शासन व्यवस्था
पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा), 1996
प्रिलिम्स के लियेपेसा अधिनियम, 1996, विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह मेन्स के लियेपेसा अधिनियम की विशेषताएँ एवं इससे जुड़ी समस्याएँ, भारत में आदिम जनजातीय समूहों की स्थिति |
चर्चा में क्यों?
झारखंड के अधिकांश क्षेत्रों से आदिवासी स्वशासन प्रणाली समाप्त हो गई है।
- भारतीय इतिहास के समय में अधिकांश आदिवासियों (भारत के आदिवासी समुदायों) की अपनी संघीय शासन प्रणाली थी। हालाँकि औपनिवेशिक काल के दौरान तथा स्वतंत्रता के पश्चात् की प्रशासनिक व्यवस्था ने आदिवासी शासन प्रणाली को काफी हद तक प्रभावित किया है।
- पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम , 1996 को पारंपरिक निर्णय लेने की प्रक्रिया को बनाए रखना था।
प्रमुख बिंदु
केस स्टडी - झारखंड की जनजातीय शासन प्रणाली:
- वर्ष 2000 में झारखंड को बिहार के दक्षिणी भाग से अलग कर भारत के 28वें राज्य के रूप में बनाया गया था।
- यह भाग भूगोल और सामाजिक संरचना की दृष्टि से बिहार के उत्तरी भाग से विशिष्ट रूप से भिन्न था।
- इसमें 32 विभिन्न जनजातियाँ हैं, जिनमें नौ विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTG) शामिल हैं।
- 2001 की जनगणना के अनुसार, संथाल (34%), उरांव (19.6%), मुंडा (14.8%) और हो (10.5%) संख्या के मामले में प्रमुख जनजातियों में से हैं।
- राज्य में प्रमुख जनजातीय समुदायों में संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को तीन कार्यात्मक स्तरों में संगठित किया गया था।
- पहला ग्राम स्तर पर है; दूसरा पाँच-छह ग्राम स्तरों के समूह में तथा तीसरा सामुदायिक स्तर पर।
- निर्णय लेने की इन प्रक्रियाओं को जन-केंद्रित और लोकतांत्रिक माना जाता था, हालाँकि महिलाओं को ज़्यादातर ऐसी प्रक्रियाओं में भाग लेने की अनुमति नहीं थी।
- उनकी अपनी शासन प्रणाली थी, जो जाति व्यवस्था के विपरीत गैर-श्रेणीबद्ध थी। प्रत्येक आदिवासी गाँव में स्वशासन की मूल इकाई के रूप में एक ग्राम परिषद होती थी।
- ये मंच प्रशासन, संसद और न्यायपालिका से संबंधित सभी मामलों के लिये निर्णय लेने वाले निकायों के रूप में कार्य करते थे।
- प्रशासनिक मामले गाँव के सामान्य (जैसे भूमि, जंगल और जल निकाय), श्रम साझाकरण, कृषि गतिविधियों, धार्मिक आयोजनों और त्योहारों आदि के रखरखाव से संबंधित थे।
- संसदीय मामले मानदंडों और अलिखित कानूनों और पारंपरिक मूल्यों को बनाए रखने व व्याख्या करने से संबंधित थे।
- न्यायपालिका के मामले अलिखित मानदंडों और मूल्यों द्वारा निर्देशित संघर्ष, अनुशासनात्मक कार्रवाइयों आदि के प्रबंधन से संबंधित थे।
- व्यवस्था का क्रमिक पतनः वर्ष 1947 में बिहार पंचायत राज व्यवस्था (BPRS) की शुरुआत के बाद ये आदिवासी पारंपरिक शासन प्रणाली कमज़ोर हो गई।
- गैर-आदिवासी क्षेत्रों को ध्यान में रखते हुए BPRS का गठन किया गया था।
- परिणामस्वरूप गैर-प्राथमिकता और उपेक्षा के कारण पारंपरिक शासन प्रणाली की प्रक्रिया प्रभावित हुई।
- यह औद्योगीकरण, आदिवासियों के विस्थापन और शहरीकरण से बढ़ गया था।
पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) विधेयक,1996 के बारे में:
- ग्रामीण भारत में स्थानीय स्वशासन को बढ़ावा देने हेतु वर्ष 1992 में 73वाँ संविधान संशोधन पारित किया गया।
- इस संशोधन द्वारा त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्था के लिये कानून बनाया गया।
- हालांँकि अनुच्छेद 243 (M) के तहत अनुसूचित और आदिवासी क्षेत्रों में इस कानून का आवेदन प्रतिबंधित था।
- वर्ष 1995 में भूरिया समिति की सिफारिशों के बाद भारत के अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिये स्व-शासन सुनिश्चित करने हेतु पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) विधेयक,1996 अस्तित्व में आया।
- पेसा ने ग्राम सभा को पूर्ण शक्तियाँ प्रदान की, जबकि राज्य विधायिका पंचायतों और ग्राम सभाओं के समुचित कार्य को सुनिश्चित करने हेतु एक सलाहकार की भूमिका में है।
- पेसा को भारत में आदिवासी कानून की रीढ़ माना जाता है।
- पेसा निर्णय लेने की प्रक्रिया की पारंपरिक प्रणाली को मान्यता देता है और लोगों की स्वशासन की भागीदारी सुनिश्चित करता है।
- ग्राम सभाओं को निम्नलिखित शक्तियांँ और कार्य प्रदान किये गए हैं:
- भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और विस्थापित व्यक्तियों के पुनर्वास में अनिवार्य परामर्श का अधिकार।
- पारंपरिक आस्था और आदिवासी समुदायों की संस्कृति का संरक्षण।
- लघु वन उत्पादों का स्वामित्व।
- स्थानीय विवादों का समाधान।
- भूमि अलगाव की रोकथाम।
- गांव के बाजारों का प्रबंधन।
- शराब के उत्पादन, आसवन और निषेध को नियंत्रित करने का अधिकार।
- साहूकारों पर नियंत्रण का अधिकार।
- अनुसूचित जनजातियों से संबंधित कोई अन्य अधिकार।
पेसा से संबंधित मुद्दे:
- राज्य सरकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे इस राष्ट्रीय कानून के अनुरूप अपने अनुसूचित क्षेत्रों के लिये राज्य स्तरीय कानून बनाएँ।
- इसके परिणामस्वरूप पेसा आंशिक रूप से कार्यान्वित हुआ है।
- आंशिक कार्यान्वयन ने आदिवासी क्षेत्रों में, जैसे- झारखंड में स्वशासन को खराब कर दिया है।
- कई विशेषज्ञों ने दावा किया है कि पेसा स्पष्टता की कमी, कानूनी दुर्बलता, नौकरशाही उदासीनता, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी, सत्ता के पदानुक्रम में परिवर्तन के प्रतिरोध आदि के कारण सफल नहीं हुआ।
- राज्य भर में किये गए सोशल ऑडिट में यह भी बताया गया है कि वास्तव में विभिन्न विकास योजनाओं को ग्राम सभा द्वारा केवल कागज़ पर अनुमोदित किया जा रहा था, वास्तव में चर्चा और निर्णय लेने के लिये कोई बैठक नहीं हुई थी।
