डेली न्यूज़ (01 Oct, 2024)



भारतीय संविधान की गतिशील प्रकृति

प्रारंभिक परीक्षा के लिये:

भारत के मुख्य न्यायाधीश, संविधान, निजता का अधिकार, अनुच्छेद 368, संसद में बहुमत के प्रकार, संसद, मूल अधिकार, सर्वोच्च न्यायालय

मुख्य परीक्षा के लिये:

संविधान एक जीवंत दस्तावेज के रूप में, संविधान संशोधन, संवैधानिक व्याख्या के संदर्भ में बदलते सामाजिक संदर्भ।

स्रोत: द हिंदू

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी.वाई. चंद्रचूड़ ने संविधान की गतिशील प्रकृति पर बल देते हुए कहा कि कोई भी पीढ़ी इसकी व्याख्या पर एकाधिकार का दावा नहीं कर सकती है।

  • मुख्य न्यायाधीश ने बदलते सामाजिक, विधिक और आर्थिक संदर्भों के आलोक में संविधान की अनुकूलनशीलता की क्षमता पर बल देते हुए इसकी तुलना संयुक्त राज्य अमेरिका के मौलिकतावाद के सिद्धांत से की।

संवैधानिक सिद्धांत समाज के अनुरूप क्यों विकसित होने चाहिये?

  • संविधान एक जीवंत दस्तावेज है: मुख्य न्यायाधीश ने "जीवंत संविधान" की अवधारणा पर प्रकाश डाला, जिसका तात्पर्य है कि इसकी व्याख्या बदलते सामाजिक मानदंडों के अनुरुप होनी चाहिये।
    • इससे संवैधानिक न्यायालयों को समय के साथ उत्पन्न होने वाली नई चुनौतियों के लिये न केवल समाधान ढूँढने में सहायता मिलती है बल्कि इससे संविधान की प्रासंगिकता बनी रहती है।
  • विभिन्न सामाजिक संदर्भ: मुख्य न्यायाधीश के अनुसार कोई भी दो पीढ़ियों के लिये संविधान का एक ही सामाजिक, विधिक या आर्थिक संदर्भ नहीं होता है। 
    • जैसे-जैसे समाज विकसित होता है, कुछ नई चुनौतियाँ सामने आती हैं जिनके लिये समकालीन आवश्यकताओं को पूरा करने के क्रम में संविधान की पुनर्व्याख्या की आवश्यकता होती है, जैसे व्यभिचार को वैध बनाना
  • मौलिकतावाद के साथ तुलना: CJI चंद्रचूड़ ने मौलिकतावाद के उदाहरण के रूप में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के वर्ष 2022 के डॉब्स बनाम जैक्सन महिला स्वास्थ्य संगठन के  फैसले का संदर्भ दिया, जिसमें अमेरिकी संविधान में स्पष्ट रूप से गर्भपात का उल्लेख न होने के कारण गर्भपात के अधिकार को अस्वीकार कर दिया गया था।
    • उन्होंने इसकी तुलना भारत के उभरते दृष्टिकोण से की तथा कहा कि मौलिकतावाद से नागरिक अधिकारों की कठोर एवं प्रतिबंधात्मक व्याख्या को बढ़ावा मिल सकता है।
  • अनुकूलन: CJI चंद्रचूड़ ने कहा कि संविधान की जटिल व्याख्या से संविधान की अनुकूलनशीलता पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि इसका तात्पर्य है कि जटिल एवं कठोर प्रावधानों में समय के साथ बदलाव किया जाए। 
    • व्यक्तिपरक व्याख्याओं पर अत्यधिक निर्भरता से रूढ़िवादी व्याख्याओं को बढ़ावा मिल सकता है, जिससे भावी पीढ़ियों की नई चुनौतियों का सामना करने की क्षमता सीमित हो सकती है।

शासन में संवैधानिक लचीलेपन/अनुकूलन की क्या भूमिका है?

  • प्रगतिशील सुधार हेतु समर्थन: संविधान की अनुकूलनशीलता से वर्तमान सामाजिक मांगों के अनुरूप सुधारों (तकनीकी प्रगति से लेकर डेटा संरक्षण कानूनों जैसे मानव अधिकारों तक) को बढ़ावा मिलता है।
  • विधिक क्षेत्रों में में नवाचार को बढ़ावा मिलना: एक जीवंत संविधान से नवीन विधिक व्याख्याओं का मार्ग प्रशस्त होने के साथ डिजिटल युग में निजता संबंधी चिंताओं जैसी उभरती चुनौतियों का समाधान हो सकता है।
  • नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा: संविधान की गतिशील व्याख्या से रूढ़िवादी व्याख्याओं (जिनसे स्वतंत्रता प्रभावित हो सकती है) को चुनौती मिलती है।
  • अनुकूलनशीलता: अनुकूल संवैधानिक सिद्धांत से यह सुनिश्चित होता है कि विभिन्न संस्थाएँ तेज़ी से विकसित हो रहे विश्व में (विशेष रूप से ज्ञान अर्थव्यवस्था में) प्रासंगिक बनी रहें।
  • नई वास्तविकताओं का समावेशन: जीवंत संवैधानिक सिद्धांत से न्यायालयों को अपनी व्याख्याओं में नए सामाजिक, आर्थिक तथा विधिक संदर्भों को शामिल करने की प्रेरणा मिलती है

भारतीय संविधान की प्रकृति क्या है?

