अंतर्राष्ट्रीय संबंध
परमाणु निरस्त्रीकरण
प्रिलिम्स के लिये:नोबेल शांति पुरस्कार 2024, परमाणु हथियार अप्रसार (NPT), व्यापक परमाणु-परीक्षण-प्रतिबंध संधि (CTBT), अंतर्राष्ट्रीय परमाणु हथियार पूर्ण उन्मूलन दिवस, परमाणु हथियार निषेध संधि (TPNW) मेन्स के लिये:परमाणु निरस्त्रीकरण: आवश्यकता, रूपरेखा, चुनौतियाँ और आगे की राह। |
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
चर्चा में क्यों?
वर्ष 2024 का नोबेल शांति पुरस्कार जापान में परमाणु बम से प्रभावित लोगों के कल्याण में लगे संगठन निहोन हिडांक्यो को परमाणु मुक्त विश्व प्राप्त करने हेतु किये गए प्रयासों के लिये प्रदान किया गया है।
- यह पुरस्कार परमाणु निरस्त्रीकरण की वकालत के महत्त्व पर प्रकाश डालता है, जो हिरोशिमा और नागासाकी पर बमबारी के दौरान अनुभव किये गए परमाणु हथियारों के विनाशकारी प्रभावों से गहराई से संबंधित है।
वर्तमान में परमाणु हथियारों से खतरा
- हिरोशिमा बम की क्षमता 15 किलोटन थी जबकि आधुनिक हथियार (जैसे कि वर्ष 1961 में रूस द्वारा परीक्षण किया गया ज़ार बॉम्बा) 50 मेगाटन की क्षमता तक पहुँच सकता है, जिससे ये 3,800 गुना अधिक शक्तिशाली हो जाता है।
- आधुनिक परमाणु शस्त्रागार में न केवल बड़े पैमाने पर सामरिक हथियार शामिल हैं बल्कि युद्ध में उपयोग के लिये डिज़ाइन किये गए सामरिक हथियार भी शामिल हैं, जिससे परमाणु युद्ध का खतरा बढ़ जाता है।
परमाणु निरस्त्रीकरण क्या है?
- परिचय:
- परमाणु निरस्त्रीकरण से तात्पर्य वैश्विक सुरक्षा को बढ़ावा देने और परमाणु युद्ध के संभावित विनाशकारी परिणामों को रोकने के लिये परमाणु हथियारों को कम करने या समाप्त करने की प्रक्रिया से है।
- इसमें परमाणु शस्त्रागार को नियंत्रित करने और अंततः समाप्त करने के उद्देश्य से कई प्रयास शामिल हैं, जिनका अंतिम लक्ष्य परमाणु मुक्त विश्व प्राप्त करना है।
- परमाणु निरस्त्रीकरण से तात्पर्य वैश्विक सुरक्षा को बढ़ावा देने और परमाणु युद्ध के संभावित विनाशकारी परिणामों को रोकने के लिये परमाणु हथियारों को कम करने या समाप्त करने की प्रक्रिया से है।
- आवश्यकता:
- मानवीय प्रभाव: परमाणु विस्फोट के तात्कालिक परिणामों में व्यापक जनहानि, सामूहिक विनाश और विकिरण संबंधी बीमारियाँ शामिल हैं।
- इसके अतिरिक्त कैंसर और आनुवंशिक क्षति जैसे दीर्घकालिक प्रभाव जीवित बचे लोगों और उनकी पीढ़ियों को भी प्रभावित कर सकते हैं।
- पर्यावरणीय परिणाम: परमाणु विस्फोट से बड़े पैमाने पर पर्यावरणीय क्षति हो सकती है, जिसमें "न्यूक्लियर विंटर" भी शामिल है, जिसमें विस्फोटों से उत्पन्न धुआँ से सूर्य का प्रकाश अवरुद्ध हो जाता है जिससे वैश्विक शीतलन, कृषि उत्पादन में गिरावट और पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान होता है।
- नैतिक दृष्टिकोण: परमाणु हथियारों की विनाशकारी क्षमता उनके उपयोग के बारे में नैतिक प्रश्न उठाती है।
- उनके प्रभाव की प्रकृति न्यायपूर्ण युद्ध सिद्धांत एवं मानवीय कानून के सिद्धांतों के विरुद्ध है।
- आर्थिक लागत: परमाणु शस्त्रागार को बनाए रखने और निर्मित करने के लिये काफी अधिक वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता होती है जिनका उपयोग विकास के साथ गरीबी और जलवायु परिवर्तन जैसे अन्य प्रमुख मुद्दों के समाधान के लिये किया जा सकता है।
- मानवीय प्रभाव: परमाणु विस्फोट के तात्कालिक परिणामों में व्यापक जनहानि, सामूहिक विनाश और विकिरण संबंधी बीमारियाँ शामिल हैं।
परमाणु निरस्त्रीकरण हेतु कौन-से ऐतिहासिक प्रयास किये गए हैं?
- परमाणु हथियार अप्रसार संधि (NPT): परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने और निरस्त्रीकरण को बढ़ावा देने के लिये वर्ष 1970 में NPT को लागू किया गया था।
- हालाँकि इसके भेदभावपूर्ण होने तथा परमाणु-संपन्न एवं गैर-परमाणु संपन्न राज्यों के बीच भेदभाव करने के लिये इसकी आलोचना की गई।
- व्यापक परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि (CTBT): हालाँकि अभी तक पूरी तरह से यह लागू नहीं हुई है लेकिन CTBT के तहत सभी परमाणु विस्फोटों पर प्रतिबंध लगाया गया है, जिसका उद्देश्य नए हथियारों के विकास पर रोक लगाना है।
- परमाणु हथियार निषेध संधि (TPNW): TPNW के तहत किसी भी परमाणु हथियार गतिविधि में भाग लेने पर प्रतिबंध लगाना शामिल है।
- इनमें परमाणु हथियारों का विकास, परीक्षण, उत्पादन, अधिग्रहण, कब्जा, भंडारण, उपयोग या उपयोग की धमकी न देने संबंधी वचनबद्धताएँ शामिल हैं।
- इनमें परमाणु हथियारों का विकास, परीक्षण, उत्पादन, अधिग्रहण, कब्जा, भंडारण, उपयोग या उपयोग की धमकी न देने संबंधी वचनबद्धताएँ शामिल हैं।
परमाणु प्रसार और परमाणु निरस्त्रीकरण के लिये विभिन्न रूपरेखाएँ क्या हैं?
