गर्भपात कानून
और पढ़ें: गर्भपात कानून, भारत में गर्भपात कानून का प्रतिचित्रण, भारत में गर्भपात कानून, अनुच्छेद 21, गर्भ का चिकित्सकीय समापन अधिनियम, 2021
महत्त्वपूर्ण ऊर्जा संक्रमण खनिजों पर संयुक्त राष्ट्र पैनल
प्रिलिम्स के लिये:महत्त्वपूर्ण खनिज, खनन क्षेत्र, दुर्लभ मृदा धातु, इलेक्ट्रिक वाहन, नवीकरणीय ऊर्जा, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय, पेरिस समझौता मेन्स के लिये:महत्त्वपूर्ण खनिज और उनके अनुप्रयोग, भारत के लिये महत्त्वपूर्ण खनिजों का महत्त्व |
स्रोत: यू.एन,
चर्चा में क्यों?
हाल ही में संयुक्त राष्ट्र (UN) महासचिव ने महत्त्वपूर्ण ऊर्जा संक्रमण खनिजों पर संयुक्त राष्ट्र पैनल (UN Panel on Critical Energy Transition Minerals) का गठन किया। इसका उद्देश्य पर्यावरणीय और सामाजिक मानकों की सुरक्षा करने तथा न्याय को ऊर्जा संक्रमण का हिस्सा बनाने हेतु खनिज मूल्य शृंखला के लिये वैश्विक स्तर पर समान रूप से लागू होने वाले एवं स्वैच्छिक सिद्धांत विकसित करना है।
ऊर्जा संक्रमण हेतु महत्त्वपूर्ण खनिजों पर संयुक्त राष्ट्र पैनल से संबंधित मुख्य तथ्य क्या हैं?
- यह पैनल नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के लिये महत्त्वपूर्ण खनिजों की बढती मांग के संदर्भ में समानता, पारदर्शिता, निवेश, संधारणीयता और मानवाधिकार से संबंधित मुद्दों को संबोधित करेगा।
- विकासशील देश महत्त्वपूर्ण खनिजों को रोज़गार सृजित करने, अर्थव्यवस्था में विविधता लाने तथा राजस्व बढ़ाने के अवसर के रूप में देखते हैं, लेकिन इस प्रक्रिया में गरीबों को दमन से सुरक्षित रखने के लिये उचित प्रबंधन अत्यावश्यक है।
- साझा समृद्धि के लिये महत्त्वपूर्ण खनिजों की क्षमता का दोहन करने और समावेशी विकास सुनिश्चित करने हेतु गठित इस पैनल का उद्देश्य सतत् विकास के लिये एजेंडा 2030, जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क अभिसमय और पेरिस समझौते के अनुरूप है।
- यह पैनल संयुक्त राष्ट्र की विगत पहलों, विशेष रूप से सतत् निष्कर्षण उद्योगों पर कार्य समूह की 'सतत् विकास के लिये महत्त्वपूर्ण ऊर्जा संक्रमण खनिजों का प्रयोग' (Harnessing Critical Energy Transition Minerals for Sustainable Development) पहल पर आधारित है।
- यह विश्व स्तर पर और संपूर्ण मूल्य शृंखला में स्थानीय समुदायों के लिये उच्चतम संधारणीयता एवं मानव विकास मानकों को बनाए रखते हुए एक निष्पक्ष तथा पारदर्शी दृष्टिकोण सुनिश्चित करने के लिये सिद्धांतों को विकसित करने में सहायता करेगा।
- जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने और ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने का लक्ष्य महत्त्वपूर्ण ऊर्जा संक्रमण खनिजों की सुरक्षित एवं सुलभ आपूर्ति पर निर्भर करता है।
- ताँबा, लिथियम, निकल, कोबाल्ट और दुर्लभ मृदा तत्त्व जैसे ये खनिज एक संधारणीय भविष्य के निर्माण के लिये पवन टरबाइन, सौर पैनल, इलेक्ट्रिक वाहन तथा बैटरी भंडारण जैसी स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के आवश्यक घटक हैं।
महत्त्वपूर्ण खनिज क्या हैं?
- महत्त्वपूर्ण खनिज:
- ये आर्थिक विकास और राष्ट्रीय सुरक्षा के लिये आवश्यक खनिज हैं, इन खनिजों की उपलब्धता में कमी अथवा कुछ विशिष्ट भौगोलिक स्थानों पर अधिक निष्कर्षण अथवा प्रसंस्करण आपूर्ति शृंखला को सरल बनाते हैं।
- महत्त्वपूर्ण खनिजों की घोषणा:
- महत्त्वपूर्ण खनिजों की घोषणा एक परिवर्तनीय प्रक्रिया है, और यह समय के साथ नई प्रौद्योगिकियों, बाज़ार गतिशीलता एवं भू-राजनीतिक स्थितियों पर निर्भर कर सकती है।
- अपनी विशिष्ट परिस्थितियों और प्राथमिकताओं के आधार पर विभिन्न देशों के लिये महत्त्वपूर्ण खनिजों की सूची भिन्न-भिन्न हो सकती है।
- संयुक्त राज्य अमेरिका ने राष्ट्रीय सुरक्षा अथवा आर्थिक विकास में उनकी भूमिका के आधार पर 50 खनिजों को महत्त्वपूर्ण घोषित किया है।
- अपनी अर्थव्यवस्था के लिये जापान ने 31 खनिजों के एक समूह को महत्त्वपूर्ण माना है।
- यूनाइटेड किंगडम के लिये 18 खनिज महत्त्वपूर्ण हैं, वहीं यूरोपीय संघ और कनाडा के लिये यह संख्या क्रमशः (34) व (31) है।
- भारत के लिये महत्त्वपूर्ण खनिज:
- खान मंत्रालय के तहत विशेषज्ञ समिति ने भारत के लिये 30 महत्त्वपूर्ण खनिजों के एक समूह की पहचान की है।
- इनमें एंटीमनी, बेरिलियम, बिस्मथ, कोबाल्ट, कॉपर, गैलियम, जर्मेनियम, ग्रेफाइट, हेफनियम, इंडियम, लिथियम, मोलिब्डेनम, नायोबियम, निकल, PGE, फॉस्फोरस, पोटाश, दुर्लभ मृदा तत्त्व (REE), रेनियम, सिलिकॉन, स्ट्रोंटियम, टैंटलम , टेल्यूरियम, टिन, टाइटेनियम, टंगस्टन, वैनेडियम, ज़िरकोनियम, सेलेनियम और कैडमियम।
- इस समिति ने खान मंत्रालय में महत्त्वपूर्ण खनिजों के लिये उत्कृष्टता केंद्र (CECM) के निर्माण की भी सिफारिश की है।
- CECM आवधिक रूप से भारत के लिये महत्त्वपूर्ण खनिजों की सूची को अद्यतन करेगा और समय-समय पर महत्त्वपूर्ण खनिज संबंधी रणनीति अधिसूचित करेगा।
प्रमुख महत्त्वपूर्ण खनिज और उनके अनुप्रयोग क्या हैं?
