राष्ट्रीय सर्वेक्षण की कार्यप्रणाली की समीक्षा
प्रिलिम्स के लिये:राष्ट्रीय सांख्यिकी संगठन, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS), आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण मेन्स के लिये:राष्ट्रीय सर्वेक्षण की कार्यप्रणाली की समीक्षा |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत सरकार ने राष्ट्रीय सांख्यिकी संस्थान (National Statistical Organisation- NSO) की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिये भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीविद् प्रणव सेन की अध्यक्षता में सांख्यिकी पर स्थायी समिति (Standing Committee on Statistics- SCoC) का गठन किया है।
- नई समिति का गठन ऐसे समय में हुआ है जब भारत की सांख्यिकीय प्रणाली (प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद) को आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है।
सांख्यिकी पर स्थायी समिति:
- परिचय:
- सरकार ने दिसंबर 2019 में गठित आर्थिक सांख्यिकी पर स्थायी समिति (Standing Committee on Economic Statistics- SCES) का नाम बदलकर और इसके कवरेज का विस्तार करते हुए इसे सांख्यिकी पर स्थायी समिति (Standing Committee on Statistics- SCoS) कर दिया है।
- पहले SCES में 28 सदस्य थे और उनका कार्य औद्योगिक क्षेत्र, सेवा क्षेत्र एवं श्रम बल के आँकड़ों से संबंधित आर्थिक संकेतकों की रूपरेखा की समीक्षा करना था, जिसके अंतर्गत आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण, उद्योगों का वार्षिक सर्वेक्षण, आर्थिक जनगणना से संबंधित डेटा शामिल था।
- समीक्षा का यह कार्य अब नए SCoS द्वारा किया जाएगा।
- सरकार ने दिसंबर 2019 में गठित आर्थिक सांख्यिकी पर स्थायी समिति (Standing Committee on Economic Statistics- SCES) का नाम बदलकर और इसके कवरेज का विस्तार करते हुए इसे सांख्यिकी पर स्थायी समिति (Standing Committee on Statistics- SCoS) कर दिया है।
- सदस्य:
- SCoS में 14 सदस्य हैं जिनमें से 4 गैर-आधिकारिक सदस्य, 9 आधिकारिक सदस्य और 1 सदस्य सचिव है।
- इस समिति में सदस्यों की कुल संख्या 16 हो सकती है जिसे समय-समय पर आवश्यकता के आधार पर बढ़ाया जा सकता है।
- कार्य:
- मौजूदा संरचना की समीक्षा करना तथा सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (Ministry of Statistics and Programme Implementation- MoSPI) द्वारा SCoS के समक्ष लाए गए सभी सर्वेक्षणों से संबंधित विषय/परिणाम/कार्यप्रणाली आदि पर समय-समय पर उठाए गए मुद्दों का समाधान करना।
- यह सैंपलिंग फ्रेम, सैंपलिंग डिज़ाइन, सर्वेक्षण उपकरण आदि सहित सर्वेक्षण पद्धति पर सलाह देने तथा सर्वेक्षणों की सारणीबद्ध योजना को अंतिम रूप प्रदान करने का कार्य करता है। इसके साथ सर्वेक्षण परिणामों को अंतिम रूप देता है।
- इस समिति का कार्य सभी डेटा संग्रह और डेटा उत्पादन प्रयासों को डिज़ाइन करना है।
- यह सुनिश्चित करना कि MoSPI द्वारा जो भी डेटा एकत्र किया जाता है, वह उचित आँकड़ों के मानक को पूरा करता हो।
समीक्षा की आवश्यकता:
- अप्रचलित और पुरातन पद्धतियाँ:
- कुछ विशेषज्ञों ने राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSS), राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) और आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS) जैसे राष्ट्रीय सर्वेक्षणों में उपयोग की जाने वाली अप्रचलित सर्वेक्षण पद्धतियों पर चिंता जताई है, जिससे भारत के विकास को व्यवस्थित रूप से कम करके आँका जा रहा है।
- उनका तर्क है कि यह पुरातन पद्धति पिछले कुछ समय से वास्तविक आँकड़े प्रदर्शित करने में विफल रही है क्योंकि "भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले 30 वर्षों में अविश्वसनीय रूप से गतिशील रही है।"
- राष्ट्रीय स्तर के डेटा का महत्त्व:
- राष्ट्रीय स्तर का डेटा अनुसंधान, नीति निर्धारण और विकास योजना के लिये एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। इस प्रकार मौजूदा साक्ष्यों के आलोक में दावों तथा प्रतिवादों की जाँच करना आवश्यक है।
- इस उद्देश्य के लिये यह पैनल NFHS डेटा पर बारीकी से निगरानी रखेगा, जो पिछले 30 वर्षों से स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा नोडल एजेंसी/केंद्रक अभिकरण के रूप में इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेज़ (IIPS) के साथ आयोजित किया गया है।
- राष्ट्रीय स्तर का डेटा अनुसंधान, नीति निर्धारण और विकास योजना के लिये एक महत्त्वपूर्ण संसाधन है। इस प्रकार मौजूदा साक्ष्यों के आलोक में दावों तथा प्रतिवादों की जाँच करना आवश्यक है।
- ग्रामीण पूर्वाग्रह का मुद्दा:
