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गैर सरकारी संगठन: सरकार और सहभागिता

गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) सरकार और जनता के बीच एक कड़ी है जिसमें दोनों की सहभागिता के बड़े मायने है। आधुनिक NGO के स्वरूप में आने से पहले भी साम्राज्यों में जत्थे या संगठन जनता की मदद के लिए आगे रहते थे। कई न्यायप्रिय राजा भी इस अवधारणा में यकीन रखते थे कि प्रजा और उनके बीच कामकाज का रिश्ता बेहतर बनाने के लिए कोई कड़ी हो जिससे उनका राज मज़बूत हो। फिर भी यह कोई प्रचलित सोच नहीं थी। बाद के वर्षों में लोकतंत्र की स्थापना के बाद गैर सरकारी संगठनों की अवधारणा प्रचलन में आई और ये वाकई जनता को लोकतंत्र में सहभागी बनाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे। हाशिये पर रहे समुदाय और महिलाओं के लिए गठित एनजीओ परिवर्तनकारी साबित हुए लेकिन अब भी बहुत काम बाकी है। दुनिया में पहली बार पुख्ता तरीके से उन्नीसवीं सदी के मध्य में गैर सरकारी संगठन की सोच को आकार मिला। यह रेड क्रॉस का गठन था। साल 1863 में रेड क्रॉस अंतर्राष्ट्रीय समिति अस्तित्व में आई जो मानवीय मदद और युद्ध के नियमों पर अपना पूरा ज़ोर देती थी। दूसरे विश्व युद्ध के बाद औपचारिक तौर पर पहली बार 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के संविधान में आर्टिकल 71के तहत गैर सरकारी संगठनों की ज़रुरत को महत्वपूर्ण जगह मिली। इस आर्टिकल ने संघ को इस बात की अनुमति दी कि वह दुनिया भर में मौजूद गैर सरकारी संगठनों के माधयम से अपने काम का नेटवर्क बनाए। धीरे-धीरे बेहतर आंकड़े जुटाकर ज़रूरी मदद पहुँचाने का नेटवर्क बनता गया। अंतर्राष्ट्रीय विकास और नीति निर्धारण में एनजीओ महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे। सरकारों को इससे अलग रखने की वजह भी थी। अधिकतर सरकारें अपनी लोकप्रियता खोने के डर से सही जानकारी देने में पीछे हट जाती थीं और आज भी यही रवैया है।

भारत में एनजीओ

भारत में 1970 से 80 के बीच गैर सरकारी संगठनों की संख्या में खासी बढ़ोतरी हुई। शिक्षा,स्वास्थ्य,पर्यावरण,कानूनी सलाह और सामाजिक समस्याओं और मुद्दों पर इनका असर भी नज़र आया। यहां तक की कई एनजीओ ने सरकार को जनहित में बेहतर निर्णय के लिए बाध्य भी किया और कई बार संगठनों की सरकार से ठन भी गई। नतीजतन इन पर नियंत्रण के प्रयास भी हुए। सरकार समय-समय पर इन्हें नियंत्रण में रखने के लिए कानून बनाती रही। फिर भी देश में कई मोर्चों पर ये सफल हैं और भारत जैसे विकासशील देश में इनकी भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। भारत में लगभग 33 लाख गैर-सरकारी संगठन हैं जो वंचित समुदायों के लिये आपदा राहत से लेकर उनकी ज़िन्दगी आसान बनाने के लिए काम कर रहे हैं। बेशक कुछ हैं जो इस आड़ में खानापूर्ति भी करते हैं।

