घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण 2023-24
प्रिलिम्स के लिये:घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण, राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, सकल घरेलू उत्पाद, उपभोग असमानता, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि मेन्स के लिये:घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण, उपभोग और विकास नीतियाँ |
स्रोत: पी.आई.बी.
चर्चा में क्यों?
सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (MoSPI) ने घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (Household Consumption Expenditure Survey- HCES) 2023-24 की फैक्टशीट जारी की है, जो भारत में उपभोग पैटर्न और आर्थिक कल्याण के विषय में महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।
घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण क्या है?
- HCES जीवन स्तर, कल्याण और उपभोग व्यवहार का आकलन करने हेतु घरेलू व्यय पैटर्न संबंधी डेटा एकत्र करता है।
- HCES का संचालन राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (National Statistical Office-NSO) द्वारा वर्ष 1951 से सांख्यिकी एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण (National Sample Survey-NSS) के एक भाग के रूप में किया जाता रहा है।
- महत्त्व: यह सर्वेक्षण उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Indices- CPI) की गणना और सकल घरेलू उत्पाद (GDP) जैसे व्यापक आर्थिक संकेतकों के लिये आधार वर्ष को संशोधित करने हेतु इनपुट प्रदान करता है।
- HCES गरीबी, असमानता तथा सामाजिक कल्याण को मापने में मदद करता है।
HCES 2023-24 के प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं?
- खपत में वृद्धि: ग्रामीण उपभोग व्यय में उल्लेखनीय वृद्धि हुई, औसत मासिक प्रति व्यक्ति व्यय (Monthly Per Capita Expenditure- MPCE) बढ़कर 4,122 रुपए हो गया है (वर्ष 2022-23 के 3,773 रुपए से 9.3% अधिक)।
- शहरी क्षेत्रों का MPCE 6,996 रुपए है (वर्ष 2022-23 के 6,459 रुपए से 8.3% अधिक)।
- ग्रामीण और शहरी खपत के बीच का अंतर वर्ष 2011-12 के 83.9% से घटकर वर्ष 2023-24 में 69.7% हो गया, जो दर्शाता है कि शहरी खपत की तुलना में ग्रामीण खपत तेज़ी से बढ़ रही है।
- कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से निशुल्क लाभ (जैसे, खाद्यान्न, स्कूल यूनिफॉर्म) के लिये निर्धारित मूल्यों ने MPCE अनुमानों में मामूली वृद्धि की।
- ग्रामीण MPCE 4,247 रुपए (निर्धारण सहित) और शहरी 7,078 रुपए (निर्धारण सहित)।
- क्षेत्रीय असमानताएँ: सिक्किम में MPCE सबसे अधिक रही (ग्रामीण 9,377 रुपए और शहरी 13,927 रुपए), जबकि छत्तीसगढ़ (ग्रामीण 2,739 रुपए और शहरी 4,927 रुपए) में सबसे कम MPCE दर्ज किया गया।
- महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु, तेलंगाना और केरल में प्रति व्यक्ति उपभोग व्यय औसत से अधिक रहा।
- पश्चिम बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में व्यय राष्ट्रीय औसत से कम था।
- केंद्रशासित प्रदेशों में, MPCE चंडीगढ़ में सबसे अधिक है (ग्रामीण 8,857 रुपए और शहरी 13,425 रुपए), जबकि दादरा और नगर हवेली तथा दमन और दीव (4,311 रुपए) और जम्मू और कश्मीर (6,327 रुपए) में क्रमशः ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में MPCE सबसे कम है।
- उपभोग असमानता: गिनी गुणांक द्वारा मापी गई उपभोग असमानता ग्रामीण और शहरी दोनों स्तर पर कम हुई है।
- ग्रामीण क्षेत्रों के लिये गिनी गुणांक वर्ष 2022-23 के 0.266 से घटकर वर्ष 2023-24 में 0.237 हो गया है तथा शहरी क्षेत्रों के लिये 0.314 से घटकर 0.284 हो गया है।
- खाद्य व्यय: 2023-24 में खाद्य पर खर्च में वृद्धि ग्रामीण (47.04%) और शहरी (39.68%), जिससे दोनों स्तरों पर पिछली गिरावट का रुख पलट गया।
- भोजन पर सबसे अधिक व्यय पेय पदार्थों, जलपान और प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों पर हुआ, इसके बाद दुग्ध, दुग्ध से निर्मित उत्पाद तथा सब्जियों पर अधिक व्यय हुआ।
- गैर-खाद्य व्यय: गैर-खाद्य व्यय का हिस्सा भी उच्च रहा, यह ग्रामीण क्षेत्रों में 52.96% तथा शहरी क्षेत्रों में 60.32% रहा।
- ग्रामीण परिवारों ने परिवहन (7.59%), चिकित्सा (6.83%) और कपड़े तथा बिस्तर (6.63%) पर अधिक खर्च किया, जबकि शहरी परिवारों ने परिवहन (8.46%), विविध वस्तुओं (6.92%) और किराए (6.58%) पर अधिक खर्च किया।
- अस्थिर उपभोग पैटर्न: 2023-24 में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों की शीर्ष 5% आबादी के उपभोग व्यय में 2022-23 की तुलना में कमी दर्ज की गई है।
- इसके विपरीत, निचले 5% वर्ग के उपभोग व्यय में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई, जहाँ ग्रामीण व्यय में 22% तथा शहरी व्यय में 19% की वृद्धि हुई।
- यह निम्न आय वर्ग के उपभोग में उल्लेखनीय वृद्धि को दर्शाता है, जो आर्थिक सुधार का संकेत है।
महत्त्वपूर्ण शब्दावली
- मासिक प्रति व्यक्ति व्यय (MPCE): भोजन, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, परिवहन और अन्य मूलभूत आवश्यकताओं पर प्रति व्यक्ति औसत मासिक व्यय।
- उपभोग असमानता: इसका तात्पर्य किसी अर्थव्यवस्था में व्यक्तियों या परिवारों के बीच उपभोग व्यय या वस्तुओं तथा सेवाओं के असमान वितरण से है।
- गिनी गुणांक उपभोग असमानता को मापता है, जहाँ 0 पूर्ण समानता को जबकि और 100 पूर्ण असमानता को दर्शाता है। यह परिवारों या व्यक्तियों के बीच उपभोग में असमानता को मापता है।
नीति निर्माण पर HCES निष्कर्षों के क्या निहितार्थ हैं?