- वैश्विक:
- अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA): IAEA परमाणु समझौतों के अनुपालन की निगरानी करने तथा यह सुनिश्चित करने में भूमिका निभाती है कि परमाणु प्रौद्योगिकी का उपयोग शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिये किया जाए।
- क्षेत्रीय परमाणु-हथियार-मुक्त क्षेत्र (NWFZ): ये क्षेत्र (जहाँ देश परमाणु हथियारों पर प्रतिबंध लगाने के लिये प्रतिबद्ध हैं) निरस्त्रीकरण की दिशा में महत्त्वपूर्ण प्रगति दर्शाते हैं। NWFZ का विस्तार वैश्विक प्रतिबंध के लिये गति देने में मदद कर सकता है।
- पहला NWFZ लैटिन अमेरिका में स्थापित किया गया था (ट्लाटेलोल्को की संधि)।
- भारत का रुख:
- नो फर्स्ट यूज़ (NFU) की नीति: भारत ने परमाणु हथियारों के संदर्भ में नो फर्स्ट यूज़ की प्रतिज्ञा ली है लेकिन इसने हमला होने पर जवाबी कार्रवाई करने का अधिकार सुरक्षित रखा है।
- NFU नीति का उद्देश्य निवारक व्यवस्था बनाए रखते हुए परमाणु संघर्ष के जोखिम को कम करना है।
- एक गैर-परमाणु हथियार संपन्न देश के रूप में NPT में शामिल होने से अस्वीकार करना: भारत ने NPT पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं तथा तर्क दिया है कि यह भेदभावपूर्ण है क्योंकि यह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पाँच स्थायी सदस्यों (P5) को अपने परमाणु शस्त्रागार को बनाए रखने की अनुमति देता है, जबकि इसके तहत अन्य देशों को अपने परमाणु हथियार खत्म करने की आवश्यकता है।
- शांतिपूर्ण परमाणु ऊर्जा को बढ़ावा देना: भारत अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा उपायों के तहत ऊर्जा और वैज्ञानिक विकास के लिये परमाणु प्रौद्योगिकी के शांतिपूर्ण उपयोग का समर्थन करता है।
- नो फर्स्ट यूज़ (NFU) की नीति: भारत ने परमाणु हथियारों के संदर्भ में नो फर्स्ट यूज़ की प्रतिज्ञा ली है लेकिन इसने हमला होने पर जवाबी कार्रवाई करने का अधिकार सुरक्षित रखा है।
- अन्य संबंधित पहल: वासेनार अरेंजमेंट और ऑस्ट्रेलिया समूह
- यद्यपि ये पहल प्रत्यक्ष तौर पर परमाणु निरस्त्रीकरण पर केंद्रित नहीं हैं फिर भी ये परमाणु प्रसार को रोकने और वैश्विक सुरक्षा को बढ़ाने में सहायक हैं।
नोट:
- अंतर्राष्ट्रीय परमाणु परीक्षण रोधी दिवस: 29 अगस्त को मनाए जाने वाले इस दिवस का उद्देश्य लोगों को परमाणु परीक्षणों पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता के बारे में शिक्षित करना तथा जीवन और स्वास्थ्य पर उनके हानिकारक प्रभावों को रोकना है।
- अंतर्राष्ट्रीय निरस्त्रीकरण और अप्रसार जागरूकता दिवस: यह 5 मार्च को मनाया जाता है और इसके तहत अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा बनाए रखने, नागरिकों की रक्षा करने तथा सतत् विकास को बढ़ावा देने के लिये निरस्त्रीकरण पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
- अंतर्राष्ट्रीय परमाणु हथियार पूर्ण उन्मूलन दिवस: परमाणु हथियारों के खतरे के बारे में जागरूकता बढ़ाने और उनके उन्मूलन को बढ़ावा देने के लिये प्रतिवर्ष 26 सितंबर को अंतर्राष्ट्रीय परमाणु हथियार पूर्ण उन्मूलन दिवस मनाया जाता है।
परमाणु निरस्त्रीकरण से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?
- वैश्विक परिदृश्य:
- भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता: परमाणु हथियारों को कुछ राष्ट्रों द्वारा आक्रामकता के विरुद्ध निवारक के रूप में देखा जाता है जिससे हथियारों की होड़ को बढ़ावा मिलता है। उदाहरण के लिये, अमेरिका, रूस और पाकिस्तान जैसे परमाणु-सशस्त्र संपन्न राष्ट्रों के बीच परमाणु हथियारों की होड़ से निरस्त्रीकरण के प्रयास जटिल होते हैं।
- कुछ देशों (जैसे कि अमेरिका) के पास NFU नीति का अभाव है जो चीन और रूस जैसे देशों के लिये चिंता का विषय है तथा इससे यह देश संभावित खतरों की प्रतिक्रया में अपने परमाणु शस्त्रागार का विस्तार एवं आधुनिकीकरण करने के लिये प्रेरित होते हैं।
- सत्यापन और अनुपालन संबंधी मुद्दे: यह सुनिश्चित करना जटिल है कि देश निरस्त्रीकरण संधियों का पालन करें क्योंकि परमाणु हथियार कार्यक्रम आमतौर पर गोपनीय रहते हैं, जिससे यह सत्यापित करना जटिल हो जाता है कि हथियारों को ठीक से नष्ट किया गया है या नहीं।
- तकनीकी विकास: हाइपरसोनिक मिसाइलों के साथ मिसाइल रोधी रक्षा प्रणालियों और साइबर क्षमताओं जैसी नई प्रौद्योगिकियों की दौड़ में जटिलताओं से निरस्त्रीकरण प्रयास बाधित होते हैं।
- भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता: परमाणु हथियारों को कुछ राष्ट्रों द्वारा आक्रामकता के विरुद्ध निवारक के रूप में देखा जाता है जिससे हथियारों की होड़ को बढ़ावा मिलता है। उदाहरण के लिये, अमेरिका, रूस और पाकिस्तान जैसे परमाणु-सशस्त्र संपन्न राष्ट्रों के बीच परमाणु हथियारों की होड़ से निरस्त्रीकरण के प्रयास जटिल होते हैं।
- भारत का परिदृश्य:
- चीन-पाकिस्तान गठजोड़: चीन का तेजी से परमाणु आधुनिकीकरण और पाकिस्तान के साथ उसकी सैन्य साझेदारी, भारत के लिये दोहरी रणनीतिक चुनौती प्रस्तुत करती है।
- ये घटनाक्रम तथा वर्तमान सीमा तनाव (दोनों मोर्चों पर) के कारण, भारत को विश्वसनीय प्रतिरोध सुनिश्चित करने के लिये अपनी परमाणु क्षमताएँ बढ़ाने के लिये बाध्य होना पड़ रहा है।
- भारत का दोहरा दृष्टिकोण: भारत को वैश्विक निरस्त्रीकरण की वकालत करते हुए अपने परमाणु प्रतिरोध को संतुलित करने की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। भारत अपने शस्त्रागार का आधुनिकीकरण कर रहा है, जिसमें K-4 जैसी पनडुब्बी से प्रक्षेपित बैलिस्टिक मिसाइल (SLBM) विकसित करना शामिल है।
- भारत अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर सार्वभौमिक परमाणु निरस्त्रीकरण को महत्त्व देता है।
