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भारतीय राजव्यवस्था

असहमति का अधिकार

  • 24 Feb 2021
  • 11 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमति के अधिकार का महत्त्व व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ: 

हाल ही में देश में किसानों द्वारा किये जा रहे विरोध प्रदर्शनों की पृष्ठभूमि में सर्वोच्च न्यायालय में पिछले वर्ष दिल्ली के शाहीन बाग क्षेत्र में हुए विरोध प्रदर्शनों पर एक समीक्षा याचिका दायर की गई है। न्यायालय ने अपने पूर्व के फैसले की समीक्षा करने से इनकार कर दिया, जिसमें कहा गया था कि किसी व्यक्ति को विरोध करने का पूर्ण/अनिवार्य अधिकार नहीं है और यह स्थान तथा समय के संदर्भ में प्राधिकारी के आदेशों के अधीन हो सकता है।

यह राज्य की सुरक्षा, स्वतंत्रता और उत्तरदायित्त्व तथा नैतिकता के बीच की रस्साकशी पर एक बार पुनः हमारा ध्यान आकर्षित करता है। जहाँ एक तरफ यह सरकार की ज़िम्मेदारी है कि वह यह सुनिश्चित करे की कोई भी विरोध प्रदर्शन हिंसक अराजकता में न बदलने पाए। वहीं दूसरी तरफ सार्वजनिक विरोध प्रदर्शन एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक समाज की पहचान हैं, जो यह मांग करता है कि सत्ता में बैठे लोगों द्वारा आम जनता की आवाज़ सुनी जानी चाहिये तथा उचित चर्चा और परामर्श के बाद निर्णय लिये जाने चाहिये। 

इस दुविधा के बावजूद भारतीय समाज के लोकतांत्रिक ताने-बाने को संरक्षित करने के लिये देश के लोकतांत्रिक प्रणाली से जुड़े हितधारकों का यह उत्तरदायित्त्व है कि संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत प्रदान किये गए स्वतंत्रता के किसी भी अधिकार को गंभीर रूप से क्षति नहीं पहुँचनी चाहिये।  

असहमति का महत्त्व: 

  • मौलिक अधिकार: भारतीय संविधान में नागरिकों को शांतिपूर्ण ढंग से विरोध प्रदर्शन करने का अधिकार प्रदान किया गया है, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(a) वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान करता है तथा अनुच्छेद 19(1)(b) नागरिकों को बगैर हथियार के एवं शांतिपूर्वक ढंग से इकट्ठा होने का अधिकार देता है।    
  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: भारतीय संविधान की पृष्ठभूमि उसके (भारत के) उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष से बनी है, जिसके भीतर एक राजनीतिक सार्वजनिक क्षेत्र और लोकतांत्रिक संविधान के बीज बोए गए थे।
    • भारतीयों ने औपनिवेशिक नीतियों और कानूनों पर सार्वजनिक रूप से अपने विचार व्यक्त करने तथा उनके खिलाफ एक सार्वजनिक राय बनाने के लिये बहुत ही कठोर एवं लंबा संघर्ष किया है।
  • शक्ति के दुरुपयोग की जाँच:  संघ या समूह बनाने का अधिकार राजनीतिक उद्देश्यों के लिये समूह बनाने हेतु आवश्यक है- उदाहरण के लिये सामूहिक रूप से सरकार के फैसलों को चुनौती देना और यहाँ तक कि शांतिपूर्वक तथा कानूनी तौर पर सरकार को अपदस्थ करने का प्रयास,  न केवल शक्ति के दुरुपयोग की जाँच करने बल्कि इस पर प्रश्न उठाने आदि मामलों में।   
    • शांतिपूर्वक इकट्ठा होने का अधिकार राजनीतिक दलों और नागरिक निकायों जैसे- विश्वविद्यालय से जुड़े छात्र समूहों को प्रदर्शनों, आंदोलन तथा सार्वजनिक बैठकों के माध्यम से सरकार के निर्णयों पर प्रश्न उठाने, आपत्ति जताने व  निरंतर विरोध आंदोलनों को शुरू करने में सक्षम बनाता है। 
  • लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में नागरिक:  लोग लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में कार्य करते हैं और सरकारों के निर्णयों की लगातार निगरानी करते हैं, जो सरकारों को उनकी नीतियों और कार्यप्रणाली के बारे में प्रतिक्रिया प्रदान करता है, जिसके बाद संबंधित सरकार परामर्श, बैठकों और चर्चा के माध्यम से अपनी गलतियों को चिह्नित करते हुए उन्हें सुधारती है।
  • सुप्रीम कोर्ट का पर्यवेक्षण: रामलीला मैदान घटना बनाम गृह सचिव, भारतीय संघ और अन्य मामले  (वर्ष 2012) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, नागरिकों का इकठ्ठा होकर शांतिपूर्ण विरोध करना एक मौलिक अधिकार है जिसे एक मनमानी कार्यकारी या विधायी कार्रवाई द्वारा छीना नहीं जा सकता है।

