स्मार्ट सिटीज़ मिशन के लिये थर्ड-पार्टी ऑडिट
स्रोत: लाइव मिंट
चर्चा में क्यों?
हाल ही में आवास और शहरी मामलों पर एक संसदीय स्थायी समिति ने स्मार्ट सिटीज़ मिशन (SCM) के तहत परियोजनाओं के थर्ड-पार्टी असेसमेंट (तृतीय-पक्ष मूल्यांकन) की मांग की है।
- इसका उद्देश्य विशेष रूप से छोटे शहरों में कार्यान्वयन में आने वाली कमियों को दूर करना है।
संसदीय स्थायी समिति:
- परिचय:
- स्थायी समितियाँ स्थायी होती हैं (प्रत्येक वर्ष या समय-समय पर गठित) और निरंतर आधार पर कार्य करती हैं।
- समितियों के प्रकार:
- उनके कार्यों, सदस्यता और कार्यकाल के आधार पर समितियों को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जाता है: स्थायी समितियाँ और तदर्थ समितियाँ।
- स्थायी समितियों को 6 प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है:
- वित्तीय समितियाँ
- विभागीय स्थायी समितियाँ
- जाँच समितियाँ
- जाँच और नियंत्रण के लिये समितियाँ
- सदन के दिन-प्रतिदिन के कामकाज से संबंधित समितियाँ
- गृह व्यवस्था समितियाँ या सेवा समितियाँ
- तदर्थ समितियाँ अस्थायी प्रकृति की होती हैं और उन्हें सौंपे गए कार्य पूरे होने के बाद भंग कर दिया जाता है। इन्हें आगे निम्न भागों में विभाजित किया गया है:
- जाँच समितियाँ
- सलाहकार समितियाँ
SCM के लिये थर्ड-पार्टी ऑडिट की क्या आवश्यकता है?
- मूल्यांकन और पारदर्शिता: थर्ड-पार्टी असेसमेंट (तृतीय-पक्ष मूल्यांकन) SCM के तहत परियोजना की प्रगति और प्रभाव का निष्पक्ष विश्लेषण प्रदान करते हैं, जिससे कार्यान्वयन अंतराल तथा सुधार के क्षेत्रों की पहचान करने में मदद मिलती है।
- वे पारदर्शिता भी बढ़ाते हैं तथा नागरिकों, सरकारी निकायों और निवेशकों सहित हितधारकों के बीच विश्वास को बढ़ावा देते हैं।
- साक्ष्य-आधारित नीति: इससे यह पता लगा सकता है कि शहरी विकास में विशेष प्रयोज्य वाहनों (SPV) की विशेषज्ञता को अमृत और DAY-NULM जैसी अन्य पहलों पर कैसे लागू किया जा सकता है, जिससे शहरी परिवर्तन कार्यक्रमों के व्यापक प्रभाव को बढ़ाया जा सके।
- असमानताओं को दूर करना: बड़े शहर बेहतर संसाधनों के कारण अच्छा प्रदर्शन करते हैं, जबकि छोटे शहरों, विशेष रूप से पूर्वोत्तर में, परियोजना निष्पादन में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, इसलिये स्वतंत्र ऑडिट इन असमानताओं को उजागर कर सकते हैं और सुधार का सुझाव दे सकते हैं।
- इसके अलावा, थर्ड-पार्टी असेसमेंट (तृतीय-पक्ष मूल्यांकन) से टियर 2 शहरों के लिये रणनीति तैयार की जा सकती है, जिससे संतुलित विकास को बढ़ावा मिलेगा और महानगरीय क्षेत्रों में भीड़भाड़ कम होगी।
- शहरी स्थानीय निकायों (ULB) को मज़बूत करना: कई ULB में SCM के तहत बड़े पैमाने की परियोजनाओं का प्रबंधन करने के लिये तकनीकी और वित्तीय क्षमता का अभाव है।
- तृतीय-पक्ष मूल्यांकन (तृतीय-पक्ष मूल्यांकन) शहरी नियोजन और शासन को बढ़ाने के लिये सर्वोत्तम प्रथाओं की पहचान कर सकता है, साथ ही सूचित नीति निर्माण तथा कुशल संसाधन आवंटन के लिये डेटा-संचालित अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकता है।
- भावी योजना और स्थिरता: यह SCM के भावी चरणों की योजना बनाने, स्थिरता सुनिश्चित करने और शहरी विकास आवश्यकताओं के साथ संरेखण के लिये बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करेगा।
- वे आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरणीय कारकों पर विचार करते हुए शहरी विकास के लिये अधिक एकीकृत दृष्टिकोण अपनाने में भी योगदान देते हैं।
स्मार्ट सिटीज़ मिशन (SCM) क्या है?
