प्रारंभिक परीक्षा
PAC द्वारा नियामक निकायों के प्रदर्शन की समीक्षा
स्रोत: TH
चर्चा में क्यों?
हाल ही में लोक लेखा समिति (PAC) ने भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI) और भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (TRAI) जैसी नियामक संस्थाओं के प्रदर्शन की समीक्षा करने के लिये स्वतः पहल की है।
PAC ने नियामक निकायों की समीक्षा क्यों शुरू की है?
- समीक्षा का उद्देश्य सार्वजनिक निधि के प्रभावी उपयोग को बढ़ाना तथा सरकारी निगरानी में सुधार करना है।
- यह निर्णय SEBI प्रमुख के खिलाफ हितों के टकराव के आरोपों को लेकर उठे राजनीतिक विवाद के बीच लिया गया।
- पैनल ने स्वप्रेरणा से जाँच के लिये 5 विषयों का चयन किया है, जिनमें "संसद के अधिनियम द्वारा स्थापित नियामक निकायों की कार्य निष्पादन समीक्षा" और "सार्वजनिक अवसंरचना एवं अन्य सार्वजनिक उपयोगिताओं पर शुल्क, टैरिफ, उपयोगकर्त्ता प्रभार आदि का अधिरोपण और विनियमन" शामिल हैं।
लोक लेखा समिति (PAC) क्या है?
- परिचय:
- PAC भारत सरकार के राजस्व और व्यय की लेखापरीक्षा के उद्देश्य से भारत की संसद द्वारा गठित चयनित संसद सदस्यों की एक समिति है।
- संसदीय समितियों को संविधान के अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 118 के तहत अधिकार प्राप्त हैं। PAC तीन वित्तीय संसदीय समितियों में से एक है, अन्य दो प्राक्कलन समिति तथा सार्वजनिक उपक्रम समिति हैं।
- CAG समिति का कोई भी सदस्य सरकारी मंत्री के रूप में किसी भी पद पर बना नहीं रह सकता।
- पृष्ठभूमि:
- PAC की शुरुआत 1921 में हुई थी, जिसका उल्लेख भारत सरकार अधिनियम, 1919 में पहली बार किया गया था, जिसे मोंटेगू-चेम्सफोर्ड सुधार भी कहा जाता है।
- इसका गठन प्रत्येक वर्ष लोकसभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन नियमों के नियम 308 के अंतर्गत किया जाता है।
- PAC की शुरुआत 1921 में हुई थी, जिसका उल्लेख भारत सरकार अधिनियम, 1919 में पहली बार किया गया था, जिसे मोंटेगू-चेम्सफोर्ड सुधार भी कहा जाता है।
- संरचना: वर्तमान में इसमें 22 सदस्य होते हैं (लोकसभा अध्यक्ष द्वारा निर्वाचित 15 सदस्य और राज्यसभा के सभापति द्वारा निर्वाचित 7 सदस्य) जिनका कार्यकाल केवल 1 वर्ष होता है।
- समिति के अध्यक्ष की नियुक्ति लोकसभा अध्यक्ष द्वारा की जाती है।
- शक्तियाँ और कार्य:
- व्यय के लिये सदन द्वारा दी गई निधियों के विनियोजन और सरकार के वार्षिक वित्त लेखों की जाँच करना।
- सदन में प्रस्तुत अन्य लेखों की समीक्षा करना, जिन्हें समिति उचित समझे, सिवाय उन लेखों के जो सार्वजनिक उपक्रमों से संबंधित हों तथा जिन्हें सार्वजनिक उपक्रमों संबंधी समिति को सौंपा गया हो।
- समिति राजस्व प्राप्तियों, विभिन्न मंत्रालयों/विभागों द्वारा सरकारी व्यय तथा स्वायत्त निकायों के खातों पर विभिन्न CAG लेखापरीक्षा रिपोर्टों की समीक्षा करती है।
- जाँच के दौरान CAG समिति की सहायता करता है।
- अनुशंसाएँ:
- PAC की सिफारिशें सलाहकारी हैं और सरकार पर बाध्यकारी नहीं हैं, क्योंकि यह एक कार्यकारी निकाय है, जो आदेश जारी नहीं कर सकता है तथा केवल संसद ही समिति के निष्कर्षों पर अंतिम निर्णय ले सकती है।
भारत में नियामक निकाय क्या हैं?
