न्यायिक अवमानना: एक जटिल मुद्दा

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में न्यायिक अवमानना व उससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ 

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वतः संज्ञान (Suo Motu) लेते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के विरुद्ध न्यायिक अवमानना की कार्यवाही प्रारंभ की है। इस मामले की सुनवाई न्यायाधीश अरुण मिश्र की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ कर रही है। पीठ में न्यायाधीश बी.आर.गवई तथा न्यायाधीश कृष्णा मुरारी भी शामिल हैं। इस घटना से पूर्व वर्ष 2009 में भी वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने को लेकर सर्वोच्च न्यायालय की आपराधिक अवमानना का केस दर्ज़ हुआ था। 

दरअसल यह मामला वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण के द्वारा किये गए ट्वीट (tweet) से संबंधित है, जिसमें उन्होंने सोशल मीडिया साईट्स ट्विटर पर पोस्ट किये गये कथित अवमाननाकारक ट्वीट में सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना की थी। प्रशांत भूषण लगातार न्यायपालिका से जुड़े मुद्दों को उठाते रहे हैं। कुछ समय पूर्व उन्होंने वैश्विक महामारी COVID-19 के दौरान दूसरे राज्यों से पलायन कर रहे कामगारों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के रवैये की तीखी आलोचना की थी। प्रशांत भूषण ने भीमा-कोरेगाँव मामले में आरोपी बनाए गए वरवरा राव और सुधा भारद्वाज जैसे जेल में बंद नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष करने वाले कार्यकर्ताओं के साथ हो रहे दुर्व्यवहार के बारे में भी बयान दिये थे। 

इस आलेख में न्यायिक अवमानना, उसके प्रकार, न्यायालय की अवमानना के लिये दंड के प्रावधान, अवमानना अधिनियम की आवश्यकता तथा अवमानना अधिनियम में संशोधन संबंधी विधि आयोग की सिफारिशों पर चर्चा की जाएगी। 

न्यायिक अवमानना से तात्पर्य:

  • न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 (Contempt of Court Act, 1971) के अनुसार, न्यायालय की अवमानना का अर्थ किसी न्यायालय की गरिमा तथा उसके अधिकारों के प्रति अनादर प्रदर्शित करना है।
  • न्यायिक आदेशों की अवहेलना करना, उनका पालन न सुनिश्चित करना इत्यादि न्यायिक अवमानना के दायरे में आता है।

न्यायिक अवमानना के प्रकार

  • न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 2 (A) के तहत अवमानना को ‘सिविल’ और ‘आपराधिक’ अवमानना में बाँटा गया है।
    • सिविल अवमानना: न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 2 ( B ) के अंतर्गत न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री, आदेश, रिट, अथवा अन्य किसी प्रक्रिया की जान बूझकर की गई अवज्ञा या उल्लंघन करना न्यायालय की सिविल अवमानना कहलाता है।
    • आपराधिक अवमानना: न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 2 ( C ) के अंतर्गत न्यायालय की आपराधिक अवमानना का अर्थ न्यायालय से जुड़ी किसी ऐसी बात के प्रकाशन से है, जो लिखित, मौखिक, चिह्नित , चित्रित या किसी अन्य तरीके से न्यायालय की अवमानना करती हो। 

न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971

  • यह अधिनियम न्यायालयों के किसी निर्णय, डिक्री, आदेश, रिट आदि की अवहेलना करने पर दंड देने की शक्ति को परिभाषित करता है। 
  • यह अधिनियम न्यायालयों को किसी भी निर्णय, रिट, निर्देश या आदेश की अवमानना करने या जानबूझकर अवज्ञा करने पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को प्रतिबंधित करने की शक्ति प्रदान करता है।
  • अधिनियम के तहत न्यायाधीशों पर भी न्यायिक अवमानना का केस दर्ज किया जा सकता है। उदाहरण के लिये सर्वोच्च न्यायालय की अवमानना ​​पर न्यायाधीश सी.एस. कर्णन को छह माह कारावास का दंड मिला था।

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न्यायिक अवमानना (संशोधन) अधिनियम, 2006 

  • न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 13 के तहत सत्य (Truth) और सुविश्वास (Good Faith) जैसे प्रावधानों को शामिल करने के लिये न्यायिक अवमानना (संशोधन) अधिनियम, 2006 को लाया गया था।
  • न्यायिक अवमानना की कार्रवाई के दौरान सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए सत्य व सुविश्वास के आधार पर व्यक्ति अपने बचाव के संदर्भ में न्यायालय के समक्ष तर्क प्रस्तुत कर सकता है।