- परिचय: SCM एक केंद्र प्रायोजित योजना है जिसे जून 2015 में शुरू किया गया था जिसका उद्देश्य भारत के 100 शहरों को आवश्यक बुनियादी ढाँचा प्रदान करके उनका रूपांतरण करना है।
- इसके अतिरिक्त, "स्मार्ट सॉल्यूशंस" के अनुप्रयोग के माध्यम से अपने नागरिकों को जीवन की सभ्य गुणवत्ता प्रदान करने के लिये शहरों में एक स्वच्छ और धारणीय वातावरण प्रदान करना।
- उद्देश्य:
- संसाधनों, हरित स्थानों और पर्यावरणीय स्थिरता के कुशल उपयोग को बढ़ावा देना। स्वच्छ जल, विद्युत्, स्वच्छता, स्वास्थ्य सेवा और सार्वजनिक सुविधाओं तक पहुँच सुनिश्चित करना।
- डिजिटल प्लेटफॉर्म, ई-गवर्नेंस और नागरिक भागीदारी के माध्यम से शासन को बेहतर बनाना। विशेष रूप से आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लिये किफायती आवास समाधान प्रदान करना।
- स्मार्ट यातायात प्रबंधन के साथ सार्वजनिक परिवहन प्रणालियों में सुधार करना और भीड़भाड़ को कम करना।
- निगरानी और आपातकालीन सेवाओं के माध्यम से नागरिकों, विशेष रूप से कमज़ोर समूहों की सुरक्षा सुनिश्चित करना। सेवाओं तथा सूचनाओं तक निर्बाध पहुँच के लिये मज़बूत IT बुनियादी ढाँचे का निर्माण करना।
- अन्य शहरों के लिये अनुकरणीय सर्वोत्तम प्रथाओं को प्रदर्शित करने हेतु आदर्श शहर विकसित करना।
- मुख्य घटक:
- क्षेत्र-आधारित विकास:
- पुनर्विकास: उन्नत बुनियादी ढाँचे के साथ मौजूदा शहरी क्षेत्रों का उन्नयन (उदाहरणार्थ, भिंडी बाज़ार, मुंबई)।
- रेट्रोफिटिंग: मौजूदा इलाकों में बुनियादी ढाँचे का आधुनिकीकरण (उदाहरण के लिये, अहमदाबाद का स्थानीय क्षेत्र विकास)।
- ग्रीनफील्ड विकास: नए, धारणीय शहरी स्थानों का निर्माण (जैसे- न्यू टाउन कोलकाता, गिफ्ट सिटी)।
- पैन-सिटी सॉल्यूशंस:
- ई-गवर्नेंस, अपशिष्ट और जल प्रबंधन, शहरी गतिशीलता तथा ऊर्जा दक्षता जैसे क्षेत्रों में सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी (ICT) समाधानों को अपनाना।
- क्षेत्र-आधारित विकास:
- शासन संरचना: नौकरशाहों या उद्योग प्रतिनिधियों के नेतृत्व में कंपनी अधिनियम, 2013 के तहत स्थापित विशेष प्रयोज्य वाहनों (SPV) के माध्यम से कार्यान्वयन।
- वित्तपोषण के लिये सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) मॉडल पर ज़ोर दिया जाएगा।
नोट: SCM के अंतर्गत प्रमुख विकास
- पूर्ण की गई परियोजनाएँ:
- प्रारंभ में इसे वर्ष 2020 तक पूरा करने के लिये निर्धारित किया गया था, लेकिन SCM की समय-सीमा को मार्च 2025 तक बढ़ा दिया गया।
- 3 जुलाई 2024 तक, 1.6 लाख करोड़ रुपए की 8,000 से अधिक बहु-क्षेत्रीय परियोजनाओं में से 1,44,237 करोड़ रुपए की 7,188 परियोजनाएँ (90%) पूरी हो चुकी हैं।
- शेष 830 परियोजनाएँ जिनकी लागत 19,926 करोड़ रुपए है, कार्यान्वयन के उन्नत चरण में हैं।
- वित्तीय प्रगति:
- भारत सरकार ने 48,000 करोड़ रुपए आवंटित किये, जिनमें से 46,585 करोड़ रुपए (97%) शहरों को जारी किये जा चुके हैं।
- जारी धनराशि का 93% उपयोग किया जा चुका है।
- मिशन के अंतर्गत 74 शहरों को पूर्ण वित्तीय सहायता प्राप्त हुई है।
SCM परियोजनाओं के कार्यान्वयन में क्या चुनौतियाँ हैं?
- लागत और वित्तपोषण: स्मार्ट सिटी बुनियादी ढाँचे के विकास के लिये मौजूदा प्रणालियों को उन्नत करने, सेंसर लगाने और नेटवर्क को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण निवेश की आवश्यकता होती है।
- जबकि 74 शहरों को उनके केंद्रीय हिस्से का 100% हिस्सा मिल चुका है, परियोजनाओं की धीमी प्रगति के कारण 26 शहरों को अभी भी पूर्ण धनराशि प्राप्त नहीं हुई।
- विस्थापन और सामाजिक प्रभाव: विश्व बैंक के अनुसार, भारत के शहरी क्षेत्रों में 49% से अधिक आबादी मलिन बस्तियों में रहती है।
- स्मार्ट सिटी परियोजनाओं के क्रियान्वयन के कारण गरीब क्षेत्रों के निवासियों, जैसे कि सड़क विक्रेताओं, को विस्थापित होना पड़ा है, जिससे शहरी समुदायों का ताना-बाना बाधित हुआ है।
- परियोजना पूर्ण होने में विलंब: समय सीमा बढ़ाए जाने के बावजूद, बड़ी संख्या में परियोजनाएँ (लगभग 10%) अभी भी अपूर्ण हैं, जो निष्पादन में विलंब को दर्शाता है।
- इसका कारण अपर्याप्त योजना, तकनीकी विशेषज्ञता का अभाव, तथा भूमि अधिग्रहण एवं मंजूरी में समस्याएँ हो सकती हैं।
- गोपनीयता और डेटा सुरक्षा: सेंसरों, उपकरणों और नागरिकों से विशाल मात्रा में डेटा का संग्रह और विश्लेषण, डेटा उल्लंघन, अनधिकृत पहुंच और दुरुपयोग के बारे में चिंताएँ पैदा करता है।
- जनता का विश्वास बनाने के लिये मज़बूत साइबर सुरक्षा सुनिश्चित करना, गोपनीयता की रक्षा करना और स्पष्ट डेटा शासन नीतियों को लागू करना आवश्यक है।
- समन्वय का अभाव: प्राथमिकताओं में अंतर, नौकरशाही बाधाओं और भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों में स्पष्टता की कमी के कारण केंद्र, राज्य और स्थानीय सरकारों के बीच प्रभावी समन्वय एक चुनौती रहा है, जिससे मिशन के निर्बाध कार्यान्वयन में बाधा उत्पन्न हुई है।
- स्थिरता संबंधी चिंताएँ: स्मार्ट सिटी परियोजनाओं की दीर्घकालिक स्थिरता के बारे में संदेह है, क्योंकि उनमें से कई शहरी नियोजन और शासन के मूलभूत मुद्दों पर ध्यान देने के बजाय प्रौद्योगिकी-संचालित समाधानों पर ध्यान केंद्रित करती हैं।
- SCM ने स्मार्ट शहर के लिये एक सार्वभौमिक परिभाषा के अभाव को स्वीकार किया है।
शहरी विकास से संबंधित अन्य सरकारी पहल क्या हैं?