  • हाइब्रिड संरचना: भारतीय संविधान नम्य तथा अनम्य दोनों ही प्रकृति का है। इससे संविधान के मूल ढाँचे में स्थिरता बनाए रखते हुए अनुकूलनशीलता सुनिश्चित होती है।
    • आधारभूत मूल्यों की सुरक्षा: इसकी अनम्यता की प्रकृति से मूल अधिकारों एवं बुनियादी ढाँचे में मनमाने परिवर्तनों के विरुद्ध सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
    • संघवाद का संरक्षण: यद्यपि संघीय ढाँचे को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है फिर भी समवर्ती सूची जैसी नई वास्तविकताओं के अनुकूलन के क्रम में इसमें आवश्यक परिवर्तन किये जा सकते हैं।
    • संतुलित कल्याणकारी दृष्टिकोण: अधिकारों की अनम्यता एवं राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (DPSP) की नम्यता के संयोजन से व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सामूहिक कल्याण के साथ संतुलित करने में सहायता मिलती है।
    • स्थिरता सुनिश्चित होना: अनम्यता से जल्दबाजी में होने वाले संशोधनों को रोकने से स्थिरता को बढ़ावा मिलता है।
    • लोकतंत्र सशक्त होना: विधायी प्रक्रियाओं में अनुकूलन से निर्वाचित प्रतिनिधि संवैधानिक सीमाओं का पालन करते हुए लोगों की आवश्यकताओं पर प्रतिक्रिया देने हेतु प्रेरित रहते हैं, जिससे लोकतांत्रिक शासन को बढ़ावा मिलता है।
  • संशोधन प्रक्रिया:
    • अनुच्छेद 368 में संशोधन के दो मुख्य तरीके बताए गए हैं:
      • संसद का विशेष बहुमत: मूल अधिकारों में संशोधन जैसे कुछ प्रावधानों में संशोधन के लिये संसद के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है, जिसके लिये प्रत्येक सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत के साथ-साथ प्रत्येक सदन की कुल सदस्यता का बहुमत भी आवश्यक होता है। 
        • इससे यह सुनिश्चित होता है कि प्रमुख परिवर्तनों को पर्याप्त संसदीय समर्थन प्राप्त हो।
      • राज्य अनुसमर्थन: राष्ट्रपति चुनाव और उसके तरीके जैसे अन्य प्रावधानों के लिये संसद के विशेष बहुमत के साथ कुल राज्यों में से कम से कम आधे राज्यों का अनुसमर्थन  आवश्यक होता है।
        • यह प्रक्रिया भारत के संघीय ढाँचे को रेखांकित करती है तथा यह सुनिश्चित करती है कि राज्यों को प्रभावित करने वाले महत्त्वपूर्ण संवैधानिक संशोधनों में राज्यों की भागीदारी हो।
  • साधारण बहुमत से संशोधन: नवीन राज्यों के गठन जैसे कुछ प्रावधानों को संसद में साधारण बहुमत द्वारा संशोधित किया जा सकता है। 
    • ये संशोधन अनुच्छेद 368 के दायरे में नहीं आते हैं, जिससे यह संकेत मिलता है कि संविधान के कुछ पहलुओं को अपेक्षाकृत आसानी से बदला जा सकता है।

भारतीय संविधान के लचीलेपन से संबंधित मामले

  • गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य मामला, 1967: भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 368 से केवल संविधान में संशोधन की प्रक्रिया निर्धारित होती है, जिसमें कहा गया कि संसद नागरिकों के मूल अधिकारों में कमी नहीं कर सकती है और सभी संशोधन न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं।
  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामला, 1973: इसमें सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति है लेकिन वह इसके मूल ढाँचे में बदलाव नहीं कर सकती है। 
    • यह मामला इसके लचीलेपन का उदाहरण है क्योंकि इसमें संशोधन की अनुमति दी गई है लेकिन यह सुनिश्चित किया गया है कि लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल सिद्धांत बने रहें।

नम्य और कठोर संविधान के बीच क्या अंतर हैं?

पहलू

नम्य संविधान

कठोर संविधान

संशोधन प्रक्रिया

संशोधन प्रक्रिया सामान्य कानून पारित करने की तरह आसान हो सकती हैं, जैसा कि यूनाइटेड किंगडम के संविधान में देखा जाता है।

संशोधन के लिये एक जटिल, विशेष प्रक्रिया की आवश्यकता होती है, जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में देखा जाता है। 

बदलती ज़रूरतों के अनुसार समायोजन क्षमता

इस तरह के संविधान में सामाजिक परिवर्तनों और बदलती परिस्थितियों के साथ आसानी से संतुलन स्थापित किया जा सकता है। इसे एक जीवंत दस्तावेज़ के रूप में देखा जाता है जो सामाजिक प्रगति के साथ विकसित होता है।

परिवर्तन का विरोध करता है, अनुकूलनशीलता की अपेक्षा स्थिरता को प्राथमिकता देता है। 

जनमत का प्रतिबिंब

बदलती जनमत और सामाजिक उपागम को प्रतिबिंबित करता है।

इसमें संविधान निर्माताओं के विचारों को प्रतिबिंबित करने की अधिक संभावना है, तथा परिवर्तनों के प्रति कम संवेदनशील होने की संभावना है।

पूर्णता की धारणा

यह मान लिया गया है कि कोई भी संविधान पूर्णतया परिपूर्ण नहीं है तथा उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता।

मान लिया गया है कि संविधान सभी परिस्थितियों के लिये एक आदर्श मार्गदर्शक है।

संघीय प्रणालियों में अनुकूलनशीता

संघीय इकाइयों की विविध आवश्यकताओं को समायोजित करना और सहयोग को बढ़ावा देना।

संघीय प्रणालियों में संतुलन बनाए रखने के लिये स्थिरता और जाँच प्रदान करता है।

अल्पसंख्यक अधिकारों का संरक्षण

निरंतर होने वाले परिवर्तन, जो कभी-कभी भीड़तंत्र ( जनता द्वारा वर्चस्व ) से प्रभावित होते हैं, अल्पसंख्यक अधिकारों पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकते हैं

यह अधिक मज़बूत सुरक्षा प्रदान करता है, तथा अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करता है।

निष्कर्ष:

एक कठोर और नम्य संविधान के बीच संतुलन एक गतिशील कानूनी ढाँचे को बढ़ावा देने के लिये महत्त्वपूर्ण है जो समकालीन चुनौतियों के लिये प्रासंगिक और उत्तरदायी है। अंततः एक निरंतर बदलते समाज में न्याय, समानता और लोकतांत्रिक शासन को बढ़ावा देने के लिये संवैधानिक के लचीलेपन को अपनाना आवश्यक है।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: भारतीय संविधान में नम्यता और कठोरता के बीच संतुलन तथा समकालीन सामाजिक मुद्दों के निराकरण में इसके महत्त्व का परीक्षण कीजिये।

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स:

प्रश्न. 26 जनवरी, 1950 को भारत की वास्तविक संवैधानिक स्थिति क्या थी? (2021)

(a) लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(b) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(c) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य
(d) संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य

उत्तर: (b)


मुख्य:

Q. धर्मनिरपेक्षता को भारत के संविधान के उपागम से फ्राँस क्या सीख सकता है? (2019)

Q. निजता के अधिकार पर उच्चतम न्यायालय के नवीनतम निर्णय के आलोक में, मौलिक अधिकारों के विस्तार का परीक्षण कीजिये। (2017)


राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन की 57 वीं बैठक

प्रारंभिक परीक्षा के लिये:

राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (NMCG), गंगा नदी, महाकुंभ, सीवेज उपचार संयंत्र, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB), स्वच्छ नदियों पर स्मार्ट प्रयोगशाला (SLCR) परियोजना, राष्ट्रीय गंगा परिषद, पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम (EPA), 1986

मुख्य परीक्षा के लिये:

राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (NMCG) का कार्यान्वयन एवं गंगा नदी के पारिस्थितिकी स्वास्थ्य को बनाए रखने में इसकी भूमिका।

स्रोत: पी.आई.बी

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (NMCG) की कार्यकारी समिति (EC) की 57वीं बैठक में विभिन्न राज्यों में प्रमुख परियोजनाओं को मंजूरी दी गई। 

  • इन परियोजनाओं का उद्देश्य गंगा नदी के संरक्षण और स्वच्छता के साथ महाकुंभ 2025 के दौरान IEC (सूचना, शिक्षा और संचार) गतिविधियों का समन्वय करना है।

बैठक के दौरान अनुमोदित प्रमुख परियोजनाएँ कौन सी हैं?

  • सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (STP): कार्यकारिणी समिति ने बिहार के कटिहार और सुपौल तथा उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में STP को मंजूरी दी।
    • STP द्वारा सीवेज और प्रदूषकों को हटाकर जल को शुद्ध किया जाता है जिससे यह प्राकृतिक जल स्रोतों में छोड़े जाने के लिये उपयुक्त हो जाता है।
  • STP की निगरानी: इसमें गंगा नदी बेसिन में मौजूदा STP की ऑनलाइन निगरानी को मज़बूत करने के लिये एक ऑनलाइन सतत् अपशिष्ट निगरानी प्रणाली (OCEMS) की स्थापना शामिल है।
  • महाकुंभ, 2025 में IEC गतिविधियाँ: महाकुंभ 2025 के दौरान स्वच्छता और जागरूकता बढ़ाने के लिये IEC (सूचना, शिक्षा और संचार) गतिविधि-आधारित परियोजना को मंजूरी दी गई है। 
    • इस परियोजना में 'पेंट माई सिटी' और भित्ति चित्र कला के माध्यम से मेला क्षेत्र और शहर को सजाना शामिल है। 
  • PIAS परियोजना: इस समिति ने प्रदूषण सूची, मूल्यांकन और निगरानी (PIAS) परियोजना की प्रभावशीलता बढ़ाने हेतु इसके अंतर्गत जनशक्ति की भूमिका को बढ़ाने पर बल दिया।
  • SLCR परियोजना: इस समिति ने देश भर में छोटी नदियों के पुनरुद्धार में तेज़ी लाने के लिये 'स्वच्छ नदियों पर स्मार्ट प्रयोगशाला (SLCR) परियोजना के प्रमुख घटकों को मंजूरी दी।
  • कछुआ एवं घड़ियाल संरक्षण: उत्तर प्रदेश के लखनऊ स्थित कुकरैल घड़ियाल पुनर्वास केंद्र में मीठे जल के कछुआ एवं घड़ियाल संरक्षण तथा प्रजनन कार्यक्रम को मंजूरी दी गई।

NMCG के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • परिचय: यह गंगा नदी के पुनरुद्धार और संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
    • इसे सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 के  तहत 12 अगस्त 2011 को एक सोसायटी के रूप में पंजीकृत किया गया था।
  • विधिक ढाँचा: यह राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (NGRBA) की कार्यान्वयन शाखा है जिसका गठन पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम (EPA), 1986 के प्रावधानों के तहत किया गया था।
    • वर्ष 2016 में NGRBA के विघटन के बाद यह राष्ट्रीय गंगा नदी पुनरुद्धार, संरक्षण और प्रबंधन परिषद (राष्ट्रीय गंगा परिषद) की कार्यान्वयन शाखा है।
    • NGC द्वारा नदी में जल का निरंतर पर्याप्त प्रवाह सुनिश्चित करने के साथ पर्यावरण प्रदूषण को रोकने, नियंत्रित करने और कम करने में भूमिका निभाई जाती है।
  • NMCG की प्रबंधन संरचना: NMCG की प्रबंधन संरचना दो-स्तरीय है और दोनों का नेतृत्व NMCG के महानिदेशक (DG) करते हैं।
    • गवर्निंग काउंसिल: NMCG की सामान्य नीतियों का प्रबंधन करती है।
    • कार्यकारी समिति: यह 1,000 करोड़ रुपए तक के वित्तीय परिव्यय वाली परियोजनाओं को मंजूरी देने के लिये अधिकृत है।
  • गंगा संरक्षण के लिये पाँच स्तरीय संरचना: पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (EPA), 1986 में गंगा नदी के प्रभावी प्रबंधन और पुनरुद्धार के लिये राष्ट्रीय, राज्य और ज़िला स्तर पर पाँच स्तरीय संरचना की परिकल्पना की गई है।
    • राष्ट्रीय गंगा परिषद: भारत के प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली यह परिषद निगरानी हेतु सर्वोच्च निकाय है।
    • अधिकार प्राप्त कार्यबल (ETF): केंद्रीय जल शक्ति मंत्री की अध्यक्षता में यह कार्यबल गंगा नदी के पुनरुद्धार पर केंद्रित कार्रवाई हेतु ज़िम्मेदार है।
    • राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (NMCG): यह मिशन गंगा की सफाई और कायाकल्प के उद्देश्य से विभिन्न परियोजनाओं के लिये कार्यान्वयन एजेंसी के रूप में कार्य करता है।
    • राज्य गंगा समितियाँ: ये समितियाँ अपने अधिकार क्षेत्र में विशिष्ट उपायों को लागू करने के लिये राज्य स्तर पर कार्य करती हैं।
    • जिला गंगा समितियाँ: गंगा नदी और उसकी सहायक नदियों के निकट प्रत्येक निर्दिष्ट ज़िले में स्थापित ये समितियाँ जमीनी स्तर पर कार्य करती हैं।

नमामि गंगे कार्यक्रम क्या है?