- ग्रामीण विकास: ग्रामीण-शहरी अंतराल में कमी ग्रामीण आय में सुधार का संकेत देती है, जो संभवतः प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि (पीएम-किसान) और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA) जैसी योजनाओं से प्रभावित है। इस प्रगति को बनाए रखने के लिये आगे नीतिगत समर्थन आवश्यक है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में परिवहन पर अपेक्षाकृत अधिक खर्च बेहतर ग्रामीण परिवहन बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता को दर्शाता है, ताकि लागत को कम किया जा सके।
- ग्रामीण गैर-खाद्य क्षेत्रों, जैसे परिवहन और टिकाऊ वस्तुओं, में निवेश को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- विभिन्न क्षेत्रकों में परिवर्तन: सेवाओं (जैसे, परिवहन, मनोरंजन) पर बढ़ता व्यय सेवा-संचालित अर्थव्यवस्था की ओर विस्थापन का संकेत देता है।
- नीतियों निर्माण के दौरान इन उभरते क्षेत्रों में कौशल और रोज़गार सृजन पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये।
- ग्रामीण उपभोग में वृद्धि को ध्यान में रखते हुए, नीतियों का उद्देश्य कौशल विकास और ग्रामीण औद्योगिकीकरण के माध्यम से इस प्रगति को स्थिर बनाए रखना होना चाहिये।
- शहरी नियोजन और आवास: किराये और परिवहन पर उच्च शहरी व्यय किफायती आवास नीतियों तथा बेहतर सार्वजनिक परिवहन बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता को उजागर करता है।
- समान विकास सुनिश्चित करने के लिये शहरी नीतियों को आय वृद्धि में अस्थिरता को दूर करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा, विशेष रूप से मध्यम वर्ग के लिये।
- क्षेत्रीय असमानताएँ: बिहार जैसे औसत से कम खपत वाले राज्यों में आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिये शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और रोज़गार पर केंद्रित हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
- उपभोक्ता संरक्षण: नीति निर्माताओं को गुणवत्ता मानकों और उपभोक्ता सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये प्रसंस्कृत खाद्य उद्योगों को विनियमित करना चाहिये।
और पढ़ें: भारत में निर्धनता में कमी-SBI
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: HCES 2023-24 के अनुसार ग्रामीण-शहरी उपभोग अंतराल को कम करने में योगदान देने वाले कारकों तथा ग्रामीण विकास नीतियों के लिये इसके निहितार्थों का विश्लेषण कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न:प्रिलिम्सप्रश्न. एन.एस.एस.ओ. के 70वें चक्र द्वारा संचालित ‘‘कृषक-कुटुम्बों की स्थिति आकलन सर्वेक्षण’’ के अनुसार निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2018)
उपर्युत्त कथनाें में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 2 औ 3 उत्तर: (c) प्रश्न. किसी दिये गए वर्ष में भारत में कुछ राज्यों में आधिकारिक गरीबी रेखाएँ अन्य राज्यों की तुलना में उच्चतर हैं, क्योंकि (2019) (a) गरीबी की दर अलग-अलग राज्य में अलग-अलग होती है उत्तर: (b) |
UJALA और SLNP के 10 वर्ष
प्रिलिम्स के लिये:UJALA (उन्नत ज्योति बाय एफाॅर्डेबल LEDs फॉर ऑल), स्ट्रीट लाइटिंग नेशनल प्रोग्राम, लाइट एमिटिंग डायोड, ऊर्जा दक्षता सेवा लिमिटेड, तापदीप्त लैंप, कॉम्पैक्ट फ्लोरोसेंट लैंप, ऊर्जा संरक्षण भवन संहिता मेन्स के लिए:भारत में ऊर्जा दक्षता, ऊर्जा और पर्यावरण, ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों का आर्थिक प्रभाव, शहरी भारत में सार्वजनिक प्रकाश व्यवस्था |
स्रोत: पी.आई.बी
चर्चा में क्यों?
ऊर्जा दक्षता की दिशा में एक परिवर्तनकारी पहल के रूप में 5 जनवरी 2015 को शुरू की गई UJALA (उन्नत ज्योति बाय एफाॅर्डेबल LEDs फॉर ऑल) योजना के 10 वर्ष पूरे हो चुके हैं।
- यह योजना घरेलू प्रकाश व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव लाने एवं ऊर्जा के उपयोग को दक्ष बनाने के साथ भारत के सतत् विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में भूमिका निभा रही है।
- उजाला के साथ शुरू किए गए स्ट्रीट लाइटिंग नेशनल प्रोग्राम (SLNP) का उद्देश्य पारंपरिक स्ट्रीट लाइटों को ऊर्जा-कुशल लाइट एमिटिंग डायोड (LED) से बदलना है।
उजाला योजना के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?