- शहरी कायाकल्प और शहरी परिवर्तन के लिये अटल मिशन (अमृत)
- प्रधानमंत्री आवास योजना-शहरी (PMAY-U)
- क्लाइमेट स्मार्ट सिटीज़ असेसमेंट फ्रेमवर्क 2.0
- ट्यूलिप- द अर्बन लर्निंग इंटर्नशिप प्रोग्राम
आगे की राह
- फंडिंग संबंधी समस्या का समाधान : PPP मॉडल पर विचार करने तथा केंद्रीय, राज्य और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता प्राप्त करने की आवश्यकता है। कुशल उपयोग और समय पर परियोजना प्रगति के लिये पारदर्शी निधि आवंटन और नियमित निगरानी सुनिश्चित करना।
- क्षमता निर्माण: क्षमता निर्माण कार्यक्रमों और पुनर्गठन तथा कौशल विकास के लिये केंद्र सरकार के समर्थन के माध्यम से शहरी स्थानीय निकायों (ULB) को मज़बूत करने से विशेष रूप से छोटे शहरों में शासन और परियोजना निष्पादन में वृद्धि होगी।
- भारत को अन्य विकासशील देशों के साथ सहयोग करके तथा क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर स्मार्ट सिटी पहलों में तेज़ी लाने के लिये ज्ञान-साझाकरण मंच स्थापित करके सतत् शहरी विकास में अपने नेतृत्व का लाभ उठाना चाहिये।
- समय पर परियोजना पूर्ण करना: विस्तृत नियोजन को प्राथमिकता देने, भूमि अधिग्रहण जैसी बाधाओं को दूर करने तथा विशेष परियोजना प्रबंधन दल तैनात करने की आवश्यकता है। तेज़ी से निष्पादन के लिये समय पर अनुमोदन और मंजूरी सुनिश्चित करने के लिये नौकरशाही प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना।
- डेटा सुरक्षा सुनिश्चित करना: पारदर्शिता और गोपनीयता सुनिश्चित करने के लिये मज़बूत साइबर सुरक्षा उपायों और स्पष्ट शासन ढाँचे के साथ एक व्यापक डेटा सुरक्षा नीति स्थापित करना।
- इसके अलावा, विश्वास बनाने और डेटा के दुरुपयोग के बारे में चिंताओं को दूर करने के लिये सार्वजनिक जागरूकता को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- स्थिरता और दीर्घकालिक योजना: स्मार्ट सिटी परियोजनाओं को नियोजन में पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक विचारों को एकीकृत करके स्थिरता को प्राथमिकता देनी चाहिये।
- स्मार्ट सिटी बुनियादी ढाँचे की दीर्घायु और अनुकूलनशीलता सुनिश्चित करने के लिये दीर्घकालिक संचालन और रखरखाव (O&M) रणनीतियों का विकास महत्त्वपूर्ण होगा।
निष्कर्ष
छोटे शहरों में थर्ड-पार्टी असेसमेंट और क्षमता निर्माण के लिये सिफारिशें स्मार्ट सिटीज़ मिशन में मज़बूत तंत्र की आवश्यकता को उजागर करती हैं। समय पर हस्तक्षेप, शासन सुधार और प्रभाव आकलन से कार्यवाही योग्य अंतर्दृष्टि मौजूदा चुनौतियों का समाधान कर सकती है और भारत में अधिक समावेशी और प्रभावी शहरी परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर सकती है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत में स्मार्ट सिटीज मिशन के समक्ष आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिये। इन चुनौतियों से निपटने के लिये उपाय सुझाएँ और सतत् शहरी विकास को बढ़ावा देने में मिशन की प्रभावशीलता सुनिश्चित कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न. भारत में नगरीय जीवन की गुणता की संक्षिप्त पृष्ठभूमि के साथ, ‘स्मार्ट नगर कार्यक्रम’ के उद्देंश्य और रणनीति बताइए। (2016) |
CAPF कार्मिकों में आत्महत्या
प्रिलिम्स के लिये:केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF), केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (CAPF), राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB), सेना, नौसेना, वायु सेना, नई पेंशन योजना (NPS), पुरानी पेंशन योजना (OPS), रथ यात्रा, मानसिक स्वास्थ्य चैंपियनशिप कार्यक्रम। मेन्स के लिये:CAPF में आत्महत्या और रोकथाम की रणनीति। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (CISF) ने अपनी आत्महत्या दर को सफलतापूर्वक 40% तक कम कर लिया है, जो वर्ष 2023 में 25 मौतों से वर्ष 2024 में 15 हो गई है।
- गृह मंत्रालय (MHA) के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2018 और वर्ष 2022 के बीच 654 केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (CAPF) कार्मिकों की आत्महत्या से मृत्यु हुई।
नोट: राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2022 में राष्ट्रीय आत्महत्या दर 12.4 प्रति लाख थी।
- आत्महत्या दर किसी दी गई जनसंख्या में प्रति 1,00,000 व्यक्तियों पर आत्महत्याओं की संख्या है।
CAPF में आत्महत्या के क्या कारण हैं?
- तनावपूर्ण तैनाती: कार्मिकों को प्रायः पर्याप्त अवकाश के बिना, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों और जम्मू-कश्मीर जैसे संघर्ष क्षेत्रों जैसे प्रतिकूल क्षेत्रों में तैनात किया जाता है ।
- सेना के समान "पीस पोस्टिंग" का अभाव मानसिक थकान को बढ़ाता है।
- पीस पोस्टिंग का अर्थ है सैनिकों को अपेक्षाकृत स्थिर और गैर-शत्रुतापूर्ण वातावरण में तैनात करना, न कि संघर्ष क्षेत्रों या उच्च तनाव वाले क्षेत्रों जैसे सीमाओं या उग्रवाद प्रभावित क्षेत्रों में।
- सेना के समान "पीस पोस्टिंग" का अभाव मानसिक थकान को बढ़ाता है।
- पारिवारिक अलगाव: परिवार से लंबे समय तक दूर रहने से भावनात्मक तनाव पैदा होता है और भूमि विवाद या वित्तीय प्रबंधन जैसे पारिवारिक मुद्दों को संबोधित करने में कठिनाइयाँ आती हैं।
- आत्महत्या से मरने वाले 80% से अधिक सैनिकों की रिपोर्ट तब आई जब वे छुट्टी से घर लौटे थे।
- मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियाँ: मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रणालियाँ सीमित होने के साथ, मनोवैज्ञानिक सहायता लेना सैन्य बलों में कलंकित माना जाता है।
- महिला कार्मिकों में आत्महत्या के प्रयास कम होते हैं, क्योंकि पुरुष प्रायः साथियों द्वारा उपहास के डर से अपनी समस्याएँ साझा करने से बचते हैं।
- अनेक व्यक्तियों के अनुसार सेना, नौसेना और वायु सेना ही वास्तविक सेना है, जिससे CAPF सैनिकों में और अधिक हतोत्साहन उत्पन्न होता है।
- कॅरियर में प्रगति संबंधी मुद्दे: CAPF में पदोन्नति की संभावना सीमित है। अनेक मामलों में कार्मिकों को एक ही पद पर 10 वर्ष तक कार्य करना पड़ता है।
- उच्च पद IPS अधिकारियों के लिये आरक्षित होते हैं और CAPF कार्मिकों को निराशा की अनुभूति होती है, जिससे मानसिक तनाव बढ़ता है।
- नौकरी से संतुष्टि का अभाव: सेना कार्मिकों को अपने परिवारों के स्वास्थ्य तथा उपचार के लिये प्रमुख शहरों में आर्मी अस्पतालों की सुविधा प्राप्त होती है और CAPF कार्मिकों की तुलना में उनके परिवारों को आर्मी कैंटीन में अधिक उत्पादों की उपलब्धता का विकल्प होता है।
- CAPF नई पेंशन योजना (NPS) के अंतर्गत हैं तथा सशस्त्र बलों के कार्मिक पुरानी पेंशन योजना (OPS) के अंतर्गत आते हैं जिससे CAPF को अपेक्षाकृत कम भुगतान मिलता है।
- आग्नेयास्त्रों तक पहुँच: सेवा के अंतर्गत प्रदत्त हथियारों तक सरल पहुँच होने से संकट के समय आवेगपूर्ण कार्य करने का जोखिम बढ़ जाता है।
CRPF कार्मिकों में आत्महत्या की दर अधिक क्यों है?
