शासन व्यवस्था
ओडिशा की 5T पहल
प्रिलिम्स के लिये:ओडिशा की 5T पहल, टीम वर्क, राज्य स्तर पर नीति आयोग जैसा मॉडल, पारदर्शिता, प्रौद्योगिकी, समय और परिवर्तन, सार्वजनिक सेवाओं का प्रभावी वितरण मेन्स के लिये:ओडिशा की 5T पहल, राज्य स्तर पर नीति आयोग जैसा मॉडल, विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप तथा उनके डिज़ाइन एवं कार्यान्वयन से संबंधित मुद्दे |
स्रोत: हिंदुस्तान टाइम्स
चर्चा में क्यों?
ओडिशा का 5T पहल एक शासन व्यवस्था मॉडल है जो टीम वर्क, पारदर्शिता, प्रौद्योगिकी, समय-सीमा और बदलाव के लिये प्रयुक्त है, जिसे शासन व्यवस्था में सुधार तथा सार्वजनिक सेवाओं के कुशल वितरण सुनिश्चित करने के उद्देश्य से शुरू किया गया है।
- 5T एजेंडा के अनुरूप ओडिशा सरकार ने अक्तूबर 2019 में 'मो सरकार' या 'माई गवर्नमेंट' पहल शुरू की, जिसे राज्य स्तर पर नीति आयोग जैसे मॉडल के रूप में भी देखा जाता है।
- वर्ष 2022 में ओडिशा सरकार के प्रमुख ने 5T पहल में एक और T (यात्रा) को शामिल करते हुए 6T का मंत्र दिया, मंत्रियों से और अधिक 'भ्रमण' करने तथा ज़मीनी स्तर पर सुदृढ़ीकरण की दिशा में कार्य करने का आह्वान किया।
5T पहल:
- टीम वर्क:
- यह सरकार के भीतर विभिन्न विभागों और एजेंसियों को एक टीम के रूप में कार्य करने की आवश्यकता पर बल देता है।
- यह लोगों की आवश्यकताओं का प्रभावी समाधान करने के लिये विभिन्न सरकारी संस्थाओं के बीच सहयोग और समन्वय को बढ़ावा देता है।
- पारदर्शिता:
- यह 5T पहल का एक प्रमुख तत्त्व है। यह सरकारी प्रक्रियाओं और निर्णयों को जनता के प्रति अधिक पारदर्शी एवं जवाबदेह बनाने पर केंद्रित है।
- इसमें सूचनाओं तक सुगम पहुँच प्रदान करना, नौकरशाही-लालफीताशाही को कम करना और सरकार के भीतर नैतिक तथा जवाबदेह आचरण को बढ़ावा देना शामिल है।
- प्रौद्योगिकी:
- यह सरकारी कार्यों को सुव्यवस्थित करने, सेवा वितरण को बढ़ाने और प्रक्रियाओं को अधिक कुशल बनाने के लिये आधुनिक प्रौद्योगिकी तथा डिजिटल साधनों के उपयोग को प्रोत्साहित करती है।
- समय-सीमा:
- समय-सीमा का पहलू समय पर सेवाएँ प्रदान करने के महत्त्व को रेखांकित करती है। 5T मॉडल का उद्देश्य सेवा वितरण में होने वाले विलंब को कम करना और नागरिकों को सरकारी सेवाएँ समयबद्ध तरीके से वितरित किया जाना सुनिश्चित करती है।
- परिवर्तन:
- अंततः 5T पहल का उद्देश्य सरकारी एजेंसियों और विभागों के कामकाज़ में बदलाव लाना है। इसका उद्देश्य सरकार को अधिक उत्तरदायी, नागरिक-केंद्रित तथा परिणामोन्मुख बनाना है।
5T पहल की उपलब्धियाँ:
- मार्च 2023 तक 5T पहल के तहत 6,872 हाई स्कूलों में विभिन्न बदलाव किये गए।
- वर्ष 2019-20 में निजी स्कूलों में छात्रों की संख्या 16,05,000 थी, किंतु वर्ष 2021-22 में छात्रों की संख्या घटकर 14,62,000 हो गई है। यानी सरकारी स्कूलों में नामांकन कराने व पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में वृद्धि हुई है।
मो सरकार पहल:
- यह एक शासन व्यवस्था संबंधी कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य सरकारी सेवाओं को वितरित करने के तरीके में बदलाव लाना और सार्वजनिक कार्यालयों की जवाबदेही तथा पारदर्शिता में सुधार करना है।
- स्थानीय भाषा में "मो सरकार" का अर्थ है "मेरी सरकार"।
- रियलटाइम फीडबैक तंत्र "मो सरकार" पहल की उल्लेखनीय विशेषताओं में से एक है।
- यहाँ तक कि मुख्यमंत्री सहित शीर्ष अधिकारियों के पास सरकारी संस्थानों से जुड़े नागरिकों के फोन नंबर उपलब्ध होते हैं।
- यह फीडबैक तंत्र नागरिकों के मुद्दों की पहचान करने, सरकारी अधिकारियों के प्रदर्शन का आकलन करने और आवश्यकता पड़ने पर उपचारात्मक कार्रवाई करने में मदद करता है।
- "मो सरकार" पहल को नौकरशाहों के बजाय जनता को शक्ति प्रदान करते हुए शासन व्यवस्था को अधिक साक्ष्य-आधारित, कुशल तथा न्यायसंगत बनाने के एक तरीके के रूप में देखा जाता है।
राज्यों में नीति आयोग जैसी संस्था के कार्यान्वयन का प्रमुख कारण:
नीति (नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया) आयोग वर्ष 2047 तक एक विकसित राष्ट्र बनने के दृष्टिकोण के साथ-साथ तेज़ और समावेशी आर्थिक विकास के लिये राज्यों को उनके योजना बोर्डों के स्थान पर अपने समान निकाय स्थापित करने में सहायता करेगा।
- प्रारंभ में इसका लक्ष्य मार्च 2023 तक सभी राज्यों में समान निकाय स्थापित करने से पूर्व 8 से 10 राज्यों में ऐसे निकाय स्थापित करना है।
- चार राज्यों यानी कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और असम ने इस संबंध में पहले ही कार्य शुरू कर दिया है।
- महाराष्ट्र, ओडिशा, आंध्र प्रदेश और गुजरात में जल्द ही कार्य शुरू होने की संभावना है।
- नीति आयोग की भूमिका:
- यह राज्य योजना बोर्डों की मौजूदा संरचना की जाँच करने हेतु एक टीम के गठन में मदद करेगा।
- आगामी 4-6 महीनों में स्टेट इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मेशन (SIT) की संकल्पना तैयार करेगा।
- उच्च गुणवत्ता वाले विश्लेषणात्मक कार्य और नीति सिफारिशें करने के लिये SIT में पेशेवरों के पार्श्व प्रवेश को प्रोत्साहित किया जाएगा।
- राज्य योजना बोर्डों को SIT के रूप में पुनर्गठित करने के अतिरिक्त निम्नलिखित पर एक रूपरेखा तैयार की जाएगी:
- नीति निर्माण में राज्यों का मार्गदर्शन करने हेतु।
- सरकारी नीतियों और कार्यक्रमों की निगरानी एवं मूल्यांकन हेतु।
- योजनागत लाभों के वितरण के लिये बेहतर तकनीक अथवा मॉडल का सुझाव देने हेतु।