- लिथियम, कोबाल्ट और निकल:
- ये खनिज लिथियम-आयन बैटरी के अपरिहार्य घटक हैं, इसका इलेक्ट्रिक वाहनों, पोर्टेबल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों और ऊर्जा भंडारण प्रणालियों में बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाता है।
- दुर्लभ मृदा तत्त्व (REE):
- 17 तत्त्वों से युक्त REE का प्रमुख तौर पर शक्तिशाली मैग्नेट, इलेक्ट्रॉनिक्स, पवन टरबाइन और सैन्य उपकरणों के निर्माण में प्रयोग किया किया जाता है।
- नियोडिमियम और डिस्प्रोसियम विशेष रूप से मोटरों में प्रयोग किये जाने वाले स्थायी चुंबकों के उत्पादन के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
- ताँबा:
- असाधारण विद्युत चालकता के कारण विद्युत तारों, नवीकरणीय ऊर्जा अवसंरचना और इलेक्ट्रिक वाहन के घटकों में इसका अत्यधिक महत्त्व है।
- टाइटेनियम:
- असाधारण स्ट्रेंथ-टू-वेट अनुपात के कारण टाइटेनियम का एयरोस्पेस उद्योग में बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाता है, यह इसकी संक्षारण प्रतिरोध और उच्च तापमान को सहन करने की क्षमता को बेहतर बनाता है।
- प्लैटिनम समूह धातुएँ (PGMs):
- वाहनों, फ्यूल सेल्स (बैटरियों) और विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के लिये कैटेलिटिक कनवर्टर के निर्माण में अनिवार्य रूप से PGMs का प्रयोग किया जाता है।
- ग्रेफाइट:
- यह लिथियम-आयन बैटरी के एनोड के लिये एक प्रमुख सामग्री है और इसके विभिन्न औद्योगिक अनुप्रयोग भी है।
भारत के लिये महत्त्वपूर्ण खनिजों का क्या महत्त्व है?
- आर्थिक आत्मनिर्भरता:
- हाई-टेक इलेक्ट्रॉनिक्स: लिथियम जैसे महत्त्वपूर्ण खनिजों का प्रयोग लिथियम-आयन बैटरी, लैपटॉप, स्मार्टफोन और अन्य उपकरणों को ऊर्जा प्रदान करने के लिये किया जाता है। भारत का बढ़ता इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग काफी हद तक इसकी स्थिर आपूर्ति पर निर्भर करता है।
- दूरसंचार: फाइबर ऑप्टिक केबल और उन्नत दूरसंचार उपकरण, तेज़ इंटरनेट गति एवं नेटवर्क क्षमता के लिये दुर्लभ मृदा तत्त्व अत्यंत आवश्यक हैं।
- इलेक्ट्रिक वाहन: लिथियम, कोबाल्ट और निकल इलेक्ट्रिक वाहनों की बैटरी के लिये महत्त्वपूर्ण घटक हैं। भारत द्वारा स्वच्छ परिवहन को प्रोत्साहन दिया जाना घरेलू स्तर पर इलेक्ट्रिक वाहनों के उत्पादन हेतु इन खनिजों की आपूर्ति पर काफी निर्भर करता है।
- प्रौद्योगिकीय नवाचार:
- रक्षा विमान: उच्च क्षमता वाले जेट इंजन और एयरफ्रेम में दुर्लभ मृदा तत्त्वों एवं टाइटेनियम का प्रयोग किया जाता है।
- नाभिकीय ऊर्जा: वैनेडियम और ज़िरकोनियम नाभिकीय संयंत्रों के लिये महत्त्वपूर्ण हैं, ये सुरक्षित एवं विश्वसनीय नाभिकीय ऊर्जा उत्पादन सुनिश्चित करते हैं।
- अंतरिक्ष अन्वेषण: रॉकेट और उपग्रहों के निर्माण हेतु हल्के तथा अत्यधिक मज़बूत सामग्रियों के रूप में लिथियम व बेरिलियम का प्रयोग किया जाता है, ये खनिज भारत के अंतरिक्ष अन्वेषण कार्यक्रमों के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
- पर्यावरणीय संधारणीयता:
- सौर पैनल: सिलिकॉन सोलर फोटोवोल्टिक सेल्स का एक प्रमुख घटक है, यह सौर ऊर्जा को स्वच्छ विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करने में सक्षम बनाता है।
- पवन टरबाइन: नियोडिमियम और डिस्प्रोसियम का प्रयोग पवन टरबाइन जनरेटर के लिये उच्च शक्ति वाले मैग्नेट में किया जाता है।
- बैटरी स्टोरेज: सौर और पवन जैसे नवीकरणीय स्रोतों से ऊर्जा भंडारण के लिये लिथियम तथा कोबाल्ट युक्त लिथियम-आयन बैटरी आवश्यक हैं, ये जीवाश्म ईंधन के प्रयोग से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर संक्रमण को संभव बनाने में सहयता कर सकते हैं।
भारत के लिये महत्त्वपूर्ण खनिजों से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?
- आपूर्ति शृंखला में व्यवधान:
- महत्त्वपूर्ण खनिजों के प्रमुख उत्पादक रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे संघर्ष के कारण मौज़ूदा आपूर्ति शृंखलाएँ बाधित हुई हैं, यह भारत के लिये महत्त्वपूर्ण खनिजों की विश्वसनीय आपूर्ति के लिये जोखिमपूर्ण है।
- सीमित घरेलू भंडार:
- भारत में स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों तथा इलेक्ट्रिक वाहनों के लिये महत्त्वपूर्ण लिथियम, कोबाल्ट और दुर्लभ मृदा तत्त्वों जैसे महत्त्वपूर्ण खनिजों का सीमित भंडार है।
- आयात पर अति निर्भरता:
- घरेलू भंडार की कमी के कारण भारत को महत्त्वपूर्ण खनिजों के आयात पर काफी अधिक निर्भर रहना पड़ता है, यह भारत को निम्नलिखित कारकों के प्रति सुभेद्य बनाता है:
- कीमतों में उतार-चढ़ाव: वैश्विक बाज़ार में महत्त्वपूर्ण खनिजों की कीमतों में उतार-चढ़ाव इसकी आपूर्ति को प्रभावित कर सकता है।
- भू-राजनीतिक कारक: आपूर्तिकर्त्ता देशों के साथ तनावपूर्ण संबंध महत्त्वपूर्ण खनिजों तक पहुँच को प्रतिबंधित करता है।
- आपूर्ति में व्यवधान: युद्ध अथवा प्राकृतिक आपदाओं के कारण भी महत्त्वपूर्ण खनिजों की आपूर्ति शृंखला बाधित होती है।
- घरेलू भंडार की कमी के कारण भारत को महत्त्वपूर्ण खनिजों के आयात पर काफी अधिक निर्भर रहना पड़ता है, यह भारत को निम्नलिखित कारकों के प्रति सुभेद्य बनाता है:
- मांग में वृद्धि:
- स्वच्छ ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहन जैसे भारत के महत्त्वाकांक्षी लक्ष्यों के लिये महत्त्वपूर्ण खनिजों की निरंतर मात्रा में आपूर्ति आवश्यक है।
- भारत ने अपने जलवायु कार्य योजना के संबंध में "पंचामृत" लक्ष्य निर्धारित किया है, जिसमें शामिल हैं:
- वर्ष 2030 तक 500 गीगावॉट की गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता प्राप्त करना।
- वर्ष 2030 तक अपनी कुल ऊर्जा आवश्यकताओं का 50% नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त करना।
- बढ़ती मांग और सीमित घरेलू भंडार संयुक्त रूप से विदेशी आपूर्तिकर्त्ताओं पर भारत की निर्भरता में वृद्धि करते हैं।
निष्कर्ष:
समानता, संधारणीयता और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग पर ध्यान देने के साथ संयुक्त राष्ट्र की यह पहल आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने, राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने एवं पर्यावरणीय संधारणीयता को आगे बढ़ाने (विशेष रूप से नवीकरणीय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के संदर्भ में) महत्त्वपूर्ण खनिजों के महत्त्व को रेखांकित करती है। अपने महत्त्वाकांक्षी नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों की ओर बढ़ते हुए भारत के लिये महत्त्वपूर्ण खनिजों को लेकर अंतर्राष्ट्रीय सहयोग महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है, जोकि आर्थिक तथा सतत् पर्यावरणीय भविष्य के लिये एक व्यापक व समावेशी दृष्टिकोण की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. प्रमुख महत्त्वपूर्ण खनिजों और उनके अनुप्रयोगों के बारे में चर्चा कीजिये। भारत के लिये महत्त्वपूर्ण खनिजों का क्या महत्त्व है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्सप्रश्न. हाल में तत्त्वों के एक वर्ग, जिसे 'दुर्लम मृदा धातु' कहते हैं, की कम आपूर्ति पर चिंता जताई गई। क्यों? (2012)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) मेन्स:प्रश्न. गोंडवानालैंड के देशों में से एक होने के बावजूद भारत के खनन उद्योग अपने सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) में बहुत कम प्रतिशत का योगदान देते हैं। विवेचना कीजिये। (2021) प्रश्न. "प्रतिकूल पर्यावरणीय प्रभाव के बावजूद, कोयला खनन विकास के लिये अभी भी अपरिहार्य है।" विवेचना कीजिये। (2017) |
भारतीय पोल्ट्री क्षेत्र
प्रिलिम्स के लिये:H5N1, पशुधन क्षेत्र, एवियन इन्फ्लुएंज़ा (बर्ड फ्लू), पर्यावरण प्रदूषण, ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन , 20वीं पशुधन जनगणना, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) मेन्स के लिये: |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों
हाल ही में H5N1 वायरस के प्रकोप ने औद्योगिक पशुधन क्षेत्र में गंभीर कमियों को प्रकट किया है, जो भारत के पर्यावरण तथा कानूनी ढाँचे के भीतर पशु कल्याण के व्यापक पुनर्मूल्यांकन की अनिवार्यता को रेखांकित करती हैं।
- यह प्रकोप वन हेल्थ सिद्धांत को मज़बूत करता है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य, पारिस्थितिकी तंत्र स्वास्थ्य और जैवविविधता संरक्षण को एकीकृत करता है।
भारतीय पोल्ट्री उद्योग के समक्ष क्या समस्याएँ हैं?
