फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नोलॉजी
प्रिलिम्स के लिये:फेस रिकॉग्निशन, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, डेटा सुरक्षा कानून मेन्स के लिये:फेशियल रिकॉग्निशन टेक्नोलॉजी : आवश्यकता एवं चुनौतियाँ |
चर्चा में क्यों?
तीन वर्षों की विलंबता के बाद, वर्ष 2022 से यात्री देश के चार हवाई अड्डों (वाराणसी, पुणे, कोलकाता और विजयवाड़ा) पर अपने बोर्डिंग पास के रूप में ‘फेस स्कैन’ (Face Scan) का उपयोग कर सकेंगे।
प्रमुख बिंदु
- फेशियल रिकॉग्निशन (Facial Recognition):
- यह एक बायोमेट्रिक तकनीक है जो किसी व्यक्ति की पहचान और व्यक्तियों के बीच अंतर करने के लिये चेहरे की विशिष्ट विशेषताओं का उपयोग करती है।
- लगभग छह दशकों में स्किन पैटर्न को पहचानने से लेकर चेहरे की 3D आकृति को बनाने तक यह प्रणाली कई मायनों में विकसित हुई है।
- ऑटोमेटेड फेसियल रिकॉग्निशन सिस्टम (Automated Facial Recognition System- AFRS) व्यक्तियों के चेहरों की छवियों और वीडियो के व्यापक डेटाबेस के आधार पर कार्य करती है। इसमें मौजूद डेटाबेस में उपलब्ध छवियों से मिलान करके व्यक्ति की पहचान की जाती है।
- सीसीटीवी फुटेज़ से प्राप्त अज्ञात व्यक्ति के चेहरे के पैटर्न की तुलना आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तकनीक की सहायता से डेटाबेस में उपलब्ध पैटर्न से की जाती है।
- यह एक बायोमेट्रिक तकनीक है जो किसी व्यक्ति की पहचान और व्यक्तियों के बीच अंतर करने के लिये चेहरे की विशिष्ट विशेषताओं का उपयोग करती है।
- कार्यप्रणाली:
- प्रारंभिक स्तर पर फेस रिकॉग्निशन प्रणाली में कैमरे द्वारा चेहरे और उसकी विशेषताओं को कैप्चर किया जाता है। पुन: विभिन्न प्रकार के सॉफ्टवेयर का उपयोग कर उन विशेषताओं का पुनर्निर्माण किया जाता है।
- चेहरे और उनकी विशेषताओं को एक साथ एक डेटाबेस में संगृहीत किया जाता है तथा इसे किसी भी प्रकार के सॉफ्टवेयर के साथ एकीकृत किया जा सकता है। इसका उपयोग बैंकिग सेवा, सुरक्षा उद्देश्यों की पूर्ति इत्यादि में किया जा सकता है।
- आवश्यकता:
- प्रमाणीकरण:
- इसे प्रमाणिकता एवं पहचान के लिये उपयोग में लाया जाता है एवं इसकी सफलता दर लगभग 75% है।
- फोर्स मल्टीप्लायर:
- भारत में प्रति एक लाख नागरिकों पर 144 पुलिसकर्मी हैं। अत: फेस रिकॉग्निशन प्रणाली यहाँ बल गुणक (Force Multiplier) के रूप में कार्य कर सकती है क्योंकि इसे न तो अधिक कार्यबल की आवश्यकता है और न ही नियमित उन्नयन की।
- यह तकनीक वर्तमान जनशक्ति/कार्यबल के साथ मिलकर एक गेम चेंजर के रूप में कार्य कर सकती है।
- प्रमाणीकरण:
- चुनौतियाँ:
- अवसंरचनात्मक लागत:
- कृत्रिम बुद्धिमत्ता और बिग डेटा जैसी प्रौद्योगिकियों का क्रियान्वयन महँगा होता है।
- संगृहीत सूचनाओं की मात्रा बहुत बड़ी होती है और इसके लिये विशाल नेटवर्क एवं डेटाभंडारण सुविधा की आवश्यकता होती हैं जो वर्तमान में भारत के पास उपलब्ध नहीं है।
- गोपनीयता का उल्लंघन:
- हालांँकि सरकार डेटा गोपनीयता व्यवस्था जैसे कानूनी ढांँचे के माध्यम से गोपनीयता के मुद्दे को संबोधित करने की योजना बना रही है, लेकिन इस प्रकार की तकनीक के उपयोग से प्राप्त होने वाले उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए, यह आपसी हितों में टकराव उत्पन्न कर सकता है।
- विश्वसनीयता और प्रामाणिकता:
- चूंँकि एकत्र किये गए डेटा का उपयोग आपराधिक मुकदमे के दौरान न्यायालय में किया जा सकता है, इसलिये मानकों और प्रक्रिया के साथ-साथ डेटा की विश्वसनीयता एवं स्वीकार्यता को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है।
- डेटा सुरक्षा कानून की अनुपस्थिति:
- डेटा सुरक्षा कानूनों (Data Protection Laws) की अनुपस्थिति में FRT सिस्टम, जो उपयोगकर्त्ता द्वारा डेटा के संग्रह और भंडारण में आवश्यक सुरक्षा उपायों के लिये अनिवार्य होगा, भी चिंता का विषय है।
- अंतर्निहित चुनौतियांँ:
- समय के साथ चेहरे में परिवर्तन भी हो सकता है, यह भी चिंता का विषय है।
- अवसंरचनात्मक लागत:
आगे की राह:
- वर्तमान डिजिटल युग में डेटा एक मूल्यवान संसाधन है जिसे अनियंत्रित या स्वतंत्र नहीं छोड़ा जा सकता। इस संदर्भ में भारत को एक मजबूत डेटा संरक्षण व्यवस्था स्थापित करनी चाहिये।
- अब समय आ गया है कि व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2019 में आवश्यक परिवर्तन जाएँ। इन परिवर्तनों को सुनिश्चित करने हेतु इसमें आवश्यक सुधारों की आवश्यकता है। यह उपयोगकर्त्ता के अधिकारों पर ध्यान केंद्रित करने के साथ-साथ उपयोगकर्त्ता की गोपनीयता पर भी ज़ोर देता है। इन अधिकारों को लागू करने हेतु एक गोपनीयता आयोग की स्थापना की जानी चाहिये।
- सरकार को सूचना के अधिकार को मज़बूत बनाने के साथ ही नागरिकों की निजता का भी सम्मान करना होगा। इसके अतिरिक्त पिछले दो से तीन वर्षों में हुए तकनीकी विकास को देखते हुए यह संबोधित करने की भी आवश्यकता है ये कानून तकनीकी विकास की सीमा को भी निर्धारित करते हैं।
स्रोत: द हिंदू
कृषि क्षेत्र के लिये ARCs
