावित करता है।
भारत की परीक्षा प्रणाली में सुधार के लिये क्या किया जा सकता है?
- संस्थागत सुधार करना:
- स्टाफ की कमी तथा बुनियादी ढाँचे की कमियों सहित परीक्षा बोर्डों के भीतर प्रणालीगत अपर्याप्तताओं को पहचानने एवं सुधारने की आवश्यकता है।
- प्रभावी अनुवीक्षण और मूल्यांकन प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करने के लिये अकादमिक संकाय तथा प्रशासनिक क्षमताओं को बढ़ाने को प्राथमिकता देनी चाहिये।
- सत्यनिष्ठा तथा निष्पक्षता के मानकों को बनाए रखने के लिये परीक्षा बोर्डों के भीतर पारदर्शिता एवं उत्तरदायित्व की संस्कृति को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
- व्यापक पाठ्यक्रम सुधार:
- सामग्री की सुसंगतता तथा गहनता सुनिश्चित करते हुए विविध शैक्षणिक आवश्यकताओं तथा रुचियों को समायोजित करने के लिये पाठ्यक्रम को सुव्यवस्थित एवं युक्तिसंगत बनाने की आवश्यकता है।
- रटने के स्थान पर आलोचनात्मक सोच, समस्या-समाधान कौशल तथा ज्ञान के वास्तविक परिवेश में अनुप्रयोग के विकास पर ज़ोर देने की आवश्यकता है।
- अधिगम के लिये अंतःविषय दृष्टिकोण को एकीकृत करना जो समग्र समझ तथा क्रॉस-कटिंग दक्षताओं को बढ़ावा देता है।
- लचीली मूल्यांकन विधियाँ:
- छात्रों को लंबी अवधि में विभिन्न विषयों में दक्षता हासिल करने में सक्षम बनाने के लिये एक मॉड्यूलर परीक्षा प्रारूप की आवश्यकता है।
- उच्च जोखिम वाली और सभी के लिये उपयुक्त एक समान परीक्षाओं के स्थान पर गहन मूल्यांकन ढाँचे को अपनाने की आवश्यकता है जो निरंतर सीखने तथा विकास को महत्त्व देता है।
- वैयक्तिक शिक्षण प्रक्षेपपथों को सुविधाजनक बनाने के लिये संपूर्ण अधिगम की प्रक्रिया के दौरान रचनात्मक मूल्यांकन तथा फीडबैक के अवसर प्रदान करना।
- शिक्षकों के लिये व्यावसायिक विकास:
- शिक्षकों में शैक्षणिक सिद्धांतों तथा मूल्यांकन प्रथाओं की समझ को विस्तारित करने के लिये व्यापक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में निवेश करने की आवश्यकता है।
- निरंतर सुधार और नवाचार की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये शिक्षकों के बीच सहयोग तथा ज्ञान-साझाकरण को बढ़ावा देना चाहिये।
- शिक्षार्थी-केंद्रित दृष्टिकोण को कार्यान्वित करने तथा छात्रों की विविध आवश्यकताओं को प्रभावी ढंग से पूरा करने के लिये शिक्षकों को आवश्यक उपकरण एवं संसाधन आवंटित किया जाना चाहिये।
- समग्र मूल्यांकन मानदंड:
- रचनात्मकता, सहयोग और भावनात्मक बुद्धिमत्ता सहित दक्षताओं की एक विस्तृत शृंखला को शामिल करने के लिये छात्र के प्रदर्शन के मूल्यांकन के मानदंडों का विस्तार करें।
- छात्र उपलब्धि की बहुमुखी प्रकृति को पकड़ने के लिये वैकल्पिक मूल्यांकन विधियों, जैसे– पोर्टफोलियो, प्रोजेक्ट और प्रस्तुतियाँ विकसित करें।
- वास्तविक दुनिया की चुनौतियों और अवसरों को प्रतिबिंबित करने वाले प्रामाणिक, प्रासंगिक रूप से प्रासंगिक मूल्यांकन की ओर बदलाव को प्रोत्साहित करें।
- स्कूली शिक्षा के लिये राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा (National Curriculum Framework - NCF) 2023 की भूमिका:
- इसका उद्देश्य शिक्षाशास्त्र सहित पाठ्यक्रम में सकारात्मक बदलावों के माध्यम से, राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में कल्पना की गई भारत की स्कूली शिक्षा प्रणाली को सकारात्मक रूप से बदलने में मदद करना है।
- इसका उद्देश्य भारत के संविधान द्वारा परिकल्पित एक समतापूर्ण समावेशी और बहुलवादी समाज को साकार करने के अनुरूप सभी बच्चों के लिये उच्चतम गुणवत्ता वाली शिक्षा प्राप्त करना है।
शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिये की गई पहल:
निष्कर्ष
- परीक्षा प्रणाली के संरचनात्मक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक आयामों को संबोधित करने वाले बहुआयामी दृष्टिकोण को अपनाकर, भारत एक अधिक न्यायसंगत, सशक्त तथा समावेशी शिक्षा प्रणाली का मार्ग प्रशस्त कर सकता है जो प्रत्येक शिक्षार्थी की क्षमता का पोषण करती है।
- यह ज़रूरी है कि हितधारक सार्थक सुधारों को लागू करने के लिये सक्रिय रूप से सहयोग करें जो छात्रों के समग्र विकास और कल्याण को प्राथमिकता दें तथा आने वाली पीढ़ियों के लिये एक उज्ज्वल भविष्य की नींव रखें।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारत के संविधान के निम्नलिखित में से कौन-से प्रावधान शिक्षा पर प्रभाव डालते हैं? (वर्ष 2012)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (A) केवल 1 और 2 उत्तर- (D) मेन्स:प्रश्न1. भारत में डिजिटल पहल ने किस प्रकार से देश की शिक्षा व्यवस्था के संचालन में योगदान किया है? विस्तृत उत्तर दीजिये। (2020) |
शासन व्यवस्था
संविधान (जम्मू-कश्मीर) अनुसूचित जनजातियाँ आदेश (संशोधन) विधेयक, 2024
प्रिलिम्स के लिये:संविधान (जम्मू-कश्मीर) अनुसूचित जनजातियाँ आदेश (संशोधन) विधेयक, 2024, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), नगर निकाय मेन्स के लिये:संविधान (जम्मू-कश्मीर) अनुसूचित जनजातियाँ आदेश (संशोधन) विधेयक, 2024, अनुसूचित जनजाति सूची में शामिल करने की प्रक्रिया और मानदंड |
स्रोत: पी.आई.बी.
चर्चा में क्यों?
हाल ही में लोकसभा ने संविधान (जम्मू-कश्मीर) अनुसूचित जनजातियाँ आदेश (संशोधन) विधेयक, 2024 पारित किया जिसका उद्देश्य जम्मू-कश्मीर के विशिष्ट जातीय समूहों तथा जनजातियों को अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल करना है।
- केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर की पंचायतों तथा नगर निकायों में अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को आरक्षण प्रदान करने के लिये जम्मू-कश्मीर स्थानीय निकाय कानून (संशोधन) विधेयक, 2024 भी पेश किया।
संविधान (जम्मू-कश्मीर) अनुसूचित जनजातियाँ आदेश (संशोधन) विधेयक, 2024 क्या है?