- आँकड़ें: गृह मंत्रालय के आँकड़ों के अनुसार वर्ष 2018 में CRPF में 36 आत्महत्याएँ हुईं, जो 2019 में बढ़कर 40, 2020 में 54 और 2021 में 57 हो गईं। वर्ष 2022 में यह संख्या घटकर 43 हो गई।
- CRPF पर अत्यधिक निर्भरता: राज्य पुलिस बलों में प्रायः संकटों के समाधान के लिये संसाधनों, जनशक्ति और प्रशिक्षण की कमी होती है, जिसके कारण CRPF को आगे आना पड़ता है।
- CRPF स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करती है तथा महाराष्ट्र में गणेश चतुर्थी और ओडिशा में रथ यात्रा जैसे आयोजनों पर व्यवस्था बनाए रखती है।
- इससे कार्यभार बढ़ जाता है और विश्राम के अवसर कम हो जाते हैं।
CAPF कार्मिकों की आत्महत्या की रोकथाम हेतु सरकार की क्या पहले हैं?
- टास्क फोर्स का गठन: दिसंबर 2021 में गृह मंत्रालय द्वारा जोखिम कारकों, रोकथाम रणनीतियों की पहचान करने और CAPF में आत्महत्याओं पर अनुसंधान करने के लिये एक टास्क फोर्स का गठन किया गया था।
- इसने CAPF की आत्महत्याओं के 3 प्रमुख जोखिम कारकों की पहचान की जिनमें कार्य स्थितियाँ, सेवा शर्तें और व्यक्तिगत/व्यक्तिगत मुद्दे शामिल हैं।
- ई-अवकाश प्रणाली: CRPF का संभव ऐप कार्मिकों को अवकाश के लिये शीघ्र आवेदन करने में सक्षम बनाता है, तथा अवकाश अनुमोदन ई-अवकाश पोर्टल के माध्यम से संसाधित होता है।
- मानसिक स्वास्थ्य सहायता: CRPF ने जवानों के भावनात्मक कल्याण में सहायता के लिये मानसिक स्वास्थ्य परामर्शदाताओं को तैनात किया है।
- CRPF में कार्मिकों के सहयोगियों को एक-दूसरे की निगरानी और सहायता करने के लिये "साथी" के रूप में नियुक्त किया जाता है, जो मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के लिये एक प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली के रूप में कार्य करता है।
- CISF ने पर्यवेक्षकों के लिये मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के प्रारंभिक लक्षणों की पहचान करने हेतु मानसिक स्वास्थ्य चैंपियनशिप कार्यक्रम शुरू किया है।
- CISF की पहल को प्रोजेक्ट मन द्वारा समर्थन प्राप्त है, जो एक मानसिक स्वास्थ्य हेल्पलाइन है, यह 24/7 टेली-परामर्श और व्यक्तिगत सत्र प्रदान करती है।
- BSF ने परामर्श संबंधी सेवाएँ प्रदान करने के लिये एम्स, नई दिल्ली के साथ साझेदारी की, जिसके लिये समर्पित बज़ट आवंटित किया गया।
- परिवार-केंद्रित हस्तक्षेप: अवसाद और मानसिक रोगों के मामलों पर बारीकी से नज़र रखी जाती है, तथा परिवार के सदस्यों को प्रभावित व्यक्तियों के साथ रहने की अनुमति देने का प्रयास किया जाता है।
आगे की राह
- कार्यभार प्रबंधन: यह सुनिश्चित करना कि तनाव कम करने के लिये कार्मिकों को समय-समय पर शांतिपूर्ण, गैर-शत्रुतापूर्ण वातावरण में तैनात किया जाए।
- विधिक प्रवर्तन संकटों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिये राज्य पुलिस बलों को प्रशिक्षित करना और जनशक्ति में वृद्धि करना, ताकि केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों पर अत्यधिक बोझ न पड़े।
- नौकरी से संतुष्टि: उन्नति के लिये स्पष्ट राह बनाते हुए यह सुनिश्चित करना कि वरिष्ठ पद केवल आईपीएस अधिकारियों के लिये आरक्षित नहीं हैं, अर्थात् CAPF के भीतर पदोन्नति के अवसरों में सुधार करना अनिवार्य हो।
- पारिवारिक सहायता कार्यक्रम: परिवार के सदस्यों को कार्मिकों के साथ रहने या कार्यभार के दौरान परिवार से मिलने के अधिक अवसर प्रदान करना।
- नीतिगत समर्थन: यह सुनिश्चित करना कि मानसिक स्वास्थ्य देखभाल, अवकाश प्रणाली और कैरियर प्रगति से संबंधित मौज़ूदा नीतियाँ CAPF कार्मिकों के समक्ष आने वाली विशिष्ट चुनौतियों को समायोजित करने के लिये अधिक लचीली हों।
- कौशल विकास: सेवानिवृत्ति के बाद सम्मानजनक जीवन जीने के लिये CAPF कार्मिकों को नौकरी पर प्रशिक्षण प्रदान करना। जैसे, मधुमक्खी पालन, मशरूम की खेती आदि।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (CAPF) में आत्महत्या की उच्च दर के लिये कौन से कारक जिम्मेदार हैं और इन मुद्दों का समाधान कैसे किया जा सकता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्न (PYQs)प्रिलिम्सप्रश्न 1. कभी-कभी समाचारों में उल्लिखित "टर्मिनल हाई एल्टीट्यूड एरिया डिफेंस (THAAD)" क्या है? (2018) (a) इज़रायल की एक राडार प्रणाली उत्तर: (c) |
खतरनाक अपशिष्ट का प्रबंधन
प्रिलिम्स के लिये:खतरनाक अपशिष्ट, भस्मीकरण, मिथाइल आइसोसाइनेट, फॉसजीन, भोपाल गैस विभीषिका (दावा कार्यवाही) अधिनियम, 1985, पीड़कनाशी, लघु और मध्यम उद्यम (SME), अपशिष्ट जल उपचार, खतरनाक अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986, बेसल अभिसमय, 1992, पायरोलिसिस मेन्स के लिये:खतरनाक अपशिष्ट का प्रबंधन। |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
भोपाल गैस त्रासदी (1984) के चार दशक बाद, मध्य प्रदेश में बंद पड़े यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (UCIL) कारखाने से खतरनाक अपशिष्ट (विषाक्त अपशिष्ट) को अंततः जला कर भस्म करने के लिये बाहर निकाला गया।
भोपाल गैस त्रासदी क्या थी?