प्रिलिम्स के लिये:भारतीय रिज़र्व बैंक, ‘नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स’ मेन्स के लिये:परिसंपत्ति पुनर्निमाण कंपनी, कृषि ऋण के लिये ARC की आवश्यकता |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में अग्रणी बैंकों द्वारा कृषि क्षेत्र में खराब ऋणों की वसूली में सुधार के लिये विशेष रूप से कृषि ऋणों के संग्रह और वसूली से निपटने हेतु एक परिसंपत्ति पुनर्निमाण कंपनी (Asset Reconstruction Company- ARC) स्थापित करने के लिये योजना/रूपरेखा प्रस्तावित की गई है।
- बैंक द्वारा NPAs की चुनौती से निपटने के लिये सरकार समर्थित ARC की स्थापना के साथ ही इस अवधारणा को उद्योग और बैंकों के बीच स्वीकार्यता मिली है।
- भारतीय बैंक संघ के कुछ सदस्य बैंकों ने सुझाव दिया कि केंद्र सरकार को वित्तीय संपत्तियों प्रतिभूतिकरण और पुनर्निर्माण और ‘सिक्योरिटाइज़ेशन एंड रिकंस्ट्रक्शन ऑफ फाइनेंशियल एसेट्स एंड एनफोर्समेंट ऑफ सिक्योरिटी इंटरेस्ट एक्ट’ (Securitisation and Reconstruction of Financial Assets and Enforcement of Security Interest Act), 2002 की तरह कुछ सीमा तक कृषि भूमि पर कानून लाने की आवश्यकता है।
प्रमुख बिंदु
- परिसंपत्ति पुनर्निमाण कंपनी (ARC) के बारे में:
- उद्देश्य: यह एक विशेष वित्तीय संस्थान है जो बैंकों और वित्तीय संस्थानों से ‘नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स’ (Non Performing Assets- NPAs) खरीदता है ताकि वे अपनी बैलेंसशीट को स्वच्छ रख सकें।
- यह बैंकों को सामान्य बैंकिंग गतिविधियों में ध्यान केंद्रित करने में मदद करता है। बैंकों द्वारा बकाएदारों पर अपना समय और प्रयास बर्बाद करने के बजाय वे ARC को अपना NPAs पारस्परिक रूप से सहमत मूल्य पर बेच सकते हैं।
- विधिक आधार: सरफेसी अधिनियम, 2002 (SARFAESI Act, 2002) भारत में ARCs की स्थापना के लिये कानूनी आधार प्रदान करता है।
- सरफेसी अधिनियम न्यायालयों के हस्तक्षेप के बिना गैर-निष्पदनकारी संपत्ति के पुनर्निर्माण में मदद करता है। इस अधिनियम के तहत बड़ी संख्या में ARCs का गठन और उन्हें भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के साथ पंजीकृत किया गया, जिसे ARCs को विनियमित करने की शक्ति मिली है।.
- फंडिंग: ARC द्वारा अपनी फंडिंग आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये, बांड, डिबेंचर और सिक्यूरिटी रिसीप्ट जारी की जा सकती हैं।
- ‘नेशनल एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड’ (NARCL):
- बजट 2021-22 में, ARC को राज्य के स्वामित्व वाले तथा निजी क्षेत्र के बैंकों द्वारा स्थापित करने का प्रस्ताव किया गया है, जिसमें सरकार की ओर से कोई इक्विटी योगदान नहीं दिया जाएगा।
- ARC जो कि खराब परिसंपत्तियों के प्रबंधन और बिक्री के लिये परिसंपत्ति पुनर्निमाण कंपनी होगी, 70 बड़े खातों में 2-2.5 लाख करोड़ रुपए की परिसंपत्तियों का प्रबंधन करेगी।
- इसे सरकार द्वारा स्थापित ‘बैड बैंक’ (Bad Bank) का संस्करण माना जा रहा है।
- उद्देश्य: यह एक विशेष वित्तीय संस्थान है जो बैंकों और वित्तीय संस्थानों से ‘नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स’ (Non Performing Assets- NPAs) खरीदता है ताकि वे अपनी बैलेंसशीट को स्वच्छ रख सकें।
- कृषि ऋण के लिये ARC की आवश्यकता:
- बैंकों के NPAs: नवीनतम वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट, जून 2021 के अनुसार, कृषि क्षेत्र के लिये बैंकों का सकल एनपीए अनुपात 9.8% था, जबकि 2021 मार्च के अंत में उद्योग और सेवाओं के लिये यह क्रमशः 11.3% और 7.5% था।.
- बकाया ऋण: 'ग्रामीण भारत में कृषि परिवारों और भूमि जोत की स्थिति का आकलन, 2019' के आँकड़ों के अनुसार, कृषि परिवारों के ऋण का प्रतिशत वर्ष 2013 के 52% से घटकर वर्ष 2019 में 50.2% हो गया है तथा औसत ऋण 57% से अधिक की वृद्धि के साथ वर्ष 2013 के 47,000 रूपए से बढकर वर्ष 2019 में 74,121 रूपए हो गया है।
- सर्वेक्षण के आंँकड़ों से पता चलता है कि कृषि परिवारों द्वारा बकाया ऋण का 69.6% संस्थागत स्रोतों जैसे बैंकों, सहकारी समितियों और अन्य सरकारी एजेंसियों से लिया गया था।
- यह सर्वेक्षण राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) द्वारा किया जाता है।
- कृषि ऋण माफी: चुनावों के आसपास राज्यों द्वारा कृषि ऋण माफी की घोषणा से ऋण देने की पद्दति में विसंगतियांँ उत्पन्न होती हैं।
- वर्ष 2014 के बाद से, कम से कम 11 राज्यों द्वारा कृषि ऋण माफी की घोषणा की गई है। इनमें राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, पंजाब और उत्तर प्रदेश शामिल हैं।
- उत्तर प्रदेश सरकार कृषि ऋण पर रियायती ब्याज दरों, कृषि आधारित उद्योगों को बढ़ावा देने के साथ-साथ केंद्र के कृषि अवसंरचना कोष (Agriculture Infrastructure Fund) के तहत कृषि बुनियादी ढांँचे के विकास हेतु अतिरिक्त प्रोत्साहन राशि प्रदान करेगी।