भारत की जनजातीय नीति
- भारत में अधिकांश जनजातियों को सामूहिक रूप से अनुच्छेद 342 के तहत ‘अनुसूचित जनजाति’ के रूप में मान्यता दी गई है।
- भारतीय संविधान के भाग X: अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्र में निहित अनुच्छेद 244 (अनुसूचित क्षेत्रों और जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन) द्वारा इन्हें आत्मनिर्णय के अधिकार (Right to Self-determination) की गारंटी दी गई है।
- संविधान की 5वीं अनुसूची में अनुसूचित और जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन एवं नियंत्रण तथा छठी अनुसूची में असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम राज्यों के जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन संबंधी उपबंध किये गए हैं।
- पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम 1996 या पेसा अधिनियम।
- जनजातीय पंचशील नीति।
- अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 वन में रहने वाले समुदायों के भूमि और अन्य संसाधनों के अधिकारों से संबंधित है।
आगे की राह
- यदि पेसा अधिनियम को अक्षरश: लागू किया जाता है, तो यह आदिवासी क्षेत्र में मरती हुई स्वशासन प्रणाली को फिर से जीवंत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।
- यह पारंपरिक शासन प्रणाली में खामियों को दूर करने और इसे अधिक लिंग-समावेशी एवं लोकतांत्रिक बनाने का अवसर भी देगा।
स्रोत: डाउन टू अर्थ
भारतीय राजव्यवस्था
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची
प्रिलिम्स के लिये:लोकसभा, आठवीं अनुसूची, अनुच्छेद 343-351 मेन्स के लिये:शास्त्रीय भाषाओं से संबंधित दिशा-निर्देश |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय शिक्षा मंत्री द्वारा लोकसभा में आठवीं अनुसूची में भाषाओं को बढ़ाने से संबंधित सरकार द्वारा उठाए गए विभिन्न कदमों की जानकारी दी।
प्रमुख बिंदु
आठवीं अनुसूची:
- आठवीं अनुसूची के बारे में:
- इस अनुसूची में भारत गणराज्य की आधिकारिक भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया है। भारतीय संविधान के भाग XVII में अनुच्छेद 343 से 351 तक शामिल अनुच्छेद आधिकारिक भाषाओं से संबंधित हैं।
- आठवीं अनुसूची से संबंधित संवैधानिक प्रावधान इस प्रकार हैं:
- अनुच्छेद 344: अनुच्छेद 344(1) संविधान के प्रारंभ से पांँच वर्ष की समाप्ति पर राष्ट्रपति द्वारा एक आयोग के गठन का प्रावधान करता है।
- अनुच्छेद 351: यह हिंदी भाषा को विकसित करने के लिये इसके प्रसार का प्रावधान करता है ताकि यह भारत की मिश्रित संस्कृति के सभी तत्त्वों के लिये अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में कार्य कर सके।
- हालांँकि यह ध्यान देने योग्य है कि किसी भी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिये कोई निश्चित मानदंड निर्धारित नहीं है।
- आधिकारिक भाषाएँ:
- संविधान की आठवीं अनुसूची में निम्नलिखित 22 भाषाएँ शामिल हैं:
- असमिया, बांग्ला, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगू, उर्दू, बोडो, संथाली, मैथिली और डोगरी।
- इन भाषाओं में से 14 भाषाओं को संविधान के प्रारंभ में ही शामिल कर लिया गया था।
- वर्ष 1967 में सिंधी भाषा को 21वें सविधान संशोधन अधिनियम द्वारा आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया था।
- वर्ष 1992 में 71वें संशोधन अधिनियम द्वारा कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली को शामिल किया गया।
- वर्ष 2003 में 92वें सविधान संशोधन अधिनियम जो कि वर्ष 2004 से प्रभावी हुआ, द्वारा बोडो, डोगरी, मैथिली और संथाली को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया।
- संविधान की आठवीं अनुसूची में निम्नलिखित 22 भाषाएँ शामिल हैं:
शास्त्रीय भाषाएँ:
- परिचय:
- वर्तमान में ऐसी छह भाषाएँ हैं जिन्हें भारत में 'शास्त्रीय भाषा' का दर्जा प्राप्त है:
- तमिल (2004 में घोषित), संस्कृत (2005), कन्नड़ (2008), तेलुगू (2008), मलयालम (2013) और ओडिया (2014)।
- सभी शास्त्रीय भाषाएँ संविधान की आठवीं अनुसूची में सूचीबद्ध हैं।
- वर्तमान में ऐसी छह भाषाएँ हैं जिन्हें भारत में 'शास्त्रीय भाषा' का दर्जा प्राप्त है:
- दिशा-निर्देश:
- संस्कृति मंत्रालय शास्त्रीय भाषाओं के संबंध में दिशा-निर्देश प्रदान करता है जो नीचे दिये गए हैं:
- इसके प्रारंभिक ग्रंथों का इतिहास 1500-2000 वर्ष से अधिक पुराना हो।
- प्राचीन साहित्य/ग्रंथों का एक हिस्सा हो जिसे बोलने वाले लोगों की पीढ़ियों द्वारा एक मूल्यवान विरासत माना जाता हो।
- साहित्यिक परंपरा में मौलिकता हो जो किसी अन्य भाषिक समुदाय द्वारा न ली गई हो।
- शास्त्रीय भाषा और साहित्य, आधुनिक भाषा व साहित्य से भिन्न हैं, इसलिये इसके बाद के रूपों के बीच असमानता भी हो सकती है।
- संस्कृति मंत्रालय शास्त्रीय भाषाओं के संबंध में दिशा-निर्देश प्रदान करता है जो नीचे दिये गए हैं:
- प्रचार का लाभ: मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुसार, किसी भाषा को शास्त्रीय भाषा के रूप में अधिसूचित करने से प्राप्त होने वाले लाभ इस प्रकार हैं-
- भारतीय शास्त्रीय भाषाओं में प्रख्यात विद्वानों के लिये दो प्रमुख वार्षिक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों का वितरण।
- शास्त्रीय भाषाओं में अध्ययन के लिये उत्कृष्टता केंद्र स्थापित किया गया है।
- मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से अनुरोध किया है कि वह केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शास्त्रीय भाषाओं के पेशेवर अध्यक्षों के कुछ पदों की घोषणा करे।
स्रोत: पी.आई.बी.