- 2 दिसंबर 1984 की रात को भोपाल स्थित UCIL पीड़कनाशी संयंत्र में विनाशकारी रासायनिक रिसाव हुआ।
- इस रिसाव में मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) गैस शामिल थी, जिससे भोपाल शहर में 5000 से अधिक लोगों की मौत हो गई तथा पाँच लाख से अधिक लोग इस गैस से विषाक्त हुए , जिससे यह विश्व की सबसे विनाशकारी औद्योगिक आपदा में परिणत हुआ।
- फॉसजीन और मिथाइल आइसोसाइनेट सहित रासायनिक रिसाव की सूचना 1984 से पहले के वर्षों में दी गई थी।
- रिसाव का कारण: 1 दिसंबर 1984 को एक असफल रखरखाव प्रयास और अनुपयुक्त सुरक्षा प्रणालियों के कारण, MIC युक्त टैंक में रासायनिक अभिक्रिया शुरू हो गई, जिसके परिणामस्वरूप 2 दिसंबर 1984 की मध्य रात्रि तक लगभग 30 टन MIC गैस वायुमंडल में उत्सर्जित हुई।
- स्वास्थ्य पर प्रभाव:
- तत्काल: इस गैस के संपर्क में आए व्यक्तियों को श्वसन संबंधी समस्याएँ, पेट दर्द, आँखों की समस्याएँ और तंत्रिका संबंधी हानियाँ हुई।
- दीर्घकालिक: प्रभावित लोगों में फेफड़ों की कार्यक्षमता में कमी, आनुवंशिक दोष, गर्भावस्था पर प्रभाव जैसी दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हुई और शिशु मृत्यु दर में आकस्मिक बढ़ोतरी हुई।
- सरकारी और विधिक प्रतिक्रिया : भारत सरकार ने पीड़ितों के कानूनी प्रतिनिधि के रूप में कार्य करने के लिये भोपाल गैस रिसाव आपदा (दावों का प्रसंस्करण) अधिनियम, 1985 पारित किया।
- UCIL ने शुरू में 5 मिलियन अमेरिकी डॉलर की राहत का प्रस्ताव रखा लेकिन भारत सरकार ने 3.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर की मांग की। अंततः वर्ष 1989 में न्यायालय के बाहर 470 मिलियन अमेरिकी डॉलर में मामला सुलझाया गया।
- वर्ष 2010 में UCIL में कार्यरत सात भारतीय नागरिकों को लापरवाही से मृत्यु का दोषी ठहराया गया लेकिन उन्हें जमानत पर रिहा कर दिया गया।
- परिणाम और विरासत: इतना समय बीतने के बावजूद, अभी भी बचे हुए लोगों के लिये स्वास्थ्य देखभाल का अभाव है तथा उन्हें फैक्ट्री स्थल पर विषाक्त पदार्थों का जोखिम रहता है।
- विभिन्न कल्याणकारी संगठन बंद फैक्ट्री स्थल से खतरनाक अपशिष्ट को हटाने की मांग करते रहे हैं।
मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC)
- परिचय: मिथाइल आइसोसाइनेट एक रंगहीन तरल है जिसका उपयोग कीटनाशक बनाने के लिये किया जाता है ।
- प्रतिक्रियाशीलता: यह रसायन ऊष्मा के प्रति अत्यधिक क्रियाशील है।
- जल के संपर्क में आने पर MIC में उपस्थित यौगिक एक दूसरे के साथ प्रतिक्रिया करते हैं, जिससे ऊष्मा प्रतिक्रिया होती है।
- भंडारण: इसका अब उत्पादन नहीं होता है यद्यपि इसका उपयोग अभी भी कीटनाशकों में किया जाता है।
- अमेरिका के वेस्ट वर्जीनिया स्थित इंस्टीट्यूट में बेयर क्रॉपसाइंस प्लांट वर्तमान में विश्व भर में MIC का एकमात्र भंडारण स्थल है।
खतरनाक अपशिष्ट क्या है?