- कृषि अवसंरचना कोष का उद्देश्य पोस्ट-हार्वेस्ट मैनेजमेंट इन्फ्रास्ट्रक्चर (Post-Harvest Management Infrastructure) और सामुदायिक कृषि परिसंपत्तियों के लिए व्यवहार्य परियोजनाओं में निवेश के लिए मध्यम अवधि के ऋण वित्तपोषण की सुविधा प्रदान करना है।
- वर्ष 2021 में सात राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले बैंकों के बीच यह चिंता बनी हुई है कि इसके चलते कृषि क्षेत्र में NPAs में वृद्धि हो सकती है।
- जबकि वास्तविक कठिनाई का एक कारण ऋणों की वापसी में हुई देरी हो सकता है। सरकार द्वारा ऋणों में छूट की घोषणा भी बैंकों के समक्ष वसूली में चुनौतियांँ उत्पन्न कर सकता है।
- चुनौतियाँ:
- फंड की उपलब्धता: ‘परिसंपत्ति पुनर्निमाण कंपनी’ की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता ‘गैर-निष्पादित संपत्ति’ की व्यापक मात्रा के साथ संतुलित करने हेतु पर्याप्त धन की उपलब्धता सुनिश्चित करना है।
- यह एक स्वागतयोग्य कदम होगा यदि सरकार अपने पूंजी आधार को मज़बूत करने हेतु सरकार एवं ‘भारतीय रिज़र्व बैंक’ (RBI) के इक्विटी योगदान के साथ ARC की स्थापना करती है।
- इस प्रकार ARC के पास NPA की गंभीर समस्या से निपटने के लिये पर्याप्त धन होगा।
- एक जीवंत संकटग्रस्त ऋण बाज़ार की अनुपस्थिति: भले ही ARC के पास पर्याप्त धन उपलब्ध हो, किंतु गैर-निष्पादित परिसंपत्ति को खरीदने एवं बेचने के बीच असंतुलित मूल्य और खराब संपत्तियों के स्वीकार्य मूल्यांकन पर समझौता भी ARC के लिये एक चुनौती पैदा करेगा।
- यह भारत में एक जीवंत संकटग्रस्त ऋण बाज़ार की अनुपस्थिति है। ऐसे में गैर-निष्पादित संपत्तियों को बाज़ार में बेचना भी मुश्किल है।
- व्यावसायिक विशेषज्ञता का अभाव: एआरसी में बदलाव के लिए पेशेवर विशेषज्ञता का अभाव एक व्यापक समस्या है।
- ARCs में शामिल होने वाले बैंकर, वकील और चार्टर्ड एकाउंटेंट जैसे पेशेवर आमतौर पर कुछ अतिरिक्त रिटर्न की उम्मीद करते हैं।
- हालाँकि, नियामक मुद्दों के कारण यह आसान नहीं है और ARCs पेशेवरों की विशेषज्ञों की सेवा से वंचित है जो इसकी काफी मदद कर सकता है।
- परिपक्व द्वितीयक बाज़ार का अभावः अर्हताप्राप्त संस्थागत खरीदारों को ARCs द्वारा जारी सुरक्षा रसीदों (SR) हेतु परिपक्व द्वितीयक बाज़ार का अभाव है।
- यह बैंकों को अपनी स्वयं की तनावग्रस्त संपत्तियों द्वारा समर्थित SR खरीदने के लिये प्रेरित करता है।
- यह देखा गया है कि वर्तमान में 80% से अधिक SR केवल विक्रेता बैंकों के पास ही हैं।
- नियामक बाधाएँ: वर्तमान में सभी ARCs, नियामक यानी रिज़र्व बैंक के विनियमन के अधीन हैं और यह देखा गया है कि कुछ कड़े नियमों ने उनकी वृद्धि और व्यवहार्यता को बाधित किया है। इस प्रकार, ARCs अपनी पूरी क्षमता के साथ कार्य करने में सक्षम नहीं हो पाए हैं।
- फंड की उपलब्धता: ‘परिसंपत्ति पुनर्निमाण कंपनी’ की सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता ‘गैर-निष्पादित संपत्ति’ की व्यापक मात्रा के साथ संतुलित करने हेतु पर्याप्त धन की उपलब्धता सुनिश्चित करना है।
कृषि क्षेत्र के NPAs से निपटने हेतु वर्तमान तंत्र:
- वर्तमान में, कृषि क्षेत्र में NPAs से निपटने के लिये न तो एक एकीकृत तंत्र है और न ही एक भी कानून है।
- कृषि एक राज्य का विषय होने के कारण, वसूली कानून, जहाँ कहीं भी कृषि भूमि को संपार्श्विक के रूप में पेश किया जाता है- अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग होते हैं।
- गिरवी रखी गई कृषि भूमि का विनियमन प्रायः राज्यों के राजस्व वसूली अधिनियम, ऋण की वसूली एवं दिवालियापन अधिनियम, 1993 तथा अन्य राज्य-विशिष्ट नियमों के माध्यम से किया जाता है।
- इनमें अक्सर समय लगता है और कुछ राज्यों में तो बैंक ऋणों को कवर करने वाले राजस्व वसूली कानून लागू भी नहीं किये गए हैं।
आगे की राह
- बैंकों और ARCs के बीच मूल्य निर्धारण हेतु एक कठोर और यथार्थवादी दृष्टिकोण अत्यंत आवश्यक है।
- इसलिये NPA बिक्री, समाधान और वसूली की पूरी प्रक्रिया को तेज़ और सुचारू बनाने के लिये नियामक सहित सभी हितधारकों को एक साथ आने की तत्काल आवश्यकता है।
- कृषि क्षेत्र में कर्ज की वसूली की बात आती है तो बैंकों के हाथ बँधे होते हैं। प्रत्याशित कृषि ऋण माफी की समस्या भी काफी गंभीर है, जिससे वसूली मुश्किल हो जाती है।
- वर्तमान परिदृश्य में ARC की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका है और इसे भारतीय बैंकिंग उद्योग में व्याप्त बड़े पैमाने पर एनपीए की समस्या को हल करने के लिये मज़बूत किया जाना चाहिये।
- हालाँकि, ARC को एकमात्र विधि के रूप में नहीं देखा जा सकता है। सबसे कुशल तरीका यह होगा कि भारत की ‘बैड लोन’ की समस्या के विभिन्न हिस्सों के लिये समाधान तैयार किया जाए और अन्य सभी तरीकों के विफल होने पर केवल अंतिम उपाय के रूप में ARC का उपयोग किया जाए।
स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस
प्रधानमंत्री श्रम योगी मान-धन पेंशन योजना
प्रिलिम्स के लिये:PM-SYM, मिड डे मील योजना,कर्मचारी राज्य बीमा निगम मेन्स के लिये:असंगठित क्षेत्र में कार्यरत मज़दूरों हेतु सरकारी योजनाएँ |
चर्चा में क्यों?