- परिचय:
- ये एजेंसियाँ प्रत्यक्ष कार्यकारी पर्यवेक्षण के साथ या उसके बिना कार्य कर सकती हैं।
- नियामक निकाय स्वतंत्र सरकारी संस्थाएँ हैं, जो विशिष्ट गतिविधि या संचालन के क्षेत्रों में मानक निर्धारित करने और लागू करने के लिये स्थापित की जाती हैं।
- ये एजेंसियाँ प्रत्यक्ष कार्यकारी पर्यवेक्षण के साथ या उसके बिना कार्य कर सकती हैं।
- कार्य:
- विनियम और दिशानिर्देश बनाना
- गतिविधियों की समीक्षा और मूल्यांकन
- लाइसेंस जारी करना
- निरीक्षण करना
- सुधारात्मक कार्रवाइयों का कार्यान्वयन
- मानकों को लागू करना
- उदाहरण:
- भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI)
- स्थापना: 1992
- मुख्यालय: मुंबई
- भूमिका: प्रतिभूति बाज़ारों को विनियमित करना, निवेशकों की सुरक्षा करना और बाज़ार की अखंडता सुनिश्चित करना।
- संरचना: अध्यक्ष, पूर्णकालिक और अंशकालिक सदस्यों सहित बोर्ड। अपीलों का निपटारा प्रतिभूति अपीलीय न्यायाधिकरण (SAT) द्वारा किया जाता है, जिसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जाती है।
- कार्य: विनियमों का मसौदा तैयार करना, जाँच करना, जुर्माना लगाना, विदेशी उद्यम पूंजी कोष, म्यूचुअल फंड तथा धोखाधड़ी की प्रथाओं को संबोधित करना।
- भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (TRAI)
- स्थापना: 1997
- मुख्यालय: नई दिल्ली
- भूमिका: दूरसंचार सेवाओं को विनियमित करना, टैरिफ संशोधित करना, सेवा की गुणवत्ता सुनिश्चित करना और दूरसंचार नीति पर सरकार को सलाह देना।
- संरचना: अध्यक्ष, दो पूर्णकालिक और दो अंशकालिक सदस्य।
- अपीलीय प्राधिकरण: दूरसंचार विवाद निपटान और अपीलीय न्यायाधिकरण (TDSAT) की स्थापना वर्ष 2000 में की गई थी, जो TRAI के निर्णयों से संबंधित विवादों तथा अपीलों को संभालता है।
- भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (SEBI)
- अन्य नियामक निकाय: भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI), राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (NABARD), भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (SIDBI), भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI), केंद्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन (CDSCO) और भारतीय प्रतिस्पर्द्धा आयोग (CCI)।
और पढ़ें: भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड, भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण निरसन विनियम, 2023
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रश्न. निम्नलिखित में से कौन-सा/से भारत सरकार का/के ‘‘डिजिटल इंडिया’’ योजना का/के उद्देश्य है/हैं? (2018)
नीचे दिये गए कूट का प्रयोग कर सही उत्तर चुनिये: (a) केवल 1 और 2 उत्तर: (b) प्रश्न. पंजीकृत विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों द्वारा उन विदेशी निवेशकों को, जो स्वयं को सीधे पंजीकृत कराए बिना भारतीय स्टॉक बाज़ार का हिस्सा चाहते हैं, निम्नलिखित में से क्या जारी किया जाता है? (2019) (a) जमा प्रमाण-पत्र उत्तर: (d) |
शासन व्यवस्था
लोकपाल की जाँच शाखा
प्रिलिम्स के लिये:लोकपाल, लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम- 2013, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम- 1988, केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC), भ्रष्टाचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UNCAC), केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI), द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC), ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल, लोक लेखा समिति (PAC), प्रवर्तन निदेशालय (ED) मेन्स के लिये:भ्रष्टाचार विरोधी फ्रेमवर्क में लोकपाल की भूमिका और महत्त्व, लोकपाल का सुदृढ़ीकरण। |
स्रोत: द प्रिंट
चर्चा में क्यों?
हाल ही में लोकपाल ने लोक सेवकों द्वारा किये गए भ्रष्टाचार संबंधी अपराधों की प्रारंभिक जाँच करने के लिये एक जाँच शाखा का गठन किया है।
लोकपाल की जाँच शाखा की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?
- कानूनी समर्थन: लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 की धारा 11 लोकपाल को एक जाँच शाखा स्थापित करने का अधिकार प्रदान करती है।
- यह शाखा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम- 1988 के अंतर्गत निर्दिष्ट लोक सेवकों और पदाधिकारियों द्वारा कथित रूप से किये गए अपराधों की प्रारंभिक जाँच करने के लिये उत्तरदायी है।
- संगठनात्मक संरचना: लोकपाल अध्यक्ष के अधीन एक जाँच निदेशक होगा। निदेशक को तीन पुलिस अधीक्षक (SP): SP (सामान्य), SP (आर्थिक और बैंकिंग) तथा SP (साइबर) द्वारा सहायता प्रदान की जाएगी।
- प्रत्येक पुलिस अधीक्षक को जाँच अधिकारी और अन्य कर्मचारियों द्वारा सहायता प्रदान की जाएगी।
- प्रारंभिक जाँच की समयसीमा और रिपोर्टिंग: जाँच शाखा को अपनी प्रारंभिक जाँच को अंतिम रूप देना होगा और 60 दिनों के भीतर लोकपाल को रिपोर्ट प्रस्तुत करनी होगी।
- इस रिपोर्ट में लोक सेवक तथा प्रत्येक श्रेणी के लोक सेवक के लिये नामित सक्षम प्राधिकारी दोनों की प्रतिक्रिया शामिल होनी चाहिये।
नोट:
- लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 में लोक सेवकों के अभियोजन के उद्देश्य से ‘अभियोजन निदेशक’ की अध्यक्षता में एक अभियोजन शाखा के गठन का भी प्रावधान है, जिसका गठन अभी तक नहीं किया गया है।
लोकपाल की जाँच शाखा की क्या आवश्यकता है?
- प्रभावी प्रारंभिक जाँच: केंद्रीय केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) लोकपाल की जाँच शाखा जैसे एक स्वतंत्र प्राधिकरण की आवश्यकता पर बल देता है, जो ऐसे आरोपों की प्रारंभिक जाँच करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
- भ्रष्टाचार विरोधी जाँच में स्वतंत्रता: लोकपाल की जाँच शाखा स्वायत्त होने के कारण, केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) द्वारा जाँच किये गए राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलों में पक्षपात के आरोप जैसे मुद्दों को कम करती है।
- जाँच शाखा CVC, CBI और राज्य स्तरीय लोकायुक्त जैसी अन्य एजेंसियों के साथ मिलकर काम करेगी।
- जवाबदेही और सार्वजनिक विश्वास को सुदृढ़ करना: यह द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (ARC) की सिफारिशों के अनुरूप है, जिसने भ्रष्टाचार विरोधी संस्थानों को सुदृढ़ करने और विभिन्न जाँच एवं अभियोजन एजेंसियों के बीच समन्वय बढ़ाने का सुझाव दिया था।
- भ्रष्टाचार पर वैश्विक चिंताओं को दूर करना: ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल जैसे वैश्विक भ्रष्टाचार सूचकांकों ने भ्रष्टाचार से निपटने के लिये सुदृढ़ तथा स्वतंत्र संस्थानों की आवश्यकता पर लगातार प्रकाश डाला है।
- लोकपाल की जाँच शाखा को पारदर्शिता और शासन के लिये भारत की व्यवस्था को बेहतर बनाने और सुधार की अंतर्राष्ट्रीय मांगों की पूर्ति के रूप में देखा जा रहा है।
- वर्तमान भ्रष्टाचार विरोधी ढाँचे में अंतराल को भरना: भ्रष्टाचार पर लोक लेखा समिति (PAC) की वर्ष 2011 की रिपोर्ट में भारत में मौजूदा भ्रष्टाचार विरोधी ढाँचे की सीमाओं पर प्रकाश डाला गया।
- लोकपाल की जाँच शाखा, प्रशासनिक और राजनीतिक प्रभाव से परे जाँच के लिये एक विशेष तंत्र प्रदान करके इन अंतरालों को कम करती है।
लोकपाल के संदर्भ में मुख्य तथ्य क्या हैं?