भारतीय राजव्यवस्था
निवारक निरोध पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
प्रिलिम्स के लिये:निवारक निरोध, सर्वोच्च न्यायालय मेन्स के लिये:निवारक निरोध से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने फैसला सुनाया कि एक निवारक निरोध आदेश केवल तभी पारित किया जा सकता है जब बंदी के कारण सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना हो।
- सुप्रीम कोर्ट ने सरकारों और अन्य अदालतों को निवारक नज़रबंदी के तहत नज़रबंदी से निपटने के लिये भी निर्देश दिया।
प्रमुख बिंदु:
- सार्वजनिक व्यवस्था के लिये निवारक निरोध: अदालत ने माना कि यह विवादित नहीं हो सकता है कि डिटेनू एक 'सफेदपोश अपराधी' हो सकता है और यदि उसे मुक्त कर दिया जाता है, तो भोले-भाले व्यक्तियों को धोखा देना जारी रखेगा।
- हालाँकि निवारक निरोध आदेश केवल तभी पारित किया जा सकता है जब उसकी गतिविधियाँ सार्वजनिक व्यवस्था के रखरखाव पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं या प्रतिकूल रूप से प्रभावित करने की संभावना है।
- 'सार्वजनिक आदेश' शब्द पर स्पष्टता: निवारक निरोध केवल सार्वजनिक अव्यवस्था को रोकने के लिये एक आवश्यक बुराई है, लेकिन निवारक निरोध कानून के संदर्भ में सार्वजनिक व्यवस्था की स्थिति में इसे अभिव्यक्ति से जोड़कर उदार अर्थ में नहीं लिया जा सकता है।
- कानून का उल्लंघन, जैसे- धोखाधड़ी या आपराधिक विश्वासघात में शामिल होना, निश्चित रूप से 'कानून और व्यवस्था' को प्रभावित करता है।
- हालाँकि जब यह समुदाय या जनता को बड़े पैमाने पर प्रभावित करता है तभी इसे 'सार्वजनिक व्यवस्था' को प्रभावित करना कहा जा सकता है।
- सरकार को निर्देश: राज्य को उन सभी एवं विविध "कानून और व्यवस्था" संबंधी समस्याओं से निपटने के लिये मनमाने ढंग से "निवारक निरोध" का सहारा नहीं लेना चाहिये, जिनसे देश के सामान्य कानूनों द्वारा निपटा जा सकता है।
- न्यायालयों को निर्देश: निवारक निरोध के तहत वैधता तय करने हेतु अदालतों से प्रश्न पूछा जाना चाहिये:
- क्या देश का सामान्य कानून स्थिति से निपटने के लिये पर्याप्त था? यदि उत्तर सकारात्मक है, तो निरोध आदेश अवैध होगा।
- उदाहरण के लिये सड़क पर लड़ रहे दो शराबियों के मामले में अदालत कहती है कि यह कानून और व्यवस्था की समस्या थी, न कि 'सार्वजनिक अव्यवस्था' का तो यहाँ समाधान निवारक निरोध नहीं है।
- निवारक निरोध स्वतंत्रता को कमज़ोर करता है: एक नागरिक की स्वतंत्रता उसका सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकार है जिसे हमारे पूर्वजों ने लंबे समय से ऐतिहासिक और कठिन संघर्षों के बाद जीता है।
- यदि निवारक निरोध की शक्ति को एक सीमा तक सीमित नहीं किया जाता है, तो स्वतंत्रता का अधिकार निरर्थक हो जाएगा यानी उसका कोई मूल्य या महत्त्व नहीं रह जाएगा।
- इसलिये निवारक निरोध अनुच्छेद 21 (कानून की उचित प्रक्रिया) के दायरे में आना चाहिये और इसे अनुच्छेद 22 (मनमाने ढंग से गिरफ्तारी और निरोध के खिलाफ सुरक्षा) तथा विचाराधीन कानून के साथ पढ़ा जाना चाहिये।
व्हाइट कॉलर क्राइम बनाम ब्लू कॉलर क्राइम
- व्हाइट कॉलर क्राइम: यह व्यक्तियों, व्यवसायों और सरकारी पेशेवरों द्वारा आर्थिक रूप से प्रेरित अहिंसक अपराध को दर्शाता है।
- इन अपराधों में छल और विश्वास का उल्लंघन प्रमुख है।
- व्हाइट कॉलर क्राइम के उदाहरणों में प्रतिभूति धोखाधड़ी, कॉर्पोरेट धोखाधड़ी और मनी लॉन्ड्रिंग, पिरामिड योजनाएँ आदि शामिल हैं।
- इस प्रकार के अपराधों को शिक्षित और संपन्न लोगों से जोड़कर देखा जाता है।
- यह शब्द पहली बार वर्ष 1949 में समाजशास्त्री एडविन सदरलैंड द्वारा प्रस्तुत किया गया था।
- ब्लू कॉलर क्राइम: ये अपराध मुख्य रूप से छोटे पैमाने पर होते हैं, जिसमें शामिल व्यक्ति या समूह को तत्काल लाभ होता है।
- इसमें व्यक्तिगत अपराध भी शामिल हो सकते हैं जो तत्काल प्रतिक्रिया से प्रेरित हो सकते हैं, जैसे कि झगड़े या टकराव आदि।
- इन अपराधों में नारकोटिक उत्पादन या वितरण, यौन हमला, चोरी, सेंधमारी, हत्या आदि को शामिल किया जा सकता है।
निवारक निरोध
संवैधानिक प्रावधान:
- अनुच्छेद 22 गिरफ्तार या हिरासत (निरोध) में लिये गए व्यक्तियों को सुरक्षा प्रदान करता है। निरोध दो प्रकार का होता है- दंडात्मक और निवारक।
- दंडात्मक निरोध का आशय किसी व्यक्ति को उसके द्वारा किये गए अपराध के लिये अदालत में मुकदमे और दोषसिद्धि के बाद दंडित करने से है।
- वहीं दूसरी ओर, निवारक निरोध का अर्थ किसी व्यक्ति को बिना किसी मुकदमे और अदालत द्वारा दोषसिद्धि के हिरासत में लेने से है।
- अनुच्छेद 22 के दो भाग हैं- पहला भाग साधारण कानून के मामलों से संबंधित है और दूसरा भाग निवारक निरोध कानून के मामलों से संबंधित है।
दंडात्मक निरोध के तहत दिये गए अधिकार |
निवारक निरोध के तहत दिये गए अधिकार |
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नोट: वर्ष 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम ने एक सलाहकार बोर्ड की राय प्राप्त किये बिना नज़रबंदी की अवधि को तीन से घटाकर दो महीने कर दिया है। हालाँकि यह प्रावधान अभी तक लागू नहीं किया गया है, इसलिये तीन महीने की मूल अवधि अभी भी जारी है।
संसद द्वारा बनाए गए निवारक निरोध कानून हैं:
- निवारक निरोध अधिनियम, 1950 जो वर्ष 1969 में समाप्त हो गया।
- आंतरिक सुरक्षा का रखरखाव अधिनियम (मीसा), 1971, इसे वर्ष 1978 में निरस्त किया गया।
- विदेशी मुद्रा संरक्षण और तस्करी गतिविधियों की रोकथाम अधिनियम (COFEPOSA), 1974.
- राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए), 1980
- कालाबाज़ारी की रोकथाम और आवश्यक वस्तु की आपूर्ति का रखरखाव अधिनियम (PBMSECA), 1980.
- आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (टाडा), 1985, वर्ष 1995 में निरस्त किया गया।
- नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट (PITNDPSA), 1988 में अवैध यातायात की रोकथाम।
- आतंकवाद निरोधक अधिनियम (पोटा), 2002 को वर्ष 2004 में निरस्त किया गया।
भारत में निवारक निरोध कानूनों से संबंधित मुद्दे:
- दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश ने निवारक निरोध को संविधान के अभिन्न अंग के रूप में नहीं अपनाया है जैसा कि भारत में किया गया है।
- सरकारें कभी-कभी ऐसे कानूनों का उपयोग एक अतिरिक्त न्यायिक शक्ति के रूप में करती हैं। साथ ही इससे मनमानी गिरफ्तारी का भी भय बना रहता है।
स्रोत- इंडियन एक्सप्रेस
भारतीय राजव्यवस्था
राज्यपाल की क्षमादान शक्ति और CrPC की धारा 433A
प्रिलिम्स के लियेराज्यपाल की क्षमादान शक्ति, CrPC की धारा 433A मेन्स के लियेराष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान शक्ति का महत्त्व और उसकी ओवरराइडिंग क्षमता |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने माना कि राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति, ‘दंड प्रक्रिया संहिता’ (CrPC) की धारा 433A से अधिक है।
- इससे पहले जनवरी 2021 में दया याचिका के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल राज्य मंत्रिपरिषद की सिफारिश को अस्वीकार नहीं कर सकता है, हालाँकि निर्णय लेने के लिये कोई समयसीमा निर्धारित नहीं की गई है।
प्रमुख बिंदु
धारा 433A को अतिव्यापन करती है क्षमादान शक्ति:
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल 14 वर्ष की जेल होने से पूर्व भी कैदियों को क्षमादान दे सकता है।
- इस प्रकार क्षमादान करने की राज्यपाल की शक्ति CrPC की धारा 433A के तहत किये गए प्रावधान को अतिव्यापन करती है, जिसमें कहा गया है कि कैदी को 14 वर्ष की जेल के बाद ही माफ किया जा सकता है।
- धारा 433A में कहा गया है कि जहाँ किसी व्यक्ति को अपराध के लिये दोषी ठहराए जाने पर आजीवन कारावास की सज़ा दी जाती है और जिसके लिये मृत्युदंड, कानून द्वारा प्रदान की गई सज़ा में से एक है या जहाँ किसी व्यक्ति को दी गई मौत की सज़ा को धारा 433 के तहत बदल दिया गया है। ऐसे में आजीवन कारावास के तहत व्यक्ति को तब तक जेल से रिहा नहीं किया जाएगा जब तक कि उसने कम-से-कम चौदह वर्ष के कारावास की सज़ा न काट ली हो।
- धारा 433A किसी भी स्थिति में संविधान के अनुच्छेद 72 या 161 के तहत राष्ट्रपति/राज्यपाल को क्षमादान देने की संवैधानिक शक्ति को प्रभावित नहीं कर सकती है।
राज्य सरकार द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्ति:
- न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 161 के तहत एक कैदी को क्षमा करने की राज्यपाल की संप्रभु शक्ति वास्तव में राज्य सरकार द्वारा प्रयोग की जाती है।
- सरकार की सलाह राज्य के उपराज्यपाल के लिये बाध्यकारी होती है।
लघुकरण का क्रम:
- लघुकरण और रिहाई की कार्रवाई इस प्रकार एक सरकारी निर्णय के अनुसार हो सकती है और राज्यपाल की मंज़ूरी के बिना भी आदेश जारी किया जा सकता है।
- राज्य सरकार CrPC की धारा 432 या संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत छूट देने की नीति बना सकती है।
- यदि कोई कैदी 14 वर्ष से अधिक समय तक कारावास में रह चुका है, तो राज्य सरकार समय से पहले रिहाई का आदेश पारित करने में सक्षम है।
- दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 432 सरकार को सज़ा माफ करने का अधिकार देती है।
क्षमादान की शक्ति:
- भारत में राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति:
- संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति को अपराध के लिये दोषी ठहराए गए किसी भी व्यक्ति की सज़ा को माफ करने, राहत देने, छूट देने या निलंबित करने, हटाने या कम करने की शक्ति होगी, जहाँ दंड मौत की सज़ा के रूप में है।
- सीमाएँ:
- राष्ट्रपति सरकार से स्वतंत्र होकर अपनी क्षमादान की शक्ति का प्रयोग नहीं कर सकता।
- कई मामलों में SC ने निर्णय सुनाया है कि राष्ट्रपति को दया याचिका पर फैसला करते समय मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना होता है। इन मामलों में वर्ष 1980 का मारू राम बनाम भारत संघ और वर्ष 1994 में धनंजय चटर्जी बनाम पश्चिम बंगाल राज्य शामिल हैं।
- पुनर्विचार:
- हालाँकि राष्ट्रपति मंत्रिमंडल से सलाह लेने के लिये बाध्य है, अनुच्छेद 74 (1) उसे एक बार पुनर्विचार के लिये इसे वापस करने का अधिकार देता है। यदि मंत्रिपरिषद किसी परिवर्तन के विरुद्ध निर्णय लेती है, तो राष्ट्रपति के पास उसे स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
राज्यपाल की क्षमादान शक्ति:
- अनुच्छेद 161:
- राज्य के राज्यपाल के पास किसी ऐसे मामले से संबंधित किसी भी कानून के खिलाफ किसी भी अपराध के लिये दोषी ठहराए गए व्यक्ति की सज़ा को माफ करने, राहत देने, राहत या छूट देने या निलंबित करने, हटाने या कम करने की शक्ति होगी।
राष्ट्रपति और राज्यपाल की क्षमादान शक्तियों के बीच अंतर:
- अनुच्छेद 72 के तहत राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति का दायरा अनुच्छेद 161 के तहत राज्यपाल की क्षमादान शक्ति से अधिक व्यापक है जो निम्नलिखित दो तरीकों से भिन्न है:
- कोर्ट मार्शल: कोर्ट मार्शल के तहत राष्ट्रपति सजा प्राप्त व्यक्ति की सजा माफ़ कर सकता है परंतु अनुच्छेद 161 राज्यपाल को ऐसी कोई शक्ति प्रदान नहीं करता है।
- मौत की सजा: राष्ट्रपति उन सभी मामलों में क्षमादान दे सकता है जहाँ दी गई सजा मौत की सजा है लेकिन राज्यपाल की क्षमादान शक्ति मौत की सजा के मामलों तक विस्तारित नहीं होती है।
शर्तें
- क्षमा: इसमें दंडादेश और दोषसिद्धि दोनों से मुक्ति देना शामिल है। ध्यातव्य है कि राज्यपाल मृत्युदंड को माफ़ नहीं सकता है, यह शक्ति केवल ‘राष्ट्रपति’ को ही प्राप्त है हालाँकि, राज्यपाल उक्त अपराध के फलस्वरूप अल्प सज़ा का प्रावधान कर सकता है।
- लघुकरण: इसमें दंड के स्वरुप को बदलकर कम करना शामिल है, उदाहरण के लिये मृत्युदंड को आजीवन कारावास और कठोर कारावास को साधारण कारावास में बदलना।
- परिहार: इसमें दंड की प्रकृति में परिवर्तन किया जाना शामिल है, उदाहरण के लिये दो वर्ष के कारावास को एक वर्ष के कारावास में परिवर्तित करना।
- विराम: इसके अंतर्गत किसी दोषी को प्राप्त मूल सज़ा के प्रावधान को किन्हीं विशेष परिस्थितियों में बदलना शामिल है। उदाहरण के लिये महिला की गर्भावस्था की अवधि के कारण सज़ा को परिवर्तित करना।
- प्रविलंबन: इसके अंतर्गत क्षमा या लघुकरण की कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान दंड के प्रारंभ की अवधि को आगे बढ़ाना या किसी दंड पर अस्थायी रोक लगाना शामिल है।
स्रोत: द हिंदू
जैव विविधता और पर्यावरण
लाल ज्वार
प्रिलिम्स के लिये:शैवाल, करेनिया ब्रेविस, एल्गी प्रस्फुटन, हाइपोक्सिया, लाल ज्वार, सुपोषण मेन्स के लिये:लाल ज्वार की घटना तथा इसका कारण |
चर्चा में क्यों?