श्रम और रोज़गार मंत्रालय के अनुसार, प्रधानमंत्री श्रम योगी मान-धन (PM-SYM) पेंशन योजना के तहत लगभग 46 लाख असंगठित श्रमिकों (Unorganised Workers) का पंजीकरण किया गया है।
असंगठित श्रमिक (Unorganised Worker)
- असंगठित श्रमिकों में प्रमुख रूप से रिक्शा चालक, स्ट्रीट वेंडर्स, मिड डे मील श्रमिक, हेड लोडर, ईंट भट्ठा श्रमिक, मोची, कचरा उठाने वाले, घरेलू कामगार, धोबी, घर से काम करने वाले श्रमिक, स्व-कर्मचारी, कृषि श्रमिक, निर्माण श्रमिक, बीड़ी श्रमिक, हथकरघा श्रमिक, चमड़ा श्रमिक, ऑडियो-वीडियो श्रमिक या इसी तरह के अन्य व्यवसायों में कार्यरत लोगों को शामिल किया जाता है।
- देश में ऐसे वर्गों में शामिल असंगठित श्रमिकों की संख्या 45 करोड़ अनुमानित हैं।
प्रमुख बिंदु:
- परिचय:
- PM-SYM श्रम और रोज़गार मंत्रालय द्वारा प्रशासित एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है और भारतीय जीवन बीमा निगम तथा सामुदायिक सेवा केंद्रों (CSC) के माध्यम से कार्यान्वित की जाती है।
- जीवन बीमा निगम (LIC) पेंशन फंड मैनेजर (Pension Fund Manager) होगी और पेंशन भुगतान के लिये उत्तरदायी होगी।
- PM-SYM श्रम और रोज़गार मंत्रालय द्वारा प्रशासित एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है और भारतीय जीवन बीमा निगम तथा सामुदायिक सेवा केंद्रों (CSC) के माध्यम से कार्यान्वित की जाती है।
- पात्रता:
- एक असंगठित श्रमिक (UW) होना चाहिये।
- मासिक आय 15000 रुपए या उससे कम।
- प्रवेश आयु 18 से 40 वर्ष के बीच।
- मोबाइल फोन, बचत बैंक खाता और आधार नंबर होना चाहिये।
- नई पेंशन योजना (NPS), कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ESIC) और कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) के लाभ के अंतर्गत कवर न किया गया हो।
- आयकर दाता नहीं होना चाहिये।
- प्रमुख विशेषताएँ:
- न्यूनतम निश्चित पेंशन (Minimum Assured Pension):
- PM-SYM के अंतर्गत प्रत्येक अभिदाता को 60 वर्ष की उम्र पूरी होने के बाद प्रति महीने न्यूनतम 3,000 रुपए की निश्चित पेंशन मिलेगी।
- परिवार को पेंशन (Family Pension):
- यदि पेंशन प्राप्ति के दौरान अभिदाता (subscriber) की मृत्यु हो जाती है तो लाभार्थी को मिलने वाली पेंशन की 50 प्रतिशत राशि फैमिली पेंशन के रूप में लाभार्थी के जीवनसाथी (Spouse) को मिलेगी।
- यदि लाभार्थी ने नियमित अंशदान किया है और किसी कारणवश उसकी मृत्यु (60 वर्ष की आयु से पहले) हो जाती है तो लाभार्थी का जीवनसाथी योजना में शामिल होकर नियमित अंशदान करके योजना को जारी रख सकता है या योजना से बाहर निकलने और वापसी के प्रावधानों के अनुसार योजना से बाहर निकल सकता है।
- अंशदानः
- अभिदाता का अंशदान उसके बचत बैंक खाता/जनधन खाता से ‘ऑटो डेबिट’ (auto-debit) सुविधा के माध्यम से किया जाएगा।
- PM-SYM 50:50 के अनुपात के आधार पर एक स्वैच्छिक तथा अंशदायी पेंशन योजना है, जिसमें निर्धारित आयु विशेष अंशदान (Age-Specific Contribution) लाभार्थी द्वारा किया जाएगा और जमा राशि के अनुसार बराबर का अंशदान केंद्र सरकार द्वारा किया जाएगा।
- न्यूनतम निश्चित पेंशन (Minimum Assured Pension):
- असंगठित क्षेत्र के लिये अन्य सरकारी योजनाएँ:
- श्रम सुधार
- प्रधानमंत्री रोज़गार प्रोत्साहन योजना (PMRPY)
- पीएम स्वनिधि: स्ट्रीट वेंडर्स हेतु माइक्रो क्रेडिट स्कीम
- आत्मनिर्भर भारत अभियान
- दीनदयाल अंत्योदय योजना राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन
- प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (PMGKAY)
- एक राष्ट्र एक राशन कार्ड
- आत्मनिर्भर भारत रोज़गार योजना
- प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि
- भारत के अनौपचारिक मज़दूर वर्ग को विश्व बैंक का समर्थन
स्रोत: पी.आई.बी.
देशद्रोह कानून
प्रिलिम्स के लियेIPC की धारा 124A मेन्स के लियेदेशद्रोह कानून और संबंधित मुद्दे |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में असम पुलिस द्वारा असम के असमिया और बंगाली भाषी लोगों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने के लिये एक पत्रकार पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया था।
प्रमुख बिंदु
- ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- राजद्रोह कानून को 17वीं शताब्दी में इंग्लैंड में अधिनियमित किया गया था, उस समय विधि निर्माताओं का मानना था कि सरकार के प्रति अच्छी राय रखने वाले विचारों को ही केवल अस्तित्व में या सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होना चाहिये, क्योंकि गलत राय सरकार और राजशाही दोनों के लिये नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न कर सकती थी।
- इस कानून का मसौदा मूल रूप से वर्ष 1837 में ब्रिटिश इतिहासकार और राजनीतिज्ञ थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था, लेकिन वर्ष 1860 में भारतीय दंड सहिता (IPC) लागू करने के दौरान इस कानून को IPC में शामिल नहीं किया गया।
- वर्तमान में राजद्रोह कानून की स्थिति: भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A के तहत राजद्रोह एक अपराध है।
- वर्तमान में राजद्रोह कानून
- IPC की धारा 124A
- यह कानून राजद्रोह को एक ऐसे अपराध के रूप में परिभाषित करता है जिसमें ‘किसी व्यक्ति द्वारा भारत में कानूनी तौर पर स्थापित सरकार के प्रति मौखिक, लिखित (शब्दों द्वारा), संकेतों या दृश्य रूप में घृणा या अवमानना या उत्तेजना पैदा करने का प्रयत्न किया जाता है।
- विद्रोह में वैमनस्य और शत्रुता की सभी भावनाएँ शामिल होती हैं। हालाँकि इस खंड के तहत घृणा या अवमानना फैलाने की कोशिश किये बिना की गई टिप्पणियों को अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता है।