- संस्थान के संदर्भ में: यह स्वतंत्र भारत में अपनी तरह का पहला संस्थान है, जो लोक सेवकों के बीच व्याप्त भ्रष्टाचार से निपटने के लिये बनाया गया है।
- इसकी स्थापना लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 के तहत इसके दायरे में आने वाले लोक सेवकों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच करने के लिये की गई थी।
- लोकपाल की संरचना: लोकपाल में एक अध्यक्ष और आठ सदस्य होते हैं, जिनमें कम-से-कम 50% न्यायिक सदस्य होते हैं।
- अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और वे पाँच वर्ष की अवधि या 70 वर्ष की आयु तक (जो भी पहले हो) पद पर बने रहते हैं।
- अध्यक्ष का वेतन और भत्ते भारत के मुख्य न्यायाधीश के समतुल्य हैं, जबकि सदस्यों को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के समान लाभ प्राप्त होते हैं।
- संगठनात्मक संरचना: लोकपाल दो मुख्य शाखाओं के माध्यम से कार्य करता है: प्रशासनिक शाखा और न्यायिक शाखा।
- प्रशासनिक शाखा का नेतृत्व भारत सरकार के सचिव स्तर के अधिकारी द्वारा किया जाता है।
- न्यायिक शाखा का नेतृत्व उचित स्तर के न्यायिक अधिकारी द्वारा किया जाता है।
- अधिकार क्षेत्र: लोकपाल के पास प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्रियों, संसद सदस्यों और केंद्र सरकार के समूह A, B, C तथा D के अधिकारियों सहित लोक सेवकों की एक विस्तृत शृंखला के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच करने का अधिकार है।
- इसमें संसद के अधिनियम द्वारा स्थापित या संघ या राज्य सरकार द्वारा वित्तपोषित किसी भी बोर्ड, निगम, सोसायटी, ट्रस्ट या स्वायत्त निकाय के अध्यक्ष, सदस्य, अधिकारी एवं निदेशक भी शामिल हैं।
- लोकपाल की कार्यवाही: शिकायत प्राप्त होने पर लोकपाल अपनी जाँच शाखा द्वारा प्रारंभिक जाँच का आदेश दे सकता है या मामले को केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) या केंद्रीय सतर्कता आयोग (CVC) जैसी एजेंसियों को भेज सकता है।
- CVC समूह A और B के अधिकारियों के लिये लोकपाल को रिपोर्ट भेजता है, जबकि समूह C और D के लिये केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम, 2003 के तहत कार्रवाई करता है।
- लोकपाल का कार्य: वे एक ‘लोकपाल’ का कार्य करते हैं और कुछ लोक सेवकों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के आरोपों एवं संबंधित मामलों की जाँच करते हैं।
- लोकपाल एक अधिकारी होता है, जो व्यवसायों, सार्वजनिक संस्थाओं या अधिकारियों के विरुद्ध शिकायतों (आमतौर पर निजी नागरिकों द्वारा दर्ज कराई गई) की जाँच करता है।
लोकपाल की कार्यप्रणाली में क्या चुनौतियाँ हैं?
- सहायक अवसंरचना की स्थापना में विलंब: लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 में लोकपाल के लिये अलग-अलग जाँच और अभियोजन शाखा का प्रावधान है। एक दशक बाद जाँच शाखा की स्थापना की गई है, जबकि अभियोजन शाखा का गठन अभी तक नहीं हुआ है।
- अपवर्जन खंड: लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 की धारा 14 के प्रावधानों के अनुसार, राज्य सरकार के कर्मचारी तब तक इसके दायरे में नहीं आते जब तक कि उन्होंने संघ के मामलों के संबंध में कार्य नहीं किया हो।
- CBI पर शक्तियों में स्पष्टता का अभाव: हालाँकि लोकपाल के पास CBI द्वारा भेजे गए मामलों के लिये उस पर अधीक्षण का अधिकार है, लेकिन इस शक्ति की वास्तविक सीमा के विषय में अस्पष्टताएँ बनी हुई हैं, विशेष रूप से उच्च-स्तरीय सार्वजनिक अधिकारियों से जुड़ी जाँच के संबंध में।
- कर्मचारियों की कमी: लोकपाल वर्तमान में प्रमुख पदों पर रिक्तियों के साथ कार्य कर रहा है। वर्ष 2024 तक, दो सदस्य पद रिक्त रहे हैं - एक न्यायिक और एक गैर-न्यायिक। यह कमी इसके कार्यों को प्रभावी ढंग से पूरा करने की क्षमता को बाधित करती है।
- बाह्य एजेंसियों पर निर्भरता: लोकपाल जाँच के लिये मुख्यतः CBI या पुलिस जैसी बाह्य एजेंसियों पर निर्भर रहता है, जिससे इसकी स्वतंत्रता प्रभावित होती है।
- कोई व्यापक निरीक्षण तंत्र नहीं: यद्यपि लोकपाल को उच्च स्तरीय भ्रष्टाचार की जाँच करने का अधिकार है, परंतु लोकपाल की कार्यप्रणाली की निगरानी हेतु कोई समर्पित निरीक्षण तंत्र नहीं है।
आगे की राह
- सहायक शाखाओं के गठन में तेज़ी लाना: सरकार को जाँच निदेशक और अभियोजन निदेशक के पदों सहित रिक्तियों की शीघ्रता से भर्ती कर जाँच एवं अभियोजन शाखाओं के पूर्ण गठन को प्राथमिकता देनी चाहिये।