- आलोचकों का तर्क है कि NFHS जैसे राष्ट्रीय सर्वेक्षण ग्रामीण पूर्वाग्रह प्रदर्शित करते हैं, ये पुराने जनगणना आँकड़ों पर अधिक निर्भरता के कारण ग्रामीण आबादी को अधिक आँकते हैं।
- हालाँकि NFHS डेटा के पाँच दौर का बारीकी से विश्लेषण इस दावे का समर्थन नहीं करता है। इसके बजाय साक्ष्य NFHS-3 में ग्रामीण आबादी को कम आँकने के उदाहरणों का सुझाव देते हैं, NFHS -2 और NFHS -5 में अधिक अनुमान लगाए गए हैं।
- NFHS-1 और NFHS-4 के अनुमान की विश्व बैंक के अनुमानों और जनगणना अनुमानों के साथ बहुत समानता है, जो व्यवस्थित पूर्वाग्रह के बजाय यादृच्छिक त्रुटियों का संकेत देते हैं।
- आलोचकों का तर्क है कि NFHS जैसे राष्ट्रीय सर्वेक्षण ग्रामीण पूर्वाग्रह प्रदर्शित करते हैं, ये पुराने जनगणना आँकड़ों पर अधिक निर्भरता के कारण ग्रामीण आबादी को अधिक आँकते हैं।
ऐसी त्रुटियों को कम करना:
- हालाँकि ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में प्रतिक्रिया न देने का प्रतिशत अधिक है, लेकिन यह आकलन में ग्रामीण या शहरी पूर्वाग्रह के साथ व्यवस्थित संबंध का संकेत नहीं देता है।
- इसके अतिरिक्त नमूना भारांश का सावधानीपूर्वक निर्धारण त्रुटियों एवं विसंगतियों को महत्त्वपूर्ण रूप से ठीक कर सकता है।
- उदाहरण के लिये NFHS- 1, 2, 3, 4, और 5 में शहरी नमूने के अभारित प्रतिशत पर विचार करते हुए उचित नमूना भार असाइनमेंट ग्रामीण एवं शहरी दोनों आबादी के कम प्रतिनिधित्व को संबोधित कर सकता है।
आगे की राह
- समिति का प्राथमिक उद्देश्य नमूना प्रतिनिधित्व से संबंधित चिंताओं का समाधान करना एवं सर्वेक्षण पद्धति में पूरी तरह से सुधार किये बिना त्रुटियों को कम करना होना चाहिये।
- राष्ट्रीय स्तर पर सूचित निर्णय लेने के लिये सटीक एवं विश्वसनीय डेटा सुनिश्चित करते हुए त्रुटियों को सुधारने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये जहाँ वे वास्तव में व्याप्त हैं।
- नमूना प्रतिनिधित्व से संबंधित चिंताओं और त्रुटियों को कम करके समिति यह सुनिश्चित कर सकती है कि NFHS जैसे राष्ट्रीय सर्वेक्षण, भारत के विकास और जनसांख्यिकी में विश्वसनीय अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।
स्रोत: द हिंदू
इथेनॉल
प्रिलिम्स के लिये:इथेनॉल, जैव ईंधन पर राष्ट्रीय नीति 2018, E100 पायलट प्रोजेक्ट, इथेनॉल सम्मिश्रण कार्यक्रम, घुलनशील पदार्थों के साथ डिस्टिलरीज़ का सूखा अनाज मेन्स के लिये:इथेनॉल सम्मिश्रण और इसका महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय प्रधानमंत्री ने G20 ऊर्जा मंत्रियों की बैठक में घोषणा की कि भारत ने वर्ष 2023 में 20% इथेनॉल-मिश्रित पेट्रोल लॉन्च किया है तथा वर्ष 2025 तक पूरे देश को कवर करने का लक्ष्य है।
- भारत में इथेनॉल का उत्पादन गन्ने से निर्मित गुड़ से लेकर चावल, मक्का और अन्य अनाज जैसे विभिन्न फीडस्टॉक द्वारा किया जाता है।
- यह कदम जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने और सतत् ऊर्जा समाधानों को बढ़ावा देने के लिये भारत की प्रतिबद्धता को दर्शाता है।
इथेनॉल:
- परिचय:
- इथेनॉल जिसे एथिल अल्कोहल भी कहा जाता है, यह गन्ना, मक्का, चावल, गेहूँ और बायोमास जैसे विभिन्न स्रोतों से उत्पादित जैव ईंधन है।
- इथेनॉल की उत्पादन प्रक्रिया में खमीर द्वारा या एथिलीन हाइड्रेशन जैसी पेट्रोकेमिकल प्रक्रियाओं के माध्यम से शर्करा का किण्वन किया जाता है।
- इथेनॉल 99.9% शुद्ध अल्कोहल है जिसे स्वच्छ ईंधन विकल्प बनाने के लिये पेट्रोल के साथ मिश्रित किया जा सकता है।
- ईंधन योज्य होने के अतिरिक्त इथेनॉल उत्पादन से घुलनशील पदार्थों के साथ डिस्टिलरीज़ का सूखा अनाज और बॉयलर की भस्मक राख से पोटाश जैसे मूल्यवान उप-उत्पाद प्राप्त होते हैं जिनका विभिन्न उद्योगों में अनुप्रयोग होता है।
- इथेनॉल उत्पादन के उपोत्पाद:
- घुलनशील पदार्थों के साथ डिस्टिलरीज़ का सूखा अनाज (DDGS):
- DDGS अनाज आधारित इथेनॉल उत्पादन का एक उपोत्पाद है।
- यह अनाज में स्टार्च के किण्वन और इथेनॉल निकालने के बाद बचा हुआ अवशेष है।
- DDGS उच्च प्रोटीन सामग्री वाला एक मूल्यवान पशु चारा है और इसका उपयोग पशुधन आहार के पूरक के लिये किया जाता है।
- बॉयलर की भस्मक राख से पोटाश:
- बॉयलर में इथेनॉल उत्पादन के बाद बची राख में 28% तक पोटाश होता है।
- यह राख पोटाश का एक समृद्ध स्रोत है और इसका उपयोग उर्वरक के रूप में किया जा सकता है।
- घुलनशील पदार्थों के साथ डिस्टिलरीज़ का सूखा अनाज (DDGS):
- ईंधन के रूप में इथेनॉल के अनुप्रयोग:
- इथेनॉल का उपयोग परिवहन क्षेत्र में गैसोलीन के नवीकरणीय और स्थायी जैव ईंधन विकल्प के रूप में किया जाता है।
- इसे विभिन्न अनुपातों में पेट्रोल के साथ मिश्रित किया जा सकता है, जैसे- E10 (10% इथेनॉल, 90% पेट्रोल) और E20 (20% इथेनॉल, 80% पेट्रोल)।
- भारत सरकार ने नवीकरणीय ईंधन के रूप में इथेनॉल के उपयोग को बढ़ावा देने के लिये इथेनॉल सम्मिश्रण कार्यक्रम शुरू किया है।