- औपचारिक शस्त्र नियंत्रण समझौतों का अभाव: शीत युद्ध के दौरान अमेरिका और रूस (USSR) के बीच मौजूद द्विपक्षीय हथियार नियंत्रण संधियों के विपरीत, भारत के पास अपने परमाणु पड़ोसियों के साथ औपचारिक हथियार नियंत्रण समझौते नहीं हैं।
- ऐसे समझौतों का अभाव इस क्षेत्र में विश्वास निर्माण तथा परमाणु जोखिमों का प्रभावी प्रबंधन करने के प्रयासों को जटिल बनाता है।
आगे की राह
- शांतिपूर्ण परमाणु प्रौद्योगिकियों में निवेश: ऊर्जा उत्पादन के लिये शांतिपूर्ण परमाणु प्रौद्योगिकी की उन्नति को बढ़ावा देने के साथ यह प्रदर्शित करना आवश्यक है कि परमाणु क्षमताएँ सैन्य उपयोगों तक सीमित रहने के बजाय लाभकारी उद्देश्यों की पूर्ति कर सकती हैं।
- गैर-सैन्य उपयोग के लिये परमाणु अनुसंधान में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को प्रोत्साहित करना, जिससे राष्ट्रों के बीच विश्वास भी बढ़ेगा।
- सत्यापन और अनुपालन तंत्र को बढ़ावा देना: ऐसी तकनीकों और कार्यप्रणालियों में निवेश करना चाहिये जो परमाणु निरस्त्रीकरण समझौतों की निगरानी और सत्यापन को बेहतर बनाती हैं। IAEA जैसे संगठनों के साथ सहयोग से इनका अनुपालन बेहतर हो सकता है।
- ऐसे स्वतंत्र निकायों का निर्माण करना चाहिये जो परमाणु शस्त्रागार की स्थिति की पुष्टि कर सकें तथा निरस्त्रीकरण प्रतिबद्धताओं का पालन सुनिश्चित कर सकें।
- संवाद और कूटनीति को बढ़ावा देना: परमाणु हथियारों और निरस्त्रीकरण से संबंधित चिंताओं को दूर करने के लिये परमाणु और गैर-परमाणु देशों के बीच नियमित संवाद शुरू करना चाहिये। संयुक्त राष्ट्र और क्षेत्रीय संगठन जैसे मंच ऐसी चर्चाओं को सुविधाजनक बना सकते हैं।
- पारदर्शिता को बढ़ावा देने वाली पहल (जैसे कि परमाणु शस्त्रागार और सैन्य सिद्धांतों पर जानकारी साझा करना) विकसित करना चाहिये। इससे संकट के दौरान अविश्वास को कम करने एवं तनाव को बढ़ने से रोकने में मदद मिल सकती है।
- परमाणु-हथियार-मुक्त क्षेत्रों (NWFZs) को बढ़ावा देना: क्षेत्रीय परमाणु-हथियार-मुक्त क्षेत्रों का विस्तार करना, वैश्विक निरस्त्रीकरण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम हो सकता है।
- भारत दक्षिण एशिया में ऐसे क्षेत्रों की स्थापना की वकालत करने में अग्रणी भूमिका निभा सकता है, जिससे राष्ट्रों के बीच शांतिपूर्ण सहयोग को बढ़ावा देने के साथ-साथ परमाणु खतरे को कम करने में भी मदद मिल सके।
निष्कर्ष
परमाणु हथियारों से उत्पन्न चुनौतियों का समाधान करना वैश्विक सुरक्षा के लिये महत्त्वपूर्ण है लेकिन रासायनिक और जैविक हथियारों से उत्पन्न खतरों पर ध्यान देना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। ये हथियार अक्सर परमाणु हथियारों की तुलना में अधिक घातक और सुलभ होते हैं। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और मज़बूत नियामक ढाँचे को बढ़ावा देकर एक ऐसे सुरक्षित विश्व का निर्माण हो सकता है, जहाँ सभी प्रकार के युद्ध के जोखिम काफी कम हों।
दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न: परमाणु निरस्त्रीकरण पर भारत की स्थिति का परीक्षण कीजिये। वैश्विक परमाणु निरस्त्रीकरण के लक्ष्य को प्राप्त करने में में विश्व को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. भारत में, क्यों कुछ परमाणु रिएक्टर "आई. ए. ई. ए. सुरक्षा उपायों" के अधीन रखे जाते हैं जबकि अन्य इस सुरक्षा के अधीन नहीं रखे जाते? (2020) (a) कुछ यूरेनियम का प्रयोग करते हैं और अन्य थोरियम का उत्तर: (b) मेन्सQ. बढ़ती ऊर्जा ज़रूरतों के साथ क्या भारत को अपने परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम का विस्तार जारी रखना चाहिये? परमाणु ऊर्जा से संबंधित तथ्यों और आशंकाओं पर चर्चा कीजिये। (2018) |


जैव विविधता और पर्यावरण
वनाग्नि और कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन
प्रिलिम्स के लिये:बहिरूष्ण कटिबंधीय और उष्णकटिबंधीय, पाइरोम्स, जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, कार्बन उत्सर्जन, ग्रीनहाउस गैसें, कार्बन मार्केट, कार्बन क्रेडिट, CO2। मुख्य परीक्षा के लिये:जलवायु परिवर्तन का वनाग्नि पर प्रभाव, वनाग्नि में क्षेत्रीय भिन्नताएँ, आग प्रबंधन के नीतिगत निहितार्थ, वनाग्नि में मानवीय गतिविधियों की भूमिका |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
हाल ही में सेंटर फॉर वाइल्डफायर रिसर्च द्वारा किये गए एक अध्ययन में पाया गया है कि वर्ष 2001 के बाद से वनाग्नि से वैश्विक CO2 उत्सर्जन में 60% की वृद्धि हुई है।
- यूरेशिया और उत्तरी अमेरिका में बोरियल वनों से उत्सर्जन लगभग तीन गुना तक बढ़ गया है तथा जलवायु परिवर्तन को इस वृद्धि के पीछे एक प्रमुख कारण माना जा रहा है।
वनाग्नि क्या है?
- परिचय:
- वनाग्नि (जिसे बुशफायर या वनस्पति आग के रूप में भी जाना जाता है) का आशय प्राकृतिक वातावरण जैसे कि जंगलों, घास के मैदानों या टुंड्रा में पौधों के अनियंत्रित और गैर-निर्धारित तरीके से जलने से है।
- ये आग वायु और स्थलाकृति जैसे पर्यावरणीय कारकों के आधार पर फैलती है। जंगल की आग को बनाए रखने के लिये तीन आवश्यक तत्वों की आवश्यकता होती है: ईंधन (पौधे), ऑक्सीजन और एक ऊष्मा स्रोत।
- वर्गीकरण:
- सतही आग: इस आग से जंगल के धरातल पर सूखी घास, पत्तियाँ और टहनियाँ जल जाती हैं।
- भूमिगत/ज़ॉम्बी आग: यह वन भूमि के नीचे की कम तीव्रता वाली आग है, जिससे कार्बनिक पदार्थ प्रभावित होते हैं।
- कैनोपी/क्राउन आग: यह आग वायु और शुष्क परिस्थितियों के कारण वृक्षों के कैनोपी में लगती है तथा प्रायः तीव्र होने के कारण इसे नियंत्रित करना कठिन होता है।
- जानबूझकर लगाई गई नियंत्रित आग: इसका आशय पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य को बनाए रखने के क्रम में वन एजेंसियों द्वारा निर्धारित क्षेत्र में आग लगाना है।
अध्ययन के मुख्य निष्कर्ष क्या हैं?