  • परिचय: यह राष्ट्रीय नदी गंगा के प्रदूषण में प्रभावी कमी लाने के साथ इसके संरक्षण और कायाकल्प के दोहरे उद्देश्यों को पूरा करने के लिये एक एकीकृत संरक्षण मिशन है।
    • इसे जून 2014 में केंद्र सरकार द्वारा 20,000 करोड़ रुपए के बजट परिव्यय के साथ 'फ्लैगशिप कार्यक्रम' के रूप में अनुमोदित किया गया था।
    • फ्लैगशिप कार्यक्रम के तहत स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण, सिंचाई, शहरी और ग्रामीण विकास आदि से संबंधित प्रमुख राष्ट्रीय चिंताओं को हल किया जाता है।
  • कार्यक्रम के प्रमुख स्तंभ:
    • सीवेज उपचार अवसंरचना: अपशिष्ट जल का प्रभावी प्रबंधन करना।
    • नदी सतह की सफाई: नदी की सतह से ठोस अपशिष्ट और प्रदूषण को हटाना
    • वनारोपण: पेड़ लगाना और हरित आवरण का विस्तार करना।
    • औद्योगिक अपशिष्ट निगरानी: नदी को हानिकारक औद्योगिक अपशिष्टों से बचाना।
    • नदी-तट का विकास: सामुदायिक सहभागिता एवं पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये नदी के किनारे सार्वजनिक स्थलों का निर्माण करना।
    • जैवविविधता: नदी के पारिस्थितिकी स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के साथ विविध जैविक समुदायों को समर्थन देना।
    • जन जागरूकता: नदी संरक्षण के महत्त्व के बारे में नागरिकों को शिक्षित करना।
    • गंगा ग्राम: गंगा नदी के मुख्य तट के किनारे स्थित गाँवों को आदर्श गाँवों के रूप में विकसित करना।
  • एकीकृत मिशन दृष्टिकोण: इसके तहत आर्थिक विकास को पारिस्थितिकी सुधार के साथ जोड़ने पर बल देने के साथ सतत् विकास के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित की गई है।
    • स्वच्छ ऊर्जा, जलमार्ग, जैवविविधता संरक्षण और आर्द्रभूमि विकास को वर्तमान और भविष्य की पहलों के संदर्भ में प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के रूप में पहचाना गया है।

टेम्स नदी की पुनर्वहाली से संबंधित केस स्टडी

  • अवलोकन: टेम्स नदी को 1950 के दशक में "जैविक रूप से मृत" घोषित कर दिया गया था जिसमें शहरी प्रदूषण, औद्योगिक अपशिष्ट और अपर्याप्त सीवेज प्रणालियों  के कारण घुलित ऑक्सीजन का स्तर अत्यंत कम हो गया था।
    • शहर की बढ़ती आबादी और निम्न स्तरीय स्वच्छता प्रबंधन के कारण यह नदी कचरे का डंपिंग क्षेत्र बन गई।
    • फ्लीट जैसी प्रमुख सहायक नदियाँ (जो मध्य लंदन से होकर गुजरती हैं) दुर्गन्ध के कारण काफी चर्चा में रहीं।
  • वर्ष 1858 की दुर्गंध: वर्ष 1858 की भीषण गर्मी के दौरान यह नदी प्रदूषण की समस्या के चरमोत्कर्ष पर पहुँची, जिसे ग्रेट स्टिंक के नाम से जाना जाता है। 
    • टेम्स नदी में मानव और औद्योगिक अपशिष्ट के उच्च स्तर के कारण व्यापक लोक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ उत्पन्न हो गईं, जिसके परिणामस्वरूप सिविल इंजीनियर सर जोसेफ बाज़ेलगेट द्वारा डिज़ाइन किये गए सीवेज नेटवर्क को अपनाया गया।
  • पुनरुद्धार प्रयास: 1970 के दशक तक टेम्स नदी में प्रवेश करने वाले सभी सीवेज का उपचार किया गया तथा वर्ष 1961 और 1995 के बीच लागू किये गए नियमों से जल की गुणवत्ता में सुधार हुआ। 
    • वर्ष 1989 में स्थापित राष्ट्रीय नदी प्राधिकरण ने जल गुणवत्ता की निगरानी और प्रबंधन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
    • 20 वीं सदी के अंत में "बबलर्स" के नाम से जाने जाने वाले ऑक्सीजनेटर्स की स्थापना से घुलित ऑक्सीजन के स्तर में  काफी सुधार हुआ।
      • ये उपकरण जल में ऑक्सीजन को बढ़ाते हैं जिससे मछलियों की संख्या के साथ समग्र जलीय स्वास्थ्य में सुधार होता है।

राष्ट्रीय गंगा परिषद क्या है?

  • राष्ट्रीय गंगा परिषद (NGC): इसका गठन वर्ष 2016 में राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण (NGRBA) के विघटन के बाद पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 के प्रावधानों के तहत किया गया था।
  • उद्देश्य: NGC का लक्ष्य व्यापक और समन्वित दृष्टिकोण के माध्यम से गंगा नदी और उसकी सहायक नदियों के पुनरुद्धार, संरक्षण एवं प्रबंधन को सुनिश्चित करना है।
  • मंत्रालय: जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय (MoWR, RD & GR) इसके लिये नोडल मंत्रालय है। 
  • कार्य: यह इस संदर्भ में नीतियाँ और रणनीतियाँ तैयार करने के साथ प्रदूषण निवारण, पारिस्थितिकी बहाली एवं नदी संसाधनों के सतत् प्रबंधन से संबंधित पहलों की  प्रगति की निगरानी करता है।
  • शासन: इसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री और उन राज्यों (अर्थात उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल आदि) के मुख्यमंत्रियों द्वारा की जाती है जहाँ से गंगा प्रवाहित होती है।

नमामि गंगे कार्यक्रम से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?

  • आँकड़ों और प्रभावी निगरानी का अभाव: 31 दिसंबर, 2023 तक 457 परियोजनाएँ शुरू की गई थीं। इनमें से केवल 280 ही पूरी या "शुरू" हो पाई हैं। इनमें से ज़्यादातर परियोजनाएँ STP के निर्माण से संबंधित हैं लेकिन ऐसा कोई डेटा नहीं है जिससे पता चले कि STP वास्तव में कार्यरत हैं।
  • सहायक नदियों की उपेक्षा: विशेषज्ञों का कहना है कि छोटी नदियों की उपेक्षा ने समग्र सफाई प्रयासों को बाधित किया है। उदाहरण के लिये, गोमती नदी में ऑक्सीजन का स्तर कम है जिससे यह जैवविविधता के लिये अनुपयुक्त हो गई है।
  • औद्योगिक प्रदूषण: कानपुर में चमड़े के कारखानों में अपशिष्टों का उचित तरीके से उपचार नहीं किया जाता है जिसके कारण उत्सर्जित अपशिष्ट में क्रोमियम जैसे हानिकारक पदार्थों की मात्रा बहुत अधिक हो जाती है।
  • लागत में वृद्धि: CAG ने अपनी रिपोर्ट में इस कार्यक्रम के संदर्भ में अनुचित वित्तीय प्रबंधन का संकेत दिया और कहा कि वर्ष 2014-15 से 2016-17 के दौरान केवल 8 - 63% धनराशि का ही उपयोग किया गया। CAG ने मीडिया अभियानों पर केंद्र सरकार के अत्यधिक खर्च  के बारे में गहरी चिंता व्यक्त की।
  • वर्तमान पर्यावरणीय खतरे: अवैध रेत खनन से नदी के प्रवाह में और अधिक बाधा उत्पन्न होती है।