फ्लोरिडा कई वर्षों से ‘करेनिया ब्रेविस’ (Karenia Brevis) शैवाल के कारण होने वाले लाल ज्वार के प्रकोप से जूझ रहा है।
- ‘टैंपा बे’ में प्रदूषित जल छोड़े जाने के कारण इस वर्ष लाल ज्वार का प्रकोप देखा जा सकता है।
- ‘टैंपा बे’ मेक्सिको की खाड़ी की शाखा, फ्लोरिडा, अमेरिका के पश्चिमी तट पर स्थित है।
प्रमुख बिंदु
परिचय:
- हानिकारक एल्गी प्रस्फुटन (HABs) की प्रक्रिया तब होती है जब शैवाल समूह नियंत्रण से बाहर हो जाते हैं और व्यक्तियों, मछलियों, शंख, समुद्री स्तनधारियों तथा पक्षियों पर विषाक्त या हानिकारक प्रभाव पैदा करते हैं।
- जबकि कई लोग इन ब्लूम्स को 'लाल ज्वार' कहते हैं, वैज्ञानिक इसके लिये हानिकारक ‘एल्गी प्रस्फुटन’ शब्द का प्रयोग अधिक करते हैं।
- अमेरिका में सबसे प्रसिद्ध HABs की घटना फ्लोरिडा के खाड़ी तट पर लगभग हर गर्मियों में घटित होती है।
- इस प्रकार का ‘ब्लूम’ डाइनोफ्लैगलेट की एक प्रजाति के कारण होता है जिसे करेनिया ब्रेविस के नाम से जाना जाता है।
- दूसरी ओर, मीठे पानी की झीलों और जलाशयों में ब्लूम आमतौर पर नीले-हरे शैवाल (सायनोबैक्टीरिया के रूप में भी जाना जाता है) के कारण होता है।
- नील-हरित शैवाल प्रस्फुटन का कृषि और शहरी अपवाह से सीधा संबंध है। पोषक तत्त्व प्रदूषण साइनोबैक्टीरिया के विकास को प्रोत्साहित करता है।
एल्गी प्रस्फुटन का कारण:
- सुपोषण:
- पोषक तत्त्व शैवाल और साइनोबैक्टीरिया के विकास को बढ़ावा देते हैं और इसके विकास में सहयोग करते हैं। जलमार्गों का सुपोषण (पोषक तत्त्व संवर्द्धन) एक प्रमुख कारक माना जाता है।
- तापमान:
- ब्लूम की घटना गर्मियों या पतझड़ में होने की अधिक संभावना होती है लेकिन यह वर्ष के किसी भी समय घटित हो सकती है।
- मैलापन:
- पानी के स्तंभ में निलंबित कणों और कार्बनिक पदार्थों की उपस्थिति के कारण गंदगी होती है।
- जब गंदगी कम होती है, तो अधिक प्रकाश जल स्तंभ में प्रवेश कर सकता है। यह शैवाल विकास के लिये अनुकूलतम परिस्थितियों का निर्माण करता है।
एल्गी प्रस्फुटन के निहितार्थ:
- अत्यंत खतरनाक विषाक्त पदार्थों का उत्पादन करते हैं जो लोगों और जानवरों को बीमार या मार सकते हैं।
- शैवाल से दूषित और मनुष्यों सहित अन्य जीवों द्वारा खाई जाने वाली मछली उनके लिये हानिकारक हो सकती है।
- एल्गी प्रस्फुटन की घटना जलीय कृषि या समुद्री जीवन को भी प्रभावित कर सकती है।
- लाल ज्वार के कारण मनुष्यों में साँस लेने में तकलीफ की भी शिकायत हुई है।
- ‘एल्गी प्रस्फुटन’ जलीय जीवों को सूर्य के प्रकाश और ऑक्सीजन से वंचित करता है तथा जल की सतह के नीचे रहने वाली विभिन्न प्रजातियों पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।
- जल में ‘डैड ज़ोन’ का निर्माण करना:
- "डेड ज़ोन" हाइपोक्सिया के लिये एक अधिक सामान्य शब्द है, जो जल में ऑक्सीजन के कम स्तर को संदर्भित करता है।
HAB से जोखिम कम करना:
- बहिःस्राव का बहु उपचार (Multiple treatment of effluent):
- सरल उपचार विकल्प प्रभावी नहीं हैं; शैवाल विषाक्त पदार्थों को हटाने के लिये आमतौर पर कई उपचार चरणों की आवश्यकता होती है।
- नदियों और झीलों में प्रवाहित करने से पहले फॉस्फेट और नाइट्रेट को हटाने के लिये तृतीयक सीवेज उपचार विधियों का उपयोग करना।
- नाइट्रोजन परीक्षण और मॉडलिंग (Nitrogen Testing & Modelling):
- एन-टेस्टिंग (N-Testing) फसल के पौधों के लिये आवश्यक उर्वरक की इष्टतम मात्रा का पता लगाने की एक तकनीक है। यह आसपास के क्षेत्र में नष्ट हुई नाइट्रोजन की मात्रा को कम करेगा।
- जैविक खेती को बढ़ावा (Encouraging Organic Farming):
- कृषि में उर्वरकों के अति प्रयोग को कम करने और जैविक खेती को प्रोत्साहित करने से अपवाह के थोक प्रवाह को कम किया जा सकता है तथा यह अति शैवाल वृद्धि को कम करने के लिये प्रभावी हो सकता है।
- वाहनों और बिजली संयंत्रों से नाइट्रोजन उत्सर्जन में कमी करना।
- डिटर्जेंट में फॉस्फेट के निर्माणकर्त्ता के रूप में उपयोग को कम करना।
भारत में एल्गी प्रस्फुटन से निपटने के उपाय:
- एल्गी प्रस्फुटन सूचना सेवा: ABIS हानिकारक एल्गी प्रस्फुटन के संबंध में समय पर जानकारी प्रदान करता है, जो तटीय मत्स्य पालन, जल की गुणवत्ता के लिये हानिकारक है और समय-समय पर तटीय आबादी के भीतर श्वसन समस्याओं को भी प्रेरित करता है।
- वर्ष 2009 में लॉन्च किया गया इसरो का ओशनसैट-2 उपग्रह (ISRO’s Oceansat-2 Satellite) बड़े क्षेत्रों को कवर कर सकता है और वैश्विक महासागरीय रंग प्रदान कर सकता है।
स्रोत: डाउन टू अर्थ
सामाजिक न्याय
मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) संशोधन अधिनियम, 2021
प्रिलिम्स के लियेमेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी अधिनियम 1971 मेन्स के लियेमेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) संशोधन अधिनियम, 2021 के प्रमुख प्रावधान तथा इसका महत्त्व, महिला अधिकारों से संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में दिल्ली उच्च न्यायालय ने एक ऐसी महिला के गर्भ का चिकित्सकीय समापन (Medical Termination of Pregnancy-MTP) करने की अनुमति दी है, जिसने गर्भ के 22 सप्ताह पूरे कर लिये थे क्योंकि भ्रूण कई असामान्यताओं से पीड़ित था।
- गर्भावधि/गर्भकाल का आशय गर्भधारण के समय से जन्म तक भ्रूण के विकास काल से है।
- भारत में मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) अधिनियम के तहत गर्भपात की अनुमति के लिये गर्भधारण की अधिकतम अवधि 20 सप्ताह निर्धारित की गई है जिसके बाद भ्रूण का गर्भपात वैधानिक रूप से अस्वीकार्य है।
प्रमुख बिंदु
MTP अधिनियम के बारे में :
- मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971 (MTP ACT) को सुरक्षित गर्भपात के संबंध में चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में हुई प्रगति के कारण पारित किया गया था।
- प्रजनन स्वास्थ्य सेवाओं तक सार्वभौमिक पहुँच प्रदान करने के एक ऐतिहासिक कदम में भारत ने व्यापक गर्भपात देखभाल प्रदान करके महिलाओं को और अधिक सशक्त बनाने हेतु MTP अधिनियम 1971 में संशोधन किया।