- रोग का प्रकोप और जैव सुरक्षा:
- एवियन इन्फ्लुएंज़ा: एवियन इन्फ्लुएंज़ा (बर्ड फ्लू) के नियमित प्रकोप से उत्पादन बाधित होता है, पक्षियों की मृत्यु हो जाती है तथा बाज़ार में खाद्य संबंधी भय उत्पन्न हो जाता है, जिससे खपत प्रभावित होती है।
- न्यूकैसल रोग (ND): ND एक अत्यधिक संक्रामक वायरल रोग है जो पोल्ट्री स्वास्थ्य और उत्पादकता को प्रभावित करता है।
- जैव सुरक्षा संबंधी चिंताएँ: पोल्ट्री फॉर्मों एवं पक्षी बाज़ारों में पर्याप्त जैव सुरक्षा उपाय न होने से रोगों के प्रसार में वृद्धि होती है।
- अन्य चिंताएँ: उच्च घनत्व वाले पोल्ट्री फॉर्मों में मुर्गियों को अक्सर तार वाले पिंजरों में कैद किया जाता है, जिन्हें 'बैटरी पिंजरों' के रूप में जाना जाता है, जिससे पोल्ट्री फॉर्मों में अतिसघनता और दबाव उत्पन्न होता है।
- इस प्रक्रिया से वायु की गुणवत्ता खराब होती है,अपशिष्ट जमा होता है तथा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन होता है, जो पर्यावरण प्रदूषण एवं विरूपण में योगदान देता है।
- बाज़ार में उतार-चढ़ाव और मूल्य अस्थिरता:
- फीड मूल्य में उतार-चढ़ाव: मक्का और सोयाबीन जैसे महत्त्वपूर्ण पोल्ट्री फीड सामग्री की अस्थिर कीमतें न केवल उत्पादन लागत को प्रभावित, बल्कि पोल्ट्री फीड सामग्री के आयात के कारण आयात निर्भरता बढ़ती है।
- उपभोक्ता मांग में उतार-चढ़ाव: रोग के प्रकोप के समय पोल्ट्री उत्पादों के विषय में भ्रांँतियाँ एवं गलत सूचना इनकी खपत में अत्यधिक कमी ला सकती है, जिससे समग्र बाज़ार स्थिरता प्रभावित हो सकती है।
- बुनियादी ढाँचा और आपूर्ति शृंखला की चुनौतियाँ:
- सीमित कोल्ड चेन इन्फ्रास्ट्रक्चर: यह चुनौती उत्पादन में खराबी और बर्बादी का कारण बनती है, विशेषकर उत्पादन स्तर मे वृद्धि के दौरानI
- अव्यवस्थित आपूर्ति शृंखला: कई मध्यवर्ती संस्थाओं वाली अव्यवस्थित आपूर्ति शृंखला लेन-देन की लागत बढ़ाती है जिससे किसानों का मुनाफा कम होता है, जबकि खराब परिवहन के कारण बुनियादी ढाँचा उत्पाद की आवाजाही को बाधित होती है, जिससे उत्पाद पहुँचाने का समय और उस उत्पाद की मूल अवस्था प्रभावित होती है।
- नीति एवं नियामक मुद्दे:
- असंगठित नियामक ढाँचा: सरकार के विभिन्न स्तरों पर कई अतिव्यापी नियम पोल्ट्री किसानों के लिये भ्रम और अनुपालन चुनौतियाँ उत्पन्न करते हैं।
- ऋण तक सीमित पहुँच: छोटे और मध्यम स्तर के पोल्ट्री किसान अक्सर औपचारिक ऋण तक पहुँचने के लिये संघर्ष करते हैं, जिससे विकास एवं आधुनिकीकरण में बाधा आती है।
- श्रम चुनौतियाँ: पोल्ट्री फार्मों के लिये कुशल श्रमिकों को ढूँढना और उन्हें कार्य पर रखना मुश्किल हो सकता है, जिससे परिचालन दक्षता प्रभावित हो सकती है।
- अन्य मुद्दे:
- पर्यावरणीय चिंताएँ: यदि अपशिष्ट प्रबंधन प्रथाएँ अपर्याप्त हैं तो पोल्ट्री उत्पादन जल प्रदूषण और वायु गुणवत्ता संबंधी समस्याओं में योगदान दे सकता है।
- प्रोटीन की बढ़ती मांग के कारण पोल्ट्री में एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग बढ़ गया है, जिससे एंटीबायोटिक प्रतिरोध और सार्वजनिक स्वास्थ्य जोखिमों के बारे में चिंताएँ बढ़ गई हैं।
- पशु कल्याण संबंधी चिंताएँ: पूरे उद्योग में उचित पशु कल्याण मानकों को सुनिश्चित करना एक चुनौती बनी हुई है।
- मुश्किल निकास: अनुबंध खेती की व्यवस्था, संचित ऋण और क्षेत्र के लिये आवश्यक विशेष कौशल के कारण पोल्ट्री किसानों को अक्सर उद्योग से बाहर निकलने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
- पर्यावरणीय चिंताएँ: यदि अपशिष्ट प्रबंधन प्रथाएँ अपर्याप्त हैं तो पोल्ट्री उत्पादन जल प्रदूषण और वायु गुणवत्ता संबंधी समस्याओं में योगदान दे सकता है।
H5N1 एवियन इंफ्लुएंज़ा का मुद्दा:
- H5N1 एवियन इंफ्लुएंज़ा के प्रकोप ने पशु कल्याण पर ध्यान देने की आवश्यकता पर ध्यान केंद्रित किया है।
- मनुष्यों में संक्रमण फैलने का पहला मामला: मनुष्यों में H5N1 संक्रमण; सीधे मुर्गियों द्वारा फैलने की पहली घटना वर्ष 1997 में हॉन्गकॉन्ग हुई थी।
- भारत पर H5N1 का प्रभाव: भारत ने वर्ष 2006 में महाराष्ट्र में अपने पहले H5N1 रोगी की सूचना प्रदान कीI इसके बाद दिसंबर 2020 और 2021 की शुरुआत में इसका प्रकोप 15 राज्यों में फैल गया, जो रोगजनक की व्यापक प्रकृति को उजागर करता है।
- H5N1 का वैश्विक प्रभाव: H5N1 ने प्रजातियों की बाधाओं को दूर करने की क्षमता विकसित की है, जिससे आर्कटिक क्षेत्र में कई ध्रुवीय भालुओं और अंटार्कटिका में सीलो व सीगलों की मृत्यु हो गई, जो इसके वैश्विक प्रभाव को दर्शाता है।
- मनुष्यों में H5N1 की मृत्युदर: विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का अनुमान है कि वर्ष 2003 से दर्ज़ मामलों के आधार पर H5N1 की मृत्यु दर 52% है, जो मानव स्वास्थ्य के लिये गंभीर जोखिम को उजागर करता है।
भारत में पोल्ट्री पालन क्षेत्र से संबंधित विभिन्न प्रावधान क्या हैं?