आगे की राह

  • वित्तीय प्रबंधन को बढ़ावा देना: नमामि गंगे कार्यक्रम के लिये आवंटित धन का प्रभावी और पारदर्शी तरीके से उपयोग सुनिश्चित करके वित्तीय प्रबंधन प्रथाओं में सुधार करना चाहिये। व्यय पर निगरानी रखने के क्रम में सख्त ऑडिटिंग एवं रिपोर्टिंग तंत्र लागू करना चाहिये।
  • विनियमन को सुदृढ़ बनाना: पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकियों एवं अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों को प्रोत्साहन देने के माध्यम से धारणीय औद्योगिक प्रथाओं को बढ़ावा देना चाहिये।
  • सहायक नदियों के पुनरुद्धार प्रयासों को महत्त्व देना: सहायक नदियों और छोटी नदियों के प्राकृतिक प्रवाह और जैवविविधता को बहाल करने सहित इनके स्वास्थ्य में सुधार हेतु लक्षित कार्रवाई की जानी चाहिये।
  • निगरानी और डेटा प्रणाली: नमामि गंगे कार्यक्रम के तहत सभी परियोजनाओं के डेटा को एकीकृत करने वाला केंद्रीकृत डेटाबेस विकसित करना चाहिये, जिससे प्रगति की बेहतर ट्रैकिंग के साथ सुधार की आवश्यकता वाले क्षेत्रों की पहचान हो सके। 

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: गंगा नदी के संरक्षण और कायाकल्प में नमामि गंगे कार्यक्रम और राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन की क्या भूमिका है?

  UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्षों के प्रश्न (PYQs)  

मेन्स

प्रश्न: नमामि गंगे और राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (NMCG) कार्यक्रमों पर और इससे पूर्व की योजनाओं से मिश्रित परिणामों के कारणों पर चर्चा कीजिये। गंगा नदी के परिरक्षण में कौन-सी प्रमात्रा छलांगे, क्रमिक योगदानों की अपेक्षा ज़्यादा सहायक हो सकती हैं? (2015)


न्यायाधीशों में अनुशासन सुनिश्चित करना

प्रिलिम्स के लिये:

सर्वोच्च न्यायालय, अनुच्छेद 121, अनुच्छेद 211, अनुच्छेद 124(4), राष्ट्रपति, उच्च न्यायालय, लोकसभा, राज्यसभा, न्यायालय की अवमानना, एससी कॉलेजियम, राष्ट्रीय न्यायिक परिषद, राष्ट्रीय न्यायिक निरीक्षण समिति

मेन्स के लिये:

न्यायाधीशों में अनुशासन सुनिश्चित करने की आवश्यकता और प्रावधान।

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय (SC) ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश की टिप्पणी पर गंभीर चिंता व्यक्त की।

  • न्यायाधीश द्वारा माफी मांगने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने अपना हस्तक्षेप वापस ले लिया, लेकिन इससे न्यायपालिका द्वारा न्यायाधीशों को अनुशासित करने के संबंध में संवैधानिक सीमाएँ उजागर होती हैं।

भारत में न्यायाधीशों को अनुशासित करने की चुनौतियाँ क्या हैं?

  • संवैधानिक संरक्षण: संविधान का अनुच्छेद 121 सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के आचरण पर संसदीय चर्चा पर प्रतिबंध लगाता है, सिवाय तब जब उनके निष्कासन के लिये प्रस्ताव रखा गया हो।
    • संविधान का अनुच्छेद 211 राज्य विधानसभाओं को सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के अपने कर्त्तव्यों के निर्वहन में आचरण पर चर्चा करने से रोकता है।
  • महाभियोग की जटिल प्रक्रिया: संविधान के अनुच्छेद 124(4) के तहत महाभियोग प्रस्ताव को कुल सदस्यता के बहुमत तथा प्रत्येक सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों द्वारा समर्थित होना आवश्यक है।
    • उच्च महाभियोग सीमा यह सुनिश्चित करती है कि न्यायाधीशों को तुच्छ कारणों से आसानी से नहीं हटाया जा सकता, लेकिन इससे ऐसे कदाचार से निपटना कठिन हो जाता है जो महाभियोग की प्रक्रिया तक नहीं पहुँचता।
    • उदाहरणार्थ, इतिहास में केवल पाँच बार महाभियोग की कार्यवाही शुरू की गई है तथा सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश पर अभी तक महाभियोग नहीं लाया गया है।
  • संकीर्ण परिभाषा: निष्कासन का आधार सिद्ध कदाचार या अक्षमता है।
    • संविधान के अनुच्छेद 124(4) के तहत कदाचार एक उच्च मानक है, जिसमें भ्रष्टाचार, निष्ठा की कमी और नैतिक हीनता शामिल हैं। 
    • न्यायिक कदाचार के कई उदाहरण, जैसे अनुशासनहीनता, पक्षपात या अनुचित आचरण, महाभियोग की सीमा को पूरा नहीं करते, जिससे न्यायपालिका के पास ऐसे कदाचार से निपटने के लिये बहुत कम विकल्प बचते हैं।

न्यायाधीशों को हटाने की प्रक्रिया क्या है?

  • सर्वोच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को राष्ट्रपति  के आदेश से उसके पद से हटाया जा सकता है।
  • राष्ट्रपति निष्कासन आदेश तभी जारी कर सकते हैं जब संसद द्वारा उसी सत्र में ऐसे निष्कासन के लिये अभिभाषण प्रस्तुत किया गया हो।
  • अभिभाषण को संसद के प्रत्येक सदन के विशेष बहुमत (अर्थात् उस सदन की कुल सदस्यता का बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदन के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों का बहुमत ) द्वारा समर्थित होना चाहिये। 
  • निष्कासन का आधार सिद्ध कदाचार या अक्षमता है।
  • उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को उसी तरीके से और उन्हीं आधारों पर हटाया जा सकता है जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जाता है।
  • न्यायाधीश जाँच अधिनियम, 1968 महाभियोग की प्रक्रिया द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाने से संबंधित प्रक्रिया को विनियमित करता है।
    • 100 सदस्यों (लोकसभा के मामले में) या 50 सदस्यों (राज्यसभा के मामले में) द्वारा हस्ताक्षरित निष्कासन प्रस्ताव अध्यक्ष/सभापति को दिया जाना है।
    • अध्यक्ष/सभापति प्रस्ताव को स्वीकार कर सकते हैं अथवा उसे स्वीकार करने से इंकार कर सकते हैं।
    • यदि इसे स्वीकार कर लिया जाता है, तो अध्यक्ष/सभापति को आरोपों की जाँच के लिये तीन सदस्यीय समिति गठित करनी होगी।
    • समिति में निम्नलिखित शामिल होने चाहिये-
      • सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश या न्यायाधीश
      • किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
      • एक प्रतिष्ठित विधिवेत्ता
    • यदि समिति न्यायाधीश को दुर्व्यवहार/कदाचार का दोषी या अक्षमता से ग्रस्त पाती है, तो सदन प्रस्ताव पर विचार कर सकता है।
    • संसद के प्रत्येक सदन द्वारा विशेष बहुमत से प्रस्ताव पारित होने के बाद, न्यायाधीश को हटाने के लिये राष्ट्रपति को एक संबोधन प्रस्तुत किया जाता है।
    • अंततः राष्ट्रपति न्यायाधीश को हटाने का आदेश जारी करते हैं।