राज्यों में नीति आयोग जैसी संस्थाएँ स्थापित करने की आवश्यकता:
- राज्य भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास चालक होते हैं। रक्षा क्षेत्र, रेलमार्ग और राजमार्ग जैसे उद्योगों को छोड़कर राज्यों के सकल घरेलू उत्पाद की कुल वृद्धि दर राष्ट्रीय जीडीपी वृद्धि कहलाती है।
- स्वास्थ्य, शिक्षा और कौशल विकास मुख्यतः राज्य सूची के विषय हैं।
- व्यापार करने में सरलता, भूमि सुधार, बुनियादी ढाँचे के विकास, ऋण प्रवाह और शहरीकरण में सुधार में राज्य सरकारों की भूमिका अहम होती है, ये सभी निरंतर आर्थिक विकास के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
- अधिकांश राज्यों ने अपने योजना बोर्डों या विभागों को नवीनीकृत करने के लिये कोई प्रयास नहीं किये हैं, जो पहले योजना आयोग के साथ मिलकर कार्य करते थे तथा केंद्र के साथ समवर्ती राज्य पंचवर्षीय योजनाओं के निर्माण में योगदान देते थे।
- बड़ी संख्या में कार्यबल के साथ अधिकांश राज्यों के योजना विभाग लगभग निष्क्रिय हैं और उनके पास कार्यों को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है।
अन्य राज्यों में भी समान पहलें:
- केरल राज्य योजना बोर्ड:
- इस बोर्ड की प्राथमिक भूमिका के अंतर्गत वार्षिक आर्थिक समीक्षा तैयार करने के साथ-साथ पंचवर्षीय और वार्षिक दोनों योजनाएँ तैयार करना शामिल है।
- यह इन योजनाओं के कार्यान्वयन की निगरानी करता है, योजनाओं से संबंधित विभिन्न विभागों के साथ मिलकर सहयोग करता है और विकेंद्रीकरण इकाई के संचालन की देख-रेख करता है।
- यह बोर्ड आयोग पर शोध भी करता है, केंद्रीय और बाह्य रूप से वित्तपोषित कार्यक्रमों के लिये व्यावहारिक विश्लेषण तथा सिफारिशें प्रदान करता है व अध्यक्ष के लिये नीति विवरण तैयार करता है।
- सकला मिशन:
- कर्नाटक राज्य सरकार ने कर्नाटक राज्य में नागरिकों को निर्धारित समय-सीमा के भीतर सेवाओं के वितरण की गारंटी प्रदान करने और उससे जुड़े तथा प्रासंगिक मामलों के लिये सकला मिशन शुरू किया।
- इस अधिनियम को कर्नाटक नागरिकों को सेवाओं की गारंटी अधिनियम, 2011 कहा जाता है।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. अटल इनोवेशन मिशन की स्थापना किसके अंतर्गत की गई है? (2019) (a) विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग उत्तर: (c) मेन्स:प्रश्न. “विभिन्न स्तरों पर सरकारी तंत्र की प्रभाविता तथा शासकीय तंत्र में जन-सहभागिता अन्योन्याश्रित होती है।” भारत के संदर्भ में इनके बीच संबंध पर चर्चा कीजिये। (2016) |
जैव विविधता और पर्यावरण
अटल भूजल योजना एवं भूजल प्रबंधन
प्रिलिम्स के लिये:अटल भूजल योजना, भूजल प्रबंधन, विश्व बैंक, जल सुरक्षा योजनाएँ, केंद्रीय क्षेत्र की योजना, जल शक्ति मंत्रालय, भूजल का ह्रास, केंद्रीय भूजल बोर्ड (CGWB)। मेन्स के लिये:अटल भूजल योजना एवं भूजल प्रबंधन, विभिन्न क्षेत्रों में विकास के लिये सरका नीतियाँ और हस्तक्षेप एवं उनकी रूपरेखा व कार्यान्वयन से उत्पन्न होने वाले मुद्दे |
स्रोत: पी.आई.बी
चर्चा में क्यों
हाल ही में योजना की समग्र प्रगति की समीक्षा के लिये अटल भूजल योजना (ATAL JAL) की राष्ट्रीय स्तरीय संचालन समिति (NLSC) की 5वीं बैठक आयोजित की गई।
- विश्व बैंक कार्यक्रम की समीक्षा में शामिल हो गया है। समिति ने राज्यों को ग्राम पंचायत विकास योजनाओं में जल सुरक्षा योजनाओं (Water Security Projects- WSP) को एकीकृत करने के लिये प्रोत्साहित किया जो कार्यक्रम के पूरा होने के बाद भी योजना के दृष्टिकोण की स्थिरता सुनिश्चित करेगा।
अटल भूजल योजना:
- परिचय:
- अटल जल एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है जिसका उद्देश्य 6000 करोड़. रुपए के परिव्यय के साथ स्थायी भूजल प्रबंधन की सुविधा प्रदान करना है।
- इसका कार्यान्वन जल शक्ति मंत्रालय द्वारा किया जा रहा है।
- विश्व बैंक और भारत सरकार योजना के वित्तपोषण के लिये 50:50 के अनुपात का योगदान दे रहे हैं।
- विश्व बैंक का संपूर्ण ऋण राशि और केंद्रीय सहायता राज्यों को अनुदान के रूप में दी जाएगी।
- उद्देश्य:
- इसका उद्देश्य चिन्हित राज्यों में संबंधित जल संकट वाले क्षेत्रों में भूजल संसाधनों के प्रबंधन में सुधार करना है। ये राज्य गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तर प्रदेश हैं।
- अटल जल मांग-पक्ष प्रबंधन पर प्राथमिक केंद्र के साथ पंचायत के नेतृत्व वाले भूजल प्रबंधन और व्यवहार परिवर्तन को प्रोत्साहित करेगा।
भारत में भूजल की कमी की स्थिति:
- भारत में भूजल की कमी एक गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि यह पेयजल का प्राथमिक स्रोत है। भारत में भूजल की कमी के कुछ मुख्य कारणों में सिंचाई, शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन के लिये भूजल का अत्यधिक दोहन शामिल है।
- हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में भूजल का सबसे अधिक उपयोग भारत द्वारा किया जाता है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के संयुक्त भूजल के उपयोग से भी अधिक है।
- भारत के केंद्रीय भूजल बोर्ड (Central Ground Water Board- CGWB) के अनुसार, भारत में उपयोग किये जाने वाले कुल जल का लगभग 70% भूजल स्रोतों से प्राप्त होता है।
- हालाँकि CGWB का यह भी अनुमान है कि देश के कुल भूजल निष्कर्षण का लगभग 25% असंवहनीय है, अर्थात पुनर्भरण की तुलना में निष्कर्षण दर अधिक है।