- भारत में पोल्ट्री पक्षियों की स्थिति:
- 20वीं पशुधन गणना के अनुसार, भारत में 851.8 मिलियन पोल्ट्री पक्षी हैं। भारत में लगभग 30% 'बैकयार्ड पोल्ट्री' अथवा छोटे और सीमांत किसान हैं। पोल्ट्री फार्मों में मुर्गियाँ, टर्की, बत्तख, हंस आदि को मांस और अंडे के लिये पाला जाता है।
- पोल्ट्री की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, कर्नाटक, असम और केरल हैं।
- 20वीं पशुधन गणना के अनुसार, भारत में 851.8 मिलियन पोल्ट्री पक्षी हैं। भारत में लगभग 30% 'बैकयार्ड पोल्ट्री' अथवा छोटे और सीमांत किसान हैं। पोल्ट्री फार्मों में मुर्गियाँ, टर्की, बत्तख, हंस आदि को मांस और अंडे के लिये पाला जाता है।
- भारत में पोल्ट्री इकाइयों की कानूनी स्थिति:
- पोल्ट्री किसानों के लिये दिशा-निर्देश, 2021:
- पोल्ट्री किसानों की नई परिभाषाः
- छोटे किसान: 5,000-25,000 पक्षी
- मध्यम किसान: 25,000 से अधिक और 1,00,000 से कम पक्षी
- बड़े किसानः 1,00,000 से अधिक पक्षी
- मध्यम आकार के पोल्ट्री फार्म की स्थापना और संचालन के लिये जल अधिनियम, 1974 तथा वायु अधिनियम, 1981 के तहत राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड अथवा समिति से सहमति का प्रमाण पत्र आवश्यक है, जिसके लिये 15 साल की अनुमति दी गई है।
- पशुपालन विभाग राज्य और ज़िला स्तर पर दिशा-निर्देशों को लागू करने के लिये उत्तरदायी होगा।
- पोल्ट्री किसानों की नई परिभाषाः
- अन्य प्रावधानः
- केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) 5,000 से अधिक पक्षियों वाली पोल्ट्री इकाइयों को प्रदूषणकारी उद्योगों के रूप में वर्गीकृत करता है, जो अनुपालन और नियामक सहमति के अधीन है।
- पशु क्रूरता निवारण (PCA) अधिनियम, 1960, पशु कल्याण के महत्त्व को पहचानते हुए, मुर्गियों सहित जानवरों को कैद करने पर रोक लगाता है।
- वर्ष 2017 में भारत के 269वें विधि आयोग की रिपोर्ट ने मांस और अंडा उद्योगों में मुर्गियों के कल्याण के लिये ढाँचागत नियमों का प्रस्ताव किया, जिसमें सुरक्षित खाद्य उत्पादन के लिये बेहतर पशु कल्याण पर ज़ोर दिया गया था।
- सिफारिशों के बावजूद, वर्ष 2019 में कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी अंडा उद्योग हेतु ढाँचागत नियमों को उचित नहीं माना गया है।
- पोल्ट्री किसानों के लिये दिशा-निर्देश, 2021:
- पोल्ट्री उद्योग के लिये कुछ पहल:
- पोल्ट्री वेंचर कैपिटल फंड (PVCF): पशुपालन और डेयरी विभाग इसे राष्ट्रीय पशुधन मिशन के "उद्यमिता विकास और रोज़गार सृजन" (EDEG) के तहत कार्यान्वित कर रहा है।
- राष्ट्रीय पशुधन मिशन (NLM): NLM के तहत विभिन्न कार्यक्रम जिसमें रूरल बैकयार्ड पोल्ट्री डेवलपमेंट (RBPD) और इनोवेटिव पोल्ट्री प्रोडक्टिविटी प्रोजेक्ट (IPPP) को लागू करने के लिये राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है।
- पशु रोग नियंत्रण के लिये राज्यों को सहायता (ASCAD) योजना: ASCAD योजना ‘पशुधन स्वास्थ्य और रोग नियंत्रण’ (LH&DC) के तहत आर्थिक रूप से महत्त्वपूर्ण पोल्ट्री रोगों जैसे; रानीखेत रोग, संक्रामक बर्सल रोग, फाउल पॉक्स आदि के टीकाकरण को कवर करती है, जिसमें एवियन इंफ्लुएंज़ा (Avian Influenza) जैसी आकस्मिक एवं विदेशी बीमारियों का नियंत्रण और रोकथाम करना शामिल है।
पोल्ट्री उद्योग को समर्थन देने के लिये क्या कदम आवश्यक हैं?