- CBI और अन्य एजेंसियों के साथ स्पष्ट संबंध: CBI पर लोकपाल की पर्यवेक्षी शक्तियों का स्पष्ट चित्रण तथा प्रवर्तन निदेशालय (ED) और CVC के साथ समन्वय तंत्र स्थापित किया जाना चाहिये।
- वैश्विक मानकों से सर्वोत्तम पद्धतियों को अपनाना: भारत को भ्रष्टाचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UNCAC) के अनुरूप सुदृढ़ व्हिसल ब्लोअर संरक्षण तंत्र वाले देशों से सर्वोत्तम पद्धतियों को अपनाना चाहिये ताकि अधिक व्यक्तियों को बिना किसी भय के भ्रष्टाचार की रिपोर्ट करने हेतु प्रोत्साहित किया जा सके।
- समितियों की सिफारिशों को लागू करना: सरकार को लोकपाल की जवाबदेही बढ़ाने, प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने और इसकी परिचालन दक्षता में सुधार करने के लिये द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग जैसी समितियों द्वारा की गई सिफारिशों पर सक्रिय रूप से विचार करना चाहिये तथा उन्हें लागू करना चाहिये।
दृष्टि मेन्स प्रश्न: प्रश्न. लोकपाल एवं लोकायुक्त अधिनियम, 2013 की प्रमुख विशेषताओं पर चर्चा कीजिये। लोकपाल की कार्यप्रणाली में क्या चुनौतियाँ हैं, इन चुनौतियों से निपटने के उपाय सुझाइए। |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्न (PYQ)प्रिलिम्सप्रश्न. निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिये: (2019)
उपर्युक्त में से कौन-सा/से कथन सही है/हैं? (a) केवल 1 और 3 उत्तर: (c) मेन्स:प्रश्न. 'ट्रान्स्पेरेन्सी इन्टरनेशनल' के ईमानदारी सूचकांक में, भारत काफी नीचे के पायदान पर है। संक्षेप में उन विधिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक कारकों पर चर्चा कीजिये, जिनके कारण भारत में सार्वजनिक नैतिकता का ह्रास हुआ है। (2016) प्रश्न. 'राष्ट्रीय लोकपाल कितना भी प्रबल क्यों न हो, सार्वजनिक मामलों में अनैतिकता की समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता।' विवेचना कीजिये। (2013) |
नीतिशास्त्र
न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन
प्रिलिम्स के लिये:भारत का मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय, न्यायिक आचरण के बंगलुरू सिद्धांत, न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर संयुक्त राष्ट्र के बुनियादी सिद्धांत, भ्रष्टाचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय, मेन्स के लिये:न्यायपालिका के लिये नैतिक ढाँचे, न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिये निर्धारित वैश्विक मानक |
स्रोत: TH
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारत के प्रधानमंत्री द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के आवास पर की गई यात्रा, विशेष रूप से वर्ष 1997 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाए गए "'न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन' (The Restatement of Values of Judicial Life)" के आधार पर विवाद का विषय बन गई है।
नोट:
- किसी लोक सेवक का सामाजिक-धार्मिक (व्यक्तिगत) और प्रशासनिक/न्यायिक जीवन अलग-अलग होता है। मुख्य न्यायाधीश (या कोई अन्य लोक सेवक) से व्यक्तिगत जीवन के बारे में पूछताछ नहीं की जा सकती, क्योंकि व्यक्तिगत संबंध न्यायिक जाँच के दायरे से बाहर हैं। हालाँकि न्यायपालिका को शक्तियों के पृथक्करण के संवैधानिक सिद्धांत को कायम रखते हुए स्वतंत्र और अनुचित प्रभाव से मुक्त रहना चाहिये ।
'न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन' क्या है?
- 'न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन' सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाई गई न्यायिक आचार संहिता है, जो स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका के लिये मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है तथा न्याय का निष्पक्ष प्रशासन सुनिश्चित करती है।
- संहिता में 16 बिंदु शामिल हैं:
- न्याय केवल किया ही नहीं जाना चाहिये बल्कि यह भी दिखना चाहिये कि न्याय हो रहा है। न्यायाधीशों को ऐसे किसी भी कार्य से बचना चाहिये जिससे न्यायपालिका की निष्पक्षता से जनता का विश्वास कम हो।
- तदनुसार सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश का कोई भी कार्य, चाहे वह आधिकारिक हो या व्यक्तिगत हो, जिससे इस धारणा की विश्वसनीयता कम होती हो, टाला जाना चाहिये।
- किसी न्यायाधीश को किसी क्लब, सोसायटी या अन्य एसोसिएशन के किसी भी पद के लिये चुनाव नहीं लड़ना चाहिये, सिवाय किसी सोसायटी या एसोसिएशन के जो कानून से संबंधित हो।
- बार परिषद के व्यक्तिगत सदस्यों, विशेषकर जो एक ही न्यायालय में प्रैक्टिस करते हैं, के साथ निकट संबंध रखने से बचना चाहिये।