- नए मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (संशोधन) अधिनियम 2021 को व्यापक देखभाल के लिये सार्वभौमिक पहुँच सुनिश्चित करने हेतु चिकित्सीय, उपचारात्मक, मानवीय या सामाजिक आधार पर सुरक्षित और वैध गर्भपात सेवाओं का विस्तार करने हेतु लाया गया है।
MTP संशोधन अधिनियम, 2021 के प्रमुख प्रावधान:
- गर्भनिरोधक विधि या डिवाइस की विफलता के कारण समाप्ति:
- अधिनियम के तहत गर्भनिरोधक विधि या उपकरण की विफलता के मामले में एक विवाहित महिला द्वारा 20 सप्ताह तक के गर्भ को समाप्त किया जा सकता है। यह विधेयक अविवाहित महिलाओं को भी गर्भनिरोधक विधि या डिवाइस की विफलता के कारण गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देता है।
- गर्भ की समाप्ति के लिये चिकित्सकों से राय लेना आवश्यक:
- गर्भधारण से 20 सप्ताह तक के गर्भ की समाप्ति के लिये एक पंजीकृत चिकित्सक की राय की आवश्यकता होती है।
- गर्भधारण के 20-24 सप्ताह तक के गर्भ की समाप्ति के लिये दो पंजीकृत चिकित्सकों की राय आवश्यक होगी।
- भ्रूण से संबंधित गंभीर असामान्यता के मामले में 24 सप्ताह के बाद गर्भ की समाप्ति के लिये राज्य-स्तरीय मेडिकल बोर्ड की राय लेना आवश्यक होगा।
- विशेष श्रेणियों के लिये अधिकतम गर्भावधि सीमा
- महिलाओं की विशेष श्रेणियों (इसमें दुष्कर्म तथा अनाचार से पीड़ित महिलाओं तथा अन्य कमज़ोर महिलाओं जैसे-दिव्यांग महिलाएँ और नाबालिग आदि) के लिये गर्भकाल/गर्भावधि की सीमा को 20 से 24 सप्ताह करने का प्रावधान किया गया है।
- गोपनीयता:
- गर्भ को समाप्त करने वाली किसी महिला का नाम और अन्य विवरण, वर्तमान कानून में अधिकृत व्यक्ति को छोड़कर, किसी के भी समक्ष प्रकट नहीं किया जाएगा।
महत्त्व:
- नया कानून सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) 3.1, 3.7 और 5.6 को पूरा करने में मदद कर रोकथाम योग्य मातृ मृत्यु दर को समाप्त करने में योगदान देगा।
- SDG 3.1 मातृ मृत्यु अनुपात को कम करने से संबंधित है, जबकि SDG 3.7 और 5.6 यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य तथा अधिकारों तक सार्वभौमिक पहुँच से संबंधित है।
- संशोधन सुरक्षित गर्भपात सेवाओं तक महिलाओं के दायरे और पहुँच को बढ़ाएगा तथा उन महिलाओं के लिये गरिमा, स्वायत्तता, गोपनीयता एवं न्याय सुनिश्चित करेगा जिन्हें गर्भावस्था को समाप्त करने की आवश्यकता है।
मुद्दे:
- गर्भपात संबंधित भिन्न-भिन्न मुद्दे:
- एक राय यह है कि गर्भावस्था को समाप्त करना गर्भवती महिला की पसंद और उसके प्रजनन अधिकारों का हिस्सा है, जबकि दूसरी यह है कि राज्य का दायित्व है कि वह जीवन की रक्षा करे और इसलिये उसे भ्रूण को सुरक्षा प्रदान करनी चाहिये।
- विश्व में देशों ने भ्रूण के स्वास्थ्य और गर्भवती महिला के लिये जोखिम के आधार पर गर्भपात की अनुमति देने हेतु अलग-अलग शर्तें और समय सीमाएँ निर्धारित की हैं।
- 24 सप्ताह से अधिक की अवस्था में गर्भपात की अनुमति नहीं है:
- अधिनियम 24 सप्ताह के बाद गर्भपात की अनुमति केवल उन मामलों में देता है जहाँ एक मेडिकल बोर्ड पर्याप्त भ्रूण असामान्यताओं का निदान करता है।
- इसका तात्पर्य यह है कि बलात्कार के कारण गर्भपात की आवश्यकता वाले मामले में, जिसे 24 सप्ताह से अधिक समय हो जाता है, रिट याचिका एकमात्र सहारा है।
- गर्भपात डॉक्टरों द्वारा किया जाएगा:
- अधिनियम में केवल स्त्री रोग या प्रसूति में विशेषज्ञता वाले डॉक्टरों द्वारा गर्भपात कराए जाने का प्रावधान है।
- चूँकि ग्रामीण क्षेत्रों में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में ऐसे डॉक्टरों की 75% कमी है, इसलिये गर्भवती महिलाओं को सुरक्षित गर्भपात के लिये सुविधाओं तक पहुँचने में मुश्किल हो सकती है।
- अधिनियम में केवल स्त्री रोग या प्रसूति में विशेषज्ञता वाले डॉक्टरों द्वारा गर्भपात कराए जाने का प्रावधान है।
आगे की राह
- यह प्रशंसनीय है कि केंद्र सरकार ने विविध संस्कृतियों, परंपराओं और विचारों के समूहों को संतुलित करते हुए साहसिक कदम उठाया है जिसे हमारा देश बनाए रखता है, हालाँकि संशोधन में अभी भी महिलाओं को विभिन्न शर्तों के साथ छोड़ दिया गया है जो कई मामलों में सुरक्षित गर्भपात तक पहुँच में बाधा बन जाता है।
- न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी (सेवानिवृत्त) बनाम भारत संघ और अन्य (2017), मामले में न्यायालय ने प्रजनन संबंधी विकल्प को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत व्यक्तिगत स्वतंत्रता के एक हिस्से के रूप में महिलाओं के संवैधानिक अधिकार को मान्यता दी, जो कि प्रजनन अधिकारों और एक महिला की गोपनीयता को बनाए रखने की नैतिकता को मज़बूती प्रदान करने के बावजूद एक चिकित्सक द्वारा गर्भपात करने के अधिकार को गर्भपात की इच्छा रखने वाली महिला के मौलिक अधिकार के रूप में परिवर्तित नहीं करता है।
- सरकार को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि देश भर के स्वास्थ्य देखभाल संस्थानों में गर्भपात की सुविधा के लिये नैदानिक प्रक्रियाओं से संबंधित सभी मानदंडों और मानकीकृत प्रोटोकॉल का पालन किया जाए।
- इसके साथ ही मानव अधिकारों, ठोस वैज्ञानिक सिद्धांतों और प्रौद्योगिकी में उन्नति के अनुरूप गर्भपात के मामले पर फैसला लिया जाना चाहिये।
- चूँकि यह अब एक अधिनियम बन गया है, इसलिये यह आश्वासन दिया जा सकता है कि देश पहले से कहीं अधिक तेज़ी से महिलाओं के मुद्दों को संबोधित करने के लिये प्रगति की राह पर है।
स्रोत: द हिंदू
विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
नासा का बोइंग स्टारलाइनर अंतरिक्षयान
प्रिलिम्स के लिये:अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन, लो अर्थ ऑर्बिट, वाणिज्यिक क्रू मिशन, कमर्शियल ऑर्बिटल ट्रांसपोर्टेशन सर्विसेज़, क्रू स्पेस ट्रांसपोर्टेशन -100 मेन्स के लिये:नासा द्वारा प्रायोजित विभिन्न मिशन एवं उनके उद्देश्य |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में चालक रहित बोइंग के स्टारलाइनर ऑर्बिटल फ्लाइट टेस्ट-2 (OFT-2) की लॉन्चिंग को एक बार फिर टाल दिया गया है।