लिखी गई बदलाव की कहानी

नागरिक समाज की पहल ने देश में कानूनों के बदलाव में योगदान दिया है जिसमें पर्यावरण संरक्षण अधिनियम (1986), शिक्षा का अधिकार अधिनियम (2009), वन अधिकार अधिनियम (2006) और सूचना का अधिकार अधिनियम (2005) शामिल हैं। सूचना के अधिकार की बुनियाद तो राजस्थान के एक गांव से पड़ी थी जहां एक एनजीओ मजदूर किसान शक्ति संगठन सक्रिय था। अरुणा राय इस संगठन की मुखिया थीं। इसके बाद तो सरकार के कामकाज की पारदर्शिता ने क्रांति ही ला दी क्योंकि हर नागरिक को यह जानने का हक़ है कि उसके काम में सरकार को कितना वक्त लग रहा है और योजनाएं कब पूरी होंगी। आज इलेक्टोरल बॉन्ड्स जिसमें राजनीतिक दलों को चंदा देने की पोल-पट्टी उजागर हुई है ,सर्वोच्च न्यायालय में इसकी याचिका लगाने वाली भी संस्था भी एक एनजीओ ही है। कॉमन कॉज नामक इस संस्था की वजह से ही स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को चंदा देने वालों के नाम और सूची थमानी पड़ी। बेशक,भारत जैसे विकासशील देश में इनकी भूमिका और ज़िम्मेदारियाँ बहुत अधिक हैं जिन्हें इस तरह समझा जा सकता है

अंतर को भरना: गैर सरकारी संगठन सरकार के कार्यक्रमों में खामियों को दूर करने में बड़ी भूमिका अदा करते हैं और उन लोगों तक पहुंचते हैं जो अक्सर राज्य की परियोजनाओं से छूट जाते हैं। मसलन जयपुर में जब नई विधानसभा बनी थी तब बरसों तक वहां काम चला था। सैकड़ों कार्यरत मज़दूरों के बच्चों के लिए वहां अस्थाई स्कूल और झूलाघर बनाए गए। ऐसा एक एनजीओ के प्रयास से ही हो सका था। COVID-19 संकट में प्रवासी श्रमिकों को सहायता प्रदान करना कहां सरकार के बस में था। अचानक लगे लॉक डाउन ने लाखों मज़दूरों को सड़क पर चलने के लिए मजबूर कर दिया था। इसके अलावा वे मानव और श्रम अधिकारों, लैंगिक मुद्दों, स्वास्थ्य देखभाल, पर्यावरण, शिक्षा, कानूनी सहायता और यहाँ तक कि अनुसंधान से संबंधित विविध गतिविधियों में भी शामिल हैं।

अधिकार संबंधी भूमिका: समाज में कोई भी बदलाव लाने के लिये सामुदायिक-स्तर के संगठन और स्वयं सहायता समूह महत्वपूर्ण हैं। अतीत में ऐसे ज़मीनी स्तर के संगठनों को बड़ी NGO और अनुसंधान एजेंसियों के साथ जोड़कर सक्षम किया गया है जिनकी बड़ी विदेशी फंडिंग तक पहुंच है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम , वन अधिकार अधिनियम, ऐसे ही प्रयासों के परिणाम हैं।

दबाव समूह के रूप में कार्य करना: ऐसे राजनीतिक गैर सरकारी संगठन हैं जो सरकार की नीतियों और कार्यों के विरुद्ध जनता की राय जुटाते हैं।इस तरह के NGO जनता को शिक्षित करने और सार्वजनिक नीति पर दबाव बनाने में सक्षम हैं, वे लोकतंत्र में महत्त्वपूर्ण दबाव समूहों के रूप में कार्य करते हैं। वे ज़मीनी स्तर के सरकारी अधिकारियों के प्रदर्शन पर जवाबदेही के लिये सामुदायिक प्रणाली लागू करते हैं। वे गुणवत्ता सेवा की मांग के लिये गरीबों को संगठित और जागरूक करते हैं।नर्मदा बचाओ आंदोलन एक ऐसा आंदोलन था जो नदी पर बनने वाले सरदार सरोवर बांध की ऊँचाई कम कराना चाहता था ताकि ग्रामीण रहवासियों की ज़मीन और घर बचाए जा सके। तमाम प्रयासों के बावजूद बांध बना, गांव वालों के घर भी डूब में आए। हरसूद नाम का एक पूरा शहर डुबो दिया गया।बेशक दबाव समूह को बेहतर कार्य योजना की आवश्यकता हमेशा रहती है, तभी विकास भी सभी को साथ लेके चल सकता है।