- वैश्विक प्राथमिकता के रूप में जैव सुरक्षा:
- पृथक्करण: विश्व के प्रमुख पोल्ट्री उत्पादक फ्लॉक्स (पोल्ट्री के समूह) को उनकी आयु और स्वास्थ्य स्थिति के आधार पर अलग-अलग रखते हैं, जिससे इनमें रोग संचरण का जोखिम कम हो जाता है।
- इस प्रथा को भारत में विभागीकरण पोल्ट्री क्षेत्रों की स्थापना करके या जैव-सुरक्षित सुविधाओं के भीतर मल्टी ऐज रिअरिंग (multi-age rearing) को प्रोत्साहित करके अपनाया जा सकता है।
- टीकाकरण कार्यक्रम: एवियन इन्फ्लुएंज़ा और न्यूकैसल रोग जैसी प्रचलित बीमारियों के विरुद्ध टीकाकरण प्रोटोकॉल को अपनाना विश्व स्तर पर मानक उपाय हैं।
- भारत अपने राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रमों को मज़बूत करके और छोटे पैमाने के किसानों तक व्यापक पहुँच सुनिश्चित करके लाभान्वित हो सकता है।
- पृथक्करण: विश्व के प्रमुख पोल्ट्री उत्पादक फ्लॉक्स (पोल्ट्री के समूह) को उनकी आयु और स्वास्थ्य स्थिति के आधार पर अलग-अलग रखते हैं, जिससे इनमें रोग संचरण का जोखिम कम हो जाता है।
- प्रौद्योगिकी के माध्यम से दक्षता बढ़ाना:
- सटीक फीडिंग: उन्नत फीडिंग प्रणालियाँ जो व्यक्तिगत पक्षी की ज़रूरतों के अनुकूल होती हैं और फीड उपयोग को अनुकूलित करती हैं, विश्व स्तर पर में लोकप्रियता प्राप्त कर रही हैं।
- भारतीय पोल्ट्री फार्मों को इन प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित करने से, यहाँ तक कि छोटे संस्करणों में भी, फीड रूपांतरण दक्षता में सुधार हो सकता है और लागत कम हो सकती है।
- पर्यावरण निगरानी प्रणाली: पोल्ट्री घरों में तापमान, आर्द्रता और अमोनिया के स्तर जैसे कारकों की वास्तविक समय की निगरानी इष्टतम पक्षी स्वास्थ्य के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- कम लागत वाले सेंसर के माध्यम से भी, भारतीय खेतों में ऐसी प्रणालियों को लागू करने से स्वस्थ वातावरण बनाए रखने और बीमारी के प्रकोप को रोकने में सहायता मिल सकती है।
- सटीक फीडिंग: उन्नत फीडिंग प्रणालियाँ जो व्यक्तिगत पक्षी की ज़रूरतों के अनुकूल होती हैं और फीड उपयोग को अनुकूलित करती हैं, विश्व स्तर पर में लोकप्रियता प्राप्त कर रही हैं।
- एक सतत् आपूर्ति शृंखला का निर्माण:
- अनुबंध खेती: उत्पादकों और प्रसंस्करणकर्त्ताओं के बीच अनुबंध फार्मिंग की व्यवस्था किसानों के लिये बाज़ार पहुँच और उचित मूल्य सुनिश्चित करती है।
- कोल्ड चेन इंफ्रास्ट्रक्चर: परिवहन और भंडारण के दौरान नुकसान को कम करने के लिये मज़बूत कोल्ड चेन इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश करना एक सर्वोत्तम वैश्विक अभ्यास है।
- भारत दूरदराज़ के उत्पादन क्षेत्रों को प्रमुख उपभोग केंद्रों से जोड़कर कुशल कोल्ड चेन नेटवर्क विकसित करने को प्राथमिकता दे सकता है।
निष्कर्ष:
- सरकारी समर्थन, उद्योग सहयोग और किसान जागरूकता जैसी बहुआयामी रणनीतियाँ अपनाकर, भारतीय पोल्ट्री क्षेत्र वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं को प्रभावी ढंग से लागू कर सकता है।
- इससे सतत् विकास, बढ़ी हुई जैव सुरक्षा, बढ़ी हुई दक्षता और वैश्विक बाज़ार में अधिक प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ावा मिलेगा, जिससे भारत की खाद्य सुरक्षा एवं आर्थिक समृद्धि को बढ़ावा मिलेगा।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. भारतीय पोल्ट्री क्षेत्र में चुनौतियों और अवसरों पर चर्चा कीजिये। खाद्य सुरक्षा और आर्थिक विकास में क्षेत्र के योगदान को सुनिश्चित करने के लिये नीतिगत हस्तक्षेप एवं उद्योग पहल इन मुद्दों को कैसे संबोधित कर सकते हैं? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. H1N1 विषाणु का प्रायः समाचारों में निम्नलिखित में से किस एक बीमारी के संदर्भ में उल्लेख किया जाता है? (2015) (a) एड्स (AIDS) उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न. क्या एंटीबायोटिकों का अति-उपयोग और डॉक्टरी नुस्खे के बिना मुक्त उपलब्धता, भारत में औषधि-प्रतिरोधी रोगों के अविर्भाव के अंशदाता हो सकते हैं? अनुवीक्षण और नियंत्रण की क्या क्रियाविधियाँ उपलब्ध हैं? इस संबंध में विभिन्न मुद्दों पर समालोचनापूर्वक चर्चा कीजिये। (2014) |
निजी संपत्ति का पुनर्वितरण
प्रिलिम्स के लिये:अनुच्छेद 39, 31, अनुच्छेद 39(b), सर्वोच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय की सांविधानिक पीठ, राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व, केशवानंद भारती मामला, 1973 मेन्स के लिये:निजी संपत्ति का अधिकार, राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व बनाम मौलिक अधिकार, सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार द्वारा निजी स्वामित्त्व वाली संपत्तियों के अधिग्रहण और पुनर्वितरण की संभाव्यताओं संबंधी विभिन्न याचिकाओं द्वारा उठाए गए विधिक प्रश्नों पर सुनवाई शुरू की है।
- न्यायालय के समक्ष यह प्रश्न उठाया गया कि क्या संविधान के अनुच्छेद 39 (b), जोकि राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों (DPSP) का हिस्सा है, के तहत निजी संपत्तियों को "समुदाय के भौतिक संसाधन" माना जा सकता है।
पूरा मामला क्या है?
- यह मामला मुंबई में 'उपकरित' संपत्तियों (वे संपत्तियाँ हैं जिनके लिये उनके मालिक द्वारा MHADA के अध्याय VIII के तहत उपकर अथवा कर का भुगतान किया जाता है) के मालिकों द्वारा महाराष्ट्र हाउसिंग एंड एरिया डेवलपमेंट एक्ट (MHADA), 1976 में वर्ष 1986 के संशोधन को चुनौती देने के आलोक में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत हुआ है।
- MHADA को वर्ष 1976 में पुरानी, जीर्ण असस्था वाले इमारतों, जो बीतते समय के साथ खतरनाक होती जा रही थीं, में रहने वाले (गरीब) किरायेदारों की समस्या के समाधान के लिये अधिनियमित गया था।
- MHADA ने मरम्मत और पुनर्निर्माण परियोजनाओं की देखरेख के लिये मुंबई बिल्डिंग मरम्मत एवं पुनर्निर्माण बोर्ड (MBRRB) को भुगतान करने हेतु इमारतों में रहने वालों पर एक उपकर आरोपित किया।
- इस अधिनियम को वर्ष 1986 में अनुच्छेद 39(b) को अधिनियमित करके संशोधित किया गया था, जिसके अनुसार-
- इसका उद्देश्य भूमि और इमारतों के अधिग्रहण संबंधी योजनाओं को क्रियान्वित करना है, ताकि उन्हें "ज़रूरतमंद व्यक्तियों" तथा "इस प्रकार की भूमि अथवा इमारतों के मालिकों" को हस्तांतरित किया जा सके।
- यह अधिनियम 70% मालिकों द्वारा अनुरोध की स्थिति में राज्य सरकार को उपकरित भवनों (और जिस भूमि पर वे बने हैं) का अधिग्रहण करने की अनुमति देने का प्रावधान करता है।
- समता के अधिकार का उल्लंघन: मुंबई में संपत्ति मालिकों के संघ ने MHADA को बॉम्बे उच्च न्यायालय में चुनौती देते हुए दावा किया कि यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत संपत्ति मालिकों के समता के अधिकार का उल्लंघन है।
- राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों को छूट: न्यायालय ने निर्णय दिया कि DPSP के समर्थन में पारित कानूनों का इस आधार पर विरोध नहीं किया जा सकता कि वे संविधान के अनुच्छेद 31c द्वारा प्रदत्त समता के अधिकार का उल्लंघन करते हैं।
- समुदाय के भौतिक संसाधनों की व्याख्या: दिसंबर 1992 में एसोसिएशन ने सर्वोच्च न्यायालय में इस निर्णय के विरुद्ध अपील दायर की।
- इस प्रकार, शीर्ष न्यायालय के समक्ष मुख्य मुद्दा यह था कि क्या निजी स्वामित्त्व वाले संसाधन, जिनमें उपकरित इमारतें शामिल हैं, अनुच्छेद 39 (b) के तहत "समुदाय के भौतिक संसाधनों" के अंतर्गत आते हैं अथवा नहीं।
निजी संपत्ति और उसके वितरण संबंधी विधिक दृष्टिकोण क्या है?