- पाइरोम्स और आग की घटनाओं का वैश्विक पैटर्न: इस अध्ययन में मशीन लर्निंग का उपयोग करके वैश्विक वन पारिस्थितिकी क्षेत्रों को 12 अलग-अलग "पाइरोम्स" में वर्गीकृत किया गया है, ये ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ जलवायु, वनस्पति और मानवीय गतिविधियों से प्रभावित वनाग्नि में समान पैटर्न प्रदर्शित होता है।
- इन क्षेत्रों को समूहीकृत करने से अग्नि व्यवहार को समझने तथा जलवायु परिवर्तन या भूमि उपयोग के प्रभावों की भविष्यवाणी करने में सहायता मिलती है, जिससे बेहतर अग्नि प्रबंधन एवं जोखिम मूल्यांकन में सहायता मिलती है।
- वनाग्नि से कार्बन उत्सर्जन में भौगोलिक स्तर पर बदलाव: विश्लेषण से यह भी पता चला है कि उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय वन क्षेत्रों के अलावा, उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों के बाहर स्थित क्षेत्रों की वनाग्नि से कार्बन उत्सर्जन में काफी वृद्धि हुई है।
- अग्नि की गंभीरता और कार्बन दहन: वैश्विक स्तर पर वनाग्नि से कार्बन दहन की दर में 47% की वृद्धि हुई है तथा अब वन, सवाना और घास के मैदानों की तुलना में उत्सर्जन में अधिक योगदान दे रहे हैं।
- आग की गंभीरता में वृद्धि का संकेत प्रति इकाई जले हुए वन क्षेत्र से मिलता है।
- वनाग्नि और जलवायु परिवर्तन: मानवजनित जलवायु परिवर्तन के कारण लगातार और गंभीर सूखे की स्थिति उत्पन्न होने से "वनाग्नि" की स्थिति उत्पन्न हो रही है।
- आकाशीय बिजली गिरने की बढ़ती आवृत्ति (विशेष रूप से ऊँचाई वाले क्षेत्रों में) से भी वनाग्नि की घटनाओं में वृद्धि हो रही है।
- वन कार्बन स्टॉक अस्थिरता: शीतोष्ण शंकुधारी वन, बोरियल वन, भूमध्यसागरीय वन तथा उपोष्णकटिबंधीय शुष्क एवं आर्द्र चौड़ी पत्ती वाले वनों सहित अनेक प्रकार के वनों में कार्बन स्टॉक, आग की बढ़ती गंभीरता के कारण अस्थिर हो रहे हैं।
- कार्बन लेखांकन पर प्रभाव: वनाग्नि से कार्बन उत्सर्जन में होने वाली वृद्धि से कार्बन लेखांकन में चुनौतियाँ आती हैं।
- उदाहरण के लिये, ऐसा माना जाता है कि कनाडा में वर्ष 2023 में लगी आग से पिछले दशक में उसके जंगलों में जमा हुए कार्बन सिंक की काफी मात्रा समाप्त हो गई।
कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS)
- यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे औद्योगिक प्रक्रियाओं और विशेष रूप से बिजली संयंत्रों में जीवाश्म ईंधन के जलने से उत्पन्न कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) के उत्सर्जन को कम करने हेतु डिज़ाइन किया गया है।
- CCS का लक्ष्य वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को रोकना है, जिससे ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन की समस्या को कम किया जा सके।
वनाग्नि से संबंधित चुनौतियाँ क्या हैं?
- पर्यावरणीय प्रभाव: वनाग्नि से जैवविविधता, पारिस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुँचने के साथ बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन होता है जो जलवायु परिवर्तन का कारण बनता है।
- आग से हानिकारक प्रदूषक जैसे कणीय पदार्थ और ग्रीनहाउस गैसें उत्सर्जित होती हैं, जिससे वायु की गुणवत्ता प्रभावित होने के साथ श्वसन संबंधी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
- मृदा क्षरण: उच्च तीव्रता वाली आग से मृदा में पोषक तत्त्व नष्ट हो जाते हैं जिससे मृदा की उर्वरता कम होने के साथ पारिस्थितिकी तंत्र बाधित होता है।
- संसाधन हानि: वन स्थानीय समुदायों के लिये लकड़ी, भोजन और आजीविका जैसे आवश्यक संसाधन (जो आग से नष्ट हो जाते हैं) प्रदान करते हैं।
- कठिन प्रबंधन: जलवायु परिवर्तन से आग की बढ़ती आवृत्ति और तीव्रता के कारण प्रभावी प्रबंधन एवं नियंत्रण चुनौतीपूर्ण हो गया है।
- मानव स्वास्थ्य: वायु प्रदूषण और गर्मी के कारण आग से आस-पास के समुदायों में स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, जिससे स्वास्थ्य देखभाल का बोझ बढ़ जाता है।
- आर्थिक क्षति: वनाग्नि से आर्थिक क्षति होती है जिसमें अग्निशमन एवं संपत्ति की क्षति के साथ बचाव प्रयासों की लागत शामिल है।
भारत में वनाग्नि की क्या स्थिति है?
- वनाग्नि का मौसम और घटनाएँ:
- भारत में वनाग्नि का मौसम नवम्बर से जून तक रहता है, जो अप्रैल से मई में चरम पर होता है।
- भारतीय वन सर्वेक्षण (FSI) के अनुसार, भारत के 35.47% वन आग की दृष्टि से संवेदनशील हैं तथा विभिन्न क्षेत्रों में जोखिम का स्तर अलग-अलग है।
- सर्वाधिक संवेदनशील क्षेत्रों में पूर्वोत्तर भारत, ओडिशा, महाराष्ट्र, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड शामिल हैं।
- हाल की घटनाएँ (2024):
- उत्तराखंड में जनवरी से जून 2024 के बीच 1,309 वनाग्नि की घटनाएँ दर्ज की गईं, जो पिछले वर्षों की तुलना में अधिक हैं।
- इसरो के आँकड़ों से पता चलता है कि मार्च 2024 से बढ़ने वाली आग की घटनाओं का प्रभाव महाराष्ट्र, गुजरात और ओडिशा सहित कई क्षेत्रों पर पड़ रहा है।
- सरकारी पहल:
- वनाग्नि हेतु राष्ट्रीय कार्य योजना (NAPFF): वन समुदायों को शामिल करने और वनाग्नि को कम करने के लिये वर्ष 2018 में शुरू की गई।
- वन अग्नि निवारण एवं प्रबंधन योजना (FPM): तकनीकी और वित्तीय सहायता के माध्यम से वनाग्नि प्रबंधन में राज्यों की सहायता के लिये वर्ष 2017 में शुरू की गई थी।
FAO अग्नि प्रबंधन संबंधी दिशा-निर्देश
- जानकारी का एकीकरण:
- दिशा-निर्देश स्वदेशी लोगों और स्थानीय ज्ञान धारकों के विज्ञान और पारंपरिक ज्ञान को एकीकृत करने के महत्व पर बल देते हैं।