- इस कार्यक्रम का उद्देश्य आयातित कच्चे तेल पर देश की निर्भरता को कम करने, कार्बन उत्सर्जन में कटौती और किसानों की आय को बढ़ावा देने के लिये पेट्रोल के साथ इथेनॉल का मिश्रण करना है।
- इथेनॉल मिश्रण ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और वायु प्रदूषकों को कम करने, स्वच्छ हवा में योगदान देने तथा जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद करता है।
भारत के फीडस्टॉक्स का विविधीकरण:
- फीडस्टॉक विविधीकरण:
- भारत में इथेनॉल का उत्पादन मुख्य रूप से 'C-भारी' गुड़ पर आधारित था, जिसमें 40-45% चीनी सामग्री होती थी, जिससे प्रति टन 220-225 लीटर इथेनॉल प्राप्त होता था।
- भारत ने इथेनॉल उत्पादन, उपज और दक्षता बढ़ाने के लिये सीधे गन्ने के रस की खोज की।
- देश ने चावल, क्षतिग्रस्त अनाज, मक्का, ज्वार, बाजरा और कदन्न को शामिल करके अपने फीडस्टॉक में विविधता प्रदर्शित की है।
- अनाज से इथेनॉल की पैदावार गुड़ की तुलना में अधिक होती है, चावल से 450-480 लीटर और अन्य अनाज से 380-460 लीटर प्रति टन का उत्पादन होता है।
- चीनी मिलों ने चावल, क्षतिग्रस्त अनाज, मक्का और कदन्न को फीडस्टॉक के रूप में उपयोग कर इसमें विविधता ला दी है।
- अग्रणी चीनी कंपनियों ने डिस्टिलरीज़ स्थापित की हैं जो पूरे वर्ष कई फीडस्टॉक पर कार्य कर सकती हैं।
- सरकार की विभेदक मूल्य निर्धारण नीति ने वैकल्पिक फीडस्टॉक के उपयोग को प्रोत्साहित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुछ फीडस्टॉक से उत्पादित इथेनॉल के लिये उच्च कीमतें तय करके मिलों को कम चीनी उत्पादन के लिये मुआवज़ा दिया गया।
- वर्ष 2018-19 से भारत सरकार ने B-भारी गुड़ और साबुत गन्ने के रस/सिरप से उत्पादित इथेनॉल के लिये उच्च कीमतें तय करना शुरू कर दिया।
- चुनौतियाँ:
- अनाज से अधिक इथेनॉल निकलता है लेकिन उसमें लंबे समय तक प्रसंस्करण की आवश्यकता होती है। अनाज में खमीर (Saccharomyces Cerevisiae) का उपयोग करके इथेनॉल में उनके किण्वन से पहले ही स्टार्च को सुक्रोज़ और सरल शर्करा (ग्लूकोज़ एवं फ्रुक्टोज़) में परिवर्तित किया जाता है। गुड़ में पहले से ही सुक्रोज़, ग्लूकोज़ और फ्रुक्टोज़ होता है।
- फीडस्टॉक की गुणवत्ता एवं परिवर्तनशीलता उत्पादन को प्रभावित कर रही है।
- गैर-पारंपरिक फीडस्टॉक्स से संबंधित पर्यावरणीय चिंताएँ।
- लाभ:
- फीडस्टॉक के विविधीकरण से किसी एक फसल के कारण आपूर्ति में उतार-चढ़ाव के साथ कीमत में अस्थिरता कम हो जाएगी।
- इथेनॉल उत्पादन के लिये नए फीडस्टॉक को शामिल करने से नई अनाज मांग उत्पन्न हो सकती है।
गुड़ के प्रकार:
- A गुड़ (प्रारंभिक गुड़): प्रारंभिक चीनी क्रिस्टल निष्कर्षण से प्राप्त एक मध्यवर्ती उप-उत्पाद, जिसमें 80-85% शुष्क पदार्थ (DM) होता है। यदि भंडारण किया जाए तो क्रिस्टलीकरण को रोकने के लिये इसे आर्द्र किया जाना चाहिये।
- B गुड़ (द्वितीयक गुड़): A गुड़ के समान DM सामग्री लेकिन कम चीनी और कोई सहज क्रिस्टलीकरण नहीं।
- C गुड़ (अंतिम गुड़, ब्लैकस्ट्रैप गुड़, ट्रेकल): चीनी प्रसंस्करण का अंतिम उप-उत्पाद, जिसमें पर्याप्त मात्रा में सुक्रोज़ (लगभग 32 से 42%) होता है। यह क्रिस्टलीकृत नहीं होता है और इसका उपयोग तरल या सूखे रूप में वाणिज्यिक फीड घटक के रूप में किया जाता है।
भारत में इथेनॉल मिश्रण को बढ़ावा देने के लिये सरकार की पहल:
- जैव ईंधन पर राष्ट्रीय नीति 2018
- E100 पायलट प्रोजेक्ट
- प्रधानमंत्री जी-वन योजना 2019
- प्रयुक्त खाना पकाने के तेल का पुन: उपयोग (RUCO)
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. भारत की जैव ईंधन की राष्ट्रीय नीति के अनुसार, जैव ईंधन के उत्पादन के लिये निम्नलिखित में से किनका उपयोग कच्चे माल के रूप में हो सकता है? (2020)
नीचे दिये गए कूट का उपयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1, 2, 5 और 6 उत्तर: (a) व्याख्या:
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स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
1.5 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग लक्ष्य और जलवायु अनुमान
प्रिलिम्स के लिये:1.5 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग लक्ष्य, अल नीनो, पेरिस समझौता, जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल, तटीय क्षरण, जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना, जलवायु परिवर्तन के लिये राष्ट्रीय अनुकूलन निधि (NAFCC), इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान (ICAP), जीवनशैली (LiFE) पहल मेन्स के लिये:1.5 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग लक्ष्य की पृष्ठभूमि, भारत पर वार्मिंग का प्रभाव |
चर्चा में क्यों?