- संवैधानिक दृष्टिकोण:
- अनुच्छेद 19(1)(f) और अनुच्छेद 31: यह अनुच्छेद संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देता है।
- हालाँकि, वर्ष 1978 के 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा इस अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया और अनुच्छेद 300A के तहत इसे संवैधानिक अधिकार के रूप में सूचीबद्ध किया गया।
- अनुच्छेद 300A: इस अनुच्छेद के अनुसार, राज्य द्वारा किसी व्यक्ति को उसकी निजी संपत्ति से वंचित करने के लिये उचित प्रक्रिया एवं विधि के अधिकार का पालन करना होगा।
- 9वीं अनुसूची: इसमें विशिष्ट विधियों को सूचीबद्ध किया गया है जिन्हें न्यायालयों में इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, जिसमें (एक बार) संपत्ति का मौलिक अधिकार भी शामिल है।
- इस अनुसूची में भूमि सुधार (ज़मींदारी प्रथा का उन्मूलन) जैसे कानून शामिल हैं।
- अनुच्छेद 39: इसमें राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों (संविधान के भाग IV के तहत) को सूचीबद्ध किया गया है, जो विधियों के अधिनियमन के लिये मार्गदर्शक सिद्धांत हैं, किंतु इन्हें किसी भी न्यायालय में सीधे लागू नहीं किया जा सकता है।
- DPSP का उद्देश्य लोगों के लिये सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना और भारत की एक कल्याणकारी राज्य के रूप में स्थापित करना है।
- अनुच्छेद 39(b) के अनुसार "समुदाय के भौतिक संसाधनों के स्वामित्त्व और नियंत्रण को जनता की भलाई को ध्यान में रखते हुए वितरित करने की दिशा में नीति निर्धारित करना राज्य का कर्त्तव्य है।
- अनुच्छेद 39(c) यह सुनिश्चित करता है कि धन और उत्पादन साधनों का सर्वसाधारण के लिये अहितकारी "संकेंद्रण" न हो।
- अनुच्छेद 31C:
- कुछ निदेशक सिद्धांतों को लागू करने वाले क़ानून अनुच्छेद 31C द्वारा संरक्षित हैं।
- अनुच्छेद 31C के अनुसार, इन विशेष निर्देशक सिद्धांतों (अनुच्छेद 39(b) और 39(c)) को समता के अधिकार (अनुच्छेद 14) अथवा अनुच्छेद 19 के तहत अधिकारों (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शांतिपूर्ण ढंग से जमा होने और सभा करने का अधिकार) का प्रयोग करके चुनौती नहीं दी जा सकती है।
- केशवानंद भारती मामले, 1973 में, न्यायालय ने अनुच्छेद 31C की वैधता को बरकरार रखा किंतु इसे न्यायिक समीक्षा के अधीन बना दिया।
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 39(b) की व्याख्या:
- कर्नाटक राज्य बनाम श्री रंगनाथ रेड्डी मामला, 1977:
- सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि निजी स्वामित्त्व वाले संसाधन "समुदाय के भौतिक संसाधनों" के दायरे के अंतर्गत नहीं आते हैं।
- न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर ने इस पर असहमति जताते हुए राय दी कि निजी स्वामित्त्व वाले संसाधनों को भी समुदाय का भौतिक संसाधन माना जाना चाहिये।
- अनुच्छेद 39 (b) के दायरे से निजी संसाधनों के स्वामित्त्व को बाहर करना समाजवादी तरीके से पुनर्वितरण के इसके उद्देश्य को अस्पष्ट (छिपाना) रखने के समान है।
- संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम भारत कोकिंग कोल मामला, 1983:
- सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति अय्यर की राय की पुष्टि की और कोयला खदानों तथा उनके संबंधित कोक ओवन संयंत्रों का राष्ट्रीयकरण करने वाले केंद्रीय कानून को बरकरार रखा।
- यह निर्णय लिया गया कि निजी स्वामित्त्व वाले संसाधनों को भी समुदाय का भौतिक संसाधन माना जाना चाहिये।
- मफतलाल इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामला, 1996:
- सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 39(b) की व्याख्या के लिये 9 न्यायाधीशों की सांविधानिक पीठ की सहायता ली।
- सर्वोच्च न्यायालय ने संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग मामले में जस्टिस अय्यर और पीठ द्वारा पेश की गई अनुच्छेद 39(b) की व्याख्या को आधार बनाया।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्राकृतिक अथवा भौतिक संसाधन और चल अथवा अचल संपत्ति "अनुच्छेद 39 (b) में वर्णित 'भौतिक संसाधन' के अंतर्गत शामिल होंगे तथा इसमें भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के सभी निजी व सार्वजनिक स्रोत शामिल होंगे, न कि ये केवल सार्वजनिक संपत्ति तक ही सीमित रहेंगे।”
- कर्नाटक राज्य बनाम श्री रंगनाथ रेड्डी मामला, 1977:
राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (DPSP) क्या हैं?
- परिचय:
- राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों (DPSP) का उद्देश्य लोगों के लिये सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना और भारत की एक कल्याणकारी राज्य के रूप में स्थापना करना है।
- सांविधानिक प्रावधान:
- भारत के संविधान का भाग IV (अनुच्छेद 36-51) DPSP से संबंधित है।
- भारतीय संविधान का अनुच्छेद 37 निदेशक सिद्धांतों के अनुप्रयोग से संबंधित है।
- पृष्ठभूमि:
- भारतीय संविधान में निहित निदेशक सिद्धांत आयरिश संविधान से लिये गए हैं।
- इन नीतियों के प्रेरक तत्त्व मनुष्य के अधिकारों और अमेरिकी उपनिवेशों द्वारा स्वतंत्रता की उद्घोषणा के साथ-साथ सर्वोदय की गांधीवादी अवधारणा हैं।
- उद्देश्य:
- नियंत्रण और संतुलन: इसका लक्ष्य सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना है, संविधान निर्माताओं के अनुसार, भारत के राज्यों को इस दिशा में प्रयास करते रहना चाहिये।
- इन्हीं विचारों के अनुरूप उन्होंने अपनी ज़िम्मेदारियों का निर्वहन करने के लिये भारत की विधायिकाओं, कार्यकारियों और प्रशासकों के लिये एक आचार संहिता निर्धारित की।
- विधिक कार्रवाइयाँ और सरकारी नीतियाँ: DPSP लोगों की आकांक्षाओं, उद्देश्यों तथा आदर्शों का प्रतीक हैं जिन्हें केंद्र और राज्य सरकारों को एवं नीतियाँ बनाते समय ध्यान में रखना चाहिये।
- सामाजिक न्याय की विचारधारा: यह भारतीय संविधान में निहित सामाजिक न्याय की विचारधारा को प्रतिबिंबित करता है, हालाँकि ये किसी भी न्यायालय द्वारा विधिक रूप से बाध्यकारी नहीं हैं, फिर भी वे देश की शासन व्यवस्था का मूलाधार हैं।
- नियंत्रण और संतुलन: इसका लक्ष्य सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना है, संविधान निर्माताओं के अनुसार, भारत के राज्यों को इस दिशा में प्रयास करते रहना चाहिये।
- वर्गीकरण:
संपत्ति के पुनर्वितरण से संबंधित तर्क क्या हैं?