न्यायाधीशों को अनुशासित करने के अन्य प्रावधान क्या हैं?

  • न्यायिक हस्तक्षेप: सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधीशों को अनुशासित करने के लिये  न्यायिक कार्रवाई कर सकता है।
    • उदाहरण के लिये, वर्ष 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के सी.एस. कर्णन को न्यायिक अवमानना ​​का दोषी ठहराया और उन्हें छह महीने के कारावास की सजा सुनाई।
  • स्थानांतरण नीति: सर्वोच्च न्यायालय के पाँच वरिष्ठ न्यायाधीशों वाला सर्वोच्च न्यायालय कॉलेजियम, जिसमें मुख्य न्यायाधीश भी शामिल होते हैं, द्वारा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के स्थानांतरण की सिफारिश की जाती है।
    • चूँकि कॉलेजियम के निर्णय अपारदर्शी होते हैं, इसलिये इस स्थानांतरण नीति का उपयोग न्यायाधीशों को अनुशासित करने के साधन के रूप में भी किया जा सकता है।
    • उदाहरण के लिये, कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी.डी. दिनाकरन पर महाभियोग का मामला लंबित होने के दौरान, कॉलेजियम द्वारा उन्हें सिक्किम उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया गया।
  • इन-हाउस जाँच प्रक्रिया: वर्ष 1999 की इन-हाउस जाँच प्रक्रिया के तहत, मुख्य न्यायाधीश संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से टिप्पणी का अनुरोध कर सकते हैं, जो फिर संबंधित न्यायाधीश से प्रतिक्रिया मांग सकते हैं।
    • यदि अधिक व्यापक जाँच की आवश्यकता समझी जाती है, तो एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, अन्य उच्च न्यायालयों के दो मुख्य न्यायाधीशों तथा तथ्यान्वेषी जाँच के लिये एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की तीन सदस्यीय समिति गठित की जा सकती है।
  • निंदा नीति: संबंधित न्यायाधीश को अपने पद से इस्तीफा देने या स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने की सलाह दी जा सकती है।
    • यदि न्यायाधीश इस्तीफा देने या सेवानिवृत्त होने से इनकार करता है, तो मुख्य न्यायाधीश संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को सलाह दे सकते हैं कि वे न्यायाधीश को कोई न्यायिक कार्य न सौंपें।
  • न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन,1997: सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1997 में न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन नामक एक चार्टर को अपनाया जिसमें 16 बिंदु शामिल थे।
    • यह न्यायिक आचार संहिता है, जो स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायपालिका के लिये मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है, साथ ही न्यायाधीशों में अनुशासन बनाए रखने में मदद कर सकती है।

विश्व स्तर पर न्यायिक अनुशासन कैसे बनाए रखा जाता है?

  • लिथुआनिया: लिथुआनिया में न्यायिक अनुशासन से निपटने वाली दो संस्थाएँ न्यायिक नैतिकता और अनुशासन आयोग तथा न्यायिक सम्मान न्यायालय।
  • जर्मनी: न्यायाधीश अधिनियम, 1972 की धारा 77 के अनुसार, संघीय राज्यों के पास सामान्य न्यायालयों के न्यायाधीशों के पर्यवेक्षण के लिये अपने स्वयं के विशेष न्यायाधिकरण हैं।
    • ऐसा न्यायाधिकरण संघीय स्तर पर संघीय न्यायाधीशों के लिये भी मौजूद है, जो जर्मन संघीय न्यायालय के भीतर एक विशेष सीनेट के रूप में है।
  • स्कॉटलैंड: सत्र न्यायालय के लॉर्ड प्रेसिडेंट अनुशासनात्मक प्रक्रियाओं में जाँच हेतु किसी व्यक्ति को नामित कर सकते हैं।
  • बंगलुरू न्यायिक आचरण के सिद्धांत: इसका उद्देश्य न्यायाधीशों के लिये नैतिक मानदंड निर्धारित करना, न्यायिक व्यवहार को विनियमित करने के लिये एक रूपरेखा प्रदान करना तथा न्यायिक नैतिकता बनाए रखने पर मार्गदर्शन प्रदान करना है। 
    • इसे वर्ष 2006 में संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक परिषद (ECOSOC) द्वारा अपनाया गया था।
  • न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर संयुक्त राष्ट्र के मूल सिद्धांत, 1985: इन सिद्धांतों का उद्देश्य आदर्श न्यायिक स्वतंत्रता और वास्तविक विश्व की प्रथाओं के बीच के अंतर को कम करना है साथ ही यह सुनिश्चित करना है कि न्याय कायम रहे, मानव अधिकारों की रक्षा हो और न्यायपालिका भेदभाव से मुक्त होकर कार्य करे।

न्यायाधीशों में अनुशासन सुनिश्चित करने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं?