- अंतरिक्षयान, जिसे क्रू स्पेस ट्रांसपोर्टेशन-100 (CST-100) कहा जाता है, अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) हेतु एक मानव रहित परीक्षण उड़ान का हिस्सा है।
- यह मिशन नासा के कमर्शियल क्रू प्रोग्राम का हिस्सा है।
प्रमुख बिंदु
CST-100 के बारे में:
- इस अंतरिक्षयान को ‘लो अर्थ ऑर्बिट’ में मिशन के लिये सात यात्रियों या चालक दल और कार्गो के मिश्रण को समायोजित करने हेतु डिज़ाइन किया गया है।
- यह मिशन ISS के लिये नासा द्वारा प्रायोजित मिशनों में से एक है तथा यह चार चालक दल के सदस्यों के साथ कम समय में महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक अनुसंधान में सहायता करेगा।
- स्टारलाइनर अंतरिक्षयान 400 पाउंड से ज़्यादा के नासा के कार्गो और चालक दल को अंतरिक्ष स्टेशन तक ले जाएगा।
- स्टारलाइनर में एक नई, वेल्डलेस (weldless) संरचना विद्यमान है जिसे छह महीने के टर्नअराउंड समय (Turnaround Time) में 10 बार पुन: प्रयोग किया जा सकता है।
उद्देश्य:
- जब इस परीक्षण हेतु उड़ान भरी जाएगी तो यह अंतरिक्षयान की लॉन्चिंग, डॉकिंग, वायुमंडलीय पुन: प्रवेश और अमेरिका में एक रेगिस्तान में लैंडिंग की क्षमताओं की जांँच करेगा।
- स्पेसफ्लाइट भविष्य में अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष स्टेशन पर ले जाने के लिये परिवहन प्रणाली का पता लगाने और प्रमाणित करने में नासा की भी मदद करेगा।
नासा का वाणिज्यिक क्रू कार्यक्रम:
- इसका मुख्य उद्देश्य अंतरिक्षयान की लागत को कम करके अंतरिक्ष तक पहुँच को आसान बनाना है, ताकि ISS से कार्गो और चालक दल को आसानी से ले जाया जा सके और अधिक-से-अधिक वैज्ञानिक अनुसंधान को सक्षम बनाया जा सके।
- इस कार्यक्रम के माध्यम से नासा ने बोइंग और स्पेसएक्स’ (SpaceX) जैसे वाणिज्यिक भागीदारों के साथ साझेदारी कर लागत कम करने की योजना बनाई है।
- यह कमर्शियल ऑर्बिटल ट्रांसपोर्टेशन सर्विसेज़ (COTS) के डिज़ाइन और निर्माण के लिये कंपनियों को प्रोत्साहन देने की भी योजना बना रहा है।
- COTS एक नासा कार्यक्रम था, जिसे 2006 में निजी कंपनियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) में चालक दल और कार्गो के वितरण के समन्वय हेतु घोषित किया गया था।
- बोइंग और स्पेसएक्स जैसी निजी कंपनियों को लो-अर्थ ऑर्बिट’ के लिये चालक दल व परिवहन सेवाएँ प्रदान करने हेतु प्रोत्साहित करके नासा गहरे अंतरिक्ष अन्वेषण मिशनों के लिये अंतरिक्षयान और रॉकेट बनाने पर ध्यान केंद्रित कर सकता है।
- ‘क्रू-2’ मिशन ‘स्पेसएक्स क्रू ड्रैगन’ का दूसरा क्रू रोटेशन मिशन और अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों के साथ पहला मिशन है।
- ‘क्रू-2’ मिशन में शामिल अंतरिक्ष यात्री, ‘एक्सपीडिशन-65’ (इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में 65वाँ दीर्घावधि अभियान) के सदस्यों में शामिल हो जाएंगे।
- मई 2020 में नासा की स्पेसएक्स डेमो-2 परीक्षण उड़ान दो अंतरिक्ष यात्रियों को लेकर ‘अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन’ (ISS) के लिये रवाना हुई थी।
- उड़ान का उद्देश्य इस तथ्य का परीक्षण करना था कि क्या स्पेसएक्स द्वारा निर्मित कैप्सूल का उपयोग नियमित रूप से अंतरिक्ष यात्रियों को स्पेस स्टेशन तक ले जाने और वहाँ से लाने के लिये किया जा सकता है या नहीं।
अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS)
- यह निवास करने योग्य एक कृत्रिम उपग्रह है जो पृथ्वी की निम्न कक्षा में मानव निर्मित सबसे बड़ी संरचना है। इसका पहला हिस्सा वर्ष 1998 में ‘लो-अर्थ ऑर्बिट’ में लॉन्च किया गया था।
- यह पृथ्वी का लगभग 92 मिनट में चक्कर लगाता है और प्रतिदिन 15.5 परिक्रमा पूरी करता है।
- ‘अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन’ कार्यक्रम पाँच प्रतिभागी अंतरिक्ष एजेंसियों की एक संयुक्त परियोजना है: नासा (अमेरिका), रॉसकॉसमॉस (रूस), जाक्सा (जापान), ESA (यूरोप) और CSA (कनाडा)। हालाँकि इसके स्वामित्व और उपयोग को अंतर-सरकारी संधियों और समझौतों के माध्यम से शासित किया जाता है।
- यह एक माइक्रोग्रैविटी और अंतरिक्ष पर्यावरण अनुसंधान प्रयोगशाला के रूप में कार्य करता है जिसमें चालक दल के सदस्य जीव विज्ञान, मानव जीव विज्ञान, भौतिकी, खगोल विज्ञान, मौसम विज्ञान और अन्य विषयों से संबंधित प्रयोग करते हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के कारण ही ‘लो-अर्थ ऑर्बिट’ में निरंतर मानव उपस्थिति संभव हो पाई है।
- इसके वर्ष 2030 तक संचालित रहने की उम्मीद है।
- हाल ही में रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रॉसकॉसमॉस (Russian Space Agency Roscosmos) ने अपनी सबसे बड़ी अंतरिक्ष प्रयोगशाला नौका को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (ISS) में लॉन्च किया।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
भारतीय अर्थव्यवस्था
अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के लिये सामाजिक सुरक्षा उपाय
प्रिलिम्स के लिये:सामाजिक सुरक्षा मेन्स के लिये:अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के लिये सामाजिक सुरक्षा उपाय और संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में श्रम संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने बढ़ती बेरोज़गारी और नौकरी छूटने पर कोविड-19 महामारी के प्रभाव पर एक रिपोर्ट जारी की है।
- पैनल ने सरकार से सामाजिक सुरक्षा उपायों में सुधार करने और धन के प्रत्यक्ष हस्तांतरण तथा अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के लिये शहरी रोज़गार गारंटी योजना जैसे उपाय करने का आह्वान किया।
सामाजिक सुरक्षा
- अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुसार, सामाजिक सुरक्षा एक व्यापक दृष्टिकोण है जिसे वंचितों को रोकने, व्यक्ति को एक न्यूनतम न्यूनतम आय का आश्वासन देने और किसी भी अनिश्चितता से व्यक्ति की रक्षा करने के लिये डिज़ाइन किया गया है।