न्यायिक अवमानना अधिनियम का उद्देश्य

  • न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 का उद्देश्य न्यायालय की गरिमा और महत्त्व को बनाए रखना है।
  • अवमानना से जुड़ी हुई शक्तियाँ न्यायाधीशों को भय, पक्षपात और की भावना के बिना कर्तव्यों का निर्वहन करने में सहायता करती हैं। 
  • न्यायिक अवमानना की यह शक्ति विधि के समक्ष समता को लागू करती है तथा न्यायालय के आदेशों का बलपूर्वक अनुपालन करवाने हेतु, समृद्ध और शक्तिशाली व्यक्तियों के विरुद्ध एक उपकरण के रूप में कार्य करती है। 
  • न्यायिक अवमानना की शक्ति न्यायपालिका की विश्वसनीयता और दक्षता को बनाए रखने में सहायक होती है। 

न्यायिक अवमानना अधिनियम का संवैधानिक स्रोत

  • सर्वोच्च न्यायालय को न्यायिक अवमानना ​​की शक्तियाँ भारत के संविधान के विभिन्न प्रावधानों, अर्थात् अनुच्छेद 129, 142 (2) और 215 से प्राप्त होती हैं।
  • अनुच्छेद 129: उच्चतम न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा और उसको अवमानना के लिये दंड देने की शक्ति होगी।
  • अनुच्छेद 142 (2): यह अनुच्छेद अवमानना के आरोप में किसी भी व्यक्ति की जाँच तथा उसे दंडित करने के लिये सर्वोच्च न्यायालय को सक्षम बनाता है।
  • अनुच्छेद 215: प्रत्येक राज्य के उच्च न्यायालय को अभिलेख न्यायालय के रूप में स्वीकार किया गया है। उच्च न्यायालयों को स्वंय की अवमानना के लिये दंडित करने में सक्षम बनाता है।

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न्यायिक अवमानना के लिये दंड का प्रावधान

  • सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय को न्यायालय की अवमानना के लिये दंडित करने की शक्ति प्राप्त है। यह दंड छह महीने का साधारण कारावास या 2000 रूपए तक का जुर्माना या दोंनों एक साथ हो सकता है।
  • वर्ष 1991 में सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय सुनाया कि उसके पास न केवल खुद की बल्कि पूरे देश में उच्च न्यायालयों, अधीनस्थ न्यायालयों तथा न्यायाधिकरणों की अवमानना के मामले में भी दंडित करने की शक्ति है। 
  • उच्च न्यायालयों को न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 10 के अंतर्गत अधीनस्थ न्यायालयों की अवमानना के लिये दंडित करने का विशेष अधिकार प्रदान किया है। 

न्यायिक अवमानना से संबंधित चिंताएँ

  • संविधान का अनुच्छेद-19 भारत के प्रत्येक नागरिक को वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है परंतु न्यायिक अवमानना अधिनियम, 1971 द्वारा न्यायालय की कार्यप्रणाली के खिलाफ बात करने पर अंकुश लगा दिया है। 
  • कानून बहुत व्यक्तिपरक है, अतः अवमानना के दंड का उपयोग न्यायालय द्वारा अपनी आलोचना करने वाले व्यक्ति की आवाज़ को दबाने के लिये किया जा सकता है।
  • अवमानना ​​अधिनियम न्यायपालिका के लिये हितों के टकराव की स्थिति को उत्पन्न करता है क्योंकि न्यायाधीश स्वयं ही पीड़ित होते हैं और वे स्वयं ही न्यायकर्त्ता की भूमिका में भी रहते हैं।
  • अवमानना ​​अधिनियम लोकतांत्रिक लोकाचार के विरुद्ध है क्योंकि एक स्वस्थ्य लोकतंत्र में रचनात्मक आलोचना का अति महत्त्व होता है जबकि यह कानून न्यायपालिका की आलोचना करने पर प्रतिबंध लगाता है।
  • न्यायिक अवमानना ​​अधिनियम में व्यक्ति की रक्षापायों के संबंध में प्रावधान का अभाव है, जो प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विरुद्ध है।
  • भारत में न्यायिक अवमानना ​​अधिनियम वर्तमान में भी प्रचलन में है जबकि ब्रिटेन में इसे काफी पहले ही समाप्त कर दिया गया है। 