- परिचय:
- इस विधेयक का उद्देश्य विशेष रूप से अनुसूचित जनजातियों (ST) की सूची जम्मू-कश्मीर की चार जातीय समूहों को शामिल करना है।
- अनुसूचित जनजातियों की सूची में गड्डा ब्राह्मण, कोली, पद्दारी जनजाति तथा पहाड़ी जातीय समूह जैसे जातीय समूहों को शामिल किया जाएगा।
- इन समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्रदान कर यह विधेयक उनके सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक सशक्तीकरण को सुनिश्चित करेगा।
- महत्त्व:
- इस विधेयक में यह सुनिश्चित किया गया कि जम्मू-कश्मीर में अनुसूचित जनजातियों की सूची में इन समुदायों को शामिल करने तथा उन्हें आरक्षण प्रदान करने के दौरान गुज्जर और बकरवाल जैसे मौजूदा अनुसूचित जनजाति समुदायों को उपलब्ध आरक्षण के वर्तमान स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
- गुज्जर और बकरवाल खानाबदोश समूह हैं तथा वे गर्मियों में अपने पशुओं के साथ ऊँचाई वाले इलाकों की ओर चले जाते हैं एवं सर्दी के आगमन से पहले अपनी वापसी सुनिश्चित करते हैं।
- इस विधेयक को जम्मू-कश्मीर में समावेशी विकास की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम के रूप में देखा जा रहा है, जो "सबका साथ, सबका विश्वास" मूलमंत्र के साथ समाज के प्रत्येक वर्ग एवं समुदाय के सर्वसमावेशी विकास के प्रति कटिबद्ध है।
- इस विधेयक में यह सुनिश्चित किया गया कि जम्मू-कश्मीर में अनुसूचित जनजातियों की सूची में इन समुदायों को शामिल करने तथा उन्हें आरक्षण प्रदान करने के दौरान गुज्जर और बकरवाल जैसे मौजूदा अनुसूचित जनजाति समुदायों को उपलब्ध आरक्षण के वर्तमान स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
पहाड़ियों की प्रारंभिक स्थिति:
- वर्ष 2019 में पहाड़ियों को रोज़गार तथा शैक्षणिक संस्थानों में 4% आरक्षण प्रदान किया गया।
- इसके अतिरिक्त वर्ष 2019 में सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक रूप से पिछड़े समूहों की पहचान करने के लिये न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) जी.डी. शर्मा आयोग गठित किया गया था।
- इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में गद्दा ब्राह्मणों, कोलियों, पद्दारी जनजाति और पहाड़ी जातीय समूह को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्रदान करने की अनुशंसा की।
जम्मू-कश्मीर स्थानीय निकाय कानून (संशोधन) विधेयक, 2024 से संबंधित प्रमुख बिंदु क्या हैं?
- कुछ प्रावधानों में संशोधन: विधेयक का उद्देश्य केंद्रशासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर में स्थानीय निकायों (पंचायतों और नगर पालिकाओं) में OBC को आरक्षण प्रदान करने के लिये जम्मू-कश्मीर पंचायती राज अधिनियम, 1989, जम्मू-कश्मीर नगरपालिका अधिनियम, 2000 तथा जम्मू-कश्मीर नगर निगम अधिनियम, 2000 के कुछ प्रावधानों में संशोधन करना है।
- संवैधानिक प्रावधानों के साथ संरेखण: प्रस्तावित संशोधन संविधान के प्रावधानों, विशेष रूप से भाग IX और भाग IXA, जो पंचायतों तथा नगर पालिकाओं से संबंधित हैं, के साथ कानूनों में स्थिरता लाने का प्रयास करते हैं।
- इसमें संविधान के अनुच्छेद 243D और 243T के खंड (6) द्वारा सशक्त, पंचायतों तथा नगर पालिकाओं में नागरिकों के पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण प्रदान करना शामिल है।
- चुनाव का पर्यवेक्षण: विधेयक मतदाता सूची की तैयारी और पंचायतों तथा नगर पालिकाओं के चुनावों के संचालन के अधीक्षण, निर्देशन एवं नियंत्रण के संबंध में विसंगतियों को संबोधित करता है।
- यह सुनिश्चित करता है कि राज्य निर्वाचन आयोग से संबंधित प्रावधान संविधान, विशेष रूप से अनुच्छेद 243K और 243ZA के अनुरूप हैं।
- राज्य निर्वाचन आयुक्त को हटाना: विधेयक का उद्देश्य राज्य निर्वाचन आयुक्त को हटाने के संबंध में जम्मू-कश्मीर पंचायती राज अधिनियम, 1989 और संविधान के प्रावधानों के बीच अंतर को सुधारना है।
- इसका उद्देश्य निष्कासन प्रक्रिया को संवैधानिक प्रावधानों के साथ संरेखित करना साथ ही यह सुनिश्चित करना है कि राज्य निर्वाचन आयुक्त (State Election Commissioner) को केवल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान परिस्थितियों में ही हटाया जा सकता है।
भारत में जनजातियों से संबंधित संवैधानिक प्रावधान और पहल क्या हैं?
- संवैधानिक प्रावधान:
- वर्ष 1931 की जनगणना के अनुसार, अनुसूचित जनजातियों को ‘बहिर्वेशित’ और ‘आंशिक रूप से बहिष्कृत’ क्षेत्रों में ‘पिछड़ी जनजातियों’ के रूप में जाना जाता है। वर्ष 1935 के भारत सरकार अधिनियम के तहत पहली बार ‘पिछड़ी जनजातियों’ के प्रतिनिधियों को प्रांतीय विधानसभाओं में आमंत्रित किया गया।
- संविधान अनुसूचित जनजातियों की मान्यता के मानदंडों को परिभाषित नहीं करता है और इसलिये वर्ष 1931 की जनगणना में निहित परिभाषा का उपयोग स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक वर्षों में किया गया था।
- हालाँकि संविधान का अनुच्छेद 366(25) अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित करने के लिये प्रक्रिया निर्धारित करता है: “अनुसूचित जनजातियों का अर्थ ऐसी जनजातियों या जनजातीय समुदायों के अंदर कुछ वर्गों या समूहों से है, जिन्हें इस संविधान के उद्देश्यों के लिये अनुच्छेद 342 के तहत अनुसूचित जनजाति माना जाता है।”
- अनुच्छेद 342(1): राष्ट्रपति, राज्यपाल से परामर्श करने तथा जनता के लिये एक अधिसूचना प्रकाशित करने के बाद किसी भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के संबंध में कुछ जनजातियों, आदिवासी समुदायों अथवा जनजातियों या आदिवासी समुदायों के कुछ हिस्सों या समूहों को अनुसूचित जनजाति के रूप में नामित कर सकते हैं।
- संविधान की पाँचवीं अनुसूची असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम के अलावा अन्य राज्यों में अनुसूचित क्षेत्रों तथा अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन एवं नियंत्रण के लिये प्रावधान करती है।
- छठी अनुसूची असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन से संबंधित है।
- कानूनी प्रावधान:
- अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989
- पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम, 1996
- अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006
- नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955:
- यह अस्पृश्यता के प्रचार एवं आचरण के साथ-साथ उससे संबंधित किसी भी मुद्दे और किसी भी परिणामी विकलांगता को लागू करने के लिये दंड का प्रावधान करता है।
- संबंधित पहल:
- संबंधित समितियाँ:
- शाशा समिति (2013)
- भूरिया आयोग (2002-2004): इसने अधिक आदिवासी समुदायों को ST के रूप में मान्यता देने की सिफारिश की, जिससे इन हाशिये पर रहने वाले समूहों को विभिन्न लाभ और सुरक्षा प्रदान की गई।
- लोकुर समिति (1965): इसकी सिफारिशों में आदिवासी भूमि अधिकारों की सुरक्षा, ST समुदायों के लिये शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल एवं रोज़गार के अवसरों तक पहुँच में सुधार के साथ ही उनकी सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों का समाधान करने के लिये आदिवासी कल्याण योजनाओं में वृद्धि के उपाय शामिल थे।
- शाशा समिति (2013)
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. यदि किसी विशिष्ट क्षेत्र को भारत के संविधान की पाँचवी अनुसूची के अधीन लाया जाए, तो निम्नलिखित कथनों में कौन-सा एक कथन इसके परिणाम को सर्वोत्तम रूप से दर्शाता है? (2022) (a) इससे जनजातीय लोगों की ज़मीनें गैर-जनजातीय लोगों के अंतरित करने पर रोक लगेगी। उत्तर: (a) प्रश्न. भारत के संविधान की किस अनुसूची के तहत खनन के लिये निजी पार्टियों को आदिवासी भूमि के हस्तांतरण को शून्य और शून्य घोषित किया जा सकता है? (2019) (a) तीसरी अनुसूची उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. स्वतंत्रता के बाद अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के प्रति भेदभाव को दूर करने के लिये, राज्य द्वारा की गई दो प्रमुख विधिक पहलें क्या हैं? (2017) |
सामाजिक न्याय
कैंसर का वैश्विक प्रभाव: WHO
प्रिलिम्स के लिये:कैंसर का वैश्विक प्रभाव: WHO, विश्व कैंसर दिवस (4 फरवरी), कैंसर मेन्स के लिये:कैंसर का वैश्विक प्रभाव: WHO, स्वास्थ्य, शिक्षा, मानव संसाधनों से संबंधित सामाजिक क्षेत्र एवं सेवाओं के विकास तथा प्रबंधन से संबंधित मुद्दे |
स्रोत:डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
विश्व कैंसर दिवस (4 फरवरी) से पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की कैंसर एजेंसी, अंतर्राष्ट्रीय कैंसर अनुसंधान संस्था (IARC) ने वर्ष 2022 में कैंसर के वैश्विक प्रभाव का नवीनतम अनुमान जारी किया।
- IARC के अनुमानों ने कैंसर के बढ़ते बोझ, वंचित आबादी पर असंगत प्रभाव तथा विश्व भर में कैंसर की असमानताओं को दूर करने की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश डाला है।
WHO द्वारा 2022 में कैंसर के वैश्विक प्रभाव के प्रमुख बिंदु क्या हैं?