- समग्र रूप से भारत में भूजल की कमी एक गंभीर समस्या है जिसे बेहतर सिंचाई तकनीकों जैसे संवहनीय जल प्रबंधन अभ्यासों और संरक्षण प्रयासों के माध्यम से उजागर करने की आवश्यकता है।
भारत में भूजल की कमी के प्रमुख कारण:
- सिंचाई के लिये भूजल का अत्यधिक दोहन:
- भारत में कुल जल उपयोग में सिंचाई की हिस्सेदारी लगभग 80% है और इसमें से अधिकांश जल भूमि से प्राप्त होता है।
- खाद्यान्न की बढ़ती मांग के साथ सिंचाई हेतु भूजल का अधिकाधिक निष्कर्षण किया जा रहा है, जिससे इसके स्तर में कमी आ रही है।
- संयुक्त राष्ट्र की इंटरकनेक्टेड डिज़ास्टर रिस्क रिपोर्ट, 2023 के अनुसार, पंजाब में 78% कुओं को अतिदोहित घोषित किया गया है और पूरे उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में वर्ष 2025 तक गंभीर रूप से अल्प भूजल उपलब्धता का अनुमान है।
- जलवायु परिवर्तन:
- बढ़ते तापमान एवं वर्षण के बदलते प्रतिरूप भूजल जलभृतों (Groundwater Aquifers) की पुनर्भरण दरों को परिवर्तित कर सकते हैं, जिससे भूजल स्तर में और कमी आ सकती है।
- सूखा, फ्लैश फ्लड और बाधित मानसूनी घटनाएँ जलवायु परिवर्तन की घटनाओं के हालिया उदाहरण हैं जो भारत के भूजल संसाधनों पर दबाव बढ़ा रहे हैं।
- अव्यवस्थित जल प्रबंधन:
- जल का कुशलता से उपयोग न करना, जल के पाइपों का फटना और वर्षा जल को एकत्र करने तथा उसके भंडारण हेतु असुरक्षित बुनियादी ढाँचा, ये सभी भूजल की कमी में योगदान कर सकते हैं।
- प्राकृतिक पुनर्भरण में कमी:
- वनों की कटाई जैसे कारकों से भूजल जलभृतों का प्राकृतिक पुनर्भरण कम हो सकता है, जिससे मृदा का क्षरण हो सकता है और भूमि में रिसने तथा जलभृतों को फिर सक्रिय करने में सक्षम जल की मात्रा कम हो सकती है।
घटते भूजल से जुड़े मुद्दे:
- जल की कमी: जैसे-जैसे भूजल स्तर गिरता है, घरेलू, कृषि और औद्योगिक उपयोग के लिये पर्याप्त जल की उपलब्धता कम होती है। इससे जल की कमी हो सकती है और जल संसाधनों के लिये संघर्ष हो सकता है।
- मिशिगन विश्वविद्यालय के नेतृत्व में एक अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि यदि भारतीय किसान वर्तमान दर पर भूमि से भूजल खींचना जारी रखते हैं, तो वर्ष 2080 तक भूजल की कमी की दर तीन गुना हो सकती है। इससे देश की खाद्य और जल सुरक्षा के साथ-साथ एक तिहाई से अधिक आबादी की आजीविका पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।
- भूमि धँसाव/अवतलन: जब भूजल निष्कर्षण किया जाता है, तो मिट्टी संकुचित हो सकती है, जिससे भूमि धँसाव/अवतलन की घटना हो सकती है। इससे सड़कों और इमारतों जैसे बुनियादी ढाँचे को नुकसान हो सकता है तथा बाढ़ का खतरा भी बढ़ सकता है।
- पर्यावरणीय क्षरण: घटते भूजल का पर्यावरण पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। उदाहरण के लिये, जब भूजल स्तर गिरता है, तो यह तटीय क्षेत्रों में लवणीय जल के प्रवेश का कारण बन सकता है, जिससे अलवणीय जल के स्रोत प्रदूषित हो सकते हैं।
- आर्थिक प्रभाव: भूजल की कमी का आर्थिक प्रभाव भी हो सकता है, क्योंकि इससे कृषि उत्पादन कम हो सकता है और जल उपचार व पंपिंग की लागत बढ़ सकती है।
- क्षरण के आंकड़ों का अभाव: भारत सरकार जल संकट वाले राज्यों में अत्यधिक दोहन वाले ब्लॉकों को "अधिसूचित" करके भूजल दोहन को नियंत्रित करती है।
- हालाँकि वर्तमान में केवल 14% अतिदोहित ब्लॉक ही अधिसूचित हैं।
- पृथ्वी की धुरी का झुकाव: जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में एक हालिया अध्ययन के अनुसार, यह दावा किया गया है कि भूजल के अत्यधिक निष्काषन के कारण वर्ष 1993 और वर्ष 2010 के बीच पृथ्वी की धुरी लगभग 80 सेंटीमीटर पूर्व की ओर झुक गई है जो समुद्र के जलस्तर में वृद्धि में योगदान देती है।
भू-जल संरक्षण से संबंधित सरकारी पहल:
आगे की राह
- व्यापक और टिकाऊ जल प्रबंधन रणनीतियों को अपनाने की आवश्यकता है जो तात्कालिक ज़रूरतों एवं दीर्घकालिक चुनौतियों दोनों का समाधान करती हैं।
- जल प्रबंधन निर्णयों में उनके दृष्टिकोण और ज्ञान को सम्मिलित करते हुए, स्थानीय समुदायों के साथ सार्थक जुड़ाव को बढ़ावा देना।
- भविष्य में जल संकट के खिलाफ उचित प्रबंधन के लिये जल बुनियादी ढाँचे और क्षमता निर्माण कार्यक्रमों में निवेश को प्राथमिकता दें।
- जल प्रबंधन पहल की प्रभावशीलता और प्रभाव का आकलन करने के लिये मज़बूत निगरानी और मूल्यांकन ढाँचे की स्थापना करने की आवश्यकता है।
- भावी पीढ़ियों के लिये जल की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिये ज़िम्मेदार भू-जल प्रबंधन और संरक्षण प्रथाओं को बढ़ावा देना।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नमेन्स:प्रश्न.1 जल संरक्षण एवं जल सुरक्षा हेतु भारत सरकार द्वारा प्रवर्तित जल शक्ति अभियान की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं? (2020) प्रश्न.2 रिक्तिकरण परिदृश्य में विवेकी जल उपयोग के लिये जल भंडारण और सिंचाई प्रणाली में सुधार के उपायों को सुझाइए। (2020) |
कृषि
पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी
प्रिलिम्स के लिये:पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी, रबी और खरीफ मौसम, उर्वरक, DAP (डाई-अमोनियम फॉस्फेट), कालाबाज़ारी मेन्स के लिये:पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी का महत्त्व और चुनौतियाँ, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कृषि सब्सिडी तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य से संबंधित मुद्दे |
स्रोत:पी.आई.बी.