- खतरनाक अपशिष्ट से तात्पर्य ऐसे अपशिष्ट से है जो विषाक्तता, ज्वलनशीलता, प्रतिक्रियाशीलता या संक्षारकता जैसी विशेषताओं के कारण एकल रूप से या अन्य पदार्थों के साथ मिलकर स्वास्थ्य या पर्यावरण के लिये खतरा उत्पन्न करता है।
- स्रोत:
- खतरनाक अपशिष्ट का उपयोग: अधिकांश खतरनाक अपशिष्ट रासायनिक उत्पादन एवं उपभोग के दौरान उत्पन्न होते हैं, जो उपभोक्ता वस्तुओं की बढ़ती मांग के साथ बढ़ रहे हैं।
- अनुपयुक्त प्रौद्योगिकियाँ: लघु एवं मध्यम उद्यमों (SME) द्वारा प्रयुक्त पुरानी प्रौद्योगिकियों के कारण संसाधनों का अकुशल उपभोग होने के परिणामस्वरूप अधिक मात्रा में अधिक विषाक्त अपशिष्ट उत्पन्न होते हैं।
- उपचार प्रणालियाँ: अपशिष्ट जल उपचार एवं गैसीय उत्सर्जन के परिणामस्वरूप खतरनाक पदार्थ युक्त अवशेष उत्पन्न होते हैं।
- खतरनाक अपशिष्ट विनियमन:
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986: खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन और हैंडलिंग) नियम, 1989 को पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के अंतर्गत लाया गया।
- इन नियमों को वर्ष 2008, 2009, 2010 और 2016 में संशोधित किया गया ताकि अन्य प्रकार के अपशिष्ट (जैसे- प्रयुक्त इलेक्ट्रॉनिक्स, कागज़ अपशिष्ट, धातु स्क्रैप और अपशिष्ट टायर) को इसमें शामिल किया जा सके।
- पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986: खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन और हैंडलिंग) नियम, 1989 को पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के अंतर्गत लाया गया।
- बेसल कन्वेंशन, 1992: भारत बेसल कन्वेंशन, 1992 का हस्ताक्षरकर्त्ता है , जिसका उद्देश्य विभिन्न देशों के बीच खतरनाक अपशिष्ट के आवागमन को कम करना है।
- अपशिष्ट उत्पादन: भारत में उद्योगों से प्रति वर्ष लगभग 7.66 मिलियन टन खतरनाक अपशिष्ट उत्पन्न होता है।
- खतरनाक अपशिष्ट के विश्लेषण से पता चलता है कि 44.3% अपशिष्ट भूमिभरण योग्य है, 47.2% अपशिष्ट पुनर्चक्रण योग्य है, तथा 8.5% अपशिष्ट भस्मीकरण योग्य है।
- 83% खतरनाक अपशिष्ट सात राज्यों अर्थात गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ में उत्पन्न होता है।
- खतरनाक अपशिष्ट उत्पादन: भारत के पर्यावरण सांख्यिकी संग्रह, 2016 के अनुसार , अधिकांश खतरनाक अपशिष्ट अपशिष्ट जल और फ्लू गैसों के उपचार के अलावा रासायनिक उत्पादन और धातु प्रसंस्करण उद्योगों से उत्पन्न हो रहा है।
खतरनाक अपशिष्ट का निपटान कैसे किया जाता है?
- सह-प्रसंस्करण: इसमें अपशिष्ट पदार्थों, जैसे औद्योगिक उप-उत्पादों या खतरनाक अपशिष्टों को उद्योगों, विशेष रूप से सीमेंट निर्माण या अन्य उच्च तापमान वाले उद्योगों में वैकल्पिक कच्चे माल या ईंधन के रूप में उपयोग करना शामिल है।
- भारत में लगभग 25 सीमेंट संयंत्रों ने सह-प्रसंस्करण आरंभ कर दिया है।
- सामग्री एवं ऊर्जा की पुनर्प्राप्ति: सामग्री पुनर्प्राप्ति में अपशिष्ट में निहित भौतिक मूल्य का उपयोग किया जाता है, जबकि ऊर्जा पुनर्प्राप्ति में इसके कैलोरी मान का उपयोग किया जाता है।
- उदाहरण के लिये केबल अवशेषों से ताँबे को पुनः प्राप्त करना और ताँबे को पुनः पिघलाना या प्रयुक्त बैटरियों से सीसा को पुनः प्राप्त करना।
- प्रयुक्त स्नेहक तेल, विलायक, ठोस और अर्द्ध-ठोस ग्रीस तथा मोम का उपयोग औद्योगिक प्रक्रियाओं के लिये वैकल्पिक ईंधन के रूप में किया जा सकता है, जिनमें तापीय ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
- भस्मीकरण: भस्मीकरण उच्च तापमान पर बड़ी भट्टियों में अपशिष्ट को दहन करने की प्रक्रिया है। यह अपशिष्ट पदार्थों की राख, फ्लू गैसों, कणों और ऊष्मा में परिवर्तित करता है, जिसका उपयोग विद्युत उत्पादन के लिये किया जा सकता है।
- पायरोलिसिस: पायरोलिसिस में अपशिष्ट पदार्थों का ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में या सीमित ऑक्सीजन के साथ आमतौर पर 300°C से 900°C तक के तापमान पर ऊष्मीय अपघटन शामिल होता है।
- यह अपशिष्ट पदार्थों को उपयोगी उत्पादों जैसे बायो-ऑयल, सिंथेटिक गैस (सिनगैस) और चारकोल में परिवर्तित करता है।
नोट:
- बायो-ऑयल एक तरल ईंधन है जो जैव ईंधन (लकड़ी, कृषि अवशेष, शैवाल) और अन्य वनस्पति पदार्थों जैसे कार्बनिक पदार्थों के ताप-अपघटन के माध्यम से उत्पादित होता है।
- सिंथेटिक गैस एक ईंधन गैस है जो मुख्य रूप से हाइड्रोजन (H₂), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO), तथा अल्प मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड (CO₂) और मीथेन (CH₄) से बनी होती है।
- चारकोल एक ठोस, कार्बन-समृद्ध उपोत्पाद है जो पाइरोलिसिस जैसी प्रक्रियाओं में कार्बनिक पदार्थों के ऊष्मीय अपघटन के दौरान उत्पन्न होता है।
निष्कर्ष
भोपाल गैस त्रासदी औद्योगिक सुरक्षा लापरवाही के भयावह परिणामों को उज़ागर करती है। हानिकारक अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 और बेसल कन्वेंशन जैसी नियामक प्रगति के बावजूद, सुरक्षित अपशिष्ट निपटान में चुनौतियाँ बनी हुई हैं, जिससे भारत में सख्त अनुपालन, तकनीकी उन्नयन और खतरनाक अपशिष्ट के प्रभावी उपचार की तत्काल आवश्यकता पर बल मिलता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत में खतरनाक अपशिष्ट को नियंत्रित करने वाले प्रमुख नियामक ढाँचे क्या हैं? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्सप्रश्न. भारत में निम्नलिखित में से किसमें एक महत्त्वपूर्ण विशेषता के रूप में 'विस्तारित उत्पादक दायित्व' आरंभ किया गया था? (2019) (a) जैव चिकित्सा अपशिष्ट (प्रबंधन और हस्तन) नियम, 1998 उत्तर: (c) प्रश्न. भारत में ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम, 2016 के अनुसार, निम्नलिखित में से कौन-सा एक कथन सही है? (2019) (a) अपशिष्ट उत्पादक को पाँच कोटियों में अपशिष्ट अलग-अलग करने होंगे। उत्तर: (c) मेन्सप्रश्न. भारत की राष्ट्रीय जल नीति की परिगणना कीजिये। गंगा नदी का उदाहरण लेते हुए, नदियों के जल प्रदूषण नियंत्रण व प्रबंधन के लिये अंगीकृत की जाने वाली रणनीतियों की विवेचना कीजिये। भारत में खतरनाक अपशेषों के प्रबंधन और संचालन के लिये क्या वैधानिक प्रावधान हैं? (2013) |
ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकार और संबंधित चिंताएँ
प्रीलिम्स के लिये:उच्च न्यायालय, उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019, उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) नियम, 2020, लैगिंक डिस्फोरिया, आधार कार्ड, जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1969, अनुच्छेद 21, ट्रांसजेंडर पहचान पत्र मेन्स के लिये:ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के कल्याण पर न्यायिक रुख, ट्रांसजेंडर व्यक्तियों संबंधी सुधार |
स्रोत: IE
चर्चा में क्यों?