- वैश्विक प्रभाव:
- 20 मिलियन नए कैंसर के मामलों के साथ वर्ष 2022 में अनुमानित रूप से 9.7 मिलियन मौतें हुईं।
- कैंसर निदान के बाद 5 वर्षों के भीतर जीवित लोगों की अनुमानित संख्या 53.5 मिलियन थी।
- लगभग 5 में से 1 व्यक्ति को अपने जीवनकाल में कैंसर से पीड़ित होता है।
- सामान्य कैंसर के प्रकार:
- वर्ष 2022 में वैश्विक स्तर पर लगभग दो-तिहाई नए मामले और मौतें 10 प्रकार के कैंसर से हुईं।
- फेफड़े का कैंसर विश्व में सर्वाधिक सामान्य है, जिसके 2.5 मिलियन नए मामले सामने आए हैं, जो कुल नए मामलों का 12.4% है।
- महिलाओं में होने वाला स्तन कैंसर दूसरे स्थान पर है (2.3 मिलियन मामले, 11.6%), इसके बाद कोलोरेक्टल कैंसर, प्रोस्टेट कैंसर और पेट का कैंसर है।
- मृत्यु के प्रमुख कारण:
- फेफड़ों का कैंसर, कैंसर से होने वाली मौतों का प्रमुख कारण था (1.8 मिलियन मौतें, कुल कैंसर से होने वाली मौतों का 18.7%), इसके बाद कोलोरेक्टल कैंसर (900,000 मौतें, 9.3%), लीवर कैंसर, स्तन कैंसर और पेट का कैंसर था।
- सर्वाधिक सामान्य कैंसर के रूप में फेफड़ों के कैंसर का फिर से उभरना एशिया में लगातार तंबाकू के प्रयोग से संबंधित है।
- फेफड़ों का कैंसर, कैंसर से होने वाली मौतों का प्रमुख कारण था (1.8 मिलियन मौतें, कुल कैंसर से होने वाली मौतों का 18.7%), इसके बाद कोलोरेक्टल कैंसर (900,000 मौतें, 9.3%), लीवर कैंसर, स्तन कैंसर और पेट का कैंसर था।
- कैंसर में असमानताएँ:
- मानव विकास के अनुसार कैंसर के मामलों में अत्यधिक असमानताएँ रही हैं। यह स्तन कैंसर के लिये विशेष रूप से सही है।
- अत्यधिक उच्च HDI (मानव विकास सूचकांक) वाले देशों में 12 में से 1 महिला को अपने जीवनकाल में स्तन कैंसर का निदान किया जाता हैं और साथ ही 71 में से 1 महिला की इससे मृत्यु हो जाती है।
- इसके विपरीत निम्न HDI वाले देशों में 27 में से केवल एक महिला को अपने जीवनकाल में स्तन कैंसर का पता चलता है, 48 में से एक महिला की इससे मृत्यु हो जाती है।
- उच्च HDI देशों की महिलाओं की तुलना में निम्न HDI देशों में महिलाओं में स्तन कैंसर का निदान होने की संभावना 50% कम है, फिर भी देर से निदान और गुणवत्तापूर्ण उपचार तक अपर्याप्त पहुँच के कारण बीमारी से मृत्यु का जोखिम कहीं अधिक है।
- अनुमानित प्रभाव वृद्धि:
- वर्ष 2050 में 35 मिलियन से अधिक नए कैंसर मामलों की भविष्यवाणी की गई है, जो वर्ष 2022 में अनुमानित 20 मिलियन मामलों से 77% अधिक है।
- तेज़ी से बढ़ता वैश्विक कैंसर का प्रभाव जनसंख्या की उम्र बढ़ने और वृद्धि दोनों को दर्शाता है, साथ ही लोगों के जोखिम कारकों के संपर्क में आने वाले बदलावों को भी दर्शाता है, जिनमें से कई सामाजिक आर्थिक विकास से जुड़े हैं।
- कैंसर की वृद्धि के पीछे तंबाकू, शराब और मोटापा प्रमुख कारक हैं, वायु प्रदूषण अभी भी पर्यावरणीय जोखिम कारकों का प्रमुख चालक है।
- वैश्विक प्रभाव के संदर्भ में उच्च HDI वाले देशों में सर्वाधिक वृद्धि की आशा है, वर्ष 2022 के अनुमान की तुलना में वर्ष 2050 में अतिरिक्त 4.8 मिलियन नए मामलों की भविष्यवाणी भी की गई है।
- कार्रवाई की आवश्यकता :
- कैंसर के परिणामों में वैश्विक असमानताओं को दूर करने के साथ ही सभी व्यक्तियों के लिये उनकी भौगोलिक स्थिति अथवा सामाजिक आर्थिक स्थिति की परवाह किये बिना सस्ती, गुणवत्तापूर्ण कैंसर देखभाल तक पहुँच सुनिश्चित करने के लिये बड़े निवेश की तत्काल आवश्यकता है।
भारत से संबंधित प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं?