चर्चा में क्यों?
हाल ही में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने सत्र 2022-23 के लिये रबी और खरीफ मौसमों के विभिन्न पोषक तत्त्वों के लिये पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी (NBS) दरों को मंज़ूरी दे दी है।
- रबी मौसम 2022-23 के लिये: NBS को विभिन्न पोषक तत्त्वों अर्थात् नाइट्रोजन (N), फास्फोरस (P), पोटाश (K) और सल्फर (S) के लिये मंज़ूरी दी गई है।
- खरीफ मौसम 2022-23 के लिये: फॉस्फेटिक और पोटाश (P&K) उर्वरकों के लिये NBS दरें अनुमोदित।
पोषक तत्त्व आधारित सब्सिडी (NBS) व्यवस्था:
- परिचय:
- NBS इस व्यवस्था के तहत किसानों को इन उर्वरकों में निहित पोषक तत्त्वों (N, P, K और S) के आधार पर रियायती दरों पर उर्वरक उपलब्ध कराए जाते हैं।
- इसके अलावा जो उर्वरक मॉलिब्डेनम (Mo) और जिंक जैसे माध्यमिक एवं सूक्ष्म पोषक तत्त्वों से समृद्ध होते हैं, उन्हें अतिरिक्त सब्सिडी दी जाती है।
- P&K उर्वरकों पर सब्सिडी की घोषणा सरकार द्वारा वार्षिक आधार पर प्रत्येक पोषक तत्त्व के लिये प्रति किलोग्राम के आधार पर की जाती है, जो कि P&K उर्वरकों की अंतर्राष्ट्रीय एवं घरेलू कीमतों, विनिमय दर, देश में इन्वेंट्री स्तर आदि को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाती है।
- NBS नीति का उद्देश्य P&K उर्वरकों की खपत को बढ़ाना है ताकि NPK उर्वरक के बीच इष्टतम संतुलन (N:P:K= 4:2:1) हासिल किया जा सके।
- इससे मृदा के स्वास्थ्य में सुधार होगा और परिणामस्वरूप फसलों की पैदावार बढ़ेगी, जिससे किसानों की आय में वृद्धि होगी।
- साथ ही, चूँकि सरकार उर्वरकों के तर्कसंगत उपयोग की उम्मीद करती है, इससे उर्वरक सब्सिडी का बोझ भी कम हो जाएगा।
- इसे रसायन एवं उर्वरक मंत्रालय के उर्वरक विभाग द्वारा अप्रैल 2010 से कार्यान्वित किया जा रहा है।
- महत्त्व:
- सब्सिडीयुक्त P&K उर्वरकों की उपलब्धता से खरीफ मौसम के दौरान किसानों को रियायती, किफायती और उचित मूल्य पर DAP (डाई-अमोनियम फॉस्फेट और अन्य P&K उर्वरक) की उपलब्धता सुनिश्चित होगी। यह भारत में कृषि उत्पादकता तथा खाद्य सुरक्षा का समर्थन करने के लिये आवश्यक है।
- NBS सब्सिडी प्रभावी संसाधन आवंटन के लिये प्रमुख है तथा यह सुनिश्चित करती है कि सब्सिडी उन किसानों को दी जाए जिन्हें कुशल और सतत् कृषि पद्धतियों को बढ़ावा देने की सबसे अधिक आवश्यकता है।
NBS से संबंधित मुद्दे:
- आर्थिक और पर्यावरणीय लागत:
- NBS नीति सहित उर्वरक सब्सिडी, अर्थव्यवस्था पर एक बड़ा वित्तीय बोझ डालती है। यह खाद्य सब्सिडी के बाद दूसरी सबसे बड़ी सब्सिडी है, जो राजकोषीय स्वास्थ्य पर दबाव डालती है।
- इसके अतिरिक्त मूल्य निर्धारण असमानता के कारण असंतुलित उर्वरक उपयोग के प्रतिकूल पर्यावरणीय परिणाम होते हैं, जैसे कि मृदा क्षरण एवं पोषक तत्त्वों का अपवाह, दीर्घकालिक कृषि स्थिरता को प्रभावित करता है।
- ब्लैक मार्केटिंग और डायवर्ज़न:
- रियायती दर पर मिलने वाला यूरिया कालाबाज़ारी और डायवर्ज़न के प्रति अतिसंवेदनशील है। इसे कभी-कभी अवैध रूप से थोक क्रेताओं, व्यापारियों या गैर-कृषि उपयोगकर्त्ताओं जैसे- प्लाईवुड व पशु आहार निर्माताओं को बेचा जाता है।
- इसके अलावा बांग्लादेश और नेपाल जैसे पड़ोसी देशों में रियायती दर पर मिलने वाले यूरिया की तस्करी के उदाहरण हैं जिससे घरेलू कृषि उपयोग के लिये रियायती दर पर मिलने वाले उर्वरकों की हानि होती है।
- रिसाव और दुरुपयोग:
- NBS पद्धति यह सुनिश्चित करने हेतु कुशल वितरण प्रणाली पर निर्भर करती है कि सब्सिडी वाले उर्वरक लक्षित लाभार्थियों यानी किसानों तक पहुँचें।
- हालाँकि रिसाव और दुरुपयोग के मामले सामने आ सकते हैं, जिसके कारण सब्सिडी वाले उर्वरक किसानों तक नहीं पहुँच पाते हैं या कृषि के अलावा अन्य क्षेत्रों में उपयोग किये जाते हैं। यह सब्सिडी की प्रभावशीलता को कम करता है और वास्तव में किसानों को सस्ती उर्वरकों तक पहुँच से वंचित करता है।
- क्षेत्रीय असमानताएँ:
- देश के विभिन्न क्षेत्रों में कृषि पद्धतियाँ, मृदा की स्थिति और फसल की पोषक आवश्यकताएँ अलग-अलग होती हैं।
- एक समान NBS व्यवस्था को लागू करने से विशिष्ट आवश्यकताओं और क्षेत्रीय विषमताओं को पर्याप्त रूप से उजागर नहीं किया जा सकता है, संभावित रूप से उप-इष्टतम पोषक तत्त्व अनुप्रयोग एवं उत्पादकता जैसी भिन्नताएँ हो सकती हैं।
आगे की राह
- सभी उर्वरकों हेतु एक समान नीति आवश्यक है, क्योंकि फसल की पैदावार और गुणवत्ता के लिये नाइट्रोजन (N), फॉस्फोरस (P) एवं पोटेशियम (K) महत्त्वपूर्ण हैं।