- राजद्रोह के अपराध हेतु दंड
- राजद्रोह गैर-जमानती अपराध है। राजद्रोह के अपराध में तीन वर्ष से लेकर उम्रकैद तक की सज़ा हो सकती है और इसके साथ ज़ुर्माना भी लगाया जा सकता है।
- इस कानून के तहत आरोपित व्यक्ति को सरकारी नौकरी प्राप्त करने से रोका जा सकता है।
- आरोपित व्यक्ति को पासपोर्ट के बिना रहना होता है, साथ ही आवश्यकता पड़ने पर उसे न्यायालय में पेश होना ज़रूरी है।
- IPC की धारा 124A
- राजद्रोह कानून का महत्त्व:
- उचित प्रतिबंध::
- भारत का संविधान उचित प्रतिबंध (अनुच्छेद 19(2) के तहत) निर्धारित करता है जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के प्रति ज़िम्मेदार अभ्यास को सुनिश्चित करता है साथ ही यह भी सुनिश्चित करता है कि यह सभी नागरिकों के लिये समान रूप से उपलब्ध है।
- एकता और अखंडता बनाए रखना:
- राजद्रोह कानून सरकार को राष्ट्र-विरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों का मुकाबला करने में मदद करता है।
- राज्य की स्थिरता को बनाए रखना:
- यह चुनी हुई सरकार को हिंसा और अवैध तरीकों से सरकार को उखाड़ फेंकने के प्रयासों से बचाने में मदद करता है। कानून द्वारा स्थापित सरकार का निरंतर अस्तित्व राज्य की स्थिरता के लिये एक अनिवार्य शर्त है।
- उचित प्रतिबंध::
- राजद्रोह कानून से संबंधित मुद्दे:
- औपनिवेशिक युग का अवशेष:
- औपनिवेशिक प्रशासकों ने ब्रिटिश नीतियों की आलोचना करने वाले लोगों को रोकने के लिये राजद्रोह कानून का इस्तेमाल किया।
- लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, भगत सिंह आदि जैसे स्वतंत्रता आंदोलन के दिग्गजों को ब्रिटिश शासन के तहत उनके "राजद्रोही" भाषणों, लेखन और गतिविधियों के लिये दोषी ठहराया गया था।
- इस प्रकार राजद्रोह कानून का इतना व्यापक उपयोग औपनिवेशिक युग की याद दिलाता है।
- संविधान सभा का रूख:
- संविधान सभा संविधान में राजद्रोह को शामिल करने के लिये सहमत नहीं थी। सदस्यों का तर्क था कि यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करेगा।
- उन्होंने तर्क दिया कि लोगों के विरोध के वैध और संवैधानिक रूप से गारंटीकृत अधिकार को दबाने के लिये राजद्रोह कानून को एक हथियार के रूप में उपयोग किया जा सकता है।
- सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों की अवहेलना:
- सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1962 में केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में धारा 124A की संवैधानिकता पर अपना निर्णय दिया। इसने देशद्रोह की संवैधानिकता को बरकरार रखा लेकिन इसे अव्यवस्था पैदा करने का इरादा, कानून और व्यवस्था की गड़बड़ी तथा हिंसा के लिये उकसाने की गतिविधियों तक सीमित कर दिया।
- इस प्रकार, शिक्षाविदों, वकीलों, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं और छात्रों के खिलाफ देशद्रोह का आरोप लगाना सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना है।
- लोकतांत्रिक मूल्यों का दमन:
- भारत को तेजी उभरते एक निर्वाचित निरंकुश राज्य के रूप में वर्णित किया जा रहा है, मुख्य रूप से राजद्रोह कानून के कठोर और गणनात्मक उपयोग के कारण।
- औपनिवेशिक युग का अवशेष:
- हालिया विकास:
- फरवरी 2021 में सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court) ने एक राजनीतिक नेता और छह वरिष्ठ पत्रकारों को उनके खिलाफ दर्ज राजद्रोह के कई मामलो में गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान किया है।
- जून 2021 में, सर्वोच्च न्यायालय ने आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा दो तेलुगु (भाषा) समाचार चैनलों को जबरदस्ती कार्रवाई से संरक्षण प्रदान करते हुए राजद्रोह की सीमा को परिभाषित करने पर ज़ोर दिया।
- जुलाई 2021 में, सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई थी, जिसमें देशद्रोह कानून पर फिर से विचार करने की मांग की गई थी।
- न्यायालय ने कहा, "सरकार के प्रति असंतोष” की असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट परिभाषाओं के आधार पर स्वतंत्र अभिव्यक्ति का अपराधीकरण करने वाला कोई भी कानून अनुच्छेद 19 (1) (अ) के तहत गारंटीकृत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर अनुचित प्रतिबंध है और संवैधानिक रूप से अनुमेय भाषण पर 'द्रुतशीतन प्रभाव' (Chilling Effect) का कारण बनता है।
आगे की राह:
- IPC की धारा 124A की उपयोगिता राष्ट्रविरोधी, अलगाववादी और आतंकवादी तत्त्वों से निपटने में है। हालांँकि, सरकार के निर्णयों से असहमति और आलोचना एक जीवंत लोकतंत्र में मज़बूत सार्वजनिक बहस का आवश्यक तत्त्व हैं। इन्हें देशद्रोह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिये।
- उच्च न्यायपालिका को अपनी पर्यवेक्षी शक्तियों का उपयोग मजिस्ट्रेट और पुलिस को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के प्रति संवेदनशील बनाने हेतु करना चाहिये।
- राजद्रोह की परिभाषा को केवल भारत की क्षेत्रीय अखंडता के साथ-साथ देश की संप्रभुता से संबंधित मुद्दों को शामिल करने के संदर्भ में संकुचित किया जाना चाहिये।
- देशद्रोह कानून के मनमाने इस्तेमाल के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए नागरिक समाज को पहल करनी चाहिये।
- भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार लोकतंत्र का एक अनिवार्य घटक है जो अभिव्यक्ति या विचार उस समय की सरकार की नीति के अनुरूप नहीं हो उसे देशद्रोह नहीं माना जाना चाहिये।
- देशद्रोह' शब्द अत्यंत संवेदनशील है और इसे सावधानी के साथ लागू करने की आवश्यकता है।
स्रोत: द हिंदू
बाँध सुरक्षा विधेयक, 2019