- भारत में 1,413,316 नए मामले दर्ज किये गए, जिनमें महिला रोगियों का अनुपात अधिक है- 691,178 पुरुष और 722,138 महिलाएँ।
- 192,020 नए मामलों के साथ स्तन कैंसर का अनुपात सबसे अधिक है, जो सभी रोगियों में 13.6 प्रतिशत और महिलाओं में 26 प्रतिशत से अधिक है।
- भारत में, स्तन कैंसर के बाद होंठ और मौखिक गुहा (Oral cavity) [143,759 नए मामले, 10.2 प्रतिशत, गर्भाशय ग्रीवा (Cervix) तथा गर्भाशय (Uterine), फेफड़े एवं ग्रासनली (Oesophagal) कैंसर के मामले सामने आए।
- एशिया में कैंसर के बोझ का आकलन करने हेतु WHO द्वारा किये गए एक हालिया अध्ययन जिसे द लैंसेट रीज़नल हेल्थ में प्रकाशित किया गया के अनुसार, वर्ष 2019 में कैंसर के कारण होने वाली कुल मौतों में अकेले भारत की हिस्सेदारी 32.9% थी, साथ ही होंठ और मौखिक गुहा कैंसर के 28.1% नए मामले भी सामने आए।
- भारत, बांग्लादेश और नेपाल जैसे दक्षिण एशियाई देशों में होंठ तथा मौखिक गुहा कैंसर/ओरल कैंसर का कारण खैनी, गुटखा, सुपारी एवं पान मसाला जैसे धुआँरहित तंबाकू (SMT) के व्यापक उपभोग है। विश्व भर में, मौखिक कैंसर के 50% मामलों के लिये SMT उत्तरदायी है।
- लैंसेट ग्लोबल हेल्थ 2023 के अनुसार, वैश्विक स्तर पर सर्वाइकल कैंसर के कारण होने वाली कुल मौतों में से 23% मौतें भारत में हुईं।
- भारत में, सर्वाइकल कैंसर होने के बाद पाँच वर्षों तक जीवित रहने की दर 51.7% थी। हालाँकि, संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे उच्च आय वाले देशों की तुलना में भारत में जीवित रहने की दर कम है।
विश्व कैंसर दिवस से संबंधित प्रमुख तथ्य क्या हैं?
- परिचय:
- विश्व कैंसर दिवस यूनियन फॉर इंटरनेशनल कैंसर कंट्रोल (UICC) के नेतृत्व में हर साल 4 फरवरी को मनाया जाने वाला एक अंतर्राष्ट्रीय जागरूकता दिवस है।
- कैंसर शरीर में कोशिकाओं की अनियंत्रित, असामान्य वृद्धि के कारण होता है जो अधिकांश कारणों में गाँठ या ट्यूमर का कारण बनता है।
- पहली बार 4 फरवरी, 2000 को पेरिस में नई सहस्राब्दी के लिये कैंसर के खिलाफ विश्व शिखर सम्मेलन (World Summit Against Cancer for the New Millennium) में मनाया गया था।
- पेरिस चार्टर का मिशन अनुसंधान को बढ़ावा देना, कैंसर को रोकना, रोगी सेवाओं में सुधार करना, जागरूकता बढ़ाना और वैश्विक समुदाय को कैंसर के खिलाफ प्रगति के लिये प्रेरित करना है तथा इसमें विश्व कैंसर दिवस को अपनाना भी शामिल है।
- विश्व कैंसर दिवस यूनियन फॉर इंटरनेशनल कैंसर कंट्रोल (UICC) के नेतृत्व में हर साल 4 फरवरी को मनाया जाने वाला एक अंतर्राष्ट्रीय जागरूकता दिवस है।
- वर्ष 2024 थीम:
- क्लोज़ द केयर गैप:
- इस थीम का उद्देश्य संपूर्ण विश्व में कैंसर के बढ़ते बोझ का एकसमान तरीके से निवारण करने हेतु लोगों का ध्यान आकर्षित करते हुए संसाधन जुटाना है जिससे पीड़ितों को कैंसर के विरुद्ध व्यवस्थित परीक्षण, शीघ्र निदान तथा उपचार तक पहुँच प्राप्त करने में सहायता मिल सके।
- क्लोज़ द केयर गैप:
कैंसर
- यह एक जटिल और व्यापक शब्द है जिसका उपयोग शरीर में असामान्य कोशिकाओं की अनियंत्रित वृद्धि तथा प्रसार से होने वाली बीमारियों के एक समूह का वर्णन करने के लिये किया जाता है।
- ये असामान्य कोशिकाएँ, जिन्हें कैंसर कोशिकाएँ कहा जाता है, स्वस्थ ऊतकों और अंगों पर आक्रमण करने तथा उन्हें नष्ट करने में सक्षम होती हैं।
- एक स्वस्थ शरीर में कोशिकाएँ विनियमित तरीके से विकसित होती हैं, विभाजित होती हैं और नष्ट हो जाती हैं, जिससे ऊतकों तथा अंगों के सामान्य संचालन की अनुमति मिलती है।
- हालाँकि कैंसर के मामले में कुछ आनुवंशिक उत्परिवर्तन या असामान्यताएँ इस सामान्य कोशिका चक्र को बाधित करती हैं, जिससे कोशिकाएँ विभाजित होती हैं और अनियंत्रित रूप से बढ़ती हैं।
सर्वाइकल कैंसर
- सर्वाइकल कैंसर महिला के गर्भाशय ग्रीवा (योनि से गर्भाशय का प्रवेश द्वार) में विकसित होता है।
- सर्वाइकल कैंसर के लगभग सभी मामले (99%) उच्च जोखिम वाले ह्यूमन पैपिलोमावायरस (HPV) संक्रमण से संबंधित होते हैं जो यौन संपर्क के माध्यम से संचरित सबसे सामान्य विषाणु है।
- दो HPV प्रकार (16 और 18) उच्च जोखिम वाले लगभग 50% सर्वाइकल प्री-कैंसर का कारण बनते हैं।
- वैश्विक स्तर पर महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर चौथा सबसे सामान्य कैंसर है। वर्ष 2020 में विश्व भर में सर्वाइकल कैंसर के लगभग 90% नए मामले तथा मौतें निम्न और मध्यम आय वाले देशों में हुईं।
कैंसर के उपचार हेतु कौन-सी सरकारी पहलें की गई हैं:
- अंतरिम बजट 2024-25 में सर्वाइकल कैंसर की रोकथाम के लिये 9-14 वर्ष की लड़कियों के टीकाकरण को प्रोत्साहित किया गया है।
- कैंसर, मधुमेह, हृदय रोग और स्ट्रोक की रोकथाम एवं नियंत्रण के लिये राष्ट्रीय कार्यक्रम
- राष्ट्रीय कैंसर ग्रिड
- राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस
- HPV वैक्सीन
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2010)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) मेन्स:प्रश्न. अनुप्रयुक्त जैव-प्रौद्योगिकी में शोध तथा विकास संबंधी उपलब्धियाँ क्या हैं? ये उपलब्धियाँ समाज के निर्धन वर्गों के उत्थान में किस प्रकार सहायक होंगी? (2021) प्रश्न. नैनोटेक्नोलॉजी से आप क्या समझते हैं और यह स्वास्थ्य क्षेत्र में कैसे मदद कर रही है? (2020) प्रश्न. क्या कारण है कि हमारे देश में जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में अत्यधिक सक्रियता है। इस सक्रियता ने बायोफार्मा के क्षेत्र को कैसे लाभ पहुँचाया है? (2018) प्रश्न. ल्यूकीमिया, थैलासीमिया, क्षतिग्रस्त कॉर्निया व गंभीर दाह सहित सुविस्तृत चिकित्सीय दशाओं में उपचार करने के लिये भारत में स्टैम कोशिका चिकित्सा लोकप्रिय होती जा रही है। संक्षेप में वर्णन कीजिये कि स्टैम कोशिका उपचार क्या होता है और अन्य उपचारों की तुलना में उसके क्या लाभ हैं? (2017) |
शासन व्यवस्था
व्यक्तिगत रूप से पहचान योग्य सूचना की संरक्षा
प्रिलिम्स के लिये:व्यक्तिगत रूप से पहचान योग्य सूचना, भारतीय कंप्यूटर आपातकालीन प्रतिक्रिया दल (CERT-In), सोशल इंजीनियरिंग अटैक, निजता, साइबर अपराध, डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम, 2023, विस्तारित पहचान और प्रतिक्रिया (XDR) उपकरण मेन्स के लिये:डेटा उल्लंघन, साइबर अपराध से संबंधित चुनौतियाँ और इससे निपटने के उपाय |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में एक साइबर सुरक्षा शोधकर्त्ता ने भारतीय कंप्यूटर आपातकालीन प्रतिक्रिया दल (CERT-In) को एक गंभीर सुभेद्यता के बारे में सूचना दी जिसके बाद कारपोरेट कार्य मंत्रालय (Ministry of Corporate Affairs) ने अपने ऑनलाइन पोर्टल में सुधार किया।
- कथित तौर पर सूचित सुभेद्यता के कारण भारतीय कंपनियों के 98 लाख से अधिक निदेशकों का आधार, स्थायी खाता संख्या (PAN), मतदाता पहचान, जन्म तिथि, संपर्क नंबर तथा संचार पते जैसी व्यक्तिगत रूप से पहचान योग्य सूचना (PII) संबंधी डेटा लीक हुआ।
व्यक्तिगत रूप से पहचान योग्य सूचना (PII) क्या है?