- लंबी अवधि में NBS को फ्लैट प्रति एकड़ नकद सब्सिडी द्वारा प्रतिस्थापित किया जा सकता है जो किसानों को किसी भी उर्वरक को खरीदने की अनुमति देता है।
- इस सब्सिडी में मूल्य वर्द्धित और अनुकूलित उत्पाद शामिल होने चाहिये जो कुशल नाइट्रोजन वितरण एवं अन्य आवश्यक पोषक तत्त्व प्रदान करते हैं।
- NBS व्यवस्था के वांछित परिणामों को प्राप्त करने हेतु मूल्य नियंत्रण, सामर्थ्य और टिकाऊ पोषक तत्त्व प्रबंधन के बीच संतुलन बनाना आवश्यक है।
प्रमुख शस्य मौसम:
खरीफ फसल |
रबी फसल |
जो फसलें दक्षिण-पश्चिम मानसून के मौसम में बोई जाती हैं, उन्हें खरीफ या मानसूनी फसलें कहा जाता है। |
इन फसलों को मानसून के पुनरागमन और पूर्वोत्तर मानसून के मौसम के आसपास बोया जाता है, जिनकी बुवाई अक्तूबर में शुरू होती है तथा इन्हें रबी या सर्दियों की फसलें कहा जाता है। |
खरीफ फसलों की बुवाई मानसून के दौरान जून से अक्तूबर तक की जाती है और देर से गर्मियों या शरद मौसम की शुरुआत में काटा जाता है। |
इन फसलों की कटाई आमतौर पर गर्मियों के मौसम में अप्रैल और मई के दौरान होती है। |
ये फसलें वर्षा के प्रतिरूप पर निर्भर करती हैं। |
इन फसलों पर वर्षा का ज़्यादा असर नहीं होता है। |
प्रमुख खरीफ फसलों में चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा, रागी, मूँगफली और दालें जैसे- अरहर और हरा चना शामिल हैं। |
प्रमुख रबी फसलें गेहूँ, चना, मटर, जौ आदि हैं। |
इसे उगाने के लिये बहुत अधिक जल और ऊष्ण मौसम की आवश्यकता होती है। |
बीज के अंकुरण के लिये गर्म जलवायु और फसलों की वृद्धि के लिये ठंडी जलवायु की आवश्यकता होती है। |
जायद फसलें:
|
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. भारत में पिछले पांँच वर्षों में खरीफ फसलों की खेती के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं? (a) केवल 1 और 3 उत्तर: (a) प्रश्न. निम्नलिखित फसलों पर विचार कीजिये: (2013)
उपर्युक्त में से कौन-सी खरीफ फसलें हैं? (a) केवल 1 और 4 उत्तर: C |
भारतीय अर्थव्यवस्था
भारत के हरित हाइड्रोजन पहल के नुकसान
प्रिलिम्स के लिये:क्लाइमेट रिस्क होरिज़ोंस (CRH), ग्रीन हाइड्रोजन, राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन, नवीकरणीय ऊर्जा, भारत का राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (INDC), नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन। मेन्स के लिये:ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादन में मुद्दे जो जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन और पर्यावरणीय गिरावट को रोकने में विफल रहते हैं। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
एनवायरमेंटल एंड एनर्जी थिंक-टैंक, क्लाइमेट रिस्क होरिज़ोंस (Climate Risk Horizons- CRH) के एक हालिया अध्ययन के अनुसार, यदि हरित हाइड्रोजन उत्पादन में जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन पर अंकुश लगाने के लिये आवश्यक कदम नहीं उठाए गए तो भारत के हरित हाइड्रोजन पहल से प्रदूषण बढ़ सकता है।
- नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (Ministry of New and Renewable Energy- MNRE) द्वारा संचालित भारत के राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन को वर्ष 2030 तक पाँच मिलियन टन का उत्पादन करने की अपेक्षा है।
हरित हाइड्रोजन उत्पादन में वर्तमान मुद्दे:
- हरित हाइड्रोजन की परिभाषा::
- MNRE ने हरित हाइड्रोजन को हाइड्रोजन उत्पादन के रूप में परिभाषित किया है जो प्रति किलोग्राम हाइड्रोजन के साथ 2 किलोग्राम से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित नहीं करता है।
- हालाँकि इस परिभाषा की व्याख्या अभी नहीं हो पाई है जिससे इसके व्यावहारिक कार्यान्वयन को लेकर चिंताएँ बढ़ गई हैं।
- MNRE ने हरित हाइड्रोजन को हाइड्रोजन उत्पादन के रूप में परिभाषित किया है जो प्रति किलोग्राम हाइड्रोजन के साथ 2 किलोग्राम से अधिक कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जित नहीं करता है।
- इलेक्ट्रोलाइज़र का निरंतर संचालन:
- यदि इलेक्ट्रोलाइज़र (हरित हाइड्रोजन उत्पादन के लिये आवश्यक) का उपयोग 24 घंटे किया जाता है तो उन्हें रात में बिना किसी सौर ऊर्जा संचालित करने की आवश्यकता होगी। इसके लिये संभवतः पारंपरिक कोयला आधारित ग्रिड से बिजली बनाने की आवश्यकता होगी, जिसके उपयोग से कार्बन उत्सर्जन बढ़ सकता है।
- परियोजना विद्युत स्रोतों में पारदर्शिता का अभाव:
- इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिकांश परियोजनाओं ने अपने बिजली स्रोतों का खुलासा नहीं किया है तथा यह स्पष्ट नहीं है कि जिन कुछ परियोजनाओं ने प्रतिबद्धता जताई है, वे नवीकरणीय स्रोतों से अपनी 100% बिजली आवश्यकताओं को पूरा कर रही हैं या नहीं।
हरित हाइड्रोजन उत्पादन के निहितार्थ:
- बायोमास का उपयोग और हरित हाइड्रोजन उत्पादन:
- भारत में हरित हाइड्रोजन के उत्पादन के लिये बायोमास के उपयोग की अनुमति है- जो जलने पर कार्बन उत्सर्जन उत्पन्न करता है। इससे पूर्णतः स्वच्छ हरित हाइड्रोजन के उत्पादन में समस्या उत्पन्न होती है।
- नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता का विचलन:
- हरित हाइड्रोजन के उत्पादन के लिये बड़ी मात्रा में नवीकरणीय ऊर्जा (RE) क्षमता की आवश्यकता होती है। हालाँकि इस क्षमता के एक बड़े हिस्से को हरित हाइड्रोजन उत्पादन में नियोजित करने से उपभोक्ताओं के लिये अपर्याप्त बिजली जैसी समस्या उत्पन्न हो सकती है।
- इसके लिये 125 गीगावॉट की नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता के नियोजन की आवश्यकता होगी, जो भारत की वर्तमान बिजली उत्पादन के लगभग 13% के बराबर है।
- उन परियोजनाओं से वित्त को हटाने का जोखिम, जो बिजली ग्रिड को हरित हाइड्रोजन उत्पादन में डीकार्बोनाइज़ करने में मदद करेगा, चिंता का विषय है।
- हरित हाइड्रोजन के उत्पादन के लिये बड़ी मात्रा में नवीकरणीय ऊर्जा (RE) क्षमता की आवश्यकता होती है। हालाँकि इस क्षमता के एक बड़े हिस्से को हरित हाइड्रोजन उत्पादन में नियोजित करने से उपभोक्ताओं के लिये अपर्याप्त बिजली जैसी समस्या उत्पन्न हो सकती है।
- उद्योग विस्तार और निवेश:
- भारत में कई प्रमुख बिजली उपयोगिताओं, जैसे कि रिलायंस इंडस्ट्रीज़, अदानी समूह और नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन ने अपने हरित हाइड्रोजन उत्पादन को बढ़ाने के लिये महत्त्वाकांक्षी योजनाओं की घोषणा की है, जिसमें ऐसी चिंताएँ आगे के निवेश में बाधा बन सकती हैं।
हरित हाइड्रोजन का महत्त्व:
- उत्सर्जन लक्ष्य प्राप्त करना:
- भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contribution- NDC) लक्ष्यों को पूरा करने, क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा, अभिगम व उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिये हरित हाइड्रोजन ऊर्जा महत्त्वपूर्ण है।
- पेरिस जलवायु समझौते के तहत, भारत ने वर्ष 2030 तक अपनी अर्थव्यवस्था की उत्सर्जन तीव्रता को वर्ष 2005 के स्तर से 33-35% तक कम करने का वादा किया है। हरित हाइड्रोजन भारत को स्वच्छ ऊर्जा की ओर ले जा सकता है, जलवायु परिवर्तन से निपट सकता है।
- भारत के राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contribution- NDC) लक्ष्यों को पूरा करने, क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय ऊर्जा सुरक्षा, अभिगम व उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिये हरित हाइड्रोजन ऊर्जा महत्त्वपूर्ण है।
- ऊर्जा भंडारण और गतिशीलता:
- हरित हाइड्रोजन एक ऊर्जा भंडारण विकल्प के रूप में कार्य कर सकता है, जो भविष्य में (नवीकरणीय ऊर्जा की) बाधाओं को समाप्त करने के लिये आवश्यक होगा।
- गतिशीलता के संदर्भ में, शहरों और राज्यों के भीतर शहरी माल ढुलाई हेतु या यात्रियों के लंबी दूरी की गतिशीलता के लिये, ग्रीन हाइड्रोजन का उपयोग रेलवे, बड़े जहाज़ों, बसों या ट्रकों आदि में किया जा सकता है।
- हरित हाइड्रोजन एक ऊर्जा भंडारण विकल्प के रूप में कार्य कर सकता है, जो भविष्य में (नवीकरणीय ऊर्जा की) बाधाओं को समाप्त करने के लिये आवश्यक होगा।
- आयात निर्भरता कम करना:
- इससे जीवाश्म ईंधन पर भारत की आयात निर्भरता कम हो जाएगी। इलेक्ट्रोलाइज़र उत्पादन का स्थानीयकरण और हरित हाइड्रोजन परियोजनाओं का विकास भारत में 18-20 बिलियन अमेरिकी डॉलर का एक नया हरित प्रौद्योगिकी बाज़ार के साथ हजारों रोज़गार का सृजन कर सकता है।
आगे की राह
- ग्रीन हाइड्रोजन और इलेक्ट्रोलाइज़र क्षमता के लिये एक राष्ट्रीय लक्ष्य निर्धारित करना: भारत में ग्रीन स्टील (वाणिज्यिक हाइड्रोजन स्टील प्लांट) जैसे जीवंत हाइड्रोजन उत्पाद निर्यात उद्योग के निर्माण के लिये एक चरणबद्ध विनिर्माण कार्यक्रम का उपयोग किया जाना आवश्यक है।
- पूरक समाधान लागू करना जो सकारात्मक चक्र का निर्माण करे: उदाहरण के लिये हवाई अड्डों पर ईंधन भरने, हीटिंग करने और विद्युत उत्पन्न करने के लिये हाइड्रोजन बुनियादी ढाँचे की स्थापना की जा सकती है।