- इसमें दो तत्व भी शामिल हैं, अर्थात्:
- भोजन, कपड़े, आवास और चिकित्सा देखभाल तथा आवश्यक सामाजिक सेवाओं सहित स्वास्थ्य व कल्याण के लिये पर्याप्त जीवन स्तर का अधिकार।
- आय का अधिकार किसी भी व्यक्ति के नियंत्रण से परे परिस्थितियों में बेरोज़गारी, बीमारी, दिव्यांगता, विधवापन, वृद्धावस्था या आजीविका की अन्य की स्थिति में सुरक्षा।
प्रमुख बिंदु:
सामाजिक सुरक्षा उपायों की आवश्यकता:
- आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) का हवाला देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि 90% श्रमिक अनौपचारिक क्षेत्र में थे, जो कि 465 मिलियन श्रमिकों में से 419 मिलियन हैं।
- रोज़गार की मौसमी और औपचारिक कर्मचारी-नियोक्ता संबंधों की कमी के कारण महामारी के दौरान ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में अनौपचारिक श्रमिकों को सबसे अधिक नुकसान हुआ है।
- दूसरी लहर के प्रभाव पर अभी तक कोई सर्वेक्षण आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं जो निर्विवाद रूप से पहली की तुलना में अधिक गंभीर रहा है।
- हालाँकि उपाख्यानात्मक साक्ष्य बताते हैं कि विशेष रूप से अनौपचारिक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण आय की हानि हुई है, जिसने कमज़ोर वर्ग को संकट में डाल दिया है।
- इसके अलावा भारत में कोविड -19 संकट, पहले से मौजूद उच्च और बढ़ती बेरोज़गारी की पृष्ठभूमि में आया है।
- असंगठित श्रमिकों और उनके परिवार के सदस्यों की नौकरियों के नुकसान, बढ़ती बेरोज़गारी, ऋणग्रस्तता, पोषण, स्वास्थ्य व शिक्षा पर परिणामी प्रभाव एक लंबी अवधि तक अपूर्णीय क्षति डालने की क्षमता रखते हैं।
रिपोर्ट की मुख्य विशेषताएँ :
- श्रम मंत्रालय ने कोविड -19 के प्रभाव की वजह से प्रवासी संकट का प्रतिउत्तर देने में देरी की।
- महामारी ने श्रम बाज़ार को नष्ट कर दिया है, जिसने रोज़गार परिदृश्य को प्रभावित किया है और लाखों श्रमिकों व उनके परिवारों के अस्तित्व को खतरा है।
- इस परिदृश्य में समिति ने सिफारिश की:
- प्रत्यक्ष लाभ अंतरण: कोविड-19 जैसी प्रतिकूल परिस्थितियों के दौरान अनौपचारिक श्रमिकों के बैंक खातों में पैसा भेजना।
- यह पीएम-स्वनिधि योजना के तहत स्ट्रीट वेंडर्स को दिये गए ऋण को सीधे नकद अनुदान में परिवर्तित करने का भी सुझाव देता है।
- यूनिवर्सल हेल्थकेयर: यूनिवर्सल हेल्थकेयर को सरकार का कानूनी दायित्व बनाया जाना चाहिये। यह अनौपचारिक श्रमिकों को अनिवार्य स्वास्थ्य बीमा द्वारा प्रदान किया जा सकता है।
- मनरेगा सुधार: मनरेगा के लिये बजटीय आवंटन बढ़ाया जाना चाहिये तथा मनरेगा की तर्ज पर एक शहरी रोज़गार गारंटी योजना लागू की जानी चाहिये।
- यह मनरेगा के तहत गारंटीकृत काम के अधिकतम दिनों को 100 दिनों से बढ़ाकर 200 करने का सुझाव देता है।
- रोज़गार के अवसरों में वृद्धि: पारंपरिक क्षेत्रों में निवेश का लाभ उठाना, 'मेक इन इंडिया' मिशन को मज़बूत करना तथा विभिन्न क्षेत्रों में प्रौद्योगिकी के प्रसार को तेज़ करने से आगे बढ़कर यह स्थानीय एवं अखिल भारतीय रोज़गार के अवसर प्रदान करेगा।
- प्रत्यक्ष लाभ अंतरण: कोविड-19 जैसी प्रतिकूल परिस्थितियों के दौरान अनौपचारिक श्रमिकों के बैंक खातों में पैसा भेजना।
अनौपचारिक क्षेत्र का समर्थन करने के लिये पूर्व में की गई पहलें:
- प्रधानमंत्री श्रम योगी मान-धन (PM-SYM)
- श्रम सुधार
- प्रधानमंत्री रोज़गार प्रोत्साहन योजना (PMRPY)
- PM स्वनिधि : स्ट्रीट वेंडर्स के लिये सूक्ष्म ऋण योजना
- आत्मनिर्भर भारत अभियान
- दीनदयाल अंत्योदय योजना, राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन
- PM गरीब कल्याण अन्न योजना (PMGKAY)
- वन नेशन वन राशन कार्ड
- आत्मनिर्भर भारत रोज़गार योजना
- प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि
- भारत के अनौपचारिक श्रमिक वर्ग को विश्व बैंक की सहायता
अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के कल्याण हेतु सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:
- प्रवासी श्रमिकों का पंजीकरण: सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को असंगठित श्रमिकों की पंजीकरण प्रक्रिया को पूरा करने का निर्देश दिया है ताकि वे विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत कल्याणकारी लाभों का लाभ उठा सकें।
अनौपचारिक क्षेत्र के श्रमिकों के कल्याण में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय:
- प्रवासी श्रमिकों का पंजीकरण: सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को असंगठित श्रमिकों की पंजीकरण प्रक्रिया को पूरा करने का निर्देश दिया है ताकि वे विभिन्न सरकारी योजनाओं के तहत दिये जाने वाले कल्याणकारी लाभों का उपयोग कर सकें।
- ONORC प्रणाली के आधार पर कार्य करना: SC ने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों (UT) को 31 जुलाई, 2021 तक एक राष्ट्र, एक राशन कार्ड (ONORC) प्रणाली को लागू करने का निर्देश दिया।
- यह योजना राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के तहत आने वाले प्रवासी मज़दूरों को देश के किसी भी हिस्से में अपने राशन कार्ड के साथ किसी भी उचित मूल्य की दुकान पर राशन प्राप्त करने की अनुमति देती है।
आगे की राह
- श्रम मंत्रालय को PLFS को समय पर पूरा करने का मुद्दा सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के समक्ष उठाना चाहिये।
- एक व्यापक योजना और रोडमैप की आवश्यकता है ताकि महामारी से बहुत अधिक बिगड़ती रोज़गार की स्थिति और संगठित क्षेत्र में नौकरी बाज़ार में बढ़ती असमानताओं को दूर किया जा सके।
- असंगठित श्रमिकों का एक राष्ट्रीय डेटाबेस विकसित करने की आवश्यकता है।
- इसके अलावा इस क्षेत्र को औपचारिक बनाना, इसकी उत्पादकता में वृद्धि करना, मौजूदा आजीविका को मज़बूत करना, नए अवसर पैदा करना और सामाजिक सुरक्षा उपायों को मज़बूत करना, कोविड -19 के प्रभाव को कम करने हेतु प्रमुख कार्य हैं।