सुश्री X बनाम कर्नाटक राज्य, 2024 मामले में, कर्नाटक उच्च न्यायालय (HC) ने अभिनिर्धारित किया, ट्रांसजेंडर व्यक्ति जन्म प्रमाण पत्र पर अपने नाम और लिंग में परिवर्तन कर सकते हैं।
- उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 और उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) नियम, 2020 के अंतर्गत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के जन्म प्रमाण पत्र पर नाम और लिंग में परिवर्तन किये जाने की स्पष्ट अनुमति है।
सुश्री X बनाम कर्नाटक राज्य, 2024 मामले संबंधी मुख्य तथ्य क्या हैं?
- पृष्ठभूमि: याचिकाकर्ता को लैगिंक डिस्फोरिया था और इस कारण से उसने अपना लिंग परिवर्तन कराने हेतु सर्जरी कराई और तत्पश्चात् अपने आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस और पासपोर्ट पर विधिक रूप से अपने नाम एवं लिंग में परिवर्तन कराया।
- हालाँकि, जन्म प्रमाण पत्र पर उसके लिंग और नाम में परिवर्तन किये जाने का अनुरोध अस्वीकार कर दिया गया।
- लैगिंक डिस्फोरिया का तात्पर्य उस मनोवैज्ञानिक स्थिति से है जिसमें संबद्ध व्यक्ति का जन्म के समय निर्धारित लिंग उसकी लिंग पहचान से मेल नहीं खाता।
- विधिक आपत्ति: जन्म और मृत्यु रजिस्ट्रीकरण अधिनियम, 1969 की धारा 15 के तहत जन्म प्रमाण-पत्र में परिवर्तन की अनुमति केवल तभी प्रदान की जाती है, जब रजिस्टर में जन्म की सूचना गलत हो या कपटपूर्वक या अनुचित तौर पर दर्ज की गई हो।
- जन्म और मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 जन्म और मृत्यु प्रमाण पत्र प्रदान करने को नियंत्रित करता है।
- मौलिक अधिकारों का उल्लंघन: याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण अधिनियम, 1969 की धारा 15 की प्रतिबंधात्मक प्रकृति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सम्मान के साथ जीवन जीने के उसके अधिकार का उल्लंघन करती है।
- उन्होंने यह भी दावा किया कि अलग-अलग पहचान दर्शाने वाले दस्तावेज़ों से दोहरी पहचान बनती है, जिससे उत्पीड़न और भेदभाव की संभावना बढ़ जाती है।
- उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019: इसमें कहा गया है कि ट्रांसजेंडर लोगों को उनकी पहचान के प्रमाण के रूप में "पहचान का प्रमाण पत्र" जारी किया जा सकता है (धारा 6) जिसे संशोधित किया जा सकता है यदि वे सेक्स-रीअसाइनमेंट सर्जरी (धारा 7) का विकल्प चुनते हैं।
- कानून में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि इस प्रमाण पत्र के अनुसार ट्रांसजेंडर व्यक्ति का लिंग “सभी आधिकारिक दस्तावेज़ों में दर्ज किया जाएगा।”
- कर्नाटक उच्च न्यायालय का निर्णय: न्यायालय ने कहा कि 1969 का अधिनियम एक “सामान्य अधिनियम” है और इसे ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 का अनुपालन करना चाहिये जो एक “विशेष अधिनियम” है।
- इसने "जेनरेलिया स्पेशलिबस नॉन-डिरोगेंट " के कानूनी सिद्धांत को लागू किया, जिसका अनुवाद है "विशेष सामान्य पर प्रभावी होगा"।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि रजिस्ट्रार को ट्रांसजेंडर प्रमाण पत्र को स्वीकार करना होगा तथा 1969 के अधिनियम में संशोधन होने तक संशोधित जन्म प्रमाण पत्र जारी करना होगा।
- सामान्य अधिनियम व्यापक रूप से लागू होते हैं, जैसे 1969 अधिनियम, जबकि विशेष कानून विशिष्ट मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं , जैसे ट्रांसजेंडर व्यक्ति अधिनियम।
- महत्त्व: यह निर्णय सामान्य कानूनों की तुलना में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा के लिये विशेष रूप से बनाए गए कानूनों की सर्वोच्चता पर ज़ोर देता है।
- यह ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये सभी आधिकारिक दस्तावेज़ों में लैंगिक पहचान की मान्यता का मार्ग प्रशस्त करता है।
नोट: वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में ट्रांसजेंडर की कुल जनसंख्या लगभग 4.88 लाख है।
- सबसे अधिक ट्रांसजेंडर आबादी वाले शीर्ष 3 राज्य उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र हैं।
ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिये सुधारों की समय-सीमा
- चुनाव आयोग का निर्देश (वर्ष 2009): पंजीकरण फॉर्म को "अन्य" विकल्प शामिल करने के लिये अद्यतन किया गया, जिससे ट्रांससेक्सुअल व्यक्तियों को पुरुष या महिला की पहचान से बचने की अनुमति मिल गई।
- उच्चतम न्यायालय का निर्णय (वर्ष 2014): राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण बनाम भारत संघ मामले, 2014 में, उच्चतम न्यायालय ने ट्रांसजेंडर लोगों को "थर्ड जेंडर" के रूप में मान्यता दी, तथा इसे मानवाधिकार मुद्दा बताया।
- विधायी प्रयास: ट्रांसजेंडर अधिकारों की रक्षा के लिये ट्रांसजेंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019 लागू किया गया।
ट्रांसजेंडर व्यक्तियों (अधिकारों का संरक्षण) विधेयक, 2019 से संबंधित मुख्य तथ्य क्या हैं?
