निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस आलेख में जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में निर्वाचन क्षेत्र के परसीमन की चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ

  • जम्मू-कश्मीर राज्य के द्वि-भाजन से जम्मू-कश्मीर और लद्दाख केंद्रशासित प्रदेशों के निर्माण के बाद उनके निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन (Delimitation) करना अपरिहार्य हो गया है।
  • हालाँकि सरकार ने अभी तक औपचारिक रूप से चुनाव आयोग को इसके लिये अधिसूचित नहीं किया है, लेकिन चुनाव आयोग द्वारा जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 और विशेष रूप से परिसीमन संबंधी इसके प्रावधान पर आंतरिक विचार-विमर्श किया गया है।

परिसीमन क्या है तथा इसकी आवश्यकता क्यों है?

  • लोकसभा और राज्य विधानसभा सीटों की सीमाओं को पुनर्निर्धारित करने के कार्य को परिसीमन कहते हैं जिसका उद्देश्य परिवर्तित जनसंख्या का समान प्रतिनिधित्व तय करना होता है।
  • इस प्रक्रिया के कारण लोकसभा में अलग-अलग राज्यों को आवंटित सीटों की संख्या और किसी विधानसभा की कुल सीटों की संख्या में परिवर्तन भी आ सकता है।
  • परिसीमन का मुख्य उद्देश्य जनसंख्या के समान खंडों को समान प्रतिनिधित्व प्रदान करना है।
  • इसका लक्ष्य भौगोलिक क्षेत्रों का उचित विभाजन करना भी है ताकि चुनाव में एक राजनीतिक दल को दूसरों पर अनुपयुक्त लाभ की स्थिति प्राप्त न हो।

विधिक दर्जा

  • परिसीमन का कार्य एक स्वतंत्र परिसीमन आयोग (Delimitation Commission- DC) द्वारा किया जाता है।
  • संविधान इसके आदेश को अंतिम घोषित करता है और इसे किसी भी न्यायालय के समक्ष प्रश्नगत नहीं किया जा सकता क्योंकि यह अनिश्चितकाल के लिये चुनाव को बाधित करेगा।

परिसीमन आयोग (Delimitation Commission)

अनुच्छेद 82 के तहत संसद प्रत्येक जनगणना के बाद एक परिसीमन अधिनियम लागू करती है। अधिनियम लागू होने के बाद, परिसीमन आयोग की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा यह आयोग निर्वाचन आयोग के साथ मिलकर कार्य करता है।

संघटन

  • सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश
  • मुख्य निर्वाचन आयुक्त
  • संबंधित राज्य के निर्वाचन आयुक्त

कार्य

  • सभी निर्वाचन क्षेत्रों की जनसंख्या को समान करने के लिये निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या और सीमा को निर्धारित करना।
  • ऐसे क्षेत्र जहाँ सापेक्षिक रूप से अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या अधिक है, को उनके लिये आरक्षित करना।
  • यदि आयोग के सदस्यों के विचारों में मतभेद है तो निर्णय बहुमत के आधार पर लिया जाएगा।
  • भारत का परसीमन आयोग एक शक्तिशाली निकाय है जिसके निर्णय क़ानूनी रूप से लागू किये जाते हैं तथा ये निर्णय किसी भी न्यायालय में वाद योग्य नहीं होते।
  • ये सभी निर्धारण नवीनतम जनगणना के आँकड़े के आधार पर किये जाते हैं।

कार्यान्वयन

  • परिसीमन आयोग के मसौदा प्रस्तावों को सार्वजनिक प्रतिक्रिया के लिये भारत के राजपत्र, संबंधित राज्यों के आधिकारिक राजपत्रों और कम से कम दो राष्ट्रीय समाचार पत्रों में प्रकाशित किया जाता है।
  • आयोग द्वारा सार्वजनिक बैठकों का आयोजन भी किया जाता है।
  • जनता की बात सुनने के बाद यह बैठकों के दौरान लिखित या मौखिक रूप से प्राप्त आपत्तियों और सुझावों पर विचार करता है और यदि आवश्यक समझता है तो मसौदा प्रस्ताव में इस बाबत परिवर्तन करता है।
  • अंतिम आदेश भारत के राजपत्र और राज्य के राजपत्र में प्रकाशित किया जाता है तथा राष्ट्रपति द्वारा निर्दिष्ट तिथि से लागू होता है।

अतीत में कितनी बार परिसीमन किया गया है?