- यह दृष्टिकोण अग्नि प्रबंधन निर्णयों को बेहतर बनाता है, वनाग्नि को रोकने, अग्नि प्रकोपों का प्रबंधन करने तथा गंभीर रूप से वनाग्नि से प्रभावित क्षेत्रों को बहाल करने में मदद करता है।
- लैंगिक समावेशन और विविध अग्नि प्रबंधन संबंधी ज्ञान को भी बढ़ावा दिया जाता है।
आगे की राह:
- प्रबंधन संबंधी रणनीतियाँ: वनों का, विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में प्रभावी प्रबंधन महत्त्वपूर्ण है। वनस्पति पर नज़र रखकर और हस्तक्षेप क्षेत्रों के लिये प्राथमिकताएँ निर्धारित करके जोखिम को कम किया जा सकता है।
- उष्णकटिबंधीय रणनीतियाँ: वनों के अधिक खंडीकरण को रोकना तथा गंभीर अग्नि-प्रवण मौसम के दौरान वनाग्नि की घटनाओं को कम करना उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में वन संरक्षण के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- अग्नि प्रबंधन में बदलाव: जिन क्षेत्रों में आग को दबाने का इतिहास बहुत अधिक है, वहाँ पारिस्थितिकी दृष्टि से लाभकारी अग्नि प्रबंधन पद्धतियों को अपनाने से वनों को कार्बन स्रोतों में बदलने से रोका जा सकता है।
- स्पष्ट रिपोर्टिंग की आवश्यकता: मानव-जनित जलवायु परिवर्तन से जुड़े वर्तमान कार्बन बजट अनुमानों में अंतराल को भरने के लिये अध्ययन में संयुक्त राष्ट्र से वनाग्नि से होने वाले उत्सर्जन की रिपोर्टिंग में सुधार करने का आग्रह किया गया है।
- कार्बन क्रेडिट जोखिम: कार्बन भंडारण क्षमता के अधिमूल्यांकन से बचने के लिये, विशेष रूप से उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में, पुनः वनरोपण और कार्बन क्रेडिट योजनाओं में आग के बढ़ते हुई जोखिम को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न: वैश्विक वनाग्नि उत्सर्जन में वृद्धि का जलवायु परिवर्तन पर क्या प्रभाव पड़ेगा, तथा इन जोखिमों को कम करने के लिये नीतियों को किस प्रकार समायोजित किया जाना चाहिये? |
अधिक पढ़ें: वनाग्नि प्रबंधन पर FAO के दिशा-निर्देश
UPSC सिविल सेवा परीक्षा विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न. निम्नलिखित पर विचार कीजिये: (2019)
फसल/बायोमास अवशेषों के जलने से उपर्युक्त में से कौन-से वातावरण में उत्सर्जित होते है? (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (d) |
भूगोल
चक्रवात दाना
प्रिलिम्स के लिये:चक्रवात दाना, भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान, तूफानी लहरें, उत्तरी हिंद महासागर क्षेत्र, मानसून, वायुमंडल, क्यूम्यलोनिम्बस बादल, मैडेन जूलियन ऑसिलेशन (MJO), विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO), बिल्डिंग कोड, चक्रवात चेतावनी प्रणाली, मैंग्रोव। मेन्स के लिये:चक्रवातों का निर्माण, चक्रवात आपदा तैयारी और शमन |
स्रोत: डाउन टू अर्थ
चर्चा में क्यों?
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार, चक्रवात दाना के एक गंभीर चक्रवात (वायु की गति 89 से 117 किमी प्रति घंटा) के रूप में भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान और धामरा बंदरगाह के पास ओडिशा तट पर पहुँचने की आशंका है।
चक्रवात दाना के बारे में मुख्य तथ्य क्या हैं?
- परिचय:
- उद्भव: यह उत्तरी हिंद महासागर क्षेत्र में बनने वाला तीसरा चक्रवात है और वर्ष 2024 में भारतीय तट पर चक्रवात रेमल के बाद आने वाला दूसरा चक्रवात है।
- यह मानसून के बाद के चक्रवाती मौसम का पहला चक्रवात है।
- दाना का नामकरण: विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) का कहना है कि चक्रवात दाना का नाम कतर ने रखा था। अरबी में "दाना" का अर्थ है 'उदारता' और इसका आशय'सबसे सही आकार का, मूल्यवान और सुंदर मोती' भी है।
- उद्भव: यह उत्तरी हिंद महासागर क्षेत्र में बनने वाला तीसरा चक्रवात है और वर्ष 2024 में भारतीय तट पर चक्रवात रेमल के बाद आने वाला दूसरा चक्रवात है।
- तीव्र वर्षा के कारण:
- तीव्र संवहन: इस चक्रवात से पश्चिमी क्षेत्र में तीव्र संवहन देखा जा रहा है, जो वायुमंडल की ऊपरी परतों तक विस्तारित है।
- तीव्र संवहन तब शुरू होता है जब गर्म, आर्द्र वायु ऊपर उठती है, ठंडी होती है तथा प्रसारित होती है, जिससे आर्द्रता जल की बूँदों में संघनित हो जाती है और बादल बनते हैं।
- जैसे-जैसे ऊपर उठती वायु ठंडी और संघनित होती जाती है, इससे क्यूम्यलोनिम्बस बादल बनता है, जो गरज के साथ होने वाले तूफानों के लिये विशिष्ट है और इससे भारी वर्षा के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ मिलती हैं।
- गर्म, आर्द्र वायु: चक्रवात के केंद्र में गर्म, आर्द्र वायु का प्रवाह होता है, जिससे संवहन और बढ़ने से अधिक तीव्र वर्षा होती है।
- गर्म, आर्द्र वायु का प्रवाह चक्रवात को बनाए रखने और तीव्र करने में मदद करता है तथा इससे चक्रवात मज़बूत होता है, जिसके परिणामस्वरूप अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र में तीव्र वर्षा होती है।
- मैडेन जूलियन ऑसिलेशन (MJO) प्रभाव: MJO संवहन के लिये अनुकूल होने से भारी वर्षा होती है।
- MJO के दो भाग हैं: अधिक वर्षा वाला चरण और कम वर्षा वाला चरण।
- अधिक वर्षा वाले चरण के दौरान, सतही वायु अभिसरित होने से वायु ऊपर उठती है और अधिक वर्षा होती है। कम वर्षा वाले चरण में वायु वायुमंडल के शीर्ष पर अभिसरित होती है, जिससे नीचे की ओर वायु के अवतलन से कम वर्षा होती है।
- इस द्विध्रुवीय संरचना की उष्ण कटिबंध में पश्चिम से पूर्व की ओर गति होती है, जिससे अधिक वर्षा वाले चरण में अधिक बादल और वर्षा होती है तथा कम वर्षा वाले चरण में अधिक धूप और सूखा देखने को मिलता है।
- MJO के दो भाग हैं: अधिक वर्षा वाला चरण और कम वर्षा वाला चरण।
चक्रवातों के नामकरण के बारे में मुख्य बातें क्या हैं?