- परिचय:
- PII किसी संगठन अथवा एजेंसी द्वारा अनुरक्षित कोई भी डेटा अथवा सूचना है जिसका उपयोग संभावित रूप से किसी विशेष व्यक्ति की पहचान करने के लिये किया जा सकता है।
- इसमें आधार, PAN, मतदाता पहचान, पासपोर्ट, जन्म तिथि, संपर्क नंबर, संचार पता और बायोमेट्रिक जानकारी जैसी विभिन्न सूचनाएँ शामिल हो सकती है।
- PII के घटक किसी व्यक्ति के निवास देश के आधार पर भिन्न-भिन्न होते हैं।
- PII किसी संगठन अथवा एजेंसी द्वारा अनुरक्षित कोई भी डेटा अथवा सूचना है जिसका उपयोग संभावित रूप से किसी विशेष व्यक्ति की पहचान करने के लिये किया जा सकता है।
- PII के प्रकार:
- PII के दो प्रकार होते हैं: प्रत्यक्ष पहचानकर्त्ता और अप्रत्यक्ष पहचानकर्त्ता।
- प्रत्यक्ष पहचानकर्त्ता किसी व्यक्ति के संबंध में अद्वितीय होते हैं जिसमें पासपोर्ट नंबर अथवा ड्राइविंग लाइसेंस नंबर जैसी चीज़ें शामिल होती हैं।
- प्रत्यक्ष पहचानकर्त्ता आमतौर पर किसी की पहचान निर्धारित करने के लिये पर्याप्त होता है।
- अप्रत्यक्ष पहचानकर्त्ता अद्वितीय नहीं होते हैं तथा इनमें जाति और जन्म स्थान जैसे अधिक सामान्य व्यक्तिगत विवरण शामिल होता है। मात्र एक अप्रत्यक्ष पहचानकर्त्ता सूचना के माध्यम से किसी व्यक्ति की पहचान नहीं की जा सकती किंतु अप्रत्यक्ष पहचानकर्त्ता संबंधी विभिन्न सूचना के माध्यम से ऐसा किया जा सकता है।
- प्रत्यक्ष पहचानकर्त्ता किसी व्यक्ति के संबंध में अद्वितीय होते हैं जिसमें पासपोर्ट नंबर अथवा ड्राइविंग लाइसेंस नंबर जैसी चीज़ें शामिल होती हैं।
- PII के दो प्रकार होते हैं: प्रत्यक्ष पहचानकर्त्ता और अप्रत्यक्ष पहचानकर्त्ता।
- संवेदनशील बनाम गैर-संवेदनशील PII:
- PII में कुछ सूचना अन्य सूचनाओं की तुलना में अधिक संवेदनशील होती हैं।
- संवेदनशील PII:
- यह संवेदनशील सूचना होती है जिसके माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से किसी व्यक्ति की पहचान की जा सकती है तथा इसके लीक अथवा चोरी होने की दशा में गंभीर क्षति हो सकती है।
- संवेदनशील PII आम तौर पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं होती है और अधिकांश मौजूदा डेटा गोपनीयता संबंधी कानूनों के आधार पर संगठनों को इस डेटा को एन्क्रिप्ट करके, इसे एक्सेस करने वाले को नियंत्रित करने अथवा अन्य साइबर सुरक्षा उपाय करके इसे सुरक्षित रखने की आवश्यकता होती है।
- गैर-संवेदनशील PII:
- यह किसी व्यक्ति के संबंध में अद्वितीय हो भी सकता है और नहीं भी।
- यह व्यक्तिगत डेटा होता है जो लीक अथवा चोरी होने पर किसी व्यक्ति को गंभीर क्षति नहीं पहुँचाता है।
- उदाहरण के लिये किसी व्यक्ति का सोशल मीडिया अकाउंट गैर-संवेदनशील PII की श्रेणी में आता है। यह किसी व्यक्ति की पहचान करने में मदद सकता है किंतु कोई दुर्भावनापूर्ण अभिकर्त्ता केवल सोशल मीडिया अकाउंट नाम के माध्यम से संबद्ध व्यक्ति की पहचान की चोरी नहीं कर सकता है।
- इसमें ज़िप कोड, जाति, लिंग तथा धर्म जैसी जानकारी भी शामिल होती है जिनका उपयोग किसी व्यक्ति की सटीक पहचान करने के लिये नहीं किया जा सकता है।
- यह किसी व्यक्ति के संबंध में अद्वितीय हो भी सकता है और नहीं भी।
- Non-PII:
- Non-PII सूचना में फोटोग्राफिक छवियाँ (विशेष रूप से मुख अथवा व्यक्ति की अन्य पहचान से संबंधित), जन्म स्थान, धर्म, भौगोलिक संकेतक, रोज़गार की जानकारी, शैक्षिक योग्यता और चिकित्सा रिकॉर्ड शामिल होते हैं।
- गैर-व्यक्तिगत रूप से पहचान योग्य सूचना (Non-PII) वह डेटा है जिसका उपयोग किसी व्यक्ति का पता लगाने अथवा उसकी पहचान करने के लिये नहीं किया जा सकता है। हालाँकि अतिरिक्त सूचना और Non-PII का उपयोग कर किसी व्यक्ति की पहचान की जा सकती है।
- Non-PII सूचना में फोटोग्राफिक छवियाँ (विशेष रूप से मुख अथवा व्यक्ति की अन्य पहचान से संबंधित), जन्म स्थान, धर्म, भौगोलिक संकेतक, रोज़गार की जानकारी, शैक्षिक योग्यता और चिकित्सा रिकॉर्ड शामिल होते हैं।
PII के गोपीनयता से जुड़े जोखिम क्या हैं?