  • वर्ष 1950-51 में राष्ट्रपति द्वारा (चुनाव आयोग की सहायता से) पहला परिसीमन कार्य किया गया था।
  • उस समय संविधान में इस बात का प्रावधान नहीं था कि लोकसभा सीटों में राज्यों के विभाजन का कार्य कौन करेगा।
  • यह परिसीमन अल्पावधिक और अस्थायी रहा क्योंकि संविधान में प्रत्येक जनगणना के बाद सीमाओं के पुनर्निर्धारण का प्रावधान किया गया था। अतः वर्ष 1951 की जनगणना के बाद एक और परिसीमन की स्थिति बनी।

परिसीमन आयोग को अधिक स्वतंत्रता क्यों?

  • भारतीय निर्वाचन आयोग ने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा कि पहले परिसीमन ने कई राजनीतिक दलों और व्यक्तियों को असंतुष्ट किया है, साथ ही सरकार को सलाह दी गई कि भविष्य के सभी परिसीमन एक स्वतंत्र आयोग द्वारा किये जाने चाहिये।
  • इस सुझाव को स्वीकार कर लिया गया और वर्ष 1952 में परिसीमन अधिनियम लागू किया गया।
  • वर्ष 1952, 1962, 1972 और 2002 के अधिनियमों के तहत चार बार वर्ष 1952, 1963, 1973 और 2002 में परिसीमन आयोग गठित हुए।
  • वर्ष 1981 और 1991 की जनगणना के बाद कोई परिसीमन का कार्य नहीं हुआ।

वर्ष 2002 के परिसीमन का गठन क्यों नहीं?

  • संविधान में प्रावधान है कि किसी राज्य को आवंटित लोकसभा सीटों की संख्या इतनी होगी कि इस संख्या और राज्य की जनसंख्या के बीच का अनुपात (जहाँ तक व्यावहारिक हो) सभी राज्यों के लिये एकसमान हो।
  • किंतु इस प्रावधान का तात्पर्य यह भी निकलता है कि जनसंख्या नियंत्रण में बहुत कम रुचि रखने वाले राज्यों को संसद में अवांछित रूप से अधिकाधिक सीटें मिलती जाएंगी।
  • परिवार नियोजन को बढ़ावा देने वाले दक्षिणी राज्यों को अपनी सीटें कम होने की संभावना का सामना करना पड़ सकता है।
  • इन आशंकाओं को दूर करने के लिये वर्ष 1976 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान संविधान में संशोधन कर परिसीमन को वर्ष 2001 तक के लिये स्थगित कर दिया गया।
  • इस प्रतिबंध के बावजूद कुछ ऐसे अवसर भी आए जब किसी राज्य को आवंटित संसद और विधानसभा सीटों की संख्या में पुन: परिवर्तन किया गया।
  • इनमें अरुणाचल प्रदेश और मिज़ोरम द्वारा वर्ष 1986 में राज्य का दर्जा प्राप्त करना, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली के लिये एक विधानसभा का निर्माण और उत्तराखंड जैसे नए राज्यों का निर्माण शामिल है।

परिसीमन वर्ष 2026 तक स्थगित क्यों?

  • यद्यपि लोकसभा और विधानसभाओं में सीटों की संख्या में परिवर्तन पर रोक को वर्ष 2001 की जनगणना के बाद हटा दिया जाना था, लेकिन एक अन्य संशोधन द्वारा इसे वर्ष 2026 तक के लिये स्थगित कर दिया गया।
  • इसे इस आधार पर उचित बताया गया कि वर्ष 2026 तक पूरे देश में एकसमान जनसंख्या वृद्धि दर हासिल हो जाएगी।
  • इस प्रकार अंतिम परिसीमन अभ्यास (जो जुलाई 2002 में शुरू होकर 31 मई, 2008 को संपन्न हुआ) वर्ष 2001 की जनगणना पर आधारित था और इसने केवल पहले से मौजूद लोकसभा और विधानसभा सीटों की सीमाओं को पुनः समायोजित किया तथा आरक्षित सीटों की संख्या को पुनः निर्धारित किया।

जम्मू-कश्मीर हेतु परिसीमन चर्चा में क्यों?