- उजाला योजना: इसे पारंपरिक प्रकाश प्रणालियों (तापदीप्त लैंप (ICL) और कॉम्पैक्ट फ्लोरोसेंट लैंप (CFL)) को ऊर्जा-बचत वाले LED बल्बों से प्रतिस्थापित करने के साथ ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देने के क्रम में जनवरी 2015 में प्रारंभ किया गया था।
- यह योजना भारत सरकार के सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों, केंद्रीय विद्युत मंत्रालय की ऊर्जा दक्षता सेवा लिमिटेड (EESL) और DISCOM (वितरण कंपनियों) के बीच एक संयुक्त परियोजना है।
- उद्देश्य: इसका लक्ष्य 77 करोड़ पारंपरिक बल्बों एवं 3.5 करोड़ स्ट्रीट लाइटों को LED से बदलकर 85 लाख किलोवाट प्रतिघंटे विद्युत का उपयोग कम करने के साथ 15,000 टन कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) को कम करना है।
- उजाला की आवश्यकता: भारत में आवासीय विद्युत उपयोग का लगभग 18-27% हिस्सा प्रकाश व्यवस्था पर खर्च होता है।
- वर्ष 2011 के अनुसार भारतीय घरों में लगभग एक अरब प्रकाश यूनिट का उपयोग किया गया, जिनमें से अधिकांश CFL (46%) एवं ट्यूब लाइट (41%) की भागीदारी थी। केवल 0.4% ने LED बल्ब का उपयोग किया।
- LED की दक्षता: LED, ICL की तुलना में 90% तक और CFL की तुलना में 50% तक ऊर्जा दक्ष है।
- LED बल्ब में तापदीप्त बल्बों की तुलना में 75% तक कम ऊर्जा का उपयोग होता है तथा 25 गुना अधिक समय तक यह चलते हैं लेकिन इनमें उच्च प्रारंभिक लागत एक बड़ी बाधा है।
- UJALA की मुख्य विशेषताएँ:
- सब्सिडी वाले LED बल्ब: उजाला के तहत वितरित LED बल्बों की कीमत वर्ष 2014 में 450 रुपए की तुलना में घटकर 70 रुपए प्रति LED बल्ब कर हो गई।
- वितरण तंत्र: बल्बों का वितरण मांग एकत्रीकरण-मूल्य क्रैश मॉडल (कीमतों को कम करने के लिए थोक खरीद) के माध्यम से किया जाता है।
- वर्ष 2015 में EESL ने बड़े पैमाने पर LED लैंप खरीद के लिए खुली बोलियाँ आमंत्रित कीं एवं वितरण नेटवर्क स्थापित करने के लिये राज्य सरकारों को शामिल किया।
- प्रगति एवं उपलब्धियाँ: देश भर में 36.87 करोड़ से अधिक LED बल्ब वितरित किए गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप:
- ऊर्जा बचत: प्रतिवर्ष 47,883 मिलियन kWh ऊर्जा की बचत हुई है।
- लागत बचत: प्रतिवर्ष 19,153 करोड़ रुपए की बचत हुई है।
- CO2 में कमी: प्रतिवर्ष 3.88 मिलियन टन CO2 उत्सर्जन में कमी आई है।
- अधिकतम मांग से बचाव: 9,586 मेगावाट की अधिकतम मांग को रोका जा सका है।
नोट:
- ग्रामीण परिवारों के लिए मार्च 2021 में ग्राम उजाला योजना शुरू की गई थी, जिसमें पुराने तापदीप्त बल्बों के बदले 10 रुपए में एलईडी बल्ब दिये गए थे।
- चरण-I के अंतर्गत 1.5 करोड़ एलईडी बल्ब वितरित करने का लक्ष्य था, जिससे 2025 मिलियन kWh/वर्ष ऊर्जा की बचत के साथ प्रतिवर्ष 1.65 मिलियन टन CO2 के उत्सर्जन कमी का लक्ष्य रखा गया।
स्ट्रीट लाइटिंग राष्ट्रीय कार्यक्रम (SLNP) से जुड़े प्रमुख तथ्य क्या हैं?
- SLNP के बारे में: इसके प्रमुख उद्देश्यों में सार्वजनिक प्रकाश व्यवस्था के लिये ऊर्जा की खपत और परिचालन लागत को कम करना तथा ऊर्जा-कुशल उपकरणों के प्रति बाज़ार में बदलाव को बढ़ावा देना शामिल है।
- कार्यान्वयन एजेंसी: EESL को इस कार्यक्रम के लिये कार्यान्वयन एजेंसी के रूप में नामित किया गया, जो शहरी स्थानीय निकायों (ULBs), नगर निकायों, ग्राम पंचायतों (GP) और केंद्र तथा राज्य सरकारों के साथ सहयोग करते हुए पूरे भारत में SLNP को कार्यान्वित करने में सबसे आगे रहा है।
- व्यवसाय मॉडल: SLNP ने एक अनूठा मॉडल प्रस्तुत किया है, जिसमें EESL प्रारंभिक लागतों को वहन करता है तथा परियोजना अवधी के दौरान नगर पालिकाओं द्वारा मासिक या त्रैमासिक भुगतान के माध्यम से निवेश की भरपाई करता है।
- EESL, 95% से अधिक अपटाइम प्रदान करते हुए LED स्ट्रीट लाइटों का रखरखाव सुनिश्चित करता है, जो सार्वजनिक सुरक्षा को महत्त्वपूर्ण रूप से वृद्धि करता है तथा स्थानीय बजट पर बोझ डाले बिना विश्वसनीय नगरपालिका सेवाएँ सुनिश्चित करता है।
- उपलब्धियाँ:
ICLs, CFLs और LEDs के बीच मुख्य अंतर क्या हैं?