- वित्तीय धोखाधड़ी:
- PII के खुलासा, जैसे बैंक खाता संख्या या क्रेडिट कार्ड की जानकारी, वित्तीय धोखाधड़ी का कारण बन सकती है।
- अपराधी बैंक खातों तक पहुँच सकते हैं, अनधिकृत लेन-देन कर सकते हैं, भुगतान संबंधी धोखाधड़ी कर सकते हैं, साथ ही सरकारी कल्याण कार्यक्रमों के लाभार्थियों को आवंटित खातों से धनराशि निकाल सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप पीड़ित को वित्तीय हानि हो सकती है।
- PII के खुलासा, जैसे बैंक खाता संख्या या क्रेडिट कार्ड की जानकारी, वित्तीय धोखाधड़ी का कारण बन सकती है।
- गोपनीयता का उल्लंघन:
- PII का खुलासा गोपनीयता का उल्लंघन कर सकता है साथ ही व्यक्तियों की गोपनीयता और स्वायत्तता से भी समझौता कर सकता है।
- व्यक्तिगत डेटा तक अनधिकृत पहुँच द्वारा गोपनीयता का हनन, उत्पीड़न अथवा पीड़ितों का पीछा भी शामिल है।
- PII का खुलासा गोपनीयता का उल्लंघन कर सकता है साथ ही व्यक्तियों की गोपनीयता और स्वायत्तता से भी समझौता कर सकता है।
- फिशिंग तथा सोशल इंजीनियरिंग हमले:
- साइबर अपराधी फिशिंग हमलों को अंज़ाम देने, व्यक्तियों की अधिक संवेदनशील जानकारी का खुलासा करने अथवा दुर्भावनापूर्ण लिंक पर क्लिक करने के लिये PII के खुलासे का उपयोग कर सकते हैं।
- सोशल इंजीनियरिंग हमले, जैसे– हेरफेर PRAKRI तथा प्रतिरूपण धोखाधड़ी, लोगों को निजी जानकारी का खुलासा करने अथवा अवैध पहुँच की अनुमति देने के लिये उजागर की गई व्यक्तिगत पहचान योग्य जानकारी (PII) का उपयोग करते हैं।
- साइबर अपराधी फिशिंग हमलों को अंज़ाम देने, व्यक्तियों की अधिक संवेदनशील जानकारी का खुलासा करने अथवा दुर्भावनापूर्ण लिंक पर क्लिक करने के लिये PII के खुलासे का उपयोग कर सकते हैं।
- डेटा उल्लंघन का परिणाम:
- PII का खुलासा प्राय: डेटा उल्लंघनों के माध्यम से होता है, जिससे महत्त्वपूर्ण वित्तीय हानि के साथ सुधारात्मक लागत और संगठन की प्रतिष्ठा को भी हानि पँहुचाता है।
- संगठन ग्राहकों के विश्वास में कमी, राजस्व में कमी तथा नियामकों एवं हितधारकों की बढ़ती जाँच से प्रभावित हो सकते हैं।
- PII का खुलासा प्राय: डेटा उल्लंघनों के माध्यम से होता है, जिससे महत्त्वपूर्ण वित्तीय हानि के साथ सुधारात्मक लागत और संगठन की प्रतिष्ठा को भी हानि पँहुचाता है।
- प्रतिष्ठा की हानि:
- संवेदनशील PII का खुलासा, जैसे कि आपत्तिजनक तस्वीरें अथवा व्यक्तिगत संदेश, व्यक्तियों की प्रतिष्ठा और रिश्तों को हानि पहुँचा सकते हैं।
- ऑनलाइन लीक हुई जानकारी का उपयोग ब्लैकमेल, जबरन वसूली या सार्वजनिक अपमान के लिये किया जा सकता है, जिसके सामाजिक एवं व्यावसायिक परिणाम हो सकते हैं।
- संवेदनशील PII का खुलासा, जैसे कि आपत्तिजनक तस्वीरें अथवा व्यक्तिगत संदेश, व्यक्तियों की प्रतिष्ठा और रिश्तों को हानि पहुँचा सकते हैं।
अतीत में डेटा उल्लंघन के मामले:
- CoWIN डेटा उल्लंघन का आरोप:
- टेलीग्राम बॉट द्वारा CoWIN पोर्टल पर पंजीकृत भारतीय नागरिकों के व्यक्तिगत डेटा को वापस करने के बारे में रिपोर्ट सामने आई।
- इसी तरह का एक डेटा उल्लंघन तब सामने आया था जब एक अमेरिकी साइबर सुरक्षा कंपनी ने दावा किया था कि आधार नंबर और पासपोर्ट विवरण सहित 815 मिलियन भारतीय नागरिकों की PII डार्क वेब पर बेची जा रही थी।
- भारत सरकार ने बायोमेट्रिक डेटा लीक और CoWIN पोर्टल उल्लंघनों के आरोपों से इनकार किया और कहा कि CoWIN वेबसाइट सुरक्षित है साथ ही इसमें डेटा गोपनीयता के लिये पर्याप्त सुरक्षा उपाय हैं।
- टेलीग्राम बॉट द्वारा CoWIN पोर्टल पर पंजीकृत भारतीय नागरिकों के व्यक्तिगत डेटा को वापस करने के बारे में रिपोर्ट सामने आई।
- आधार:
- वर्ष 2018, 2019 और 2022 में भी आधार डेटा लीक की सूचना मिली थी, जिसमें बड़े पैमाने पर लीक के तीन मामले सामने आए थे, जिनमें से एक में PM किसान वेबसाइट पर संग्रहीत किसान डेटा को डार्क वेब पर उपलब्ध कराया गया था।
- रेलयात्री प्लेटफार्म डेटा का उल्लंघन:
- जनवरी 2023 में रेलयात्री प्लेटफॉर्म पर भी डेटा उल्लंघन की सूचना मिली थी।
- सरकारी एवं आवश्यक सेवाओं पर साइबर हमलों में वृद्धि:
- इसके अतिरिक्त 67% भारतीय सरकार और आवश्यक सेवा संगठनों ने विघटनकारी साइबर हमलों में 50% से अधिक की वृद्धि का अनुभव किया जैसा कि रिसिक्योरिटी (एक अमेरिकी साइबर सुरक्षा कंपनी) की एक रिपोर्ट में कहा गया है।
- इसके अतिरिक्त 200 IT निर्णय निर्माताओं के एक सर्वेक्षण में कहा गया है कि 45% भारतीय व्यवसायों ने साइबर हमलों में 50% से अधिक की वृद्धि का अनुभव किया है।
भारत में डेटा गवर्नेंस से संबंधित प्रावधान:
- सूचना प्रौद्योगिकी (मध्यवर्ती दिशानिर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता) नियम 2021
- आईटी अधिनियम, 2000 को प्रतिस्थापित करने के लिए ' डिजिटल इंडिया अधिनियम', 2023 का प्रस्ताव
- न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टास्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ 2017
- भारत में निजी डेटा के प्रसंस्करण को नियंत्रित करता है। यह अधिनियम ऑनलाइन और ऑफलाइन डेटा संग्रह साथ ही प्रसंस्करण दोनों पर लागू होता है, जिसमें भारत के बाहर की गतिविधियाँ भी शामिल हैं, यदि उनमें भारत में सामान या सेवाएँ पेश करना शामिल है।
- कंप्यूटर आपातकालीन प्रतिक्रिया टीम - भारत (CERT-In):
- सूचना प्रौद्योगिकी संशोधन अधिनियम 2008 में, CERT-In को साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में कई कार्य करने के लिये राष्ट्रीय एजेंसी के रूप में नामित किया गया है, साथ ही साइबर घटनाओं पर जानकारी का संग्रह, विश्लेषण और प्रसार भी साइबर सुरक्षा घटनाओं पर अलर्ट जारी करता है।
- यह इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय का एक संगठन है।
- CERT-In के उद्देश्यों में शामिल हैं: देश के साइबरस्पेस के खिलाफ साइबर हमलों को रोकना, साइबर हमलों का जवाब देना तथा क्षति एवं वसूली को कम करना।
- सूचना प्रौद्योगिकी संशोधन अधिनियम 2008 में, CERT-In को साइबर सुरक्षा के क्षेत्र में कई कार्य करने के लिये राष्ट्रीय एजेंसी के रूप में नामित किया गया है, साथ ही साइबर घटनाओं पर जानकारी का संग्रह, विश्लेषण और प्रसार भी साइबर सुरक्षा घटनाओं पर अलर्ट जारी करता है।
PII की सुरक्षा में क्या चुनौतियाँ हैं?