  • जम्मू-कश्मीर की लोकसभा सीटों का परिसीमन भारतीय संविधान द्वारा शासित है, लेकिन इसकी विधानसभा सीटों का परिसीमन (हाल ही में विशेष दर्जा समाप्त होने से पहले तक) जम्मू-कश्मीर के संविधान और जम्मू-कश्मीर जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1957 द्वारा अलग से शासित था।
  • जहाँ तक ​​लोकसभा सीटों के परिसीमन का प्रश्न है, वर्ष 2002 के अंतिम परिसीमन आयोग को यह काम नहीं सौंपा गया था। इसलिये जम्मू-कश्मीर की संसदीय सीटें वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर परिसीमित बनी रहीं।
  • विधानसभा सीटों के लिये यद्यपि जम्मू-कश्मीर का संविधान और जम्मू-कश्मीर जन प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1957 के परिसीमन प्रावधान भारतीय संविधान और परिसीमन अधिनियम के ही समान हैं, लेकिन उनमें जम्मू-कश्मीर के लिये एक अलग परिसीमन आयोग का प्रावधान है।
  • अन्य राज्यों के लिये गठित केंद्रीय परिसीमन आयोग की सहायता जम्मू-कश्मीर द्वारा भी वर्ष 1963 और 1973 में ली गई थी।
  • वर्ष 1976 के संविधान संशोधन द्वारा शेष भारत के लिये परिसीमन को वर्ष 2001 तक के लिये स्थगित कर दिया गया था, लेकिन जम्मू-कश्मीर के संविधान में ऐसा कोई संशोधन नहीं लाया गया।
  • अतः देश के शेष भागों के विपरीत जम्मू-कश्मीर की विधानसभा सीटें वर्ष 1981 की जनगणना के आधार पर परिसीमित की गईं और उसके आधार पर ही वर्ष 1996 का राज्य विधानसभा चुनाव संपन्न हुआ।
  • वर्ष 1991 में राज्य में जनगणना कार्य नहीं हुआ और वर्ष 2001 की जनगणना के बाद राज्य सरकार द्वारा कोई परिसीमन आयोग गठित नहीं किया गया था क्योंकि जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने वर्ष 2026 तक नए परिसीमन पर रोक के लिये एक अधिनियम पारित कर दिया था। इस रोक को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बरकरार रखा गया।
  • जम्मू-कश्मीर विधानसभा में 87 सीटें हैं - कश्मीर में 46, जम्मू में 37 और लद्दाख में 4 सीटें तथा 24 सीटें पाक अधिकृत कश्मीर (PoK) के लिये आरक्षित हैं। कुछ राजनीतिक दल आरोप लगाते हैं कि परिसीमन पर इस रोक से जम्मू क्षेत्र के लिये असमानता की स्थिति उत्पन्न हुई है।
  • अगस्त माह में केंद्र सरकार ने जम्मू-कश्मीर राज्य की विशेष स्थिति को समाप्त कर दिया और जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश में रूपांतरित कर दिया। इस अधिनियम के अंतर्गत, जम्मू-कश्मीर केंद्रशासित प्रदेश में लोकसभा और विधानसभा सीटों का परिसीमन अब भारतीय संविधान के प्रावधानों के अनुसार होगा।
  • अधिनियम में यह भी कहा गया है कि अगले परिसीमन अभ्यास में (जिसके जल्द ही शुरू होने की उम्मीद है) विधानसभा सीटों की संख्या 107 से बढ़कर 114 हो जाएगी। सीटों में इस वृद्धि से जम्मू क्षेत्र को लाभ होगा।

प्रश्न: भारत में परिसीमन के दीर्घकाल से लंबित होने के क्या कारण हैं? जम्मू-कश्मीर में निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के संदर्भ में चर्चा कीजिये।