विशेषता |
तापदीप्त लैंप (ICLs) |
कॉम्पैक्ट फ्लोरोसेंट लैंप (CFLs) |
प्रकाश उत्सर्जक डायोड (LEDs ) |
ऊर्जा दक्षता |
निम्न |
मध्यम |
उच्च |
विद्युत की खपत |
उच्च |
मध्यम |
निम्न |
बल्ब की कीमत |
निम्न (प्रारंभिक लागत) |
मध्यम |
उच्च (प्रारंभिक लागत) |
ऊष्मा उत्सर्जन |
उच्च |
मध्यम |
बहुत कम |
पर्यावरणीय प्रभाव |
उच्च (ऊर्जा के अपव्यय के कारण अधिक CO2 उत्पन्न होती है) |
मध्यम (इसमें थोड़ी मात्रा में पारा/मर्करी होता है) |
निम्न (कोई हानिकारक उत्सर्जन नहीं) |
रंग विकल्प |
तप्त श्वेत |
अतप्त श्वेत, तप्त श्वेत |
तप्त श्वेत, अतप्त श्वेत, RGB |
स्थानित्व |
कमज़ोर |
आईसीएल की तुलना में अधिक टिकाऊ |
बहुत टिकाऊ, प्रभाव प्रतिरोधी |
प्रकाश दिशा |
सर्वदिशात्मक |
सर्वदिशात्मक |
दिशात्मक या सर्वदिशात्मक |
रासायनिक संरचना |
टंगस्टन फिलामेंट, अक्रिय गैस (आर्गन या नाइट्रोजन) |
पारा वाष्प, फास्फोर कोटिंग |
गैलियम नाइट्राइड (GaN), इंडियम गैलियम नाइट्राइड (InGaN), फॉस्फोरस (रंग के लिए) |
एनर्जी एफिशिएंसी सर्विसेज़ लिमिटेड (EESL)
- EESL, वर्ष 2009 में स्थापित और विद्युत मंत्रालय द्वारा प्रायोजित एक सुपर एनर्जी सर्विस कंपनी (ESCO) है जो ऊर्जा दक्षता समाधानों पर ध्यान केंद्रित करती है।
- EESL प्रकाश व्यवस्था, भवन, इलेक्ट्रिक मोबिलिटी, स्मार्ट मीटरिंग और कृषि जैसे क्षेत्रों में विश्व का सबसे बड़ा ऊर्जा दक्षता पोर्टफोलियो क्रियान्वित करता है।
- EESL ने अब तक प्रतिवर्ष 47 बिलियन किलोवाट घंटे से अधिक ऊर्जा की बचत की है तथा कार्बन उत्सर्जन में 36.5 मिलियन टन की कमी की है।
- EESL, राष्ट्रीय थर्मल पावर कॉर्पोरेशन लिमिटेड, पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन लिमिटेड, REC लिमिटेड और पावरग्रिड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड के संयुक्त उद्यम के रूप में काम करता है।
ऊर्जा दक्षता से संबंधित भारत की अन्य पहल
- मानक और लेबलिंग (ऊर्जा दक्षता ब्यूरो- BEE)
- ऊर्जा संरक्षण (संशोधन) अधिनियम, 2022
- संवर्द्धित ऊर्जा दक्षता पर मिशन (NMEE)
- नेशनल इलेक्ट्रिक मोबिलिटी मिशन प्लान (NEMMP)
- प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार योजना (PAT)
- ऊर्जा संरक्षण भवन संहिता (ECBC)
निष्कर्ष
उजाला योजना और स्ट्रीट लाइटिंग राष्ट्रीय कार्यक्रम (SLNP) ने भारत के ऊर्जा दक्षता और स्थिरता लक्ष्यों को महत्त्वपूर्ण रूप से आगे बढ़ाया है। इन पहलों के कारण ऊर्जा का उपयोग कम हुआ है और कार्बन उत्सर्जन में भी कमी आई है, साथ ही आर्थिक बचत भी हुई है। ये पहल हरित, ऊर्जा-कुशल भविष्य को बढ़ावा देने में सरकार के नेतृत्व वाले प्रयासों के प्रभाव को दर्शाती हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: भारत में ऊर्जा दक्षता चुनौतियों का समाधान करने में उजाला और स्ट्रीट लाइटिंग राष्ट्रीय कार्यक्रम योजनाओं जैसी सरकार द्वारा संचालित पहलों की भूमिका का परीक्षण कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न:प्रिलिम्सप्रश्न. सड़क प्रकाश व्यवस्था के संदर्भ में, सोडियम बत्तियाँ, एल.ई.डी. बत्तियों से किस तरह भिन्न हैं? (2021)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये- (a) केवल 3 उत्तर: (c) प्रश्न. निम्नलिखित में से किसमें आप ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (Bureau of Energy Efficiency) का स्टार लेबल पाते हैं? (2016)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 |
सिंधु घाटी लिपि की समझ
प्रिलिम्स के लिये:सिंधु घाटी सभ्यता, कृत्रिम बुद्धिमत्ता, सिंधु घाटी लिपि, बौस्ट्रोफेडन शैली। मेन्स के लिये:प्राचीन भारतीय सभ्यताएँ, प्राचीन भारत में भाषा का विकास, प्राचीन लिपियों को समझना |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने सिंधु घाटी सभ्यता की हड़प्पा (सिंधु घाटी) लिपि को सफलतापूर्वक समझने वाले व्यक्ति को 1 मिलियन अमेरिकी डॉलर का पुरस्कार देने की घोषणा की।
- इससे हड़प्पा लिपि के सदियों पुराने रहस्य पर प्रकाश पड़ा, जिसका अर्थ समझने के लिये विद्वानों द्वारा 100 से अधिक प्रयास किए गए लेकिन वे सफल नहीं हो सके।
नोट: समझ से तात्पर्य अज्ञात प्रतीकों या लिपियों को पठनीय भाषा में अनुवाद करने की प्रक्रिया से है
सिंधु घाटी लिपि क्या है?
