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जैव विविधता और पर्यावरण

जलवायु परिवर्तन और हिमनदों का क्षरण

  • 06 Mar 2021
  • 15 min read

इस Editorial में The Hindu, The Indian Express, Business Line आदि में प्रकाशित लेखों का विश्लेषण किया गया है। इस लेख में प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन और हाल के वर्षों में प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति में हुई वृद्धि के बीच संबंध व इससे संबंधित विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की गई है। आवश्यकतानुसार, यथास्थान टीम दृष्टि के इनपुट भी शामिल किये गए हैं।

संदर्भ: 

विकास के मामले में मनुष्य ने एक लंबी यात्रा तय कर ली है, परंतु दुर्भाग्यवश हमने इस यात्रा के दौरान प्रकृति से जुड़ी चिंताओं को पीछे छोड़ दिया है। 

वर्तमान में नीति निर्माताओं और जनता द्वारा प्राकृतिक आपदाओं को "ईश्वरीय कृत्य" या “एक्ट ऑफ गॉड” की संज्ञा देना बहुत ही सामान्य बात हो गई है। परंतु वर्ष 2013 में केदारनाथ में आई बाढ़ और हाल में चमोली में फ्लैश फ्लड जैसी घटनाओं से पता चलता है कि ये आपदाएँ वास्तव में ईश्वरीय कृत्य नहीं बल्कि प्राकृतिक पर्यावरण के साथ मानवीय हस्तक्षेपों का परिणाम थीं।

प्रशासन और जनता द्वारा अपनाई जाने वाली जलवायु कार्रवाइयाँ तब तक कमज़ोर पड़ती रहेंगी जब तक ऐसी आपदाओं के लिये ईश्वर की बजाय जलवायु परिवर्तन को मुख्य कारक के रूप में नहीं देखा जाता।

जलवायु परिवर्तन: 

  • हिमालयी क्षेत्र में बाढ़: हिमालय क्षेत्र में लगभग 15,000 ग्लेशियर हैं, जो प्रति दशक 100 से 200 फीट की दर से पिघल रहे हैं।
    • हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने के कारण उत्तराखंड के चमोली ज़िले में आई बाढ़ और भूस्खलन को ग्लोबल वार्मिंग से जोड़कर देखा जा रहा है।
    • वर्ष 2013 में केदारनाथ में मानसून के महीनों के दौरान ग्लेशियल फ्लड (Glacial Flood) के कारण 6,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई।
  • अन्य घटनाएँ: वर्ष 2003 में तापमान में अत्यधिक वृद्धि और लू के कारण यूरोप में 70,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हो गई।
    • वर्ष 2015-19 वैश्विक स्तर पर अब तक रिकॉर्ड किये गए सबसे गर्म वर्ष रहे हैं।
    • वर्ष 2019 में अमेज़न के वनों में लगी आग और वर्ष 2019-20 में ऑस्ट्रेलिया में वनाग्नि की घटना जलवायु परिवर्तन के सबसे खतरनाक प्रभावों के प्रमुख उदाहरणों में शामिल हैं।
  • वैश्विक उत्सर्जन: संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) द्वारा जारी ‘उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट (Emission Gap Report) 2020’  दर्शाती है कि वर्ष 2020 ने मौसम संबंधी चरम घटनाओं की वृद्धि के संदर्भ में नए रिकॉर्ड स्थापित किये हैं, जिसमें वनाग्नि और तूफान, दोनों ध्रुवों पर ग्लेशियरों तथा बर्फ का पिघलना शामिल है।
    • रिपोर्ट के अनुसार, COVID-19 महामारी के कारण कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन में थोड़ी गिरावट के बावजूद विश्व अभी भी इस सदी में 3°C से अधिक तापमान वृद्धि की ओर बढ़ रहा है, जो वर्ष 2015 के पेरिस समझौते के लक्ष्यों से अधिक है।

टेक्सास का उदाहरण: 

  • हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका का टेक्सास राज्य कड़ाके की ठंड और तेज़ वायुवीय तूफान की चपेट में आ गया है।
    • इस विंटर स्टॉर्म के कारण 21 लोगों की मृत्यु हो गई और लगभग 4.4 मिलियन लोगों को  विद्युत आपूर्ति नहीं की जा सकी।
  • इस दौरान संयुक्त राज्य अमेरिका के एक बड़े भाग में कड़ाके की ठंड देखने को मिली है, इसने COVID-19 टीकाकरण केंद्रों को भी प्रभावित किया है जिससे वैक्सीन की आपूर्ति बाधित हुई है।
  • दहाई के आँकड़ों तक पहुँच चुके इस नकारात्मक तापमान (तापमान -14 डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया है) को आर्कटिक-प्रायद्वीप के तापमान में हो रही वृद्धि से जोड़कर देखा जा रहा है।
    • आमतौर पर आर्कटिक के चारों ओर उपस्थित हवाएँ, जिन्हें ध्रुवीय भंवर/पोलर वोर्टेक्स (Polar Vortex) के नाम से जाना जाता है, इस प्रकार की ठंड को सुदूर उत्तर तक ही सीमित रखती हैं।
    • परंतु ग्लोबल वार्मिंग ने इन हवाओं के सुरक्षात्मक घेरे में अंतराल पैदा कर दिया है, जो ठंडी हवाओं को दक्षिण की ओर बहने में सक्षम बनाता है और ऐसी घटनाओं में तेज़ी देखी जा रही है।