प्रिलिम्स के लिये:केंद्रीय जल आयोग, बाँध सुरक्षा विधेयक, 2019, राष्ट्रीय बाँध सुरक्षा प्राधिकरण मेन्स के लिये:बाँध सुरक्षा विधेयक, 2019 की प्रमुख विशेषताएँ, इसकी आवश्यकता एवं महत्त्व |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में संसद ने देश भर में सभी निर्दिष्ट बाँधों की निगरानी, निरीक्षण, परिचालन और रखरखाव के लिये बाँध सुरक्षा विधेयक, 2019 को मंज़ूरी दे दी है।
प्रमुख बिंदु
- विधेयक की मुख्य विशेषताएँ:
- राष्ट्रीय बाँध सुरक्षा समिति: विधेयक राष्ट्रीय बाँध सुरक्षा समिति की स्थापना का प्रावधान करता है। समिति की अध्यक्षता केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष द्वारा की जाएगी।
- समिति के कार्यों में बाँध सुरक्षा मानदंडों से संबंधित नीतियाँ एवं विनियम बनाना तथा बाँधों को क्षतिग्रस्त होने से रोकना एवं बड़े बाँधों के टूटने के कारणों का विश्लेषण करना एवं बाँध सुरक्षा प्रणालियों में बदलाव का सुझाव देना शामिल होगा।
- राष्ट्रीय बाँध सुरक्षा प्राधिकरण: विधेयक एक राष्ट्रीय बाँध सुरक्षा प्राधिकरण (National Dam Safety Authority -NDSA) की स्थापना का प्रावधान करता है। इस प्राधिकरण का प्रमुख एडिशनल सेक्रेटरी से नीचे के स्तर का अधिकारी नहीं होगा एवं इसे केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किया जाएगा।
- राष्ट्रीय बाँध सुरक्षा प्राधिकरण के मुख्य कार्य में राष्ट्रीय बाँध सुरक्षा समिति द्वारा निर्मित नीतियों को लागू करना शामिल है। राज्य बाँध सुरक्षा संगठनों (SDSOs) के बीच और SDSOs एवं उस राज्य के किसी बाँध मालिक के बीच विवादों को सुलझाना, बाँधों के निरीक्षण और जाँच के लिये विनियम को निर्दिष्ट करना।
- NDSA बाँधों के निर्माण, डिज़ाइन तथा उनमें परिवर्तन पर काम करने वाली एजेंसियों को मान्यता (Accreditation) देगी।
- राज्य बाँध सुरक्षा संगठन: प्रस्तावित कानून में राज्य सरकारों द्वारा राज्य बाँध सुरक्षा संगठनों (State Dam Safety Organisation- SDSOs) की स्थापना की जाएगी जिसका कार्य बाँधों की निरंतर चौकसी एवं निरीक्षण करना तथा उनके परिचालन एवं रखरखाव पर निगरानी रखना, सभी बाँधों का डेटाबेस रखना और बाँध मालिकों को सुरक्षा उपायों की सिफारिश करना होगा।
- बाँध मालिकों की दायित्व: विधेयक में निर्दिष्ट बाँध मालिकों से यह अपेक्षा की गई है कि वे प्रत्येक बाँध के लिये एक सुरक्षा इकाई स्थापित करे। यह इकाई मानसून सत्र से पहले और बाद में एवं प्रत्येक भूकंप, बाढ़, या किसी अन्य आपदा या संकट के संकेत के दौरान और बाद में बाँधों का निरीक्षण करेगी।
- बाँध मालिकों से एक आपातकालीन कार्ययोजना तैयार करने और प्रत्येक बाँध के लिये निर्दिष्ट अंतराल पर नियमित जोखिम आकलन करने की अपेक्षा की जाएगी।
- बाँध मालिकों द्वारा नियमित अंतराल पर एक विशेषज्ञ पैनल के जरिये प्रत्येक बाँध का व्यापक सुरक्षा मूल्यांकन किया जाएगा।
- सज़ा: विधेयक में दो प्रकार के अपराधों का उल्लेख है- किसी व्यक्ति को उसके कार्यों के निर्वहन में बाधा डालना और प्रस्तावित कानून के अंतर्गत जारी निर्देशों के अनुपालन से इनकार करना।
- अपराधियों को एक वर्ष तक का कारावास या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा। अगर अपराध के कारण किसी की मृत्यु हो जाती है तो कारावास की अवधि दो वर्ष हो सकती है।
- अपराध संज्ञेय तभी होंगे जब शिकायत सरकार द्वारा या विधेयक के अंतर्गत गठित किसी प्राधिकरण द्वारा की जाए।
- राष्ट्रीय बाँध सुरक्षा समिति: विधेयक राष्ट्रीय बाँध सुरक्षा समिति की स्थापना का प्रावधान करता है। समिति की अध्यक्षता केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष द्वारा की जाएगी।
- आवश्यकता
- बाँधों का कालिक क्षय:
- बाँधों की संख्या के मामलें में भारत विश्व में तीसरे स्थान पर है। देश में 5,745 जलाशय हैं जिनमें से 293 जलाशय 100 साल से अधिक पुराने हैं। बाँध सुरक्षा के लिये कई चुनौतियाँ हैं और कुछ मुख्य रूप से बाँधों की लंबी उम्र के कारण हैं।
- जैसे-जैसे बाँध पुराने होते जाते हैं, उनका डिजाइन, जल विज्ञान और बाकी सब कुछ नवीनतम समझ और प्रथाओं के अनुरूप नहीं रहता है।
- बाँधों में भारी गाद जमा होती जाती है जिससे इनकी जल धारण क्षमता कम होती जा रही है।
- बाँध प्रबंधकों पर निर्भरता:
- बाँधों का विनियमन पूरी तरह से व्यक्तिगत बाँध प्रबंधकों पर निर्भर है। डाउनस्ट्रीम जल की आवश्यकता या पहले से मौजूद प्रवाह के प्रकार के संदर्भ में कोई व्यवस्थितकरण और कोई वास्तविक समझ नहीं है।
- विभिन्न कारकों पर विचार नहीं किया जाना:
- बाँध सुरक्षा कई कारकों पर निर्भर है जैसे कि भूदृश्य, भूमि उपयोग परिवर्तन, वर्षा के पैटर्न, संरचनात्मक विशेषताएँ आदि। बाँध की सुरक्षा सुनिश्चित करने में सरकार द्वारा सभी कारकों को ध्यान में नहीं रखा गया है।
- बाँधों की विफलताएँ:
- उचित बाँध सुरक्षा संस्थागत ढाँचे के अभाव में बाँधों की जाँच, डिजाइन, निर्माण, संचालन और रखरखाव में विभिन्न प्रकार की कमियाँ शामिल हो सकती हैं। इस तरह की कमियों से गंभीर घटनाएँ होती हैं और कभी-कभी बाँध टूट जाता है।
- वर्ष 1917 में तिगरा बाँध (मध्य प्रदेश) की विफलता के साथ बाँधों की विफलताओं की शुरुआत हुई और अब तक लगभग 40 बड़े बाँधों के विफल होने की सूचना है। नवंबर 2021 में अन्नामय्या बाँध (आंध्र प्रदेश) की विफलता का सबसे हालिया मामला 20 लोगों की मौत का कारण बना है।
- सामूहिक रूप से इन विफलताओं के चलते हज़ारों मौतें और विशाल आर्थिक नुकसान देखने को मिला है।
- बाँधों का कालिक क्षय:
- महत्त्व:
- एकरूपता लाना:
- सरकार चाहती है कि एक विशेष प्रकार के बड़े बाँधों के लिये सभी बाँध मालिकों द्वारा पालन की जाने वाली प्रक्रियाओं में एकरूपता हो।