पक्ष में तर्क:
- सामाजिक न्याय: यह सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने वाले संविधान की प्रस्तावना के सिद्धांतों के अनुरूप है।
- अप्रतिबंधित संपत्ति का अधिकार संपत्ति वितरण संबंधी असमानता को बढ़ा सकता है। अमीर लोगों के पास संपत्तियों का बड़ी मात्रा में संकेंद्रण हो सकता है, जिससे दूसरों के लिये इसकी उपलब्धता कम हो सकती है। यह सामाजिक शांति और आर्थिक गतिशीलता को बाधित कर सकता है, इसलिये संपत्ति का पुनर्वितरण आवश्यक है।
- उदाहरण: नक्सल विद्रोह और उसके बाद नक्सली आंदोलन मुख्य रूप से भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आर्थिक एवं सामाजिक असमानता के कारण उत्पन्न हुआ।
- गरीबी उन्मूलन: पुनर्वितरण कार्यक्रम जरूरतमंद लोगों को वित्तीय सहायता, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और अन्य आवश्यक सेवाएँ प्रदान करके गरीबी को कम करने में मदद कर सकते हैं।
- सामाजिक मुद्दों का समाधान: संपत्ति का बुद्धिमतापूर्ण पुनर्वितरण सरकार को गरीबी उन्मूलन, बेघर लोगों की मदद करने तथा पर्यावरणीय क्षरण जैसे सामाजिक मुद्दों का समाधान करने में सक्षम बनाता है।
- सामाजिक एकजुटता: आर्थिक असमानताओं को कम करने से विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समूहों के बीच अंतर को कम करके अधिक सामाजिक एकजुटता व सौहार्द को बढ़ावा दिया जा सकता है।
विपक्ष में तर्क:
- कार्य को हतोत्साहन:
- लोगों को विश्वास जो जाना कि सरकार द्वारा पुनर्वितरण के माध्यम से विभिन्न सुविधाएँ प्रदान कर दी जाएँगी, यह लोगों को कड़ी मेहनत करने और जोखिम लेने से हतोत्साहित करता है।
- यह संपत्ति सृजन और उद्यमशीलता को हतोत्साहित कर सकता है, जिससे आर्थिक विकास की गति धीमी पड़ सकती है।
- बाज़ार क्षमता: पुनर्वितरण का बाज़ार तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है और यह संसाधन आवंटन व्यवस्था को विकृत कर सकता है।
- वैयक्तिक स्वतंत्रता: यह व्यक्तियों के एक समूह से जबरन धन लेकर दूसरे को हस्तांतरित करके वैयक्तिक स्वतंत्रता और संपत्ति के अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है।
- प्रशासनिक प्रभाव: पुनर्वितरण कार्यक्रमों को लागू करना और प्रबंधित करना एक अन्य कठिन कार्य है, जिसमें नौकरशाही के दुरुपयोग व भ्रष्टाचार की भी काफी संभावना बनती है।
- बीते समय में पुनर्वितरण संबंधी असफल प्रयास:
- कई देशों-समाजों में संपत्ति के स्वामित्त्व का सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्त्व है। यह अस्मिता, विरासत तथा पारिवारिक विरासत की धारणाओं को दर्शाता है।
- इसके अतिरिक्त, भूमि सुधार जैसे पिछले पुनर्वितरण प्रयास केरल और पश्चिम बंगाल को छोड़कर अधिकांश राज्यों में विफल रहे हैं।
आगे की राह
- सशर्त संपत्ति अधिकार: ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये जहाँ संपत्ति का अधिकार इसके उत्तरदायीपूर्ण उपयोग के संबंध में शर्तों के अनुपालन पर आधारित हो।
- सरकार यह सुनिश्चित कर सकती है कि संपत्ति का उपयोग कैसे किया जाए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह पर्यावरण को हानि नहीं पहुँचाती है या दूसरों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करती है।
- सामाजिक न्याय पर ध्यान: पूर्ण संपत्ति अधिकारों के बजाय, सामाजिक न्याय को प्राथमिकता देने और यह सुनिश्चित करने के लिये प्रयास किये जाने चाहिये कि सभी की आवास एवं भूमि जैसी बुनियादी आवश्यकताओं तक पहुँच हो।
- इसमें धन पुनर्वितरण या संपत्ति के स्वामित्व संबंधी नियम शामिल हो सकते हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: अनुच्छेद 39(b) के उद्देश्यों की प्राप्ति में आने वाली चुनौतियों और बाधाओं की जाँच कीजिये तथा उन्हें दूर करने के लिये संभावित रणनीतियों का सुझाव दीजियेI |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न 1. भारत के संविधान का कौन-सा भाग कल्याणकारी राज्य के आदर्श की घोषणा करता है? (2020) (a) राज्य की नीति के निदेशक तत्त्व उत्तर: (a) प्रश्न 2. मूल अधिकारों के अतिरिक्त, भारत के संविधान का निम्नलिखित में से कौन-सा/से भाग मानव अधिकारों की सार्वभौम घोषणा 1948 (Universal Declaration of Human Rights 1948) के सिद्धांतों एवं प्रावधानों को प्रतिबिंबित करता/करते है/हैं? (2020)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये : (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) मेन्सप्रश्न. 'संवैधानिक नैतिकता' की जड़ संविधान में ही निहित है और इसके तात्विक फलकों पर आधारित है। 'संवैधानिक नैतिकता' के सिद्धांत की प्रासंगिक न्यायिक निर्णयों की सहायता से विवेचना कीजियेI (2021) |
बचत का विरोधाभास
प्रिलिम्स के लिये:बचत का विरोधाभास, मितव्ययिता का विरोधाभास, बचत दरें, जॉन मेनार्ड कीन्स, माइक्रोफाइनेंस, भारतीय रिज़र्व बैंक, सागरमाला, भारतमाला मेन्स के लिये:भारत के संदर्भ में बचत के विरोधाभास का अनुप्रयोग |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में बचत का विरोधाभास या मितव्ययिता का विरोधाभास आर्थिक चर्चाओं में रुचि का विषय रहा है, क्योंकि इसका निहितार्थ यह है कि व्यक्तिगत बचत व्यवहार व्यापक आर्थिक विकास को किस प्रकार नकारात्मक रूप से प्रभावित कर सकता है।
- यह प्रतिकूल आर्थिक अवधारणा समाचारों और विश्लेषणों में पुनः सामने आई है, विशेष रूप से आर्थिक मंदी के समय में, जहाँ बचत एवं खर्चों के बीच संतुलन, इस नीतिगत बहस के लिये महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि कैसे सुधार को प्रोत्साहित किया जाए और आर्थिक स्थिरता को बनाए रखा जाए।
बचत के विरोधाभास की अवधारणा क्या है?