  • राष्ट्रीय न्यायिक परिषद (NJC) की स्थापना: न्यायाधीश (जाँच) विधेयक, 2006 को पुनर्जीवित और पारित करना, जिसका उद्देश्य न्यायाधीशों की अक्षमता या कदाचार के आरोपों की जाँच की निगरानी के लिये NJC का निर्माण करना है।
  • न्यायिक निरीक्षण समिति: न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक, 2010 को पुनर्जीवित और पारित किया जाएगा, जिसमें राष्ट्रीय न्यायिक निरीक्षण समिति, शिकायत जाँच पैनल और एक जाँच समिति की स्थापना का प्रावधान किया गया है।
  • आचरण के स्पष्ट मानक: न्यायाधीशों के लिये एक आचार संहिता विकसित कर उसे लागू करना, जिसमें अपेक्षित व्यवहार, नैतिक मानकों और उल्लंघनों को संबोधित करने की प्रक्रियाओं की रूपरेखा हो। जवाबदेही को बढ़ावा देने के लिये यह संहिता सार्वजनिक रूप से सुलभ होनी चाहिये।
  • न्यायिक निष्पादन मूल्यांकन: मामले के निपटान की दर, नैतिक मानकों का पालन, तथा वादियों और साथियों से प्राप्त फीडबैक जैसे मानदंडों के आधार पर न्यायाधीशों के निष्पादन के मूल्यांकन के लिये एक प्रणाली लागू करना।
    • उदाहरण के लिये, ओडिशा में एक न्यायिक अधिकारी से एक वर्ष में 240 कार्य दिवसों के बराबर कार्य निष्पादन की अपेक्षा की जाती है।
  • परिसंपत्तियों की घोषणा और पारदर्शिता: न्यायाधीशों को अपनी परिसंपत्तियों और देनदारियों की घोषणा करने का आदेश देना तथा यह जानकारी सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराना। यह उपाय भ्रष्टाचार को रोकने और न्यायपालिका में जनता का विश्वास बढ़ाने में मदद कर सकता है।
  • अनिवार्य प्रशिक्षण और कार्यशालाएँ: न्यायाधीशों के बीच जवाबदेही की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिये न्यायिक नैतिकता, भेदभाव-विरोधी कानूनों और निष्पक्षता के महत्त्व पर नियमित प्रशिक्षण कार्यक्रम और कार्यशालाएँ आयोजित करना।
  • न्यायिक स्वतंत्रता सुरक्षा: जवाबदेही बढ़ाने के साथ-साथ न्यायिक स्वतंत्रता की सुरक्षा करना भी महत्त्वपूर्ण है। किसी भी सुधार में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि न्यायाधीशों को जवाबदेह ठहराने की प्रक्रिया निष्पक्ष निर्णय लेने की उनकी क्षमता को कम न करे।

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: न्यायिक अधिकारियों के बीच जवाबदेही और आचरण के उच्च मानकों को बढ़ावा देने के लिये क्या उपाय लागू किये जा सकते हैं?

  यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न  

प्रिलिम्स 

प्रश्न. भारतीय न्यायपालिका के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये:

  1. भारत के सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी सेवानिवृत्त न्यायाधीश को भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा भारत के राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से वापस बैठने और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के लिये बुलाया जा सकता है। 
  2. भारत में उच्च न्यायालय के पास अपने निर्णय की समीक्षा करने की शक्ति है जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय करता है।

उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं?

(a) केवल 1
(b) केवल 2
(c) 1 और 2 दोनों
(d) न तो 1 और न ही 2

उत्तर: (c)


मेन्स: 

प्रश्न. भारत में उच्च न्यायपालिका के न्यायाधीशों की नियुक्ति के संदर्भ में 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014' पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (150 शब्द)


ग्रीनहशिंग और इसके निहितार्थ

प्रारंभिक परीक्षा के लिये:

ग्रीनहशिंग, ईएसजी (पर्यावरण, सामाजिक और शासन) , ग्रीनवाशिंग , कार्बन तटस्थता , यूरोपीय संघ का ग्रीनवाशिंग निर्देश। 

मेन्स  के लिये:

वैश्विक स्थिरता परिवर्तन में ग्रीनहशिंग के निहितार्थ।

स्रोत: डाउन टू अर्थ 

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, दुनिया भर में कार्बन-न्यूट्रल प्रमाणित फर्मों की संख्या में वृद्धि हुई है , लेकिन उनमें से कई अपनी पर्यावरणीय उपलब्धियों को बढ़ावा नहीं देना चाहते हैं , जिसके परिणामस्वरूप "ग्रीनहशिंग" के रूप में जाना जाने वाला वैश्विक रुझान सामने आया है।

  • परोपकारिता और अपनी सामाजिक प्रमुखता को बनाए रखने की इच्छा से प्रेरित फर्म संवाद करने में अनिच्छुक होती हैं और ग्रीनहशिंग की ओर प्रवृत्त होती हैं।

ग्रीनहशिंग क्या है?

  • ग्रीनहशिंग तब होती है जब कंपनियाँ अपने पर्यावरणीय लक्ष्यों और उपलब्धियों  के बारे में जानकारी कम बताती हैं या रणनीतिक रूप से छिपाते हैं।
  • ग्रीनहशिंग कंपनियाँ अपनी हरित साख का विज्ञापन नहीं करती हैं, या पर्यावरणीय स्थिरता के प्रति अपनी भावी प्रतिबद्धताओं के बारे में जानबूझकर चुप रहती हैं।

कंपनियाँ ग्रीनहशिंग क्यों करती हैं?