अब नहीं कहा जाता डायन

सामाजिक मध्यस्थ के रूप में: समाज में परिवर्तन के अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने के लिये समाज के भीतर प्रवेश ज़रूरी है और यह विश्वास हासिल करके ही किया जा सकता है।भारतीय संदर्भ में जहां लोग अभी भी अंधविश्वास, कुरीतियों के दलदल में फंसे हुए हैं, वहाँ NGO उत्प्रेरक के रूप में कार्य करते हैं और लोगों में जागरूकता पैदा करते हैं। एनजीओ के प्रयासों का ही परिणाम रहा कि महिला सशक्तिकरण के लिहाज़ से राजस्थान बड़े परिवर्तन का साक्षी बना। यहाँ के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी स्त्री को डायन कहकर प्रताड़ित किया जाता है। अकेली, विधवा या अपने दम पर जीने वाली महिला को डायन कह कर समाज में तिरस्कृत करने के कई उदाहरण मौजूद हैं । यहां तक कि उन्हें गांव छोड़ने के लिए भी मजबूर किया जाता है। आज एक एनजीओ की लम्बी लड़ाई के बाद प्रदेश में डायन कहना अपराध की श्रेणी में आता है। बेहतर काम के बावजूद क्या वजह है कि एनजीओ की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा हो रहा है ?

विश्वसनीयता में कमी: चंद घटनाओं से गैर सरकारी संगठनों की विश्वसनीयता की साख में कमी आई लेकिन इसके लिए सबको कठघरे में नहीं खड़ा किया जा सकता। देश और समाज को इनकी ज़रूरत हमेशा रहेगी। पिछले कुछ वर्षों के दौरान कई संगठनों ने मुहिम शुरू की है जो गरीबों की मदद करने के लिये काम करने का दावा करते हैं। उनमें से कुछ

NGO दानदाताओं से पैसे लेते हैं और मनी लॉन्ड्रिंग गतिविधियों में भी शामिल हो सकते हैं। वैसे भारत में गैर सरकारी संगठन आयकर से मुक्त हैं। भारत में हर 400 लोगों के लिये लगभग एक NGO है। सभी गैर-सरकारी संगठन महत्वपूर्ण सामाजिक कल्याण कार्यों में ही संलग्न है ऐसा नहीं कहा जा सकता।

पारदर्शिता की कमी: भारत के गैर-सरकारी संगठनों की संख्या और इस क्षेत्र में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी भी एक मुद्दा है जिसमें सुधार की आवश्यकता है। इसके अलावा गैर-सरकारी संगठनों के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप भी हैं। कुछ गैर-सरकारी संगठनों को धन की हेराफेरी में लिप्त पाए जाने के बाद ब्लैकलिस्ट किया गया था। यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सरकार उन गैर-सरकारी संगठनों को हमेशा निशाना बनाना चाहती है जो सरकार के एजेंडे के हिसाब से माकूल नहीं होते हैं।

कठोर रवैया: देखा गया है कि संगठन सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ जनता को जागरूक करते हैं,सवाल उठाते है,उनके ख़िलाफ़ सरकार बदले की भावना से भी काम करती है मानवाधिकारों के लिए 150 देशों में सक्रिय एमनेस्टी इंटरनेशनल से भारत सरकार कि ऐसी ही खींचतान देखी गई। यहाँ बेंगलुरु और दिल्ली में इनके कार्यालयों पर छापे डाले गए।

भारत के इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक रिपोर्ट ने ग्रीनपीस, कॉर्डैड, एमनेस्टी, और एक्शन एड जैसे एनजीओ पर भारत के सकल घरेलू उत्पाद को 2-3% प्रतिवर्ष कम करने का आरोप लगाया।