- परिचय: सिंधु घाटी सभ्यता (2600-1900 ईसा पूर्व) के दौरान वर्तमान पाकिस्तान और उत्तर-पश्चिमी भारत में प्रयुक्त सिंधु घाटी लिपि अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है।
- इस लिपि की खोज वर्ष 1920 के दशक में सर जॉन मार्शल के नेतृत्व में की गई थी। यह मुहरों, टेराकोटा की पट्टियों एवं धातु पर अंकित है जिसमें चित्रलेख तथा पशु या मानव आकृतियाँ हैं।
- लेखन शैल: सामान्यतः दाएँ से बाएँ लिखे गए लंबे वाक्यों में कभी-कभी बौस्ट्रोफेडॉन लिपि (पंक्तियों के बीच दिशाओं का परिवर्तन) का प्रयोग किया गया है।
- संक्षिप्त लेख: अधिकांश लेख छोटे (औसतन 5 अक्षर) हैं सबसे लंबे ज्ञात टेक्स्ट में 26 प्रतीक हैं।
- इसकी संक्षिप्तता के कारण इस बात पर विमर्श है कि क्या यह एक पूर्ण विकसित भाषा की परिचायक है या यह केवल प्रतीकात्मक संकेतन है।
- लिपि की प्रकृति: संभवतः एक लोगोसिलेबिक प्रणाली (जिसमें चित्रलेखों तथा अक्षरों का संयोजन था) पर आधारित थी, जो अपने समय की अन्य लिपियों के समान थी।
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इस संदर्भ में विद्वानों ने रिबस सिद्धांत को प्रस्तावित किया है जहाँ प्रतीक अप्रत्यक्ष रूप से ध्वनियों या विचारों के परिचायक हैं।
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उद्देश्य और कार्य: इस लिपि का उपयोग व्यापार, कर अभिलेखों एवं पहचान के लिये किया जाता था लेकिन इसकी भूमिका अभी भी अस्पष्ट है। गुणज, जोड़ एवं स्वास्तिक जैसे कुछ प्रतीकों का शैक्षिक या धार्मिक महत्त्व भी हो सकता है।
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कुछ लोगों का मानना है कि यह एक अंकन प्रणाली थी, न कि कोई भाषा-आधारित लिपि।
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इसकी भाषा के बारे में सिद्धांत:
- द्रविड़ परिकल्पना: यह असको परपोला और भारतीय शोधकर्त्ता इरावतम महादेवन द्वारा समर्थित है।
- इसमें दावा किया गया है कि इस लिपि का आधार द्रविड़ है एवं इसका संबंध प्राचीन तमिल से है।
- उदाहरण: परपोला का सुझाव है कि सिंधु लिपि में 'मछली' का प्रतीक "मीन" का परिचायक है जिसका द्रविड़ भाषाओं में अर्थ "मछली" और "तारा" दोनों ही होता है, जो पुरानी तमिल शब्दावली के अनुरूप है।
- ऐसा माना जाता है कि कुछ 'संख्या + मछली' अनुक्रम द्वारा तारा समूहों को संदर्भित किया गया है, हालांकि यह अभी भी अप्रमाणित है।
- द्रविड़ परिकल्पना: यह असको परपोला और भारतीय शोधकर्त्ता इरावतम महादेवन द्वारा समर्थित है।
- संस्कृत से जुड़ाव: एसआर राव जैसे प्रारंभिक विद्वानों ने इस लिपि को संस्कृत से जोड़ते हुए इसे वैदिक काल (1500-600 ईसा पूर्व) से संबंधित बताया।
- हड़प्पा एवं वैदिक संस्कृतियों के बीच समयरेखा में विसंगति के कारण इस सिद्धांत पर विवाद हुआ है।
- गैर-भाषाई प्रतीक: स्टीव फार्मर और पैगी मोहन जैसे आलोचकों का तर्क है कि ये प्रतीक कोई भाषा नहीं थे बल्कि राजनीतिक, आर्थिक या धार्मिक चिह्नों से संबंधित की एक प्रणाली का हिस्सा थे।
नोट:
- लिपि: यह किसी भाषा के शब्दों को दर्शाने के लिये प्रतीकों या वर्णों का प्रयोग करके लिखने की एक प्रणाली है जैसे लैटिन, देवनागरी या सिंधु लिपि।
- भाषा: यह अर्थ संप्रेषित करने के लिये ध्वनियों, शब्दों एवं व्याकरण का प्रयोग करने वाली संचार प्रणाली है जैसे अंग्रेजी, हिंदी या तमिल।
सिंधु घाटी लिपि को समझने में क्या चुनौतियाँ हैं?
- द्विभाषी ग्रंथों का अभाव: प्राचीन लिपियों को समझना अक्सर द्विभाषी ग्रंथों पर निर्भर करता है जैसे रोसेटा स्टोन, जिससे मिस्र की चित्रलिपि का ग्रीक अनुवाद मिला।
- हालाँकि, सिंधु लिपि में ऐसे तुलनात्मक अभिलेखों का अभाव है जिससे प्रतीकों को ध्वनियों या अर्थों से जोड़ना कठिन हो जाता है।
- वर्ष 1799 में नील डेल्टा के पास खोजे गए रोसेटा स्टोन में ग्रीक, डेमोटिक तथा चित्रलिपि में लिखा संदेश मिला। इससे विद्वानों को प्राचीन मिस्र की चित्रलिपि को समझने में मदद मिली।
- संक्षिप्त एवं खंडित लेख: अधिकांश लेख संक्षिप्त हैं, जिनमें प्रति लेख औसतन पाँच अक्षर हैं।
- लंबे लेखों की कमी से व्याकरण, वाक्य विन्यास या भाषाई व्याख्या में प्रयुक्त पैटर्न का विश्लेषण करने की क्षमता सीमित हो जाती है।
- अज्ञात भाषा: इस लिपि से संभवतः ऐसी भाषा का प्रतिनिधित्व होता है जिसका कोई समानांतर न न होने से इसका तुलनात्मक अध्ययन करना कठिन हो जाता है।
- इस संदर्भ में सिद्धांतों द्वारा इसके द्रविड़, इंडो-आर्यन या लुप्त भाषा समूह से जुड़े होने का सुझाव दिया गया है लेकिन इसमें से कोई भी निर्णायक नहीं है।
- प्रतीक भिन्नताएँ: एसआर राव (1982) ने लिपि में 62 संकेत प्रस्तावित किये, लेकिन आगे चलकर असको परपोला (1994) ने 425 संकेतों का सुझाव दिया।
- वर्ष 2016 में ब्रायन के. वेल्स ने 676 संकेत प्रस्तावित किये, लेकिन सटीक संख्या एवं उनके अर्थ पर बहस जारी रहने से भ्रम की स्थिति बनी हुई है।
- सीमित पुरातात्विक साक्ष्य: 3,500 हड़प्पा मुहरों का सीमित संग्रह, अज्ञात स्थल तथा कलाकृतियों का क्षरण, इस लिपि के विश्लेषण में बाधक हैं।
- तकनीकी बाधाएँ: हालाँकि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और मशीन लर्निंग का उपयोग किया जा रहा है, लेकिन सीमित डेटा सेट के कारण मौजूदा मॉडलों को सिंधु लिपि को समझने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। लघु शिलालेखों में पैटर्न की पहचान करना अभी भी एक महत्त्वपूर्ण चुनौती बनी हुई है।
सिंधु लिपि को समझना क्यों महत्त्वपूर्ण है?