- विविध स्रोत:
- क्लाउड कंप्यूटिंग एवं SaaS सेवाओं के विकास के कारण PII को कई स्थानों पर संग्रहीत और संसाधित किया जा सकता है।
- डेटा की मात्रा बढ़ाना:
- सार्वजनिक क्लाउड में संग्रहीत संवेदनशील डेटा की मात्रा वर्ष 2024 तक दोगुनी होने का अनुमान है, जिससे इसकी सुरक्षा सुनिश्चित करने में चुनौतियाँ पैदा होंगी।
- विकसित हो रहा खतरा:
- PII चुराने के लिये साइबर अपराधी विभिन्न तकनीकों का प्रयोग करते हैं, जिनमें सोशल इंजीनियरिंग हमले तथा डार्क वेब पर डेटा खरीदना शामिल है।
- जटिल विनियामक वातावरण:
- संगठनों को विभिन्न डेटा गोपनीयता नियमों का पालन करना चाहिये और उनके अनुसार अपने सुरक्षा उपायों को भी तैयार करना चाहिये।
आगे की राह
- एन्क्रिप्शन:
- PII की सुरक्षा के लिये एन्क्रिप्शन तकनीकों को नियोजित करना, भले ही डेटा की स्थिति कुछ भी हो, चाहे वह डेटाबेस पर हो अथवा इंटरनेट पर पारगमन में हो या उपयोग में हो।
- पहचान एवं पहुंच प्रबंधन (IAM):
- संवेदनशील डेटा तक पहुँच सीमित करने के लिये दो-कारक या बहु-कारक प्रमाणीकरण एवं ज़ीरो-ट्रस्ट आर्किटेक्चर (ZTA) का उपयोग करना।
- ZTA "कभी भरोसा न करने, हमेशा सत्यापित करने" के सिद्धांत पर आधारित है। इसके लिये संगठनों को प्रत्येक उपयोगकर्त्ता की पहचान सत्यापित करने और दुर्भावनापूर्ण गतिविधि के लिये उपयोगकर्ता व्यवहार की लगातार निगरानी करने की आवश्यकता होती है।
- संवेदनशील डेटा तक पहुँच सीमित करने के लिये दो-कारक या बहु-कारक प्रमाणीकरण एवं ज़ीरो-ट्रस्ट आर्किटेक्चर (ZTA) का उपयोग करना।
- प्रशिक्षण:
- कर्मचारियों को फिशिंग-विरोधी और सामाजिक इंजीनियरिंग जागरूकता सहित PII को संभालने और सुरक्षा पर प्रशिक्षण प्रदान करना।
- अज्ञातीकरण:
- पहचान संबंधी विशेषताओं को हटाने के लिये संवेदनशील डेटा को अज्ञात बनाना।
- साइबर सुरक्षा उपकरण:
- DLP के दुरुपयोग पर नज़र रखने और उसका पता लगाने के लिये डेटा हानि रोकथाम (DLP) तथा विस्तारित पहचान एवं प्रतिक्रिया (XDR) उपकरण तैनात करना।
- XDR उपकरण सुरक्षा उपकरण हैं जो संपूर्ण नेटवर्क से डेटा एकत्र करते हैं और खतरों के लिये स्वचालित प्रतिक्रियाओं का प्रबंधन करते हैं।
- DLP के दुरुपयोग पर नज़र रखने और उसका पता लगाने के लिये डेटा हानि रोकथाम (DLP) तथा विस्तारित पहचान एवं प्रतिक्रिया (XDR) उपकरण तैनात करना।
- सहयोग एवं भागीदारी:
- व्यक्तिगत रूप से पहचान योग्य जानकारी की सुरक्षा के लिये नए जोखिमों और सर्वोत्तम प्रथाओं पर अपडेट रहने के लिये उद्योग मित्रों, नियामक एजेंसियों तथा साइबर सुरक्षा विशेषज्ञों के साथ मिलकर कार्य करना।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न 1. 'निजता का अधिकार' भारत के संविधान के किस अनुच्छेद के तहत संरक्षित है? (2021) (a)अनुच्छेद 15 व्याख्या: (c) Q.2 भारत में, साइबर सुरक्षा घटनाओं पर रिपोर्ट करना निम्नलिखित में से किसके लिये कानूनी रूप से अनिवार्य है? (2017)
नीचे दिये गए कूट का उपयोग करके सही उत्तर का चयन कीजिये: (a) केवल 1 उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. साइबर सुरक्षा के विभिन्न तत्त्व क्या हैं? साइबर सुरक्षा की चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए समीक्षा कीजिये कि भारत ने किस हद तक एक व्यापक राष्ट्रीय साइबर सुरक्षा रणनीति सफलतापूर्वक विकसित की है। (2022) |
शासन व्यवस्था
परिसीमन
प्रिलिम्स के लिये:परिसीमन, परिसीमन आयोग अधिनियम 1952, भारतीय संविधान, परिसीमन आयोग, 15वाँ वित्त आयोग, भारत निर्वाचन आयोग मेन्स के लिये:परिसीमन की आवश्यकता और संबंधित चिंताएँ। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिये निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन वर्ष 2026 के बाद पहली जनगणना के आधार पर किया जाना है।
- वर्ष 2021 की जनगणना मूल रूप से कोविड-19 महामारी और उसके बाद केंद्र सरकार की ओर से देरी के कारण स्थगित कर दी गई थी।
परिसीमन क्या है?
- परिचय:
- परिसीमन का अर्थ है लोकसभा और विधानसभाओं के लिये प्रत्येक राज्य में सीटों की संख्या और क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएँ तय करने की प्रक्रिया।
- इसमें इन सदनों में अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिये आरक्षित सीटों का निर्धारण भी शामिल है।
- यह 'परिसीमन प्रक्रिया' 'परिसीमन आयोग' द्वारा की जाती है जिसे संसद के एक अधिनियम के तहत स्थापित किया जाता है।
- 1952, 1962, 1972 और 2002 के अधिनियमों के तहत परिसीमन आयोग चार बार स्थापित किये गए हैं - वर्ष 1952, 1963, 1973 और 2002 में।
- पहला परिसीमन कार्य राष्ट्रपति द्वारा (निर्वाचन आयोग की मदद से) वर्ष 1950-51 में किया गया था।
- 1952, 1962, 1972 और 2002 के अधिनियमों के तहत परिसीमन आयोग चार बार स्थापित किये गए हैं - वर्ष 1952, 1963, 1973 और 2002 में।
- परिसीमन का अर्थ है लोकसभा और विधानसभाओं के लिये प्रत्येक राज्य में सीटों की संख्या और क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाएँ तय करने की प्रक्रिया।
- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
- लोकसभा की राज्यवार संरचना में परिवर्तन लाने वाला अंतिम परिसीमन वर्ष 1976 में पूरा हुआ और यह वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर किया गया।
- भारत का संविधान यह आज्ञापित करता है कि लोकसभा में सीटों का आवंटन प्रत्येक राज्य की जनसंख्या के आधार पर होना चाहिये ताकि सीटों का जनसंख्या से अनुपात सभी राज्यों में लगभग सामान हो। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि प्रत्येक व्यक्ति के वोट का भारांक लगभग समान हो, भले ही वे किसी भी राज्य में रहते हों।
- हालाँकि इस प्रावधान का अर्थ यह था कि जनसंख्या नियंत्रण में कम रूचि रखने वाले राज्यों को संसद में अधिक संख्या में सीटें मिल सकती हैं।
- इस तरह के परिणामों से बचने के लिये संविधान में संशोधन किया गया। 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 ने वर्ष 1971 के परिसीमन के आधार पर वर्ष 2000 तक के लिये राज्यों में लोकसभा में सीटों के आवंटन और प्रत्येक राज्य के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन पर रोक लगा दी।
- 84वें संशोधन अधिनियम, 2001 ने सरकार को वर्ष 1991 की जनगणना के जनसंख्या आँकड़ों के आधार पर राज्यों में क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्समायोजन और युक्तिकरण का अधिकार दिया।
- 87वें संशोधन अधिनियम, 2003 में निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन का प्रावधान वर्ष 2001 की जनगणना के आधार पर किया गया, न कि वर्ष 1991 की जनगणना के आधार पर।
- हालाँकि यह लोकसभा में प्रत्येक राज्य को आवंटित सीटों की संख्या में बदलाव किये बिना किया जा सकता है।
- संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 82 के तहत संसद प्रत्येक जनगणना के बाद एक परिसीमन अधिनियम बनाती है।
- अनुच्छेद 170 के तहत राज्यों को प्रत्येक जनगणना के बाद परिसीमन अधिनियम के अनुसार क्षेत्रीयनिर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है।
क्यों महत्त्वपूर्ण है परिसीमन?