- विकेंद्रीकृत उत्पादन: इलेक्ट्रोलाइज़र (जो विद्युत का उपयोग करके जल को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में विघटित करता है) तक नवीकरणीय ऊर्जा की खुली पहुँच के माध्यम से विकेंद्रीकृत हाइड्रोजन उत्पादन को बढ़ावा दिया जाना चाहिये।
- वित्त प्रदान करना: नीति निर्माताओं को भारत में उपयोग के लिये प्रौद्योगिकी को आगे बढ़ाने हेतु प्रारंभिक चरण के संचालन और आवश्यक अनुसंधान एवं विकास में निवेश की सुविधा प्रदान करनी चाहिये।
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित भारी उद्योगों पर विचार कीजिये: (2023)
उपर्युक्त में से कितने उद्योगों के विकार्बनन में हरित हाइड्रोजन की महत्त्वपूर्ण भूमिका होने की अपेक्षा है? (A) केवल एक उत्तर: (C) प्रश्न. हरित हाइड्रोजन के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2023)
उपर्युक्त में से कितने कथन सही हैं? (a) केवल एक उत्तर: (c) प्रश्न. हाइड्रोजन ईंधन सेल वाहन "निकास" के रूप में निम्नलिखित में से एक का उत्पादन करते हैं: (2010) (a) NH3 उत्तर: (c) |
भारतीय अर्थव्यवस्था
राष्ट्रीय गोकुल मिशन
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय गोकुल मिशन, साहीवाल गाय, थारपारकर, लाल सिंधी, राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान (NDRI), कृषि विज्ञान केंद्र, श्वेत क्रांति, जर्सी। मुख्य परीक्षा के लिये:स्वदेशी मवेशी नस्लों को बढ़ावा देने का महत्त्व और रोज़गार सृजन तथा आर्थिक विकास पर उनका प्रभाव |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
राष्ट्रीय गोकुल मिशन के लगभग एक दशक के बाद, इस योजना के तहत परिकल्पित सभी स्वदेशी नस्लों की गुणवत्ता में सुधार करने के बजाय इसने देश भर में गाय की केवल एक स्वदेशी किस्म, गिर को प्रमुखता दी है।
राष्ट्रीय गोकुल मिशन से संबंधित समस्याएँ:
- राष्ट्रीय गोकुल मिशन में गिर प्रजाति की गाय को प्रमुखता:
- राष्ट्रीय गोकुल मिशन की शुरुआत वर्ष 2014 में की गई थी, आरंभ में यह विभिन्न स्वदेशी गोजातीय किस्मों के लिये उच्च गुणवत्ता वाले शुक्राणु पर शोध और विकास करने के लिये डिज़ाइन किया गया था, किंतु इस मिशन ने मुख्य रूप से गिर गायों पर ध्यान केंद्रित किया है, अन्य नस्लों पर अधिक ध्यान नहीं दिया है।
- गिर प्रजाति की गायों को प्राथमिकता दिये जाने का प्रमुख कारण दूध उत्पादन और विभिन्न क्षेत्रों के लिये उनकी अनुकूलता है।
- राष्ट्रीय गोकुल मिशन की शुरुआत वर्ष 2014 में की गई थी, आरंभ में यह विभिन्न स्वदेशी गोजातीय किस्मों के लिये उच्च गुणवत्ता वाले शुक्राणु पर शोध और विकास करने के लिये डिज़ाइन किया गया था, किंतु इस मिशन ने मुख्य रूप से गिर गायों पर ध्यान केंद्रित किया है, अन्य नस्लों पर अधिक ध्यान नहीं दिया है।
- पशुधन संख्या पर प्रभाव:
- वर्ष 2019 में की गई पशुधन जनगणना के अनुसार, वर्ष 2013 के बाद से शुद्ध नस्ल की गिर गायों में 70% की वृद्धि देखी गई है। इसके विपरीत, साहीवाल और हरियाना जैसी अन्य स्वदेशी नस्लों की समान वृद्धि नहीं हुई, कुछ नस्लों की संख्या में गिरावट भी दर्ज की गई।
- यह पैटर्न भारत में देशी मवेशियों की नस्लों में विविधता के नुकसान को लाकर चिंता उत्पन्न करती है।
- वर्ष 2019 में की गई पशुधन जनगणना के अनुसार, वर्ष 2013 के बाद से शुद्ध नस्ल की गिर गायों में 70% की वृद्धि देखी गई है। इसके विपरीत, साहीवाल और हरियाना जैसी अन्य स्वदेशी नस्लों की समान वृद्धि नहीं हुई, कुछ नस्लों की संख्या में गिरावट भी दर्ज की गई।
स्वदेशी गिर गाय की नस्ल से संबद्ध मुद्दे:
- वर्गीकृत गिर गायों का असंगत प्रदर्शन:
- गिर गायों के प्रति बढ़ते रुझान के विपरीत शोध से पता चलता है कि वर्गीकृत गिर गायें (गिर और अन्य अज्ञात किस्मों के बीच की एक संकर नस्ल) कई राज्यों में लगातार स्वदेशी नस्लों से बेहतर प्रदर्शन नहीं कर रही हैं।
- उदाहरण के लिये हरियाणा में वर्गीकृत गिर गायों में दुग्ध उत्पादन में वृद्धि का कोई साक्ष्य नहीं है।
- पूर्वी राजस्थान में स्वदेशी किस्मों की तुलना में वर्गीकृत गिर गायों के दुग्ध उत्पादन में कमी होने की जानकारी मिली है, जिससे किसानों को कम स्तनपान अवधि और दैनिक दुग्ध के उत्पादन में कमी की शिकायत हो रही है।
- हालाँकि पश्चिमी राजस्थान में अनुकूल जलवायु परिस्थितियों के कारण वर्गीकृत गिर गायें बेहतर प्रदर्शन करती हैं।
- गिर गायों के प्रति बढ़ते रुझान के विपरीत शोध से पता चलता है कि वर्गीकृत गिर गायें (गिर और अन्य अज्ञात किस्मों के बीच की एक संकर नस्ल) कई राज्यों में लगातार स्वदेशी नस्लों से बेहतर प्रदर्शन नहीं कर रही हैं।