अल नीनो और 1.5 डिग्री सेल्सियस की औसत तापमान वृद्धि इस वर्ष सबसे चिंतनीय विषयों में रही है। रिपोर्टों से पता चलता है कि बढ़ती जलवायु परिघटना के कारण ग्रह इस तापमान सीमा को पार कर सकता है।
1.5 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग लक्ष्य की पृष्ठभूमि:
- पेरिस समझौते का लक्ष्य इस सदी के अंत तक तापमान वृद्धि को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है। यह लक्ष्य महत्त्वपूर्ण माना जाता है, लेकिन याद रखने योग्य कुछ महत्त्वपूर्ण बातें हैं।
- हालाँकि देश 20 वर्षों से इस मुद्दे पर चर्चा कर रहे हैं, लेकिन वायुमंडल में कार्बन उत्सर्जन की मात्रा उतनी कम नहीं हुई है जितनी आवश्यकता थी।
- 2 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य सुदृढ़ वैज्ञानिक प्रमाणों के आधार पर निर्धारित नहीं किया गया था। इसके बजाय इसे शुरुआत में 1970 के दशक में विलियम नॉर्डहॉस नामक एक अर्थशास्त्री द्वारा प्रस्तावित किया गया था।
- बाद में कुछ राजनेताओं और जलवायु वैज्ञानिकों ने इस लक्ष्य को अपनाया।
- छोटे द्वीपीय राष्ट्रों के गठबंधन ने लक्ष्य को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक कम करने पर ज़ोर दिया, ताकि इस लक्ष्य को पूरा करने के लिये भविष्य के परिदृश्यों में और सुधार किया जा सके।
- जलवायु परिवर्तन पर अग्रणी वैज्ञानिक निकाय इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) के अनुसार, यदि वर्तमान रुझान जारी रहता है, तो वर्ष 2030-2052 तक विश्व में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक तापमान बढ़ने की संभावना है।
- इसके अलावा 1.5 डिग्री सेल्सियस बनाम 2 डिग्री सेल्सियस वार्मिंग के बीच प्रभावों के अंतर पर IPCC की विशेष रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत जैसे उष्णकटिबंधीय देशों में जलवायु परिवर्तन के कारण आर्थिक विकास पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ने का अनुमान है।
जलवायु परिवर्तन से प्रेरित वार्मिंग का भारत पर प्रभाव:
- परिचय:
- भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (IITM) के एक हालिया अध्ययन के अनुसार, वर्ष 1901-2018 के दौरान भारत का औसत तापमान लगभग 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है, हाल के दशकों में इसमें और अधिक तेज़ी से वृद्धि हुई है।
- प्रभाव:
- कृषि: भारत की कृषि काफी हद तक मानसूनी बारिश पर निर्भर है और गर्मी के कारण वर्षा के पैटर्न में कोई भी बदलाव फसल की पैदावार को काफी प्रभावित कर सकता है।
- इससे अनियमित मानसून, सूखे की आवृत्ति में वृद्धि और लू जैसी चरम मौसमी घटनाएँ घटित होंगी, जिससे कृषि उत्पादकता कम हो जाएगी तथा लाखों किसानों की खाद्य सुरक्षा एवं आजीविका के लिये संकट पैदा हो जाएगा।
- सार्वजनिक स्वास्थ्य: गर्म तापमान से मलेरिया, डेंगू और अन्य वेक्टर जनित बीमारियाँ फैल सकती हैं क्योंकि रोग फैलाने वाले जीवों की सीमा बढ़ जाती है।
- हीटवेव गर्मी से संबंधित बीमारियों और मृत्यु दर को बढ़ा सकती है, खासकर कमज़ोर आबादी के बीच, जिससे स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली पर दबाव पड़ता है।
- पारिस्थितिकी तंत्र और जैवविविधता: वार्मिंग पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित कर सकती है और वनस्पति पैटर्न में बदलाव ला सकती है, जिससे विभिन्न पौधों तथा पशुओं की प्रजातियों के आवास स्थान में परिवर्तन हो सकता है।
- भारत में कई स्थानिक प्रजातियों को विलुप्त होने का सामना करना पड़ सकता है या उन्हें अधिक उपयुक्त क्षेत्रों में स्थानांतरित होने के लिये मजबूर होना पड़ सकता है, जिससे पारिस्थितिक संतुलन में व्यवधान और जैवविविधता की हानि हो सकती है।
- तटीय भेद्यता: भारत में एक व्यापक तटरेखा है और वार्मिंग के कारण समुद्र के स्तर में वृद्धि के परिणामस्वरूप तटीय क्षरण, निचले इलाकों में बाढ़ एवं चक्रवात जैसी चरम मौसमी घटनाओं की आवृत्ति बढ़ सकती है।
- इससे तटीय समुदायों, बुनियादी ढाँचे और आर्थिक गतिविधियों के लिये संकट पैदा हो गया है।
- प्रवासन और सामाजिक व्यवधान: जैसे-जैसे जलवायु-प्रेरित चुनौतियाँ तीव्र होंगी, जलवायु-प्रेरित प्रवासन में वृद्धि हो सकती है, जिसमें लोग गंभीर रूप से प्रभावित क्षेत्रों से रहने हेतु अधिक अनुकूल क्षेत्रों में जा सकते हैं।
- इससे सामाजिक तनाव, संसाधन प्रतिस्पर्द्धा और शहरी केंद्रों पर तनाव पैदा हो सकता है, जिससे नीति निर्माताओं के लिये चुनौतियाँ पैदा हो सकती हैं।
- कृषि: भारत की कृषि काफी हद तक मानसूनी बारिश पर निर्भर है और गर्मी के कारण वर्षा के पैटर्न में कोई भी बदलाव फसल की पैदावार को काफी प्रभावित कर सकता है।
- सरकार की पहल:
- जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC)
- NAPCC के मूल में 8 राष्ट्रीय मिशन हैं जिनमें राष्ट्रीय सौर मिशन, सतत् आवास पर राष्ट्रीय मिशन आदि शामिल हैं।
- जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय अनुकूलन निधि (NAFCC)
- इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान
- लाइफ पहल
- जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPCC)
आगे की राह
- राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं डेटा: भारत को क्षेत्रीय विविधताओं को ध्यान में रखते हुए जलवायु प्रभावों तथा भेद्यता का व्यापक एवं निरंतर राष्ट्रीय मूल्यांकन करना चाहिये।
- सटीक डेटा साक्ष्य-आधारित निर्णय लेने के साथ यह लक्षित नीतिगत हस्तक्षेपों में सहायता करेगा।
- हरित अवसंरचना एवं शहरी नियोजन: शहरों में नीली-हरित अवसंरचना तथा टिकाऊ शहरी नियोजन प्रथाओं को लागू करना शामिल है।
- इसमें हरित क्षेत्रों का निर्माण, सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देना तथा शहरी ताप द्वीप प्रभाव को कम करने के लिये पर्यावरण-अनुकूल भवन डिज़ाइनों को प्रोत्साहित करना शामिल है।
- कार्बन मूल्य निर्धारण: ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन की पर्यावरणीय लागत को कम करने के लिये कार्बन मूल्य निर्धारण तंत्र को स्थापित करना।
- इसे कार्बन कर या कैप-एंड-ट्रेड सिस्टम के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है ताकि उद्योगों को स्वच्छ प्रौद्योगिकियों को अपनाने के लिये प्रोत्साहित किया जा सके।
- चक्रीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना: एक चक्रीय अर्थव्यवस्था मॉडल अपनाने को बढ़ावा देने की आवश्यकता है, जहाँ अपशिष्ट को कम किये जाने के साथ संसाधनों का पुन: उपयोग, मरम्मत या पुनर्चक्रण किया जाता है, जिससे उत्पादों एवं प्रक्रियाओं के कार्बन पदचिह्न को कम किया जा सके है।
- अंतर्राष्ट्रीय सहयोग: भारत साझा लेकिन विभेदित ज़िम्मेदारियों और संबंधित क्षमताओं (CBDR-RC) के माध्यम से वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के लिये संयुक्त जलवायु पहल, सर्वोत्तम प्रथाओं को साझा करने के साथ संसाधनों का लाभ उठाने पर अन्य देशों और मंचों के साथ सहयोग कर सकता है
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. जलवायु-अनुकूल कृषि (क्लाइमेट-स्मार्ट एग्रीकल्चर) के लिये भारत की तैयारी के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2021)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-से सही हैं? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा/से भारत सरकार के 'हरित भारत मिशन (Green India Mission)' के उद्देश्य को सर्वोत्तम रूप से वर्णित करता है/करते हैं? (2016)
नीचे दिये गए कूट का उपयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न. ‘भूमंडलीय जलवायु परिवर्तन संधि (ग्लोबल क्लाइमेट, चेंज एलाएन्स)’ के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? 1. यह यूरोपीय संघ की पहल है। नीचे दिये गए कूट का उपयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (a) मेन्स:प्रश्न. संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (यू.एन.एफ.सी.सी.सी.) के सी.ओ.पी. के 26वें सत्र के प्रमुख परिणामों का वर्णन कीजिये। इस सम्मेलन में भारत द्वारा की गई वचनबद्धताएँ क्या हैं? (2021) प्रश्न. 'जलवायु परिवर्तन' एक वैश्विक समस्या है। भारत जलवायु परिवर्तन से किस प्रकार प्रभावित होगा? जलवायु परिवर्तन द्वारा भारत के हिमालयी और समुद्रतटीय राज्य किस प्रकार प्रभावित होंगे? (2017) |
स्रोत: द हिंदू
संयुक्त G-20 विज्ञप्ति की संभावनाएँ
प्रिलिम्स के लिये:संयुक्त G-20 विज्ञप्ति, G-20 शिखर सम्मेलन, यूक्रेन में युद्ध, ब्रिक्स शिखर सम्मेलन की संभावनाएँ मेन्स के लिये:संयुक्त G-20 विज्ञप्ति की संभावनाएँ |
चर्चा में क्यों?