असहमति के अधिकार की चुनौतियाँ:  

सरकार के प्रस्तावों या निर्णयों को चुनौती देने के लिये की गई कोई भी सार्वजनिक कार्रवाई तब तक ही संवैधानिक रूप से वैध है, जब तक कि यह शांतिपूर्वक ढंग से की जाती है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(2) लोगों के बगैर हथियार के और शांतिपूर्वक इकट्ठा होने के अधिकार पर पर्याप्त प्रतिबंध लगाता है।

ये प्रतिबंध भारत की संप्रभुता और अखंडता, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता या नैतिकता या न्यायालय की अवमानना, या उकसावे आदि मामलों में लगाए जा सकते हैं।

  • हालाँकि हालिया समीक्षा याचिका में याचिकाकर्त्ताओं ने कहा कि शाहीन बाग मामले में सार्वजनिक स्थान पर अनिश्चितकालीन कब्ज़े के खिलाफ दिया गया फैसला पुलिस के लिये वास्तविक कारणों से प्रेरित/ संबंधित विरोध प्रदर्शनों  के मामले में अत्याचार करने का एक लाइसेंस साबित हो सकता है। 
  • गौरतलब है कि हाल ही में न केवल प्रदर्शनकारी किसानों बल्कि उनके समर्थक जिनमें हास्य कलाकार और पत्रकार भी शामिल थे, पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया था।
  • इसके अतिरिक्त ऐसे अधिकारों के प्रयोग पर कोई भी मनमाना अवरोध - उदाहरण के लिये धारा 144 लागू करना आदि  असंतोष/असहमति को सहन करने में सरकार की अक्षमता को दर्शाता है। 

आगे की राह:  

  • सक्रिय न्यायपालिका: संवैधानिक मामलों में एक निष्पक्ष और प्रभावी न्यायिक तंत्र सड़कों पर होने वाले आंदोलनों को  प्रभावी रूप से रोक सकता है।
    • अध्ययनों से पता चला है कि जब निष्पक्ष मुकदमों के माध्यम से मुद्दों को प्रभावी ढंग से हल किया जा सकता है, तो उस स्थिति में सामाजिक आंदोलन कम आक्रामक और कम विरोधी हो सकते हैं।
    • इसके अलावा न्यायालयों को समय पर अधिनिर्णयन सुनिश्चित करने की आवश्यकता है, क्योंकि यदि समय पर कानून द्वारा मान्यता प्राप्त प्रक्रिया के तहत विवादित कानूनों की वैधता पर विचार या अधिनिर्णयन किया गया होता, तो सड़कों पर आंदोलनों की तीव्रता को संभवतः कम किया जा सकता था।
  • सार्वजनिक जाँच प्रणाली की स्थापना: यूनाइटेड किंगडम में एक मज़बूत सार्वजनिक जाँच प्रणाली मौजूद है जो पारिस्थितिक मांगों को संसाधित करने और उन्हें राजनीतिक प्रणाली में एकीकृत करने का कार्य करती है, इस प्रकार यह प्रणाली लोगों के बहिष्करण और इन्हें हाशिये पर छोड़ दिये जाने के कारण उत्पन्न होने वाले आंदोलनों के कट्टरपंथीकरण को कम करती है। 
  • नागरिक संस्कृति को अपनाना: नागरिकों को भी प्रशासन के कार्यों में सहयोग देते हुए एक नागरिक संस्कृति को अपनाने की आवश्यकता है जो राज्य के अधिकार की स्वीकृति और नागरिक कर्तव्यों के प्रति भागीदारी में विश्वास रखती है।   

निष्कर्ष: 

सार्वजनिक विरोध में भाग लेने के लिये वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,  समूह बनाने  और शांतिपूर्ण ढंग से एकत्र होने का अधिकार बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इस संदर्भ में सार्वजनिक रूप से चर्चा करने की आवश्यकता है, अब समय आ गया है जब अनुच्छेद 19 (2) में उल्लिखित उचित प्रतिबंधों को समीक्षा के तहत लाया जाना चाहिये।

अभ्यास प्रश्न:  शांतिपूर्ण प्रदर्शन की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक प्रणाली का एक अनिवार्य तत्त्व है और विचारों की अभिव्यक्ति तथा उनके प्रसार के लिये सार्वजनिक सड़कें ‘प्राकृतिक’ एवं सबसे उपयुक्त स्थान हैं। आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये।

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