भारत और जलवायु परिवर्तन: 

  • सबसे बड़े उत्सर्जकों में से एक: गौरतलब है कि चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक है, अतः इसके लिये अत्यधिक प्रदूषणकारी कोयला और पेट्रोलियम जैसे इंधनों को स्वच्छ तथा नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों से स्थानांतरित करने हेतु एक निर्णायक बदलाव लाने की आवश्यकता है।
    • चीन ने वर्ष 2060 तक कार्बन तटस्थता बनने की घोषणा की है, जबकि जापान और दक्षिण कोरिया ने वर्ष 2050 तक इस लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रतिबद्धता व्यक्त की है, परंतु भारत अभी तक इस संदर्भ में कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं कर पाया है।
  • वैश्विक रैंकिंग और अनुमान: एचएसबीसी (वर्ष 2018) द्वारा जलवायु सुभेद्यता के मामले में भारत को 67 देशों में शीर्ष पर रखा गया है।
    • जर्मनवाच (वर्ष 2020) द्वारा जलवायु जोखिम के मामले में भारत को 181 देशों में पाँचवें स्थान पर रखा गया है।
    • विश्व बैंक ने चेतावनी दी है कि जलवायु परिवर्तन दक्षिण एशिया में 800 मिलियन लोगों के लिये रहने की स्थिति को तेज़ी से प्रभावित कर सकता है।
    • उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट (Emission Gap Report) 2020’  के अनुसार चीन, अमेरिका, ईयू समूह के देश, यूके और भारत ने पिछले एक दशक में हुए कुल जीएचजी उत्सर्जन में संयुक्त रूप से 55% का योगदान दिया है।

चुनौतियाँ और संबंधित मुद्दे: 

  • एक कठोर नीति का अभाव: एक बड़ी चिंता का विषय यह है कि वर्तमान में राज्य और केंद्र सरकारें जलविद्युत तथा सड़क परियोजनाओं के लिये जलवायु सुरक्षा उपायों एवं इससे जुड़े नियमों को सख्त करने की बजाय इन्हें और आसान बना रही हैं।
    • कई अध्ययनों में हिमालय क्षेत्र में तेज़ी से पिघल रहे हिमनदों के जोखिम को रेखांकित किया गया है जो इसके जलग्रहण क्षेत्र में रह रही आबादी के लिये खतरों को बढ़ता है परंतु इस दिशा में किसी भी मज़बूत और तीव्र नीतिगत प्रतिक्रिया का अभाव दिखाई देता है।
  • उचित प्रशिक्षण कार्यक्रमों का अभाव: हाल ही में उत्तराखंड में आई बाढ़ के मामले में सरकार द्वारा आपदा प्रबंधन के बारे में लोगों के लिये किसी जागरूकता या प्रशिक्षण कार्यक्रम की व्यवस्था नहीं की गई थी।
  • सरकार की लापरवाही: वर्ष 2012 में सरकार द्वारा नियुक्त एक विशेषज्ञ समूह ने ऋषि गंगा और अलकनंदा-भागीरथी बेसिन में बाँधों के निर्माण का विरोध किया गया था, परंतु सरकार द्वारा इस सिफारिश की अनदेखी की गई।  
    • इसी तरह केरल सरकार द्वारा पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में खनन, उत्खनन और बाँध निर्माण के विनियमन के मामलों की अनदेखी वर्ष 2018 और वर्ष 2019 में बड़े पैमाने पर बाढ़ तथा भूस्खलन का कारण बनी।
  • अप्रभावी उपग्रह निगरानी: संपूर्ण हिमालयी क्षेत्र (या किसी भी बड़े आपदा-प्रवण क्षेत्र) की भौतिक रूप से निगरानी करना संभव नहीं है। हालाँकि उपग्रह निगरानी संभव है और यह नुकसान को कम करने में सहायता कर सकती है।
    • व्यापक उपग्रह क्षमताओं के बावजूद भारत अभी भी अग्रिम चेतावनी के लिये ऐसी तकनीकों का प्रभावी रूप से उपयोग नहीं कर पाया है।