सितंबर 2023 में नई दिल्ली में आयोजित होने वाले G-20 शिखर सम्मेलन में यूक्रेन में युद्ध से संबंधित अनुच्छेदों के संबंध में रूस और चीन के विरोधी रुख के कारण संयुक्त विज्ञप्ति जारी करने में बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है।
- जैसे-जैसे शिखर सम्मेलन की तिथि नज़दीक आ रही है, भारतीय वार्ताकार गतिरोध का समाधान करने के लिये कड़ी मेहनत कर रहे हैं।
संयुक्त विज्ञप्ति का महत्त्व:
- G-20 समूह जिसमें विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाएँ सम्मिलित हैं, परंपरागत रूप से आम सहमति तक पहुँचने के साथ प्रत्येक शिखर सम्मेलन के अंत में एक संयुक्त घोषणा जारी करने में सफल रहा है।
- भारत की अध्यक्षता में ऐसा न होने की स्थिति में इसके मौजूदा स्वरूप में G-20 की स्थिरता पर सवाल उठ सकते हैं।
- पिछले शिखर सम्मेलनों, जैसे- वर्ष 2014 में ब्रिस्बेन तथा वर्ष 2022 में इंडोनेशिया में चुनौतियों का सामना करना पड़ा लेकिन अंततः एक दस्तावेज़ तैयार करने में सफलता मिली।
- चुनौतियों के बावजूद शेरपा अगस्त 2023 से "दिल्ली घोषणा" के लिये मसौदा वार्ता प्रारंभ करने के लिये तैयार हैं।
- शेरपा मतभेद के क्षेत्रों को संबोधित करने का प्रयास करेंगे जिसमें ऋण स्थिरता पर अमेरिका-चीन तनाव तथा डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी अवसंरचना को लेकर गोपनीयता के मुद्दे शामिल हैं।
- यूक्रेन मुद्दे के संबंध में अधिकारी "भू-राजनीतिक मुद्दों" के लिये "रिक्त स्थान" अपना सकते हैं जब तक कि अधिकतम बिंदुओं पर सहमति न बन जाए।
G20 दस्तावेज़ों पर विभिन्न परिप्रेक्ष्य:
- भारत का रुख:
- बाली पैराग्राफ को बनाए रखना:
- अब तक भारत ने उनके निर्माण में कठिन परिश्रम का हवाला देते हुए अपने दस्तावेजों में "बाली पैराग्राफ" (बाली 2022 शिखर सम्मेलन में G-20 नेताओं की घोषणा) को शामिल करना जारी रखा है।
- इस पैराग्राफ में यूक्रेन पर रूस के युद्ध की "निंदा" करने वाले संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव का संदर्भ तथा बयान शामिल हैं कि "अधिकांश सदस्य" संघर्ष की कड़ी निंदा करते हैं।
- भारतीय प्रधानमंत्री के वाक्यांश "यह युग युद्ध का नहीं है" का उपयोग भी सार्वभौमिक माना जाता है तथा किसी विशिष्ट देश या संघर्ष से संबंधित नहीं है।
- आर्थिक मुद्दों हेतु न कि सुरक्षा मुद्दों के लिये:
- G-20 सुरक्षा मुद्दों के लिये मंच नहीं है बल्कि यह सुरक्षा चिंताओं से उत्पन्न आर्थिक मुद्दों के लिये मंच है जैसे- ईंधन, खाद्य और उर्वरक की कीमतों पर यूक्रेन युद्ध का प्रभाव।
- यूक्रेन संघर्ष के लिये विकासशील देश ज़िम्मेदार नहीं:
- भारत का कहना है कि G-20 में यूक्रेन संघर्ष उसकी प्राथमिकता नहीं है तथा इस मुद्दे के लिये विकासशील देशों को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जाना चाहिये।
- इसके बजाय भारत अफ्रीकी संघ को G-20 में शामिल करने, डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर (DPI), लिंग आधारित सशक्तीकरण और बहुपक्षीय विकास बैंकों में सुधार जैसी प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहता है।
- बाली पैराग्राफ को बनाए रखना:
- रूस और चीन का विरोध:
- रूस एवं चीन, यूक्रेन को लेकर विज्ञप्ति के आधार पर विरोध करते हैं, रूस का तर्क है कि बाली घोषणापत्र अब वर्तमान स्थिति को प्रतिबिंबित नहीं करता है क्योंकि इसमें यूक्रेन के लिये अमेरिका तथा यूरोपीय सैन्य समर्थन में वृद्धि या रूस के खिलाफ बढ़े हुए प्रतिबंध शामिल नहीं हैं और प्रासंगिक विकास को छोड़ दिया गया है।
- चीन का तर्क है कि G-20 को "भूराजनीतिक मुद्दों" पर चर्चा नहीं करनी चाहिये क्योंकि इसने पिछले दो दशकों में मुख्य रूप से आर्थिक मामलों पर ध्यान केंद्रित किया है।
G-20:
- ग्रुप ऑफ ट्वेंटी (G-20) की स्थापना वर्ष 1999 में एशियाई वित्तीय संकट के बाद वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक के गवर्नरों के लिये वैश्विक आर्थिक एवं वित्तीय मुद्दों पर चर्चा करने हेतु एक मंच के रूप में की गई थी।
- वर्ष 2007 के वैश्विक आर्थिक और वित्तीय संकट के मद्देनज़र G-20 को राज्य/सरकार के स्तर तक उन्नत किया गया था तथा वर्ष 2009 में इसे "अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग के लिये प्रमुख मंच" नामित किया गया था।
- G-20 में 19 देश (अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, फ्राँस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, कोरिया गणराज्य, मैक्सिको, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, तुर्की, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका) और यूरोपीय संघ शामिल है।
- G-20 सदस्य विश्व की लगभग दो-तिहाई आबादी, 85% वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद, 80% वैश्विक निवेश और 75% से अधिक वैश्विक व्यापार का प्रतिनिधित्व करते हैं।