- सख्त दिशा-निर्देश प्रदान करता है:
- पानी, राज्य का विषय है और यह विधेयक किसी भी तरह से राज्य के अधिकार को नहीं छीनता है। विधेयक दिशा-निर्देशों को सुनिश्चित करने के लिये एक तंत्र प्रदान करता है।
- इसमें बाँध सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये प्री व पोस्ट-मानसून निरीक्षण सहित कई प्रोटोकॉल हैं। हालाँकि अब तक ये प्रोटोकॉल कानूनी रूप से अनिवार्य नहीं हैं और संबंधित एजेंसियों (केंद्रीय एवं राज्य बाँध सुरक्षा संगठनों सहित) के पास इन्हें लागू करने की कोई शक्ति नहीं है।
- गुणवत्ता सुनिश्चित करना:
- अब तक विभिन्न ठेकेदारों, डिज़ाइनरों और योजनाकारों की व्यावसायिक दक्षता का मूल्यांकन कभी नहीं किया गया है और यही कारण है कि आज भारत के बाँधों में डिज़ाइन की समस्या है। विधेयक एक ऐसा तंत्र प्रदान करता है जहाँ निर्माण और रखरखाव में भाग लेने वाले लोगों को ध्यान में रखा जाना चाहिये।
- सुरक्षा:
- बाँधों के क्षतिग्रस्त होने का खतरा हमेशा बना रहता है और इसलिए उनकी सुरक्षा बहुत महत्त्वपूर्ण है। विधेयक में बाँध सुरक्षा मानकों के निर्माण का प्रावधान है।
- एकरूपता लाना:
- चिंता:
- विसंगत:
- केंद्रीय जल आयोग सभी बाँध परियोजनाओं के तकनीकी-आर्थिक मूल्यांकन के लिये ज़िम्मेदार होगा। इसे उसी परियोजना (यदि परियोजना विफल हो जाती है) का ऑडिट करने का भी अधिकार है।
- यह अपने मामले में स्वयं न्यायाधीश के रूप में कार्य करने जैसा है।
- क्षतिपूर्ति पर निरुत्तर:
- बाँध परियोजनाओं से प्रभावित लोगों को क्षतिपूर्ति के लिये भुगतान पर विधेयक निरुत्तर है।
- संघीय ढाँचे में हस्तक्षेप:
- राज्यों ने आरोप लगाया कि यह असंवैधानिक है इसलिये इसकी जाँच की जानी चाहिये क्योंकि और राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण करता है। विधेयक के कुछ प्रावधान संघीय ढाँचे में हस्तक्षेप करते हैं।
- विसंगत:
विधेयक की संवैधानिक वैधता
- हालाँकि जल को राज्य सूची की प्रविष्टि-17 में रखा गया है, केंद्र ने संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत संघ सूची की प्रविष्टि 56 और प्रविष्टि 97 के साथ कानून प्रस्तुत किया है।
- राज्य सूची, प्रविष्टि 17: जल, अर्थात् जल आपूर्ति, सिंचाई और नहरें, जल निकासी एवं तटबंध, जल भंडारण व जल शक्ति सूची I की प्रविष्टि 56 के प्रावधानों के अधीन है।
- सूची I की प्रविष्टि, 56 संसद को अंतर-राज्यीय नदियों व नदी घाटियों के नियमन पर कानून बनाने की अनुमति देती है जो इस तरह के विनियमन को सार्वजनिक हित में समीचीन घोषित करती है।
- अनुच्छेद 246 संसद को संविधान की सातवीं अनुसूची में संघ सूची की सूची I में सूचीबद्ध किसी भी मामले पर कानून बनाने का अधिकार देता है।
- प्रविष्टि 97 संसद को सूची II या सूची III में सूचीबद्ध किसी भी अन्य मामले पर कानून बनाने की अनुमति देता है, जिसमें कर सहित उन सूचियों में से किसी में भी उल्लेख नहीं किया गया है।
आगे की राह
- चूँकि बाँध की सुरक्षा कई बाहरी कारकों पर निर्भर है, इसलिये पर्यावरणविदों और पर्यावरण के दृष्टिकोण को ध्यान में रखा जाना चाहिये। बदलती जलवायु के साथ पानी के मुद्दे पर सावधानीपूर्वक और सटीक रूप से विचार करना आवश्यक है।
- राज्य के सिंचाई विभाग और केंद्रीय जल आयोग को मज़बूत करने की आवश्यकता है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिये कि बाँधों का निरीक्षण संबंधित राज्य की सरकार करे।
- बाँधों के मामले में विफलताओं से बचने के लिये एक निवारक तंत्र आवश्यक है क्योंकि यदि बाँध निर्माण के उद्देश्यों में विफलता प्राप्त होती है तो कितनी बड़ी सज़ा क्यों न दी जाए वह जीवन के नुकसान की भरपाई नहीं कर सकती है।
स्रोत: द हिंदू
भारतीय राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण
प्रिलिम्स के लिये:सर्वोच्च न्यायालय, भारत के मुख्य न्यायाधीश, राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण मेन्स के लिये:राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण की आवश्यकता |
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा भारतीय राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण (National Judicial Infrastructure Authority of India- NJIAI) के निर्माण का प्रस्ताव रखा गया है।
प्रमुख बिंदु
- राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण (NJIAI):
- राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण के बारे में:
- प्रस्तावित NJIAI एक केंद्रीय एजेंसी के रूप में कार्य करेगा, जिसमें राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) मॉडल की तरह प्रत्येक राज्य का अपना राज्य न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण होगा।
- NALSA का गठन समाज के कमज़ोर वर्गों को मुफ्त और सक्षम कानूनी सेवाएंँ प्रदान करने हेतु एक राष्ट्रव्यापी नेटवर्क स्थापित करने के लिये किया गया था।
- देश में अधीनस्थ न्यायालयों के बजट और बुनियादी ढांँचे के विकास का नियंत्रण NJIAI के अंतर्गत होगा।
- NALSA (नालसा) जो कानून और न्याय मंत्रालय द्वारा सेवित है के विपरीत प्रस्तावित NJIAI को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अधीन रखा जाना जाएगा।
- यह किसी बड़े नीतिगत बदलाव का सुझाव नहीं देगा, लेकिन ज़मीनी स्तर पर अदालतों को मज़बूती प्रदान करने हेतु चल रही परियोजनाओं में सर्वोच्च न्यायालय को साथ आने की पूरी स्वतंत्रता प्रदान करेगा।
- प्रस्तावित NJIAI एक केंद्रीय एजेंसी के रूप में कार्य करेगा, जिसमें राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) मॉडल की तरह प्रत्येक राज्य का अपना राज्य न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण होगा।