- किसी न्यायाधीश को अपने निकट परिवार के किसी सदस्य या निकट संबंधी को, जो बार का सदस्य हो, अपने समक्ष उपस्थित होने या उनके द्वारा निपटाए जा रहे किसी मामले में शामिल होने की अनुमति नहीं देनी चाहिये।
- किसी न्यायाधीश के परिवार के किसी भी सदस्य को, जो बार का सदस्य है, पेशेवर कार्य के लिये न्यायाधीश के आवास या अन्य सुविधाओं का उपयोग करने की अनुमति नहीं देनी चाहिये।
- एक न्यायाधीश को अपने पद की गरिमा के अनुरूप एक सीमा तक दूरी बनाए रखना चाहिये।
- किसी भी न्यायाधीश को ऐसे मामले की सुनवाई और निर्णय नहीं करना चाहिये, जिसमें उसके परिवार का कोई सदस्य, निकट संबंधी या मित्र शामिल हो।
- कोई भी न्यायाधीश न्यायिक निर्णय के लिये लंबित या संभावित मामलों पर सार्वजनिक बहस में शामिल नहीं होगा या राजनीतिक विचार व्यक्त नहीं करेगा।
- एक न्यायाधीश को अपने निर्णयों से ही अपनी बात कहनी चाहिये और मीडिया को साक्षात्कार नहीं देना चाहिये।
- न्यायाधीश को परिवार, निकट संबंधियों और मित्रों को छोड़कर किसी से उपहार या आतिथ्य स्वीकार नहीं करना चाहिये।
- कोई न्यायाधीश किसी ऐसे मामले की सुनवाई और निर्णय नहीं करेगा जिसमें उस कंपनी का संबंध हो जिसमें उसके शेयर हों, जब तक कि उसने अपनी रुचि प्रकट न कर दी हो तथा मामले की सुनवाई तथा निर्णय पर कोई आपत्ति न उठाई गई हो।
- किसी न्यायाधीश को शेयर, स्टॉक या इससे संबंधित किसकी भी चीजों में निवेश नहीं करना चाहिये।
- न्यायाधीशों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से व्यापार या कारोबार में संलग्न नहीं होना चाहिये, लेकिन कानूनी कार्य संबंधी गतिविधियों को प्रकाशित करना अपवाद है।
- किसी भी न्यायाधीश को किसी भी उद्देश्य के लिये धन जुटाने का अनुरोध या उसे स्वीकार नहीं करना चाहिये, या उससे संबद्ध नहीं होना चाहिये।
- किसी न्यायाधीश को अपने पद से संबद्ध किसी भी तरह की सुविधा या विशेषाधिकार के रूप में कोई वित्तीय लाभ नहीं मांगना चाहिये, जब तक कि यह स्पष्ट रूप से उपलब्ध न हो। इस संबंध में किसी भी संदेह का समाधान और स्पष्टीकरण मुख्य न्यायाधीश के माध्यम से किया जाना चाहिये।
- न्यायाधीशों को हमेशा यह ध्यान रखना चाहिये कि वे सार्वजनिक जाँच के दायरे में हैं और उन्हें अपने उच्च पद के अनुरूप कार्य करना चाहिये।
- न्याय केवल किया ही नहीं जाना चाहिये बल्कि यह भी दिखना चाहिये कि न्याय हो रहा है। न्यायाधीशों को ऐसे किसी भी कार्य से बचना चाहिये जिससे न्यायपालिका की निष्पक्षता से जनता का विश्वास कम हो।
न्यायिक आचरण का बंगलुरु सिद्धांत
- जुलाई 2006 में संयुक्त राष्ट्र आर्थिक और सामाजिक परिषद (ICOSOC) ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें न्यायिक आचरण के बंगलुरु सिद्धांतों को न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर वर्ष 1985 के संयुक्त राष्ट्र के मूल सिद्धांतों के लिये एक महत्त्वपूर्ण प्रगति तथा पूरक के रूप में मान्यता प्रदान की गई है।
- न्यायिक आचरण के बंगलुरु सिद्धांतों का उद्देश्य न्यायाधीशों के लिये नैतिक मानदंड निर्धारित करना, न्यायिक व्यवहार को विनियमित करने के लिये एक रूपरेखा प्रदान करना और न्यायिक नैतिकता बनाए रखने पर मार्गदर्शन प्रदान करना है।
- ये सिद्धांत छह प्रमुख मूल्यों को चिह्नित करते हैं: स्वतंत्रता (independence), निष्पक्षता (impartiality), अखंडता/सत्यनिष्ठा (integrity), औचित्य (propriety), समानता (equality) और योग्यता एवं कर्मठता (competence and diligence), जो प्रत्येक मूल्य के प्रभावी ढंग से पालन के लिये न्यायाधीशों के अपेक्षित आचरण को परिभाषित करते हैं।
वर्ष 1985 न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर संयुक्त राष्ट्र के बुनियादी सिद्धांत:
- इसे वर्ष 1985 में अपराध की रोकथाम और अपराधियों के उपचार पर सातवें संयुक्त राष्ट्र कॉन्ग्रेस में अपनाया गया तथा महासभा के प्रस्ताव 40/32 एवं 40/146 द्वारा इसका समर्थन किया गया था।
- इन सिद्धांतों का उद्देश्य आदर्श न्यायिक स्वतंत्रता और वास्तविक रूप से विश्व की प्रथाओं के बीच के अंतर को कम करना है, साथ ही यह सुनिश्चित करना है कि न्याय कायम रहे, मानव अधिकारों का संरक्षण एवं न्यायपालिका पारदर्शिता के साथ कार्य करे।
- प्रमुख पहलुओं में स्वतंत्रता की गारंटी, निष्पक्ष निर्णय, अनन्य क्षेत्राधिकार, हस्तक्षेप न करना और निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार शामिल हैं।
भारत में न्यायिक अखंडता के संदर्भ में अन्य प्रमुख चिंताएँ क्या हैं?