- ऐतिहासिक विकास: 1800 के दशक के अंत में कैरेबियन में रोमन कैथोलिक कैलेंडर के संतों के नाम पर तूफानों का नाम रखने की प्रथा शुरू हुई।
- द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तूफानों पर अधिक ध्यान आकर्षित करने के क्रम में महिला सूचक नामों का उपयोग आम हो गया।
- लिंग पूर्वाग्रह की आलोचना के बाद नामकरण प्रणाली को वर्ष 1979 में अद्यतन किया गया, जिसमें पुरुष और महिला दोनों पर ही आधारित नामों को शामिल किया गया, दोनों के बीच बारी-बारी से बदलाव किया गया।
- नामकरण प्रणाली की शुरुआत: उत्तरी हिंद महासागर क्षेत्र में चक्रवातों के नामकरण की प्रथा वर्ष 2000 में विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO), जो संयुक्त राष्ट्र की एक विशेष एजेंसी है, द्वारा शुरू की गई थी।
- सहयोगात्मक नामकरण सूची: उत्तरी हिंद महासागर में उष्णकटिबंधीय चक्रवात क्षेत्रीय निकाय (TCRB) द्वारा चक्रवात नामों की एक सहयोगात्मक सूची स्थापित की गई थी।
- उत्तरी हिंद महासागर में TCRB 13 देशों का समूह है अर्थात् बांग्लादेश, भारत, मालदीव, म्यांमार, पाकिस्तान, श्रीलंका, ओमान, थाईलैंड, ईरान, कतर, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और यमन।
- सुझाव प्रस्तुत करने की प्रक्रिया: 13 सदस्य देशों में से प्रत्येक को WMO पैनल को नामों के लिये 13 सुझाव देने होते हैं, जो नाम की समीक्षा करता है और उसे अंतिम रूप देता है।
- वैश्विक मानकीकरण: चक्रवातों का नामकरण मीडिया और आम जनता दोनों के लिये उनकी पहचान को आसान बनाता है, जिससे उन्हें चक्रवात की प्रगति और संभावित खतरों का पता लगाने में मदद मिलती है।
- नामों का चक्रण और उन्हें हटाना: चक्रवात सूची में नामों को समय-समय पर बदला जाता है, जिससे समय के साथ नए सिरे से चयन सुनिश्चित होता है।
- नकारात्मक संबद्धता से बचने के लिये हटाए हुए नामों को (विशेष रूप से घातक या विनाशकारी तूफानों से जुड़े नामों को) नए सुझावों से प्रतिस्थापित किया जाता है।
उष्णकटिबंधीय चक्रवातों के निर्माण के लिये कौन से कारक ज़िम्मेदार हैं?
- गर्म समुद्री जल: उष्णकटिबंधीय चक्रवात के विकास के लिये कम से कम 27 डिग्री सेल्सियस का समुद्री सतही तापमान आवश्यक है। गर्म जल तूफान की तीव्र वायु और संवहन प्रक्रिया को बढ़ावा देने के लिये आवश्यक गर्मी और आर्द्रता प्रदान करता है।
- कोरिओलिस बल: पृथ्वी के घूर्णन के कारण उत्पन्न कोरिओलिस प्रभाव, चक्रवात को गति देने के लिये आवश्यक है। भूमध्य रेखा के पास यह बल कमज़ोर होता है, इसलिये उष्णकटिबंधीय चक्रवात आमतौर पर भूमध्य रेखा के कम से कम 5° उत्तर या दक्षिण में बनते हैं।
- लो विंड शियर: ऊर्ध्वाधर विंड शियर (विभिन्न ऊँचाइयों पर वायु की गति और दिशा में अंतर) महत्त्वपूर्ण है। उच्च विंड शियर से तूफान की ऊर्ध्वाधर संरचना बाधित हो सकती है, जिससे इसे मज़बूत होने से रोका जा सकता है।
- पूर्व-मौजूदा विक्षोभ: उष्णकटिबंधीय विक्षोभ (जैसे कि निम्न दाब प्रणाली) से वायु परिसंचरण के आसपास एक चक्रवात बन सकता है।
- वायु का अभिसरण: सतह पर गर्म, आर्द्र वायु के अभिसरण (जो ऊपर उठती और ठंडी होती है) से बादल और तूफान बनते हैं।
चक्रवात के क्या प्रभाव हैं?
- मानवीय प्रभाव: चक्रवातों के कारण तेज़ हवाएँ, तूफानी लहरें और बाढ़ के कारण बड़े पैमाने पर जनहानि हो सकती है। हज़ारों लोगों को बेघर होना पड़ सकता है या वे विस्थापित हो सकते हैं, जिससे घरों का अस्थायी या स्थायी नुकसान हो सकता है।
- बुनियादी ढाँचे की हानि: तेज हवाओं के कारण बिजली आपूर्ति बाधित हो सकती है और संरचनात्मक क्षति हो सकती है, जबकि बाढ़ के कारण परिवहन और संचार बाधित हो सकता है।
- पर्यावरणीय प्रभाव: तेज़ हवाएँ और तूफानी लहरें तटीय क्षेत्रों को नष्ट कर देती हैं, जिससे प्राकृतिक आवास और तट के किनारे स्थित संरचनाएँ नष्ट हो जाती हैं।
- चक्रवात वनों, आर्द्रभूमि और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को दीर्घकालिक क्षति पहुँचा सकते हैं, जिससे जैवविविधता प्रभावित होती है।
- कृषि हानि: निचले कृषि क्षेत्र समुद्री जल के प्रवेश और भारी वर्षा से जलभराव के प्रति संवेदनशील होते हैं, जिससे फसलें नष्ट हो सकती हैं और कृषि उत्पादकता कम हो सकती है।
- लंबे समय तक वर्षा होने से खेतों में जल जमा हो सकता है, जिससे मृदा स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ सकता है और फसलों को नुकसान पहुँच सकता है।
चार-चरणीय चक्रवात चेतावनी प्रणाली
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चक्रवात आपदा की प्रभावी तैयारी और न्यूनीकरण के लिये क्या उपाय आवश्यक हैं?