  • संयुक्त राज्य अमेरिका में मुकदमेबाजी संबंधी चिंताएँ : संयुक्त राज्य अमेरिका में, सार्वजनिक कंपनियों को मुकदमों का सामना करना पड़ सकता है यदि उन्हें शेयरधारक मुनाफे की तुलना में स्थिरता को प्राथमिकता देते हुए देखा जाता है। 
    • यह कानूनी ज़ोखिम कम्पनियों को अपने पर्यावरणीय पहलों पर खुले तौर पर चर्चा करने से हतोत्साहित करता है।
  • ईएसजी के विरुद्ध प्रतिक्रिया: अमेरिका के रूढ़िवादी राज्यों में ईएसजी (पर्यावरण, सामाजिक और शासन) प्रयासों  के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई है।
    • इसने कुछ कम्पनियों को राजनीतिक और नियामक जाँच से बचने के लिये अपने पर्यावरणीय लक्ष्यों पर चर्चा करना बंद करने के लिये प्रेरित किया है।
  • हरित उत्पादों की निम्न गुणवत्ता: कई उपभोक्ता हरित उत्पादों को निम्न गुणवत्ता या उच्च कीमत से जोड़ते हैं। 
    • इसलिये, कई कंपनियाँ अपने उत्पादों के पर्यावरणीय लाभों को बढ़ावा देने में अनिच्छुक रहती हैं, जिससे इन नकारात्मक धारणाओं को बल मिलने से उनके ब्रांड को नुकसान हो सकता है।
  • भविष्योन्मुखी प्रतिबद्धताओं से बचना: जो कंपनियाँ अपने स्थायित्व प्रयासों के बारे में मुखर होती हैं, वे प्राय: ध्यान आकर्षित करती हैं तथा उनसे उच्च मानकों की अपेक्षा की जाती है। 
    • चुप रहकर, कंपनियाँ भविष्य की प्रतिबद्धताओं की अपेक्षाओं या अधिक महत्वाकांक्षी पर्यावरणीय लक्ष्यों को प्राप्त करने के दबाव से बच सकती हैं।
  • ग्राहकों की असुविधा से बचना: जब लोग छुट्टियों पर होते हैं, तो वे प्राय: जलवायु परिवर्तन या संसाधनों की कमी जैसी समस्याओं से बचना चाहते हैं। 
    • अतः पर्यटन उद्योग में कई व्यवसाय अपने ग्राहकों को असुविधा से बचाने के लिये अपने पर्यावरणीय प्रयासों को गुप्त रखना पसंद करते हैं।
  • ग्रीनवाशिंग के आरोप: ग्रीनवाशिंग के सार्वजनिक आरोप किसी फर्म की छवि को नुकसान पहुँचा सकते हैं और ब्रांडों की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचा सकते हैं। आलोचना के नकारात्मक प्रभावों से बचने के लिये, ये फर्म बाहरी दर्शकों से अपनी उपलब्धियों को गुप्त रखना पसंद करती हैं।
    • ग्रीनवाशिंग एक शब्द है जिसका प्रयोग तब किया जाता है जब कोई कंपनी गलत या भ्रामक वक्तव्य देती है कि उनके उत्पाद/सेवाएँ वास्तविकता से अधिक सतत् हैं।
  • उपभोक्ताओं की मांग में कमी: कई उपभोक्ता या तो कार्बन तटस्थता के बारे में अनभिज्ञ हैं या खरीदारी का निर्णय लेते समय  शायद ही कभी कार्बन तटस्थ उत्पादों के बारे में पूछते हैं।
    • ग्राहकों की मांग के बिना, कंपनियाँ अपनी कार्बन तटस्थता के विज्ञापन पर धन खर्च करने में अनिच्छुक हैं।

कंपनियाँ कार्बन न्यूट्रल प्रमाणित क्यों होती हैं?

  • प्रतिस्पर्द्धात्मक लाभ: कार्बन तटस्थता प्रतिस्पर्द्धियों से स्वयं को अलग करने , प्रतिभा को आकर्षित करने और बेहतर शर्तों पर वित्त तक पहुँच बनाने में सहायता करती है।
  • सामाजिक प्रमुखता बनाए रखना: कुछ कंपनियाँ अपनी सामाजिक प्रमुखता बनाए रखने और सार्वजनिक धारणा और हितधारकों के विश्वास में सुधार करने के लिये हितधारकों के साथ मजबूत संबंध बनाने के लिये कार्बन तटस्थता की मांग करती हैं।
  • नैतिक प्रतिबद्धता: नैतिक रूप से प्रेरित कंपनियाँ कार्बन तटस्थता का प्रयास करती हैं क्योंकि उनका मानना ​​है कि ऐसा करना सही है। 
    • ये कंपनियाँ पर्यावरणीय स्थिरता के प्रति जुनून और ग्रह की रक्षा की  ज़िम्मेदारी की भावना से प्रेरित हैं।

ग्रीनहशिंग से संबंधित चिंताएँ क्या हैं?

  • बढ़ती वैश्विक प्रवृत्ति: जलवायु परामर्श फर्म साउथ पोल की एक रिपोर्ट में पाया गया कि सर्वेक्षण में शामिल 58% कंपनियाँ बढ़ती हुई विनियमन और जाँच के कारण जलवायु संबंधी अपने संचार को कम कर रही हैं।
  • पारदर्शिता में कमी: जब कंपनियाँ अपने स्थिरता प्रयासों के बारे में खुले तौर पर जानकारी नहीं देती हैं, तो कार्बन उत्सर्जन को कम करने में उनकी प्रगति का  आकलन करना कठिन हो जाता है।
    • इससे जलवायु कार्रवाई की प्रगति को ट्रैक करने और सत्यापित करने की क्षमता कम हो जाती है।
  • वैश्विक स्थिरता परिवर्तन में धीमापन: यदि ये व्यवसाय अपने पर्यावरणीय प्रयासों के बारे में जानकारी को रोकते हैं, तो इससे धारणीय प्रथाओं को अपनाने में देरी हो सकती है, जिससे जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये समग्र वैश्विक प्रयास कमज़ोर हो सकता है।
  • डोमिनो प्रभाव: स्थिरता प्रयासों का विरोध करने वाले क्षेत्रों या उद्योगों से प्रतिकूल प्रतिक्रिया का भय अन्य व्यवसायों और कंपनियों को सतत् प्रथाओं को अपनाने से रोकता है।
  • उपभोक्ताओं पर प्रभाव: जब कंपनियाँ अपनी स्थिरता संबंधी उपलब्धियों के बारे में चुप रहती हैं, तो इससे उपभोक्ता कम टिकाऊ उत्पाद खरीदना जारी रख सकते हैं , जिससे अनजाने में पर्यावरण अनुकूल विकल्पों की मांग धीमी हो जाती है।

ग्रीनहशिंग की समस्या से निपटने के लिये क्या किया जा सकता है?

  • सततता पर प्रकाश डालना: कंपनियों को इस बात पर बल देना चाहिये कि पर्यावरणीय स्थिरता एक यात्रा है न कि एक लक्ष्य। 
    • अपने दर्शकों को शामिल करने और निरंतर सुधार के लिये उनके प्रयासों को उजागर करने से आलोचना कम हो सकती है और ग्रीनवाशिंग के आरोपों के बारे में चिंताएँ दूर हो सकती हैं।
  • बेहतर विनियमन और दिशा-निर्देश: बेहतर विनियमन स्पष्टता ला सकते हैं, विश्वास का निर्माण कर सकते हैं और खेल के मैदान को समतल कर सकते हैं। उदाहरण के लिये, यूरोपीय संघ का ग्रीनवाशिंग निर्देश भ्रामक विज्ञापनों पर प्रतिबंध लगाता है और उपभोक्ताओं को बेहतर उत्पाद जानकारी प्रदान करता है।
  • सततता पर उपभोक्ता शिक्षा: स्थिरता के बारे में उपभोक्ता जागरूकता बढ़ाने से हरित उत्पादों के प्रति नकारात्मक धारणा को परिवर्तित करने और अधिक सतत् कंपनियों को चयन में सहायता मिल सकती है। 

दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न:

प्रश्न: कॉर्पोरेट पर्यावरणीय जिम्मेदारी के संदर्भ में "ग्रीनहशिंग" की अवधारणा पर चर्चा कीजिये। सतत् रिपोर्टिंग के लिये इसके क्या निहितार्थ हैं?