- ट्रांसजेंडर: ट्रांसजेंडर से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जिसका लिंग जन्म के समय उसे दिये गए लिंग से मेल नहीं खाता है।
- इसमें 'इंटरसेक्स भिन्नता वाले व्यक्ति' और 'ट्रांसजेंडर व्यक्ति' जैसे शब्दों को स्पष्ट किया गया है, ताकि सर्जरी या थेरेपी की परवाह किये बगैर ट्रांस मेल/पुरुष और फीमेल/महिलाओं को इसमें शामिल किया जा सके।
- भेदभाव न करना: शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य देखभाल और सार्वजनिक सुविधाओं में भेदभाव को प्रतिबंधित करता है, और आवागमन, संपत्ति एवं कार्यालय के अधिकारों की पुष्टि करता है।
- पहचान प्रमाण पत्र: यह विधेयक स्वानुभूत लैंगिक पहचान का अधिकार प्रदान करता है तथा ज़िला मजिस्ट्रेटों को बिना मेडिकल परीक्षण के प्रमाण पत्र जारी करने की आवश्यकता बताता है।
- चिकित्सा देखभाल: HIV की निगरानी, चिकित्सा देखभाल तक पहुँच, लैंगिक पुनर्निर्धारण सर्जरी तथा बीमा कवरेज़ के साथ चिकित्सा सुनिश्चित करता है।
- राष्ट्रीय ट्रांसजेंडर व्यक्ति परिषद्: सरकार को सलाह देने और शिकायतों का समाधान करने के लिये स्थापित।
- अपराध और दंड: बलपूर्वक श्रम, दुर्व्यवहार और अधिकारों से वंचित करने जैसे अपराधों के लिये कारावास (6 माह से 2 वर्ष) और ज़ुर्माने का प्रावधान है।
भारत में ट्रांसजेंडरों के सामने क्या समस्याएँ हैं?
- सामाजिक सुभेद्यता: ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को समाज से बहिष्कार का सामना करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक भागीदारी के सीमित अवसर, आत्मसम्मान की कमी और अलगाव देखने को मिलता है।
- सार्वजनिक स्थान, जैसे शौचालय और आश्रय स्थल, अक्सर ट्रांसजेंडर लोगों को स्थान देने में असफल रहते हैं, जिससे उन्हें उत्पीड़न, हमले और हाशिये पर धकेला जाता है।
- शिक्षा में भेदभाव: ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को शिक्षा में उत्पीड़न और बहिष्कार का सामना करना पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप उनकी पढ़ाई छोड़ने की दर अधिक होती है अर्थात् उनकी साक्षरता दर 46% है, जबकि राष्ट्रीय औसत 74% है।
- बेघर होना: परिवारों द्वारा अस्वीकार किये जाने और आवास विकल्पों की कमी के कारण कई ट्रांसजेंडर युवा सड़कों पर रहने को मज़बूर होते हैं, उन्हें दुर्व्यवहार, मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं और मादक दवाओं के उपयोग का सामना करना पड़ता है।
- ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को अक्सर सामाजिक असहिष्णुता और ट्रांसफोबिया के कारण हिंसा, उत्पीड़न और भेदभाव का सामना करना पड़ता है ।
- ट्रांसफोबिया का तात्पर्य ट्रांसजेंडर लोगों के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण, भय, घृणा या पूर्वाग्रह से है।
- मनोवैज्ञानिक संकट: ट्रांसजेंडरों के लिये सहायक प्रणालियों की कमी के कारण इनके समक्ष चिंता, अवसाद एवं आत्महत्या के विचारों सहित मनोवैज्ञानिक संकट का जोखिम रहता है।
- सार्वजनिक प्रतिनिधित्व: मीडिया एवं सार्वजनिक पटल पर ट्रांसजेंडरों के नकारात्मक चित्रण से रूढ़िवादिता के साथ इनके प्रति सामाजिक अस्वीकृति एवं हिंसा को बढ़ावा मिलता है।
आगे की राह
- सशक्तीकरण एवं विधिक सुधार: सरकार को नीति-निर्माण में अधिक समावेशी दृष्टिकोण अपनाने के साथ यह सुनिश्चित करना चाहिये कि ट्रांसजेंडरों को निर्णय निर्माण प्रक्रिया से बाहर न रखा जाए।
- इस समावेशन से उनकी शिकायतों का समाधान करने तथा उनकी सार्वजनिक भागीदारी के अवसर बढ़ाने में मदद मिल सकती है।
- शिक्षा तक पहुँच: स्कूलों को विशेष रूप से ट्रांसजेंडर छात्रों को लक्ष्य करते हुए उत्पीड़न-रोधी एवं रैगिंग-रोधी नीतियाँ अपनानी चाहिये ताकि इनके प्रति बहिष्कार तथा उत्पीड़न की घटनाओं में कमी लाई जा सके।
- सामाजिक सरोकारों पर ध्यान देना: सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि इनके लिये निशुल्क विधिक सहायता, सहायक शिक्षा एवं सामाजिक अधिकार जैसी आवश्यक सेवाओं तक पहुँच उपलब्ध हो।
- आर्थिक अवसर: उदार ऋण सुविधाएँ और वित्तीय सहायता प्रदान करने से ट्रांसजेंडरों को अपना व्यवसाय शुरू करने या उद्यमी के रूप में कॅरियर बनाने में मदद मिलेगी।
- जागरूकता अभियान: सार्वजनिक शिक्षा अभियानों का उद्देश्य सामाजिक असहिष्णुता को कम करने तथा ट्रांसजेंडर संबंधी मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के साथ नकारात्मक रूढ़ियों को चुनौती देना होना चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत में ट्रांसजेंडरों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिये ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के प्रावधानों पर चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्सप्रश्न. भारत में, विधिक सेवा प्रदान करने वाले प्राधिकरण (Legal Services Authorities) निम्नलिखित में से किस प्रकार के नागरिकों को नि:शुल्क विधिक सेवाएँ प्रदान करते हैं?
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये- (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (a) |