- चक्रवात पूर्व:
- भूमि उपयोग नियोजन: संवेदनशील क्षेत्रों में आवास को प्रतिबंधित करने के लिये भूमि उपयोग और भवन संहिताओं को लागू करना चाहिये।
- चक्रवात पूर्व चेतावनी प्रणाली: स्थानीय आबादी और भूमि उपयोग पैटर्न पर ध्यान केंद्रित करते हुए जोखिमों और तैयारी कार्यों के बारे में जानकारी देने के लिये नई प्रभाव-आधारित चक्रवात चेतावनी प्रणाली जारी करनी चाहिये।
- इंजीनियर्ड संरचनाएँ: चक्रवाती हवाओं का सामना करने के लिये डिज़ाइन की गई संरचनाओं का निर्माण करना चाहिये, जिसमें अस्पताल और संचार टावर जैसी सार्वजनिक अवसंरचनाएँ शामिल हैं।
- मैंग्रोव वृक्षारोपण: तटीय क्षेत्रों को तूफानी लहरों और कटाव से बचाने के लिये मैंग्रोव वृक्षारोपण पहल को बढ़ावा देने के साथ इन परियोजनाओं में सामुदायिक भागीदारी को शामिल करना चाहिये।
- चक्रवात के दौरान:
- चक्रवात आश्रय स्थल: उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में चक्रवात आश्रय स्थल स्थापित करना चाहिये तथा सुनिश्चित करना चाहिये कि आपातकालीन स्थितियों के दौरान त्वरित निकासी और पहुँच के लिये आश्रय स्थल प्रमुख सड़कों से जुड़े हों।
- बाढ़ प्रबंधन: जल प्रवाह को नियंत्रित करने तथा तूफानी लहरों और भारी वर्षा से होने वाली बाढ़ को कम करने के लिये समुद्री दीवारें, तटबंध और जल निकासी प्रणालियाँ अपनानी चाहिये।
- चक्रवात के बाद:
- खतरे वाले स्थानों का मानचित्रण: ऐतिहासिक डेटा के आधार पर चक्रवातों की आवृत्ति और तीव्रता को दर्शाने वाले मानचित्र बनाने चाहिये जिसमें तूफानी लहरें और बाढ़ के जोखिम शामिल हों।
- गैर-इंजीनियरिंग संरचनाओं का पुनरोद्धार: गैर-इंजीनियरिंग घरों के लचीलेपन को बढ़ाने के लिये, समुदायों को पुनरोद्धार तकनीकों (जैसे कि खड़ी ढलान वाली छतों का निर्माण और खंभों को स्थिर करने) के बारे में शिक्षित करना चाहिये।
निष्कर्ष
चक्रवात दाना सक्रिय आपदा प्रबंधन उपायों के महत्त्व को रेखांकित करता है, जिसमें प्रभावी पूर्व चेतावनी प्रणाली, भूमि उपयोग नियोजन और सामुदायिक भागीदारी शामिल है। बुनियादी ढाँचे की लचीलापन बढ़ाने, खतरे की मैपिंग को लागू करने तथा मैंग्रोव संरक्षण को बढ़ावा देने से हम कमज़ोर तटीय क्षेत्रों पर चक्रवातों के प्रभावों के लिये बेहतर तरीके से तैयार हो सकते हैं व उन्हें कम कर सकते हैं।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न: चक्रवात के निर्माण और तीव्रता में योगदान देने वाले कारकों पर चर्चा कीजिये, साथ ही प्रभावी आपदा की तैयारी और शमन के लिये आवश्यक उपायों पर भी चर्चा कीजिये। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2020)
उपर्युक्त कथनों में से कौन-सा/से सही है/हैं? (a) केवल 1 उत्तर: (c) प्रश्न: उष्णकटिबंधीय (ट्रॉपिकल) अक्षांशों में दक्षिण अटलांटिक और दक्षिण-पूर्वी प्रशांत क्षेत्रों में चक्रवात उत्पन्न नही होता है। इसका क्या कारण है? (2015) (a) समुद्र पृष्ठों के ताप निम्न होते हैं उत्तर: (b) प्रश्न: वर्ष 2004 की सुनामी ने लोगों को यह महसूस करा दिया कि गरान (मैंग्रोव) तटीय आपदाओं के विरुद्ध विश्वसनीय सुरक्षा बाड़े का कार्य कर सकते हैं। गरान सुरक्षा बाड़े के रूप में किस प्रकार कार्य करते हैं? (2011) (a) गरान अनूप होने से समुद्र और मानव बस्तियों के बीच एक ऐसा बड़ा क्षेत्र खड़ा हो जाता है जहाँ लोग न तो रहते हैं, न जाते हैं। उत्तर: (d) मेन्स:प्रश्न: उष्णकटिबंधीय चक्रवात अधिकाशतः दक्षिण चीन सागर, बंगाल की खाड़ी और मैक्सिको की खाड़ी तक ही परिसीमित रहते हैं। ऐसा क्यों हैं? (2014) प्रश्न: भारत के पूर्वी तट पर हाल ही में आए चक्रवात को ‘फाइलिन’ (Phailin) कहा गया। संसार में उष्णकटिबंधीय चक्रवातों को कैसे नाम दिया जाता है? विस्तार से बताइये। (2013) |
भारतीय समाज
सांप्रदायिक हिंसा
प्रिलिम्स के लिये:सांप्रदायिक हिंसा, भारत में सांप्रदायिक हिंसा की प्रमुख घटनाएँ, सांप्रदायिक हिंसा के प्रमुख कारण, सांप्रदायिक सद्भाव में राज्य की भूमिका। मेन्स के लिये:सांप्रदायिक हिंसा, समाज और अर्थव्यवस्था पर सांप्रदायिक हिंसा के प्रभाव, सांप्रदायिक हिंसा से निपटने हेतु संस्थागत उपाय, अंतर-सामुदायिक समन्वय का महत्त्व। |
स्रोत: द हिंदू
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उत्तर प्रदेश के बहराइच में एक धार्मिक जुलूस के दौरान सांप्रदायिक हिंसा होने से कई लोगों की मौत हो गई तथा कई अन्य घायल हुए। इस स्थिति को देखते हुए यहाँ पुलिस की मौजूदगी को बढ़ाने के साथ कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने हेतु कार्रवाई की गई।
सांप्रदायिक हिंसा क्या है?
- परिचय:
- भारतीय दंड संहिता (IPC) में सांप्रदायिक हिंसा को किसी भी ऐसे कृत्य के रूप में परिभाषित किया गया है जिससे धर्म, जाति, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा मिलता है।
- BNS में सांप्रदायिक हिंसा संबंधी प्रावधान:
- भारतीय न्याय संहिता की धारा 196 का उद्देश्य विभिन्न आधारों पर विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी और घृणा को बढ़ावा देने वाली गतिविधियों को रोकना और दंडित करना है।
- इसके तहत ऐसे कृत्यों (विशेषकर जब ये कृत्य पूजा स्थलों या धार्मिक समारोहों के दौरान होते हैं) के लिये कारावास और जुर्माने का प्रावधान करके सामाजिक सद्भाव बनाए रखने का प्रयास किया गया है।
भारत में सांप्रदायिक हिंसा के क्या कारण हैं?
- राजनीतिक कारक:
- राजनीतिक दल अक्सर चुनावी लाभ प्राप्त करने के क्रम में सांप्रदायिक भावनाओं का उपयोग करते हैं तथा सत्ता बरकरार रखने के लिये सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रणनीति अपनाते हैं।
- अप्रभावी राजनीतिक संस्थाएँ सांप्रदायिक संघर्षों को रोकने या उनका समाधान करने में विफल होने के कारण इस समस्या को और बढ़ावा मिलता है, जिससे अपराधियों में दंड से मुक्ति की संस्कृति विकसित होती है।
- सामाजिक गतिशीलता:
- पूर्वाग्रह और रूढ़िवादिता से अंतर-सामुदायिक समन्वय में बाधा आती है।
- चरमपंथी समूहों के प्रभाव से सांप्रदायिक तनाव को बढ़ावा मिलता है।
- सांप्रदायिक तनाव भड़काने के लिये धार्मिक प्रतीकों का दुरुपयोग किया जाता है।
- आर्थिक कारक:
- सीमित संसाधनों के लिये प्रतिस्पर्द्धा से समुदायों के बीच संघर्ष को बढ़ावा मिलता है।
- हाशिये पर स्थित समूहों को प्रायः भेदभाव का सामना करना पड़ता है।
- सांस्कृतिक संघर्ष:
- भिन्न-भिन्न मूल्य और जीवन-शैलियों से टकराव को बढ़ावा मिलता है। बढ़ती धार्मिक रूढ़िवादिता से सांस्कृतिक बहुलवाद के समक्ष चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं।
- पवित्र स्थल प्रायः सांस्कृतिक विनियोग या अपवित्रता के केंद्र बन जाते हैं।
- शिक्षा और जागरूकता का अभाव:
- व्यापक स्तर पर व्याप्त फेक न्यूज़ से अविश्वास को बढ़ावा मिलता है, जिससे विभिन्न समुदाय हिंसा के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं।
सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने में सरकार की क्या भूमिका है?