आगे की राह
- भारत, यूक्रेन संघर्ष पर साझा आधार तलाशने के लिये इंडोनेशिया और ब्राज़ील समेत अन्य G-20 देशों से सुझाव मांग रहा है।
- गतिरोध को सुलझाने में नेताओं, विशेषकर भारतीय प्रधानमंत्री की भूमिका महत्त्वपूर्ण होगी।
- वर्ष 2023 में दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान कूटनीतिक प्रयास भी स्थिति को प्रभावित कर सकते हैं।
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न . निम्नलिखित में से किस समूह के सभी चारों देश G-20 के सदस्य हैं?(2020) (a) अर्जेंटीना, मैक्सिको, दक्षिण अफ्रीका एवं तुर्की उत्तर: (a) प्रश्न . G-20 के बारे में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजियेः
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर : (c) |
स्रोत: द हिंदू
छावनी क्षेत्रों का रूपांतरण
प्रिलिम्स के लिये:छावनी क्षेत्रों का रूपांतरण, छावनी क्षेत्रों की ब्रिटिश-युग की अवधारणा, छावनी अधिनियम, 1924, छावनी अधिनियम, 2006 मेन्स के लिये:छावनी क्षेत्रों का रूपांतरण |
चर्चा में क्यों?
रक्षा मंत्रालय ने सैन्य स्टेशनों से नागरिक क्षेत्रों को अलग करने और उन्हें संबंधित राज्यों में नगर पालिकाओं के साथ एकीकृत करने का निर्णय लिया है, जिसका उद्देश्य छावनी क्षेत्रों की ब्रिटिश-युग की अवधारणा में बदलाव लाना है।
- यह निर्णय, जो स्वतंत्रता-पूर्व युग के दौरान स्थापित कई छावनी क्षेत्रों को प्रभावित करता है, प्रशासनिक परिदृश्य को नया आकार देने और बेहतर नागरिक-सैन्य संबंधों को बढ़ावा देने के लिये निर्धारित है।
भारत में छावनी प्रशासन का नियंत्रण:
- छावनी के विषय में:
- सैन्य और नागरिक दोनों आबादी को मिलाकर छावनियाँ सैन्य स्टेशनों से भिन्न होती हैं, जो पूरी तरह से सशस्त्र बलों के प्रशिक्षण तथा आवास के लिये होती हैं।
- पृष्ठभूमि:
- भारत में छावनी क्षेत्रों की उत्पत्ति औपनिवेशिक युग में हुई थी जब ब्रिटिशों ने नियंत्रण बनाए रखने और अपने क्षेत्रीय हितों को सुरक्षित करने के लिये सैन्य स्टेशनों की स्थापना की थी।
- ये क्षेत्र विशेष रूप से सैन्य कर्मियों के लिये आरक्षित थे और नागरिक क्षेत्रों से अलग शासित थे।
- समय के साथ सैन्य और नागरिक क्षेत्रों के बीच सीमांकन से अलग-अलग समुदाय बन गए तथा उनके बीच बातचीत सीमित हो गई।
- छावनियाँ और उनकी संरचना:
- क्षेत्र और जनसंख्या के आकार के आधार पर छावनियों को चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है - श्रेणी- I से श्रेणी- IV तक।
- जबकि श्रेणी- I छावनी में आठ निर्वाचित नागरिक और बोर्ड में आठ सरकारी/सैन्य सदस्य होते हैं, वहीं श्रेणी- IV छावनी में दो निर्वाचित नागरिक और दो सरकारी/सैन्य सदस्य होते हैं।
- यह बोर्ड छावनी के प्रशासन के विभिन्न पहलुओं के लिये ज़िम्मेदार है।
- छावनी का स्टेशन कमांडर बोर्ड का पदेन (Ex-officio) अध्यक्ष होता है और रक्षा संपदा संगठन का एक अधिकारी मुख्य कार्यकारी एवं सदस्य-सचिव होता है।
- आधिकारिक प्रतिनिधित्व को संतुलित करने के लिये बोर्ड में निर्वाचित और नामांकित/पदेन सदस्यों का समान प्रतिनिधित्व है।
- प्रशासनिक नियंत्रण:
- रक्षा मंत्रालय का एक अंतर-सेवा संगठन सीधे छावनी प्रशासन को नियंत्रित करता है।
- भारत के संविधान की संघ सूची (अनुसूची VII) की प्रविष्टि 3 के अनुसार, छावनियों का शहरी स्वशासन और उनमें आवास, भारत संघ का विषय है।
- देश में 60 से अधिक छावनियाँ हैं जिन्हें छावनी अधिनियम, 1924 (छावनी अधिनियम, 2006 द्वारा ) के अंतर्गत अधिसूचित किया गया है।
- नगर पालिकाओं के शहरी शासन की प्रशासनिक संरचना और विनियमन:
- केंद्रीय स्तर पर: 'शहरी स्थानीय सरकार' का विषय निम्नलिखित तीन मंत्रालयों द्वारा देखा जाता है:
- आवास और शहरी मामलों का मंत्रालय।
- छावनी बोर्डों के मामले में रक्षा मंत्रालय।
- केंद्रशासित प्रदेशों के मामले में गृह मंत्रालय।
- राज्य स्तर पर:
- शहरी शासन संविधान के तहत राज्य सूची में शामिल है। इस प्रकार ULBs का प्रशासनिक ढाँचा और विनियमन राज्यों में भिन्न-भिन्न है।
- संविधान (74वाँ संशोधन) अधिनियम, 1992 स्थानीय स्वशासन के संस्थानों के रूप में शहरी स्थानीय निकायों (ULBs), (नगर निगमों सहित) की स्थापना का प्रावधान करता है।
- इसने राज्य सरकारों को इन निकायों को राजस्व एकत्र करने के लिये कुछ कार्य, अधिकार और शक्तियाँ सौंपने का अधिकार दिया, तथा उनके लिये समय-समय पर चुनाव अनिवार्य कर दिया।
- केंद्रीय स्तर पर: 'शहरी स्थानीय सरकार' का विषय निम्नलिखित तीन मंत्रालयों द्वारा देखा जाता है:
- समस्याएँ:
- छावनी क्षेत्रों में रहने वाले नागरिकों ने लंबे समय से विभिन्न प्रतिबंधों से संबंधित मुद्दों की शिकायत की है और कहा है कि छावनी बोर्ड उन्हें हल करने में विफल रहे हैं।