न्यायिक अवमानना के उदाहरण

  • हीरालाल दीक्षित बनाम उत्तर प्रदेश राज्य 1954: न्याय के प्रशासन में वास्तविक बाधा या रुकावट एक आवश्यक शर्त नहीं है, ऐसा कोई भी कार्य जो अपमान जनक हो सकता है और जिसके परिणामस्वरूप न्यायालय की गरिमा को ठेस पहुँचती है,  न्यायिक अवमानना ​​हो सकती है।
  • के. दफ्तरी बनाम ओ.पी गुप्ता वाद 1971: कोई भी कार्य जो आम जनता के मन में न्यायपालिका के विश्वास को कम करता है या न्याय के प्रशासन में बाधा उत्पन्न कर रहा है या सर्वोच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की प्रतिष्ठा को प्रभावित करता है तो ऐसी स्थिति में अनुच्छेद 129 व अनुच्छेद 142 एक साथ पढ़ा जाएगा और इसे न्यायिक अवमानना ​​का कृत्य माना जाएगा।
  • ध्यातव्य है कि वर्ष 2018 में सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों द्वारा एक प्रेस-कॉन्फ्रेंस आयोजित की गई थी, जिसे न्यायिक अवमानना का आधार नहीं माना गया था क्योंकि न्यायाधीशों द्वारा संविधान के अनुच्छेद 19 1 (A) द्वारा प्रदत्त वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग सार्वजनिक हित को ध्यान में रखते हुए किया गया था।

विधि आयोग का विचार

  • विधि आयोग की 274वीं रिपोर्ट में सिफारिश की गई कि न्यायिक अवमानना अधिनियम में किसी भी प्रकार के संशोधन की आवश्यकता नहीं है और इसके निम्नलिखित कारण हैं-
    • अवमानना के अत्यधिक मामले: आयोग ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय और सभी  उच्च न्यायालयों में सिविल (96,993) और आपराधिक अवमानना (583) के बहुत से मामले लंबित पड़े हैं। इतनी बड़ी संख्या में ऐसे मामलों की मौजूदगी से साबित होता है कि कानून की प्रासंगिकता बनी हुई है। 
    • अवमानना से जुड़ी शक्ति का स्रोत: आयोग ने कहा है कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय को अवमानना से जुड़ी शक्तियाँ संविधान से मिली हुई हैं। अधिनियम सिर्फ अवमानना की जाँच और दंड के संबंध में न्यायिक प्रक्रिया को रेखांकित करता है। इसलिये अधिनियम के संशोधन या उसे समाप्त करने की आवश्यकता नहीं है।
    • अधीनस्थ न्यायालयों पर नकारात्मक प्रभाव: संविधान सर्वोच्च न्यायालय को उनकी अवमानना करने पर दंड देने की अनुमति देता है। इसके अतिरिक्त अधिनियम उच्च न्यायालयों को इस बात की अनुमति देता है कि वे अधीनस्थ न्यायालयों की अवमानना करने पर किसी को दंड दे सकते हैं। आयोग का मत  है कि यदि अवमानना की परिभाषा को सीमित किया जाएगा, तो अधीनस्थ न्यायालय प्रभावित होंगे, चूँकि उनके पास अपनी अवमानना के मामलों से निपटने का कोई उपाय नहीं है।
    • अस्पष्टता: आयोग का विचार है कि अवमानना की परिभाषा में संशोधन करने से अस्पष्टता आएगी। इसका परिणाम यह होगा कि सर्वोच्च न्यायालय संविधान के अंतर्गत प्राप्त अवमानना संबंधी शक्तियों का प्रयोग करते रहेंगे। अगर अधिनियम में आपराधिक अवमानना की कोई परिभाषा नहीं रहेगी, तो सर्वोच्च न्यायालय अवमानना की अनेक परिभाषाएँ और स्पष्टीकरण दे सकते हैं। आयोग ने सुझाव दिया कि स्पष्टता सुनिश्चित करने के लिये परिभाषा को बरकरार रखा जाए। 
    • पर्याप्त रक्षोपाय: आयोग ने बताया है कि अधिनियम का दुरुपयोग रोकने के लिये अनेक रक्षोपाय किये गए हैं। उदाहरण के लिये अधिनियम के कई प्रावधानों में ऐसे मामले पेश किये गए हैं जिन्हें अवमानना नहीं माना गया है।
      • किसी मामले का सार्वजनिक हित में प्रकाशन, न्यायिक कृत्यों की निष्पक्ष और उचित आलोचना तथा न्यायालय के प्रशासनिक पक्ष पर टिप्पणी करना न्यायालय की अवमानना के अंतर्गत नहीं आता है। 

आगे की राह

  • अनुच्छेद 19 (1) (A) के तहत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्राथमिक माना जाना चाहिये और न्यायालय की अवमानना ​​की शक्ति को इसके अधीन रखना चाहिये। 
  • न्यायपालिका को दो परस्पर विरोधी सिद्धांतों अर्थात् वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा निष्पक्ष न्याय निर्णयन को संतुलित करने की दिशा में प्रयास करना चाहिये।
  • विधायिका के लिये यह आवश्यक है कि वह अवमानना ​​कानून में संशोधन के लिये कदम उठाए और अवमानना ​​अधिनियम और उसकी प्रयोज्यता की सीमाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित करे।

प्रश्न- आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं कि न्यायिक अवमानना अधिनियम संविधान द्वारा प्रदत्त वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता है। तर्क सहित अपने उत्तर की पुष्टि कीजिये।