- प्रतिनिधित्त्व:
- परिसीमन जनसंख्या परिवर्तन के आधार पर सीटों की संख्या को समायोजित करके लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करता है।
- यह "एक नागरिक-एक वोट-एक मूल्य" (one citizen-one vote-one value) के लोकतांत्रिक सिद्धांत को बनाए रखने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- हिस्सेदारी:
- परिसीमन का उद्देश्य समय के साथ जनसंख्या परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को पुनः समायोजित करके विभिन्न क्षेत्रों के बीच सीटों का समान वितरण सुनिश्चित करना है।
- इससे विशिष्ट क्षेत्रों के कम प्रतिनिधित्व या अधिक प्रतिनिधित्व को रोकने में मदद मिलती है।
- SC/ST केसीटों का आरक्षण:
- परिसीमन संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) के लिये आरक्षित सीटों का आवंटन निर्धारित करता है, जिससे हाशिये पर स्थित समुदायों के लिये पर्याप्त राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है।
- संघवाद:
- परिसीमन राज्यों के बीच राजनीतिक शक्ति के वितरण को प्रभावित करके संघीय सिद्धांतों को प्रभावित करता है। विभिन्न क्षेत्रों के बीच सद्भाव बनाए रखने के लिये जनसंख्या-आधारित प्रतिनिधित्व और संघीय विचारों के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है।
- जनसंख्या नियंत्रण के उपाय:
- ऐतिहासिक रूप से, वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर सीटों की संख्या की स्थिर करने का उद्देश्य जनसंख्या नियंत्रण उपायों को प्रोत्साहित करना था। हालाँकि, आसन्न परिसीमन प्रक्रिया बदलती जनसांख्यिकी के संदर्भ में इस नीति की प्रभावशीलता और निहितार्थ पर प्रश्नचिह्न लगाती है।
परिसीमन को लेकर कौन-सी चिंताएँ विद्यमान हैं?
- क्षेत्रीय असमानता:
- निर्णायक कारक के रूप में जनसंख्या के कारण लोकसभा में भारत के उत्तर और दक्षिणी भाग के बीच प्रतिनिधित्व में असमानता है।
- केवल जनसंख्या पर आधारित परिसीमन दक्षिणी राज्यों द्वारा जनसंख्या नियंत्रण में की गई प्रगति की अवहेलना करता है और संघीय ढाँचे में असमानताओं का कारण बनता है।
- देश की जनसंख्या का केवल 18% होने के बावजूद दक्षिणी राज्य देश के सकल घरेलू उत्पाद में 35% योगदान करते हैं।
- उत्तरी राज्य जनसंख्या नियंत्रण को प्राथमिकता नहीं देते हैं तथा उच्च जनसंख्या वृद्धि के कारण परिसीमन प्रक्रिया में उन्हें लाभ मिलने की उम्मीद है।
- अपर्याप्त वित्तपोषण:
- 15वें वित्त आयोग ने 2011 की जनगणना को अपनी सिफारिश के आधार के रूप में उपयोग करने के बाद दक्षिणी राज्यों के संसद में वित्तपोषण और प्रतिनिधित्व खोने के बारे में चिंता व्यक्त की है।
- इससे पहले 1971 की जनगणना को राज्यों के लिये वित्तपोषण और कर विचलन सिफारिशों के आधार के रूप में उपयोग किया गया था।
- अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के आरक्षण को प्रभावित करना:
- सीटों के निर्धारित परिसीमन और पुनः आवंटन के परिणामस्वरूप न केवल दक्षिणी राज्यों के लिये सीटों की हानि हो सकती है बल्कि उत्तर में अपने आधार के साथ राजनीतिक दलों के लिये सत्ता में वृद्धि भी हो सकती है।
- यह संभवतः उत्तर की ओर और दक्षिण से दूर शक्ति का स्थानांतरण कर सकता है।
- यह प्रक्रिया प्रत्येक राज्य में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (SC/ST) के लिये आरक्षित सीटों के विभाजन को भी प्रभावित करेगी (अनुच्छेद 330 और 332 के तहत)।
- सीटों के निर्धारित परिसीमन और पुनः आवंटन के परिणामस्वरूप न केवल दक्षिणी राज्यों के लिये सीटों की हानि हो सकती है बल्कि उत्तर में अपने आधार के साथ राजनीतिक दलों के लिये सत्ता में वृद्धि भी हो सकती है।
परिसीमन से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय प्रथाएँ कौन-सी हैं?
- अमेरिका में:
- वर्ष 1913 से हाउस ऑफ रिप्रेजेन्टेटिव (हमारी लोकसभा के समकक्ष) में सीटों की संख्या 435 तक सीमित कर दी गई है।
- देश की जनसंख्या वर्ष 1911 के 9.4 करोड़ से लगभग चार गुना बढ़कर वर्ष 2023 में अनुमानतः 33.4 करोड़ हो गई है। प्रत्येक जनगणना के बाद 'समान अनुपात की विधि' (method of equal proportion) के माध्यम से राज्यों के बीच सीटों का पुनर्वितरण किया जाता है। इससे किसी भी राज्य को कोई महत्त्वपूर्ण लाभ या हानि नहीं होती है।
- उदाहरण के लिये, वर्ष 2020 की जनगणना के आधार पर, पुनर्वितरण के परिणामस्वरूप 37 राज्यों की सीटों की संख्या में कोई बदलाव नहीं हुआ है।
- यूरोपीय संघ (EU):
- 720 सदस्यों वाली यूरोपीय संघ संसद में सीटों की संख्या को ‘अधोगामी आनुपातिकता' (Degressive Proportionality) के सिद्धांत के आधार पर 27 सदस्य देशों के बीच विभाजित किया गया है।
- इस सिद्धांत के तहत, जनसंख्या बढ़ने पर सीटों की संख्या का अनुपात बढ़ेगा।
- उदाहरण के लिये, लगभग 60 लाख की आबादी वाले डेनमार्क में 15 सीटें (प्रति सदस्य 4 लाख की औसत आबादी) हैं, जबकि 8.3 करोड़ की आबादी वाले जर्मनी में 96 सीटें (प्रति सदस्य 8.6 लाख की औसत आबादी) हैं।
परिसीमन आयोग क्या है?
- नियुक्ति:
- परिसीमन आयोग भारत के राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता है तथा भारत निर्वाचन आयोग के सहयोग से कार्य करता है।
- संरचना:
- सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश
- मुख्य निर्वाचन आयुक्त
- संबंधित राज्य के निर्वाचन आयुक्त
- कार्य:
- सभी निर्वाचन क्षेत्रों की जनसंख्या को लगभग बराबर करने के लिये निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या और सीमाओं का निर्धारण करना।
- अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिये आरक्षित सीटों की पहचान करना, जहाँ उनकी जनसंख्या अपेक्षाकृत अधिक है।
- शक्तियाँ:
- आयोग के सदस्यों के बीच मतभेद के मामले में बहुमत की राय प्रबल होती है।
- भारत में परिसीमन आयोग एक उच्च-शक्ति प्राप्त निकाय है, जिसके आदेशों को कानून का संरक्षण प्राप्त होता है और किसी भी न्यायालय के समक्ष इस पर प्रश्न नहीं उठाया जा सकता है।
आगे की राह
- संघीय विचारों के साथ लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व को संतुलित करने की आवश्यकता है। सुझावों में ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र के लिये स्थानीय निकायों को सशक्त बनाने के साथ-साथ जनसंख्या के आधार पर विधायकों की संख्या में वृद्धि करते हुए लोकसभा सीटों की संख्या सीमित करना शामिल है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न . परिसीमन आयोग के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2012)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) |