- निवासी नागरिकों का दावा है कि छावनी बोर्ड उन समस्याओं का समाधान खोजने में विफल रहे हैं जिनका वे दैनिक आधार पर सामना करते हैं, जैसे कि गृह ऋण तक पहुँच तथा मैदान के अंदर आवाजाही की स्वतंत्रता।
- छावनी क्षेत्रों में रहने वाले नागरिकों ने लंबे समय से विभिन्न प्रतिबंधों से संबंधित मुद्दों की शिकायत की है और कहा है कि छावनी बोर्ड उन्हें हल करने में विफल रहे हैं।
छावनी क्षेत्रों को अलग करने का महत्त्व:
- नागरिक-सैन्य संबंधों को मज़बूत करना: सैन्य स्टेशनों एवं नागरिक क्षेत्रों के पृथक्करण से सशस्त्र बलों तथा नागरिक आबादी के बीच बेहतर समझ के साथ सहयोग को बढ़ावा मिलने की संभावना है।
- इससे आपसी विश्वास एवं सम्मान भी बढ़ेगा जिससे शांति और संकट के समय में सहज संपर्क स्थापित किया जा सकता है।
- स्थानीय शासन और नागरिक सुविधाएँ: नागरिक क्षेत्रों को नगरपालिका शासन में एकीकृत करने से नागरिक सुविधाओं और बुनियादी संरचना के विकास में सुधार होगा। स्थानीय शासन के मामलों में निवासियों की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण हो सकती है जिसके परिणामस्वरूप शहरी नियोजन और सार्वजनिक सेवाएँ बेहतर होंगी।
- ऐतिहासिक विरासत और शहरी नियोजन: अनेक छावनी कस्बों में औपनिवेशिक युग की समृद्ध ऐतिहासिक विरासत है। यह निर्णय आधुनिक शहरी नियोजन को सुविधाजनक बनाते हुए इन क्षेत्रों के ऐतिहासिक महत्त्व को संरक्षित करने के बारे में प्रश्न उठा सकता है।
- कानूनी और प्रशासनिक चुनौतियाँ: छावनी कस्बे से एक नगर पालिका में परिवर्तन विभिन्न कानूनी और प्रशासनिक चुनौतियाँ उत्पन्न कर सकता है। सुचारु एवं कुशल परिवर्तन सुनिश्चित करने के लिये सरकार को इन मुद्दों पर ध्यान देने की आवश्यकता होगी।
डीमर्जर के कारण उत्पन्न चिंताएँ:
- विशेषज्ञों का मानना है कि यदि छावनियाँ समाप्त कर दी गईं तो इससे इन क्षेत्रों में सेना के प्रशिक्षण एवं प्रशासन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तथा सुरक्षा के लिये भी खतरा उत्पन्न हो जाएगा।
आगे की राह
- छावनी कस्बों में नागरिक क्षेत्रों से सैन्य स्टेशनों को अलग करने का सरकार का निर्णय प्रशासन में एक बुनियादी बदलाव का प्रतीक है जिसका उद्देश्य सैन्य और नागरिक समुदायों के बीच की दूरी को कम कर सकता है।
स्रोत: पी.आई.बी.
राजस्थान प्लेटफॉर्म आधारित गिग कर्मकार (पंजीकरण और कल्याण) विधेयक, 2023
प्रिलिम्स के लिये:गिग इकॉनमी , गिग वर्कर्स, ई-कॉमर्स, सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020, श्रम अधिकार मेन्स के लिये:भारत में गिग इकॉनमी, भारत में गिग वर्कर्स से जुड़े मुद्दे, गिग वर्कर्स के लिये सामाजिक सुरक्षा ब्लैंकेट |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में राजस्थान विधानसभा ने गिग वर्कर्स को सामाजिक सुरक्षा लाभ प्रदान करने के उद्देश्य से एक महत्त्वपूर्ण विधेयक पारित किया है।
- इस विधेयक का उद्देश्य गिग वर्कर्स के लिये सुरक्षा और लाभों की कमी को दूर करना है, जिन्हें पहले ओला, उबर, स्विगी, ज़ोमैटो और अमेज़न जैसी कंपनियों के कर्मचारियों के बजाय "साझेदार" के रूप में वर्गीकृत किया गया था।
- इससे पूर्व सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 में गिग वर्कर्स के लिये जीवन, विकलांगता, स्वास्थ्य लाभ और अन्य सहित सामाजिक सुरक्षा निधि को अनिवार्य किया गया था।
राजस्थान प्लेटफॉर्म-आधारित गिग कर्मकार (पंजीकरण और कल्याण) विधेयक, 2023:
- परिचय:
- राजस्थान प्लेटफाॅर्म-आधारित गिग कर्मकार (पंजीकरण और कल्याण) विधेयक अर्थव्यवस्था में गिग वर्कर्स के महत्त्वपूर्ण योगदान को स्वीकार करता है एवं इसका उद्देश्य उन्हें आवश्यक सुरक्षा तथा सहायता प्रदान करना है।
- इस विधेयक का प्राथमिक उद्देश्य राज्य में काम करने वाले गिग वर्कर को सामाजिक सुरक्षा और कल्याण लाभ प्रदान करना है।
- मुख्य बिंदु:
- गिग वर्कर्स का पंजीकरण:
- विधेयक सभी गिग वर्कर्स को श्रम नियमों के अंतर्गत लाने के लिये राज्य सरकार के साथ पंजीकरण को अनिवार्य बनाता है।
- राज्य सरकार राजस्थान में कार्य करने वाले सभी गिग वर्कर्स का एक व्यापक डेटाबेस बनाए रखेगी।
- प्रत्येक गिग वर्कर को एक विशिष्ट आईडी दी जाएगी जिससे उसके रोज़गार की जानकारी और अधिकारों पर नज़र रखने में सुविधा होगी।
- सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तक पहुँच:
- गिग वर्कर को अनेक सामाजिक सुरक्षा योजनाओं तक पहुँच प्रदान की जाएगी।
- इन योजनाओं में स्वास्थ्य बीमा, दुर्घटना कवरेज और आपात स्थिति के दौरान वित्तीय सहायता प्रदान करने के साथ-साथ अन्य कल्याणकारी उपाय शामिल हो सकते हैं।
- शिकायत निवारण तंत्र:
- यह विधेयक सुनिश्चित करता है कि गिग वर्कर को उसकी किसी भी शिकायत को सुनने और उसका समाधान करने का अधिकार है।
- यह प्रावधान गिग वर्कर्स के अधिकारों की रक्षा और उन्हें काम से संबंधित मुद्दों को हल करने के लिये एक मंच प्रदान करता है।
- प्लेटफार्म-आधारित गिग वर्कर कल्याण बोर्ड की स्थापना:
- यह बोर्ड राज्य में गिग वर्कर के कल्याण और अधिकारों की देखरेख के लिये ज़िम्मेदार होगा।
- कल्याण बोर्ड में राज्य के अधिकारी, गिग वर्कर्स और एग्रीगेटर्स के प्रत्येक पाँच प्रतिनिधि और दो अन्य (एक सिविल सोसाइटी से और दूसरा जो किसी अन्य क्षेत्र में रुचि रखता है) शामिल हैं।
- नामांकित सदस्यों में कम-से-कम एक-तिहाई महिलाएँ होनी चाहिये।
- इस प्रतिनिधित्व का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कल्याण और विनियमन से संबंधित निर्णय लेते समय दोनों पक्षों के हितों पर विचार किया जाए।
- प्लेटफॉर्म-आधारित गिग वर्कर कोष और कल्याण शुल्क:
- यह बिल गिग वर्कर्स के लिये सामाजिक सुरक्षा उपायों को वित्तपोषित करने हेतु "प्लेटफॉर्म-आधारित गिग वर्कर कोष और कल्याण शुल्क" पेश करता है।
- इस कोष का उपयोग चुनौतीपूर्ण समय के दौरान गिग वर्कर को वित्तीय सहायता एवं कल्याण लाभ प्रदान करने के लिये किया जाएगा।
- एग्रीगेटर्स पर लगाया जाने वाला शुल्क:
- एग्रीगेटर्स को प्लेटफॉर्म-आधारित गिग वर्कर से जुड़े प्रत्येक लेन-देन के लिये शुल्क का भुगतान करना होगा।
- कल्याण कोष में योगदान के लिये शुल्क का विशिष्ट प्रतिशत राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किया जाएगा।
- गैर-अनुपालन के लिये दंड:
- विधेयक में एग्रीगेटर्स द्वारा अनुपालन न करने की स्थिति में दंड का प्रावधान शामिल है।
- समय पर कल्याण शुल्क का भुगतान करने में विफल रहने वाले एग्रीगेटर्स से नियत तिथि से 12% प्रतिवर्ष की दर से ब्याज लिया जाएगा।
- राज्य सरकार एग्रीगेटर्स द्वारा अधिनियम के पहली बार उल्लंघन के लिये 5 लाख रुपए तक और बाद के उल्लंघन के लिये 50 लाख रुपए तक का ज़ुर्माना लगा सकती है।
- गिग वर्कर्स का पंजीकरण:
गिग वर्कर:
- एक 'गिग वर्कर' को वर्तमान में ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जो "पारंपरिक नियोक्ता-कर्मचारी संबंधों के बाहर ऐसी गतिविधियों से आय अर्जित करता है जैसे- स्विगी, ज़ोमैटो, ओला, उबर, अर्बन कंपनी आदि विभिन्न प्लेटफॉर्मों या एग्रीगेटर्स के लिये अनुबंध पर कार्य करता है"।
- गिग वर्कर नियमित कर्मचारियों से भिन्न होते हैं, क्योंकि उनके पास लचीले काम के घंटे तथा आय के विभिन्न स्रोत होते हैं।
- उन्हें मासिक या घंटे के आधार पर नहीं, बल्कि उनके द्वारा पूर्ण किये गए कार्यों या सेवाओं के आधार पर भुगतान किया जाता है।
- गिग वर्कर विभिन्न सेवाएँ प्रदान करते हैं, जैसे- भोजन वितरण, राइड-हेलिंग, घरेलू सेवाएँ, ई-कॉमर्स, सामग्री निर्माण, ग्राफिक डिज़ाइन, वेब के विकास आदि।
- वे अपना कार्य करने के लिये अपने स्वयं के उपकरणों, वाहनों तथा औजारों का उपयोग करते हैं।
- बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप और माइकल एंड सुसान डेल फाउंडेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में गिग वर्कर्स की संख्या लगभग 15 मिलियन होने का अनुमान है। इनके वर्ष 2028 तक बढ़कर 90 मिलियन होने की उम्मीद है।
- गिग इकॉनमी एक मुक्त बाज़ार प्रणाली है जिसमें सामान्यतः अस्थायी पद होते हैं और संगठन अल्पकालिक कार्यों के लिये स्वतंत्र वर्कर के साथ अनुबंध करते हैं।
- सामाजिक सुरक्षा पर संहिता, 2020:
- सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 का उद्देश्य संगठित या असंगठित क्षेत्रों के सभी कर्मचारियों और वर्कर्स तक इसे विस्तारित करने के लिये सामाजिक सुरक्षा से संबंधित कानूनों में संशोधन तथा समेकित करना है।
- संहिता को केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचना के माध्यम से आकार-सीमा के अधीन प्रतिष्ठानों पर लागू किया जा सकता है।
- असंगठित वर्कर्स, गिग वर्कर्स एवं प्लेटफॉर्म वर्कर्स के लिये केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा अलग-अलग सामाजिक सुरक्षा कोष स्थापित किये जाएंगे।
- असंगठित वर्कर्स, गिग वर्कर्स और प्लेटफॉर्म वर्कर्स के लिये पंजीकरण प्रावधान निर्दिष्ट हैं।
- इन श्रेणियों के वर्कर्स के लिये योजनाओं की सिफारिश और निगरानी के लिये एक राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा बोर्ड की स्थापना की जाएगी।
- गिग वर्कर्स और प्लेटफॉर्म वर्कर्स की योजनाओं के लिये धनराशि केंद्र तथा राज्य सरकारों के साथ-साथ प्रवर्तकों के योगदान से प्राप्त की जा सकती है।
- कुछ अपराधों के लिये दंड कम कर दिया गया है, जिसमें निरीक्षकों के कार्य में बाधा डालना और गैर-कानूनी तरीके से वेतन काटना शामिल है।
- महामारी के दौरान केंद्र सरकार नियोक्ता और कर्मचारी योगदान [कर्मचारी राज्य बीमा (ESI) और भविष्य निधि (PF) के तहत] को तीन महीने तक के लिये स्थगित या कम कर सकती है।
यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रश्न. भारत में महिलाओं के सशक्तीकरण की प्रक्रिया में 'गिग इकॉनमी' की भूमिका का परीक्षण कीजिये। (2021) |