आगे की राह:  

  • बजट आवंटन: इन चुनौतियों से निपटने के लिये एक महत्त्वपूर्ण कदम यह होगा कि सरकार के बजट में शिक्षा, स्वास्थ्य, ऊर्जा और सड़क जैसे मुद्दों के साथ जलवायु शमन की नीतियों को भी प्रमुखता से शामिल किया जाए।
    • विशेष रूप से विकास लक्ष्यों में स्वच्छ ऊर्जा विकल्पों की ओर स्थानांतरण की समयसीमा को शामिल किया जाना चाहिये। साथ ही जलवायु वित्त जुटाने के लिये एक प्रमुख अभियान शुरू करने की भी आवश्यकता है।
  • जलवायु अनुकूलन: यहाँ तक ​​कि यदि विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाएँ जलवायु शमन को गति देती हैं, तो भी वातावरण में संचित कार्बन उत्सर्जन के कारण ऐसी तबाहियों  की आवृत्ति में वृद्धि होगी। ऐसे में जलवायु अनुकूलन ही सर्वोत्तम विकल्प है: 
    • आपदा प्रबंधन रणनीतियों को विकासात्मक डिज़ाइनिंग जैसी विकासात्मक योजनाओं के साथ समन्वित किया जाना चाहिये।
      • जैसे कि भूकंप प्रवण क्षेत्रों में उपयुक्त भवन निर्माण मानदंड और दिशा-निर्देश जारी किये जा सकते हैं या भूकंप प्रतिरोधी भवनों का निर्माण किया जा सकता है।
    • भारत की केंद्र और राज्य सरकारों को जोखिम में कमी के लिये वित्तीय आवंटन में वृद्धि करनी चाहिये, जैसे कि सूखे का सामना करने हेतु कृषि नवाचारों को प्रोत्साहन।
    • अग्नि प्रवण क्षेत्रों के मामले में एक क्षेत्र को कई पॉकेट में विभाजित किया जा सकता है, ताकि आग के व्यापक स्तर पर फैलाव को रोका जा सके।  
  • विस्तृत अध्ययन: यह समझने के लिये विस्तृत अध्ययन किया जाना चाहिये कि हिमालय क्षेत्र की कौन-सी हिमनद झीलों को बाढ़ का खतरा है।
    • इस तरह के अनुसंधान को पर्यावरणीय प्रभाव आकलन रिपोर्ट में शामिल किया जाना चाहिये और क्षेत्र में विकास संबंधी परियोजनाओं पर निर्णय लेने की प्रक्रिया के मार्गदर्शन में इनका  उपयोग किया जाना चाहिये।
  • प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली स्थापित करना: इस संदर्भ में एक प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली की स्थापना करना आसान परंतु अत्यंत प्रभावी विकल्प होगा जो अनुप्रवाह की दिशा में रह रही आबादी को आसन्न आपदा के बारे में सचेत कर सकती है।
    • इसे स्थानीय समुदायों को शीघ्र ही सुरक्षित क्षेत्रों में ले जाने की योजना के साथ जोड़ा जाना है।
    • बाढ़ की घटनाएँ अचानक नहीं होती हैं; पानी के स्तर में बदलाव, नदियों में डिस्चार्ज आदि जैसे पर्याप्त ऐसे संकेत हैं, जिनकी यदि पहले से निगरानी की जाए तो ये जन-धन की व्यापक क्षति को रोकने में सहायता कर सकते हैं।

निष्कर्ष: 

सतत् विकास समय पर लागू की गई जलवायु कार्रवाई पर निर्भर करता है और ऐसा होने के लिये नीति निर्धारण के दौरान कार्बन उत्सर्जन, वायुमंडलीय तापमान में वृद्धि, हिमनदों के पिघलने, अत्यधिक बाढ़ और तूफान के बीच के बिंदुओ को जोड़कर देखने की आवश्यकता है।

  • उत्तराखंड और टेक्सास जैसी घटनाओं को लोगों की विचारधारा को बदलने और जनता द्वारा तत्काल कार्रवाई की मांग के लिये एक सबक के रूप में देखा जाना चाहिये।
  • आपदाओं को रोका नहीं जा सकता है परंतु अच्छी तरह से की गई तैयारियों और मज़बूत जलवायु परिवर्तन शमन नीतियों के माध्यम से निश्चित रूप से इनसे होने वाले भारी नुकसान को कम किया जा सकता है।

अभ्यास प्रश्न:  प्राकृतिक आपदाएँ केवल मौसम संबंधी या भौगोलिक घटनाएँ नहीं हैं, बल्कि मानव हस्तक्षेप भी इनकी गंभीरता और आवृत्ति को निर्धारित करने वाले प्रमुख कारकों में शामिल होते हैं। टिप्पणी कीजिये।

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