- न्यायाधीशों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएँ: न्यायाधीशों द्वारा राजनीति में प्रवेश करने के लिये सार्वजनिक रूप से अपने पदों से इस्तीफा देने से भारत के संविधान के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और उनके न्यायिक निर्णयों की निष्पक्षता के संदर्भ में चिंताएँ उत्पन्न हो गई हैं।
- सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों द्वारा सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद आकर्षक राजनीतिक पद या सरकारी भूमिकाएँ स्वीकार करने से पक्षपात और लेन-देन के आरोप लगे हैं।
- ऐसे उदाहरण जहाँ न्यायाधीश ऐसे निर्णय देते हैं जो सत्तारूढ़ दल को लाभ पहुँचाते हैं तथा बाद में उन्हें उच्च-स्तरीय सरकारी पद प्राप्त करते हैं, इससे संभावित पारस्परिक लाभ व्यवस्था का संकेत मिलता है।
- पारदर्शिता के मुद्दे: महत्त्वपूर्ण मामलों में सूचना को जिस प्रकार से संभाला जाता है उसकी अपारदर्शिता के कारण न्यायिक प्रक्रिया में जनता का विश्वास कम होता है।
- हितों का टकराव: न्यायाधीशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे हितों के टकराव से बचें और न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता बनाए रखें।
- न्यायाधीशों की राजनीतिक गतिविधियों में भागीदारी, विशेष रूप से न्यायाधीश पद पर रहते हुए विवादास्पद बयान और फैसले देने के बाद, संभावित हितों के टकराव की चिंता उत्पन्न करती है।
- हितों का टकराव: न्यायाधीशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे हितों के टकराव से बचें और न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता बनाए रखें।
- जनता का भरोसा और विश्वास: न्यायपालिका अपनी भूमिका निभाने के लिये जनता के भरोसे और विश्वास पर निर्भर करती है। न्यायाधीशों की ऐसी कार्रवाइयाँ जो न्यायिक अखंडता एवं निष्पक्षता की अवधारणा को कमज़ोर करती हैं, न्यायिक प्रणाली में जनता के विश्वास को कम करती हैं।
आगे की राह:
- 'न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन' और न्यायिक आचरण के बंगलुरु सिद्धांतों के पालन को सुदृढ़ करना। यह न्यायाधीशों के लिये अनिवार्य प्रशिक्षण तथा नियमित पुनश्चर्या पाठ्यक्रमों के माध्यम से किया जा सकता है।
- न्यायिक आचरण और नैतिक मानकों के पालन की समय-समय पर लेखापरीक्षा तथा समीक्षा करने के लिये स्वतंत्र निकायों की स्थापना करना।
- वैश्विक न्यायिक अखंडता नेटवर्क का लाभ उठाएँ, जिसका उद्देश्य भ्रष्टाचार के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र अभिसमय (UNCAC) के अनुरूप न्यायिक अखंडता को सुदृढ़ करने और न्याय क्षेत्र में भ्रष्टाचार को रोकने में न्यायपालिकाओं की सहायता करना है।
- ऐसे मंचों या चर्चाओं का आयोजन करके सार्वजनिक सहभागिता को बढ़ावा दें जहाँ नागरिक न्यायपालिका के साथ संवाद कर सकें और उसके कार्यों एवं निर्णयों को बेहतर ढंग से समझ सकें।
- यह सुनिश्चित करने के लिये मानदंडों को सुदृढ़ किया जाना चाहिये कि राजनीति में प्रवेश करने के इच्छुक न्यायाधीशों को ‘कूलिंग-ऑफ पीरियड (cooling-off period)’ का पालन करना होगा तथा प्रासंगिक हो सकने वाले किसी भी पिछले न्यायिक निर्णय का पूर्ण खुलासा करना होगा।
- सेवानिवृत्ति के बाद पदभार ग्रहण करने वाले न्यायाधीशों के लिये स्पष्ट दिशा-निर्देश स्थापित करना तथा यह सुनिश्चित करना कि वे अपने न्यायिक निर्णयों की सत्यनिष्ठा से समझौता किये बिना निष्पक्ष रूप से निर्णय दें।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनाए गए 'न्यायिक जीवन के मूल्यों का पुनर्स्थापन' पर चर्चा कीजिये। इसका उद्देश्य न्यायपालिका की अखंडता और स्वतंत्रता को किस प्रकार से बनाए रखना है? |
अंतर्राष्ट्रीय संबंध
WTO में सीमा पार विप्रेषण लागत कम करने हेतु भारत का प्रयास
प्रिलिम्स के लिये:विश्व व्यापार संगठन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, सतत् विकास लक्ष्य, G20, यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस, मुक्त व्यापार समझौते, कृषि पर समझौता मेन्स के लिये:सीमापार विप्रेषण, आर्थिक विकास के लिये अंतर्राष्ट्रीय सहयोग |
स्रोत: बिज़नेस लाइन
चर्चा में क्यों?
अबू धाबी में आयोजित विश्व व्यापार संगठन के 13वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन 2024 में भारत द्वारा सीमापार विप्रेषण की लागत को कम करने प्रस्ताव किया गया जिसका मोरक्को और वियतनाम जैसे देशों ने समर्थन किया।
- हालाँकि WTO के कुछ सदस्यों ने इस प्रस्ताव पर असहमति जताई, जो विश्व स्तर पर इस महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर आम सहमति बनाने में विद्यमान चुनौतियों को दर्शाता है।
सीमा पार विप्रेषण की लागत
- विप्रेषण लागत वह शुल्क है जो किसी व्यक्ति द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर धन का विप्रेषण करने पर लिया जाता है। विप्रेषित राशि और प्रयुक्त विधि के आधार पर लिया जाने वाला शुल्क अलग-अलग हो सकता है।
- अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के अनुसार, वर्तमान में विश्व में औसत विप्रेषण लागत भेजी गई कुल राशि का 6.25% है ।
- 200 अमेरिकी डॉलर से कम राशि के विप्रेषण हेतु लिया गया शुल्क प्रायः औसतन 10% होता है तथा प्रवास के अपेक्षाकृत छोटे कॉरिडोर में यह मूलधन का 15-20% तक हो सकता है।
नोट:
- वर्ष 2016 में G20 राष्ट्रों ने विप्रेषण लागत को 3% से नीचे लाने (जैसा कि SDG 10.c में उल्लिखित है) तथा वर्ष 2030 तक 5% से अधिक लागत वाले विप्रेषण कॉरिडोर को समाप्त करने के लक्ष्य को अपनाकर संयुक्त राष्ट्र के 2030 एजेंडे को एकीकृत किया।
- वर्ष 2021 में इस प्रतिबद्धता की पुष्टि करते हुए, G20 राष्ट्रों ने सीमा पार भुगतान बढ़ाने के लिये G20 रोडमैप के माध्यम से SDG 10.c के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर ज़ोर दिया, जिसका लक्ष्य विप्रेषण की औसत लागत को 3% से कम करना था।
सीमा पार विप्रेषण की लागत के संबंध में भारत का प्रस्ताव क्या है?