- माइक्रोक्लाइमेट के अनुकूलन से परे कारक:
- वर्गीकृत गिर गायों का प्रदर्शन सूक्ष्म जलवायु परिस्थितियों के प्रति उनकी अनुकूलन क्षमता से परे अन्य कारकों से प्रभावित होता है। उदाहरण के लिये गिर गायें झुंड में विकास करती हैं अतः अलग-अलग पाले जाने से उनका दूध उत्पादन कम हो जाता है।
- पर्याप्त संसाधनों और सहायता के बिना ये गायें किसानों के लिये बोझ बन सकती हैं। विदर्भ क्षेत्र की घटनाएँ इसका प्रमाण है।
- वर्गीकृत गिर गायों का प्रदर्शन सूक्ष्म जलवायु परिस्थितियों के प्रति उनकी अनुकूलन क्षमता से परे अन्य कारकों से प्रभावित होता है। उदाहरण के लिये गिर गायें झुंड में विकास करती हैं अतः अलग-अलग पाले जाने से उनका दूध उत्पादन कम हो जाता है।
आवश्यक समाधान:
- आनुवंशिक रूप से श्रेष्ठ स्वदेशी गायों पर ज़ोर:
- विशेषज्ञ कुछ अधिक दुग्ध देने वाली गोजातीय नस्लों की बजाय स्वदेशी नस्लों में से आनुवंशिक रूप से बेहतर गायों की पहचान करने और प्रजनन करने का सुझाव देते हैं।
- महाराष्ट्र के पशुपालन विभाग ने वर्ष 2012-14 में आनुवंशिक रूप से बेहतर स्वदेशी नस्लों के वीर्य को पशुशालाओं तक सुलभ कराकर एक सफल अनुप्रयोग किया, जो इस दृष्टिकोण की क्षमता को दर्शाता है।
- विशेषज्ञ कुछ अधिक दुग्ध देने वाली गोजातीय नस्लों की बजाय स्वदेशी नस्लों में से आनुवंशिक रूप से बेहतर गायों की पहचान करने और प्रजनन करने का सुझाव देते हैं।
- स्वदेशी गो-जातीय नस्लों की दीर्घकालिक संभावनाएँ:
- भारत में विविध प्रकार के गौ-वंशों की आबादी है, जिनमें से प्रत्येक गाय विशिष्ट क्षेत्रों के लिये अनुकूलित है। लगातार क्रॉसब्रीडिंग से वर्गीकृत किस्मों में क्षेत्र-विशिष्ट लक्षण विलुप्त हो सकते हैं।
- उदाहरण के लिये, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की बद्री गायों को गिर गायों के साथ संकरण कराने से दुग्ध उत्पादन में वृद्धि हो सकती है, लेकिन उनमें शारीरिक बदलाव आ सकता है, जिससे बचना चाहिये।
- भारत में विविध प्रकार के गौ-वंशों की आबादी है, जिनमें से प्रत्येक गाय विशिष्ट क्षेत्रों के लिये अनुकूलित है। लगातार क्रॉसब्रीडिंग से वर्गीकृत किस्मों में क्षेत्र-विशिष्ट लक्षण विलुप्त हो सकते हैं।
- अतीत से सीख और भविष्य के लक्ष्य:
- विशेषज्ञ श्वेत क्रांति की गलतियों को दोहराने के प्रति आगाह कराते हैं, जिसमें भारतीय गौ-वंशों के साथ क्रॉसब्रीडिंग के लिये जर्सी जैसी विदेशी नस्लों का आयात किया गया था।
- हालाँकि इससे दुग्ध उत्पादन में वृद्धि हुई, लेकिन इससे पशुपालकों की आय में वृद्धि नहीं हुई, क्योंकि संकर नस्ल की गायें बीमारियों के प्रति अधिक संवेदनशील थीं और उन्हें अधिक देखभाल की आवश्यकता थी।
- विशेषज्ञ श्वेत क्रांति की गलतियों को दोहराने के प्रति आगाह कराते हैं, जिसमें भारतीय गौ-वंशों के साथ क्रॉसब्रीडिंग के लिये जर्सी जैसी विदेशी नस्लों का आयात किया गया था।
राष्ट्रीय गोकुल मिशन:
- परिचय:
- इसे दिसंबर 2014 से स्वदेशी गोजातीय नस्लों के विकास और संरक्षण के लिये लागू किया गया है।
- यह योजना 2400 करोड़ रुपए के बजट परिव्यय के साथ वर्ष 2021 से 2026 तक एकछत्र योजना राष्ट्रीय पशुधन विकास योजना के तहत भी जारी है।
- नोडल मंत्रालय:
- मत्स्य पालन, पशुपालन और डेयरी मंत्रालय
- उद्देश्य:
- उन्नत तकनीकों का उपयोग करके गोवंश की उत्पादकता और दुग्ध उत्पादन को स्थायी रूप से बढ़ाना।
- प्रजनन उद्देश्यों के लिये उच्च आनुवंशिक योग्यता वाले बैलों के उपयोग को बढ़ावा देना।
- प्रजनन नेटवर्क को मज़बूत करने और किसानों तक कृत्रिम गर्भाधान सेवाओं की डिलीवरी के माध्यम से कृत्रिम गर्भाधान कवरेज को बढ़ाना।
- वैज्ञानिक और समग्र तरीके से स्वदेशी मवेशी तथा भैंस पालन एवं संरक्षण को बढ़ावा देना।
पशुधन क्षेत्र से संबंधित योजनाएँ:
- पशुपालन अवसंरचना विकास निधि (AHIDF)
- राष्ट्रीय पशु रोग नियंत्रण कार्यक्रम
- राष्ट्रीय गोकुल मिशन
- राष्ट्रीय कृत्रिम गर्भाधान कार्यक्रम
- राष्ट्रीय पशुधन मिशन
- राष्ट्रीय कामधेनु प्रजनन केंद्र
- गोकुल ग्राम
- "ई-पशु हाट"- नकुल प्रजनन बाज़ार
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारत की निम्नलिखित फसलों पर विचार कीजिये: (2012)
उपर्युक्त में से कौन-सा/से प्रमुखतया वर्षा-आधारित फसल है/हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न. ग्रामीण क्षेत्रों में गैर-कृषि रोज़गार और आय प्रदान करने के लिये पशुधन पालन में बड़ी संभावना है। भारत में इस क्षेत्र को बढ़ावा देने के लिये उपयुक्त उपायों का सुझाव देने पर चर्चा कीजिये। (2015) |