- भारत में गृह मंत्रालय (MHA) ने सांप्रदायिक सद्भाव से संबंधित कई पहल की हैं, जिनमें राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भाव फाउंडेशन (NFCH) और राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भाव पुरस्कार शामिल हैं:
- राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भाव फाउंडेशन (NFCH): यह एक स्वायत्त संगठन है, जो सांप्रदायिक सद्भाव एवं राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। NFCH के निम्न कार्य हैं:
- हिंसा के शिकार बच्चों के पुनर्वास हेतु वित्तीय सहायता प्रदान करना
- अंतर-धार्मिक समन्वय को प्रोत्साहित करना
- जागरूकता कार्यक्रमों को बढ़ावा देना
- राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भाव फाउंडेशन (NFCH): यह एक स्वायत्त संगठन है, जो सांप्रदायिक सद्भाव एवं राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने पर केंद्रित है। NFCH के निम्न कार्य हैं:
- राष्ट्रीय सांप्रदायिक सद्भाव पुरस्कार
- सांप्रदायिक सद्भाव और राष्ट्रीय एकता में योगदान देने वाले व्यक्तियों, छात्र संघों और संगठनों को प्रतिवर्ष यह पुरस्कार दिया जाता है।
- इस पुरस्कार की घोषणा प्रतिवर्ष 26 जनवरी को होती है। इस पुरस्कार के निर्णायक मंडल में भारत के उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव, गृह सचिव और केंद्रीय गृह मंत्री द्वारा नामित दो प्रतिष्ठित व्यक्ति शामिल होते हैं।
- सांप्रदायिक सद्भावना संबंधी दिशानिर्देश
- सांप्रदायिक सद्भाव पर गृह मंत्रालय के दिशा-निर्देशों में सूचना के प्रबंधन के साथ प्रशासनिक जिम्मेदारियाँ शामिल हैं।
भारत में सांप्रदायिक हिंसा के प्रभाव क्या हैं?
- मानव जीवन की हानि: सांप्रदायिक हिंसा परिवारों और समुदायों को नष्ट कर देती है और बड़ी संख्या में लोगों की मृत्यु हो सकती है। इस नुकसान के कारण होने वाले दीर्घकालिक प्रभावों से कई पीढ़ियाँ प्रभावित होती हैं।
- संपत्ति का विनाश: हिंसा से घर, व्यवसाय और पूजा स्थल अक्सर नष्ट हो जाते हैं, जिससे आर्थिक नुकसान होता है। इस तरह के विनाश से आजीविका बाधित होती है और सामुदायिक बुनियादी ढाँचे को नुकसान पहुँचता है।
- सामाजिक विघटन: सांप्रदायिक हिंसा से सामाजिक सामंजस्य कमज़ोर होने के साथ समुदायों के बीच विश्वास एवं एकता में कमी आती है। इससे लंबे समय से चले आ रहे रिश्ते तनावपूर्ण होने के साथ टूट सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप समाज में विभाजन बढ़ सकता है।
- आर्थिक बाधाएँ: हिंसा के कारण संसाधनों का दुरुपयोग होता है और निवेश के लिये प्रतिकूल माहौल बनता है। आर्थिक गतिविधियाँ बाधित होती हैं, जिससे संवृद्धि और विकास में बाधा आती है।
- मनोवैज्ञानिक और राजनीतिक प्रभाव: इससे पीड़ितों को मानसिक आघात, चिंता और अवसाद का सामना करना पड़ता है। राजनीतिक रूप से सांप्रदायिक हिंसा से लोकतंत्र एवं विधि का शासन कमज़ोर होने के साथ तानाशाही एवं भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिल सकता है।
नोट:
- सांप्रदायिक हिंसा (निवारण, नियंत्रण और पीड़ितों का पुनर्वास) विधेयक, 2005:
- विधेयक का उद्देश्य सांप्रदायिक हिंसा का निवारण, संघर्षों के दौरान त्वरित कार्रवाई सुनिश्चित करना तथा पीड़ितों का पुनर्वास करना है।
- यह केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को सांप्रदायिक दंगों में हस्तक्षेप करने और उन्हें नियंत्रित करने का अधिकार प्रदान करता है।
- हिंसा को नियंत्रित करने में विफलता या लापरवाही हेतु सार्वजनिक अधिकारियों को जवाबदेह ठहराया जा सकता है।
- मुकदमों में तेज़ी लाने के लिये विशेष न्यायालय स्थापित किये जा सकते हैं।
- पीड़ितों के मुआवज़े और पुनर्वास हेतु कानूनी प्रावधान प्रदान करता है।
सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के क्या समाधान हैं?
- कानूनी ढाँचे को मज़बूत करना: हेट स्पीच और सांप्रदायिक हिंसा से निपटने हेतु कानूनों को मज़बूत करना, अपराधियों के लिये सख्त प्रवर्तन तथा जवाबदेही सुनिश्चित करना।
- राज्य स्तरीय एकीकरण समिति, ज़िला प्रशासन के साथ मिलकर, संभावित सांप्रदायिक तनावों की निगरानी करके तथा समय पर हस्तक्षेप सुनिश्चित करके सांप्रदायिक सद्भाव बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
- अंतर-समुदाय संवाद को बढ़ावा देना: समझ, विश्वास और सहयोग को बढ़ावा देने तथा मिथ्याबोध के निराकरण हेतु विभिन्न समुदायों के बीच संवाद को सुलभ बनाना।
- अंतर्धार्मिक विवाह सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक विभाजन के अंतर को कम करके सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा दे सकते हैं।
- सामुदायिक सहभागिता पहल: जागरूकता कार्यक्रमों और समुदाय-संचालित संघर्ष समाधान रणनीतियों के माध्यम से शांति स्थापित करने के प्रयासों में स्थानीय समुदायों को शामिल करना।
- सक्रिय निगरानी और प्रतिक्रिया: तनावों की निगरानी करने और ज़िला प्रशासन द्वारा समय पर हस्तक्षेप के समन्वय के लिये राज्य स्तरीय एकीकरण समितियों की स्थापना करना।
- जागरूकता कार्यक्रम: स्कूलों और सामुदायिक संगठनों को लक्षित करते हुए धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और सहिष्णुता को बढ़ावा देने के लिये शैक्षिक पहलों को लागू करना।
दृष्टि मेन्स प्रश्न प्रश्न: भारत में सांप्रदायिक हिंसा के कारणों का विश्लेषण कीजिये और इसे संबोधित करने के लिये सरकारी उपायों की प्रभावशीलता का आकलन कीजिये, जिसमें राज्य स्तरीय एकीकरण समितियों और गृह मंत्रालय की भूमिकाएँ शामिल हैं। |