- हड़प्पा सभ्यता की भाषा को जाने के लिये: भाषा परिवार (द्रविड़, इंडो-आर्यन या अन्य) की पहचान करना महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह प्राचीन भारत के भाषाई इतिहास पर मूल्यवान जानकारी प्रदान करेगा।
- हड़प्पा संस्कृति को समझने हेतु: इसके स्पष्टीकरण से हड़प्पा की धार्मिक मान्यताओं, सामाजिक मानदंडों और प्रशासन एवं शासन सहित सामाजिक-राजनीतिक संरचनाओं का पता लगाया जा सकता है।
- ऐतिहासिक निरंतरता: हड़प्पा तथा उसके बाद की सभ्यताओं के बीच संबंध स्थापित करने से भारत के सांस्कृतिक और भाषाई विकास का पता लगाने में मदद मिल सकती है।
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वैश्विक प्रासंगिकता: लिपि का अध्ययन प्राचीन लेखन प्रणालियों, मानव संचार विकास और मेसोपोटामिया और उससे आगे के देशों के साथ अंतर-सांस्कृतिक आदान-प्रदान को समझने में महत्त्वपूर्ण होगा।
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इसकी व्याख्या से वैदिक प्रथाओं और द्रविड़ या इंडो-यूरोपीय भाषाओं के साथ संभावित संबंधों का पता लगाया जा सकता है।
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दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: सिंधु घाटी लिपि को समझने में आने वाली चुनौतियों का विश्लेषण कीजिये और हड़प्पा सभ्यता को गहराई से समझने के क्रम में इसके निहितार्थों का परीक्षण कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, पिछले वर्ष के प्रश्न (PYQs)प्रारंभिकप्रश्न. सिंधु घाटी सभ्यता के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2011)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन सिंधु सभ्यता के लोगों की विशेषता/विशेषताएँ बताता है? (2013)
नीचे दिये गए कूट का उपयोग करके सही कथन/कथनों का चयन कीजिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) मेन्सप्रश्न 1: भारत की प्राचीन सभ्यता मिस्र, मेसोपोटामिया और ग्रीस की सभ्यताओं से इस बात में भिन्न है कि भारतीय उपमहाद्वीप की परंपराएँ आज तक भंग हुए बिना परिरक्षित की गई हैं। टिप्पणी कीजिये। (2015) प्रश्न 2: सिंधु घाटी सभ्यता की नगरीय आयोजन और संस्कृति ने किस सीमा तक वर्तमान युगीन नगरीकरण निवेश (इनपुट) प्रदान किये हैं? चर्चा कीजिये। (2014) |
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विधायी समीक्षा का आह्वान
प्रिलिम्स के लिये:भारत का सर्वोच्च न्यायालय, साइबर अपराध, आईटी अधिनियम, 2000, राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) मेन्स के लिये:कानूनों की समय-समय पर समीक्षा की आवश्यकता, भारत में कानूनों को अधिक प्रभावी बनाने के उपाय, कानून निर्माण में चुनौतियाँ, आगे की राह |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, सर्वोच्च न्यायालय (SC) द्वारा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 81 के तहत 45 दिन की सीमा के संबंध में एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कानूनों की प्रभावशीलता का आकलन करने के लिये समय-समय पर विधायी समीक्षा की आवश्यकता पर बल दिया।
- इसमें कानूनों का मूल्यांकन करने तथा कमियों या बाधाओं की पहचान करने के लिये एक विशेषज्ञ तंत्र की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया तथा प्रत्येक 20, 25 या 50 वर्ष में समीक्षा का प्रस्ताव रखा गया।
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951:
- RPA, 1951 का उद्देश्य राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर निर्वाचन प्रणाली को विनियमित करना है ।
- RPA अधिनियम के प्रमुख प्रावधान:
- इसमें लोकसभा, राज्य विधानसभाओं तथा राज्य विधान परिषदों के लिये सीटों के आवंटन की रूपरेखा दी गई है ।
- यह अधिनियम निर्वाचन के प्रयोजनार्थ निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन को नियंत्रित करता है।
- यह मतदाताओं की योग्यता एवं अयोग्यता को निर्दिष्ट करता है तथा मतदाता सूची तैयार करने के लिये रूपरेखा प्रदान करता है ।
- अधिनियम 1951 की धारा 81 में प्रावधान है कि परिणाम की घोषणा के 45 दिनों के भीतर परिणाम को चुनौती देने वाली निर्वाचन याचिका दायर की जानी चाहिये।
- यह अवैध प्रथाओं, भ्रष्टाचार या निर्वाचन विधियों के उल्लंघन जैसे आधारों पर दायर किया जा सकता है और इसे निर्वाचन क्षेत्र पर अधिकार क्षेत्र वाले उच्च न्यायालय में दायर किया जाना चाहिये।
विधायिका द्वारा कानूनों की आवधिक समीक्षा की आवश्यकता क्यों है?