- प्रस्ताव: भारत द्वारा मार्च 2024 में विश्व व्यापार संगठन के 13 वें मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में प्रस्तुत मसौदा प्रस्ताव का उद्देश्य विप्रेषण की वैश्विक औसत लागत को कम करना है, जो वर्तमान में सतत् विकास लक्ष्य (SDG) के 3% के लक्ष्य से दोगुने से भी अधिक है।
- भारत का सुझाव है कि डिजिटल धनविप्रेषण, जिसकी औसत लागत 4.84% है, अधिक संवहनीय है और इसे बढ़ावा दिया जाना चहिये।
- भारत ने विप्रेषण लागत को कम करने के लिये सिफारिशें करने हेतु एक कार्य योजना का भी प्रस्ताव किया है।
- विप्रेषण लागत में कटौती की भारत की आवश्यकता: भारत को 2023 में विश्व स्तर पर सबसे अधिक विप्रेषण प्राप्त हुआ, जो 125 बिलियन अमेरिकी डॉलर था।
- विप्रेषण लागत को कम करने से धन के अंतर्वाह में और अधिक वृद्धि हो सकती है। वर्ष 2023 में भारत ने विप्रेषण शुल्क पर लगभग 7-8 बिलियन अमरीकी डॉलर का वहन किया।
- विप्रेषण लागत में कमी के साथ अंतरण संवहनीय और त्वरित होगा तथा साथ ही हवाला पर निर्भरता भी कम हो जाएगी।
- हवाला से तात्पर्य सेवा प्रदाताओं (जिन्हें हवालादार कहा जाता है) के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक धन का अंतरण करने के एक अनौपचारिक चैनल से है, भले ही लेन-देन की प्रकृति और इसमें शामिल देश कोई भी हों।
- प्रस्ताव का समर्थन और चुनौतियाँ: मोरक्को और वियतनाम जैसे देशों ने विप्रेषण लागत को कम करने के महत्त्व को पहचानते हुए भारत के प्रस्ताव का पुरज़ोर समर्थन किया।
- अमेरिका और स्विट्ज़रलैंड जैसे देशों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया तथा उन्हें धन प्रेषण शुल्क से उनके वित्तीय संस्थानों की आय को लेकर चिंताएँ हैं।
भारत में विप्रेषण का अंतर्वाह
- वर्ष 2023 में भारत विप्रेषण अंतर्वाह सूची में शीर्ष पर रहा, उसके बाद मैक्सिको (66 बिलियन अमरीकी डॉलर), चीन (50 बिलियन अमरीकी डॉलर), फिलीपींस (39 बिलियन अमरीकी डॉलर) और पाकिस्तान (27 बिलियन अमरीकी डॉलर) का स्थान था।
- वित्त वर्ष 23-24 में, विदेश में निवास करने वाले भारतीयों ने भारत में रिकॉर्ड स्तर पर 107 बिलियन अमरीकी डॉलर की धनराशि का विप्रेषण किया, जो लगातार दूसरे वर्ष 100 बिलियन अमरीकी डॉलर से अधिक थी।
- निवल विप्रेषण राशि इसी अवधि के दौरान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) और पोर्टफोलियो निवेश से प्राप्त संयुक्त 54 बिलियन अमेरिकी डॉलर से लगभग दोगुनी है।
- वित्त वर्ष 2024 में प्रवासी भारतीयों से प्राप्त निवल विप्रेषण 119 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। आय और संबंधित व्यय के प्रत्यावर्तन के बाद, निवल निजी अंतरण 107 बिलियन अमेरिकी डॉलर हुआ।
- भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के सर्वेक्षण के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका मुख्य योगदानकर्त्ता था, जो कुल विप्रेषण का 23% था। अधिकांश विप्रेषण पारिवारिक सहायता के लिये होते हैं, जबकि कुछ जमाराशि के रूप में निवेश करने हेतु किये जाते हैं।
- विप्रेषण की मात्रा प्रवास स्तर, मूल देशों में रोज़गार की स्थिति और धन विप्रेषण की लागत से प्रभावित होती है।
विप्रेषण लागत में कटौती से क्या लाभ हैं?
- वैश्विक भारतीय प्रवासी: कम लागत से प्रेषक के परिवार को अधिक धन प्राप्त होगा तथा बिचौलियों को प्राप्त होने वाले शुल्क में कमी आएगी।
- अनिवासी भारतीयों (NRI) समुदाय और विदेशी यात्रियों के लिये भारत से धन अंतरण करना सरल और संवहनीय होगा।
- भारतीय MSME को लाभ: विदेशी मुद्रा लागत में कमी से भारतीय वस्तुएँ और सेवाएँ अधिक प्रतिस्पर्द्धी हो जाएंगी, जिससे लाभ मार्जिन में वृद्धि होगी।
- विप्रेषण लागत में कमी से सीमा पार लेन-देन अधिक कुशल हो जाएगा, जो कि भारत सरकार के इज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस के लक्ष्य के अनुरूप होगा।
- घरेलू अर्थव्यवस्था और UPI लेनदेन: कम लागत पर विप्रेषण अंतर्वाह में वृद्धि से घरेलू मुद्रा की स्थिति में सुधार होने की संभावना है और व्यक्तिगत उपभोग पैटर्न में सुधार हो सकता है।
- विप्रेषण लागत में कटौती वैश्विक बाज़ारों में यूनिफाइड पेमेंट्स इंटरफेस (UPI) की पहुँच में विस्तार करने हेतु उत्प्रेरक का काम कर सकती है ।
- वित्तीय समावेशन: कम विप्रेषण लागत से वंचित आबादी के लिये वित्तीय सेवाओं तक पहुँच में सुधार हो सकता है, जिससे वित्तीय समावेशन को प्रोत्साहन मिलेगा।
- चूँकि वर्ष 2023 में कुल विप्रेषण अंतर्वाह का 78% निम्न और मध्यम आय वाले देशों (LMIC) में हुआ, इसलिये देशों के भीतर तथा उनके बीच असमानता को कम करने के लिये लेनदेन लागत को कम करना महत्त्वपूर्ण है।
- सामाजिक-आर्थिक असमानताओं को कम करना: कम विनिमय लागत यह सुनिश्चित करती है कि अधिक धनराशि जरूरतमंदों तक पहुँचे, जिससे आर्थिक असमानताओं को कम करने और इन क्षेत्रों में विकास को समर्थन देने में मदद मिलती है।
- कम लागत का अर्थ है कि प्रेषक अपना अधिक धन अपने पास रख सकेंगे, जिससे उनके मूल देशों में बचत और निवेश में वृद्धि हो सकेगी।
विश्व व्यापार संगठन के संबंध में मुख्य तथ्य क्या हैं?