- सदस्य:
- NJIAI में कुछ उच्च न्यायालय के न्यायाधीश तथा कुछ केंद्र सरकार के अधिकारी शामिल होगे क्योंकि केंद्र को यह भी मालूम होना चाहिये कि धन का उपयोग कहांँ किया जा रहा है।
- इसी प्रकार राज्य न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण में संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त एक मनोनीत न्यायाधीश, चार से पांँच ज़िला न्यायालय के न्यायाधीश तथा राज्य सरकार के अधिकारी सदस्य शामिल होगे।
- राष्ट्रीय न्यायिक अवसंरचना प्राधिकरण के बारे में:
- NJIAI की आवश्यकता:
- निधियों का प्रबंधन करने के लिये:
- न्यायालयों में बुनियादी ढाँचे के विकास के लिये राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिये केंद्र प्रायोजित योजना (CSS) के तहत वर्ष 2019-20 में स्वीकृत कुल 981.98 करोड़ रुपए में से केवल 84.9 करोड़ रुपए ही पाँच राज्यों द्वारा संयुक्त रूप से उपयोग में लाए गए, शेष 91.36% धन अप्रयुक्त रहा।
- भारतीय न्यायपालिका के साथ लगभग तीन दशकों (जब 1993-94 में CSS को पेश किया गया था) से यह मुद्दा बना हुआ है।
- न्यायालयों में बुनियादी ढाँचे के विकास के लिये राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिये केंद्र प्रायोजित योजना (CSS) के तहत वर्ष 2019-20 में स्वीकृत कुल 981.98 करोड़ रुपए में से केवल 84.9 करोड़ रुपए ही पाँच राज्यों द्वारा संयुक्त रूप से उपयोग में लाए गए, शेष 91.36% धन अप्रयुक्त रहा।
- मुकदमों की बढ़ती संख्या को प्रबंधित करने के लिये:
- भारतीय न्यायपालिका का बुनियादी ढाँचा हर साल दायर होने वाले मुकदमों की बड़ी संख्या के साथ तालमेल नहीं रखता है।
- इस बात की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि देश में न्यायिक अधिकारियों की कुल स्वीकृत संख्या 24,280 है, लेकिन उपलब्ध न्यायालय कक्षों की संख्या केवल 20,143 है, जिसमें 620 किराए के हॉल शामिल हैं।
- भारतीय न्यायपालिका का बुनियादी ढाँचा हर साल दायर होने वाले मुकदमों की बड़ी संख्या के साथ तालमेल नहीं रखता है।
- बृहत्तर स्वायत्तता के लिये:
- न्यायिक बुनियादी ढाँचे का सुधार और रख-रखाव अभी भी तदर्थ और अनियोजित तरीके से किया जा रहा है।
- इस हेतु "न्यायपालिका की वित्तीय स्वायत्तता" और NJIAI (जो एक केंद्रीय एजेंसी के रूप में स्वायत्तता के साथ काम करेगी) के निर्माण की आवश्यकता है।
- न्यायिक बुनियादी ढाँचे का सुधार और रख-रखाव अभी भी तदर्थ और अनियोजित तरीके से किया जा रहा है।
- निधियों का प्रबंधन करने के लिये:
- अवसंरचनात्मक रूप से पीछे रहने के कारण:
- वित्त की कमी:
- न्यायिक बुनियादी ढाँचे को विकसित करने के लिये, केंद्र सरकार और राज्यों द्वारा न्यायपालिका के बुनियादी ढाँचे संबंधी विकास हेतु केंद्र प्रायोजित योजना, जिसकी शुरुआत वर्ष 1993 में हुई और जुलाई 2021 में अगले पाँच वर्षों के लिये बढ़ा दिया गया था।
- हालाँकि राज्य अपने हिस्से का धन उपलब्ध नहीं कराते हैं जिसके परिणामस्वरूप, उनके द्वारा योजना के तहत आवंटित धन का व्यय नहीं हो पाता है और यह व्यपगत हो जाता है।
- गैर-न्यायिक उद्देश्यों के लिये निधियों का उपयोग:
- कुछ मामलों में, राज्यों द्वारा यह दावा किया गया है कि उन्होंने गैर-न्यायिक उद्देश्यों के लिये फंड का हिस्सा भी स्थानांतरित किया है।
- यहाँ तक कि न्यायपालिका, विशेष रूप से निचली अदालतों में, कोई भी बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के क्रियान्वयन की ज़िम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है।
- कुछ मामलों में, राज्यों द्वारा यह दावा किया गया है कि उन्होंने गैर-न्यायिक उद्देश्यों के लिये फंड का हिस्सा भी स्थानांतरित किया है।
- वित्त की कमी:
भारत में न्यायपालिका से संबद्ध मुद्दे
- देश में न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात बहुत प्रशंसनीय नहीं है।
- जबकि अन्य देशों में, यह अनुपात लगभग 50-70 न्यायाधीश प्रति मिलियन व्यक्ति है, भारत में यह अनुपात 20 न्यायाधीश प्रति मिलियन व्यक्ति है।
- महामारी के बाद से ही न्यायालयी कार्यवाही भी वस्तुतः होने लगी है, पहले न्यायपालिका में प्रौद्योगिकी की भूमिका ज़्यादा बड़ी नहीं थी।
- न्यायपालिका में पदों को आवश्यकतानुसार शीघ्रता से नहीं भरा जाता है।
- उच्च न्यायपालिका के लिये कॉलेजियम द्वारा की जाने वाली सिफारिशों में देरी के कारण न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया में देरी होती है।
- निचली अदालतों के लिये राज्य आयोग/उच्च न्यायालयों द्वारा भर्ती में होने वाली देरी भी खराब न्यायिक व्यवस्था का एक कारण है।
- अदालतों द्वारा अधिवक्ताओं को बार-बार स्थगन दिया जाता है जिससे न्याय में अनावश्यक देरी होती है।
आगे की राह
- भारत में न्यायालयों द्वारा बार-बार व्यक्तियों के अधिकारों एवं स्वतंत्रता को बरकरार रखा गया है और ये व्यक्तियों या समाज के साथ उस स्थिति में भी खड़ी रही हैं जब कार्यपालिका द्वारा लिये गए फैसलों का दुष्प्रभाव उन पर पड़ा हो।
- यदि हम न्यायिक प्रणाली से भिन्न परिणाम चाहते हैं, तो हम इन परिस्थितियों में काम करना जारी नहीं रख सकते।
- आज़ादी के इस 75 वें वर्ष में अपनी जनता और अपने देश कोअत्याधुनिक न्यायिक अवसंरचना के सृजन और उसे आगे बढ़ाने हेतु तंत्र/प्रक्रियाओं को संस्थागत बनाना सबसे अच्छा उपहार हो सकता है।
- CSS योजना पूरे देश में ज़िला और अधीनस्थ न्यायालयों के न्यायाधीशों/न्यायिक अधिकारियों के लिये सुसज्जित कोर्ट हॉल और आवास की उपलब्धता में वृद्धि करेगी।
- डिजिटल कंप्यूटर रूम की स्थापना से डिजिटल क्षमताओं में भी सुधार होगा और भारत के डिजिटल इंडिया विज़न के एक हिस्से के रूप में डिजिटलीकरण की पहल को बढ़ावा मिलेगा।