- परिचय:
- बचत का विरोधाभास, जिसे अर्थशास्त्र के विरोधाभास के रूप में भी जाना जाता है, यह बताता है कि व्यक्तिगत बचत स्पष्ट रूप से सही है, लेकिन एक अर्थव्यवस्था के अंतर्गत समग्र बचत दरों में वृद्धि होने से, देश की कुल आर्थिक बचत में कमी आ सकती है।
- यह सिद्धांत उस सहज धारणा के विपरीत है कि अधिक व्यक्तिगत बचत, स्पष्ट तौर पर बढ़ी हुई आर्थिक बचत में योगदान करती है।
- सिद्धांत की उत्पत्ति और विकास:
- मुख्य ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि: इस विचार को जॉन मेनार्ड कीन्स ने अपनी प्रभावशाली 1936 में प्रकाशित पुस्तक, “द जनरल थ्योरी ऑफ एम्प्लॉयमेंट, इंटरेस्ट एंड मनी” में विशेष रूप से लोकप्रिय बनाया था।
- कीन्सियन परिप्रेक्ष्य: कीन्सियन अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि बचत में वृद्धि से वस्तुओं और सेवाओं पर उपभोक्ता व्यय कम हो जाता है, जिसके परिणामस्वरूप समग्र बचत एवं निवेश कम हो जाता है।
- उनका तर्क है कि उपभोक्ता व्यय आर्थिक विकास को गति देता है और बचत को उपभोक्ता बाज़ारों के लिये सामान तैयार करने के उद्देश्य से निवेश में लगाया जाता है।
- अपर्याप्त उपभोक्ता व्यय से इन निवेशों में कमी आ सकती है, जिससे आर्थिक विकास को नुकसान पहुँच सकता है।
- सरकारी भूमिका:
- कीन्सियन आर्थिक मंदी के समय में सक्रिय सरकारी हस्तक्षेप की वकालत करते हैं।
- इन उपायों में उपभोक्ता क्रय शक्ति को बढ़ावा देने और मांग को प्रोत्साहित करने के लिये सरकारी व्यय को बढ़ाना शामिल हो सकता है।
- कीन्सियन आर्थिक मंदी के समय में सक्रिय सरकारी हस्तक्षेप की वकालत करते हैं।
- विपरीत तर्क:
- विरोधाभास रखने वाले आलोचकों का तर्क है कि बचत, पूंजी के एक पूल में योगदान करती है जिसका उपयोग निवेश के लिये किया जा सकता है, जिससे संभावित रूप से निम्न उपभोक्ता व्यय के संदर्भ में भी आर्थिक विकास हो सकता है।
- उपभोक्ता मांग में कमी से निवेश अल्पकालिक, उपभोक्ता-संचालित उत्पादन से दीर्घकालिक परियोजनाओं की ओर स्थानांतरित हो जाता है, जो संभावित रूप से पहले से अव्यवहार्य परियोजनाओं को व्यवहार्य बनाता है।
भारतीय संदर्भ में मितव्ययिता का विरोधाभास कैसे चलता है?
- भारतीय संदर्भ:
- भारतीयों की उच्च बचत दर, दीर्घकालिक सुरक्षा के लिये लाभदायक मंदी के दौरान आर्थिक विकास में बाधा बन सकती है।
- सीमित बचत वाला एक बड़ा अनौपचारिक क्षेत्र मामलों को जटिल बनाता है; औपचारिकीकरण को बढ़ावा देने वाली नीतियाँ बचत को बढ़ावा दे सकती हैं और ऋण तक पहुँच बढ़ा सकती हैं।
- न्यूनतम मांग व्यवसायों को नई परियोजनाओं में निवेश करने से रोक सकती है, जिससे समग्र निवेश पूल घट सकता है, जो भारत के बुनियादी ढाँचे और रोज़गार सृजन की आवश्यकताओं के लिये एक चिंता का विषय है।
- शमनीय कारक:
- एक कुशल बैंकिंग प्रणाली बचत को उत्पादक निवेश में बदल सकती है।
- आर्थिक मंदी के दौरान, सरकार बुनियादी ढाँचे और सामाजिक कार्यक्रमों पर अधिक व्यय करके मांग को प्रोत्साहित कर सकती है तथा नौकरियों का सृजन कर सकती है।
- आर्थिक मंदी के दौरान उपभोग को प्रोत्साहित करने के लिये व्यवहारिक अर्थशास्त्र के सिद्धांतों का उपयोग किया जा सकता है।
भारत रिकार्डियन तुल्यता प्रस्ताव को कैसे लागू करता है?
- क्राउडिंग-आउट प्रभाव: आर्थिक सर्वेक्षण, (2021) क्राउडिंग-आउट प्रभाव पर चर्चा करता है, जहाँ सरकारी खर्च बढ़ने से संभावित रूप से उच्च ब्याज दरों के कारण निजी निवेश कम हो जाता है।
- यह घटना रिकार्डियन तुल्यता प्रस्ताव (REP) से जुड़ी है, जो आदर्श पूंजी बाज़ार की परिकल्पना करती है और उपभोक्ताओं को संभावित कर देनदारियों के लिये अलग से धन की बचत करने की वकालत करती है, जिससे सरकारी व्यय के नकारात्मक प्रभावों को दूर किया जा सके।
- हालाँकि, भारत जैसी जटिल और उभरती अर्थव्यवस्थाओं में REP की कठोर धारणाएँ लागू नहीं हो सकती हैं।
- भारत का आर्थिक परिदृश्य: भारत, एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था, आय विकास के साथ बचत आपूर्ति में वृद्धि का अनुभव कर रहा है, जो कि क्राउडिंग-आउट परिकल्पना में अपेक्षित स्थिर बचत आपूर्ति के विपरीत है।
- इससे सरकारी खर्च मांग और रोज़गार को बढ़ावा मिल सकता है, जिससे बचत में वृद्धि हो सकती है तथा निजी निवेश को बढ़ावा मिल सकता है।
- निजी क्षेत्र की बचत और निवेश क्षमताओं का समर्थन करने वाले सार्वजनिक व्यय वास्तव में निजी निवेश को बढ़ावा दे सकते हैं, विशेषकर तब, जब उन्हें बुनियादी ढाँचे एवं विकास की ओर निर्देशित किया जाता है।
- आर्थिक सर्वेक्षण अंतर्दृष्टि: भारत का आर्थिक सर्वेक्षण (2020-21) संभावित अल्पकालिक क्राउडिंग-आउट प्रभाव को स्वीकार करता है, परंतु दीर्घकालिक लाभों पर ज़ोर देता है जहाँ सार्वजनिक निवेश, निजी निवेश को प्रोत्साहित करते हैं।
- यह ‘महत्त्वपूर्ण आर्थिक विकास कारक’ के रूप में MSME क्षेत्र के ऋण में वृद्धि तथा सरकार द्वारा बढ़े हुए पूंजीगत व्यय पर प्रकाश डालता है।
- सर्वेक्षण से पता चलता है कि भारत में, सार्वजनिक व्यय निजी निवेश का पूरक है, जिससे देश की समग्र आर्थिक प्रगति में सहायता मिलती है।
निष्कर्ष:
- बचत दरों पर यह विरोधाभास पारंपरिक आर्थिक ज्ञान के लिये एक महत्त्वपूर्ण सैद्धांतिक चुनौती प्रस्तुत करता है जो स्पष्ट रूप से बचत का समर्थन करता है।
- जबकि कीनेसियन अर्थशास्त्री आर्थिक गतिविधियों पर बचत दरों में वृद्धि के संभावित नकारात्मक प्रभावों को चिह्नित करते हैं, आलोचक एक पृथक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं जो बचत को समय-समय पर आर्थिक उत्पादन और निवेश को समायोजित करने के लिये एक लचीले उपाय के रूप में देखते हैं, जिससे संभावित रूप से स्थायी दीर्घकालिक विकास सुनिश्चित हो सकता है।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्र. भारतीय अर्थव्यवस्था के संदर्भ में बचत के विरोधाभास की प्रासंगिकता पर चर्चा करें। व्यक्तिगत बचत व्यवहार समग्र आर्थिक विकास और कुल मांग को कैसे प्रभावित करता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, गत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारत में सभी राष्ट्रीयकृत वाणिज्यिक बैंकों में बचत खातों पर ब्याज दर किसके द्वारा निर्धारित की जाती है (2010) (a) केंद्रीय वित्त मंत्रालय उत्तर: (d) प्रश्न . किसी अर्थव्यवस्था में यदि ब्याज की दर को घटाया जाता है, तो वह(2014) (a) अर्थव्यवस्था में उपभोग व्यय घटाएगा उत्तर : (c) मेन्स :प्रश्न. भारत की संभावित वृद्धि के कई कारकों में से बचत दर सबसेअधिक प्रभावी है। क्या आप सहमत हैं? विकास क्षमता के लिए अन्य कौन से कारक उपलब्ध हैं? |