- कमियों की पहचान करना: चूँकि बदलती परिस्थितियों के कारण समय के साथ कानून प्रासंगिकता खो सकते हैं, इसलिये यह सुनिश्चित करने के लिये नियमित समीक्षा आवश्यक है कि वे अपने इच्छित उद्देश्य को पूरा करते हैं और आवश्यक संशोधन या निरसन की अनुमति देते हैं।
- उदाहरण: आईटी अधिनियम, 2000 में उन साइबर अपराधों से निपटने के लिये संशोधन किया गया जो पूर्व में प्रचलित नहीं थे।
- कानून की प्रासंगिकता सुनिश्चित करना: समय-समय पर समीक्षा यह सुनिश्चित करती है कि कानून प्रासंगिक, प्रभावी और सामाजिक आवश्यकताओं के अनुरूप बने रहे। वे कानूनी प्रभावकारिता और सार्वजनिक हित पर ध्यान केंद्रित करने को सुनिश्चित करते हुए, जल्दबाज़ी में या राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित कानूनों को भी संबोधित करते हैं।
- उदाहरण: बिहार में शराब विरोधी कानून लागू होने से जमानत आवेदनों में वृद्धि हुई और राज्य की न्यायपालिका के दबाव में वृद्धि हुई।
- इसी प्रकार, राजस्थान में नागरिक समाज संगठनों को गौहत्या रोकने के लिये संस्थाओं पर छापे मारने का अधिकार देने वाले कानून से सत्ता के संभावित दुरुपयोग और संस्थागत अखंडता के उल्लंघन के बारे में चिंताएँ उत्पन्न हुई।
- अनपेक्षित परिणामों को संबोधित करना: आवधिक समीक्षा उन क्षेत्रों की पहचान कर सकती है जहाँ कानून अनजाने में न्यायिक प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करते हैं ।
- उदाहरण के लिये, जन प्रतिनिधि कानून, 1951 की धारा 81 जो 45 दिन की सीमा प्रक्रियागत बाधाओं के कारण वैध निर्वाचन संबंधी विवादों को कम कर सकती है।
- जवाबदेहिता में सुधार: नियमित समीक्षा यह सुनिश्चित करती है कि कानून अपने मूल उद्देश्यों एवं लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप बने रहें।
- उदाहरण के लिये, भारतीय दंड संहिता की धारा 498A, (जिसका मूल उद्देश्य महिलाओं को उनके पतियों या ससुराल वालों द्वारा क्रूरता एवं उत्पीड़न से बचाना था) की दुरुपयोग के लिये आलोचना की गई।
- वैश्विक मानक: कई लोकतांत्रिक राष्ट्र यह सुनिश्चित करने के लिये नियमित विधायी समीक्षा करते हैं, कि कानून अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं एवं मानवाधिकार मानदंडों के अनुरूप हों।
- उदाहरण के लिये, गोपनीयता एवं नागरिक स्वतंत्रता पर चिंताओं को दूर करने के लिये अमेरिकी पैट्रियट अधिनियम में समय-समय पर संशोधन किया गया है।
अन्य लोकतांत्रिक देशों में कानूनों का आवधिक संशोधन
- यूनाइटेड किंगडम: इंग्लैंड तथा वेल्स के विधि आयोग को मौजूदा कानूनों की नियमित समीक्षा करने का कार्य सौंपा गया है।
- इसकी सिफारिशों के परिणामस्वरूप महत्त्वपूर्ण कानूनी सुधार हुए हैं, जैसे कि जादू-टोना अधिनियम, 1735 को निरस्त करना, जो पुरातन कानूनों के आधुनिकीकरण में इसकी भूमिका को दर्शाता है।
- ऑस्ट्रेलिया: ऑस्ट्रेलियाई विधि सुधार आयोग नियमित रूप से कानूनी ढाँचे की व्यवस्थित समीक्षा करता है और विधायी संशोधनों के लिये सिफारिशों के साथ विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत करता है।
- यह प्रक्रिया सुनिश्चित करती है कि समकालीन मुद्दों के समाधान में कानून प्रासंगिक एवं प्रभावी बने रहें।
कानूनों की आवधिक समीक्षा करने में चुनौतियाँ क्या हैं?
- राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव: विधायी समीक्षा कभी-कभी राजनीतिक एजेंडों से प्रभावित होती हैं, जिसके परिणामस्वरूप पक्षपातपूर्ण संशोधन होते हैं, जो सार्वजनिक कल्याण के स्थान पर निर्वाचन संबंधी हितों की पूर्ति करते हैं, जिससे समीक्षा प्रक्रिया की निष्पक्षता में कमी हो जाती है।
- उदाहरण: कृषि कानूनों (2020) की आलोचना इस बात के लिये की गई कि इनमें संकट के मूल कारणों को दूर करने के लिये भारत के कृषि बाज़ार में सुधार करने के स्थान पर किसानों की चिंताओं पर कॉर्पोरेट हितों को तरजीह दी गई ।
- न्यायिक अतिक्रमण: कभी-कभी, न्यायपालिका पर कानूनों की समीक्षा करते समय अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने तथा समीक्षा प्रक्रिया के सुचारू संचालन को प्रभावित करने का आरोप लगाया जा सकता है।
- उदाहरण: राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) मामले (वर्ष 2015) में, जहाँ सर्वोच्च न्यायालय द्वारा NJAC अधिनियम को रद्द कर दिया, जिसका उद्देश्य कार्यपालिका को शामिल करके न्यायिक नियुक्तियों में सुधार करना था।
- कानूनी जटिलता: कई कानून एक-दूसरे पर निर्भर होते हैं, और साथ ही अलग-अलग संशोधनों से अनपेक्षित परिणाम हो सकते हैं या मौजूदा कानून के साथ टकराव हो सकता है, जिससे समीक्षा प्रक्रिया जटिल हो सकती है।
- उदाहरण: POCSO अधिनियम तथा IPC के तहत चाइल्ड पोर्नोग्राफी से संबंधित कानूनी प्रावधानों में विसंगतियाँ।
- सीमित सार्वजनिक भागीदारी:
- विधायी प्रक्रियाओं और विधिक पहलुओं के बारे में लोगों की समझ सीमित होने से समीक्षा प्रक्रिया का प्रभाव सीमित हो जाता है।
- उदाहरण: आपराधिक कानूनों में सुधार के लिये गठित रणबीर सिंह समिति की कानूनी सुधारों के लिये परामर्श प्रक्रिया में जनता की भागीदारी बहुत सीमित थी, जिससे सुधारों की समावेशिता एवं व्यापकता के बारे में चिंताएँ उत्पन्न हुईं।
भारत में विधिक सुधार से संबंधित संस्थाएँ
- प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC)
- राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग (NCRWC)
- डॉ. रणबीर सिंह के नेतृत्व में आपराधिक कानूनों में सुधार हेतु समिति (2020)।
- भारत का विधि आयोग
आगे की राह
- भारत के विधि आयोग को मज़बूत बनाना: चूंकि भारत में आवधिक विधायी समीक्षा के लिये समर्पित निकायों का अभाव है, इसलिये भारतीय विधि आयोग जैसी संस्थाओं को अधिक स्वतंत्रता एवं संसाधनों के साथ मज़बूत बनाने से विधिक सुधारों की गुणवत्ता एवं स्थिरता में वृद्धि हो सकती है।
- प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: प्रौद्योगिकी से समीक्षा प्रक्रिया उन्नत हो सकती है।
- सार्वजनिक परामर्श के लिये MyGov जैसे प्लेटफॉर्म एवं कानून की प्रभावशीलता के मूल्यांकन हेतु AI जैसे उपकरण, विधि निर्माण में दक्षता के साथ नागरिक सहभागिता में सुधार कर सकते हैं।
- संसाधन आवंटन: सरकार को कार्यान्वयन में सुधार के क्रम में सिविल सेवकों, न्यायाधीशों और कानून प्रवर्तकों के लिये विधिक सुधारों, समीक्षाओं और क्षमता निर्माण कार्यक्रमों हेतु समर्पित बजट आवंटित करना चाहिये।
- अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं को अपनाना: भारत को अपने कानूनों को अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाना (जैसा कि राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) के मामले में देखा गया है) चाहिये, ताकि पर्यावरण और प्रौद्योगिकी प्रशासन जैसे क्षेत्रों में प्रभावशीलता बढ़ाई जा सके।
भारत का विधि आयोग
- यह विधिक सुधारों पर शोध करने एवं सिफारिश करने के लिये एक गैर-सांविधिक सलाहकार निकाय है।
- यह एक निश्चित कार्यकाल तक कार्य करता है तथा सरकार को विधिक मामलों पर सलाह देता है।
- प्रथम विधि आयोग चार्टर अधिनियम,1833 के तहत वर्ष 1834 में गठित हुआ था, जिसकी अध्यक्षता लॉर्ड मैकाले ने की थी। इसके द्वारा भारतीय दंड संहिता (IPC) और दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के संहिताकरण की सिफारिश की गई थी ।
- स्वतंत्र भारत का प्रथम विधि आयोग वर्ष 1955 में गठित किया गया था, जिसके अध्यक्ष एम.सी.सीतलवाड़ थे।
- सितंबर 2024 में 23वें विधि आयोग का गठन तीन वर्ष की अवधि (1 सितंबर 2024 से 31 अगस्त 2027 तक) के लिये किया गया।
- यह अप्रचलित विधियों को निरस्त करने की समीक्षा एवं सिफारिश करने तथा राज्य की नीति के निर्देशक तत्त्वों को लागू करने हेतु नए कानून का प्रस्ताव करने के साथ न्यायिक प्रशासन के मुद्दों पर सरकार को सिफारिशें देता है।
निष्कर्ष
समय-समय पर विधायी समीक्षा को संस्थागत रूप देकर, भारत एक गतिशील विधिक ढाँचे को बढ़ावा दे सकता है जिससे सामाजिक आवश्यकताओं, लोकतांत्रिक आदर्शों एवं वैश्विक मानकों को पूरा किया जा सके। न्यायिक घोषणाएँ और अंतर्राष्ट्रीय प्रथाएँ इस प्रयास में मार्गदर्शक मानदंड के रूप में कार्य करती हैं।
दृष्टि मुख्य प्रश्न: भारत में समय-समय पर विधायी समीक्षा क्यों आवश्यक है तथा कौन सी चुनौतियाँ इसके कार्यान्वयन में बाधक हैं? |
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: C प्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019) 1- भारत के संविधान के 44वें संशोधन द्वारा लाए गए एक अनुच्छेद ने प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायिक पुनरावलोकन से परे कर दिया। उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (b) प्र. भारत के संविधान के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019) 1- किसी भी केंद्रीय विधि को सांविधानिक रूप से अवैध घोषित करने की किसी भी उच्च न्यायालय की अधिकारिता नहीं होगी। उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (d) मेन्सप्रश्न: संवैधानिक नैतिकता' की जड़ संविधान में ही निहित है और इसके तात्त्विक फलकों पर आधारित है। प्रासंगिक न्यायिक निर्णयों की सहायता से 'संवैधानिक नैतिकता' के सिद्धांत की व्याख्या कीजिये। (2021) प्रश्न: न्यायिक विधायन, भारतीय संविधान में परिकल्पित शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का प्रतिपक्षी है। इस संदर्भ में कार्यपालक अधिकरणों को दिशा-निर्देश देने की प्रार्थना करने संबंधी, बड़ी संख्या में दायर होने वाली, लोकहित याचिकाओं का न्याय औचित्य सिद्ध कीजिये। (2020) |