बदला गया कानून

साल 2020 में संसद ने विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम (फॉरेन करेंसी रेगुलेशन एक्ट, FCRA,2010 में कुछ संशोधन प्रस्तावित किये । सरकार के अनुसार इन संशोधनों का उद्देश्य गैर-सरकारी संगठनों यानी NGO के कामकाज में पारदर्शिता लाना है लेकिन इन नए नियमों ने गैर-सरकारी संगठनों, शैक्षिक और अनुसंधान संस्थानों के लिये प्रतिकूल हालात पैदा कर दिए हैं, खासकर जिनके पास विदेशी संस्थाओं के साथ वित्तीय भागीदारी है। ऐसे में भारत के विकास में गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका को देखते हुए गैर-सरकारी संगठनों की स्वायत्तता और गैर-कानूनी गतिविधियों में लिप्त गैर-सरकारी संगठनों की जाँच करने के लिये सरकार की अनिवार्यता के बीच संतुलन बनाने की बेहद आवश्यकता है। ऐसा नहीं होना चाहिए की एक बड़ी आबादी बंद गलियारों में धकेल दी जाए। सरकार को अगर शक है तो नई संस्थाओं को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

कानून में संशोधन के प्रमुख बिंदु

-अब कुल विदेशी चंदे में से 20% से अधिक को गैर-सरकारी संगठनों द्वारा प्रशासनिक व्यय नहीं करने का प्रावधान किया गया है।

-नए संशोधन के अंतर्गत NGO का विदेशी अनुदान के संबंध में दिल्ली शाखा में भारतीय स्टेट बैंक में खाता होना आवश्यक है।

-यह विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम के अंतर्गत प्राप्त अनुदानों को किसी अन्य संगठन को हस्तांतरित करने पर भी प्रतिबंध लगाता है।

-यह गृह मंत्रालय को व्यापक अधिकार देता है कि वह एक गैर सरकारी संगठन के FCRA प्रमाण पत्र को रद्द कर सकता है ।

'ग्लोबल विलेज' और एनजीओ

गैर-सरकारी संगठनों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि वे न केवल अपने काम बल्कि अपनी वित्तीय स्थिति में भी उच्च स्तर की पारदर्शिता हासिल करें और उसे बनाए रखें। गैर सरकारी संगठनों को अपनी आय और व्यय को सार्वजनिक जांच के लिये खुला रखने की आवश्यकता है। वैसे किसी NGO की विश्वसनीयता का निर्धारण धन के स्रोत, देशी या विदेशी के पैमाना के पर नहीं किया जा सकता है। साथ ही सरकार को यह महसूस करना चाहिये कि राष्ट्रीय सीमाओं के पार विचारों और संसाधनों का सहज आदान-प्रदान वैश्विक समुदाय के कामकाज के लिये बेहद आवश्यक है और इसे तब तक हतोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि यह मानने का कारण न हो कि धन का उपयोग अवैध गतिविधियों में सहायता के लिये किया जा रहा है।आज दुनिया एक 'ग्लोबल विलेज' की भांति व्यवहार कर रही है। पूरी दुनिया के लोग एक होकर इस दुनिया से युद्ध और पर्यावरण के बढ़ते खतरे से बचा सकते हैं और गैर सरकारी संगठन ही इसमें बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। वह स्वीडिश किशोरी ग्रेटा थनबर्ग ही थी जिसने दुनिया के बड़े नेताओं को जलवायु परिवर्तन के खतरे पर काम करने के लिए मजबूर कर दिया था।

  वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा  

(लेखिका वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा ढाई दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में सक्रिय हैं। ये दैनिक भास्कर, नई दुनिया, पत्रिका टीवी, राजस्थान पत्रिका, जयपुर में डिप्टी न्यूज़ एडिटर पद पर काम कर चुकी हैं। इन्हें संवेदनशील पत्रकारिता के लिए दिए जाने वाले लाडली मीडिया अवार्ड के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है।)

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