- उत्पत्ति: वर्ष 1994 में हस्ताक्षरित मारकेश समझौते ने विश्व व्यापार संगठन की स्थापना की, जो आधिकारिक तौर पर 1 जनवरी 1995 को शुरू हुआ।
- यह टैरिफ और व्यापार पर सामान्य समझौते (GATT) का अनुवर्ती था और यह अधिक व्यापक वैश्विक व्यापार संगठन की स्थापना के लिये उरुग्वे राउंड नेगोशियेशन (वर्ष 1986-94) का हिस्सा था।
- सदस्य: विश्व व्यापार संगठन के 166 सदस्य हैं, जिनमें भारत (वर्ष 1995 से तथा 1948 से GATT का सदस्य) भी शामिल हैतथा विश्व व्यापार में इसकी हिस्सेदारी लगभग 98% है।
- WTO सचिवालय: जिनेवा, स्विट्ज़रलैंड में स्थित WTO सचिवालय, संगठन के कार्यों का समर्थन करता है, लेकिन स्वयं इसके पास निर्णय लेने की शक्तियाँ नहीं हैं।
- सचिवालय का नेतृत्व महानिदेशक करता है, जो इसके संचालन की देखरेख करता है
- प्रमुख विश्व व्यापार संगठन सिद्धांत:
- सर्वाधिक अनुकूल राष्ट्र (MFN): इसके लिये आवश्यक है कि किसी एक सदस्य के लिये लगाई गई अनुकूल व्यापारिक शर्तें अन्य सभी WTO सदस्यों पर भी लागू की जाएँ।
- राष्ट्रीय उपचार: यह सिद्धांत यह अनिवार्य करता है कि जब कोई उत्पाद, सेवा या बौद्धिक संपदा बाज़ार में प्रवेश करती है, तो उसे घरेलू उत्पादों की तुलना में गैर-भेदभावपूर्ण समाधान मिलना चाहिये।
- किसी आयात पर सीमा शुल्क लगाना राष्ट्रीय व्यवहार का उल्लंघन नहीं है।
- विश्व व्यापार संगठन मंत्रिस्तरीय सम्मेलन: यह संगठन का सर्वोच्च निर्णयन निकाय है, जिसकी प्रत्येक दो वर्ष में बैठक होती है तथा बहुपक्षीय व्यापार समझौतों के अंतर्गत आने वाले मामलों पर निर्णय लेने में सभी सदस्य इस बैठक में शामिल होते हैं।
- विश्व व्यापार संगठन के महत्त्वपूर्ण समझौते:
- सेवाओं में व्यापार पर सामान्य समझौता (GATS)
- बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार-संबंधित समझौता (TRIPS)
- व्यापार-संबंधी निवेश उपाय (TRIMS)
- सैनिटरी एंड फाइटो सैनिटरी (SPS)
- कृषि समझौता (AoA)
आगे की राह
- विश्व व्यापार संगठन के उप महानिदेशक ने विप्रेषण लागत में कटौती हेतु व्यापक समर्थन जुटाने के लिये जागरूकता और पहुँच बढ़ाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) और विश्व बैंक जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ सहयोग महत्त्वपूर्ण है।
- निर्बाध सीमा पार लेनदेन की सुविधा के लिये देशों के विभिन्न डिजिटल विप्रेषण प्लेटफार्मों के बीच अंतर-संचालन को बढ़ावा देना।
- UPI जैसे डिजिटल चैनल कुछ लागत बचत प्रदान करते हैं, क्योंकि ये गैर-डिजिटल चैनलों की तुलना में सस्ते होते हैं।
- बाधाओं को कम करने और सीमा पार विप्रेषण को सुविधाजनक बनाने के लिये देशों के बीच विनियामक सामंजस्य को बढ़ावा देना चाहिये।
दृष्टि मुख्य परीक्षा प्रश्न: प्रश्न: विकासशील अर्थव्यवस्थाओं पर विप्रेषण लागत के प्रभाव का विश्लेषण कीजिये। विश्व व्यापार संगठन को भारत का प्रस्ताव इस मुद्दे को कैसे संबोधित करने का लक्ष्य रखता है? |
UPSC सिविल सेवा परीक्षा, विगत वर्ष के प्रश्नप्रिलिम्स:प्रश्न 1. 'ऐग्रीमेंट ऑन ऐग्रीकल्चर (Agreement on Agriculture)', 'ऐग्रीमेंट ऑन दि ऐप्लीकेशन ऑफ सैनिटरी ऐंड फाइटोसैनिटरी मेजर्स (Agreement on the Application of Sanitary and Phytosanitary Measures)' और 'पीस क्लॉज़ (Peace Clause)' शब्द प्रायः समाचारों में किसके मामलों के संदर्भ में आते हैं? (2015) (a) खाद्य और कृषि संगठन उत्तर: c प्रश्न 2. निम्नलिखित में से किसके संदर्भ में कभी-कभी समाचारों में 'ऐम्बर बॉक्स, ब्लू बॉक्स और ग्रीन बॉक्स' शब्द देखने को मिलते हैं? (2016) (a) WTO मामला उत्तर: a मेन्स:प्रश्न 1. यदि 'व्यापार युद्ध' के वर्तमान परिदृश्य में विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू० टी० ओ०) को जिन्दा बने रहना है, तो उसके सुधार के कौन-कौन से प्रमुख क्षेत्र हैं, विशेष रूप से भारत के हित को ध्यान में रखते हुए? (2018) प्रश्न 2. "विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यू.टी.ओ.) के अधिक व्यापक लक्ष्य और उद्देश्य वैश्वीकरण के युग में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रबंधन तथा प्रोन्नति करना है। परंतु (संधि) वार्ताओं की दोहा परिधि मृतोन्मुखी प्रतीत होती है, जिसका कारण विकसित एवं विकासशील देशों के बीच मतभेद है।" भारतीय परिप्रेक्ष्य में, इस पर चर्चा कीजिये। (2016) |